लोक प्रहरी बनाम भारत निर्वाचन आयोग (2018)

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यह लेख Soumya Lenka द्वारा लिखा गया है। इस लेख में लोक प्रहरी बनाम भारत निर्वाचन आयोग (2018) मामले की पृष्ठभूमि, प्रासंगिक तथ्यों, दोनों पक्षों के तर्कों और फैसला सुनाते समय अदालत के तर्क पर चर्चा की गई है। यह मामला लोक प्रहरी सोसायटी से संबंधित है जो वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता है। भारत के निर्वाचन आयोग के विरुद्ध एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें मुख्य रूप से यह तर्क दिया गया था कि किसी संसद सदस्य तथा किसी राज्य विधानमंडल के सदस्य को किसी अपराध के आधार पर दोषसिद्धि के विरुद्ध स्थगन आदेश देने से पूर्व की अयोग्यता का प्रभाव समाप्त नहीं होना चाहिए तथा सदस्य की अयोग्यता को पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) रूप से पुनर्जीवित नहीं किया जाना चाहिए। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

यह मामला जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (जिसे आगे ‘अधिनियम’ कहा जाएगा) की धारा 8 के तहत उल्लिखित आधारों पर संसद सदस्य (एमपी) और राज्य विधानमंडल के सदस्य की अयोग्यता से संबंधित है। यह मामला एक निर्वाचित सदस्य की अयोग्यता पर दोषसिद्धि के स्थगन पर प्रकाश डालता है। उक्त मामले में याचिकाकर्ता एक सोसायटी है, जिसने मुख्य रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 101 और 190 तथा अधिनियम की धारा 8 की योजना में खामी को दूर करने के लिए जनहित याचिका दायर की है। यहां जिस खामी की बात की जा रही है, वह विधायी अविवेक और कुख्याति की है। 

यह मामला एक विशेष स्थिति पर आधारित है जब किसी सांसद या विधायक को अधिनियम की धारा 8 के तहत किसी अपराध का दोषी ठहराया जाता है। ऐसी दोषसिद्धि पर, वह अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत अयोग्यता के अधीन होगा। उस स्थिति में, यदि दोषी ठहराए गए सदस्य की अपील पर स्थगन आदेश पारित किया जाता है, तो पूर्व अयोग्यता पर इसका क्या प्रभाव होगा, यह मामले का विषय है। याचिकाकर्ता ने यह घोषित करने की प्रार्थना की है कि ऐसी किसी भी स्थिति में, अयोग्यता जारी रहनी चाहिए तथा प्रावधानों की योजना में इस खामी के आधार पर उसे रद्द नहीं किया जाना चाहिए। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: लोक प्रहरी बनाम भारत निर्वाचन आयोग
  • याचिकाकर्ता: लोक प्रहरी, अपने महासचिव एस.एन. शुक्ला के माध्यम से
  • प्रतिवादी: भारत का चुनाव आयोग
  • मामले का प्रकार: रिट याचिका (सिविल)
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय

  • न्यायपीठ: माननीय न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़, ए.एम. खानविलकर, दीपक मिश्रा
  • निर्णय के लेखक: न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़
  • निर्णय की तिथि: 26.09.2018
  • उद्धरण: (2018) 18 एस.सी.सी. 114

मामले के तथ्य

यह मामला लोक प्रहरी नामक संस्था द्वारा दायर जनहित याचिका (पीआईएल) से संबंधित है, जो सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत पंजीकृत एक संगठन है। संगठन ने मुख्य रूप से प्रार्थना की है कि यदि कोई स्थगन आदेश जारी किया जाता है, किसी सांसद या राज्य विधानमंडल को दोषी ठहराया जाता है, या किसी कार्यवाही के मामले में, तो उसका सदस्यों की पूर्व अयोग्यता पर कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए। इस मामले की शुरुआत लखनऊ के जिला एवं सत्र न्यायालय द्वारा जारी पूर्व स्थगन आदेश से हुई थी। उत्तर प्रदेश राज्य विधानमंडल के एक सदस्य को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 की धारा 353, 504 और 506 (अब भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 132, 352 और 351) के तहत अपराधों का दोषी ठहराया गया था और लखनऊ के विचारण न्यायालय द्वारा कारावास की सजा सुनाई गई थी। जैसा कि अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत परिकल्पित है, उक्त सदस्य अयोग्यता के अधीन था क्योंकि उसे विचारण न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया था। लखनऊ के जिला एवं सत्र न्यायालय में दोषी द्वारा की गई अपील पर, जिला न्यायालय ने मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का कड़ाई से अध्ययन करने के बाद, दोषी अपीलकर्ता की सजा के आदेश पर रोक लगा दी।

इसके तहत याचिकाकर्ता लोक प्रहरी संगठन ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि लखनऊ के जिला एवं सत्र न्यायालय द्वारा पारित स्थगन आदेश का दोषी सदस्य की अयोग्यता से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए जिला न्यायालय द्वारा पारित उक्त स्थगन आदेश के बावजूद अयोग्यता जारी रहनी चाहिए। माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस आधार पर जनहित याचिका खारिज कर दी कि सदन के किसी सदस्य को अयोग्य घोषित किया जाना है या नहीं, इस पर विचार करते समय स्थगन आदेश को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यदि लखनऊ के जिला न्यायालय द्वारा स्थगन आदेश पारित किया गया है, तो माननीय उच्च न्यायालय ने माना कि यह पूर्व अयोग्यता के प्रभाव को नकारता है और इसलिए स्थगन आदेश पारित होने के दिन से अयोग्यता समाप्त हो जाती है। 

माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस निर्णय से व्यथित होकर याचिकाकर्ता लोक प्रहरी ने अपने रिट अधिकार क्षेत्र (भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत) का हवाला देते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। याचिकाकर्ता ने मुख्य रूप से तीन बातों की मांग की है- 

  • सबसे पहले, याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की कि माननीय जिला न्यायालय के साथ-साथ माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्थगन आदेश और सदस्य की अयोग्यता पर इसके नकारात्मक प्रभाव के बीच संबंध स्थापित करने में गलती की है। याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की कि अधिनियम की धारा 8, अनुच्छेद 101(3)(a) और 190(3)(a) के साथ पढ़ने पर अपीलकर्ता की दोषसिद्धि की स्थिति में स्थगन आदेश की कोई गुंजाइश नहीं रहती है और यदि स्थगन आदेश है, तो उसका सदस्य की अयोग्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है और स्थगन आदेश के बावजूद सदस्य अपनी दोषसिद्धि की तिथि से अयोग्य माना जाएगा।
  • इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की कि चूंकि सदस्य को अधिनियम की धारा 8 के तहत प्रदत्त प्रावधानों के अनुसार अयोग्य ठहराया गया है, इसलिए वह मामले के अनुसार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 104 और 193 के तहत दंड के लिए उत्तरदायी होगा। इस मामले में भी यह प्रार्थना की गई कि स्थगन आदेश का दोषी सदस्य के इस दंड दायित्व पर कोई असर नहीं होना चाहिए।
  • इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की कि एक रिट या आदेश या निर्देश जारी किया जाना चाहिए जिसमें कहा जाए कि राज्य विधानसभा के दोषी सदस्य को अधिनियम की धारा 151 के तहत अपनी सीट खाली कर देनी चाहिए, और किसी भी पुनरीक्षण (रिविजनल) न्यायालय या अपीलीय न्यायालय के किसी भी आदेश या निर्देश का उस पर कोई असर नहीं होगा। 

मामले में उठाए गए मुद्दे

  • क्या लखनऊ के जिला एवं सत्र न्यायालय ने उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा के दोषी सदस्य की अयोग्यता पर रोक लगाने में गलती की है, जबकि न्यायालय ने दोषसिद्धि पर स्थगन आदेश पारित किया था?
  • क्या इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जिला एवं सत्र न्यायालय, लखनऊ द्वारा पारित स्थगन आदेश के बाद उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा के दोषी सदस्य की अयोग्यता पर स्थगन बरकरार रखने में गलती की है?
  • क्या स्थगन आदेश पूर्वव्यापी प्रभाव से किसी दोषी सदस्य की अयोग्यता को कम कर देता है?

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ता, लोक प्रहरी संगठन ने तर्क दिया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 या अनुच्छेद 191 के तहत अयोग्यता के बाद किसी सांसद या राज्य विधानमंडल की सीट रिक्त हो जानी चाहिए। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि प्रथम दृष्टया, यदि अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत प्रावधान संतुष्ट हैं, तो संसद या राज्य विधानमंडल के सदस्य को संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 के अनुसार अपनी सीट छोड़नी होगी। वह अब सदन में कोई सीट पाने के योग्य नहीं है। 

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि अधिनियम की धारा 8 के तहत अयोग्यता होने पर, दोषी सदस्य अपनी दोषसिद्धि की तिथि से सदन में सीट पर बने रहने के लिए पात्र नहीं रह जाता है और अनुच्छेद 102 या 191 के साथ-साथ अधिनियम की धारा 8 में ऐसा कोई स्पष्ट या अंतर्निहित खंड नहीं है, जो भविष्य में कोई गुंजाइश छोड़ता हो कि दोषसिद्धि के बाद हुई अयोग्यता न्यायिक कार्यवाही या अपील के मामले में निरस्तीकरण के अधीन हो सकती है। 

बीआर कपूर बनाम तमिलनाडु राज्य (2001) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले पर विश्वास करते हुए, जिसमें माननीय शीर्ष न्यायालय ने स्पष्ट रूप से माना था कि दंड प्रक्रिया संहिता (जिसे आगे सीआरपीसी कहा जाएगा) की धारा 389 [अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) की धारा 430] के तहत परिकल्पित किसी भी अपीलीय अदालत के पास निचली अदालत/विचारण न्यायालय द्वारा पारित सजा के आदेश पर रोक लगाने का अधिकार या शक्ति नहीं है। अपीलीय न्यायालय को प्रदत्त एकमात्र शक्ति यह है कि वह विचारण न्यायालय द्वारा पारित सजा के क्रियान्वयन (एक्जिक्यूशन) को तब तक रोक सकता है जब तक कि कार्यवाही समाप्त नहीं हो जाती है, तथा मामले के न्यायनिर्णयन के बाद अपीलीय न्यायालय द्वारा इस आशय का फैसला पारित किया जाता है। 

याचिकाकर्ता ने आगे दलील दी कि पूर्वव्यापी तरीके से सदस्यता की बहाली, जैसा कि लखनऊ के जिला एवं सत्र न्यायालय द्वारा उक्त मामले में किया गया है, सभी दोषी सांसदों और विधायकों के लिए अयोग्यता से बचने का एक बड़ा रास्ता खोलती है। याचिकाकर्ता ने अपने दावे को पुष्ट करते हुए कहा कि यह खामी निर्वाचन क्षेत्र या प्रतिनिधि लोकतंत्र की पवित्रता को पूरी तरह से कमजोर कर देगी। 

यह प्रस्तुत किया गया कि यदि संसद के किसी सदस्य या किसी राज्य विधानमंडल के सदस्य को, जैसा कि वर्तमान मामले में है, अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत उल्लिखित किसी ऐसे कृत्य के लिए दोषी ठहराया जाता है, जो उसे सदन में किसी भी पद पर रहने के लिए अयोग्य बनाता है, तो वह इस बचाव के रास्ते का उपयोग अपीलीय न्यायालय में जाकर दोषसिद्धि पर स्थगन आदेश प्राप्त करने के लिए कर सकता है। इस प्रकार, वह पूर्व अयोग्यता को पूर्वव्यापी प्रभाव से निरस्त करके राज्य विधानमंडल या संसद के सदस्य के रूप में बने रहने के लिए पात्र हो जाता है। यह संसदीय लोकतंत्र के साथ-साथ न्यायपालिका का भी पूर्णतः मजाक है। 

यह प्रस्तुत किया गया कि इससे जलद्वर (फ्लडगेट) का द्वार खुल जाएगा, जो पहले से ही अधिनियम की धारा 8 के तहत विचारण न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए गए विधायकों या सांसदों को विचारण न्यायालय द्वारा पारित सजा आदेश पर स्थगन का सहारा लेकर पुनरीक्षण न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर अधिनियम की धारा 8(4) के तहत प्रदत्त संरक्षण को खत्म करने में सक्षम बनाता है। यदि वे अपीलीय न्यायालयों द्वारा दोषसिद्धि आदेश पर स्थगन प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं, तो इससे उनकी अयोग्यता पूर्वव्यापी रूप से कमजोर हो जाएगी तथा अधिनियम की धारा 8 निरर्थक हो जाएगी। 

याचिकाकर्ता ने आगे तर्क दिया कि सीआरपीसी की धारा 389 पुनरीक्षण या अपीलीय न्यायालय को दोषसिद्धि के निष्पादन को निलंबित करने या स्थगन आदेश देने का अधिकार देती है। यह प्रस्तुत किया गया कि यह किसी भी तरह से अपीलीय न्यायालयों को विचारण न्यायालयों द्वारा पारित सम्पूर्ण दोषसिद्धि की सजा पर रोक लगाने का अधिकार नहीं देता है। इसलिए, इस प्रावधान पर भरोसा करते हुए, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि जिला न्यायालय ने मनमाने ढंग से अपने न्यायिक दायरे से बाहर दोषसिद्धि पर स्थगन आदेश दिया है, और इसलिए जिला न्यायालय द्वारा पारित स्थगन आदेश भी किसी भी योग्यता से रहित है और कानून की मंजूरी से रहित है। 

याचिकाकर्ता ने अपने प्रत्युत्तर में आगे कहा कि चुनाव आयोग की भूमिका किसी सांसद या किसी राज्य विधानसभा के दोषसिद्धि आदेश या डिक्री के साथ ही शुरू हो जाती है। निर्वाचन आयोग को ऐसी दोषसिद्धि डिक्री पारित होने के तुरंत बाद कार्रवाई करने के लिए अधिकृत और बाध्य किया गया है। चुनाव आयोग को दोषसिद्धि आदेश के तुरंत बाद दोषी सदस्य की सीट खाली कर देनी चाहिए क्योंकि यह एक स्वतंत्र निकाय है और विधानमंडल सचिवालय से किसी भी तरह की अधिसूचना या निर्देश की प्राप्ति की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। 

इसके अलावा, याचिकाकर्ता का तर्क है कि सचिवालय से किसी अधिसूचना की कोई आवश्यकता नहीं है। इस स्थिति पर जोर देते हुए याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि इस तरह की धारणा या आवश्यकता भारतीय संविधान के अनुच्छेद 101(3)(2) और अनुच्छेद 190(3)(a) की योजनाओं में कहीं नहीं पाई जाती है। अतः, निर्वाचन आयोग ने उक्त मामले में उत्तर प्रदेश विधानसभा सचिवालय की अधिसूचना की प्रतीक्षा करके कानून की सीमाओं से परे जाकर कार्य किया है। इस प्रकार, यह तर्क दिया गया कि दोषी सदस्य की सीट खाली कराने के लिए यथाशीघ्र कार्रवाई आरंभ करने के लिए निर्वाचन आयोग को परमादेश (मैण्डमस्) रिट जारी की जा सकती है। 

प्रतिवादी

याचिकाकर्ता द्वारा लगाए गए आरोपों के जवाब में, निर्वाचन आयोग ने सकारात्मक तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए याचिकाकर्ता की कुछ दलीलों पर सहमति जताई है। निर्वाचन आयोग ने इस आशय के निर्देश जारी किए हैं और प्रति-शपथपत्र (काउंटर एफिडेविट) में कहा है कि दोषी ठहराए गए सदस्य की सीट विचारण न्यायालय के ऐसे आदेश या डिक्री के सात दिनों के भीतर खाली कर दी जानी चाहिए। 

इसके अलावा, निर्वाचन आयोग ने लिली थॉमस बनाम भारत संघ एवं अन्य (2013) के निर्णय पर जोर दिया है। इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि यदि संसद या राज्य विधानमंडल का कोई सदस्य अधिनियम की धारा 8 के तहत उल्लिखित किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है तो वह स्वतः ही अयोग्य हो जाता है। इसलिए, याचिकाकर्ता के इस तर्क को बरकरार रखते हुए कि स्थगन आदेश का ऐसी अयोग्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, निर्वाचन आयोग ने माना कि ऐसा कोई आधार या प्रावधान नहीं है जो उक्त दोषी सदस्य की अयोग्यता को स्थगित करने का प्रावधान करता हो। इसलिए, यह राय थी कि अपील और दोषसिद्धि पर बाद में स्थगन आदेश, पूर्वव्यापी तरीके से सदस्य की अयोग्यता को कम नहीं कर सकता है। 

निर्वाचन आयोग ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 103 और 192 के तहत ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है कि दोषी ठहराए गए सदस्य की अयोग्यता और सीट खाली करने के लिए राज्यपाल या राष्ट्रपति के आदेश या निर्देश की आवश्यकता हो और यह विचारण न्यायालय के आदेश के तुरंत बाद प्रभावी हो जाता है। 

भारत के निर्वाचन आयोग ने पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य (सीबीआई/एसपीई) (1998) के ऐतिहासिक निर्णय पर जोर दिया, जिसमें यह माना गया था कि अधिनियम की धारा 8 के तहत किसी भी आधार पर विधायिका के सदस्य की अयोग्यता के मामले में राष्ट्रपति या राज्यपाल के किसी भी निर्णय या निर्देश की आवश्यकता नहीं है। 

प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व मुख्य रूप से भारत के महान्यायवादी (अटॉर्नी जनरल) द्वारा किया गया। संघ ने प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता के मुद्दों और विवादों पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिली थॉमस बनाम भारत संघ और अन्य के ऐतिहासिक मामले पर निर्णय देते समय पहले ही विचार किया जा चुका है। इसलिए, यह प्रस्तुत किया गया कि याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए मुद्दे न्यायपालिका के बहुमूल्य समय की बर्बादी होंगे क्योंकि उन पर पहले ही विचार किया जा चुका है, और इसलिए याचिका खारिज किए जाने योग्य है। 

प्रतिवादियों ने दलील दी कि याचिकाकर्ता के मुद्दे और तर्क किसी भी तरह से किसी भी अधिनियम या नियम के किसी भी प्रावधान को चुनौती नहीं देते हैं। इसलिए, यह एक निराधार याचिका है और इसे जनहित याचिका नहीं माना जाएगा। इसके अलावा, प्रतिवादी ने दलील दी कि याचिकाकर्ता ने दोषसिद्धि पर अयोग्यता के विषय पर केवल कानून के प्रावधानों और न्यायिक घोषणाओं पर भरोसा किया है और उक्त न्यायिक घोषणाओं से ऐसा कोई तर्क नहीं निकाला जा सकता है कि सदन के किसी सदस्य की दोषसिद्धि पर रोक से दोषी सदस्य की पूर्व अयोग्यता प्रभावित नहीं होगी। यह दलील दी गई कि याचिकाकर्ता की दलीलें प्रथम दृष्टया त्रुटिपूर्ण हैं और इन्हें खारिज किया जाना चाहिए। 

लोक प्रहरी बनाम भारत निर्वाचन आयोग (2018) में शामिल कानून

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 101

यह मामला उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा के एक सदस्य की अयोग्यता से संबंधित है, और इसलिए, भारतीय संविधान का यह प्रावधान इस मामले में महत्वपूर्ण महत्व रखता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 101 में सदस्यों की अयोग्यता की स्थिति में सीटें खाली करने का प्रावधान है। वर्तमान मामले में मुख्यतः अनुच्छेद 101 के प्रासंगिक खंड 3 का प्रयोग किया गया है। इसमें प्रावधान है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 (1) और (2) के तहत उल्लिखित आधारों पर अयोग्यता की स्थिति में किसी सदस्य का स्थान रिक्त हो सकता है। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 102

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 में सदस्यता की अयोग्यता का प्रावधान है। इसमें कई आधारों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर किसी सांसद या राज्य विधानसभा के सदस्य को अयोग्य ठहराया जा सकता है। कोई व्यक्ति संसद के किसी भी सदन का सदस्य चुने जाने और सदस्य होने के लिए अयोग्य होगा- 

  • यदि सदस्य भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन कोई लाभ का पद धारण करता है;
  • यदि सदस्य विकृत मानसिक स्थिति का हो;
  • यदि सदस्य को दिवालिया घोषित कर दिया गया हो;
  • यदि सदस्य भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी अन्य देश की नागरिकता स्वीकार कर ली है;
  • यदि सदस्य संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून के अंतर्गत संसद का हिस्सा बनने के लिए अयोग्य हो;
  • इसके अतिरिक्त, यदि कोई सदस्य दसवीं अनुसूची के अंतर्गत अयोग्य घोषित किया जाता है तो वह संसद के किसी भी सदन का सदस्य होने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। 

वर्तमान मामले में भी यही उल्लेख मिलता है कि दोषी प्रतिवादी संख्या 2 (उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा का दोषी सदस्य) को संविधान के अनुच्छेद 102(1)(e) के तहत (दोषी ठहराए जाने पर स्थगन आदेश से पहले) इस आधार पर अयोग्य ठहराया गया था कि उसे जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत अपराध का दोषी ठहराया गया है। 

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8

अधिनियम की धारा 8 में उन अपराधों का प्रावधान है जिनके तहत संसद या राज्य विधानसभा का कोई सदस्य, यदि दोषी पाया जाता है, तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102(1)(e) के तहत अयोग्य घोषित किया जा सकता है। ऐसे अपराध हैं जिनके तहत यदि कोई सदस्य दोषी पाया जाता है, तो वह इस धारा के अंतर्गत अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। 

उक्त प्रावधान के अंतर्गत अपराधों में निम्नलिखित शामिल हैं- 

आरोपित मामला उन तीन प्रावधानों से संबंधित है जिनके तहत प्रतिवादी संख्या 2 को दोषी ठहराया गया था। उन्हें भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 353, 504 और 506 के तहत दोषी ठहराया गया। दोषी पाया गया सदस्य धारा 8(3) के अंतर्गत आता है, इसलिए उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है। घटनाक्रम में एक बड़ा बदलाव यह हुआ कि अपीलीय न्यायालयों ने सजा पर रोक लगा दी और अंतिम सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई। 

मामले का फैसला

पीठ में माननीय न्यायाधीश धनंजय वाई चंद्रचूड़, ए एम खानविलकर और दीपक मिश्रा शामिल थे। यह निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया था जिसमें यह माना गया था कि अधिनियम की धारा 8 की उपधारा (1), (2), या (3) के तहत अयोग्यता सीआरपीसी की धारा 389 के तहत अपीलीय न्यायालय द्वारा या सीआरपीसी की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा पारित दोषसिद्धि के स्थगन आदेश की तारीख से लागू नहीं होगी। 

अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता की इस दलील में कोई दम नहीं है कि सीआरपीसी की धारा 389 स्पष्ट रूप से अपीलीय अदालत को दोषसिद्धि पर रोक लगाने का अधिकार नहीं देती है। न्यायालय ने राम नारंग बनाम रमेश नारंग (1995) के ऐतिहासिक निर्णय पर भरोसा करते हुए कहा कि यह सर्वविदित (वेल नॉन) है कि धारा 389 की सीमा और दायरा काफी व्यापक है तथा यह विचारण न्यायालय की सजा पर रोक लगाने के साथ-साथ उसके क्रियान्वयन का भी आदेश देने की शक्ति प्रदान करता है। अतः न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता का मामला किसी भी प्रकार से गुण-दोष से रहित है और इस प्रकार उसका निपटारा किया जाता है। 

निर्णय के पीछे तर्क

अपीलीय न्यायालय की शक्ति और अधिकार पर निर्णय देते हुए न्यायालय ने रामा नारंग बनाम रमेश नारंग (1995) के ऐतिहासिक निर्णय पर भरोसा किया। इसके अलावा, आरोपित मामले में यह माना गया कि दोषसिद्धि का आदेश उसके निष्पादन को सुनिश्चित नहीं करता है। दूसरे शब्दों में, दोषसिद्धि का आदेश या डिक्री स्वयं में सीआरपीसी के प्रावधानों के तहत निष्पादन योग्य नहीं है। लेकिन इसी मामले में न्यायालय ने माना कि केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही दोषसिद्धि आदेश या डिक्री निष्पादन योग्य है। यदि यही तर्क वर्तमान मामले में लागू किया जाता है, तो अदालत ने माना कि वर्तमान मामले में दोषसिद्धि आदेश प्रथम दृष्टया निष्पादन योग्य है, तो इससे दोषी प्रतिवादी संख्या 2 की तत्काल अयोग्यता हो जाएगी। 

इसके अलावा, अदालत ने कहा कि अपीलीय अदालतों को प्रदत्त शक्तियों के दायरे और परिधि (स्कोप) पर निर्णय लेने से पहले, सीआरपीसी की धारा 389 (1) के वास्तविक अर्थ और दायरे पर गहराई से विचार करना उचित है। न्यायालय ने विवादित प्रावधान के दायरे और परिधि का गहन अध्ययन करने के बाद यह माना कि अपीलीय न्यायालयों को उक्त प्रावधान के तहत दोषसिद्धि पर रोक लगाने की शक्ति प्रदान की गई है। 

न्यायालय ने याचिकाकर्ता के इस तर्क पर विचार करते हुए कि धारा 389(1) का दायरा बहुत संकीर्ण है और दोषसिद्धि पर रोक से सदस्य की अयोग्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, कहा कि यह तर्क त्रुटिपूर्ण है और इसमें कोई दम नहीं है। अदालत ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 389(1) के साथ धारा 374 अपीलीय अदालतों को विचारण न्यायालय के फैसले को पलटने के साथ-साथ दोषसिद्धि और सजा के निष्पादन पर रोक लगाने की शक्तियां प्रदान करती है। इसलिए, यह मानना कि दोषसिद्धि पर रोक लगाने से विचारण न्यायालय द्वारा पहले जारी किए गए दोषसिद्धि के आदेश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, दंड प्रक्रिया संहिता में निहित प्रक्रिया की अवमानना होगी। 

अदालत ने नवजोत सिंह सिद्धू बनाम पंजाब राज्य (2007) के ऐतिहासिक फैसले का भी हवाला दिया। इसलिए, अदालत ने माना कि सीआरपीसी की धारा 389 के तहत, अपीलीय अदालत सजा पर रोक लगाने का आदेश देने के लिए पूरी तरह से सक्षम है, लेकिन शर्त यह है कि दोषी अपीलकर्ता को अदालत को उन परिणामों के बारे में संतुष्ट करना होगा जो उसके खिलाफ हो सकते हैं यदि ऐसा स्थगन आदेश पारित नहीं किया जाता है। 

अदालत ने कहा कि यह सच है कि विशेष मामलों में दोषसिद्धि पर रोक लगाई जानी चाहिए, तथा यह नियम नहीं है तथा इसका प्रयोग दुर्लभ मामलों में किया जाना चाहिए, जहां स्थिति की मांग हो। माननीय पीठ ने माना कि आरोपित मामला एक ऐसा दुर्लभ मामला है जिसमें लखनऊ के जिला एवं सत्र न्यायालय के साथ-साथ इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न केवल सजा के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी है, बल्कि दोषी प्रतिवादी संख्या 2 की दोषसिद्धि के आदेश पर भी रोक लगा दी है। पीठ ने कहा कि चूंकि अपीलीय न्यायालय द्वारा मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर समुचित विचार करने के बाद दोषसिद्धि पर रोक लगा दी गई है, इसलिए इससे दोषी प्रतिवादी की अयोग्यता कमजोर हो जाती है। 

इस बात पर निर्णय करते हुए कि क्या स्थगन आदेश का किसी सदस्य की पूर्व अयोग्यता पर कोई प्रभाव पड़ता है या नहीं, न्यायालय ने रविकांत एस. पाटिल बनाम सर्वभूमा एस. बागली (2006) के निर्णय पर भरोसा किया। पीठ ने कहा कि जब दोषसिद्धि पर स्थगन आदेश पारित किया जाता है, तो इसका प्रभाव दोषी ठहराए गए सदस्य की अयोग्यता पर भी पड़ता है। इसने माना कि स्थगन आदेश मूलतः दोषसिद्धि के आधार पर पूर्व अयोग्यता को कमजोर करता है। यह माना गया कि दोषी प्रतिवादी और उसकी अयोग्यताएं तब समाप्त हो गईं जब लखनऊ के जिला एवं सत्र न्यायालय ने विशेष परिस्थितियों पर विचार करते हुए दोषसिद्धि पर स्थगन दे दिया। इसके अलावा, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी यही निर्णय दिया था, इसलिए उस समय के लिए अयोग्यता समाप्त हो गई है तथा सदस्य को अपना पद खाली करने की आवश्यकता नहीं है। उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा के एक सम्मानित सदस्य के रूप में उन्हें तब तक इसके सदस्य बने रहने का पूरा अधिकार है जब तक स्थगन आदेश वापस नहीं ले लिया जाता है। 

इसलिए, अधिनियम की धारा 8 की उप-धारा (1), (2), या (3) के तहत अयोग्यता सीआरपीसी की धारा 389 (जिला और सत्र न्यायालय को प्रदत्त शक्तियां) के तहत अपीलीय न्यायालय या सीआरपीसी की धारा 482 (आपराधिक मामलों के मामले में उच्च न्यायालय का अपीलीय अधिकार क्षेत्र) के तहत उच्च न्यायालय द्वारा पारित दोषसिद्धि के स्थगन आदेश की तारीख से लागू नहीं होगी। 

मामले में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय

बी.आर. कपूर बनाम तमिलनाडु राज्य और अन्य (2001)

इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह राय व्यक्त की थी कि सीआरपीसी की धारा 389 के तहत अपीलीय न्यायालयों को निचली/विचारण अदालत की सजा के क्रियान्वयन पर रोक लगाने का अधिकार है। याचिकाकर्ता ने अपने इस दावे को पुष्ट करने के लिए इस निर्णय पर भरोसा किया है कि अपीलीय न्यायालयों को दोषसिद्धि पर स्थगन आदेश देने का अधिकार नहीं है तथा यह अधिकार केवल सजा के निष्पादन पर स्थगन आदेश देने तक ही सीमित है। 

राम नारंग बनाम रमेश नारंग (1995)

इस विवादित मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि अपीलीय न्यायालयों के पास फिर भी सजा के निष्पादन के साथ-साथ सजा पर रोक लगाने का आदेश देने का अधिकार है। लेकिन बाद वाले आदेश का उपयोग या पारित अपीलीय न्यायालयों द्वारा उन दुर्लभ मामलों में किया जाना है, जहां दोषी अपीलकर्ता को गंभीर परिणामों का सामना करना पड़ सकता है, यदि उस प्रभाव का स्थगन आदेश पारित नहीं किया जाता है। वर्तमान मामले में माननीय पीठ ने सीआरपीसी की धारा 389 की सीमा और दायरे को निर्धारित करने के लिए इस मामले पर भरोसा किया था। 

नवजोत सिंह सिद्धू बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2007)

इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि अपीलीय न्यायालयों द्वारा दोषसिद्धि पर स्थगन आदेश का सहारा केवल उन दुर्लभ मामलों में लिया जाएगा, जहां स्थगन आदेश पारित न करने के परिणाम दोषी अपीलकर्ता के लिए प्रतिकूल होंगे। वर्तमान मामले में माननीय पीठ द्वारा जिला एवं सत्र न्यायालय लखनऊ द्वारा सीआरपीसी की धारा 389 के तहत पारित स्थगन आदेश की वैधता पर निर्णय लेने के लिए इस मामले को संदर्भित किया गया था। 

मामले का विश्लेषण

यह मामला सीआरपीसी के तहत अपीलीय न्यायालयों की शक्तियों पर एक ऐतिहासिक मिसाल के रूप में कार्य करता है। जहां तक सीआरपीसी की धारा 389 के तहत रोक लगाने की शक्ति का सवाल है, अदालत ने इस पर प्रकाश डाला है और स्थिति को स्पष्ट किया है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि सीआरपीसी की धारा 389 न केवल अपीलीय अदालतों को विचारण न्यायालय द्वारा आदेशित सजा के निष्पादन पर रोक लगाने की शक्ति प्रदान करती है, बल्कि यह प्रावधान अपनी सीमा दायरे में काफी व्यापक है और अपीलीय अदालतों को विशेष/दुर्लभ परिस्थितियों में सजा पर रोक लगाने का आदेश देने का अधिकार प्रदान करता है, जहां दोषी अपीलकर्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए ऐसा करना आवश्यक प्रतीत होता है। यह मामला अधिनियम की धारा 8 पर भी प्रकाश डालता है। 

इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि यदि कोई सदस्य अधिनियम की धारा 8 में उल्लिखित किसी अपराध के लिए दोषी पाया जाता है तो उसे संसद या राज्य विधानमंडल की सदस्यता से अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। इसके अलावा, यह मामला स्थगन के प्रभाव पर एक मिसाल के रूप में कार्य करता है। इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि जब अपीलीय न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि पर स्थगन आदेश पारित किया जाता है, तो उक्त दोषसिद्धि से उत्पन्न होने वाले पूर्ववर्ती परिणाम स्थगन आदेश के मामले के रूप में स्वतः ही कमजोर या अनिवार्य हो जाएंगे। उक्त मामले में, उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा के दोषी सदस्य की अयोग्यता के मामले में भी यही बात लागू होती है। जिला एवं सत्र न्यायालय लखनऊ द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 के तहत पारित स्थगन आदेश के तहत उनकी अयोग्यता रद्द कर दी गई है।

निष्कर्ष

यह मामला उत्तर प्रदेश राज्य विधानसभा के एक सदस्य को इस आधार पर अयोग्य ठहराने के साथ शुरू हुआ कि वह भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 353, 504 और 506 के तहत अपराधों में शामिल रहा है। निचली अदालत के फैसले से व्यथित होकर उन्होंने जिला एवं सत्र न्यायालय, लखनऊ में अपील की। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की कठोर जांच के बाद, जिला न्यायालय ने उनकी दोषसिद्धि पर स्थगन आदेश पारित किया, जिससे राज्य विधानसभा से उनकी अयोग्यता समाप्त हो गई। अब इस स्थगन आदेश और जिला एवं सत्र न्यायालय लखनऊ द्वारा अयोग्यता निरस्तीकरण से व्यथित होकर, लोक प्रहरी नामक एक संगठन ने जिला एवं सत्र न्यायालय के निर्णय पर विचार करने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की है।

उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज करते हुए जिला एवं सत्र न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। इससे व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और एक जनहित याचिका दायर की, जिसमें तर्क दिया गया कि अपीलीय न्यायालयों के पास दोषसिद्धि पर स्थगन आदेश पारित करने की शक्ति नहीं है और यदि इस आशय का स्थगन आदेश पारित भी कर दिया जाता है, तो भी अयोग्यता को रद्द नहीं किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की गहन जांच और विचार के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा और कहा कि याचिकाकर्ता की याचिका में कोई दम नहीं है और इसे खारिज किया जाता है। 

कठोर विश्लेषण के बाद यह मामला स्पष्ट रूप से बताता है कि किसी कानून के प्रावधान की व्याख्या उसके दायरे और उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिए। इस मामले से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्थगन आदेश के व्यापक परिणाम होते हैं तथा इसे सामान्यतः दुर्लभ परिस्थितियों में ही प्रदान किया जाता है। यह समझना कि अपीलीय न्यायालयों द्वारा जारी स्थगन आदेश में निचली अदालतों द्वारा दी गई पूर्व दोषसिद्धि को कमजोर करने की शक्ति नहीं है, सीआरपीसी की धारा 389 के वैधानिक उद्देश्य में हस्तक्षेप होगा। निष्कर्ष के तौर पर, यह मामला सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्यात्मक शक्ति का प्रमाण है तथा सीआरपीसी की धारा 389 के संबंध में अस्पष्टता को दूर करता है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

बी.आर. कपूर बनाम तमिलनाडु राज्य (2001) मामले में क्या निर्णय दिया गया था?

बी.आर. कपूर बनाम तमिलनाडु राज्य के ऐतिहासिक मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि सीआरपीसी की धारा 389 (बीएनएसएस की धारा 430) के अंतर्गत, अपीलीय न्यायालयों को मामले पर उचित निर्णय होने तक दोषी अपीलकर्ता की सजा के निष्पादन पर रोक लगाने का आदेश देने का अधिकार है।

सीआरपीसी की धारा 389 का दायरा क्या है?

सीआरपीसी की धारा 389 (बीएनएसएस की धारा 430) दोषी अपीलकर्ता की दोषसिद्धि के मामले में अपीलीय न्यायालयों को निलंबन और स्थगन की शक्तियां प्रदान करती है। यह मामला मुख्य रूप से सीआरपीसी के इसी प्रावधान के इर्द-गिर्द घूमता है तथा इसके दायरे और परिधि के संबंध में कुछ अस्पष्टताओं को दूर करता है। विवादित मामले में पीठ ने माना कि सीआरपीसी की धारा 389 के तहत अपीलीय न्यायालयों को दोषी अपीलकर्ता की सजा के साथ-साथ फांसी पर रोक लगाने का भी आदेश देने का अधिकार है। 

संदर्भ

 

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