एम. नागराज एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2006)

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यह लेख Nimisha Dublish द्वारा लिखा गया है। यह लेख एम.नागराज बनाम भारत संघ के मामले का गहन विश्लेषण है और इसपे भी चर्चा करता है कि कैसे इस मामले ने  सार्वजनिक रोजगार में पदोन्नति में आरक्षण नीतियों की स्थिति निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेख संक्षिप्त सारांश, तथ्यों, उठाए गए मुद्दों, पक्षों के तर्क और नागराज मामले के फैसले से संबंधित है। लेखक ने फैसले का आलोचनात्मक विश्लेषण करने का प्रयास किया है और फैसले के बाद के परिणामों पर भी चर्चा की है। इसका अनुवाद Pradyumn Singh के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

भारत में आरक्षण का विषय हमेशा से संवेदनशील रहा है। यह एक ऐसा विषय है जो बहुत सारी विस्फोटक बहसों को भी आकर्षित करता है। संविधान में वंचित समूहों के लिए आरक्षण बनाने के लिए सक्षम प्रावधान हैं। एक समूह का तर्क है कि उसने प्राचीन काल से कई कठिनाइयों का सामना किया है और वे लोग मुआवजे के रूप में कुछ राहत का हकदार है। दूसरी ओर, एक अन्य समूह का दावा है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश है, और इसका संविधान बताता है कि हर कोई समान है। यदि किसी विशेष समूह को कोई अतिरिक्त लाभ मिलता है तो वे इसे भेदभाव कहते हैं। लेकिन वही संविधान जीवन के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे शिक्षा, सरकारी नौकरियों, न्यायपालिका आदि में सीटें आरक्षित करने का प्रावधान भी करता है। इसलिए, एक आम आदमी के लिए, यह एक विरोधाभासी (कनफ्लिक्टिंग) स्थिति है। आरक्षण नीति उन मुद्दों को संबोधित करने का एक तरीका है जो प्राचीन काल से चले आ रहे हैं, जैसे जाति के आधार पर वर्षों से हो रहे उत्पीड़न। आरक्षण समाज के उन पिछड़े वर्गों को मौका देने के लिए किया गया था जो दबे हुए हैं और जिन्होंने ऐतिहासिक अन्याय का भी सामना किया है। व्यक्ति की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति के बावजूद, वर्तमान आरक्षण प्रणाली उन्हें उच्च स्तर पर रखती है। अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) श्रेणी के तहत किसी व्यक्ति की स्थिति निर्धारित करने के लिए केवल उसकी जाति को देखा जाता है। ये आरक्षण केवल जाति व्यवस्था पर आधारित हैं और वर्तमान में इनका समाज में उनकी आर्थिक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं है। 

भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से इस मामले पर अपनी राय दी है। ये फैसले ऐसे मामलों में न्यायपालिका के व्यवहार को दर्शाते हैं। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण निर्णय, जो आरक्षण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कानूनी मामला एम.नागराज बनाम भारत संघ (2006) रहा है,। जहां सरकारी विभागों में पदोन्नति में आरक्षण के विचार को उन नीतियों के आधार पर चुनौती दी गई थी, जिन पर यह आधारित था, ऐसी नीतियों को भेदभावपूर्ण और प्रकृति में अवैध होने का दावा किया गया था। मध्य प्रदेश सरकार ने सार्वजनिक विभाग में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण और पदोन्नति प्रदान की। इस निर्णय की आलोचना की गई क्योंकि यह एक अधिकार-विरोधी कार्रवाई थी और इसमें समानता के कानून और नागराज मामला प्रावधानों का उल्लंघन किया गया था। 

यह मामला भारत के संविधान का अनुच्छेद 368 के संशोधन प्रावधान पर जोर देता है। ऐसा कहा जाता है कि असंशोधनीय(अनअमेंडबले) संविधान अब तक का सबसे भयानक अत्याचार है। भारत का संविधान कानून के सामान्य सिद्धांतों और ढांचे को बताता है। इसलिए व्यवस्था की कठोरता और लचीलेपन को बनाए रखने के लिए, निर्माताओं ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 368 का मसौदा तैयार किया। 

 

मामले का विवरण

मामले का नाम: एम नागराज एवं अन्य बनाम भारत संघ

समतुल्य उद्धरण: 2006 8 एससीसी 212; एआईआर 2007 एससी 71; [2006] पूरक (7) एससीआर 336

फैसले की तारीख: 19 अक्टूबर 2006

न्यायालय : भारत का सर्वोच्च न्यायालय

मामला संख्या: 2002 का रिट याचिका (सिविल) क्रमांक 61, 62, 81, 111, 134, 135, 206, 226, 227, 255, 266, 269, 279, 299, 294, 295, 298, 250, 319, 375, 386, 387, 320, 322, 323, 338, 234, 340, 423, 440, 453, 460, 472, 482, 483, 484, 485, 550, 527 और 640।  2003 का  एसएलपी (सी) क्रमांक 4915-4919, रिट याचिका (सिविल)क्रमांक 153/2003, सी.पी. (सी) क्रमांक 404/2004 रिट याचिका (सिविल) क्रमांक 255/2002, सी.पी. (सी) क्रमांक 505/2002 रिट याचिका (सिविल) क्रमांक 61/2002, सी.पी. (सी) क्रमांक 553/2002 रिट याचिका (सिविल) क्रमांक 266/2002, सी.पी. (सी) क्रमांक 570/2002 रिट याचिका (सिविल) क्रमांक 255/2002, सी.पी. (सी) क्रमांक 122/2003 रिट याचिका (सिविल) क्रमांक 61/2002, सी.पी. (सी) क्रमांक 127/2003 रिट याचिका (सिविल) क्रमांक 61/2002, सी.पी. (सी) रिट याचिका (सिविल) संख्या 255/2002 में संख्या 85/2003, 2003 की रिट याचिका (सिविल) संख्या 313 और 381, सिविल अपील संख्या 12501-12503/1996, एसएलपी (सी) संख्या 754 /1997, रिट याचिका (सिविल) 2003 की संख्या 460, सिविल अपील संख्या 7802/2001 और 7803/2001, रिट याचिका (सिविल) संख्या 469/2003, एसएलपी (सी) संख्या 19689/1996, रिट याचिका (सिविल) 2, 515, 519, 562 और 563 का 2004, 1997 की रिट याचिका (सिविल) संख्या 413, 2004 की रिट याचिका (सिविल) संख्या 286 और 2004 की एसएलपी (सी) संख्या 14518। 

याचिका (सिविल) संख्या 61, 62, 81, 111, 134, 135, 206, 226, 227, 255, 266, 269, 279, 299, 294, 295, 298, 250, 319, 375, 386, 387, 320, 322, 323, 338, 234, 340, 423, 440, 453, 460, 472, 482, 483, 484, 485, 550, 527 और 640 का 2002,  एसएलपी (सी) संख्या 4915-4919 का 2003, याचिका (सिविल) संख्या 153/2003, सी.पी. (सी)  संख्या 404/2004 याचिका (सिविल) संख्या 255/2002 में, सी.पी. (सी)  संख्या 505/2002 याचिका (सिविल) संख्या 61/2002 में, सी.पी. (सी)  संख्या 553/2002 याचिका (सिविल) संख्या 266/2002 में, सी.पी. (सी)  संख्या 570/2002 याचिका (सिविल) संख्या 255/2002 में, सी.पी. (सी)  संख्या 122/2003 याचिका (सिविल) संख्या 61/2002 में, सी.पी. (सी)  संख्या 127/2003 याचिका (सिविल) संख्या 61/2002 में, सी.पी. (सी) संख्या 85/2003 याचिका (सिविल) संख्या 255/2002 में, याचिका (सिविल) संख्या 313 और 381 का 2003, सिविल अपील संख्या 12501-12503/1996,  एसएलपी (सी) संख्या 754/1997, याचिका (सिविल) संख्या 460 का 2003, सिविल अपील संख्या 7802/2001 और 7803/2001, याचिका (सिविल) संख्या 469/2003,  एसएलपी (सी) संख्या 19689/1996, याचिका (सिविल) 2, 515, 519, 562 और 563 का 2004, याचिका (सिविल) संख्या 413 का 1997, याचिका (सिविल) संख्या 286 का 2004 और  एसएलपी (सी) संख्या 14518 का 2004। 

मामले का प्रकार: रिट याचिका (सिविल)

याचिकाकर्ता: एम. नागराज एवं अन्य

प्रतिवादी: भारत संघ एवं अन्य

पीठ : मुख्य न्यायाधीश वाई के सबरवाल, न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन, न्यायाधीश एस एच कपाड़िया , न्यायाधीश सि के ठककेर और न्यायाधीश पी के बलसुब्रमणयम। 

संदर्भित कानून: भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 16, 16(4a), 335 और 368। 

आरक्षण प्रणाली का विकास 

स्वतंत्रता-पूर्व युग (1947 से पहले)

जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था, तब समाज जाति, धर्म और जातीयता के आधार पर विभाजित था। ब्रिटिशों ने मौजूदा विभाजन का उपयोग भारतीय समुदायों को अपने लाभ के लिए नियंत्रित करने और उन पर शासन करने के लिए किया। समाज में मौजूदा विभाजन के कारण कई समूहों के साथ गलत व्यवहार किया गया। 

19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में, जाति-आधारित भेदभाव को चुनौती देते हुए सामाजिक सुधार आंदोलन हुए। राजा राम मोहन राय, ज्योतिराव फुले और डॉ. बीआर अंबेडकर जैसे नेताओं ने निचली जाति समुदायों के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

स्वतंत्रता के बाद का युग (1947 के बाद)

आरक्षण मुख्य रूप से जाति पर आधारित था, जिसमें अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) शामिल थे। महिलाओं, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) और विकलांग व्यक्तियों (पीडब्ल्यूडी) को शामिल करने के लिए दायरे का और विस्तार किया गया। मंडल आयोग (1979) इन सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े समूहों की स्थिति का आकलन करने के लिए भी स्थापित किया गया था। उन्हें इन समूहों के उत्थान के लिए उपायों और सिफारिशों का मसौदा तैयार करने की भी आवश्यकता थी। मंडल आयोग की सिफ़ारिश पर ही ओबीसी को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में मंडल आयोग रिपोर्ट 1990 के तहत आरक्षण दिया जाना चाहिए। आरक्षण की व्यवस्था कई कानूनी चुनौतियों और बहसों का विषय रही है। 

संवैधानिक पहलू

संविधान निर्माताओं का विचार था कि अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा सामना किए गए ऐतिहासिक अन्याय को संबोधित करने की आवश्यकता है। वे सामाजिक समानता को बढ़ावा देना चाहते थे। अनुच्छेद 15(4) और 16(4) अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सहित सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण प्रदान करते है। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के प्रावधानों को शामिल करने के पीछे विधायी मंशा उनके हितों की रक्षा करना था। ऐसा इसलिए था क्योंकि जब संविधान बनने की प्रक्रिया चल रही थी, तब ये पिछड़े वर्ग भी आर्थिक रूप से पिछड़े थे। उन्हे जन्म से अपनी जाती के कारण समाज से उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ा। इसलिए, निर्माताओं ने उन्हें दूसरों के बराबर लाने के लिए रोजगार के दौरान आरक्षण के प्रावधान शामिल किए। 

हालिया विकास

हाल के वर्षों में, आरक्षण प्रणाली की क्षमता पर कई चर्चाएँ हुई हैं और आरक्षण नीति की समीक्षा और संशोधन की आवश्यकता महसूस की गई है। सरकार ने विभिन्न श्रेणियों के तहत आरक्षण के प्रतिशत को संशोधित किया है और नए कोटा भी पेश किए हैं, जैसे 2019 में ईडब्ल्यूएस कोटा, जो सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को 10% आरक्षण प्रदान करता है। आरक्षण किस आधार पर दिया जाए इस पर आलोचक अलग-अलग राय रखते हैं। साथ ही, कुछ लोगों का मानना ​​है कि आरक्षण नीतियों में बड़े बदलाव की आवश्यकता है क्योंकि, आज के समय में, निर्णय मानदंड जाति से हटकर व्यक्ति की आर्थिक स्थिति पर निर्भर होना चाहिए। हालांकि, आरक्षण व्यवस्था अभी भी गहन राजनीतिक बहस का विषय है।   

नागराज मामले का संक्षिप्त सारांश

एम. नागराज बनाम भारत संघ, के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 में संशोधन की संवैधानिक वैधता पर विचार-विमर्श किया। मुख्य केंद्र अनुच्छेद 16(4a) और 16(4b) पर था। ये संशोधन विभिन्न संशोधन अधिनियमों द्वारा जारी किए गए थे। इसने अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए परिणामी वरिष्ठता के साथ पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति दी। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि संशोधनों ने भारत के संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन किया है, विशेष रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता और गैर-भेदभाव के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। यह तर्क दिया गया कि संसद ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत मौलिक सिद्धांत को बदलकर अपनी संशोधन शक्ति को पार कर लिया है।

जवाब में, सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिवादियों ने संशोधनों का बचाव किया और तर्क दिया कि वे अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अनुसूचित जातियों (एससी) के पिछड़े वर्गों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय को संबोधित करने के लिए एक आवश्यक उपाय थे। यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाना था कि सार्वजनिक रोजगार में उच्च पदों पर अनुसूचित जातियां (एससी) और अनुसूचित जनजातियां (एसटी) का समान प्रतिनिधित्व हो। किए गए संशोधन संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप थे और प्रशासन की क्षमता और वंचित समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों दोनों पर अनुच्छेद 335 के तहत विचार किया गया था। 

हालांकि,सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4A) और 16(4B) की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। इसने यह ध्यान में रखते हुए कि संशोधन भारत के संविधान की मूल संरचना के विरुद्ध नहीं होंगे, संशोधन करने के संसद के अधिकार की पुष्टि की। अदालत ने स्पष्ट किया कि पदोन्नति के बारे में आरक्षण को मात्रात्मक डेटा द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए, जिसमें समाज में पिछड़ापन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व भी शामिल है। इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए उपाय किए जाने चाहिए कि प्रशासनिक दक्षता या सामान्य श्रेणी की तरह अन्य श्रेणियों के अन्य उम्मीदवारों के अधिकारों से समझौता किए बिना इच्छित उद्देश्य पूरा हो।  

एम. नागराज और अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2006) के तथ्य

याचिकाकर्ताओं ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 का आह्वान करते हुए संविधान (पचासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2001 को रद्द करने के लिए एक रिट याचिका दायर की। रिट उत्प्रेषण लेख की प्रकृति में थी। उक्त संशोधन अधिनियम के तहत संशोधन ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 में खंड (4a) जोड़ा। उक्त संशोधन ने पूर्वव्यापी प्रभाव रखा। इसमें पदोन्नति के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था जिसके परिणामस्वरूप वरिष्ठता मिलती थी। उनका मानना ​​था कि यह संशोधन भारत के संविधान के अनुरूप नहीं है और यह मूल संरचना के सिद्धांत का उल्लंघन करता है और भारत संघ बनाम वीरपाल सिंह चौहान (1995), अजीत सिंह जनुजा बनाम पंजाब राज्य (1999), अजीत सिंह और अन्य(II) बनाम पंजाब राज्य और अन्य (1999), अजीत सिंह और अन्य(III) बनाम पंजाब राज्य और अन्य(1999), एम. जी. बदप्पनवर और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य (2000) और इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के पिछले निर्णयों को भी प्रभावित करता है।

इस संदर्भ में यह याद रखना चाहिए कि,इंद्रा साहनी मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि अनुच्छेद 16(4), जैसा कि तब था, पदोन्नति के मामलों में आरक्षण लाने के लिए पर्याप्त व्यापक नहीं था। हालांकि, न्यायालय ने घोषणा की कि इसका उन पदोन्नतियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जो पहले ही बनाई जा चुकी हैं और वास्तव में, अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान की है कि जहां भी केंद्रीय या राज्य सेवाओं में आरक्षण पहले से ही प्रदान किया गया है, वही स्थिति अतिरिक्त पांच वर्ष के लिए जारी रह सकती है। उसके बाद संविधान (सत्तरवाँ) संशोधन अधिनियम,1995 अनुच्छेद 16(4a) जोड़ा गया, जिसने पदोन्नति में आरक्षण की पेशकश की। पुनर्पूंजीकरण (रीकैपिटुलेट) के लिए, यह प्रावधान वर्तमान में पढ़ता है:

(4a) इस अनुच्छेद में  कोई भी राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में राज्य के अधीन सेवाओं में किसी भी वर्ग या पदों के वर्गों के लिए परिणामी वरिष्ठता के साथ पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए कोई प्रावधान करने से नहीं रोकेगा। राज्य की राय में, राज्य के अधीन सेवाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।”

याचिका में दावा किया गया है कि इस संशोधन के द्वारा विधायिका ने अपनी शक्तियों से परे जाकर प्रयोग किया है और इस तरह भारत के संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन किया है। संशोधन ने मौलिक रूप से समानता के अधिकार को बदल दिया, जो भारत के संविधान का एक अनिवार्य हिस्सा है। 

मामले मे उठाए गये  मुद्दे

क्या उसके अनुसरण में की गई कार्रवाई पदोन्नति और पूर्वव्यापी प्रभाव से उनके आवेदन से संबंधित मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को उलटने का प्रयास करती है या नहीं।

निम्नलिखित संशोधनों की वैधता, व्याख्या और कार्यान्वयन क्या है-

संविधान (सत्तरवाँ संशोधन) अधिनियम, 1995

संविधान (इक्यासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2000

संविधान (बयासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2000

संविधान (पचासीवाँ संशोधन) अधिनियम,2001

मामले में दोनों पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ताओं की दलीलें

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि समानता भारत के संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है जैसा कि अनुच्छेद 14 में प्रदान किया गया है। समानता और निष्पक्षता का सिद्धांत इसके केंद्रीय और आवश्यक घटकों में से एक है और इसके बिना संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करना लगभग असंभव है। आगे यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 16 को अनुच्छेद 14 के अनुसार पढ़ा जाना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुच्छेद 16 भी समानता के लिए आवश्यक है। 

याचिकाकर्ताओं ने आगे तर्क दिया कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 16 रोजगार समानता के लिए सुरक्षा प्रदान करता है और सार्वजनिक क्षेत्र के रोजगार को बहुत महत्व देता है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि, यदि हम संतुलन को व्यक्तियों के मुकाबले समूहों के पक्ष में अधिक झुकाते हैं, तो इससे विपरीत रूप से व्यक्तियों के खिलाफ भेदभाव हो सकता है। जब संविधान के प्रावधानों को निरस्त करने की बात आती है, तो संसद के पास भारत के संविधान को पूरी तरह से फिर से लिखने की क्षमता नहीं होनी चाहिए। हमें कोटा सीमा और आरक्षण के लिए अनुमत अधिकतम सीमा के बीच अंतर को समझना चाहिए। कई निर्णयों में यह आग्रह किया गया है कि सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता को अनुच्छेद 16(1) और 16(4) की संरचना और संतुलन के लिए स्पष्ट किया जाए, विशेष रूप से इंद्रा साहनी, एम.जी. बडअप्पनवर, और अजीत सिंह (द्वितीय) के निर्णयों में। 

याचिकाकर्ताओं द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 के संबंध में अनुच्छेद 14 और 16 को पढ़ने का आग्रह किया गया था। याचिकाकर्ताओं द्वारा इस बात पर भी जोर दिया गया कि संशोधन सुशासन के साथ-साथ क्षमता, योग्यता और सार्वजनिक सेवा मनोबल के दोहरे आदर्शों का उल्लंघन करते हैं।   

याचिकाकर्ताओं द्वारा यह भी तर्क दिया गया कि, पिछले कुछ वर्षों में, न्यायालय ने विभिन्न निर्णय दिए हैं कि समानता और सकारात्मक कार्रवाई के सिद्धांत हमारे भारतीय संविधान के स्तंभ हैं। याचिकाकर्ताओं का आग्रह है कि रोजगार में समानता विभिन्न पहलुओं को शामिल करती है। इनमें अवसर की समानता [अनुच्छेद 16(1)], भेदभाव-विरोधी [अनुच्छेद 16(2)], विशेष वर्गीकरण [अनुच्छेद 16(3)], सकारात्मक कार्रवाई [अनुच्छेद 16(4)], और क्षमता [अनुच्छेद 335] शामिल हैं। यह बताया गया कि सकारात्मक कार्रवाई, जैसा कि अनुच्छेद 16(4) में प्रदान किया गया है, को समानता के ढांचे के भीतर एक वर्गीकरण के रूप में देखा जाना चाहिए। इसे कमजोर करने के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।’ समान अवसर के व्यक्तिगत अधिकार को इन वर्गीकरणों या सकारात्मक कार्रवाई से प्रभावित नहीं किया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता इस बिंदु पर आगे तर्क देते हैं कि अनुच्छेद 16(1) यह सुनिश्चित करता है कि अवसर की समानता का व्यक्तिगत अधिकार दिया गया है, जबकि अनुच्छेद 16(4) यह सुनिश्चित करता है कि समूह की अपेक्षाएं सकारात्मक कार्रवाई के माध्यम से पूरी की जाती हैं लेकिन कोई मौलिक अधिकार प्रदान नहीं करता है। हालांकि, व्यक्तिगत अधिकारों पर समूह की अपेक्षाओं पर अत्यधिक जोर देने से विपरीत भेदभाव हो सकता है।  

याचिकाकर्ताओं ने मिनर्वा मिल्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (1980) मामले पर भरोसा किया यह सिद्ध करने के लिए कि संशोधन की सीमित शक्ति असीमित नहीं बन सकती। यह भारत के संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक है और इसकी शक्ति पर लगाई गई सीमाओं को नष्ट नहीं किया जा सकता है। यदि किसी संशोधन का दायरा संविधान की मूल संरचना को निरस्त कर देता है, तो ऐसा संशोधन विफल होना चाहिए।   

प्रतिवादी के तर्क

प्रतिवादी ने तर्क दिया कि संशोधन का अधिकार एक गठित शक्ति के बजाय एक घटक शक्ति है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत विधायिका को इसमें संशोधन करने का अधिकार देता है। संशोधन की संवैधानिक शक्ति को अधिक लचीला और संप्रभु माना जाता है, जबकि गठित शक्तियां भारत के संविधान के भीतर उल्लिखित बाधाओं और प्रक्रियाओं के अधीन हैं। हालाँकि संविधान में संशोधन करने का अधिकार प्रकृति में व्यापक है, लेकिन यह पूर्ण नहीं है। इसलिए, इसका प्रयोग संविधान के अंतर्निहित सिद्धांतों का उचित सम्मान करते हुए किया जाना चाहिए। कानून को गतिशील बनने के लिए बदलना होगा। समय और समाज को जब भी आवश्यकता हो तब संशोधन करना पड़ता है। यह न्यायपालिका ही है जो घटक शक्ति का प्रयोग करके कानून में किए गए उन संशोधनों की वैधता पर अंतिम अधिकार रखती है। न्यायपालिका द्वारा इसकी जांच की गई कि क्या संशोधन भारत के संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता है या नहीं। कानून में संशोधन करते समय अनुच्छेद 368 के तहत दी गई संसद की शक्ति पर कोई निहित सीमा मौजूद नहीं है। हालाँकि, यदि यह संशोधन भारत के संविधान की मूल संरचना से छेड़छाड़ करता है तो यह अमान्य होगा।

आगे यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 14 और 16 के तहत दिए गए समानता के सिद्धांत को उस समानता के साथ नहीं मिलाया जाना चाहिए जो भारत के संविधान का एक मूलभूत घटक है। उन्होंने आगे तर्क दिया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के साथ पढ़े गए अनुच्छेद 21 के तहत जीने के मौलिक अधिकार को छोड़कर, किसी विशेष अनुच्छेद में बुनियादी संरचना नहीं दी गई है; भारत के संविधान के भाग III में कोई अन्य अनुच्छेद बुनियादी विशेषता नहीं है। बल्कि, यह वे अवधारणाएँ हैं जो प्रस्तावना से संविधान तक प्रवाहित होती हैं जो एक धागे की तरह है जो मूल संरचना का निर्माण करता है। प्रतिवादीओं द्वारा प्रस्तुत किया गया कि अनुच्छेद 16 के संदर्भ में सामान्य वर्ग और आरक्षित वर्ग के अधिकारों को संतुलित करने के सिद्धांत का भारत के संविधान की मूल विशेषता से कोई संबंध नहीं है। 

आगे यह तर्क दिया गया कि सार्वजनिक सेवा क्षेत्र, विशेष रूप से सेवाओं में पदोन्नति के लिए विचार करने का अधिकार, भारत के संविधान की बुनियादी विशेषता नहीं है।

प्रतिवादीओं द्वारा यह प्रस्तुत किया गया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4a) और 16(4b) केवल सक्षम प्रावधान है। इसके अलावा, इन सक्षम प्रावधानों की संवैधानिकता, जैसा कि यहां बताया गया है, का परीक्षण इस संदर्भ में नहीं किया जाना चाहिए कि ऐसी शक्ति का प्रयोग कैसे किया जाता है। साथ ही, विवादित संशोधनों ने अनुच्छेद 16(1) से 16(4) की संरचना को बरकरार रखा है। प्रतिवादीओं द्वारा यह भी तर्क दिया गया कि प्रश्न में किए गए संशोधनों ने भर्ती स्तर पर आरक्षण को बरकरार रखा है, जिससे  इंद्रा साहनी  मे स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन प्रतीत होता है। इंद्रा साहनी  का निर्णय भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) को केवल प्रारंभिक नियुक्तियों तक सीमित कर दिया है। यह भारत के संविधान का अनुच्छेद 16(4a ) है जो केवल अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए पदोन्नति में आरक्षण का विशेष प्रावधान प्रदान करता है। यह आग्रह किया गया था कि यदि एससी, एसटी और ओबीसी को एक साथ जोड़ दिया जाता है, तो उस स्थिति में, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सभी रिक्तियां निकाल लेगा। यही कारण है कि अनुच्छेद 16(4a) को भारत के संविधान में एक विशेष प्रावधान के रूप में जोड़ा गया है। इस मामले में, मुख्य रूप से ध्यान ओबीसी पर था न कि एससी या एसटी पर। यही कारण था कि सामान्य वर्ग, ओबीसी और एससी/एसटी के बीच अधिकारों का संतुलन नहीं था। आगे यह तर्क दिया गया कि आरक्षण की सीमा 50% की सीमा तक नहीं थी; यह केवल अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) तक ही सीमित था। इससे इंद्रा साहनी  मामले मे बताए गए जोखिम कम हो जाते हैं।

तर्क यह सुझाव देने के लिए आगे बढ़ता है कि, यदि सीधी भर्ती के माध्यम से उच्च स्तर पर आरक्षण लागू करना कानूनी रूप से स्वीकार्य है, तो भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 के अनुरूप पदोन्नति के लिए भी इसी तरह के प्रावधानों को बढ़ाया जा सकता है। न्यायालय ने पहले ही आरक्षण के लिए रिक्तियों को भरने की सीमा अधिकतम 50% तक सीमित करके सामान्य वर्ग के हित का ख्याल रखा है। तर्क में आगे कहा गया है कि अनुच्छेद 16(4B) इंद्रा साहनी मामला द्वारा तय की गई 50% सीमा में संशोधन करता है। इसमें कहा गया है कि पिछले वर्ष की रिक्तियों को चालू वर्ष की रिक्तियों के साथ नहीं माना जाएगा। अनुच्छेद 16(4B) अनुच्छेद 16(4) पर लागू होता है और यदि आरक्षण उचित पाया जाता है, तो अदालत ऐसे आरक्षण को बरकरार रखेगी। इसलिए, अनुच्छेद 16(4B) के तहत सक्षम करने की शक्ति को अमान्य नहीं ठहराया जा सकता है।    

एम. नागराज बनाम भारत संघ (2006) मामले में शामिल भारतीय संविधान के प्रावधान

भारत के संविधान का अनुच्छेद 14

भारत के संविधान का अनुच्छेद 14 दो मूलभूत सिद्धांतों की गारंटी देता है, अर्थात्, कानून के समक्ष समानता और कानून की समान सुरक्षा। कानून के समक्ष समानता अनिवार्य करती है कि प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उनकी पृष्ठभूमि या स्थिति कुछ भी हो, समान कानूनों और उपचार के अधीन है। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है और कानून की नजर में सभी के साथ समान व्यवहार किया जाता है। यह राज्य के मनमाने और भेदभावपूर्ण व्यवहार पर रोक लगाता है और यह सुनिश्चित करता है कि न्याय निष्पक्ष रूप से दिया जाए। कानूनों की समान सुरक्षा के दूसरे मूलभूत सिद्धांत के लिए राज्य को समान परिस्थितियों में आने वाले व्यक्तियों पर एकरूपता से कानून लागू करने की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करता है कि समान स्थितियों के साथ समान व्यवहार किया जाए और किसी भी आधार पर कोई भेदभाव न हो। राज्य किसी वैध तर्क के बिना किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को दूसरे से अधिक तरजीह नहीं दे सकता।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का सार समानता की गारंटी में निहित है। इसका मतलब यह है कि राज्य धर्म, जाति, नस्ल, लिंग, जन्म स्थान या ऐसे किसी अन्य कारक के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता है। सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्तियों के साथ, उनकी पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना, कानून द्वारा समान व्यवहार किया जाएगा।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4A) और 16(4B)

भारत के संविधान का अनुच्छेद 16(4A) सार्वजनिक रोजगार के मामले में अवसर की समानता के सामान्य नियम के लिए एक विशिष्ट अपवाद प्रदान करता है। यह राज्य को अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के पक्ष में, परिणामी वरिष्ठता के साथ, पदोन्नति के मामले में व्यक्तियों के समूहों के आरक्षण के लिए कुछ प्रावधान करने की अनुमति देता है। आरक्षण केवल तभी दिया जाएगा यदि राज्य को विश्वास हो कि रोजगार की सेवा में इन समूहों का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। 

भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 का उद्देश्य अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) द्वारा सामना किए गए ऐतिहासिक भेदभाव और सामाजिक नुकसान को स्वीकार करना है। यह प्रावधान उन व्यक्तियों के लिए समाधान प्रदान करता है जिनका सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व कम है। हालांकि, भारत के संविधान का अनुच्छेद 16(4A) राज्य को पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने का निर्बाध अधिकार नहीं देता है। यह अधिकार इस शर्त के अधीन है कि संबंधित सेवाओं में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। 

भारत के संविधान का अनुच्छेद 16(4B) राज्य को उन रिक्तियों से निपटने के लिए लचीलापन प्रदान करता है जो भारत के संविधान का अनुच्छेद 16(4) या अनुच्छेद 16(4A) के तहत आरक्षण नीतियों के संचालन के कारण भरी नहीं गई हैं और किसी विशेष वर्ष के लिए आरक्षित हैं। यह प्रावधान राज्य को इन अधूरी रिक्तियों को रिक्तियों की एक अलग श्रेणी के रूप में मानने की अनुमति देता है, जिसे बाद के वर्षों में उस वर्ष की कुल रिक्तियों में शामिल किए बिना भरा जाना है, जिसमें वे मूल रूप से आरक्षित थे। यह राज्य के नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करने की अनुमति देता है। भारत के संविधान का यह अनुच्छेद राज्य को इन अधूरी आरक्षित रिक्तियों को एक अलग श्रेणी के रूप में आगे बढ़ाने में सक्षम बनाता है। प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि ये रिक्तियां खो न जाएं या उस वर्ष की वर्तमान रिक्तियों के साथ विलय न हो जाएं, जिसमें वे मूल रूप से आरक्षित थीं। 

77वां संशोधन अधिनियम, 1995

संविधान (सत्तरवाँ संशोधन) अधिनियम, 1995, के माध्यम से भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4A) को भारत के संविधान में शामिल किया गया था। लागू भाग इस प्रकार है:

“[राज्य] अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए किसी भी वर्ग या पदों के वर्गों में उन्नति के मुद्दों पर आरक्षण की कोई व्यवस्था कर सकता है।”

संशोधन में कहा गया है कि राज्य के पास किसी भी पद पर उन्नति के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण करने की शक्ति है।

81वां संशोधन अधिनियम, 2000

संविधान (इक्यासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2000, के माध्यम से भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4B) को भारत के संविधान में शामिल किया गया था। लागू भाग इस तरह है:

“[राज्य विचार कर सकता है] किसी वर्ष के किसी भी अधूरे अवसर को उस वर्ष में शीर्ष पर रहने के लिए बचाया जाता है, जो कि किसी भी सफल वर्ष या वर्षों में शीर्ष पर रहने के लिए एक अलग वर्ग के रूप में होता है और किसी भी बाद के वर्ष या वर्षों में पूर्ण होने के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है। जिसमें उस वर्ष के अवसरों की कुल संख्या पर 50% आरक्षण की सीमा तय करने के लिए उन्हें शीर्ष पर रखा जा रहा है।

संशोधन राज्य को रिक्तियों की एक अलग श्रेणी के रूप में न भरी गई रिक्तियों को मानने की अनुमति देता है, जिन्हें बाद के वर्षों में उस वर्ष की कुल रिक्तियों में शामिल किए बिना भरा जाना है, जिसमें वे मूल रूप से आरक्षित थे।

85वाँ संशोधन अधिनियम 2001

संविधान (पचासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2001, के माध्यम से भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 में संशोधन किया गया है। अनुच्छेद 16(4A) में “किसी भी वर्ग की उन्नति के मुद्दों में” शब्दों को “किसी भी वर्ग की परिणामी वरिष्ठता के साथ, उन्नति के मुद्दों में” से प्रतिस्थापित (सब्सीट्यूट) कर दिया गया है।   

भारत के संविधान का अनुच्छेद 335

भारत के संविधान का अनुच्छेद 335 सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षण नीति को संबोधित करता है। आरक्षण नीति का उद्देश्य प्राचीन काल से एससी और एसटी द्वारा सामना किए गये ऐतिहासिक भेदभाव को संबोधित करना है। इन वर्षों में, विभिन्न कानून और नीतियां स्थापित की गई हैं, जिनकी उत्पत्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 से हुई है। संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 और संविधान (अनुसूचित जनजातियाँ) आदेश, 1950,क्रमशः एससी और एसटी के रूप में मान्यता प्राप्त समुदायो को निर्धारित करते है। इन सूचियों को सामाजिक-आर्थिक विचारों के आधार पर समय-समय पर अद्यतन (अपडेट) किया जाता है।

82वां संशोधन अधिनियम 2000

संविधान (बयासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2000, के माध्यम से भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 में संशोधन किया गया। भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 में एक प्रावधान जोड़ा गया। प्रावधान इस प्रकार कहता है-

“इस अनुच्छेद में कुछ भी परीक्षा में अर्हता (क्वालीफाइंग) अंक कम करने या मूल्यांकन के मानकों को कम करने, किसी भी वर्ग या प्रशासनों या पदों के वर्ग की पदोंउन्नति के मुद्दों में आरक्षण के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के व्यक्तियों के पक्ष में किसी भी व्यवस्था के निर्माण से नहीं रोका जाएगा।”

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए अर्हक अंकों में छूट प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 335 में प्रावधान जोड़ा गया था। 

भारत के संविधान का अनुच्छेद 368

भारत के संविधान का अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन की प्रक्रिया की रूपरेखा बताता है। मौलिक अधिकारों, राज्य नीतियों के निदेशक सिद्धांतों (डीपीएसपी) आदि सहित संविधान के विभिन्न प्रावधानों में संशोधन करने की शक्ति संसदी प्राधिकारियों के पास निहित है। हालांकि, यह शक्ति पूर्ण नहीं है, यह कुछ सीमाओं के साथ आता है। यह बाधा मूल संरचना का सिद्धांत है। यह मनमाने परिवर्तनों के खिलाफ सुरक्षा के रूप में कार्य करता है जो भारत के संविधान के बुनियादी सिद्धांतों को कमजोर कर सकते हैं।

संवैधानिक स्वरूप और संवैधानिक सिद्धांत के बीच संबंध

संवैधानिक स्वरूप और संवैधानिक सिद्धांत के बीच का संबंध भारत के संविधान में “बुनियादी संरचना सिद्धांत” और भाग III में मौलिक अधिकारों के रूप में दिया गया है। “बुनियादी संरचना सिद्धांत” संवैधानिक स्वरूप से संबंधित है और मौलिक अधिकार संवैधानिक सिद्धांतों से संबंधित हैं। भारत के नागरिकों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए, ये सिद्धांत धर्म की स्वतंत्रता, कानून के समक्ष समानता, जीवन की सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। 

ये सिद्धांत प्रश्न करते हैं कि क्या मौलिक अधिकार संविधान की मूल संरचना का गठन करते हैं या नहीं। हालांकि, ये संवैधानिक सिद्धांत संवैधानिक स्वरूप की रीढ़ हैं। ये सिद्धांत भारत के संविधान में विभिन्न प्रावधानों में परिलक्षित होते हैं और वे भारत के संविधान की पहचान और चरित्र को परिभाषित करते हैं।

इन सिद्धांतों को साकार करने की अलग-अलग व्याख्याएँ हो सकती हैं, हालांकि, इन्हें प्राप्त करने के लिए सबसे प्रभावी साधन निर्धारित करना राज्य के दायरे में है। यह सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है कि वह न्याय और समानता के मूलभूत सिद्धांतों को कायम रखे, जो संवैधानिक रूप में अंतर्निहित है। नीचे दी गई तालिका इन दोनों अवधारणाओं के बीच तुलना प्रदान करती है।

क्र.सं. संवैधानिक स्वरूप संवैधानिक सिद्धांत
1 यह संविधान की संरचना और रूपरेखा को संदर्भित करता है। यह संविधान के मूलभूत मूल्यों और मार्गदर्शक सिद्धांतों को संदर्भित करता है।
2 इसमें संस्थागत रूप, शक्तियों का विभाजन और प्रक्रियात्मक तंत्र शामिल हैं। यह संविधान की व्याख्या और अनुप्रयोग को आकार देता है।
3 उदाहरण के लिए शक्तियों का पृथक्करण संघवाद संसदीय लोकतंत्र न्यायिक समीक्षा उदाहरण के लिए न्याय समानता, कानून का नियम, मौलिक अधिकार। 
4 यह एक ढाँचा प्रदान करता है जिसके अंतर्गत शासन संचालित होता है और संस्थाएँ कार्य करती हैं। यह संविधान की एक नैतिक नींव के रूप में कार्य करता है जो यह सुनिश्चित करता है कि कानून और नीतियां निर्धारित मूल मूल्यों के साथ संरेखित हों।

मामले में फैसला

पीठ ने माना कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4A) और अनुच्छेद 16(4B) के संशोधित प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) के ढांचे में कोई बदलाव नहीं करते हैं। आगे यह माना गया कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 335 पिछड़ेपन और प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता जैसे कुछ मानदंडों को संरक्षित करने के महत्व पर प्रकाश डालता है, और आरक्षण नीतियों को लागू करते समय समग्र प्रशासन प्रभावित नहीं होता है। ये मानदंड सुनिश्चित करते हैं कि आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित समूहों को आरक्षण दिया जाए। आरक्षण सरकारी प्रशासन की क्षमता को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। इस मामले में जिन संशोधनों को चुनौती दी गई है, वे केवल अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) पर लागू होते हैं। 

तीन महत्वपूर्ण तत्व हैं, अर्थात्, 50% आरक्षण सीमा, क्रीमी लेयर और उचित औचित्य (जस्टीफिकेशन) की आवश्यकता। ये पूर्वापेक्षाएँ यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण हैं कि जरूरतमंद लोगों को समान अवसर की व्यवस्था दी जा रही है। सबसे पहले, 50% सीमा सरकारी नौकरियों में आरक्षित सीटों के कुल प्रतिशत पर एक सीमा निर्धारित करती है। यह आरक्षित और सामान्य दोनों श्रेणी के उम्मीदवारों के हितों को संतुलित करने में मदद करता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि उम्मीदवारों को समान अवसर दिया जाता है और योग्य उम्मीदवार को प्रतिस्पर्धा करने का उचित मौका मिलता है। दूसरे, क्रीमी लेयर अवधारणा का उद्देश्य उन व्यक्तियों को आरक्षण का लाभ लेने से रोकना है जो आरक्षित श्रेणी के मानदंडों के अंतर्गत आते हैं। इससे यह सुनिश्चित होता है कि आरक्षण का लाभ केवल उन्हीं लोगों को मिले जिन्हें वास्तव में उत्थान की आवश्यकता है। तीसरा, आरक्षण के प्रावधान करने से पहले, संबंधित राज्य अधिकारियों को प्रत्येक मामले में पिछड़ेपन, भागीदारी की कमी और समग्र प्रशासन के मौजूदा कारकों पर गौर करना चाहिए। यह सुनिश्चित करता है कि आरक्षण नीतियां व्यक्तियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में वास्तविक अंतर के आधार पर बनाई गई हैं। ये प्रावधान भारत में आरक्षण प्रणाली की अखंडता को बनाए रखने के लिए सुरक्षा उपाय के रूप में कार्य करते हैं। 

माननीय पीठ ने आगे बताया कि जिन खंडों को चुनौती दी गई है वे केवल सक्षम खंड/प्रावधान हैं और सरकार को पदोन्नति में अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षण लगाने की आवश्यकता नहीं है। राज्य को मात्रात्मक तथ्य एकत्र करने चाहिए जो सार्वजनिक रोजगार में एक निश्चित प्रकार के पिछड़ेपन और प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता के अस्तित्व को स्पष्ट और चित्रित करें। यह पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान स्थापित करने के लिए किया जाएगा। ऐसा करते समय राज्य को भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 का भी पालन करना होगा।  

यह बताया गया कि भले ही राज्य के पास आरक्षण नीतियों को लागू करने के लिए वैध कारण हों, फिर भी उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि नीतियां अति (ओवरबोर्ड) न हो जाएं। इसका मतलब यह है कि आरक्षण कानून अत्यधिक न हो जाएं, जिससे अंततः क्रीमी लेयर के सेवारत उम्मीदवारों को बाहर कर दिया जाए। न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि आरक्षण के लाभ को अनिश्चित काल तक नहीं बढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि यह सामाजिक गतिशीलता में बाधा उत्पन्न करेगा और व्यक्तियों के बीच निर्भरता को कायम रखेगा। ऐसी आरक्षण नीतियां बनाते समय संतुलन बनाए रखा जाएगा।

राज्य को विस्तार से उल्लेख करना चाहिए कि पदोन्नति में आरक्षण सरकार की प्रशासनिक दक्षता को प्रभावित किए बिना पिछड़े वर्गों को कैसे मदद और बढ़ावा देगा। राज्य पदोन्नति में आरक्षण के कारणों को रेखांकित करने और समाज में पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता को उचित ठहराने वाला एक दस्तावेज प्रस्तुत करेगा। 

माननीय पीठ के अनुसार, सामाजिक न्याय का संबंध लाभ और दायित्वों के आवंटन से है। अधिकारों, आवश्यकताओं और साधनों के बीच संघर्ष वितरण के आधार के रूप में कार्य करता है। इन आवश्यकताओं को औपचारिक समानता या आनुपातिक समानता के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यहां समानता का मतलब यह है कि कानून सभी के साथ समान व्यवहार करता है।

इस फैसले के पीछे तर्क

संवैधानिक संशोधनों की न्यायिक समीक्षा के मानक

भारत का संविधान महज एक दस्तावेज नहीं है जिसमें गुजरे समय के लिए नियम-कायदे शामिल हैं। बल्कि, यह कुछ सिद्धांतों को निर्धारित करता है जो एक विस्तारित भविष्य के दायरे को सामने लाता है और आने वाले युगों तक कायम रहने के लिए तैयार किया गया है। इसलिए, संविधान के उन प्रावधानों की व्याख्या करने के लिए कड़ाई से शाब्दिक दृष्टिकोण के बजाय एक उद्देश्यपूर्ण दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें कहने के लिए केवल शब्दों से अधिक कुछ है। प्रावधानों को व्यापक और उदार तरीके से अपनाया जाना चाहिए। इसमें बदलती परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा। प्रत्येक व्यक्ति के पास किसी भी संविधान से स्वतंत्र रूप से कुछ बुनियादी मानवाधिकार हैं, क्योंकि साधारण तथ्य यह है कि वे मानव जाति का हिस्सा हैं। इन व्यक्तियों के पास मौजूद मौलिक अधिकार एक आंतरिक मूल्य रखते हैं। भारत के संविधान के भाग III द्वारा लोगों को मौलिक अधिकार प्रदान नहीं किये गये हैं; बल्कि, यह सिर्फ उनके अस्तित्व और सुरक्षा की पुष्टि करता है। इसका मकसद कुछ विषयों को राजनीतिक विवादों से भटकाना है। ऐसा उन्हें ऐसी स्थिति में रखने के लिए किया गया है जहां कोई बहुमत पक्ष या अधिकारी उन तक नहीं पहुंच सके और उनका उल्लंघन न कर सके और उन्हें कानूनी सिद्धांतों के रूप में माना जाए जिन्हें अदालतों द्वारा लागू किया गया है। प्रत्येक मौलिक अधिकार का एक मूलभूत मूल्य होता है। एक अधिकार को मौलिक अधिकार में बदल दिया जाता है क्योंकि यह मूलभूत मूल्य रखता है। मौलिक अधिकार राज्य की शक्ति को सीमित करने का कार्य करता है।   

सकल पेपर्स (प्राइवेट)लिमिटेड बनाम भारत संघ (1961), के मामले में न्यायालय ने माना कि अदालतों को भाषा की शाब्दिक अर्थ में व्याख्या करने के लिए बहुत कठोर नहीं होना चाहिए। संविधान की व्याख्या इस तरीके से की जानी चाहिए जिससे व्यक्ति अपने गारंटीशुदा अधिकारों का पूरी तरह से आनंद उठा सकें। ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) में  सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में एक संकीर्ण और शाब्दिक व्याख्या दी थी। भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को शामिल करने से इनकार कर दिया। बहुमत से, न्यायालय ने माना कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का अर्थ संसद या राज्य की विधायिका द्वारा स्थापित प्रक्रिया है। तीन दशकों की अवधि के बाद, मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) के ऐतिहासिक फैसले से इसे खारिज कर दिया गया। इस मामले में, यह माना गया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा दी गई प्रक्रिया को तर्कसंगतता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। प्रक्रिया प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप होनी चाहिए। जीने का अधिकार केवल भौतिक या पशु अस्तित्व तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सम्मान के साथ मानव जीवन जीने तक भी सीमित है। न्यायालय ने कुछ टिप्पणियाँ की हैं कि कुछ मूलभूत विशेषताएं अनुच्छेदों में निहित हैं। उदाहरण के लिए, सूचना की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आती है। न्यायालय ने जानने के अधिकार और सूचना तक पहुंच के अधिकार की व्याख्या करने में एक उदार दृष्टिकोण अपनाया, जो अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत प्रदत्त स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत है।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि किसी अधिकार की सामग्री पर अंतिम निर्णय न्यायालय का होता है। संवैधानिक न्याय निर्णयन की प्रकृति पर कई बहसें हुई हैं। एक ओर, यह तर्क दिया जाता है कि कानून की न्यायिक समीक्षा शाब्दिक और उसके मूल इरादे के अनुरूप होनी चाहिए। जबकि, दूसरी ओर, ऐसे मामलों में विभिन्न प्रकार के मानकों और मूल्यों की अनुमति है जहां संवैधानिक पाठ प्रकृति में अनिश्चित है। न्यायालय के लिए जो प्रश्न प्रासंगिक है वह निर्धारण के मानकों को निर्धारित करना है जिन्हें बुनियादी संरचना सिद्धांत के संदर्भ में संवैधानिक संशोधनों की वैधता का निर्धारण करने में लागू करने की आवश्यकता है। बुनियादी संरचना की अवधारणा संविधान को आंतरिक मूल्य देकर कुछ स्थायित्व प्रदान करती है। यह सिद्धांत जर्मन संविधान से लिया गया है।

एस.आर. बोम्मई और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (1994), में न्यायालय ने माना कि संविधान की मूल संरचना के तत्व के खिलाफ राज्य सरकार की नीतियां भारत के संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत केंद्रीय शक्ति के प्रयोग के लिए वैध आधार होंगी, यानी राष्ट्रपति शासन लागू करना। यह भी घोषित किया गया कि धर्मनिरपेक्षता(सेक्यूलरिज़म) भारत के संविधान की एक अनिवार्य विशेषता है और बुनियादी ढांचे का भी हिस्सा है। न्यायालय ने आगे कहा कि राज्य सरकार के कृत्यों को खारिज किया जा सकता है यदि वे प्रावधानों को लागू करने के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ कार्य करते हैं।   

सर्वोच्च न्यायालय यह कहना चाह रहा है कि संघवाद, धर्मनिरपेक्षता, तर्कसंगतता, समाजवाद(सोशलिज़म) आदि के सिद्धांत किसी विशेष प्रावधान के शब्दों से परे हैं। ये सिद्धांत किसी राष्ट्र के संविधान को सुसंगति प्रदान करते हैं। वे संवैधानिक कानून का हिस्सा हैं, भले ही उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया हो। संवैधानिक सिद्धांतों को संविधान की बुनियादी विशेषताओं के रूप में माने जाने के योग्य बनाने के लिए, यह स्थापित किया जाना चाहिए कि वे संवैधानिक कानून का एक हिस्सा हैं जो विधायिका पर बाध्यकारी हैं। फिर, यह निर्धारित करना आवश्यक है कि क्या सिद्धांत, सिद्धांत की मूल संरचना का हिस्सा है या नहीं । इसलिए, यदि किसी सिद्धांत को बुनियादी विशेषता के रूप में अर्हता प्राप्त करने की आवश्यकता है, तो उसे पहले संवैधानिक कानून के एक भाग के रूप में स्थापित करना होगा। इसके बाद ही इसकी आगे जांच की जा सकती है कि क्या यह संसद की संशोधन शक्ति को भी बाध्य करने के लिए पर्याप्त मौलिक है। मूल संरचना सिद्धांत जर्मन संविधान से लिया गया है। इसे प्रेस या धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित दोनों संविधानों के तहत विभिन्न समान प्रावधानों से देखा जा सकता है। ये न केवल मूल्य हैं बल्कि व्याख्या करने में भी सक्षम हैं। राज्य पर एक सकारात्मक कर्तव्य लगाया गया है कि वह न केवल किसी व्यक्ति के अधिकारों, स्वतंत्रता की रक्षा करे बल्कि इन्हें सुविधाजनक भी बनाए। कुछ सिद्धांत, जैसे धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) , तर्कसंगतता (रिज़नेबलनेस)  इत्यादि, ऐसे सिद्धांत हैं जो अनुच्छेद 14, 19 और 21 से जुड़े हुए  हैं। हालाँकि, ये संसद की संशोधन शक्ति से परे हैं। राज्य द्वारा मानवीय गरिमा की रक्षा की जानी चाहिए। हालाँकि कानून द्वारा परिभाषित मानवीय गरिमा की ऐसी कोई परिभाषा नहीं है, यह आमतौर पर मनुष्य के आंतरिक मूल्य को संदर्भित करता है, जिसका हमेशा सम्मान किया जाना चाहिए। यही कारण है कि जर्मन अदालतें मानवीय गरिमा को एक मौलिक सिद्धांत के रूप में देखती हैं और इसी तरह जर्मन संविधान के तहत बुनियादी संरचना सिद्धांत विकसित हुआ है।

भारतीय संविधान के तहत प्रस्तावना में संघवाद (फेडेरालिस्म) का उल्लेख नहीं है। हालांकि, इसका सिद्धांत भारत के संविधान के विभिन्न प्रावधानों पर चित्रित है। इस अवधारणा की उत्पत्ति भारत के संविधान की अनुसूची VII के साथ तीन सूचियों के साथ पढे गये अनुच्छेद 245 और 246 के तहत शक्तियों के पृथक्करण से हुई है। न्यायालय ने संवैधानिक पहचान के सिद्धांत पर भरोसा किया जैसा कि केशवानंद भारती श्रीपादगलवरु बनाम केरल राज्य (1973) मामले में बताया गया है। इस मामले में, यह देखा गया कि कोई भी व्यक्ति कानूनी तौर पर संविधान का इस्तेमाल खुद को नष्ट करने के लिए नहीं कर सकता है। न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि संविधान का व्यक्तित्व अपरिवर्तित रहना चाहिए। यही कारण है कि न्यायालय ने निर्णय देते समय संवैधानिक पहचान के सिद्धांत पर भरोसा किया। पुराना कानून जिसे बदल दिया गया है या संशोधित किया गया है, वह परिवर्तन के अधीन होने के बावजूद अस्तित्व में है। पहचान को नष्ट करने का मतलब संविधान की मूल संरचना को रद्द करना होगा। मिनर्वा मिल्स लिमिटेड मामले में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, वाई.वी.चंद्रचूड़ ने कहा कि “संविधान एक अनमोल विरासत है और इसलिए, आप इसकी पहचान को नष्ट नहीं कर सकते।”

क्या समानता भारत के संविधान की मूलभूत विशेषता या मूल संरचना का हिस्सा है?

समानता, न्यायिक समीक्षा, कानून का शासन और शक्तियों का पृथक्करण एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं, लेकिन वे एक-दूसरे से अलग हैं और उन्हें अलग से माना जाना चाहिए। उनमें से कोई भी एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, कानून के समक्ष समानता के बिना कानून का शासन संभव नहीं होगा।

मिनर्वा मिल्स, के मामले में यह देखा गया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 किसी भी काल्पनिक अधिकार के दायरे में नहीं आते हैं। प्रदत्त अधिकार लोकतंत्र के समुचित कार्य के लिए प्राथमिक हैं। मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूडीएचआर) ने इन अधिकारों को सार्वभौमिक रूप से माना है। इस मामले में बहुमत ने कहा कि जो सिद्धांत भारतीय संविधान के भाग IV दिए गये है, वो सिद्धांत सभी राजव्यवस्थाओं के लिए समान हैं, चाहे लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी (अथॉरिटेरियन) अर्थव्यवस्थाएँ। इन स्वतंत्रताओं के बिना, लोकतंत्र को कायम रखना असंभव है। अत: समानता लोकतंत्र का सार और संविधान की मूल विशेषता है। जैसा कि इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण (1975),में आयोजित किया गया है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव प्रतिनिधि लोकतंत्र का एक हिस्सा हैं। सभी अवलोकनों से जो सिद्धांत निकलता है वह समानता का है। यह लोकतंत्र का सार है और इसलिए, भारत के संविधान की एक बुनियादी विशेषता है। हालांकि, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव बुनियादी सुविधाओं में योगदान नहीं दे सकते हैं लेकिन वे प्रतिनिधि लोकतंत्र का एक अनिवार्य हिस्सा है। समानता और प्रतिनिधि लोकतंत्र की तरह, संघवाद भी संवैधानिक कानून का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। प्रस्तावना में संघवाद का उल्लेख नहीं है। संघवाद का सार अनुच्छेद 245, 246 और 301 और भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की तीन सूचियाँ जैसे विभिन्न प्रावधानों में देखा जा सकता है। 

सर्वोच्च न्यायालय का विचार था कि बुनियादी संरचना का सिद्धांत ही एकमात्र सिद्धांत है जिसके द्वारा संविधान में लागू संशोधनों की वैधता का आकलन किया जा सकता है। सिद्धांत कहता है कि यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि किसी चीज में परिवर्तन से उसका विनाश नहीं होता है या किसी चीज का विनाश पदार्थ का मामला है न कि रूप का। इसलिए, भारत के संविधान में एक अनुच्छेद की योजना, स्थान और संरचना से जानकारी इकट्ठा करने के लिए व्यापकता (ओवररीचिंग) के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 14, 19 और 32 में क्रमशः समानता, स्वतंत्रता और सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच का समावेश दिया हुआ है।     

भारत के संविधान के भाग III में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की अवधारणाएँ भी प्रदान की गई है। 

नागरिकों और गैर-नागरिकों को दिए गए अधिकार केवल व्यक्तिगत या वैयक्तिक (पर्सनल) अधिकार नहीं हैं। इन अधिकारों का व्यापक रूप से समाज और राजनीतिक तत्व पर भी व्यापक प्रभाव पड़ता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इनके बिना संविधान के उद्देश्यों को साकार नहीं किया जा सकता। भारत के संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 38 ही एकमात्र प्रावधान है जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की बात करता है। हालाँकि, न्याय केवल इन डीपीएसपी तक ही सीमित नहीं है। समानता के बिना न्याय नहीं हो सकता। भारत के संविधान का अनुच्छेद 17 समानता को बढ़ावा देकर अस्पृश्यता को समाप्त करता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 25 राज्यों को अछूतों के लिए सार्वजनिक मंदिर खोलने की अनुमति देता है। इसलिए, यह देखा जा सकता है कि भाग III राजनीतिक और सामाजिक न्याय का भी प्रावधान करता है।

वर्तमान मामले में, चिंता की बात यह है कि एक तरफ व्यक्ति का समान अवसर का अधिकार है और दूसरी तरफ तरजीही (प्रेफरेंशियल) व्यवहार। वर्तमान मामले में न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवधारणाओं के भीतर परस्पर विरोधी दावे हैं। सार्वजनिक रोजगार एक दुर्लभ वस्तु है और मांग उस वस्तु का पीछा कर रही है। अवसर की समानता की अवधारणा एक व्यक्ति से संबंधित है, चाहे वह सामान्य वर्ग से हो या किसी अन्य पिछड़े वर्ग से। इस मुद्दे को इन परस्पर विरोधी हितों और दावों के लिए अनुकूलित किया जाना चाहिए।

उपरोक्त चर्चा वर्तमान मामले के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां हमारा संबंध आरक्षण नीति से है। मौलिक अधिकारों को संतुलित करना, जैसा कि केशवानंद भारती और मिनर्वा मिल्स के मामलों में किया गया है, वैसा  वर्तमान मामले के तथ्यों के साथ तुलना नहीं की जा सकती। 

समानता, न्याय और योग्यता की अवधारणाएं, और आरक्षण और इसकी सीमा

तीन स्वतंत्र चर हैं जो सार्वजनिक रोजगार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, अर्थात् समानता, न्याय और योग्यता। उनका अनुप्रयोग प्रत्येक मामले में मौजूद मात्रात्मक आधार पर निर्भर करता है। कानून में समानता और वास्तव में समानता के बीच एक विरोधाभास मौजूद है। अनुच्छेद 16(4) मे वास्तव में समानता है। सामान्य वर्ग समानता की तलाश करता है, पिछड़ा वर्ग न्याय की तलाश करता है और यह तीसरा कारक है जिसे तय करना सबसे कठिन है, अर्थात, सेवा में दक्षता। एक-दूसरे की तुलना में इन सिद्धांतों को समझना कठिन है। यही कारण है कि राज्य इसे विभिन्न मामले के आधार पर देखेगा। न्यायालय ने कहा है कि अनुच्छेद 16(4) के तहत राज्य की शक्ति पर कुछ प्रतिबंध भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 के साथ पढ़े जाने चाहिए।  

समानता के दो पहलू हैं। गैर-भेदभाव सिद्धांत और सकारात्मक कार्रवाई के बीच एक वैचारिक अंतर है। दोनों अवधारणाएँ अवसर की समानता का गठन करती हैं। यदि आरक्षण का कोटा कट-ऑफ बिंदु से आगे चला जाता है, तो इसके परिणामस्वरूप विपरीत भेदभाव होता है। भेदभाव के आरोपों के विरुद्ध सुनिश्चित प्रतिरक्षा संख्यात्मक सीमा है। आरक्षण के प्रावधान का उपयोग सीमित अर्थ में किया जाना चाहिए; अन्यथा इससे देश में जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा। पिछड़ापन वस्तुनिष्ठ कारकों पर आधारित होगा। हालांकि, अपर्याप्तता तथ्यात्मक रूप से भी मौजूद है। यहीं पर न्यायिक समीक्षा अपनी भूमिका निभाती है। जब तक अनुच्छेद 16(4) और 16(4A) के मापदंड कायम हैं तब तक न्यायालय आरक्षण के मामले पर फैसला नहीं कर सकता। 

आरक्षण की सीमा में दो प्रश्न शामिल हैं। सबसे पहले, क्या कोई ऊपरी सीमा है जिसके आगे आरक्षण की अनुमति नहीं है। दूसरे, क्या किसी विशेष वर्ष में कितनी सीटें आरक्षित की जा सकती हैं, इसकी कोई सीमा है।

आरक्षण की सीमा को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि क्या अनुच्छेद 16(4) अनुच्छेद 16(1) का अपवाद है या अनुच्छेद 16(4) भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(1) का अनुप्रयोग है। न्यायालय ने कहा कि, यदि अनुच्छेद 16(4) अनुच्छेद 16(1) का अपवाद है, तो इसे एक सीमित दायरे के साथ देखा जाना चाहिए। ऐसा अनुच्छेद 16(1) में सामान्य नियम को प्रभावित होने से रोकने के लिए किया जाएगा। यदि इन दोनों अनुच्छेदों को एक-दूसरे का हिस्सा माना जाए तो समाज के कुछ वर्गों के हितों को ध्यान में रखते हुए इनमें सामंजस्य स्थापित किया जाएगा।

आरक्षण की अधिकतम सीमा संभव

महाप्रबंधक, दक्षिण रेलवे वी.एस. रंगाचारी गजेंद्रगडकर (1961) के मामले में अत्यधिक आरक्षण के प्रति सावधानी की बात सबसे पहले बताई गई। अधिकांश न्यायाधीशों द्वारा इस बात पर जोर दिया गया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत आरक्षण केवल पिछड़े समुदायों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए है। पिछड़े वर्गों के दावों और अन्य कर्मचारियों के दावों के बीच उचित संतुलन होना चाहिए। हालांकि, इस मामले में आरक्षण की सीमा के प्रश्न पर ध्यान नहीं दिया गया। लेकिन एम.आर. बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1962) मे  सीधे तौर पर वही शामिल था, जहां आरक्षण की सीमा के प्रश्न को अनुच्छेद 15(4) के संदर्भ में संबोधित किया गया था। भारत के संविधान के अनुच्छेद 15(4) के तहत 60% आरक्षण को अत्यधिक और असंवैधानिक करार दिया गया। विशेष प्रावधान 50% से कम होना चाहिए। केरल राज्य बनाम एन.एम. थॉमस (1975), में यह देखा गया कि आरक्षण इतना अधिक नहीं हो सकता कि अनुच्छेद 16(1) के तहत अवसर की समानता के सिद्धांत को नष्ट कर दे, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि संविधान स्वयं अनुच्छेद 16(4) के तहत सरकार की शक्ति पर कोई रोक नहीं लगाता है।

इसे आगे इंद्रा साहनी के मामले में आयोजित किया गया था कि 50% का नियम जैसा कि बालाजी मामले में निर्धारित है। यह एक बाध्यकारी नियम था और केवल विवेक का नियम नहीं था। न्यायमूर्ति रेड्डी ने कहा कि अनुच्छेद 16(4) में पर्याप्त प्रतिनिधित्व शामिल है न कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व। हालाँकि, राष्ट्र की कुल जनसंख्या में पिछड़े वर्गों की जनसंख्या का अनुपात निश्चित रूप से प्रासंगिक होगा। अनुच्छेद 16(4) और अनुच्छेद 16(1) में दिए गए अधिकारों को संतुलित करने पर जोर दिया गया। दोनों प्रावधानों को सामंजस्य में पढ़ा जाएगा क्योंकि वे भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत दिए गए समानता के सिद्धांत की पुनर्कथन हैं।   

क्या आरक्षित वर्ग सामान्य वर्ग की रिक्ति पर चुनाव लड़ सकता है?

इंद्रा साहनी के मामले में यह नोट किया गया था कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत दिया गया आरक्षण सांप्रदायिक आधार पर काम नहीं करता है। आरक्षित वर्ग के व्यक्ति का सामान्य वर्ग में चयन उसके वर्ग के अंतर्गत प्रदत्त कोटा सीमा में नहीं गिना जाएगा।आर.के.सभरवाल बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (1995) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसी तरह का दृष्टिकोण अपनाया था। यह नोट किया गया कि सामान्य उम्मीदवारों को आरक्षित पद की रिक्तियों को भरने की अनुमति नहीं है, लेकिन आरक्षित वर्ग सामान्य वर्ग के पदों के लिए प्रतिस्पर्धा करने का हकदार है। 

कितनी रिक्तियां आरक्षित की जा सकती हैं

कैच-अप नियम एक वर्ष से अगले वर्ष तक न भरी गई आरक्षित रिक्तियों को आगे बढ़ाने की एक प्रथा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पिछड़े उम्मीदवार अंततः समय के साथ आरक्षित पदों को भर दें। भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) के अनुसार, यदि किसी विशेष वर्ष में पिछड़े वर्ग के योग्य उम्मीदवारों की संख्या कम हो जाती है, तो सरकार कैच-अप नियम अपना सकती है। हालांकि, इससे ऐसी स्थितियाँ पैदा हुईं जहाँ 50% से अधिक रिक्तियाँ आरक्षित कर दी गई, यानी संवैधानिक सिद्धांत से अधिक।

रंगचारी मामले,में यह देखा गया कि आरक्षण के लिए आगे ले जाने का नियम अप्रचलित हो गया और अपने आप में विरोधाभासी हो गया। ऐसा इसलिए था क्योंकि आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों की उपलब्धता उनके लिए आरक्षित रिक्तियों से कम थी। ऐसे में सरकार को दोनों में से कोई एक उपाय अपनाना पड़ा। सबसे पहले, राज्य अगले वर्षों के लिए अधूरी रिक्तियों को जारी रखने का प्रावधान कर सकता है। दूसरा, यह रिक्तियों को अग्रेषित करने के बजाय, सामान्य वर्ग से रिक्तियों को भर सकता है और अंततः आरक्षित वर्ग द्वारा रिक्त पदों को अगले वर्ष के लिए आगे बढ़ा सकता है। 

मुख्य टकराव तब पैदा होता है, जब कैरी फॉरवर्ड नियम के तहत 50% से अधिक रिक्तियां आरक्षित हो जाती हैं। टी. देवदासन बनाम भारत संघ (1963)  में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने एससी और एसटी के लिए 17.5% आरक्षण प्रदान किया। अधूरी रिक्ति को सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों द्वारा भरा जाना था और ऐसी रिक्तियों की संख्या को अगले वर्ष तक आगे बढ़ाया जाना था। आरक्षित रिक्तियों को आगे बढ़ाने की इस प्रथा के कारण, आरक्षण एक वर्ष में 65% हो गया। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इससे भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16(1) के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन हुआ। न्यायालय, बालाजी  मामले के आधार पर इस प्रकार के आरक्षण को असंवैधानिक ठहराया गया क्योंकि वे आवश्यक प्रावधान से अधिक थे। यह माना गया कि, भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(1) के प्रावधानों के अनुसार, राज्य यह देखेगा कि राज्य के तहत किसी भी कार्यालय में भर्ती के मामले में नागरिकों के साथ समान व्यवहार किया जाए।   

इंद्रा साहनी मामला, में न्यायालय का विचार था कि सामान्य वर्ग के लिए संविधान के तहत अवसर बचाने के लिए 50% नियम लागू होना चाहिए। भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) और अनुच्छेद 16(1) दोनों को संतुलित किया जाना चाहिए और एक दूसरे पर हावी नहीं होने दिया जाना चाहिए। आर.के सभरवाल  मामले के अनुसार, पदोन्नति के मामलों में आरक्षण निर्धारित करने के लिए संपूर्ण कैडर शक्ति पर विचार किया जाएगा। 

कैडर की ताकत की अवधारणा किसी विशेष विभाग या सेवा में लोगों के लिए उपलब्ध पदों की कुल संख्या है। आरक्षण का अनुपात निर्धारित करने के लिए इसे संवर्ग की कुल संख्या से संबंधित किया जाना चाहिए। न्यायमूर्ति सुब्बा राव ने रंगचारी मामले में अपनी असहमति व्यक्त की और उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि राज्य को आरक्षण लागू करते समय पूरे कैडर की ताकत पर ध्यान देना चाहिए। उनके अनुसार, मुख्य कारक यह है कि क्या आरक्षण कैडर ताकत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा असंगत रूप से भरता है या नहीं। यदि ऐसा नहीं होता है, तो पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण लागू किया जाएगा। 

कैच-अप नियम: भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत एक संवैधानिक आवश्यकता

याचिकाकर्ताओं का विचार था कि भारत के संविधान में 77वें और 85वें संशोधन इतने व्यापक थे कि उन्होंने समानता की बुनियादी संरचना का उल्लंघन किया। मामले से उत्पन्न मुख्य मुद्दा यह था कि क्या कैच-अप नियम और परिणामी वरिष्ठता की अवधारणा अनुच्छेद 14 15 और 16 के तहत भारत के संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है।

भारत संघ और अन्य बनाम वीरपाल सिंह चौहान (1995), में कैच-अप का नियम पहली बार संबोधित और चर्चा की गई। पदोन्नति के प्रत्येक चरण में आरक्षण का नियम लागू किया गया। कतिपय परिस्थितियों के कारण सामान्य अभ्यर्थियों को अनौपचारिक आधार पर ,प्रोन्नति दी गयी और 3 महीने की अवधि के भीतर, उन्हें हटा दिया गया और उनके स्थान पर एससी और एसटी दोनों को पदोन्नत किया गया। सामान्य अभ्यर्थियों ने नियंत्रक के इस कृत्य को मनमाना और असंवैधानिक बताते हुए चुनौती दी। सामान्य अभ्यर्थियों ने तर्क दिया कि आरक्षित अभ्यर्थियों को त्वरित पदोन्नति तो दी जा सकती है, लेकिन रेलवे पदोन्नति के लिए आरक्षित वर्ग को परिणामी वरिष्ठता नहीं दे सकता। न्यायालय ने माना कि आरक्षण का नियम भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) का उल्लंघन नहीं करता है। न्यायालय ने माना कि आरक्षण के लिए एक समान तरीका नहीं हो सकता है और यह राज्य को प्रत्येक मामले के तथ्यों और आवश्यकताओं के आधार पर निर्णय लेना है। न्यायालय ने कहा कि कैच-अप नियम को भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(1) और 16(4) में अंतर्निहित नहीं कहा जा सकता है। आरक्षित वर्ग के 33 अभ्यर्थियों के साथ 11 रिक्तियां होने की स्थिति आरक्षण के नियम के दोषपूर्ण आवेदन से उत्पन्न हुई। न्यायालय ने नियम के ऐसे दोषपूर्ण आवेदन को सुधारने का आदेश दिया। 

उपरोक्त निर्णय और अजित सिंह मामले का उल्लेख करने के बाद न्यायालय, का विचार था कि कैच-अप नियम और परिणामी वरिष्ठता के दोनों नियम न्यायिक रूप से विकसित हुए हैं और न्यायशास्त्र की सेवा में हैं। ये प्रथाओं पर आधारित हैं और इन्हें संवैधानिक सिद्धांतों का दर्जा नहीं दिया जा सकता। दोनों अवधारणाएँ भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(1) और 16(4) में निहित नहीं है, जैसा कि वीरपाल सिंह चौहान मामले में कहा गया है । 

विवादित संवैधानिक संशोधनों का दायरा 

न्यायालय ने मुख्य रूप से पदोन्नति में आरक्षण और आगे बढ़ने वाली रिक्तियों को संबोधित करने के लिए परिणामी वरिष्ठता को संबोधित किया। न्यायालय ने यह निर्धारित करने के लिए चौड़ाई और पहचान परीक्षण लागू किया कि क्या ये परिवर्तन भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित मौलिक सिद्धांतों को कमजोर करते हैं। चौड़ाई परीक्षण उस दायरे या सीमा के मूल्यांकन से संबंधित है जिस पर कानून द्वारा दी गई शक्ति लागू होती है। यह जांच करता है कि यहां किए गए संवैधानिक संशोधन भारत के संविधान के अनुसार स्वीकार्य हैं या नहीं। परीक्षण यह जाँचता है कि क्या विवादित संशोधनों के तहत दिए गए आरक्षण पिछड़ेपन और प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता की सीमाओं को ख़त्म करते हैं। जबकि पहचान परीक्षण संबंधित राज्य/प्राधिकरण द्वारा विशिष्ट कार्य या शक्ति के प्रयोग पर केंद्रित होता है। यह जांच करता है कि क्या राज्य ने उन परिस्थितियों की ठीक से पहचान की है जो आरक्षण को उचित ठहराती हैं। हालाँकि, यह परीक्षण मात्रात्मक डेटा के आधार पर केस-टू-केस आधार पर किया जा सकता है।  

इंद्रा साहनी  मामला, में परिणामी वरिष्ठता की अवधारणा को धर्मनिरपेक्षता और संघवाद जैसे संवैधानिक सिद्धांतों में अंतर्निहित नहीं माना गया। लेकिन यह न्यायशास्त्रीय सिद्धांतों से लिया गया था। इसलिए, इसका समावेश भारत के संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं करता है। 

इन संशोधनों के पीछे विधायी मंशा उन्हें उन सक्षम प्रावधानों के रूप में चिह्नित करना था जो राज्य को संविधान में निहित सिद्धांतों के अनुरूप आरक्षण लागू करने के लिए सशक्त बनाते हैं। जब तक भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) में उल्लिखित मापदंडों का राज्यों द्वारा अनुपालन किया जाता है, तब तक आरक्षण के प्रावधान को गलत नहीं ठहराया जा सकता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4A) और 16(4B) भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4) में निहित समानता के सिद्धांत के भीतर आगे के वर्गीकरण हैं। 

भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 के तहत निर्देशित शक्ति के सिद्धांत का अनुप्रयोग

82वें संशोधन द्वारा पेश किए गए भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 के परीक्षण को लागू करने के बाद, यह पाया गया कि प्रावधान अनुच्छेद 16(4) और 16(4B) के साथ सांठगांठ बनाता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 335 पदोन्नति में आरक्षण के लिए योग्यता अंक या मूल्यांकन के मानकों में छूट प्रदान करने से राज्य पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाता है। यह प्रावधान केवल अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) तक ही सीमित है। योग्यता अंक या मूल्यांकन के मानकों को शिथिल करने के लिए राज्य को एक विवेकाधीन शक्ति दी गई है। इसलिए, मुद्दा यह था कि क्या राज्य को ऐसी शक्तियाँ दी जानी चाहिए या नहीं। न्यायालय का विचार था कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 में प्रावधान की शुरूआत इसकी समग्र दक्षता को नष्ट नहीं करती है। इसके पीछे कारण यह है कि दक्षता एक परिवर्तनशील कारक है। मामले और परिस्थितियों के अनुसार यह राज्य को तय करना है कि क्या इस तरह की छूट से तंत्र की समग्र दक्षता प्रभावित होती है। यदि छूट अधिक दी जाती है और अर्हक अंक समाप्त हो जाते हैं, तो राज्य ऐसी कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। राज्य ऐसी छूट प्रदान नहीं करेगा. यह एक ऐसी प्रणाली विकसित कर सकता है जिसमें दक्षता, समानता और न्याय को समायोजित किया जा सके। अनुच्छेद 335 को भारत के संविधान के अनुच्छेद 46 के साथ पढ़ना आवश्यक है। इसमें कहा गया है कि राज्य उचित देखभाल के साथ लोगों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देगा। अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) को समाज में सामाजिक अन्याय से बचाया जाना चाहिए। 

इसलिए, जब राज्य पिछड़ेपन और अपर्याप्तता में आकर्षक रुचि पाता है तो वह अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के हित में योग्यता अंकों में छूट दे सकता है। हालाँकि, तुलनीय डेटा द्वारा सम्मोहक रुचि की जांच की जानी चाहिए। इसलिए, न्यायालय ने इस तथ्य को दोहराया कि विवादित संवैधानिक संशोधन के पीछे मुख्य उद्देश्य ऊपर बताई गई परिस्थितियों और संवैधानिक सीमाओं के अधीन, पदोन्नति में एससी/एसटी के लिए आरक्षण करने के लिए राज्य को विवेकाधीन शक्ति प्रदान करना था।

इंद्रा साहनी मामले में स्थापित ढांचे पर संशोधनों का प्रभाव

समानता बनाए रखने के लिए इंद्रा साहनी मामले में संतुलन बनाए रखा गया। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 बरकरार रहें और उनका उल्लंघन न हो। साथ ही, भारत के संविधान में निहित सामाजिक उत्थान हासिल किया जाएगा। कैडर की ताकत 50% की सीमा तक सीमित थी और आरक्षण प्रारंभिक भर्ती तक ही सीमित था, न कि पदोन्नति तक। याचिकाकर्ताओं ने इस मामले पर भरोसा करते हुए यह उजागर किया कि समानता भारत के संविधान की एक बुनियादी विशेषता है। इस मामले में, समानता को 50% की सीमा द्वारा संरक्षित किया गया था और सामान्य वर्ग, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के अधिकारों को संतुलित किया गया था। वर्तमान मामले में, मुद्दा यह है कि एससी और एसटी के पक्ष में उप-वर्गीकरण संवैधानिक रूप से वैध है या नहीं। एक ओर ओबीएस और दूसरी ओर एससी और एसटी के विभाजन को स्वीकार्य माना गया। अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की उप-श्रेणियों के लिए किए गए आरक्षण को समतावादी समानता के ढांचे के भीतर रखा गया था। इसलिए, यह राय दी गई कि समानता अनुच्छेद 16(4A) में निहित और बरकरार रखी गई एक अवधारणा है, जो भारत के संविधान के मुख्य अनुच्छेद 16(4) से निकलती है। 

भारत के संविधान का अनुच्छेद 14 सुगम्य अंतर के आधार पर वर्गीकरण को सक्षम बनाता है। जिस वस्तु को कानून द्वारा प्राप्त किया जाना है, उसके साथ तर्कसंगत संबंध होना चाहिए। इसी प्रकार, वर्तमान स्थिति में, वर्गीकरण वर्तमान रिक्तियों और कैरी-फॉरवर्ड रिक्तियों के बीच अंतर के आधार पर किया जाएगा। न्यायालय ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 16(4A) और 16(4B) में दिए गए वर्गीकरण को बरकरार रखा। संवैधानिक संशोधन समानता को ख़त्म नहीं करते हैं।

न्यायालय ने सामाजिक न्याय की अवधारणा का उल्लेख किया। यह लाभ और बोझ के वितरण से संबंधित है। इसके अंतर्गत औपचारिक समानता और आनुपातिक समानता की अवधारणा आती है, जो अधिकारों, आवश्यकताओं और साधनों के तीन मानदंडों को शामिल करती है। औपचारिक समानता का अर्थ है कि कानून सभी के साथ समान व्यवहार करता है और आनुपातिक समानता समतावादी समानता पर आधारित है। न्यायालय का लंबे समय से यह विचार रहा है कि जाति पिछड़ेपन का निर्धारक नहीं होनी चाहिए। इसके बजाय, केवल आर्थिक मानदंड ही पिछड़ेपन का निर्धारण करने वाला कारक होना चाहिए। न्यायालय इंद्रा साहनी मामला के निर्णय से बंधा हुआ था । न्यायालय ने भेदभाव के आरोप के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रदान करने के लिए प्रतिस्थापन की अवधारणा के साथ-साथ 50% का संख्यात्मक सीमा विकसित किया है।

एम. नागराज बनाम भारत संघ (2006) का आलोचनात्मक विश्लेषण

अब यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि विवादित संवैधानिक संशोधन, यानी अनुच्छेद 16(4A) और 16(4B) के संबंध में, अनुच्छेद 16(4) से ही प्रवाहित होते हैं, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय  ने एम. नागराज एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2006) मामले में माना है। उक्त संशोधन भारत के संविधान की मूल संरचना में परिवर्तन नहीं करते हैं। प्रावधान केवल आरक्षण प्रदान करके अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लाभों पर केंद्रित हैं। वे 50% की अधिकतम सीमा, क्रीमी लेयर की अवधारणा और ओबीसी, एससी और एसटी के उप-वर्गीकरण के प्रावधानों को अनिवार्य नहीं करते हैं, जैसा कि इंद्रा साहनी के मामले में माना जाता है, या प्रतिस्थापन की अंतर्निहित अवधारणा के साथ पोस्ट-आधारित रोस्टर, जैसा कि आर के सभरवाल मामले में माना गया है। सर्वोच्च न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से लागू संवैधानिक संशोधनों, यानी 77वें, 81वें, 82वें और 88वें संवैधानिक संशोधन अधिनियमों को बरकरार रखा। ये संवैधानिक संशोधन पिछड़ेपन और प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता के नियंत्रक कारकों को बरकरार रखते हैं जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 के तहत प्रदान किए गए राज्य प्रशासन की समग्र दक्षता को ध्यान में रखते हुए राज्य को आरक्षण देने में सक्षम बनाते हैं।  

ये सभी उल्लिखित अवधारणाएँ संवैधानिक आवश्यकताएँ हैं जिनके बिना भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत अवसर की समानता की संरचना ध्वस्त हो जाएगी। इस मामले में जो मुख्य मुद्दा उठा वह था आरक्षण की सीमा। आरक्षण की सीमा निर्धारित करने के लिए, किसी मामले में तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार आरक्षण मानदंड निर्धारित करना राज्य पर निर्भर है। जिन कारकों पर आरक्षण निर्भर करेगा वे पिछड़ेपन, प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता और समग्र प्रशासनिक दक्षता जैसे बाध्यकारी कारणों का अस्तित्व हैं। राज्य पदोन्नति के मामलों में एससी और एसटी के लिए आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। यह उनका विवेक है और उन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 के अनुपालन में सार्वजनिक रोजगार में इस तरह के पिछड़ेपन और प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता के अस्तित्व को प्रदर्शित करने के लिए मात्रात्मक डेटा प्रदान करना होगा। भले ही राज्य के पास आरक्षण के लिए अपने कारण हों, उसे यह भी देखना होगा कि ये आरक्षण अधिकतम सीमा का उल्लंघन न करें।

उपर्युक्त सभी कारणों से ही 77वें, 81वें, 82वें और 85वें संवैधानिक संशोधन अधिनियमों को वैध माना गया। ये संसद की संशोधन शक्ति से परे नहीं हैं। बुनियादी संरचना सिद्धांत को लागू करने के लिए, दायरा और पहचान के दोहरे परीक्षणों को पूरा करना होगा। न्यायालय ने माना कि किसी भी परीक्षण का उल्लंघन नहीं किया गया और इसलिए, भारत के संविधान की मूल संरचना का कोई उल्लंघन नहीं है। 

अनुच्छेद 16(4) के अनुसार, यदि उम्मीदवार मात्रात्मक डेटा के आधार पर संतुष्ट हैं तो सरकार उन्हें आरक्षण देने के लिए स्वतंत्र है। इस डेटा से यह संकेत मिलना चाहिए कि इन पिछड़े वर्गों का सेवा में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है। इन्हीं कारणों से जब भी राज्य आरक्षण प्रदान करने का निर्णय लेता है, तो दो परिस्थितियाँ होनी चाहिए, अर्थात् पिछड़ापन और प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता। इसके अलावा, इन सीमाओं को लागू संशोधनों द्वारा हटाया नहीं गया है। ऐसा तभी होता है जब राज्य दोहरे परीक्षणों को लागू करने में विफल रहता है कि आरक्षण अमान्य हो जाता है। अन्यथा, ये संशोधन अनुच्छेद 14, 15 और 16 की संरचना का उल्लंघन नहीं करते हैं। 

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एससी और एसटी के लिए आरक्षण को व्यापक बनाने और इसमें पदोन्नति  पहलू को भी शामिल करने की संसद की कार्रवाई को बरकरार रखते हुए अपना फैसला सुनाया। इससे समाज के कमजोर वर्ग के विकास में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया और बनाए गए कानूनों ने पदोन्नति में आरक्षण प्रदान किया, जिससे एससी और एसटी जैसे पिछड़े वर्गों के व्यक्तियों को अधिक कुशलता से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करने में मदद मिली। 

सर्वोच्च न्यायालय के नागराज  मामले के फैसले का बारीकी से अध्ययन से इस तथ्य का पता चलता है कि न्यायालय ने अनुच्छेद 16(4), 16(4A) और 16(4B) की व्याख्या करते समय और सामाजिक आरक्षण के संबंध में संसद की संशोधन शक्ति पर सीमाएं निर्दिष्ट करने की प्रक्रिया में “क्रीमी लेयर” अभिव्यक्ति का उपयोग किया था।    

मामले में बाद का घटनाक्रम 

मामले के तथ्य

इस मामले में याचिकाकर्ता ने नागराज निर्णय  को चुनौती दिया। 2006 में मामले के फैसले के बाद विभिन्न राज्य और केंद्र इसे चुनौती दे रहे थे। इस मामले में, याचिकाकर्ता का विचार था कि नागराज मामले ने सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक सेवाओं के लिए पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करना मुश्किल बना दिया है। मामला आगे चलकर सर्वोच्च न्यायालय की सात न्यायाधीशों  की पीठ को भेजा गया।

मामले में कुछ निश्चित टिप्पणियाँ की गईं। वे थे कि अनुच्छेद 16(4) राज्य को पिछड़े वर्गों में नियुक्तियों और पदों में आरक्षण करने की शक्ति देता है लेकिन यह पदोन्नति पर लागू नहीं होता है। अनुच्छेद 16(4A) इस उद्देश्य से पेश किया गया था कि उल्लिखित अनुच्छेद में कुछ भी राज्य को पदोन्नति के मामले में आरक्षण देने का निर्णय लेने से नहीं रोकेगा। उक्त खंड 81वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया था। तथ्य यह है कि राज्य को मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की आवश्यकता थी और नागराज मामले में उल्लिखित क्रीमी लेयर की अवधारणा ने समानता पर सवाल उठाए थे, इसलिए नागराज मामले की समीक्षा के लिए याचिका दायर की गई थी।

शामिल मुद्दे

क्या नागराज फैसले का सात न्यायाधीशों की पीठ द्वारा पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता थी?

क्या राज्य को पदोन्नति के दौरान वर्ग के पिछड़ेपन और अपर्याप्तता के अस्तित्व को साबित करने के लिए मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की आवश्यकता है?

क्या एससी और एसटी में क्रीमी लेयर को आरक्षण के माध्यम से पदोन्नति पाने से रोका जाना चाहिए?

निर्णय

न्यायलय ने कहा कि नागराज मामले को सात न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजने की कोई जरूरत नहीं है। इसके अलावा, यह मुद्दा कि क्या राज्य को एससी और एसटी के पिछड़ेपन और अपर्याप्तता को दिखाने के लिए मात्रात्मक डेटा एकत्र करना है, नौ-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले के विपरीत है। इंद्रा साहनी मामला, इसे अमान्य बना रहा है। इंद्रा साहनी  मामला में यह स्पष्ट रूप से आयोजित किया गया था कि क्रीमी लेयर की अवधारणा पर किसी भी चर्चा की एससी और एसटी के संदर्भ में कोई प्रासंगिकता नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि नागराज में एससी और एसटी के लिए पदोन्नति के लिए क्रीमी लेयर का आवेदन उचित है। न्यायालय ने क्रीमी लेयर के सिद्धांत को समानता के नहीं बल्कि पहचान के सिद्धांत के रूप में देखा।

निष्कर्ष

किसी भी लोकतंत्र में आरक्षण एक ज्वलंत मुद्दा है। यद्यपि इस संबंध में कानून निर्धारित किए गए हैं, आरक्षण देने से पहले प्रावधानों की प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं और व्यावहारिकता की सावधानीपूर्वक जांच की जानी चाहिए। प्रतिनिधित्व में अपर्याप्तता और पिछड़ेपन जैसे आधारों की सावधानीपूर्वक जांच की जानी चाहिए। प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता के कारण, अनुच्छेद 16 के पाठ में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह निर्धारित करना राज्य का मामला है कि आरक्षण किस हद तक दिया जा सकता है। हालाँकि इसका निर्धारण कुछ सामग्रियों पर आधारित होना चाहिए, लेकिन आवश्यक अनुभवजन्य (एम्पिरिकल) साक्ष्य को महत्व दिया जाता है। आरक्षण की आवश्यकता वाले उम्मीदवारों की सही संख्या निर्धारित करने के लिए राज्य द्वारा उचित अध्ययन आयोजित किया जाना चाहिए।

आरक्षण को नियंत्रित और विनियमित करने के लिए एक कानूनी ढांचा है लेकिन वास्तव में उन्हें लागू करने से पहले प्रक्रियात्मक पहलुओं और प्रावधानों की व्यावहारिक व्यवहार्यता की जांच करना अधिक महत्वपूर्ण है। किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले आधारों का कठोरता से मूल्यांकन किया जाना चाहिए। मूल्यांकन के लिए समाज में मौजूद सामाजिक-आर्थिक असमानताओं की गहरी समझ की आवश्यकता होती है। आलोचकों का तर्क है कि केवल जाति के आधार पर आरक्षण कुछ रूढ़िवादिता को जन्म देता है और पिछड़े वर्ग से संबंधित होने के कारण होने वाले नुकसान को संबोधित करने में विफल रहता है। इसलिए, जाति से परे कारकों को भी ध्यान में रखा जाएगा, जैसे लिंग, विकलांगता, आर्थिक स्थिति और स्थिति के अनुसार कोई अन्य प्रासंगिक मानदंड। 

हालाँकि ये आरक्षण ऐतिहासिक अन्यायों को दूर करने के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन उन लोगों के हितों की रक्षा के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए जो ऐसी किसी भी आरक्षित श्रेणी से संबंधित नहीं हैं। किसी समाज में आरक्षण नीतियों की प्रभावशीलता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए यह महत्वपूर्ण है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

एम. नागराज बनाम भारत संघ मामला क्या था?

इस मामले में मुख्य रूप से सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए पदोन्नति में आरक्षण की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?

भारत के संविधान का अनुच्छेद 16 सार्वजनिक रोजगार के मामले में अवसर की समानता प्रदान करता है और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों जैसी कुछ श्रेणियों के पक्ष में आरक्षण की अनुमति देता है।

आरक्षण के संदर्भ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 335 का क्या महत्व है?

भारत के संविधान के अनुच्छेद 335 का उद्देश्य पिछड़ेपन और प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता जैसे कुछ मानदंडों को संरक्षित करना है। साथ ही, यह सरकारी प्रशासन की दक्षता सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण नीतियों को लागू करता है। 

इस फैसले ने भारत में आरक्षण नीतियों को कैसे प्रभावित किया?

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने पदोन्नति में आरक्षण की संवैधानिक वैधता में स्पष्टता प्रदान की और सरकारी प्रशासन की अन्याय और दक्षता के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला।

इस मामले में मुख्य रूप से किस संवैधानिक संशोधन को चुनौती दी गई थी?

याचिका में संविधान (पच्चीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 2001 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। इसमें अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए पदोन्नति में आरक्षण प्रदान किया गया था।

क्या यह मामला संभावित रूप से भारत में विपरीत भेदभाव परिदृश्य को जन्म दे सकता है?

फैसले का उद्देश्य समाज में अनादि काल से मौजूद अन्याय को दूर करना है। हालांकि, कुछ लोगों का तर्क है कि यह अनजाने में आरक्षण नीतियों में शामिल नहीं किए गए व्यक्तियों के खिलाफ भेदभाव कर सकता है। हालाँकि, अदालत ने ऐसे परिदृश्यों को रोकने के लिए संतुलन बनाए रखने पर ज़ोर दिया है। 

संदर्भ

 

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