यह लेख M.N. Kaushika द्वारा लिखा गया है, जो स्कूल ऑफ एक्सीलेंस इन लॉ की छात्रा है। इस लेख में वह वैवाहिक बलात्कार (मैरिटल रेप) के एक्सक्लूजन क्लॉज के बारे में चर्चा करती है, जो भारतीय संविधान के आर्टिकल 14 और 21 का उल्लंघन (वॉयलेट) करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
“धारा 375 के लिए अपवाद (एक्सेप्शन)– एक आदमी द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संभोग (सेक्शुअल इंटरकोर्स), जहां पत्नी 15 वर्ष की आयु से कम नहीं है, तो वह बलात्कार नहीं है”।
विवाह संबंध के पिछे अंतर्निहित (कार्डिनल) विचारधारा (आइडियोलॉजी) यह है कि एक व्यक्ति के यौन वृत्ति (सेक्शुअल इंस्टिंक्ट) को नियमित (रेगुलेराइज) किया जा सके। जो कोई भी विवाह करता है तो, क्या एक सामाजिक अनुबंध (कॉन्ट्रेक्ट), उस व्यक्ति को अपनी पत्नी की सहमति के बिना उसके साथ संभोग करने के लिए पूर्ण अधिकार प्रदान करता है? इंग्लैंड में 17वीं शताब्दी में मुख्य न्यायाधीश सर मैथ्यू हेल ने कहा, ‘पति अपनी पत्नी पर, अपने द्वारा किए गए बलात्कार का दोषी नहीं हो सकता है, उनकी आपस में दी गई सहमति और अनुबंध के कारण, पत्नी ने अपने पति को अपनी सहमती दी है, जिससे अब वह पीछे नहीं हट सकती है’। इसलिए भारत में पूर्व सी.जे.आई. दीपक मिश्रा ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि वैवाहिक बलात्कार को भारत में अपराध के रूप में माना जाना चाहिए, क्योंकि यह परिवारों में पूर्ण अराजकता (अनार्ची) पैदा करेगा और हमारे देश ने अभी तक परिवार के मंच की वजह से खुद को बनाए रखा है, जो परिवार के मूल्यों को बनाए रखता है’। इस प्रकार विवाह की संस्था (इंस्टीट्यूशन), पति को पूर्ण अधिकार प्रदान करती है, की वह अपनी पत्नी के साथ जबरन और क्रूरता से पुरातन धारणा (आर्केक नोशन) ‘निहित अपरिवर्तनीय सहमति (इंप्लाईड इरेवोकेबल कंसेंट)’ के आधार पर निरंतर यौन संभोग कर सकता है। इस प्रकार वैवाहिक बलात्कार को दंड से मुक्त किया गया है।
वैवाहिक बलात्कार एक्सक्लूजन क्लॉज की संवैधानिकता (कांस्टीट्यूशनेलिटी)
शुरुआत में, कोई भी कानून केवल तभी मान्य होता है जब वह संवैधानिक परीक्षण (टेस्ट) के तहत खरा उतरता है। वैवाहिक बलात्कार का एक्सक्लूजन क्लॉज, भारतीय संविधान के तहत गारंटीकृत व्यक्ति के मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) का उल्लंघन करता है। प्रीएंबल, भारतीय संविधान की एक बुनियादी संरचना (बेसिक स्ट्रक्चर) है, जो पूरी तरह से सभी नागरिकों को न्याय, विचार और अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता, स्टेटस की समानता, लेकिन वास्तविकता में, भारत अभी भी इन सब को लागू करने से काफी पिछे है। आर्टिकल 14 कानून के समक्ष समानता और सभी व्यक्ति को कानून की समान सुरक्षा प्रदान करता है। यह तर्कसंगत (रीजनेबल) नेक्सस और इंटेलिजिबल डिफरेंशिया के आधार पर उचित वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) की अनुमति देता है। आई.पी.सी. में धारा 375 के अपवाद को बनाए रखने से राज्य ने आर्टिकल 14 का उल्लंघन किया है क्योंकि उसमे गैर-सहमति के बीच भेदभाव करने में कोई इंटेलिजिबल डिफरेंशिया या तर्कसंगत नेक्सस नहीं है जब अपराधी, एक मामले में तीसरा व्यक्ति है और किसी अन्य मामले में किसी महिला का पति है, तो पूर्व मामले में अपराधी को अपराधी बनाया जाता है और बाद के मामले में उसे सुरक्षित किया जाता है, जबकी दोनों कार्यों में पहुंचाया गया मनोवैज्ञानिक (साइकोलॉजिकल) क्षति (ट्रॉमा) समान होता हैं। विवाह, महिलाओं के बीच उचित वर्गीकरण के रूप में कार्य नहीं करता था। यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो) के तहत, 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे के साथ यौन संभोग करना अवैध है। हालांकि, धारा 375 के एक्सक्लूजन क्लॉज के तहत इसकी अनुमति दी गई है, जहां एक लड़की शादी-शुदा होती है और 15 से 18 वर्ष की आयु के बीच होती है। फिर भी, सुप्रीम कोर्ट ने एक व्यक्ति और उसकी पत्नी के बीच सहमति के बिना किए गए संभोग को अपराध बनाकर धारा 375 के अपवाद के एक हिस्से को हटाकर, इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में एक गतिशील (डायनेमिक) कदम उठाया है, यदि उसकी उम्र 15 से 18 वर्ष के बीच है, तो, उसकी रक्षा की जाती है, बावजूद इसके की वह विवाहित है या अविवाहित है, लेकिन वयस्क (एडल्ट) वैवाहिक बलात्कार के शिकार होने में उनकी मदद करने से अपने आप को नहीं रोका जा सकता है। इस प्रकार इस मामले के अनुसार विधायिका (लेजिस्लेचर) को आई.पी.सी. में उचित बदलाव लाने चाहिए और विवाह के आधार पर महिलाओं के अधिकार को कम नहीं करना चाहिए।
भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 को मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले के बाद न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म) के माध्यम से व्यापक व्याख्या (वाइड इंटरप्रिटेशन) दी गई है। ‘जीवन का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ शब्द स्वयं, दृढ़ संकल्प (सेल्फ डिटरमिनेशन), शारीरिक अखंडता (इंटीग्रिटी), गोपनीयता (प्राइवेसी) यौन गोपनीयता के साथ स्वीकार करता है। इस प्रकार आर्टिकल 21, लोगों को प्रदान किए गए कई वास्तविक (सब्सटेंटिव) अधिकारों और प्रक्रियात्मक (प्रोसिजरल) सुरक्षा उपायों का स्रोत (सोर्स) बन गया है। इससे वंचित (डिप्राईव), केवल प्रासंगिक (रिलेवेंट) कानून में निर्धारित प्रासंगिक प्रक्रिया के अनुसार किया जाएगा, लेकिन उस प्रक्रिया को उचित होना चाहिए। कर्तार सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 21 द्वारा बताई गई प्रक्रिया को “सही, न्यायपूर्ण (जस्ट) और निष्पक्ष (फेयर)” होना चाहिए और मनमाना, प्रशंसनीय (फैंसीफुल) या दमनकारी (ऑप्रेसिव) नहीं होना चाहिए। प्रक्रिया को प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) के अनुरूप (कंफर्म) होना चाहिए ताकि वह सही, उचित और न्यायपूर्ण हो। आर्चनात्मक मानदंड (आर्केइक नॉर्म) पर पूरी तरह से वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक रूप से आपराधिकृत न करना गलत और गैरकानूनी होगा। बोधिसत्वा गौतम बनाम सुभाष चक्रवर्ती के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बलात्कार, बुनियादी (बेसिक) मानव अधिकारों के खिलाफ अपराध है और पीड़ित के जीवन और गरिमा (डिग्निटी) के अधिकार का उल्लंघन है, और इसलिए यह आर्टिकल 21 का उल्लंघन करता है। इस प्रकार महिला के पति या किसी अजनबी व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य के बीच अंतर करने में कोई वास्तविक औचित्य (जस्टिफिकेशन) नहीं है। स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र बनाम माधकर नारायण के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रत्येक महिला के पास यौन गोपनीयता का अधिकार है और कोई भी इस अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता है। यहां तक कि आसान गुण (ईजी वर्च्यू) की महिला या वेश्या (प्रॉस्टिट्यूट) को भी यौन संभोग करने के लिए ना कहने का अधिकार है। इस अधिकार को विवाहित महिलाओं के लिए एक प्रगतिशील तरीके से बढ़ाया जाना चाहिए और इसे लागू करने और संरक्षित (प्रोटेक्ट) करने के लिए राज्य का दायित्व है। इस प्रकार इस निर्णय ने यौन गोपनीयता के अधिकार को आर्टिकल 21 के तहत रख दिया, जिसे केवल इस आधार पर महिलाओं के लिए अस्वीकृत नहीं किया जाना चाहिए की वह विवाहित है। आर्टिकल 21 का एक और महत्वपूर्ण अधिकार यह है कि, यह हर किसी को मानवीय गरिमा के साथ रहने का अधिकार प्रदान करता है, जिसे फ्रांसिस कोरली मुलिन बनाम एडमिनिस्ट्रेटर, यूनियन टेरिटरी ऑफ़ दिल्ली में आयोजित (अपहेल्ड) किया गया था। इस पहलू का उल्लंघन, आई.पी.सी. की धारा 375 के अपवाद का उपयोग करके स्पष्ट रूप से किया जाता है जब भी भारतीय महिलाएं अपने पति की वासना का शिकार बन जाती हैं।
राज्य का औचित्य (जस्टिफिकेशन), की वे कानून से धारा 375 के अपवाद को नहीं हटा रहा है
प्रमुख औचित्य सहमति की एक अपरिवर्तनीय धारणा (इररिफ्यूटेबल प्रिजंप्शन) है, जिसे व्यक्ति के विवाह के संबंध में प्रवेश करने से लेकर उसके अंत तक मौजूद माना जाता है। विवाह को एक नागरिक अनुबंध (सिविल कॉन्ट्रेक्ट) माना जाता है और यौन गतिविधियों के लिए सहमति इस अनुबंध का परिभाषित तत्व (एलिमेंट) माना जाता है। लेकिन मथुरा केस में बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा देखा गया की, सहमति और किसी अन्य तरीके से सहमति प्राप्त करने के बीच बहुत अंतर है “शरीर के केवल निष्क्रिय (पैसिव) या असहाय आत्मसमर्पण (सबमिशन) और वह अन्य व्यक्ति द्वारा डर या धमकियों से प्रेरित होकर उसकी वासना को सहमति दे देती है, तो यह उसकी इच्छा के समान नहीं हो सकता है”। लेखक इस मामले को, हाई कोर्ट द्वारा समझे गए, सहमति और निष्क्रिय सहमति के बीच के अंतर को समझाने के लिए यहां संदर्भित करते है, इसके बावजूद की यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया गया था।
भारत के विधि आयोग (लॉ कमीशन) ने “बलात्कार कानूनों की समीक्षा (रिव्यू)” पर अपनी 172 वीं रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के खिलाफ दावा किया कि ‘इससे विवाह की संस्था के भीतर बहुत अधिक हस्तक्षेप (इंटरफेयर) होगा’। दिसंबर 2012 के निर्भया कांड के बाद भारी विरोध और सार्वजनिक आक्रोश (आउटक्राई) के खिलाफ देश के बलात्कार विरोधी कानूनों में बड़े संशोधन (अमेंडमेंट) लाने के लिए बनाई गई, न्यायमूर्ति जे.एस. समिति (कमिटी) ने 2013 में ‘आपराधिक कानून में संशोधन पर समिति की रिपोर्ट’ (‘जे.एस. वर्मा रिपोर्ट’) प्रकाशित (पब्लिश) की थी। इस रिपोर्ट में दिए गए प्रमुख सुझावों में से एक यह था कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित किया जाना चाहिए और आई.पी.सी. की धारा 375 के अपवाद को हटाने की जरूरत है क्योंकि ‘कानून में विशेष रूप से कहा जाना चाहिए कि वैवाहिक संबंध या किसी अन्य समान संबंध को आरोपी के लिए वैध बचाव के रूप में नहीं होना चाहिए, या यह निर्धारित करते समय प्रासंगिक नहीं होना चाहिए कि सहमति मौजूद थी या नहीं और इसे सजा के उद्देश्य को कम करने वाला कारक (फैक्टर) नहीं माना जाता है। इसके अलावा गृह मामलों की संसद की स्थायी (स्टैंडिंग) समिति ने आपराधिक कानून संशोधन विधेयक (क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट बिल), 2012 पर अपनी 167वीं रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के खिलाफ तर्क दिया था, जिसमें कहा गया था कि “पूरी परिवार व्यवस्था अधिक तनाव में होगी और समिति शायद अधिक अन्याय कर रही होगी”। समिति ने तर्क दिया कि पर्याप्त उपायों का पूर्व-अस्तित्व (प्रीएक्सिस्टेंस) है जिसके माध्यम से परिवार स्वयं इस तरह के मुद्दों से निपट सकता है और आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत एक आपराधिक कानून उपचार है और घरेलू हिंसा अधिनियम (डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट), 2005 के तहत महिलाओं के संरक्षण लिए एक नागरिक उपचार है। 2015 में गृह मंत्रालय ने संसद सदस्य द्वारा प्रस्तावित एक विधेयक, जिसका उद्देश्य वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाना था के जवाब में कहा कि “यह माना जाता था कि वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा को, जैसा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समझा जाता है, भारतीय संदर्भ में उपयुक्त रूप से लागू नहीं किया जा सकता है”। वे इसके पीछे के तर्क को “विवाह को संस्कार के रूप में मानने के लिए समाज की मानसिकता” के रूप में कहते हैं। पूर्व महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने भी अमानवीय कार्यों को अपराध न बनाने के कारण के रूप में शिक्षा, साक्षरता (लिट्रेसी), गरीबी, सामाजिक रीति-रिवाजों, मूल्यों की कमी को जोड़ा था। यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि धारा 375 का अपवाद 2, एक आकस्मिक (एक्सीडेंटल) कमी ही नहीं है, बल्कि पितृसत्तात्मक (पेट्रियार्कल) कानून निर्माताओं का स्पष्ट रूप से अनिवार्य इरादा भी है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
पवित्र विवाह के दायरे के तहत सहमति के बिना किए जाने वाले यौन कार्यों को अपराध न बनाना अनुचित है। पति-पत्नी के बीच वैवाहिक संबंध होने का यह मतलब नहीं है की पत्नी ने अपने पति के साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमति दी है जब भी वह चाहता है और न ही पति अपनी पत्नी के साथ, बिना उसकी सहमति से संभोग कर सकता है। जैसे कि पहले चर्चा की गई थी, सत्ता में सरकार, विधायकों और सुप्रीम कोर्ट द्वारा, वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के लिए बहुत अधिक प्रतिरोध (रेसिस्टेंस) है। विवाह की पवित्र संस्था के स्थिरीकरण (स्टेबलाइजेशन) की रक्षा करने और पुरुषों के खिलाफ दुरुपयोग के संभावित खतरे को रोकने में परेशानी हो रही है। पीड़ा तब होती है जब भारत के सुप्रीम कोर्ट ने बहुत स्पष्ट रूप से निंदा की है कि “बलात्कार एक मृत्युहीन शर्म है और मानव गरिमा के खिलाफ सबसे गंभीर अपराध है” जब वही कार्य विवाह की सीमा के अंदर किया जाता है तो आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है। यहां तक कि भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जो शक्ति वाहिनी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, शफीन जहां बनाम अशोकन के.एम., नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और सबरीमाला मामले में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दिलाने, आदि के माध्यम से न्यायिक सक्रियता में अग्रणी (पायनीर) के रूप में खड़े थे, वह ही, वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के लिए अब अनिच्छुक हैं और अपने कर्तव्य का त्याग कर दिया है। लगभग 70 देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने वाले स्पष्ट कानून हैं। इस प्रकार पुरुष प्रधानवादी समाज के इस धार्मिक और सांस्कृतिक रूढ़िवादिता (स्टीरियोटाइप) के खिलाफ आवाज उठाना और वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) और बदलते सामाजिक मूल्यों के अनुसार भारत में वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण करना समय की आवश्यकता है, ताकि महिलाओं की गरिमा को पूरी तरह से सुरक्षित, संरक्षित, सशक्त (एंपावर) बनाया जा सके, ताकि भारतीय संविधान की सच्ची भावना की रक्षा की जा सके।
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