निर्भया सामूहिक बलात्कार: एक केस स्टडी

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Indian Penal Code
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यह लेख किरीत पी मेहता स्कूल ऑफ लॉ, एन.एम.आई.एम.एस. के छात्र  Abhay और पंजाब के राजीव गांधी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के छात्र Suprateek Neogi ने लिखा है। इस पोस्ट को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के फैकल्टी ऑफ लॉ की Richa Singh  ने अपडेट किया है। यह एक विस्तृत (एग्जास्टिव) लेख है जो निर्भया फैसले से जुड़े विभिन्न पहलुओं से संबंधित है, जो एक ऐसी घटना है जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

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परिचय

हमारे देश में महिलाओं के खिलाफ होने वाले सभी अपराधों में लगभग 12% अपराध बलात्कार के रूप मे सामने आते है। भारत में रिपोर्ट किए गए बलात्कार के मामलों की औसत दर (एवरेज रेट) प्रति 100,000 जनसंख्या पर लगभग 6.3 है। लेकिन बलात्कार के मामलों के बारे में सबसे बड़ी समस्या यह है कि यौन (सेक्शुअल) हिंसा के लगभग 99% मामले दर्ज ही नहीं होते हैं, जिससे हमारे देश में बलात्कार के मामलों की वास्तविक संख्या का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल हो जाता है। ये आँकड़े एक महिला के लिए ऐसे माहौल में रहना भयानक बना देते हैं जहाँ वह अपनी इच्छा से सांस भी नहीं ले सकती है।

भारत में रिपोर्ट किए गए मामलों की संख्या में पिछले कुछ वर्षों में भारी उछाल देखा गया है, जिसका मुख्य कारण निर्भया बलात्कार कांड से उत्पन्न हुआ आक्रोश (आउटरेज) है।

आइए देखें कि इस मामले ने देश के लिए क्या झटका दिया है और इसने महिलाओं के लिए प्रगतिशील (प्रोग्रेसिव) कानूनों को विकसित करने में कैसे मदद की है और ‘निर्भया’ को न्याय दिलाने में हमारी न्यायपालिका द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका क्या रही है।

मामले के तथ्य

इस मामले में दिल्ली में, 2012 में हुई एक हत्या और बलात्कार की घटना में 16 दिसंबर 2012 को हुआ एक बलात्कार और हिंसक हमला शामिल था।

दिल्ली में दिसंबर की एक रात में, निर्भया और उसका दोस्त एक सिनेमाघर से लौट रहे थे, वे एक बस का इंतजार कर रहे थे। संभावित अपराधियों में से एक ने उन्हें रंगी हुई खिड़कियों वाली एक खाली बस में बैठने के लिए मना लिया। बस में चालक समेत छह पुरुष सवार थे, जिसमें से एक 17 साल की उम्र का नाबालिग था, इन सभी ने महिला के साथ बलात्कार किया और जब निर्भया के दोस्त ने उस को बचाने की कोशिश की तो अपराधियों ने उसको भी बुरी तरह मार कर घायल कर दिया। निर्भया का सिर्फ यौन शोषण नहीं किया गया था बल्कि उसके शरीर को मानव कल्पना से परे क्षत-विक्षत (म्यूटिलेट) कर दिया गया था। उसकी आंतों को बाहर निकाल दिया गया था, और निजी अंगों को क्षत-विक्षत कर दिया गया था। 

हमले के 11 दिन बाद निर्भया को आपातकालीन (इमर्जेंसी) चिकित्सा देखभाल के लिए सिंगापुर के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था। दुर्भाग्य से, दो दिनों के उपचार के बाद, 29 दिसंबर को मल्टीपल ऑर्गन फेलियर, आंतरिक रक्तस्राव (इंटरनल ब्लीडिंग) और कार्डियक अरेस्ट के कारण उसकी मृत्यु हो गई। इस घटना ने दुनिया भर में व्यापक ध्यान आकर्षित किया और भारत के साथ-साथ विदेशों में भी इसकी कड़ी निंदा की गई थी।

“निर्भया”, घटना के बलात्कार पीड़िता के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला छद्म (सुडोननिम) नाम है। चूंकि भारतीय कानून, प्रेस को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 228 A (C) के अनुसार बलात्कार पीड़िता के नाम का खुलासा करने की अनुमति नहीं देता है, इसलिए इस मामले में पीड़िता को आमतौर पर निर्भया के रूप में पहचाना गया, जो “निडर” का संकेत देता है और बलात्कार के खिलाफ महिलाओं का प्रदर्शन, उसकी लड़ाई और मृत्यु का प्रतिनिधित्व बन गया है। हालांकि, 16 दिसंबर 2015 को एक प्रदर्शन के दिन, पीड़िता की मां ने कहा कि पीड़िता का नाम ज्योति सिंह था, और वह अपनी बेटी की पहचान का खुलासा करने में शर्मिंदा नहीं थी।

बलात्कार

बलात्कार अर्थात रेप शब्द लैटिन शब्द “रेपियो” से निकला है, जिसका अर्थ है ‘जब्त करना’। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 में “बलात्कार” को परिभाषित किया गया है।

एक व्यक्ति पर निम्नलिखित परिस्थितियों में “बलात्कार” करने का आरोप लगाया जा सकता है:

  • यदि वह अपने लिंग (पेनिस) को किसी महिला की योनि (वजाइना), मुंह, मूत्रमार्ग (युरेथ्रा) या गुदा (एनस) में प्रवेश करता है या वह उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करवाता है।
  • यदि वह किसी महिला की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में लिंग के अलावा कुछ भी वस्तु या शरीर का कोई हिस्सा डालता है या यदि वह उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करवाता है।
  • यदि वह किसी महिला के शरीर के किसी अंग में हेरफेर करता है ताकि वह महिला की योनि, मूत्रमार्ग, गुदा या शरीर के किसी भी हिस्से में प्रवेश कर सके या वह उससे या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करवाता है।
  • यदि वह अपना मुंह किसी महिला की योनि, गुदा, मूत्रमार्ग पर लगाता है या वह उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करवाता है, दिए गए सात विवरणों के तहत:
  1. जब यह उसकी मर्जी के खिलाफ है।
  2. यह उसकी सहमति के बिना किया जाता है।
  3. यह उसकी सहमति से किया जाता है, लेकिन ऐसी सहमति उसे या किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसमें वह रुचि रखती है या जिसके बारे में वह चिंतित है, की मृत्यु या चोट या किसी और चीज के डर में डालकर प्राप्त की गई है।
  4. उसकी सहमति से, जब पुरुष जानता है कि वह उसका पति नहीं है और उसकी सहमति दी गई है क्योंकि वह मानती है कि वह उसका पति है जिससे वह कानूनी रूप से विवाहित है।
  5. उसकी सहमति से जब वह स्वस्थ दिमाग की नहीं थी या नशे की स्थिति में या बलात्कार करने वाले व्यक्ति द्वारा या किसी अन्य के माध्यम से किसी हानिकारक पदार्थ का सेवन करती है जिसके कारण वह उस कार्य के चरित्र या परिणामों को समझने में असमर्थ है जिसके लिए वह उसकी सहमति प्रदान करता है।
  6. उसकी सहमति से या उसके बिना, जब उसने वयस्कता (मेजॉरिटी) प्राप्त नहीं की है या अठारह वर्ष से कम आयु की है।
  7. जब वह कार्य के लिए अपनी सहमति देने की स्थिति में नहीं है।

“योनि” में लेबिया मेजोरा शामिल है (लेबिया मेजोरा त्वचा के गोलाकार सिलवटों की एक जोड़ी है जो महिला की बाहरी जननांग का हिस्सा हैं)। सहमति एक स्वैच्छिक (वॉलंटरी) समझौते का सुझाव देती है। एक बार जब महिला शब्दों, इशारों या अन्य प्रकार के मौखिक या मौखिक संचार (कम्युनिकेशन) के अलावा किसी भी चीज से, विशिष्ट यौन क्रिया में भाग लेने की अपनी इच्छा का संचार करती है, बशर्ते यह कि एक महिला जो प्रवेश के कार्य का विरोध नहीं करती है, इसे केवल इस कारण से वास्तव में यह नहीं माना जाएगा की उसने यौन कार्य के लिए अपनी इच्छा से सहमति दी है।

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि एक चिकित्सा प्रक्रिया बलात्कार का गठन (कांस्टीट्यूट) नहीं करेगी। एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध, जिसकी उम्र पंद्रह वर्ष से कम है, वह भी बलात्कार है, भले ही यह उसकी सहमति से किया गया हो।

बलात्कार के प्रभाव

बलात्कार के प्रभावों में शारीरिक आघात (ट्रॉमा) के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक तनाव दोनों शामिल हो सकते हैं। बलात्कार के बाद महिलाएं अक्सर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं और प्रजनन (रिप्रोडक्टिव) समस्याओं से पीड़ित होती हैं और बलात्कार खत्म होने के बाद भी मानसिक अस्थिरता (इंस्टेबिलिटी) बनी रहती है। अगर किसी महिला के साथ बलात्कार होता है तो यह वास्तव में एक अभिशाप है।

कुछ महिलाएं इसकी शिकायत भी नहीं करती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उनके और उनके परिवार के लिए भी शर्मनाक है। उन्हें डर होता है कि उनके साथ जो हुआ उसके लिए अगर उन्हें दोषी ठहराया गया तो इसके परिणाम क्या होंगे। यह उनके जीवन को बर्बाद कर देता है और उन्हें जीवन भर बेचैन कर देता है।

यह उन्हें हमारे देश की व्यवस्था के काम करने में रुचि खो देने पर मजबूर करता है और वे न्याय प्राप्त करने के बारे में सोचती भी नहीं हैं क्योंकि यह उनके लिए सिर्फ एक शब्द बन जाता है।

बलात्कार सामाजिक समस्याओं में से एक है और पीड़ित शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक परिणामों और कई अन्य आघातों से पीड़ित होती हैं जो उनके जीवन को बर्बाद कर देते हैं।

सामाजिक प्रतिक्रिया (रिएक्शन)

इस भीषण घटना को लेकर काफी सामाजिक आक्रोश उत्पन्न हुआ था। बहुत सारे कैंडल लाइट मार्च, एकजुटता (सॉलिडेरिटी) आंदोलन और विरोध प्रदर्शन हुए थे। भारत हमेशा महिलाओं के लिए असुरक्षित होने के लिए कुख्यात (नोटोरियस) रहा है, और यही वह चिंगारी थी जिसने सार्वजनिक आक्रोश की आग को और प्रज्वलित किया था। यह आक्रोश केवल भारत तक ही सीमित नहीं था, भारत के बारे में पूरी दुनिया ने एक राय बना ली थी। “इंडियाज डॉटर” नामक एक ब्रिटिश वृत्तचित्र (डॉक्यूमेंट्री) को केंद्र सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था क्योंकि इसमें भारत को बहुत ही अपमानजनक और खराब स्थिती में चित्रित किया गया था।

सबसे ज्यादा नाराजगी सोशल मीडिया पर छाई थी। समकालीन (कंटेंपरेरी) समय में, प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) तक आसानी से पहुंच के साथ, सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाएं अक्सर देश में मनोदशा और स्थिति को दर्शाती हैं। हैशटैग जैसे की # गैंग रेप, # ज्योति सिंह # निर्भया इत्यादि विभिन्न वेबसाइटों पर “ट्रेंडिंग” बन गए थे। अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ (ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वूमेन एसोसिएशन) (ए.आई.पी.डब्ल्यू.ए.) जैसे संगठनों ने भी अपनी पहचान बनाई। इसके सचिव ट्विटर पर महिलाओं के अधिकारों के लिए प्रमुख आवाज़ों में से एक बन गए थे।

नारीवादी (फेमिनिस्ट) और महिला आंदोलनों ने गति और प्रोत्साहन प्राप्त किया था। दोषियों को मिसाल बनाया गया और उनकी निंदा की गई थी। न केवल सामाजिक, बल्कि घटना के कानूनी नतीजे भी थे। यू.पी.ए. सरकार पर, बलात्कार और जघन्य (हीनियस) अपराध करने वाले किशोरों (जुवेनाइल) से निपटने के संबंध में सख्त कानून बनाने के लिए दबाव डाला जा रहा था।

विभिन्न राज्यों में विरोध के परिणाम

  • केंद्र और विभिन्न राज्यों की सरकारों के द्वारा देश में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कई प्रगतिशील कदमों की घोषणा की गई थी।
  • कर्नाटक सरकार के द्वारा महिलाओं को किसी भी प्रकार के यौन शोषण के खिलाफ शिकायत दर्ज करने में मदद करने के लिए 24/7 समर्पित (डेडीकेटेड) हेल्पलाइन (1091) शुरू करने की घोषणा की गई थी।
  • लंबित (पेंडिंग) मामलों को शीघ्रता से निपटाने के लिए और पीड़ितों को तत्काल कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना की गई थी।
  • तमिलनाडु की सरकार के द्वारा भी तमिलनाडु में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए 13 सूत्री कार्य योजना (पॉइंट एक्शन प्लैन) की घोषणा की गई थी।
  • जम्मू और कश्मीर की सरकार के द्वारा यौन अपराधों के खिलाफ राज्य के कानूनों में संशोधन करने की योजना की घोषणा की गई थी क्योंकि इन दिनों महिलाओं के खिलाफ अपराध का स्तर उन्नत (अपग्रेड) हो चुका है।
  • हिमाचल प्रदेश की सरकार ने राज्य में महिलाओं के खिलाफ होने वाले हमलों की जांच के लिए राज्य और जिला स्तरीय समितियों के गठन का फैसला किया है।

निचली अदालत में की गई कार्यवाही

अभियोजन पक्ष (प्रॉसिक्यूशन) ने दलील दी थी कि दोषियों द्वारा किए गए अपराध को देखते हुए वे मौत की सजा के पात्र हैं। हालांकि, दोषी के वकील ने बड़े पैमाने पर बहस की और कुछ मुद्दों को उठाया जिन पर सजा सुनाते समय विचार करने की आवश्यकता है।

यह मुद्दे इस प्रकार हैं:

  • दोषियों की उम्र कम है।
  • दोषियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे गरीब थे और उनको अपने परिवार का साथ देना है;
  • उन्होंने इतिहास मे पहले ऐसा कोइ अपराध नही किया है और इसलिए उन्हे सुधार का मौका देना चाहिए;
  • उनके फायदे के लिए उनकी बेगुनाही का अनुमान लगाना चाहिए;
  • आजीवन कारावास एक आदर्श है और मृत्यु एक अपवाद है, इसलिए इस मामले में मौत की सजा देने के लिए कोई विशेष मानदंड (क्राइटेरिया) नहीं है;
  • उन्हें केवल साजिश के आधार पर दोषी ठहराया जाना चाहिए, न कि उनके संबंधित कार्यों के कारण;
  • घटना के वक्त मुकेश और पवन नशे में थे और यह भी की मुकेश पूरे रास्ते बस चला रहा था।

मौत की सजा देने के लिए, अदालत को पहले परिस्थितियों को कम करने वाली परिस्थितियों पर विचार करना चाहिए और जहां कोई कम करने वाली परिस्थितियां नहीं हैं, अदालत को यह निर्धारित करने के लिए दुर्लभतम परीक्षण (रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर टेस्ट) लागू करना चाहिए कि मामला उस श्रेणी में आता है या नहीं।

निर्णय देते समय जिन मामलों पर ध्यान दिया गया था

  • बचन सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि घोर भ्रष्टता ने मौत की सजा के लिए एक वैध और विशेष कारण प्रदान किया है। बहुत अधिक अमानवीय या पशुवत तरीके से हत्या करने के कार्य ने अपराधी के भ्रष्ट स्वभाव के एक स्थापित संकेतक (इंडिकेटर) के रूप में कार्य किया है। इसके अलावा, दो अलग-अलग निर्विवाद (वाटरटाइट) स्थानों में अपराध की परिस्थितियों और अपराधी की परिस्थितियों को स्वीकार करना उचित नहीं है। जब एक हत्या में बहुत अधिक भ्रष्टता शामिल होती है, तो यह मृत्युदंड लगाने के लिए एक गंभीर मामला होता है।
  • मछी सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब के मामले में, अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि मानवतावादी संरचना (ह्यूमैनिस्टिक एडिफिस) “जीवन के प्रति सम्मान” की अवधारणा (कांसेप्ट) का आधार है। यदि एक समुदाय (कम्युनिटी) का कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की हत्या करके इस सिद्धांत का उल्लंघन करता है, तो वह समुदाय दांव पर लग जाता है। यह कार्रवाई समाज को खतरे में डाल देती है। मृत्युदंड केवल दुर्लभतम मामलों में ही दिया जा सकता है। यदि सामूहिक अंतरात्मा (कॉनसाइंस) मामले से इतना स्तब्ध (शॉक) हो जाती है कि वह समुदाय न्यायपालिका के धारकों के व्यक्तिपरक दृष्टिकोण (सब्जेक्टिव व्यू), कि आरोपियों के लिए मृत्युदंड को बनाए रखना फायदेमंद है या नहीं, की परवाह किए बिना,  चाहता है की उनके द्वारा मृत्युदंड को लागू किया जाना चाहिए। मौत की सजा तब दी जानी चाहिए, जब हत्या बहुत अधिक बर्बर, घृणित, शैतानी, विद्रोही (रिवॉल्टिंग), या हास्यास्पद (लुडिक्रोअस) तरीके से समुदाय के संगीन (सीरियस) और गंभीर आक्रोश को भड़काने के लिए की जाती है और जब पीड़ित की हत्या करने के लिए उस को दुर्व्यवहार या क्रूरता के भयानक कार्यों के अधीन किया जाता है, तब यह सजा दी जानी चाहिए।
  • देवेंद्र पाल सिंह बनाम स्टेट (दिल्ली की एन.सी.टी.) के मामले में, न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि यदि समुदाय की सामूहिक अंतरात्मा इतनी हैरान हो जाती है, तो अदालत को आरोपी को मौत की सजा ही देनी चाहिए।
  • राम सिंह बनाम सोनिया और अन्य के मामले में, न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि जहां अपराध सबसे विचित्र और विद्रोही रूप से किया गया है, उस मामले में मृत्युदंड न देना, न्याय प्रणाली के लिए एक बहुत बड़ी विफलता होगी। 
  • सी मुन्नियप्पन बनाम स्टेट ऑफ़ तमिलनाडु के मामले में, अदालत द्वारा यह माना गया था कि मृत्युदंड उसी तरह से दिया जाना चाहिए जिस तरह से अपराध किया गया है। यदि यह बहुत क्रूर, शैतानी, विचित्र और समाज की सामूहिक अंतरात्मा को स्तब्ध करने के तरीके से किया गया है, तो उस मामले में मृत्युदंड का प्रावधान किया जाना चाहिए।
  • अजीत सिंह हरनाम सिंह गुजराल बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र के मामले में, न्यायालय ने यह माना था कि सामान्य हत्याओं और विचित्र, भयानक हत्याओं के बीच अंतर करने की आवश्यकता है। हालांकि पूर्व में आजीवन कारावास की सजा प्रदान की जानी चाहिए, लेकिन बाद वाले मामले दुर्लभतम मामलों की श्रेणी में आते है, और इसलिए मृत्युदंड दिया जाना चाहिए।
  • सुंदर बनाम स्टेट के मामले में, यह माना गया था कि गंभीर कारकों में निम्नलिखित मामले शामिल होते हैं – यदि आरोपी को दो जघन्य अपराधों का दोषी पाया गया था, जो एक दूसरे से स्वतंत्र हैं, यादि दोनों पक्षों के बीच कोई पूर्व दुश्मनी नहीं है, कोई चरम और अचानक उत्तेजना (प्रोवोकेशन) नहीं थी जिसके कारण आरोपी को किसी व्यक्ति का जीवन लेने के लिए मजबूर किया गया था; या कोई गंभीर मानसिक विकृति (परवर्शन) नहीं थी तो ऐसे मामले में मृत्युदंड प्रदान किया जाना चाहिए, साथ ही मृत्यदंड देने के लिए अपराध की क्रूरता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

दोषी के वकील द्वारा उठाए गए मुद्दों को ध्यान में रखते हुऐ न्यायालय ने यह कहा कि, सब को यह पता होना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार माना था कि आरोपी की कम उम्र मौत की सजा के खिलाफ एक निर्धारित कारक (डिटरमाइनिंग फैक्टर) नहीं है। इसके बजाय, सभी शर्तों को एक साथ ध्यान में लाया जाना चाहिए, और प्रत्येक स्थिति को उचित रूप से समझना आवश्यक है।

इस मुद्दे के बावजूद भी, सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से माना कि दोषी की कम उम्र के बावजूद भी उसे मौत की सजा दी जा सकती है। यह, मोहम्मद अजमल कसाब बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र और अतबीर बनाम स्टेट (एन.सी.टी. दिल्ली) के मामले में भी देखा जा सकता है।

दोषी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति या यह कहना कि अपराध नशे की हालत में किया गया था, यह मुद्दे सजा में निर्णायक मानदंड नहीं हो सकते क्योंकि यह स्टेट ऑफ़ कर्नाटक बनाम कृष्णप्पा के मामले में आयोजित (हेल्ड) किया गया था। बलात्कार के संदर्भ में दंड का मापन दोषियों या आरोपियों की सामाजिक स्थिति के आधार पर नहीं किया जा सकता है।

इसे मुख्य रूप से आरोपी के व्यवहार, यौन रूप से पीड़ित हुई महिला की स्थिति और उम्र और अपराध की गंभीरता पर निर्भर करता है। कम उम्र की मासूम कमजोर लड़कियों के खिलाफ बलात्कार के भयानक कार्य के मामलों में, अदालत को न्याय प्रदान करने के लिए समाज की जोरदार पुकार को पहचानना चाहिए, और उचित सजा देकर मामले में प्रतिक्रिया देनी चाहिए।

अपराध के सार्वजनिक घृणा में, आरोपियों को उचित सजा प्रदान करने के लिए न्यायालय में आवेदन द्वारा चिंतन शामिल है। ऐसे घिनौने कार्यों पर दया करना न्याय का उल्लंघन होगा और उदारता (लिनिएंसी) की अपील पूरी तरह से गलत स्थिति में होगी।

अंत में, दोषी मुकेश की दलील थी कि बस के अंदर मौजूद होने की बात को स्वीकार कर उसने अन्य आरोपियों के कार्य करने में मदद की थी। इसे पथभ्रष्ट करुणा (मिसगाइज्ड कंपैशन) की तलाश के रूप में देखा गया था, क्योंकि उसने सी.आर.पी.सी. की धारा 313 के तहत अपनी घोषणा में यह विरोधाभासी रुख अपनाया था, जो कि उनके खिलाफ पहले से ही साबित हो चुकी घटनाओं के अनुक्रम (सीक्वेंस) के बाद खुद को बचाने के लिए था।

न्यायालय ने गुरवेल सिंह और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब के मामले पर भी ध्यान दिया, जहां यह माना गया था कि मृत्युदंड प्रदान करने के लिए, गंभीर परिस्थितियों (अपराध परीक्षण) को पूरी तरह से पूर्ण किया जाना चाहिए और आरोपी के पक्ष में कोई कम करने वाली परिस्थिति (आपराधिक परीक्षण) मौजूद नहीं होनी चाहिए। यदि आरोपी के विरुद्ध सभी आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है, तो न्यायालय अंत में दुर्लभ मामलों के दुर्लभतम परीक्षण को लागू करेगा, जो जनता की व्याख्या (इंटरप्रेटेशन) पर निर्भर करता है।

परीक्षण को लागू करने के लिए, न्यायालय को कई कारकों की जांच करनी चाहिए, जैसे आरोपी के प्रति समाज की घृणा, कुछ प्रकार के अपराधों के प्रति बहुत अधिक आक्रोश और प्रतिशोध (एंटीपैथी) पर भी ध्यान देना चाहिए, जैसे कि नाबालिग लड़कियों का बलात्कार और हत्या, और अदालत के द्वारा दी गई मौत की सजा, क्योंकि परिस्थितियों की मांग यह है कि न्यायिक दायित्व में लोगों की इच्छा को दर्शाया जाना चाहिए।

मामले को गंभीर और कम करने वाली परिस्थितियां

वर्तमान मामले में, गंभीर परिस्थितियाँ यह थीं कि अपराध बहुत ही बर्बर, घृणित, शैतानी, और लोगों को चौका देने वाले तरीके से किया गया था और इसलिए यह समाज में संगीन और गंभीर आक्रोश को भड़काने के लिए निर्दयी तरीके से किया गया था। आरोपियों के कार्यों में असाधारण भ्रष्टता और बहुत अधिक क्रूरता भी देखने को मिली थी।

निर्भया की मृत्यु से पहले, अभियोजक पक्ष पर बहुत अधिक दुख आ गया था और इस घटना का, सामाजिक व्यवस्था पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ा था। वर्तमान मामले में, कम करने वाली परिस्थितियाँ वे मुद्दे थे जिन्हें दोषियों के वकील ने उनके पक्ष में उठाया था। लेकिन तब भी, गंभीर परिस्थितियाँ, मामले को कम करने वाले कारकों पर भारी पड़ी थी।

दुर्लभतम परीक्षण (रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर टेस्ट)

सबूत से पता चलता है कि बार-बार रॉड और हाथ डालने के कारण पीड़िता की पूरी आंत छिद्रित (परफोरेटेड), छिल गई और बाहर आ चुकी थी। दोषियों ने अपने हाथों और रॉड से भी पीड़ित के आंतरिक (इंटर्नल) अंगों को सबसे बर्बर तरीके से बाहर निकाला जिसके कारण पीड़िता को गंभीर चोटें आईं थी। इसलिए इस तरह की गंभीर मनोवैज्ञानिक विकृति, मानव क्षमा के योग्य नहीं है।

जैसे कि एक अपराधी ने पीड़ितों को उनके झांसे में फंसाने के लिए बस में ले लिया था, उन्होंने अभियोक्ता के साथ पहले क्रूरतापूर्वक बलात्कार किया, बर्बर तरीके से हिंसा की और फिर रक्षाहीन पीड़ितों को तेज गति से चल रही बस से नग्न अवस्था में, कड़ाके की ठंड की रात में बाहर फेंक दिया था, जब उन दोनों के शरीर से खून बह रहा था। उनका यह अपराध बिना किसी के उकसाने के किया गया था और उनके दिमाग की असाधारण भ्रष्टता को दिखा दिया था।

पीड़िता के पूरे शरीर पर काटने के निशान, उन दोषियों के क्रूर व्यवहार को दर्शाते हैं। पीड़िता की आंतें इतनी बुरी तरह क्षतिग्रस्त (डैमेज) हो गई थीं, और अभियोक्ता को होने वाला दर्द अभूतपूर्व (अनप्रिसिडेंट) था। उसके आंतरिक अंगों पर की गई क्रूरता चरम (एक्सट्रीम) थी क्योंकि यह रिकॉर्ड किए गए चिकित्सा साक्ष्य से स्पष्ट था, और इसलिए दोषी के कार्यों को कड़ी सजा देना बहुत आवश्यक था। इन घिनौनी हरकतों ने इस मामले को दुर्लभतम से भी दुर्लभ ममला साबित कर दिया था।

निचली अदालत द्वारा सुनाया गया फैसला

भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दोषियों को मौत की सजा सुनाई गई थी। दोषियों को तब तक गले से लटकाया जाना था जब तक कि उनकी मृत्यु ना हो जाए। आई.पी.सी. की धारा 120B, 365, 366, 376(2)(g), 377, 307, 201, 395, 397 और 412 के अनुसार सजा दी गई थी।

न्यायालय द्वारा यह सलाह दी गई थी कि सी.आर.पी.सी. की धारा 428 के तहत, जहां भी उपयुक्त हो, लाभ प्रदान किया जाना चाहिए। अदालत ने आगे सिफारिश की कि सी.आर.पी.सी. की धारा 357 A के अनुसार अभियोजक के कानूनी उत्तराधिकारी (हायर) को उचित मुआवजा दिया जाना चाहिए। और इसलिए इस आदेश की एक प्रति (कॉपी), दिल्ली कानूनी सेवा प्राधिकरण, नई दिल्ली के सचिव (सेक्रेटरी) को सी.आर.पी.सी. की धारा 357 A में निर्दिष्ट प्रणाली के अनुसार दिए जाने वाले मुआवजे की राशि के निर्धारण के लिए भेजी गई थी।

परिसीमा अधिनियम (लिमिटेशन एक्ट), 1963 की धारा 115 के अनुसार, दोषियों को सूचित किया गया था कि वे 30 दिनों के भीतर सजा पर निर्णय और आदेश के खिलाफ अपील दायर कर सकते हैं। फैसले की सत्यापित (अटेस्टेड) प्रति, सजा पर आदेश, आरोप की प्रति, साक्ष्य, सी.आर.पी.सी. की धारा  313 के अनुसार बयान, प्रदर्शित दस्तावेज, दोषियों को निःशुल्क प्रदान किए जाएंगे।

यह कहा गया था कि मृत्युदंड की पुष्टि होने से पहले प्रदर्शनों को माननीय उच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखा जाना आवश्यक है। आरोपियों को मृत्युदंड देने का संदर्भ, उसी के अनुमोदन (अप्रूवल) के लिए माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय को भेजा गया था। मामले की फ़ाइल को, दिल्ली उच्च न्यायालय नियम के अध्याय 24 भाग B खंड III के नियम 34 के अनुपालन (कंप्लायंस) में संकलित (कंपाइल) किया गया था और इन नियमों के अनुपालन में माननीय उच्च न्यायालय को प्रस्तुत किया गया था।

आरोपियों पर लगाये गए आरोप और संबंधित दंड

मामले को सत्र (सैशन) न्यायालय के समक्ष पेश किए जाने के बाद, सभी आरोपियों पर निम्नलिखित अपराधों का आरोप लगाया गया था। इन अपराधों में शामिल हैं-

  1. आई.पी.सी. की धारा 120 (B) में वर्णित आपराधिक साजिश की सजा – कोई भी व्यक्ति जो आपराधिक साजिश का एक पक्ष है, जिसे किसी अपराध को अंजाम देने की साजिश के रूप में किया जाता है, उसे मौत, आजीवन कारावास या दो साल या उससे अधिक की अवधि के कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा और बिलकुल उसी तरह से दंडित किया जाएगा जैसे कि उसने ही वह अपराध किया हो। कोई भी व्यक्ति जो पहले उल्लिखित (मेंशन) की गई आपराधिक साजिश के अलावा का एक पक्ष है, उसे छह महीने से अधिक की अवधि के कारावास या जुर्माने या शायद दोनों से दंडित किया जा सकता है।
  2. किसी व्यक्ति को गुप्त और अन्यायपूर्ण तरीके से कैद करने के उद्देश्य से व्यपहरण (किडनैप) या अपहरण करना, जैसा कि आई.पी.सी. की धारा 365 में उल्लेख किया गया है – कोई भी व्यक्ति जो किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण गुप्त रूप से, अन्यायपूर्ण और गलत तरीके से करता है तो उसे 7 साल तक की अवधि के कारावास से दंडित किया जाएगा और वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
  3. आई.पी.सी. की धारा 366 में किए गए वर्णन के अनुसार किसी महिला को व्यपहरण, अपहरण या शादी करने के लिए मजबूर करना – कोई भी व्यक्ति जो किसी महिला का व्यपहरण या अपहरण, इस इरादे से करता है कि उसे उसकी इच्छा के बिना किसी भी व्यक्ति के साथ शादी के लिए मजबूर किया जा सकता है या उसकी शादी जबरदस्ती कराई जा सकती है या गैरकानूनी यौन संभोग (सेक्शुअल इंटरकोर्स) करने के लिए उसे मजबूर किया जा सकता है या बहकाया जा सकता है तो एसे में उस व्यक्ति को कारावास से दंडित किया जाएगा जिसकी अवधि 10 साल तक की हो सकती है और उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
  4. धारा 307 के तहत वर्णित हत्या का प्रयास – कोई भी व्यक्ति जो हत्या करने के उद्देश्य से या समझ के साथ कार्य करता है और वह उन स्थितियों के तहत उस कार्य को करने के द्वारा हत्या का दोषी हो सकता है, तो उसे कारावास से दंडित किया जाएगा जिसे दस साल तक की अवधि के लिए बढ़ाया जा सकता है, और वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
  5. जब एक समूह के, एक या एक से अधिक व्यक्ति के द्वारा एक महिला के साथ बलात्कार किया जाता है, जो उनके पारस्परिक (म्यूचुअल) उद्देश्य के समर्थन में किया जाता है, तो उनमें से प्रत्येक व्यक्ति को आई.पी.सी. की धारा 376 (2) (g) में वर्णित सामूहिक बलात्कार के तहत दोषी माना जाएगा और ऐसे दोषियों को दस साल की अवधि के कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जिसे आजीवन कारावास तक के लिए बढ़ाया जा सकता है और साथ ही दोषियों को जुर्माना भी भरना होगा। लेकिन अदालत कुछ स्वीकार्य और सटीक कारणों से दस साल से कम की जेल की सजा भी दे सकती है।
  6. आई.पी.सी. की धारा 396 के तहत वर्णित, हत्या के साथ डकैती का अपराध – जब सामूहिक रूप से डकैती करने वाले पांच या अधिक व्यक्तियों में से कोई भी डकैती करते हुए किसी व्यक्ति की हत्या कर देता है, तो उन व्यक्तियों में से प्रत्येक को मृत्यु या आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी, या शायद एक अवधि के लिए गंभीर रूप से दस साल तक की कैद की सजा दी जाएगा और उनमें से प्रत्येक व्यक्ति जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
  7. आई.पी.सी. की धारा 302 के तहत वर्णित, हत्या के लिए सजा – हत्या का अपराध करने वाले व्यक्ति को मौत या आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी, और वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
  8. आई.पी.सी. की धारा 395 के तहत वर्णित डकैती के लिए सजा – जो कोई भी व्यक्ति डकैती का अपराध करता है, उसे या तो आजीवन कारावास या दस साल तक की कठोर कारावास की सजा दी जाएगी, और वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
  9. मौत या गंभीर चोट पहुंचाने के प्रयास के साथ लूट या डकैती करना, जैसा कि आई.पी.सी. को धारा 397 में वर्णन किया गया है – यदि अपराधी किसी व्यक्ति को गंभीर नुकसान पहुंचाने, मृत्यु या गंभीर चोट पहुंचाने का प्रयास करने के लिए, लूट या डकैती के समय एक घातक हथियार का उपयोग करता है, या करने का प्रयास करता है, तो ऐसे अपराधी को कम से कम सात साल के कारावास से दंडित किया जाएगा।
  10. आई.पी.सी. की धारा 201 के तहत उल्लिखित अपराध के साक्ष्य का विलोपन (डिसैपियर) करना, या अपराधी को प्रतिच्छादित (स्क्रीन) करने के लिए मिथ्या इत्तिला (इनफॉर्मेशन) देना – यह जानना या विश्वास करने का कारण होना कि कोई अपराध किया गया है, एक व्यक्ति कानूनी सजा से अपराधी को प्रतिच्छादित करने के इरादे से उस अपराध को करने के सबूत का विलोपन कर सकता है।  यदि अपराध मृत्यु से दंडनीय है, तो अपराधी को सात साल तक की अवधि के लिए कारावास से दंडित किया जाएगा और वह जुर्माना देने के लिए उत्तरदायी भी हो सकता है। यदि अपराध आजीवन कारावास से दंडनीय है, तो अपराधी को तीन साल की अवधि के लिए कारावास से दंडित किया जाएगा और वह जुर्माना आदि का भुगतान करने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
  11. आई.पी.सी. की धारा 412 के तहत वर्णित डकैती करने में चोरी की गई संपत्ति को अन्यायपूर्ण तरीके से प्राप्त करने का अपराध – जो कोई भी व्यक्ति बेईमानी से किसी भी चोरी की गई संपत्ति को प्राप्त करता है या अपने पास रखता है और मानता है कि संपत्ति वास्तव में डकैती के अपराध को करने के द्वारा पास की गई है, तो उसे आजीवन कारावास या किसी भी एक अवधि के लिए कठोर कारावास की सजा दी जाएगी जिसे दस साल तक बड़ाई जा सकता है, और वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।

निचली अदालत द्वारा दी गई सजा पर उच्च न्यायालय की मंजूरी

13 मार्च 2014 को, दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्टेट थ्रू रेफरेंस बनाम राम सिंह और अन्य के मामले में अपना फैसला सुनाया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने चारों दोषियों की फांसी की सजा को बरकरार रखा था। एक न्यायाधीश की पीठ (बेंच), जिसमे न्यायाधीश रेवा खेत्रपाल और न्यायाधीश प्रतिभा रानी थे, ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा और कहा कि आरोपियों ने जो अपराध किया है वह दुर्लभतम श्रेणी में आता है और उनकी सजा को बरकरार रखा जाना चाहिए। और दोषियों की अपीलो को खारिज कर दिया गया था।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 354 (3) में यह प्रदान किया गया है कि, यदि दोषसिद्धि (कनविक्शन), मृत्युदंड या वैकल्पिक रूप से आजीवन कारावास या वर्षों की अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध से संबंधित है, तो निर्णय में उन आधारों को निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) किया जाना चाहिए जिन पर मृत्युदंड की सजा दी गई थी। 

फैसला सुनाते समय उच्च न्यायालय ने जोर देकर कहा कि बंटू बनाम स्टेट ऑफ़ यू.पी. के मामले में 5 साल की बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या के घृणित और बर्बर कार्य के लिए आरोपी को मौत की सजा दी गई थी, जिसमें उस लड़की की योनि में 33 सेंटी मीटर की एक लकड़ी की छड़ी को सम्मिलित (इंसर्ट) करना शामिल था, ताकि उस अपराध को एक दुर्घटना के रूप में छुपाया जा सके। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि मामला दुर्लभतम से दुर्लभतम मामलों के दायरे में आता है। इस प्रकार मामले के सभी तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करते हुए, उच्च न्यायालय ने सभी चार दोषियों को मौत की सजा का फैसला सुनाया था।

मामले पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने के बाद, न्यायालय ने 2 दोषियों, मुकेश और पवन की फांसी पर रोक लगा दी थी। बाद में, उसने अन्य दो दोषियों की सजा पर भी रोक लगा दी। सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस को पीड़िता की मौत का बयान देने का निर्देश दिया था। सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि वह दोषियों को मौत की सजा देने के सवाल पर एक बार फिर से सुनवाई करेगा।

मुकेश और अन्य बनाम स्टेट (दिल्ली की एन.सी.टी.) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने चार दोषियों के लिए मौत की सजा को बरकरार रखा, और कहा कि यह मामला ‘दुर्लभतम से दुर्लभतम’ के वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) के तहत आता है और किया गया अपराध मानवता के लिए एक झटका था। बाद में दोषियों की पुनर्विचार याचिकाओं (रिव्यू प्ली) को सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा खारिज कर दिया गयाथा। पीड़िता के माता-पिता ने दिल्ली के उच्च न्यायालय से डेथ वारंट जारी करने का अनुरोध किया।

दिल्ली सरकार ने चारों दोषियों के खिलाफ फांसी की सजा के लिए डेथ वारंट जारी करने की भी मांग की थी। दिल्ली  के उच्च न्यायालय ने तिहाड़ अधिकारियों को दोषियों को उनके शेष कानूनी उपायों का लाभ उठाने के लिए एक अधिसूचना (नोटिफिकेशन) भेजने का आदेश दिया था। बाद में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने पवन कुमार गुप्ता के इस दावे को खारिज कर दिया कि अपराध के समय वह किशोर (जुवेनाइल) था।

दिल्ली के उच्च न्यायालय ने पवन कुमार के पिता द्वारा एकमात्र चश्मदीद गवाह के खिलाफ दायर एक शिकायत को खारिज कर दिया था, जो एफ.आई.आर. दर्ज करने की मांग कर रहा था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि चारों दोषियों को 22 जनवरी, 2020 को तिहाड़ जेल में सुबह 7 बजे फांसी दी जानी चाहिए।

याचिकाओं का खेल

1. समीक्षा या पुनर्विचार याचिका (रिव्यू पिटीशन)

न्यायिक भाषा में, ‘समीक्षा (रिव्यू)’ शब्द का तात्पर्य मामले के न्यायिक निर्णय की समीक्षा या उस पर पुनर्विचार करने से है। इस प्रकार, एक गलती को हल करने और घोर अन्याय से बचने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 की धारा 114 के तहत एक समीक्षा खंड (क्लॉज) निर्धारित किया गया था। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 137 के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय किसी भी निर्णय या फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज्ड) है, लेकिन यह अनुच्छेद 145 के अनुसार बनाए गए किसी भी कानून और नियमों के प्रावधानों के अधीन होना चाहिए। भारत में, सर्वोच्च न्यायालय / उच्च न्यायालय के एक बाध्यकारी निर्णय की समीक्षा, समीक्षा याचिका दायर करके की जा सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय, 1966 के नियम, यह निर्दिष्ट करते हैं कि इस याचिका को, अदालत के फैसले की तारीख से तीस दिनों के भीतर दर्ज करना आवश्यक है, फिर इसे उसी बेंच को अग्रेषित (फॉरवर्ड) करना होगा जिसने बिना मौखिक तर्क के फैसले को जारी किया था। सर्वोच्च न्यायालय देश का उच्चतम न्यायालय है, जिसके पास उच्च न्यायालय के फैसलों के साथ-साथ अपने स्वयं के निर्णयों पर भी पुनर्विचार करने का अधिकार है।

यदि किसी विशिष्ट (स्पेसिफिक) मामले का कोई पक्ष मामले के संबंध में कुछ स्पष्ट त्रुटि (एरर) के कारण सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित (अग्रीव) होता है, तो वह कानून द्वारा निर्धारित उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद, फैसले की समीक्षा के लिए याचिका दायर कर सकता है। यह याद रखना आवश्यक है कि शायद उन मामलों में समीक्षा के लिए याचिका एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जहां कोई अपील वांछित (डिजायर्ड) नहीं है या जहां अपील के लिए कोई प्रावधान प्रदान नहीं किया गया है।

अपील के लिए याचिका की परिभाषा ‘निर्णीतानुसरण (स्टेयर डिसाइसिस)’ की अवधारणा के लिए एक अपवाद (एक्सेप्शन) है, क्योंकि अदालतें आमतौर पर एक ठोस तर्क के बिना भी निर्णय को अस्थिर नहीं करती हैं अर्थात यह की निर्णीतानुसरण के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए, अदालतें आम तौर पर एक निर्णय को अस्थिर नहीं कर सकती हैं, यदि यह एक मजबूत मामला नहीं है। 

कुछ और बिंदु जिन पर विचार किया जाना चाहिए वे इस प्रकार हैं:

  • दायर की गई याचिका पर न्यायालय के पास विवेकाधीन शक्ति और अधिकार है लेकिन अपील के लिए विशिष्ट कानूनी आधार भी होते हैं।
  • इस याचिका को दायर करने में सफलता की संभावना बहुत कम होती है क्योंकि यह याचिका उसी पैनल के पास जाती है जिसने पहले मामले की सुनवाई की थी और इस पर फैसला दिया था।

इस मामले में, पुनर्विचार याचिका में याचिकाकर्ता ने यह दलील देने की कोशिश की थी कि वह बस में नहीं था और कहीं और था और उसका इस घटना से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन आवश्यक सबूतों की मौजूदगी ने अदालत को इस याचिका को खारिज कर देने पर मजबूर किया। इस पर आगे विस्तृत में चर्चा की गई है। 

2. उपचारात्मक याचिका (क्यूरेटिव पिटीशन)

  • ‘उपचारात्मक याचिका’ की अवधारणा भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विकसित की गई थी और यह याचिका को इस प्रश्न पर जवाब देने के लिए लाया गया था कि एक समीक्षा याचिका को खारिज करने के बाद, एक पीड़ित व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम फैसले के खिलाफ कोई भी राहत प्राप्त करने के लिए हकदार है या नहीं।
  • उपचारात्मक याचिका किसी व्यक्ति के लिए उपलब्ध अंतिम संवैधानिक उपाय है, जिसकी समीक्षा के अनुरोध को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है। यहां पर यह याद रखना आवश्यक है कि भले ही संविधान मुख्य रूप से सर्वोच्च न्यायालय के समीक्षा प्राधिकरण (अथॉरिटी) के बारे में बोलता है, लेकिन जब यह उपचारात्मक याचिका पर आता है तो यह स्पष्ट नहीं होता है।

रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा और अन्य के ऐतिहासिक मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने सबसे पहली बार, एक उपचारात्मक याचिका का विचार स्थापित किया था, जहां यह सवाल उठाया गया था कि क्या सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम फैसले के खिलाफ, समीक्षा याचिका के खारिज होने के बाद भी पीड़ित व्यक्ति किसी राहत के लिए पात्र है या नहीं।

इस मामले में, अपने तंत्र (मैकेनिज्म) के दुरुपयोग से बचने और एक गंभीर घोर अन्याय को ठीक करने के लिए, न्यायालय ने अपनी शक्ति या अधिकार का प्रयोग करते हुए, अपने निर्णय की समीक्षा की थी। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने दावा किया था कि न्यायालय की उपचारात्मक शक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 से प्राप्त होती है, जो न्यायालय को संपूर्णता (एंटायरिटी) में न्याय करने का अधिकार प्रदान करती है।

इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी नोट किया था कि इस अनुच्छेद में निर्धारित अधिकार सख्ती से उपचारात्मक प्रकृति के हैं और इसलिए इन अधिकारों को उस अधिकार के रूप में नहीं देखा जा सकता है, जो न्यायालय को उसके समक्ष लंबित (पेंडिंग) मामलों से निपटने के दौरान वादी (लिटिगेंट) के मूल अधिकारों की उपेक्षा करने का अधिकार देता है। हालांकि, इस न्यायिक प्राधिकरण का उपयोग मामले से संबंधित मूल कानून की अवहेलना (ओवरराइड) करने के लिए नहीं किया जा सकता है।

रूपा हुर्रा का मामला याचिका को उपचारात्मक मानने के लिए निम्नलिखित मानदंड निर्धारित करता है:

  • उन मामलों को छोड़कर जहां बहुत ही बाध्यकारी कारण मौजुद हैं, वहां न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की समीक्षा के अनुरोध पर विचार नहीं कर सकता है, जो समीक्षा याचिका की अस्वीकृति पर अंतिम हो गया है।
  • हालांकि यह मानते हुए कि उपचारात्मक याचिका पर विचार करने के लिए सभी शर्तों की पहचान करना बिलकुल भी संभव नहीं है, लेकिन तब भी न्यायालय उस नियंत्रण का प्रयोग करने के लिए कुछ विशिष्ट दिशानिर्देश निर्धारित कर सकता है।
  • वादी को, न्यायालय के समक्ष यह समझाने की जरूरत है कि प्राकृतिक न्याय की अवधारणा का स्पष्ट उल्लंघन किया गया है।
  • विशेष रूप से, इस याचिका में यह निर्दिष्ट किया जाना चाहिए कि याचिका में जो कारण दिए गए हैं, उनको संचलन (सर्कुलेशन) के माध्यम से खारिज कर दिया गया था।
  • उपचारात्मक याचिका को प्रमाणित (सर्टीफाई) करने की जिम्मेदारी, एक वरिष्ठ अधिवक्ता (सीनियर एडवोकेट)  की होती है।
  • इसके बाद, उपचारात्मक याचिका को फिर तीन सर्वोच्च-रैंकिंग के न्यायधीशों को वितरित (डिस्ट्रीब्यूट) कर दिया जाता है और साथ ही उन न्यायधीशों को भी वितरित किया जाता है, जिन्होंने यह विचाराधीन फैसला सुनाया था।
  • यदि अधिकांश न्यायाधीश यह निर्णय लेते हैं कि शायद इस मामले पर फिर से सुनवाई करने की आवश्यकता है, तो फिर इस याचिका को उसी बेंच के पास भेजा जाता है।
  • अदालत याचिकाकर्ता (पेटीशनर) पर अनुकरणीय (एक्सेंप्लरी) आरोप लगा सकती है यदि उसकी याचिका में सार का अभाव होता है।
  • उपचारात्मक याचिका की परिभाषा पर कोई सीमा अवधि नहीं है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 137 के तहत भी इसका आश्वासन दिया गया है।

इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त मामले के तहत, आदेश देते हुए यह कहा था कि न्याय के प्रशासन में इस्तेमाल की जाने वाली अपनी विधियों (मेथड्स) के दुरुपयोग को रोकने के लिए और घोर अन्याय को कम करने के लिए, वह अपनी अंतर्निहित (इन्हेरेंट) शक्तियों के प्रयोग में अपने निर्णयों पर पुनर्विचार कर सकता है।

निर्भया हत्या कांड में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी याचिकाओं को खारिज कर दिया। इस पर आगे विस्तृत में चर्चा की गई है।

3. दया याचिका (मर्सी पिटिशन)

  • मामले में, सभी तरफ से अस्वीकृति का सामना करने के बाद, दया याचिका एक दोषी के लिए अंतिम कदम है, जिसे भारतीय न्यायिक प्रणाली के संदर्भ में उठाया जा सकता है। जब कोई व्यक्ति सभी कानूनों के तहत उसके लिए उपलब्ध होने वाले सभी उपायों को खो देता है, तो वह भारत के राष्ट्रपति या उस राज्य, जहां वह रहता है, के राज्यपाल (गवर्नर) के समक्ष दया याचिका दायर करता है।
  • दया याचिका एक ऐसा सिद्धांत है, जिसे एक दोषी के लिए अंतिम विकल्प के रूप में जाना जाता है। संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत, एक कैदी के पास, भारत के राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका भेजने का अधिकार है। इस अनुच्छेद के आधार पर, राष्ट्रपति के पास सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाई गई सजा को वापस लेने, राहत देने या दोषी को क्षमा करने की शक्ति है। राष्ट्रपति के पास क्षमादान प्रदान करने का भी अधिकार है लेकिन उनकी शक्ति विवेकाधीन नहीं है क्योंकि इसके लिए उन्हें मंत्रिपरिषद (काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स) के परामर्श की आवश्यकता होती है।
  • यह मूल रूप से मौजूद सभी कानूनों के तहत दोषी के लिए उपलब्ध अंतिम सहायता है। इसी तरह, राज्य के राज्यपाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 161 के अनुसार क्षमादान प्रदान करने के पात्र हैं।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 72 और 161 निर्दिष्ट करता है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल क्रमशः सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों द्वारा लगाई गई सजा को वापस लेने, राहत देने या हटाने के लिए अधिकृत होंगे। हालांकि, क्षमा दान प्रदान करने का अधिकार राष्ट्रपति और राज्यपाल के विवेक पर नहीं होता है, लेकिन यह मंत्रिपरिषद के परामर्श के बाद किया जाता है। अनुच्छेद 72 का दायरा अनुच्छेद 161 की तुलना में अधिक व्यापक है।

निर्भया कांड के दोषी मुकेश सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपचारात्मक याचिका दाखिल की थी। इसके बाद विनय शर्मा ने भी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपचारात्मक याचिका दायर की थी। बाद में दोषी मुकेश सिंह ने राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दायर की थी। मुकेश सिंह और विनय शर्मा की उपचारात्मक याचिका सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दी थी। मुकेश सिंह ने बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया क्योंकि वह निचली अदालत के आदेश द्वारा जारी किए गए डेथ वारंट को रद्द कराना चाहता था साथ ही उसने, राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका के लंबित होने के कारण, निष्पादन (एग्जिक्यूशन) को कुछ समय तक रोक देने के लिए दिल्ली की एक अदालत का दरवाजा भी खटखटाया था। बाद में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मुकेश सिंह की दया याचिका को खारिज कर दिया था।

फिर इसके बाद, दिल्ली की अदालत ने 1 फरवरी, 2020 को सुबह 6 बजे नया डेथ वारंट जारी किया। अब, पवन गुप्ता ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक एस.एल.पी. यानी की जनहित याचिका (स्पेशल लीव पिटीशन) दायर की थी, जिसमें यह कहा गया था कि वह अपराध के समय एक किशोर था। पवन गुप्ता की एस.एल.पी. को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। इन सभी अस्वीकृतियों से संतुष्ट न होकर, मुकेश सिंह ने दया से इनकार करने की याचिका को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया था।

वहीं दूसरी तरफ अक्षय कुमार सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक उपचारात्मक याचिका दायर की थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने दया याचिका खारिज किए जाने को चुनौती देने वाली मुकेश सिंह की अपील को खारिज कर दिया था। इसके बाद, दोषी अक्षय कुमार ने सर्वोच्च न्यायालय में उपचारात्मक अपील की थी। विनय शर्मा ने राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के समक्ष दया याचिका भी दायर की थी।

इस सब से बचने के लिए, दोषी 1 फरवरी, 2020 को होने वाली फांसी पर रोक लगाने के लिए फिर से दिल्ली उच्च न्यायालय चले गए थे। अक्षय कुमार सिंह की उपचारात्मक याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। पवन गुप्ता ने न्यायालय के पहले के आदेश को चुनौती देते हुए, सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष, समीक्षा के लिए एक याचिका दायर की, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी किशोर होने की याचिका को खारिज कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने पवन गुप्ता की किशोर होने की याचिका पर विचार करने की अपील को फिर से खारिज कर दिया।

दिल्ली की अदालत ने अगली सूचना तक डेथ वारंट के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) को फिर से स्थगित कर दिया। राष्ट्रपति ने विनय शर्मा की दया याचिका खारिज कर दी थी। अक्षय कुमार सिंह ने राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दायर की। निचली न्यायालय के आदेश के खिलाफ केंद्र उच्च न्यायालय गया था। उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के उस निर्देश के खिलाफ केंद्र सरकार की अपील को खारिज करते हुए कहा कि चारों दोषियों को एक साथ फांसी दी जानी चाहिए।

न्यायालय ने आदेश दिया कि दोषियों को एक सप्ताह के भीतर सभी कानूनी विकल्प तलाशने होंगे, जिसके दौरान कानून प्रवर्तन अधिकारियों ने कानून के अनुसार कार्रवाई करने का आदेश दिया है। राष्ट्रपति ने अक्षय कुमार सिंह की दया याचिका को खारिज कर दिया था। तिहाड़ जेल अधिकारियों ने नई फांसी की तारीख जमा करने के लिए निचली अदालत का दरवाजा खटखटाया।

दिल्ली की अदालत ने दोषियों की नई फांसी की तारीख को खारिज कर दिया था। विनय शर्मा ने दया की अपील को खारिज करने पर सवाल उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने दया याचिका खारिज किए जाने को चुनौती देने वाली विनय शर्मा की अपील को खारिज कर दिया। दिल्ली की अदालत ने 3 मार्च, 2020 को निर्धारित सभी चार निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्या मामले के दोषियों का डेथ वारंट जारी किया।

आगे बढ़ने से पहले, आइए हम उस रिट याचिका पर चर्चा करें जो दोषी विनय शर्मा द्वारा दायर की गई थी। विनय शर्मा बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य के मामले में, याचिकाकर्ता विनय शर्मा ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिका दायर की थी। इस याचिका में उसने, राष्ट्रपति द्वारा उसकी दया याचिका को खारिज करने और उसकी सजा को मृत्युदंड से कम करने की मांग करते हुए प्रश्न उठाए थे। याचिका दायर करने का आधार, आर.टी.आई. अधिनियम के तहत प्रासंगिक (रिलेवेंट) सामग्री को प्रस्तुत न करना, प्रासंगिक सामग्री पर विचार करने से इनकार करना, यातना (टॉर्चर), मानसिक बीमारी, अप्रासंगिक सामग्री के प्रतिवादी (रिस्पॉन्डेंट) अधिकारियों द्वारा विचार करना और अवैध एकांत (सॉलिटरी) कारावास थे।

याचिकाकर्ता विनय शर्मा के वकील ने यह तर्क दिया कि याचिकाकर्ता को एकांत कारावास में रखा गया था, भले ही दया के लिए उसकी याचिका भारत के राष्ट्रपति के समक्ष लंबित थी और इस तरह का गैरकानूनी कारावास अन्यायपूर्ण था और सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन और अन्य के मामले के उल्लंघन में था। और यह उसकी मृत्युदंड से कम गंभीर सजा देने का आधार बन जाता है। इसके अलावा, उसके वकील का तर्क यह भी था कि संयुक्त राष्ट्र महासभा (जनरल असेंबली) के प्रस्तावों को ध्यान में रखते हुए शत्रुघ्न चौहान और अन्य बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य में मानसिक विकलांगता (डिसेबिलिटी) और मानसिक अक्षमता वाले कैदियों को निष्पादित नहीं किया जा सकता है।

इन सभी तर्कों के उत्तर में, विद्वान सॉलिसिटर जनरल, श्री तुषार मेहता ने तर्क दिया था कि सभी आवश्यक सामग्री, संबंधित अधिकारियों के समक्ष रखी गई थी और दया के लिए याचिका अदालती मामले के विवरण सहित उन सभी दस्तावेजों जैसे की केस रिकॉर्ड, मेडिकल रिकॉर्ड, सामाजिक जांच रिपोर्ट के साथ भारत के राष्ट्रपति को प्रस्तुत की गई थी।  

इस प्रश्न पर, जहां तक कि याचिकाकर्ता की संदिग्ध (सस्पेक्टेड) चिकित्सा/मानसिक स्थिति का संबंध था, सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि याचिकाकर्ता की समय-समय पर जांच की गई है और केंद्रीय जेल अस्पताल के प्रभारी (इंचार्ज) चिकित्सा अधिकारी ने एक चिकित्सा रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया था कि याचिकाकर्ता मानसिक रूप से स्वस्थता से समायोजित (एडजस्ट) किया गया था और उसका समग्र (ओवरऑल) स्वास्थ्य अच्छा था और याचिकाकर्ता की चिकित्सक रिपोर्ट भी राष्ट्रपति के समक्ष पेश की गई थी।

महानिदेशक (डायरेक्टर जेनरल) (जेल), तिहाड़ जेल के द्वारा प्रदान किए गए हलफनामे (एफिडेविट) में यह तर्क दिया गया था कि याचिकाकर्ता को वास्तव में एकांत कारावास में नहीं रखा गया था और उसे लोहे की सलाखों के पीछे और एक कमरे में रखा गया था और याचिकाकर्ता ने अन्य कैदियों के साथ भी बातचीत की थी। एपुरु सुधाकर और अन्य बनाम ए.पी. की सरकार और अन्य के मामले में यह माना गया था कि संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत, न्यायालय ने सीमित न्यायिक समीक्षा के लिए आवश्यक विभिन्न आधारों की ओर इशारा किया है।

यह माना गया था कि अनुच्छेद 72 या अनुच्छेद 161 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल के आदेश की न्यायिक समीक्षा होती है और उनके निर्णयों पर निम्नलिखित आधार पर सवाल उठाया जा सकता है जिसमें यह भी शामिल है कि क्या आदेश बिना समझे पास किया गया है या क्या विशिष्ट या पूरी तरह से अप्रासंगिक कारको को ध्यान में रखते हुए पारित किया गया है, और यदि उनका आदेश दुर्भावनापूर्ण है या मनमानी से ग्रस्त है या यदि इसमें शामिल सामग्री को ध्यान में नहीं रखा गया है।

अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता यह शिकायत नहीं ला सकता है कि दस्तावेजों की प्रति की आपूर्ति (सप्लाई) में विफलता के कारण उसके साथ अन्याय हुआ है। यह शत्रुघ्न चौहान और अन्य बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य के मामले में आयोजित किया गया था, कि मृत्युदंड को कम करना कोई एहसान या अनुग्रह (ग्रेस) नहीं है बल्कि यह एक संवैधानिक जिम्मेदारी है।

जैसा कि संवैधानिक बेंच द्वारा मारू राम बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य के मामले में आयोजित किया गया था, और विकास चटर्जी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले का भी उल्लेख करते हुए, न्यायालय को यह ध्यान में रखना होता है कि जब शक्ति बहुत उच्च प्राधिकारी को प्रदान की जाती है, तो यह माना जाना चाहिए कि प्राधिकरण मुद्दे के सभी पहलुओं के निष्पक्ष विश्लेषण (इंपार्शियल एनालिसिस) के बाद सावधानी से कार्य करेगा। चूंकि अदालत को याचिकाकर्ता की दया याचिका को खारिज करने के भारत के राष्ट्रपति के आदेश की न्यायिक समीक्षा के लिए कोई आधार नहीं मिला और इस रिट याचिका को बेंच ने खारिज कर दिया था।

निर्भया कांड के दोषियों ने भारतीय चुनाव आयोग के समक्ष शिकायत दर्ज कराई क्योंकि विनय शर्मा की दया याचिका उस समय राष्ट्रपति को भेजी गई थी जब दिल्ली में आदर्श आचार संहिता (मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट) लागू थी। पवन गुप्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी मौत की सजा को उम्र कैद में बदलने के लिए उपचारात्मक अपील दायर की थी।

अक्षय सिंह ने दया के लिए एक “पूर्ण” याचिका दायर की, यह तर्क देते हुए कि उसकी पिछली याचिका, जिसे राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया था, वह अधूरी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने पवन गुप्ता की उपचारात्मक याचिका खारिज कर दी। दिल्ली की अदालत ने दोषियों की फांसी पर रोक लगा दी थी। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पवन गुप्ता की दया याचिका खारिज कर दी थी। दिल्ली की अदालत ने 20 मार्च को सुबह साढ़े पांच बजे नया डेथ वारंट जारी किया।

दोषियों के परिवार वालों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर इच्छा मृत्यु की मंजूरी देने का अनुरोध किया था। चार दोषियों में से तीन दोषियों ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आई.सी.जे.) से फांसी पर रोक लगाने का अनुरोध किया था। मुकेश सिंह ने निचली अदालत के आदेश पर सवाल उठाते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय का रुख किया था। अक्षय कुमार सिंह की पत्नी ने तलाक के लिए बिहार की एक अदालत में याचिका दायर की थी।

अक्षय कुमार सिंह ने दया की अपील को खारिज करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को चुनौती दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली अक्षय कुमार सिंह की याचिका खारिज कर दी थी। दिल्ली पटियाला हाउस न्यायालय ने 20 मार्च को होने वाली फांसी पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अक्षय कुमार सिंह की अपील को खारिज कर दिया था, जिसमें राष्ट्रपति द्वारा दया की मांग को खारिज करने पर सवाल उठाया गया था।

सभी चार दोषियों ने मृत्युदंड को आजीवन कारावास की सजा में कम करने की दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। फिर भी उनकी अपील को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था और उन सभी पुरुषों को बिना किसी कानूनी सहारा के छोड़ दिया गया था। फांसी की सजा को कम करने की आखिरी मिनट की अपील भी फांसी से कुछ घंटे पहले खारिज कर दी गई थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने मुकेश सिंह की जांच के लिए याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें कहा गया था कि निर्भया के सामूहिक अपहरण और हत्या के समय वह दिल्ली में नहीं था। इससे पहले एक निचली अदालत ने उसकी अपील खारिज कर दी थी। 20 मार्च, 2020 को, 2012 के निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्या मामले में सभी चार दोषियों को तिहाड़ जेल में सुबह 5.30 बजे फांसी पर चढ़ा दिया गया था।

कानूनी परिप्रेक्ष्य (लीगल पर्सपेक्टिव)

भारत में बलात्कार और यौन उत्पीड़न (सेक्शुअल हैरेसमेंट) के बारे में कानून

बलात्कार

परह्लाद और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ हरियाणा के मामले में, अदालत ने बलात्कार के अपराध को मूल रूप से पीड़िता के मानव अधिकारों पर हमला बताया था। इसे एक महिला के व्यक्तित्व और शारीरिक संप्रभुता (सोवरेनिटी) पर हमले के रूप में देखा गया था। यहां पर यह देखना बहुत आवश्यक है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के तहत सिर्फ पुरुष ही बलात्कार कर सकते है और सिर्फ महिला के साथ ही कर सकते हैं।

वर्ष 2012 तक, बलात्कार की परिभाषा केवल संभोग (सेक्शुअल इंटरकोर्स) तक ही सीमित थी। लेकिन आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 ने बलात्कार शब्द को एक व्यापक अर्थ दिया है। इसने आई.पी.सी. की धारा 375 के तहत बलात्कार की परिभाषा को संशोधित किया है। संशोधन के बाद, आई.पी.सी. की धारा 375, बलात्कार को महिला के शरीर के अंगों जैसे योनि, मूत्रमार्ग, मुंह या गुदा में महिला की सहमति के बिना किसी भी अनैच्छिक और जबरदस्ती प्रवेश के रूप में परिभाषित करती है।

इस संशोधन पर दो घटनाक्रमों का बड़ा प्रभाव पड़ा था। ये घटनाक्रम निर्भया कांड और जस्टिस वर्मा समिती की रिपोर्ट थी, जिस पर नीचे चर्चा की गई है।

जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट

निर्भया कांड के बाद महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध करने के आरोपी के लिए, कानून में त्वरित (स्पीडी) सुनवाई और सजा और आपराधिक प्रावधानों को बढ़ाने के लिए एक समिति बनाई गई थी। समिति द्वारा सुझाए गए कुछ प्रगतिशील (प्रोग्रेसिव) परिवर्तन इस प्रकार हैं:

  • इस समिति के अनुसार बलात्कार और यौन उत्पीड़न केवल जुनून के अपराध नहीं लगते बल्कि यह शक्ति की अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) भी है। बलात्कार को एक अलग अपराध माना जाना चाहिए और यह केवल योनि, मुंह या गुदा के प्रवेश तक सीमित नहीं होना चाहिए और इसका दायरा बड़ा होना चाहिए। कोई अन्य गैर-सहमति प्रवेश जिसकी प्रकृति यौन है, उसे विभिन्न कानूनों के तहत दी गई बलात्कार की परिभाषा में शामिल किया जाना चाहिए।
  • समिती ने सुझाव दिया था कि शादी को यौन अपराध करने का लाइसेंस नहीं माना जाना चाहिए।
  • इसने सलाह दी थी कि यौन संपर्क के गैर भेदक (नॉन पेनिट्रेटिव) रूपों को यौन हमला माना जाना चाहिए। यौन हमले के अपराध को रेखांकित किया जाना चाहिए, ताकि यौन प्रकृति के गैर-सहमति या गैर भेदक स्पर्श के सभी रूपों को शामिल किया जा सके।
  • यौन प्रकृति के लिए खतरा पैदा करने वाले शब्दों या किसी भी कार्य या किसी भी प्रकार के इशारे के उपयोग को यौन हमले के रूप में माना जाना चाहिए और इसके लिए दंड भी प्रदान किया जाना चाहिए।
  • कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) विधेयक (सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वूमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन, रिड्रेसल) बिल) 2012 पर समिति द्वारा की गई कुछ प्रमुख सिफारिशें हैं, जो इस प्रकार हैं:
  • घरेलू कामगारों (डोमेस्टिक वर्कर) को विधेयक के दायरे में शामिल किया जाना चाहिए।
  • शिकायतकर्ता और प्रतिवादी को पहले एक दूसरे के साथ सुलह का प्रयास करना चाहिए जिससे दोनों के लिए इस मुद्दे को सुलझाना आसान हो जाए।
  • नियोक्ता को कार्यस्थल पर, यौन उत्पीड़न से किसी भी रूप में पीड़ित हुई महिला को मुआवजा देना चाहिए।
  • नियोक्ता को एक आंतरिक (इंटर्नल) शिकायत समिति का गठन करना चाहिए जिसमें शिकायतें दर्ज की जानी चाहिए और सुनी जानी चाहिए।
  • इस समिती ने यह भी राय दी कि तेजाब के हमले को गंभीर चोट के प्रावधानों के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए और यह सिफारिश की कि केंद्र और राज्य सरकार को यौन उत्पीड़न के पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए कुछ आवश्यक कदम उठाने चाहिए।
  • समिती ने यह सुझाव दिया कि यौन अपराध का आरोप होने पर सशस्त्र बलों (आर्म्ड फोर्सेस) के कर्मियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए मंजूरी की आवश्यकता को विशेष रूप से बाहर रखा जाना चाहिए। महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों की निगरानी और मुकदमा चलाने के लिए संघर्ष क्षेत्रों में विशेष आयुक्तों की नियुक्ति की जानी चाहिए।
  • तस्करी (ट्रेफिकिंग) को अपराध के रूप में घोषित करने के लिए दासता (स्लेवरी) पर आई.पी.सी. के प्रावधानों में संशोधन किया जाना चाहिए।
  • किशोर न्याय अधिनियम (जुवेनाइल जस्टिस एक्ट), 2000 के तहत ‘नुकसान’ और ‘स्वास्थ्य’ शब्दों को परिभाषित किया जाना चाहिए ताकि किशोरों के मानसिक और शारीरिक नुकसान और स्वास्थ्य को शामिल किया जा सके।
  • इस समिती का यह भी विचार था कि बलात्कार के अपराध के लिए मृत्युदंड नहीं दिया जाना चाहिए। इसने इसके बजाय बलात्कार के लिए आजीवन कारावास की सिफारिश की थी।
  • समिति ने टू-फिंगर टेस्ट को बंद करने की सिफारिश की है क्योंकि इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि किसी महिला के खिलाफ बलात्कार का अपराध तब भी किया जा सकता है, जब उसे संभोग की आदत हो।
  • समिति ने पुलिस में सुधार के लिए कुछ कदमों की सिफारिश की है। इसमें, राज्यों में सुरक्षा आयोगों की स्थापना शामिल है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि सरकार पुलिस पर किसी भी तरह के प्रभाव का प्रयोग न कर रही हो।
  • मामलों के प्रबंधन (मैनेजमेंट) में सुधार के लिए कुछ सुझाव:
  • यौन अपराधों के संबंध में एफ.आई.आर. दर्ज होने पर मामले की तत्काल सूचना प्रदान करने के लिए एक बलात्कार संकट प्रकोष्ठ (रेप क्राइसिस सेल) की स्थापना की जानी चाहिए। प्रकोष्ठ को पीड़ितों को कानूनी सहायता भी प्रदान करनी चाहिए।
  • सभी पुलिस स्टेशनों के प्रवेश द्वार पर और पूछताछ कक्ष में सी.सी.टी.वी. होने चाहिए ताकि उनकी गतिविधियों पर नजर रखी जा सके।
  • एफ.आई.आर. के लिए ऑनलाइन  फाइलिंग की एक प्रणाली होनी चाहिए।
  • पुलिस अधिकारियों का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वे यौन अपराधों के शिकार लोगों की सहायता करें, चाहे अपराध का अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) कुछ भी हो और कहीं भी हो।
  • यौन अपराधों से उचित और प्रभावी ढंग से निपटने के लिए पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षित (ट्रेन) किया जाना चाहिए।
  • पीड़ितों की बेहतर तरीके से सहायता करने के लिए पुलिस कर्मियों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए।
  • समिति की राय थी कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (रिप्रेजेंटेशन ऑफ़ पीपल एक्ट), 1951 के तहत एक उम्मीदवार की अयोग्यता के लिए अदालत द्वारा आरोप पत्र और संज्ञान (कॉग्निजेंस) दाखिल करना पर्याप्त है। समिती ने आगे सिफारिश की कि यदि उम्मीदवारों ने कोई यौन अपराध किया है तो उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए।
  • समिती ने यह भी सिफारिश की है कि बच्चों को यौन शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि उन्हें पता चल सके कि उनके साथ कुछ गलत हुआ है या नहीं।

निर्भया फंड

जनता के आक्रोश और प्रतिक्रिया को देखते हुए, उस समय के वित्त (फाइनेंस) मंत्री पी. चिदंबरम ने महिलाओं के मुद्दों से निपटने के लिए बहुत सारा पैसा आवंटित (एलोकेट) किया था। उन्होंने अपने बजट भाषण 2013-14 में संसद में “निर्भया फंड” की घोषणा की थी। इसने भारत में महिलाओं की सुरक्षा की विकट (डायर) स्थिति के बारे में एक स्वीकृति को दिखाया था, चाहे यह इच्छुक हो या मजबूरन। इसके लिए आवंटित प्रारंभिक राशि 1000 करोड़ रुपए की एक बड़ी राशि थी। इसके अलावा, हर साल इतनी ही राशि बजट में आवंटित की जाती है।

निर्भया फंड का क्रियान्वयन (इंप्लीमेंटेशन)

  • 2013 में, सरकार ने फोन जैसे दैनिक उपयोग के गैजेट्स के माध्यम से संकट कॉल भेजने के लिए एक परियोजना (प्रॉजेक्ट) के लिए लगभग 321 करोड़ रुपये अलग रखे, जिसे परियोजना के लिए अभी तक धन आवंटित न किए जाने के कारण लागू नहीं किया गया है।
  • इसके अलावा, ट्रेनों, बसों और ऐसे सार्वजनिक परिवहन (ट्रांसपोर्ट), ट्रेन स्टेशनों आदि में जी.पी.एस. ट्रैकर लगाने का प्रस्ताव भी लाया गया था। इसके लिए लगभग 1000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, लेकिन इसे भी अभी तक बड़े पैमाने पर लागू नहीं किया गया है।
  • एक महिला हेल्पलाइन शुरू की गई है, लेकिन अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों तक इसकी पहुंच नहीं है।
  • बलात्कार पीड़ितों के लिए वन स्टॉप सेंटर सिर्फ कुछ कागजों के टुकड़ों तक ही सीमित है।
  • केंद्रीय पीड़ित मुआवजा कोष (सेंट्रल विक्टिम कंपनसेशन फंड), 200 करोड़ रुपये के बजट के साथ निर्धारित किया गया है। कर्नाटक और तमिलनाडु कभी भी इससे पीछे नहीं हटे हैं।

योजना के कार्यान्वयन के बारे में व्यापक बिंदु फिर से इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे निर्भया आंदोलन एक सनक था, और हालांकि जनता और सरकार अभी भी भारत में महिलाओं की स्थिति से अच्छी तरह से अवगत है, लेकिन तब भी इसके लिए बहुत कुछ नहीं किया जा रहा है।

एक बलात्कार पीड़िता का नाम और यह एक विवादित मुद्दा क्यों है?

जैसे की पहले भी चर्चा की गई है, भारतीय दंड संहिता की धारा 228A बलात्कार के मामलों में पीड़िता की पहचान को “प्रिंट या प्रकाशित” करने के लिए किसी को भी (विशेषकर मीडिया को) प्रतिबंधित करती है। इस अपराध के लिए दोषी को दो साल की कैद के साथ-साथ जुर्माने की सजा भी हो सकती है।

बलात्कार की प्रकृति के अपराध आमतौर पर बहुत सारे सामाजिक कलंक से जुड़े होते हैं। इस धारा का उद्देश्य पीड़ित के सामाजिक उत्पीड़न को रोकना है।

निर्भया का नाम

धारा 228 A(c) उस नियम के अपवाद का प्रावधान करती है की किन परिस्थितियों में पीड़ित के नाम को सार्वजनिक किया जा सकता है, ऐसा तब किया जा सकता है जब पीड़ित की मृत्यु के मामले में, पीड़ित के परिजन इसकी अनुमति दे देते हैं। निर्भया के मामले में ऐसा हुआ था। पीड़िता की मां आशा देवी ने खुद निर्भया का नाम यह कहते हुए सार्वजनिक किया था कि दुनिया को पता होना चाहिए कि उनकी बेटी के साथ क्या हुआ है। उन्होंने महसूस किया कि किसी भी बलात्कार पीड़िता को बलात्कार के लिए शर्मिंदा नहीं होना चाहिए, क्योंकि अपराध करने वाले की गलती है, न कि पीड़िता की।

लेकिन एक विरोधाभास तब पैदा हुआ जब उसके पिता ने “इंडियाज डॉटर” डॉक्यूमेंट्री में पीड़िता का नाम लेने पर रोक लगा दी और यहां तक ​​कि कानूनी कार्रवाई की धमकी भी दे दी थी। लेकिन उन्होंने अभी भी मीडिया रिपोर्टों में अपनी बेटी के नाम के इस्तेमाल की अनुमति दी है। ज्यादातर मीडिया हाउस निर्भया का नाम आदत की ताकत के तौर पर नहीं, बल्कि सम्मान के तौर पर भी लेते हैं।

आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013

इस संशोधन की कुछ महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं:

  • आपराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 को लोकप्रिय रूप से “बलात्कार विरोधी अधिनियम” के रूप में भी जाना जाता है।
  • इस परिवर्तन के तहत, भारतीय दंड संहिता, 1860 में उल्लिखित प्रावधानों और बलात्कार की परिभाषा में पीछा करना, तेजाब से हमला करना, और दृश्यरतिकता (वॉयरिज्म) जैसे नए अपराधों को जोड़ा गया।
  • यहां तक ​​कि बलात्कार की धमकी भी अब एक अपराध है और व्यक्ति को इसके लिए दंडित किया जाएगा।
  • बलात्कार के मामलों की संख्या में वृद्धि को ध्यान में रखते हुए न्यूनतम (मिनिमम) सजा को सात साल से बदलकर दस साल कर दिया गया है।
  • जिन मामलों में पीड़ित की मृत्यु हो जाती है या पीड़ित की वानस्पतिक अवस्था (वेजिटेटिव स्टेट) हो जाती है, तो ऐसे में न्यूनतम सजा को बढ़ाकर 20 वर्ष कर दिया गया है।
  • ‘पीड़ित का चरित्र’ बलात्कार के मामलों के लिए पूरी तरह से अप्रासंगिक है और इससे अपराध के लिए सजा देने में कोई फर्क नहीं पड़ता है।
  • चूंकि इस मामले में एक आरोपी किशोर था, इसलिए इस मामले के बाद व्यवस्था में एक और खामी की पहचान की गई थी। इसलिए, बलात्कार जैसे हिंसक अपराधों के लिए, एक वयस्क के रूप में मुकदमा चलाने की उम्र 18 साल से बदलकर 16 साल कर दी गई, जो कि किशोर न्याय अधिनियम, 2015 में बदल गई है।

भारतीय दंड संहिता, 1860 में परिवर्तन 

  • धारा 166A को जोड़ा गया है, जो एक लोक सेवक द्वारा कानून की अवज्ञा (डिसोबेडिएंस) के अपराध को कवर करता है। संशोधन अधिनियम के बाद, इसे 6 महीने से 2 साल तक के कठोर कारावास और जुर्माने के लिए उत्तरदायी बनाया गया है।
  • धारा 326 A और B को जोड़ दिया गया है, जो तेजाब के हमले के मुद्दे को कवर करता है। संशोधन अधिनियम ने इसे अधिनियम के तहत एक विशिष्ट अपराध बना दिया है, जिसमें 10 साल की कैद या आजीवन कारावास या जुर्माना या दोनों हो सकता है।
  • धारा 354A का सम्मिलन (इंसर्शन) किया गया है जो यौन उत्पीड़न और उसी के लिए दंड से संबंधित है।
  • धारा 354B को जोड़ा गया है जो एक महिला को अपने कपड़े उतारने के लिए मजबूर करने के अपराध को कवर करता है।
  • धारा 354C को जोड़ा गया है जो दृश्यरतिकता के अपराध को कवर करता है अर्थात किसी महिला को तब देखना जब वह यौन कार्यों के सहित किसी निजी कार्य में लिप्त हो या जब उसके निजी अंग उजागर हों।
  • धारा 354D को जोड़ा गया है जो पीछा करने के अपराध को कवर करता है।
  • सहमति की आयु 16 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गई है।
  • बलात्कार की परिभाषा को संशोधन अधिनियम के बाद और बड़ा दिया गया है।
  • संशोधन अधिनियम में बलात्कार के दायरे के तहत और अधिक कार्य शामिल किए गए हैं जैसे कि बिना सहमति के मुंह, मूत्रमार्ग, योनि, लिंग के साथ गुदा या किसी अन्य वस्तु का प्रवेश और किसी महिला की योनि, मूत्रमार्ग और गुदा पर, बिना उसकी सहमति के मुंह लगाना।
  • धारा 376 (2) (c) का सम्मिलन जो सशस्त्र बलों के कर्मियों द्वारा बलात्कार के अपराध को कवर करता है।
  • धारा 376A का सम्मिलन जो बलात्कार से संबंधित है जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु या वनस्पति अवस्था होती है।
  • धारा 376D को जोड़ा गया है जो सामूहिक बलात्कार के अपराध से संबंधित है।
  • अपराधों की पुनरावृत्ति (रिपीटिशन) आजीवन कारावास या मृत्यु से दंडनीय है।
  • अवैध व्यापार किए गए व्यक्ति का रोजगार भी दंडात्मक प्रावधान को आकर्षित कर सकता है।
  • यह भी स्पष्ट किया गया है कि प्रवेश का अर्थ “किसी भी हद तक प्रवेश” है, और शारीरिक प्रतिरोध (रेसिस्टेंस) की कमी या किसी भी प्रकार के अन्य प्रतिरोध बलात्कार के अपराध का गठन करने के लिए महत्वहीन है।

निर्भया कांड के बाद विधायी (लेजिस्लेटिव) सुधार

  • सी.एल.ए. 2013 और स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (एम.ओ.एच.एफ.डब्ल्यू.) दिशानिर्देश निर्भया कांड के बाद देश भर में जनता के विरोध के लिए भारत सरकार की दो ऐतिहासिक प्रतिक्रियाएँ हैं।
  • सरकार द्वारा ली गई तीसरी प्रतिक्रिया जी.बी.वी. से बचे लोगों के लिए लंबे समय तक देखभाल प्रदान करने के लिए “वन स्टॉप सेंटर” थी।
  • प्रदर्शनकारियों की कई मांगें थीं जैसे महिलाओं की अपर्याप्त और अक्षम सुरक्षा, अविश्वसनीय सार्वजनिक परिवहन, पुलिस बल का अनुचित कामकाज जो अक्सर बलात्कार पीड़ितों को दोषी ठहराते थे और पीड़ितों पर हुए अपराधों के लिए एफ.आई.आर. लिखने से इनकार करते थे और यौन हमले के संबंध में नौकरशाही (ब्यूरोक्रेटिक) प्रक्रिया।
  • जस्टिस वर्मा समिती को देश के बलात्कार विरोधी कानूनों में सुधार का काम सौंपा गया था।
  • दिल्ली पुलिस बल में और अधिक महिला अधिकारियों को जोड़ा गया ताकि महिलाएं उनके साथ सब कुछ साझा कर सकें।
  • सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी और गश्त (पैट्रोलिंग) बढ़ा दी गई और पुलिस को अब लिंग संवेदीकरण पाठ्यक्रम (जेंडर सेंसिटाइजेशन कोर्सेज) से गुजरना पड़ा जो महिला अधिकारों और उनकी सुरक्षा के मुद्दे को समझने में मदद करता है।
  • बलात्कार पीड़ितों को तत्काल सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से विशेष रूप से बलात्कार के मामलों से निपटने के लिए छह फास्ट ट्रैक न्यायालय स्थापित किए गए थे।
  • यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून और भी सख्त किए गए।
  • चूंकि अपराध के समय एक आरोपी नाबालिग (17 वर्ष का) था, इसलिए किशोर कानूनों को बदलने की आवश्यकता खुल गई थी।
  • महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की सार्वजनिक चर्चा के लिए एक जगह बनाई गई थी जो पहले अस्तित्व में नहीं थी।
  • सी.एल.ए. 2013 के अनुसार आई.पी.सी. की धारा 166B के तहत मेडिको-लीगल केयर प्रदान करने में विफलता अब एक अपराध है।

निष्कर्ष

भारत कई चीजों के लिए जाना जाता है। कुछ सकारात्मक कारक, इसकी संस्कृति, धर्म की विविधता (डायवर्सिटी), क्रिकेट में कौशलता (प्रोवेस), प्राकृतिक सुंदरता हैं। लेकिन अक्सर, कुछ घटनाएं होती हैं जो इन सकारात्मक कारकों को विदेशी और यहां तक ​​​​कि घरेलू जनमत (पब्लिक ओपिनियन) में भी पीछे छोड़ देती हैं। निर्भया कांड वह चिंगारी थी जिसने भारत के बारे में नकारात्मक जनमत की आग को प्रज्वलित किया था।

यह हाल ही में सेक्स रोल्स में छपा था, जो महिलाओं के मुद्दों का विश्लेषण करने वाली एक पत्रिका है, जिसने उस चीज़ को अकाडमिक समर्थन दिया है जिसके बारे में हम सभी भारतीय जानते हैं। इसने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे “विश्वास जो महिलाओं को उनके उत्पीड़न के लिए दोषी ठहराते हैं, बदले में, वह महिलाओं के खिलाफ हिंसा को वैधता प्रदान करते हैं”।

महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए सरकारी योजनाओं का लगभग न के बराबर क्रियान्वयन है, जो भारत में महिलाओं की इस विकट स्थिति का एक मुख्य कारण है। वैसे तो वही कठोर रवैया कई जगहों पर देखने को मिलता है, लेकिन इसका असर महिलाओं की समस्या पर ज्यादा पड़ता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कठोर रवैया सिर्फ प्रशासनिक या राजनीतिक ही नहीं है, बल्कि यह समाज और नैतिकता (मोरेलिटी) में निहित है।

निर्भया बलात्कार कांड के बाद, जहां एक महिला के साथ केवल इसलिए बेरहमी से बलात्कार किया गया था क्योंकि वह देर रात तक बाहर थी, और अपने पुरुष मित्र के साथ अपनी स्वतंत्रता और अपने जीवन का आनंद ले रही थी, देश में इसके लिए कई कानूनी और सामाजिक सुधार लाए गए हैं। केंद्र और विभिन्न राज्यों दोनों ने क्षेत्र में महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी के लिए कई महत्वपूर्ण कार्यों का प्रस्ताव रखा है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक सरकार ने महिलाओं को किसी भी प्रकार के यौन उत्पीड़न के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने में मदद करने के लिए 24/7 समर्पित हेल्पलाइन शुरू की है।

लंबित मुकदमों को निपटाने और पीड़ितों को तत्काल कानूनी सहायता प्रदान करने के लिए फास्ट-ट्रैक न्यायालय स्थापित किए गए थे। पहले बलात्कार का वर्णन केवल संभोग तक ही सीमित था, लेकिन 2013 के आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम के बाद बलात्कार शब्द को अधिक सामान्य परिभाषा दी गई है। इसने आई.पी.सी. की धारा 375 में प्रदान की गई व्याख्या में संशोधन किया है।

संशोधन के बाद से, आई.पी.सी. की धारा 375 बलात्कार को महिला की सहमति के बिना महिला के शरीर के कुछ हिस्सों, जैसे योनि, मूत्रमार्ग, मुंह या गुदा में किसी भी अवांछित और जबरदस्ती प्रवेश करने के रूप में वर्णित करती है। जस्टिस वर्मा समिती का गठन किया गया था जिसने कई सुधारों का सुझाव दिया था।

नैसर्गिक (नेचरल) न्याय का मूल आधार यह है कि हर कोई बचाव का हकदार है। दोषी, निर्णय और अदालत के आदेश के खिलाफ, कुछ समय सीमा के भीतर अपील दायर कर सकते हैं, यानी 1963 के परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 115 में प्रदान की गई 30 दिनों की अवधि के भीतर। तमाम सुधारों के अलावा इस मामले को उस मामले के तौर पर भी याद किया जाएगा जहां आरोपियों ने व्यवस्थित तरीके से न्यायिक प्रक्रिया में हेराफेरी की और देश की सहनशीलता की परीक्षा ली थी।

हरबंस सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ यू.पी. और अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार, दोषियों को तब तक फांसी नहीं दी जा सकती जब तक कि मौत की सजा पर अंतिम व्यक्ति अपने उपचार को समाप्त नहीं कर देता और फांसी एक- एक कर के होनी चाहिए। जिन लोगों ने अपने कानूनी विकल्पों का प्रयोग किया है उन्हें फांसी दी जानी चाहिए। उसी स्थिति में, एक दोषी जानबूझकर याचिका दायर करने में देरी करता है और दूसरों को इंतजार करवाता है, जो फांसी की तारीख बढ़ाने का एक अच्छा तरीका है। इस मामले ने हमारी कानूनी व्यवस्था में मौजूद खामियों को उजागर किया है।

 

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