महबूब खान बनाम हकीम अब्दुल रहीम (1964)

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यह लेख Shilpi द्वारा लिखा गया है। इस लेख में महबूब खान बनाम हकीम अब्दुल रहीम (1964) मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय के निष्कर्षों और निर्णयों का विस्तृत विश्लेषण शामिल है। इसमें दानकर्ता (डोनर) की मृत्यु के बाद उपहार विलेख (गिफ्ट डीड) को रद्द करने के उत्तराधिकारियों के अधिकारों पर चर्चा की गई है, इस आधार पर कि उपहार विलेख, उपहार प्राप्तकर्ता (डोनी) के अनुचित प्रभाव में निष्पादित किया गया था। इस निर्णय ने भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 16 और 19A के मुसलमानों पर लागू होने पर प्रकाश डाला है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

हर व्यक्ति के पास स्वतंत्र इच्छा होती है। हर व्यक्ति को ऐसे फैसले लेने का अधिकार है जो किसी न किसी तरह से उसके जीवन को प्रभावित करेंगे। जब कोई व्यक्ति कोई निर्णय लेता है, चाहे वह कानूनी क्षेत्र के दायरे में हो या उसके बाहर, तो वह खुश महसूस करता है क्योंकि उसे चुनाव करने की स्वतंत्रता होती है। उसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता है, बिना किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसे कठपुतली की तरह इस्तेमाल किये जाने या अपने इशारों पर नचाये जाने के। 

कभी-कभी परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि व्यक्ति अनजाने में ही दूसरे पक्ष की धोखाधड़ी का शिकार हो जाता है। दूसरा पक्ष पूरी घटना को इतनी सूक्ष्मता (सब्टेलिटीज) से अंजाम देता है कि व्यक्ति को अंततः यह लगने लगता है कि वह अपनी इच्छा से कार्य कर रहा है। धोखाधड़ी का यह सूक्ष्म पहलू किसी की नजर में नहीं आता, क्योंकि इसका पता लगाना कठिन होता है, और दूसरा पक्ष इससे अत्यधिक लाभ उठाता है। ऐसा अधिकतर संपत्ति के लेन-देन के मामले में देखा जाता है 

इस संबंध में एक मामला राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष आया जिसमें अपीलकर्ता महबूब खान एवं अन्य तथा प्रतिवादी हकीम अब्दुल रहीम शामिल थे। यह मामला एक उपहार विलेख के निष्पादन के इर्द-गिर्द घूमता था, जहां अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह शून्य है क्योंकि इसे अन्य लोगों के अनुचित प्रभाव के माध्यम से निष्पादित किया गया था और इससे उत्तराधिकारियों के उचित दावे प्रभावित हुए थे। 

जबकि जिला न्यायालय ने निचली अदालत के उस निर्णय को पलट दिया, जिसमें वादी के पक्ष में निर्णय दिया गया था, वादी ने अपील दायर कर दावा किया कि उपहार विलेख के निष्पादन में अनुचित प्रभाव और धोखाधड़ी के संकेत थे। राजस्थान उच्च न्यायालय ने भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 (जिसे आगे “अधिनियम” कहा जाएगा) की धारा 16 और 19A तथा दिए गए मामले में मोहम्मडन कानून की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) की जांच की थी। 

मामले का विवरण

मामले के मूल विवरण निम्नलिखित हैं: 

  • न्यायालय: राजस्थान उच्च न्यायालय
  • अपीलकर्ता: महबूब खान एवं अन्य
  • प्रतिवादी: हकीम अब्दुल रहीम
  • मामला संख्या: एस.बी. सिविल द्वितीय अपील संख्या 294/1959
  • तटस्थ (न्यूट्रल) उद्धरण: एआईआर 1964 राजस्थान 250
  • पीठ: न्यायामूर्ति भार्गव
  • निर्णय की तिथि: 14.05.1964
  • प्रासंगिक अधिनियम: भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872
  • अधिनियम की प्रासंगिक धाराएँ: भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 16 और 19A

मामले के तथ्य

महबूब खान एवं अन्य बनाम हकीम अब्दुल रहीम (1964) मामले के तथ्य इस प्रकार हैं: 

कालू खान (अपीलकर्ताओं के पिता) ने प्रतिवादी के पक्ष में एक उपहार विलेख निष्पादित किया। कालू खान 61 वर्ष के वृद्ध व्यक्ति थे, अशिक्षित थे और उनके पास आय का कोई स्रोत नहीं था। उनकी तीन अविवाहित बेटियाँ थीं और उनकी पत्नी की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी। कालू खान हर बात के लिए प्रतिवादी (अपने पोते) पर निर्भर था। कालू खान का बेटा उनके रिश्तों में तनाव के कारण उनसे अलग रह रहा था। 

कालू खान को उसके दोस्तों ने यह विलेख निष्पादित न करने की सलाह दी। कालू खान ने अपने मित्र को बताया कि प्रतिवादी ने कालू खान को उसकी बेटियों के विवाह होने तक 20 रुपये प्रतिमाह देने तथा उसके बाद उसे खाना खिलाने और अपने साथ रखने का वादा किया है। कालू खान ने प्रतिवादी के पक्ष में उपहार विलेख निष्पादित किया। कालू खान के कब्जे वाली सम्पूर्ण संपत्ति उपहार विलेख के आधार पर प्रतिवादी को हस्तांतरित कर दी गई। 

कालू खान ने प्रतिवादी के खिलाफ मुकदमा दायर किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि प्रतिवादी ने अपना वादा पूरा नहीं किया है। मुकदमा लंबित रहने के दौरान कालू खान की मृत्यु हो गई, और इसलिए उनके बेटे और बेटियों ने मुकदमा जारी रखा। विचारण न्यायालय ने पाया कि उपहार विलेख की प्राप्ति में धोखाधड़ी हुई थी; हालांकि, उसने यह भी निर्णय लिया कि अनुचित दबाव की मौजूदगी का समर्थन करने के लिए कोई सबूत नहीं था। 

जिला न्यायाधीश ने निर्णय दिया कि उपहार विलेख के निष्पादन के समय प्रतिवादी द्वारा धोखाधड़ी किए जाने के दावे का समर्थन करने वाला कोई साक्ष्य नहीं था। जिला न्यायाधीश प्रतिवादी और कालू खान के बीच संबंधों की गतिशीलता या प्रतिवादी द्वारा कालू खान की इच्छा को प्रभावित करने की क्षमता पर विचार करने में विफल रहे। 

अपीलकर्ताओं ने जिला न्यायाधीश के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में इस आधार पर अपील दायर की कि निष्पादित उपहार विलेख शून्य है, क्योंकि इसे अनुचित प्रभाव, धोखाधड़ी और गलत बयानी द्वारा प्राप्त किया गया है। 

उठाए गए मुद्दे 

पक्षों के बीच विवाद के निपटारे के लिए न्यायालय द्वारा निम्नलिखित मुद्दों पर निर्णय लिया गया: 

  • क्या कालू खान द्वारा प्रतिवादी के पक्ष में निष्पादित उपहार विलेख अनुचित प्रभाव, धोखाधड़ी और गलत बयानी के कारण शून्य है?
  • क्या प्रतिवादी ने यह प्रस्तुत करके अनुचित प्रभाव की धारणा का खंडन किया है कि कालू खान ने उपहार विलेख निष्पादित करने से पहले स्वतंत्र सलाह ली थी?
  • क्या अपीलकर्ता (दानकर्ता के उत्तराधिकारी) मोहम्मडन कानून के सिद्धांत के बावजूद अधिनियम की धारा 19A के तहत उपहार विलेख को रद्द कर सकते हैं?

पक्षों द्वारा दिए गए तर्क

अपीलकर्त्ता

अपीलकर्ताओं ने माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित तर्क रखे: 

  • अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि कालू खान 75 वर्ष के वृद्ध व्यक्ति थे और पिछले 4 वर्षों से डायरिया से पीड़ित थे। वह अशिक्षित थे, आर्थिक रूप से कमजोर थे तथा अपने बेटे के साथ उनके संबंध बहुत संयमित (रिस्ट्रेनड) थे। अपने भरण-पोषण के लिए वह प्रतिवादी पर बहुत अधिक निर्भर थे। इस प्रकार, प्रतिवादी ने कालू खान की कमजोर स्थिति का फायदा उठाया और उसे अपने पक्ष में उपहार विलेख निष्पादित करने के लिए अनुचित रूप से प्रभावित किया। इसलिए, अधिनियम की धारा 16 के अनुसार उपहार विलेख को शून्य घोषित किया जाना चाहिए। 
  • अपीलकर्ताओं ने आगे तर्क दिया कि कालू खान के उत्तराधिकारी के रूप में, अपीलकर्ताओं को अधिनियम की धारा 19A के तहत उपहार विलेख को रद्द करने का अधिकार है। 
  • अपीलकर्ताओं ने दलील दी कि अनुचित प्रभाव की धारणा का खंडन करने के लिए, यह साबित करना होगा कि कालू खान ने उपहार विलेख निष्पादित करने से पहले स्वतंत्र सलाह ली थी, जिसे साबित करने में प्रतिवादी विफल रहा है। 

प्रतिवादी

प्रतिवादी ने माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किया: 

  • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि कालू खान ने उपहार विलेख निष्पादित करने से पहले अपने मित्रों से स्वतंत्र सलाह ली थी, जिससे यह साबित होता है कि उन्होंने उपहार विलेख निष्पादित करने का निर्णय स्वतंत्र रूप से लिया था। 
  • प्रतिवादी ने दलील दी कि वह कालू खान और उसकी बेटियों को आर्थिक रूप से सहायता कर रहा है तथा तीसरे पक्ष को दिए गए उनके कर्ज का भुगतान कर चुका है। प्रतिवादी की यह कार्रवाई साबित करती है कि प्रतिवादी और कालू खान के बीच वास्तविक और लाभकारी संबंध थे। 
  • प्रतिवादी ने आगे दलील दी कि, मोहम्मडन कानून के नियमों के अनुसार, किसी उपहार को केवल दानकर्ता द्वारा ही रद्द किया जा सकता है। दानकर्ता के उत्तराधिकारियों को उपहार विलेख को रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए, अपीलकर्ताओं को निष्पादित उपहार विलेख को रद्द करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। 
  • प्रतिवादी ने दावा किया कि इस दावे को पुष्ट करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं है कि कालू खान ने अनुचित प्रभाव में आकर उपहार विलेख निष्पादित किया था या यह कि उपहार विलेख दूसरों को धोखा देने के इरादे से निष्पादित किया गया था। प्रतिवादी द्वारा कालू खान की स्थिति का किसी भी प्रकार से दोहन न किए जाने के कारण, लेन-देन (उपहार विलेख का निष्पादन) निष्पक्ष था। 

महबूब खान बनाम हकीम अब्दुल रहीम (1964) में शामिल अवधारणाएँ

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 16

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 16 अनुचित प्रभाव के अर्थ पर प्रकाश डालती है: 

  1. जब किसी अनुबंध में दो पक्ष होते हैं और एक पक्ष दूसरे पक्ष से बेहतर स्थिति में होता है। जो पक्ष उच्च पद पर है, उसके पास दूसरे पक्ष की इच्छा को अनुचित तरीके से प्रभावित करने की शक्ति है। तब, यह कहा जा सकता है कि इस तरह के अनुबंध पर ‘अनुचित प्रभाव’ के तहत हस्ताक्षर किए गए हैं। 
  2. उप-धारा 2 में ऐसे उदाहरण दिए गए हैं, जो हमें यह निष्कर्ष निकालने में मदद कर सकते हैं कि एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की इच्छा पर हावी होने की स्थिति में है, भले ही पूर्व सिद्धांत के संबंध में प्रचलित सामान्य समझ कुछ भी हो। 
  • जहां व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ विश्वास का कानूनी या नैतिक संबंध साझा करता है और दूसरे व्यक्ति पर स्पष्ट या निहित अधिकार रखता है।
  • जहां व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा अनुबंध करता है, जहां बाद वाले को स्वस्थ दिमाग का नहीं माना जा सकता है क्योंकि उसकी मानसिक क्षमता बीमारी, उम्र या किसी शारीरिक या मानसिक बीमारी के कारण क्षणिक (फ्लीटिंग) या चिरस्थायी (एवरलास्टिंग) अवधि के लिए प्रभावित होती है। 
  • जब दो व्यक्ति किसी अनुबंध में प्रवेश करते हैं, जिसमें एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति प्राप्त होती है, तथा किसी भी प्रकार का लेन-देन होता है और सतह पर या पहचाने गए साक्ष्य के आधार पर यह पाया जाता है कि लेन-देन अनुचित प्रकृति का था, तो दूसरे व्यक्ति की इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति वाले व्यक्ति पर यह साबित करने का भार होगा कि अनुबंध में अनुचित प्रभाव के तत्व शामिल नहीं हैं।

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 19A

अधिनियम की धारा 19A में उस अनुबंध को रद्द करने की शक्ति पर चर्चा की गई है जिसमें अनुचित प्रभाव के तत्व मौजूद हों। 

जब यह पता चलता है कि पक्षों के बीच करार करने की सहमति पूरी तरह से ‘स्वतंत्र’ नहीं थी और यह अनुचित प्रभाव के कारण हुई थी, तो जिस पक्ष की सहमति उस व्यक्ति द्वारा प्रभावित थी जो हावी होने की स्थिति में है, उसके पास अनुबंध को शून्य घोषित करने की शक्ति है। 

इस प्रकार के अनुबंध को या तो पूर्ण रूप से रद्द किया जा सकता है, या फिर उस स्थिति में रद्द किया जा सकता है, जब अनुचित प्रभाव के माध्यम से अनुबंध पर सहमति देने वाले पक्ष को किसी भी तरह से ऐसे अनुबंध से लाभ प्राप्त हुआ हो। न्यायालय ऐसे अनुबंध को, जैसा वह उचित समझे, नियमों व शर्तों के आधार पर रद्द कर सकता है। 

मोहम्मडन कानून के सिद्धांत

मुस्लिम कानून के तहत, उपहार को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को संपत्ति या संपत्ति पर अधिकार के हस्तांतरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इस कानून के तहत प्रयुक्त शब्द ‘हिबा’ है जो किसी अधिकार या संपत्ति के स्वामित्व के बिना शर्त हस्तांतरण को दर्शाता है। इसका अर्थ यह है कि इस हस्तांतरण के बदले में कोई प्रतिफल (रिटर्न) या शर्त नहीं है।

मोहम्मडन कानून के तहत उपहार को निम्नलिखित मानदंडों को पूरा करना चाहिए: 

  1. उपहार स्वैच्छिक और बिना शर्त दिया जाता है; 
  2. यह दानकर्ता द्वारा प्राप्तकर्ता को संपत्ति का तत्काल हस्तांतरण है; 
  3. यह निर्दिष्ट मौजूदा चल या अचल संपत्ति का हस्तांतरण है; 
  4. यह हस्तांतरण बिना किसी प्रतिफल के होता है;
  5. उपहार को प्राप्तकर्ता द्वारा या उसकी ओर से स्वीकार किया जाना चाहिए। 

आमतौर पर मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों के अनुसार, जब एक बार नियमों के अनुसार हिबा कर दी जाती है, तो वह अपरिवर्तनीय हो जाती है। हिबा देने वाले को उपहार पूरा होने से पहले, अर्थात्, दानकर्ता द्वारा संपत्ति का कब्जा प्राप्तकर्ता को सौंपे जाने से पहले, इसे रद्द करने का अप्रतिबंधित अधिकार है। मुस्लिम कानून में कहा गया है कि यदि किसी उपहार को रद्द करना हो तो ऐसा केवल दानकर्ता द्वारा अपने जीवनकाल में ही किया जा सकता है। यदि दानकर्ता की मृत्यु हो गई है, तो उसके उत्तराधिकारियों को दानकर्ता द्वारा दिए गए उपहार को रद्द करने का अधिकार नहीं है। हालाँकि, यदि न्यायालय ने दानकर्ता के जीवित रहते हुए इस आशय का आदेश पारित किया है, तो उसके उत्तराधिकारियों को दानकर्ता की मृत्यु के बाद भी उपहार को रद्द करने का अधिकार होगा। 

महबूब खान बनाम हकीम अब्दुल रहीम (1964) में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय

पक्षों के बीच विवाद का फैसला करते समय माननीय उच्च न्यायालय ने कई निर्णयों और पुस्तकों का हवाला दिया। मामले में संदर्भित निर्णयों की चर्चा इस प्रकार है: 

पूसाथुराई बनाम कन्नप्पा चेट्टियार (1920) मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि अनुचित प्रभाव स्थापित करने के लिए यह साबित करना पर्याप्त नहीं है कि एक पक्ष सलाह के लिए दूसरे पक्ष पर निर्भर करता है और दूसरा पक्ष पहले पक्ष के निर्णयों को नियंत्रित कर सकता है। पक्ष को यह साबित करना होगा कि यह ‘मात्र प्रभाव’ नहीं था तथा दूसरे पक्ष ने अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिए अपनी स्थिति का प्रयोग किया। एक बार जब यह स्थापित हो जाता है कि किया गया सौदा अनुचित था (ऐसा कुछ जो अत्यंत अनुचित या अन्यायपूर्ण है), तो जो व्यक्ति प्रभुत्व स्थापित करने की स्थिति में है, उस पर यह साबित करने का भार होगा कि कोई प्रभुत्व स्थापित नहीं किया गया था। 

रघुनाथ प्रसाद बनाम सरजू प्रसाद (1924) मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने यह स्थापित करने के लिए तीन चरणीय प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार की कि अनुबंध बनाने में अनुचित प्रभाव का तत्व मौजूद था, जो इस प्रकार हैं: 

  • सबसे पहले, यह स्थापित करना आवश्यक था कि पक्षों में से एक दूसरे पर हावी होने की स्थिति में है। 
  • दूसरा, एक बार यह स्थापित हो जाने के बाद, यह पता लगाना होगा कि क्या अनुबंध अनुचित प्रभाव के माध्यम से किया गया था। 
  • तीसरा, जो व्यक्ति दूसरे की इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति में है, उस पर यह साबित करने का भार होगा कि अनुबंध अनुचित प्रभाव से प्रेरित नहीं था। 

इंचे नोरिया बनाम शेख एली (1929) मामले में यह निर्णय दिया गया कि अनुचित प्रभाव की धारणा का खंडन करने के कई तरीके हैं और स्वतंत्र कानूनी सलाह उनमें से एक तरीका है। हालांकि, स्वतंत्र कानूनी सलाह देने का कार्य अनुचित प्रभाव की धारणा को पूरी तरह से खारिज नहीं करता है, जब तक कि यह न दिखाया जाए कि जिस व्यक्ति ने दावा किया है कि उस पर अनुचित प्रभाव पड़ा है, उसने सलाह ली थी और वह अपने कार्यों के परिणामों से अच्छी तरह परिचित था। 

सोमेश्वर दत्त बनाम त्रिभवन दत्त (1934) में, जहां मामला धोखाधड़ी या जबरदस्ती के तत्वों के साथ अनुचित प्रभाव के इर्द-गिर्द घूमता था, प्रिवी काउंसिल ने कहा कि अनुचित प्रभाव को धोखाधड़ी के एक सूक्ष्म रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जहां एक व्यक्ति, जो दूसरे को नियंत्रित कर सकता है, उन्हें इस तरह से कार्य करने के लिए प्रेरित करता है जिससे पहले व्यक्ति को लाभ हो। ऐसा करते समय दूसरे व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि वह स्वयं ही कार्य कर रहा है। 

मामले का निर्णय

प्रतिवादी ने तर्क दिया कि किसी मुस्लिम के उत्तराधिकारियों को अधिनियम की धारा 19A के अंतर्गत अनुबंध को रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है। हालाँकि, उच्च न्यायालय ने माना कि धारा 19A सभी व्यक्तियों पर लागू होती है, जिसमें मुसलमान और यहाँ तक कि उनके उत्तराधिकारी भी शामिल हैं। वे किसी अनुबंध को रद्द कर सकते हैं यदि वह अधिनियम की धारा 19A के तहत निर्धारित तरीके से प्राप्त किया गया हो। अतः वर्तमान मामला अधिनियम की धारा 19A द्वारा शासित है। 

अदालत ने आगे कहा कि, मोहम्मडन कानून के अनुसार, उपहार को रद्द करने का अधिकार दानकर्ता का व्यक्तिगत अधिकार है, और उसकी मृत्यु के बाद, उसके उत्तराधिकारी ऐसे उपहार विलेख को रद्द नहीं कर सकते है। उपहार विलेख को रद्द करने का अधिकार दानकर्ता का व्यक्तिगत अधिकार है, और यह अधिकार दाता की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। किसी न्यायालय के आदेश से ही निरसन पूर्ण हो जाता है, न कि केवल मुकदमा दायर करने से। यहां तक कि जब कालू खान (दानकर्ता) द्वारा मुकदमा दायर किया गया, तो उनके पक्ष में फैसला पारित होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। इसलिए, अपीलकर्ता (दानकर्ता के उत्तराधिकारी) उपहार विलेख को रद्द करने का विकल्प नहीं चुन सकते है। 

न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी ने कालू खान को मकान की कीमत नकद में चुका दी है तथा कालू खान और उसकी बेटियों के भरण-पोषण का खर्च भी वहन किया है। न्यायालय ने गवाहों के बयानों के आधार पर फैसला सुनाया कि कालू खान को उसके दोस्तों ने उपहार विलेख निष्पादित न करने की सलाह दी थी। ये गवाह दोनों पक्षों के बीच संबंधों से अवगत थे। उन्होंने कालू खान को प्रतिवादी को सम्पूर्ण संपत्ति हस्तांतरित करने के परिणामों से भी अवगत कराया। इसलिए, न्यायालय ने माना कि कालू खान ने प्रतिवादी के पक्ष में उपहार विलेख निष्पादित करने से पहले स्वतंत्र सलाह ली थी। 

न्यायालय का मानना था कि यद्यपि प्रतिवादी कालू खान की इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति में था, फिर भी उपहार विलेख कालू खान द्वारा अपनी स्वतंत्र इच्छा से निष्पादित किया गया था। अनुचित प्रभाव की धारणा का पूर्णतः खंडन किया गया है। न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ता यह साबित करने में असफल रहे हैं कि विवादित उपहार विलेख कालू खान द्वारा प्रतिवादी के अनुचित प्रभाव में निष्पादित किया गया था; इसके अतिरिक्त, अपीलकर्ता को इसे रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है।

महबूब खान बनाम हकीम अब्दुल रहीम (1964) का विश्लेषण 

उच्च न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 19A सभी पर समान रूप से लागू होती है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। यह सुनिश्चित करता है कि कानून को लोगों की मर्जी के अनुसार लागू न किया जाए। न्यायालय का यह निर्णय कि कालू खान ने उपहार विलेख के निष्पादन से पहले स्वतंत्र सलाह ली थी, उपहार विलेख की वैधता को और मजबूत करता है। इससे यह साबित हुआ कि उपहार विलेख स्वेच्छा से तथा प्रतिवादी द्वारा किसी भी अनुचित प्रभाव का प्रयोग किए बिना निष्पादित किया गया था। 

प्रतिवादी द्वारा उपहार विलेख के तहत मकान का मूल्य चुकाने तथा कालू खान और उसकी बेटियों के खर्चों का भुगतान करने से यह प्रदर्शित होता है कि प्रतिवादी ने सद्भावनापूर्वक कार्य किया तथा अपने वादे का पालन किया था। निर्णय इसी तर्क पर आधारित था, जिससे पता चलता है कि अपील का निर्णय निष्पक्ष तरीके से किया गया था और निष्पादित उपहार विलेख की वैधता को बरकरार रखना उचित था। 

हालांकि, मोहम्मडन कानून के इस सिद्धांत को लागू करते हुए कि उपहार को रद्द करने का अधिकार दाता का व्यक्तिगत अधिकार है, यह दाता के उत्तराधिकारियों के उस उपहार विलेख को रद्द करने के अधिकार को प्रतिबंधित करता है जो अनुचित प्रभाव या जबरदस्ती के आधार पर निष्पादित किया गया हो। जब न्यायालय इस सिद्धांत का पालन करता है और उत्तराधिकारियों के उचित दावे को अस्वीकार करता है, तो वह अनजाने में उन धोखाधड़ी वाले लेन-देन को उचित ठहराता है, जो दाता की मृत्यु के बाद प्रकाश में आते हैं। यह अधिनियम उत्तराधिकारियों के संपत्ति में हिस्सा पाने के अधिकार का उल्लंघन करेगा। 

उत्तराधिकारियों को उपहार विलेख को शून्य घोषित करने की अनुमति न देने से न्यायालय के निर्णय की आलोचना हो सकती है, जिसमें उत्तराधिकारियों के वास्तविक हितों और अधिकारों की अनदेखी की बात कही जा सकती है, क्योंकि उत्तराधिकारी यह तर्क दे सकते हैं कि उनके उत्तराधिकार को प्रभावित करने वाले लेन-देन को चुनौती देने का अधिकार उनके पास होना चाहिए। इस निर्णय से ऐसा सिद्धांत स्थापित होने की संभावना है, जिससे ऐसे मामलों में उत्तराधिकारियों की स्थिति प्रभावित होगी तथा उनसे उनके अधिकार छीन लिए जाएंगे। 

यह देखा गया है कि, जबकि कानून के कुछ कानूनी सिद्धांतों और व्याख्याओं का पालन किया जाता है, वैधानिक कानून और व्यक्तिगत कानून के बीच संतुलन बनाने में असंगतताएं हैं। 

निष्कर्ष

वर्तमान मामला वैधानिक कानून, व्यक्तिगत कानून और उपहार देने वाले के उत्तराधिकारियों के अधिकारों का सम्मिश्रण है, जहां उपहार प्राप्तकर्ता द्वारा संभावित अनुचित प्रभाव डाले जाने का संदेह है। यह निर्णय देकर कि अधिनियम की धारा 19A सभी धर्मों पर लागू है, न्यायालय ने कानून का एकसमान अनुप्रयोग सुनिश्चित किया है। हालाँकि, मोहम्मडन कानून के तहत प्रदत्त हिबा का सिद्धांत धोखाधड़ी वाले लेनदेन को सुरक्षित कर सकता है, जब दानकर्ता की मृत्यु के बाद हिबा की वैधता प्रकाश में आती है। इससे दानकर्ता के उत्तराधिकारियों के उन लेनदेन को चुनौती देने के अधिकार सीमित हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, इससे दानकर्ता के उत्तराधिकारियों को अपनी विरासत का लाभ प्राप्त करने से भी वंचित होना पड़ेगा। अंततः, इस मामले में, उच्च न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया तथा कहा कि कालू खान ने स्वेच्छा से उपहार दिया था तथा अपीलकर्ताओं पर अनुचित प्रभाव साबित करने का भार नहीं डाला गया था। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

उच्च न्यायालय के फैसले का मुस्लिम उत्तराधिकारियों के अधिकारों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

उच्च न्यायालय के फैसले में इस बात पर जोर दिया गया कि मुस्लिम कानून के तहत, कोई भी उत्तराधिकारी दानकर्ता की मृत्यु के बाद उपहार विलेख को रद्द नहीं कर सकता है। इससे उन मामलों में उत्तराधिकारियों के अधिकार सीमित हो जाएंगे जहां अनुचित प्रभाव या जबरदस्ती का कार्य दानकर्ता की मृत्यु के बाद पता चलेगा। 

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 16 के अंतर्गत अनुचित प्रभाव के प्रमुख तत्व क्या हैं?

अधिनियम की धारा 16 के अंतर्गत अनुचित प्रभाव के प्रमुख तत्व हैं: 

  • एक पक्ष का दूसरे पक्ष पर प्रभुत्व होता है; 
  • प्रमुख पक्ष ने दूसरे पक्ष पर अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिए अपनी स्थिति का उपयोग किया;
  • गैर-प्रमुख पक्ष, दूसरे पक्ष की प्रमुख स्थिति के कारण अपनी स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करने में असमर्थ है। 

किसे दूसरे पक्ष की इच्छा पर हावी होने की स्थिति में माना जा सकता है?

एक व्यक्ति दूसरे पक्ष की इच्छा पर तब हावी हो सकेगा जब: 

  • उसका दूसरे पर वास्तविक या स्पष्ट अधिकार है;
  • वह किसी अन्य के साथ प्रत्ययी (फिडूशियरी) संबंध रखता है;
  • गैर-प्रमुख पक्ष की मानसिक क्षमता बीमारी, आयु या संकट के कारण प्रभावित होती है।

कौन सी परिस्थितियाँ अनुचित प्रभाव की उपस्थिति के उदाहरण हो सकती हैं?

निम्नलिखित संबंधों में एक पक्ष दूसरे पर अनुचित प्रभाव डाल सकता है: 

  • एक अभिभावक और एक नाबालिग;
  • आध्यात्मिक सलाहकार एवं भक्त;
  • न्यासी (ट्रस्टी) और लाभार्थी। 

अनुचित प्रभाव के तहत निष्पादित अनुबंध का क्या प्रभाव होता है?

अधिनियम की धारा 19A के अनुसार, अनुचित प्रभाव के तहत निष्पादित अनुबंध उस पक्ष के विकल्प पर शून्यकरणीय (वॉयडेबल) हो जाता है, जिसकी सहमति अनुचित प्रभाव के प्रयोग के कारण प्राप्त की गई थी। 

अनुचित प्रभाव की उपस्थिति को साबित करने के लिए अदालत में क्या उपाय किए जा सकते हैं?

कोई भी पक्ष प्रभुत्वपूर्ण संबंध और अनुचित लाभ की उपस्थिति को दर्शाने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत कर सकता है, ताकि यह साबित किया जा सके कि सामग्री अनुचित प्रभाव के प्रयोग के कारण प्राप्त की गई थी। 

जब यह पाया जाता है कि अनुबंध पर अनुचित प्रभाव पड़ा है तो किसी पक्ष के लिए क्या कानूनी उपाय उपलब्ध हैं?

पीड़ित पक्ष को निम्नलिखित राहतें प्राप्त हैं: 

  • पीड़ित पक्ष अनुबंध को रद्द करने की मांग कर सकता है;
  • पीड़ित पक्ष अनुबंध द्वारा प्रदान किए गए किसी भी लाभ की प्रतिपूर्ति (रियंबर्समेंट) की मांग कर सकता है;
  • यदि आवश्यक हो तो पीड़ित पक्ष क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है। 

अनुचित प्रभाव के दावे के विरुद्ध क्या बचाव उपलब्ध हैं?

अनुचित प्रभाव के दावे के विरुद्ध निम्नलिखित बचाव उपलब्ध हैं: 

  • यह साबित करना कि अनुबंध की शर्तें उचित एवं तर्कसंगत हैं;
  • यह साबित करना कि अनुचित प्रभाव की उपस्थिति का दावा करने वाले पक्ष ने अनुबंध निष्पादित करने से पहले स्वतंत्र कानूनी सलाह ली थी;
  • यह साबित करना कि कोई अनुचित लाभ प्राप्त नहीं किया गया है।

अनुचित प्रभाव और प्रपीड़न में क्या अंतर है?

अनुचित प्रभाव और प्रपीड़न के बीच अंतर इस प्रकार हैं:

क्रम सं. पहलू अनुचित प्रभाव प्रपीड़न
1. अधिनियम के अंतर्गत प्रासंगिक धारा धारा 16 धारा 15
2. परिभाषा दूसरे व्यक्ति की इच्छा को प्रभावित करने या उस पर हावी होने का कार्य भारतीय दंड संहिता, 1860 द्वारा निषिद्ध कोई कार्य करना या करने की धमकी देना, या किसी भी व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव डालने के लिए किसी भी संपत्ति को अवैध रूप से रोकना या रोकने की धमकी देना, किसी भी व्यक्ति को किसी करार में प्रवेश कराने के आशय से।
3. पक्षों के बीच संबंध अनुबंध पक्षों के बीच प्रत्ययी संबंध अनुबंध करने वाले पक्षों के बीच ऐसा कोई संबंध नहीं होता। 
4. कटौती अनुचित प्रभाव का अनुमान तब लगाया जा सकता है जब पक्ष, जो दूसरे की इच्छा पर हावी होने की स्थिति में है, मनोवैज्ञानिक दबाव का प्रयोग करता है या दूसरे पर सामाजिक दबाव डालता है। प्रपीड़न का आरोप धमकी या बल प्रयोग आदि के माध्यम से लगाया जा सकता है।
5. साबित करने का भार  उस व्यक्ति पर झूठ बोला जाता है जो दूसरे व्यक्ति की इच्छा पर हावी होने की स्थिति में होता है।  पीड़ित पक्ष पर झूठ बोलना

संदर्भ

 

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