डिफेमेशन  के एसेंशियल्स, अंग्रेजी कानूनों और भारतीय कानून के तहत लिबेल और स्लेंडर

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Indian Penal Code
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यह लेख एमिटी लॉ स्कूल दिल्ली के तृतीय वर्ष के कानून के छात्र Rishabh Soni द्वारा लिखा गया है। उन्होंने डिफेमेशन की अवधारणा (कांसेप्ट) पर विस्तार से चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

डिफेमेशन , जैसा कि शब्द के अर्थ से पता चलता है, किसी व्यक्ति के खिलाफ़ गलत बयान देने जिससे उसकी प्रतिष्ठा (रेप्युटेशन) को ठेस पहुंचती है। एक व्यक्ति की प्रतिष्ठा को उसकी संपत्ति के रूप में माना जाता है और यदि कोई व्यक्ति संपत्ति को नुकसान पहुंचाता है तो वह कानून के तहत उत्तरदायी है, इसी तरह, किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाने वाला व्यक्ति भी कानून के तहत उत्तरदायी है। डिफेमेशन को इंडियन पीनल कोड, 1860 की धारा 499 में परिभाषित किया गया है और धारा 500 में यह प्रावधान (प्रोविजन) है कि इस धारा के तहत अपराध करने वाला व्यक्ति 2 साल की साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों के लिए उत्तरदायी होगा।

डिफेमेशन के एसेंशियल्स

A. बयान डिफेमेट्री होना चाहिए

डिफेमेशन के अपराध का सबसे पहला एसेंशियल यह है कि कथन डिफेमेट्री होना चाहिए अर्थात जो वादी (प्लेंटिफ) की प्रतिष्ठा को कम करता हो। यह जाँचने के लिए कि कोई विशेष कथन डिफेमेट्री है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि समाज के सही सोच वाले सदस्य इसे कैसे लेते हैं। इसके अलावा, कोई व्यक्ति इस बात का बचाव नहीं कर सकता कि बयान का उद्देश्य डिफामेटरी नहीं था, हालांकि इससे घृणा, अवमानना ​​(कंटेंप्ट) या नापसंदगी (डिसलाइक) की भावना पैदा हुई।

राम जेठमलानी बनाम सुब्रमण्यम स्वामी के मामले में, अदालत ने डॉ स्वामी को राजीव गांधी की हत्या के मामले में तमिलनाडु के चीफ मिनिस्टर की रक्षा के लिए प्रतिबंधित संगठन (बैंन्ड ऑर्गेनाइजेशन) से धन प्राप्त करने का कहकर श्री जेठमलानी को बदनाम करने के लिए उत्तरदायी ठहराया। अरुण जेटली बनाम अरविंद केजरीवाल के हाल ही के मामले में, अदालत ने अरविंद केजरीवाल और उनके 5 अन्य लीडर्स के बयान को डिफेमेट्री बताया। हालांकि, सभी प्रतिवादियों (डिफेंडेंट्स) द्वारा अपने कार्यों के लिए माफी मांगने के बाद मामला बंद हो गया।

इलस्ट्रेशन

A स्थानीय (लोकल) समाचार पत्र में एक विज्ञापन (एडवरटाइजमेंट) प्रकाशित (पब्लिश) करता है जिसमें झूठी सूचना दी जाती है कि B की कंपनी ने 20,00,000 रुपये की धोखाधड़ी की है। यह कथन डिफेमेशन के समान होगा क्योंकि यह समाचार पत्र कई पाठकों द्वारा पढ़ा जाएगा और निश्चित रूप से B की कंपनी की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाएगा।

हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि गुस्से में बोली जाने वाली जल्दबाजी की अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन), या अश्लील (वल्गर) गाली, जिसको सुनने वाला कोई भी नही है और चरित्र को चोट पहुंचाने का कोई निर्धारित (सेट) उद्देश्य नहीं है, तो वह किसी व्यक्ति को डिफेम करने के बराबर नहीं होगा।

इलस्ट्रेशन

यदि एक एंप्लॉयर अपने एम्प्लॉयी B को पूरे स्टाफ के सामने समय पर नहीं आने के लिए डांटता है, तो B यह दलील (प्ली) नहीं ले सकता है कि A ने B की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाई है।

B. बयान वादी को संदर्भित करना चाहिए (द स्टेटमेंट मस्ट रेफर टू द प्लेंटिफ)

डिफेमेशन की कार्रवाई में, वादी को यह साबित करना होता है कि जिस बयान की शिकायत उसने की है, यह महत्वहीन (इम्मेटेरियल) होगा कि प्रतिवादी का इरादा वादी को डिफेम करने का नहीं था। यदि जिस व्यक्ति को बयान प्रकाशित किया गया था, वह उचित रूप से अनुमान (इन्फर) लगा सकता है कि बयान उसे संदर्भित किया गया है, तो प्रतिवादी उत्तरदायी होगा

इलस्ट्रेशन- यदि A, एक बैंक, अपनी सभी शाखाओं (ब्रांचेस) को xyz से किसी भी व्यक्ति को लॉन नहीं देने के लिए नोटिस प्रकाशित करता है क्योंकि xyz के लोग बार-बार चूककर्ता (डिफॉल्टर्स) होते हैं। अब इस B के कारण xyz के निवासी को भारी नुकसान हुआ है। अब B उसे डिफेम करने के लिए A को उत्तरदायी ठहरा सकता है, हालांकि बैंक ने सीधे उस पर ध्यान केंद्रित (फोकस) नहीं किया था।

टीवी रामसुभा अय्यर बनाम ए.एम.ए मोहिंदीन के मामले में, न्यायालय ने प्रतिवादियों को डिफेम करने के इरादे के बिना एक बयान प्रकाशित करने के लिए उत्तरदायी ठहराया। बयान में कहा गया था, कि अगरबत्ती का कारोबार सीलोन ले जाने वाले एक व्यक्ति को तस्करी (स्मग्लिंग) के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। वादी भी इसी तरह का व्यवसाय करने वाले व्यक्तियों में से एक था, और इस कथन के परिणामस्वरूप उसकी प्रतिष्ठा को भी भारी क्षति (डैमेज) हुई।

C. बयान प्रकाशित किया जाना चाहिए (द स्टेटमेंट मस्ट बी पब्लिश्ड)

डिफेम व्यक्ति के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के लिए डिफेमेट्री बयान का प्रकाशन (पब्लिकेशन) किसी भी व्यक्ति को उत्तरदायी बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, और जब तक ऐसा नहीं किया जाता है, डिफेमेशन के लिए कोई कार्रवाई नहीं होगी।

हालाँकि, यदि कोई तीसरा व्यक्ति वादी के लिए लिखे गए पत्र को गलत तरीके से पढ़ता है, तो प्रतिवादी के उत्तरदायी होने की संभावना है। लेकिन अगर वादी को भेजा गया डिफेमेट्री पत्र किसी और के द्वारा पढ़े जाने की संभावना है, तो एक वैध प्रकाशन होगा।

महेंद्र राम बनाम हरनंदन प्रसाद के मामले में प्रतिवादी को उर्दू में लिखे गए वादी को एक डिफेमेट्री पत्र भेजने के लिए उत्तरदायी ठहराया गया था, यह जानते हुए कि वादी उर्दू नहीं जानता था और पत्र को किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पढ़ा जाएगा।

डिफेमेशन के प्रकार (फॉर्म्स ऑफ डिफेमेशन)

  1. स्लेंडर- यह एक क्षणिक (ट्रांसिएंट) रूप में डिफेमेट्री बयान का प्रकाशन होता है।

उदाहरण के लिए- शब्दों या इशारों के माध्यम से किसी व्यक्ति को डिफेम करना।

  1. लिबेल- यह किसी स्थायी (परमानेंट) रूप में किया गया प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) है।

उदाहरण के लिए- किसी स्थायी रूप जैसे लेखन, छपाई आदि में किए गए प्रतिनिधित्व के माध्यम से किसी व्यक्ति को डिफेम करना।

लिबेल और स्लेंडर पर अंग्रेजी कानून

अंग्रेजी आपराधिक कानून के तहत, लिबेल को अपराध माना जाता है लेकिन स्लेंडर को नहीं है। स्लेंडर केवल एक सिविल गलत है। लिबेल और स्लेंडर का भेद मुख्यतः दो कारणों से है-

  1. आपराधिक कानून के तहत, केवल लिबेल को अपराध के रूप में मान्यता दी गई है। स्लेंडर कोई अपराध नहीं है।
  2. टोर्ट्स के कानून के तहत, स्लेंडर कार्रवाई योग्य (एक्शनेबल) है, कुछ मामलों को छोड़कर जहां विशेष क्षति को साबित करना पड़ता है। लिबेल हमेशा कार्रवाई योग्य है यानी बिना किसी सबूत के। हालाँकि, लिबेल भी निम्नलिखित 4 मामलों में  कार्रवाई योग्य है:
  • वादी पर एक अपराध का आरोप।
  • वादी पर एक संक्रामक (इन्फेक्शस) रोग का आरोप, जिसका प्रभाव वादी के साथ अन्य लोगों को संबद्ध (एसोसिएट) करने से रोकता है। उदाहरण A अपने कार्यालय में एक बयान देता है कि उसका सहयोगी एड्स से पीड़ित है। वह यहां अपने सहयोगी को डिफेम करने के लिए उत्तरदायी हो सकता है।
  • यह आरोप कि कोई व्यक्ति अपने द्वारा चलाए जा रहे कार्यालय, पेशे (प्रोफेशन), व्यापार या व्यवसाय के संबंध में अक्षम (इन्कॉम्पिटेंट), बेईमान या अयोग्य (अनफिट) है।
  • किसी भी महिला या लड़की के लिए अनचेस्टिटी या एडल्टरी का आरोप।

लिबेल और स्लेंडर पर भारतीय कानून

अंग्रेजी कानून के विपरीत, भारतीय कानून लिबेल और स्लेंडर के बीच कोई अंतर नहीं करता है और दोनों को आईपीसी की धारा 499 के तहत आपराधिक अपराध माना जाता है। हीराबाई जहांगीर बनाम दिनशादुलजी के मामले में बॉम्बे और मद्रास हाई कोर्ट दोनों ने माना कि लिबेल और स्लेंडर को अपराध मानने के बीच कोई अंतर नहीं किया जाना चाहिए।

इन्यूएंडो

एक कथन, प्राइमा फेसी डिफेमेट्री होता है जब उसका स्वाभाविक (नेचरल) और स्पष्ट अर्थ उस निष्कर्ष की ओर ले जाता है। कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि कथन प्राइमा फेसी निर्दोष था लेकिन कुछ सेकेंडरी अर्थों के कारण इसे डिफेमेट्री माना जा सकता है। इस सेकेंडरी उदाहरण के लिए वादी को सेकेंडरी अर्थ को सिद्ध करना होगा जो कथन को डिफेमेट्री बनाता है।

इलस्ट्रेशन

Z एक बयान देता है कि X एक ईमानदार आदमी है और उसने कभी मेरी घड़ी नहीं चुराई। अब यह कथन प्राइमा फेसी निर्दोष हो सकता है, लेकिन यह डिफेमेट्री हो सकता है यदि वह व्यक्ति जिसके लिए यह बनाया गया था, इसकी यह व्याख्या करता है कि X एक बेईमान व्यक्ति है जिसने घड़ी चुरा ली है।

व्यक्तियों के वर्ग का डिफेमेशन (डिफेमेशन ऑफ क्लास ऑफ पर्सन्स)

जब बोले गए विशेष शब्दों को व्यक्तियों के समूह या व्यक्तियों के वर्ग को संदर्भित किया जाता है, तो उस समूह या वर्ग का कोई भी व्यक्ति तब तक मुकदमा नहीं कर सकता जब तक कि वह यह साबित नहीं कर देता कि शब्दों को उचित रूप से संदर्भित करने के लिए माना जा सकता है।

इलस्ट्रेशन- यदि किसी व्यक्ति ने यह लिखा है कि सभी डॉक्टर चोर थे, तो कोई विशेष चिकित्सक उस पर तब तक मुकदमा नहीं कर सकता था जब तक कि ऐसा कुछ न हो जो यह बताता हो कि व्यक्ति वास्तव में उसे व्यक्तिगत रूप से डिफेम करने का इरादा रखता है।

यह स्थिति अलग होगी यदि व्यक्ति ने लिखा है कि गंगा राम अस्पताल के सभी डॉक्टर चोर हैं और गंगा राम अस्पताल के डॉक्टर उन्हें डिफेम करने के लिए मुकदमा कर सकते हैं।

पति और पत्नी के बीच कम्युनिकेशन

कानून की नजर में, पति और पत्नी दोनों एक व्यक्ति हैं और पति से पत्नी या इसके विपरीत डिफेमेट्री मामले का कम्युनिकेशन कोई प्रकाशन नहीं है और यह धारा 499 के दायरे में नहीं आएगा। इंडियन एविडेंस एक्ट 1872 की धारा 122, पति और पत्नी के बीच प्रिविलेज़्ड कम्युनिकेशन से संबंधित है और उन्हें धारा 499 के दायरे से बाहर कर देता है सिवाय विवाहित व्यक्तियों के बीच के मुकदमों में, या एक कार्यवाही में जिसमें एक विवाहित व्यक्ति पर दूसरे के खिलाफ किए गए किसी भी अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाता है।

एक प्रमुख मामले में टी.जे. पोन्नन बनाम एम.सी वर्गीज अदालत ने माना कि पत्नी को, पति के द्वारा उसकी पत्नी को पत्र जिसमे डिफेमेट्री मामला था, तो ससुर डिफेमेशन के लिए उत्तरदायी नही होगा। यह बहुत हद तक इंडियन एविडेंस एक्ट 1872 की धारा 122 में निर्धारित पति और पत्नी के बीच प्रिविलेज़्ड कम्युनिकेशन के दायरे में शामिल होगा।

डिफेमेशन के बचाव (डिफेंसेज ऑफ डिफेमेशन)

डिफेमेशन के लिए कार्रवाई के बचाव (डिफेंस) निम्मलिखित हैं

  1. जस्टिफिकेशन ऑफ ट्रुथ
  2. फेयर कमेंट
  3. प्रिविलेज

जस्टिफिकेशन ऑफ ट्रुथ

डिफेमेशन के लिए सिविल कार्रवाई में, डिफेमेट्री मामले की सच्चाई एक पूर्ण बचाव है और इसका कारण यह है कि “कानून किसी व्यक्ति को उसके बारे में कुछ सच होने के लिए हर्जाना (डैमेज) वसूलने (रिकवर) की अनुमति नहीं देगा”।

दूसरी ओर आपराधिक कानून के तहत केवल यह साबित करना कि बयान सही था, एक अच्छा बचाव नहीं है और इसके अलावा, प्रतिवादी को यह दिखाना होगा कि यह सार्वजनिक भलाई के लिए बनाया गया था।

यदि प्रतिवादी तथ्यों की सच्चाई को साबित करने में सक्षम नहीं है, तो बचाव का लाभ नहीं उठाया जा सकता है। राधेश्याम तिवारी बनाम एकनाथ अदालत के मामले में प्रतिवादियों को, वादियों के खिलाफ डिफेमेट्री मामला प्रकाशित करने के लिए दोषी ठहराया गया था। बाद में प्रतिवादी यह साबित करने में सक्षम नहीं थे कि उनके द्वारा प्रकाशित तथ्य सत्य थे और इसलिए उन्हें उत्तरदायी ठहराया गया था।

फेयर कमेंट

जनहित (पब्लिक इंटरेस्ट) के मामलों पर फेयर कमेंट करना डिफेमेशन की कार्रवाई का एक वैध बचाव है। इसके लिए निम्नलिखित को सिद्ध करना होगा:

  • यह एक कमेंट होना चाहिए यानी तथ्य के दावे (असर्शन) के बजाय राय की अभिव्यक्ति 

उदाहरण के लिए, यदि X कहता है कि A ब्रीच ऑफ ट्रस्ट का दोषी है और इसलिए वह एक बेईमान व्यक्ति है। यहाँ बाद के शब्द पूर्व पर एक कमेंट हैं। लेकिन अगर A ने कोई ब्रीच ऑफ ट्रस्ट नहीं किया और X फिर भी उसे एक बेईमान आदमी के रूप में कहता है। तब यह कोई कमेंट नहीं होगा और तथ्य के दावे के समान होगी।

  • फेयर कमेंट होना चाहिए

कमेंट फेयर होना चाहिए, अर्थात असत्य तथ्यों पर आधारित नहीं होना चाहिए।

उदाहरण के लिए, X एक समाचार पत्र में Y के विरुद्ध रिश्वतखोरी के गंभीर आरोप प्रकाशित करता है। बाद में X इन आरोपों की सच्चाई को साबित करने में सक्षम नहीं होता है और इसलिए उनका कमेंट, फेयर कमेंट नहीं होगा।

  • जिस मामले पर कमेंट किया गया है वह जनहित का होना चाहिए

जिस मामले पर प्रतिवादी ने कमेंट किया है वह जनहित का होना चाहिए। सरकारी विभागों (डिपार्टमेंट्स), अदालतों, मंत्रियों, जनसभाओं (पब्लिक मीटिंग्स), पाठ्यपुस्तकों (टेक्स्टबुक्स) आदि के प्रशासन (ऐडमिनिस्ट्रेशन) जैसे मामलों को जनहित के मामले माना जाता है।

प्रिविलेज

जैसा कि शब्द से ही पता चलता है यानि विशेष दर्जा देना है। ये विशेष अवसर, जब कानून यह मानता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार वादी के डिफेमेशन के अधिकार से अधिक है और ऐसे अवसर पर दिया गया डिफेमेट्री बयान कार्रवाई योग्य नहीं है। प्रिविलेज दो प्रकार की होती हैं।

1. एब्सोल्यूट प्रिविलेज

इन मामलों में बोलने वाले व्यक्ति को पूर्ण छूट दी जाती है और उसके खिलाफ डिफेमेशन की कोई कार्रवाई नहीं हो सकती है। इसमें 2 पहलू (एस्पेक्ट) शामिल हैं

  • संसदीय (पार्लियामेंट्री) कार्यवाही- भारतीय संविधान का आर्टिकल 105(2) संसद के कामकाज के दौरान सांसदों को कुछ भी बोलने की छूट देता है और उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी।
  • न्यायिक कार्यवाही- यह संरक्षण न्यायाधीशों को 1850 के ज्यूडिशियल ऑफिसर प्रोटेक्शन एक्ट के तहत दिए गए है। यह वकीलों, गवाहों और एक मुकदमे के पक्षकारों तक भी विस्तारित (एक्सटेंड) है।                             

2. क्वालिफाइड प्रिविलेज

यह प्रिविलेज भी उपलब्ध है और इसके तहत यह आवश्यक है कि बयान बिना द्वेष (मेलाइस) के या गलत इरादे से दिया गया हो।

उदाहरण के लिए, A, एक दुकानदार, B से कहता है, जो उसके व्यवसाय का प्रबंधन (मैनेज) करता है, “Z को तब तक कुछ भी न बेचें जब तक कि वह आपको तैयार धन का भुगतान न करे, क्योंकि मुझे उसकी ईमानदारी पर संदेह है। अब A इस अपवाद के अंदर आएगा यदि उसने अपने हित की रक्षा के लिए गुड फेथ मे Z पर अपना आरोप लगाया है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

धारा 499 आईपीसी में निर्धारित डिफेमेशन के सभी प्रमुख पहलुओं का विश्लेषण करने के बाद, हमने पाया है कि डिफामेशन का सार किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाने में निहित है, और इस चोट के लिए, वह प्रतिवादियों पर मुकदमा कर सकता है। डिफेमेशन दो प्रकार की होती है, लिबेल और स्लेंडर। दोनों को भारत में अपराध माना जाता है। इसके कुछ अपवाद हैं जिन्हें प्रिविलेज के रूप में जाना जाता है।

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