इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों की वैधता और प्रवर्तनीयता

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Indian Contract Act

यह लेख Ridhi Jain द्वारा लिखा गया है, जो डिप्लोमा इन इंग्लिश कम्युनिकेशन फॉर लॉयर्स – ऑरेटरी, राइटिंग, लिसनिंग एंड एक्यूरेसी कर रही हैं और इसे Oishika Banerji (टीम लॉसिखो) द्वारा संपादित (एडिट) किया गया है। इस लेख में इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों की वैधता पर विस्तार से चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

परिचय

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 10 के तत्वों की पूर्ति की आवश्यकता वाले पारंपरिक पेपर-पेन-आधारित प्रारूप में अनुबंधों को अनिवार्य रूप से व्यक्त किया गया है। हालांकि, कोविड -19 महामारी जैसी अप्रत्याशित परिस्थितियों और तकनीकी विकास और विश्व स्तर पर उन्नति की बढ़ती दर के साथ ई-अनुबंधों यानी इलेक्ट्रॉनिक अनुबंध की अवधारणा को लाया गया है। इसकी आवश्यकता वर्ष 2020 में महामारी के दौरान बहुत अधिक महसूस की गई थी जब व्यवसाय और कंपनियां बंद हो गई थीं और उद्योग काफी समय के लिए ठप हो गए थे। ऐसी परिस्थितियों ने दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों से निपटने के लिए ई-अनुबंधों और ई-हस्ताक्षरों के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) को जन्म दिया और समग्र रूप से व्यवसाय के कामकाज और विकास को पुनर्जीवित किया। इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों और इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षरों ने व्यापार करने के तरीके को नया रूप दिया है, व्यापार करने में आसानी की सुविधा दी है, और डिजिटल रूप से सुसज्जित (इक्विप्ड) भारत की शुरुआत को चिह्नित किया है। यह लेख इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों की वैधता और प्रवर्तनीयता (इन्फोर्सिएबिलीटी) पर चर्चा करने के इरादे से लिखा गया है, जिससे इसके दायरे और भविष्य की संभावनाओं पर भी चर्चा की जा सके।

इलेक्ट्रॉनिक अनुबंध क्या हैं

इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों ने बड़े पैमाने पर उपयोग को आकर्षित किया है और दिन-प्रतिदिन के कारोबार में बहुत लोकप्रिय हो गए हैं। इलेक्ट्रॉनिक अनुबंध पारंपरिक कागज-आधारित अनुबंधों के समान नहीं होते हैं, बल्कि इलेक्ट्रॉनिक संचार के उपयोग के माध्यम से होते हैं। इलेक्ट्रॉनिक कॉमर्स पर यूएनसीआईटीआरएएल मॉडल कानून कहता है कि डेटा संदेशों का आदान-प्रदान करके एक अनुबंध किया जा सकता है, और जब अनुबंध के निर्माण में डेटा संदेश का उपयोग किया जाता है, तो ऐसे अनुबंध की वैधता से इनकार नहीं किया जाना चाहिए।

आवश्यकता और बाद में ई-अनुबंधों को शामिल करना

कागज आधारित लेन-देन से इलेक्ट्रॉनिक तरीके में तेजी से परिवर्तन मुख्य रूप से सुविधा, बेहतर दक्षता (एफिशिएंसी) और कम लागत जैसे कारकों के कारण हुआ। हालांकि, इस तरह के कारकों को विश्वास की कमी, पहचान और सुरक्षा के मुद्दों, इंटरनेट की उपलब्धता, और मुख्य रूप से अन्य सामान्य और सिविल कानून वाले देशों में भी ऐसे अनुबंधों की मान्यता की अनुपस्थिति जैसे कारकों की क्रूर वास्तविकता से ढक दिया गया था।

अनुबंधों की दुनिया में ‘द यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑन कॉन्ट्रैक्ट्स फॉर द इंटरनेशनल सेल ऑफ गुड्स‘ (1980) के अधिनियमन के साथ एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हुई, जिसने वाणिज्यिक (कमर्शियल) व्यवसाय के कामकाज पर भारी प्रभाव डाला। हालांकि, यह ई-अनुबंधों पर विशेष कानून प्रदान करने में विफल रहा, जिसने ई-कॉमर्स पर यूएनसीआईटीआरएएल मॉडल कानून को जन्म दिया। उन्होंने ई-सेक्टर के विकास को महसूस किया और व्यापार करने की ऐसी प्रक्रियाओं को पहचानने और वैध बनाने के लिए एक मॉडल कानून बनाने के लिए संपर्क किया।

असत्यापित और अप्रामाणिक लेन-देन को समाप्त करने के लिए डिजिटल हस्ताक्षरों को तैयार और वैध बनाकर प्रमाणीकरण (ऑथेंटिकेशन) और पहचान के सत्यापन की सीमा को कम कर दिया गया। इसके साथ, भारत सबसे आगे, 2000 में अधिनियमित, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (आईटी अधिनियम) और भारतीय दंड संहिता, 1860, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872, बैंकर्स बुक एविडेंस एक्ट, 1891 और भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934, में इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेजों और इलेक्ट्रॉनिक वाणिज्य लेनदेन को मान्यता प्रदान करने के लिए एक साथ कई संशोधन किए।

इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों की वैधता और प्रवर्तन

ई-अनुबंधों को नियंत्रित करने वाले प्राथमिक क़ानून भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के प्रावधानों द्वारा शामिल किए गए हैं। धारा 10 में एक अनुबंध की प्रवर्तनीयता के लिए आवश्यकताएं अर्थात् अनुबंध के मूल सिद्धांत जैसे प्रस्ताव और स्वीकृति, स्वतंत्र सहमति, क्षमता और वैध प्रतिफल (कंसीडरेशन) दिए गए है। ये सिद्धांत एक वैध अनुबंध की मूल संरचना का निर्माण करते हैं और एक ई-अनुबंध के आधार पर टिके रहने के लिए, आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 10A के साथ पठित धारा 4 के तहत निर्धारित लिटमस टेस्ट पास करना आवश्यक है।

तमिलनाडु ऑर्गेनिक बनाम भारतीय स्टेट बैंक (2019) के मामले में, कानून की अदालत ने ई-नीलामी बिक्री प्रक्रिया की वैधता और इससे उत्पन्न होने वाले दायित्वों को देखने की कानूनी आवश्यकता को मान्यता दी थी। उपरोक्त मामले में अदालत ने प्रौद्योगिकी के विकास को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर टिप्पणी की और व्यवसाय के संचालन में पारदर्शिता और दक्षता को सुविधाजनक बनाने के अपने उद्देश्य की सराहना की।

प्रौद्योगिकी में बढ़ते उन्नयन (अपग्रेडेशन) के साथ, दस्तावेजों के निष्पादन का तरीका भी विकसित हुआ है। बाध्यकारी दस्तावेजों को निष्पादित करने के सुविधाजनक और पारदर्शी तरीकों का सहारा लेने की आवश्यकता थी और इस प्रकार, ई-अनुबंधों और ई-हस्ताक्षरों ने अत्यधिक गति प्राप्त की।

ई-हस्ताक्षर की अवधारणा का कानूनी चरित्र 2000 के आईटी अधिनियम की धारा 5 में व्यक्त किया गया है। एक इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर व्यक्ति को व्यक्तिगत पहचान प्रदान करने में सक्षम बनाता है। ई-अनुबंधों और ई-हस्ताक्षरों की सुरक्षित प्रक्रियाओं और अवधारणाओं को वैध बनाकर इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन की पहचान, सत्यापन और प्रमाणीकरण कुछ प्रमुख चिंताजनक सीमाओं को दूर करने का प्रयास किया गया है। इलेक्ट्रॉनिक/ डिजिटल हस्ताक्षरों की प्रवर्तनीयता को भारत में हस्तलिखित हस्ताक्षरों के समान माना जाता है।

ई-अनुबंधों की स्वीकार्यता

2000 के भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के पारित होने के बाद ई-अनुबंधों को साक्ष्य के रूप में स्वीकार्यता प्राप्त हुई, और परिणामस्वरूप, 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 (b) ने एक अदालत में सबूत के रूप में एक इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की प्रस्तुति की अनुमति दी। धारा 3, 85, 88, और 90 जैसे अन्य प्रावधान हैं, जो इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की कानूनी धारणा से संबंधित कई अनुमानों से निपटते हैं।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के प्रावधान के तहत, धारा 3 को धारा 65A और 65B के साथ पढ़ा जाता है, जैसे वे वर्ष 2000 के रूप में संशोधित हुए थे, जो स्पष्ट रूप से अदालत के निरीक्षण के लिए प्रस्तुत स्वीकार्य साक्ष्य दस्तावेजों के रूप में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को पहचानता है। परिणामस्वरूप वर्ष 2009 में, साक्ष्य अधिनियम, 1872 में एक और आवश्यक संशोधन ने इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर और प्रमाणन की अवधारणाओं को इसके प्रतिमान में शामिल किया। धारा 85A और 85B को भी वर्ष 2000 में शामिल किया गया था, ताकि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड/ हस्ताक्षर और दस्तावेज़/ अनुबंध की वैधता और प्रवर्तनीयता का अनुमान लगाया जा सके जब तक कि अन्यथा साबित न हो जाए। ऐसे कानूनों ने डिजिटल कानूनों और स्वीकृति को मजबूत किया, जिससे न्याय प्रणाली में डिजिटल/ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को समावेशिता (इनक्लूसिविटी) प्रदान की गई। इस तरह की समावेशिता और स्वीकृति लंबे समय से प्रतीक्षित थी और प्रौद्योगिकी के बढ़ते उपयोग की आधुनिक दुनिया के साथ तालमेल रखने की आवश्यकता थी।

इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों के संबंध में न्यायिक निर्णय

भारतीय न्यायपालिका द्वारा विभिन्न निर्णयों में सही ठहराए गए अनुपातों की एक श्रृंखला नीचे दी गई है। अनुपात इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों के संबंध में न्यायपालिका के दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। चर्चा के लिए हमारे विषय को ध्यान में रखते हुए न केवल ये निर्णय प्रासंगिक हैं, बल्कि आने वाले भविष्य में इसी तरह के मुद्दों के लिए उन्हें एक उल्लेखनीय मिसाल कहा जा सकता है।

  1. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अर्जुन पंडितराव खोटकर बनाम कैलाश कुशनराव गोरंट्याल और अन्य (2020) के मामले का फैसला करते हुए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65A और 65B के तत्वों और दस्तावेज़ के महत्व का अवलोकन किया था। इसने कहा था कि इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों के प्रमाण और प्रवर्तनीयता का निर्णय करते समय अदालतों द्वारा सामना की जाने वाली अनिश्चितता का पता लगाना आसान है, लेकिन ऐसी अनिश्चितता पूर्ण विकास और ऐसी तकनीक के प्रभावी उपयोग में उत्प्रेरक (कैटलिस्ट) के रूप में कार्य करेगी।
  2. ट्राइमेक्स इंटरनेशनल एफजेडई लिमिटेड दुबई बनाम वेदांता एल्युमीनियम लिमिटेड (2010) के मामले का फैसला करते समय सर्वोच्च न्यायालय का विचार उल्लेखनीय है कि पक्षों के बीच हस्ताक्षरित समझौते की अनुपस्थिति में, यह संभव होगा कि एक की स्थिति का अनुमान लगाया जा सके जिसमे ईमेल, पत्र, टेलेक्स, टेलीग्राम और दूरसंचार के अन्य माध्यमों के आदान-प्रदान के रूप में पक्षों द्वारा विधिवत अनुमोदित और हस्ताक्षरित विभिन्न दस्तावेजों से वैध समझौता हुआ हो। इस प्रकार, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुमोदन के डिजिटल माध्यमों को भी अनुमोदन के वैध रूपों के रूप में माना जाएगा और अनुमोदन के लिखित रूपों के समान मूल्य होगा।
  3. पंजाब राज्य और अन्य बनाम अमृतसर बेवरेजेज लिमिटेड और अन्य (2006) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला था कि 1872 के अधिनियम की धारा 63 में साक्ष्य के रूप में इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेजों को प्रस्तुत करने की प्रक्रिया शामिल है, जैसा कि अधिनियम की धारा 65B द्वारा प्रदान किया गया है।
  4. सुदर्शन कार्गो प्राइवेट लिमिटेड बनाम मैसर्स टेकवैक इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड (2013) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की राय, हमारे वर्तमान विषय वस्तु के प्रकाश में चर्चा के लिए उल्लेखनीय है, क्योंकि इसने ई-मेल पत्राचार (कॉरेस्पोंडेंस) की वैधता को वैध इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड और एक स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) के साक्ष्य के रूप में मान्य किया था, जैसा कि विशेष मामले में है। इस प्रकार न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि ईमेल के माध्यम से किया गया संचार आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 2(b) के तहत योग्य है।
  5. रूडर बनाम माइक्रोसॉफ्ट कॉर्पोरेशन (1999) के एक उल्लेखनीय मामले में, कानून की अदालत ने निर्धारित किया था कि “क्लिक-रैप” समझौता लागू करने योग्य था, यह फैसला करते हुए कि कई पृष्ठों पर स्क्रॉल करने को पेपर में लिखित अनुबंध के कई पृष्ठों को पढ़ने के समान माना जाना था। इस प्रकार, इस दशकों पुराने मामले के माध्यम से डिजिटल अनुबंधों को एक गरिमापूर्ण स्थान दिया गया।

निष्कर्ष

पेपर-आधारित लिखित अनुबंधों की आवश्यकता को पहचानते हुए, और अंततः अपने विकास के दायरे में इलेक्ट्रॉनिक समझौतों को अपनाते हुए, दुनिया ने नवीन रूप से प्रगति की है और व्यावसायिक रूप से विकसित हुई है। इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों के लिए मान्यता प्राप्त करने से प्रौद्योगिकी, साइबरस्पेस, वाणिज्य और व्यापार के अकल्पनीय विकास की भविष्य की संभावना का अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रकार आज हम जो चर्चा करते हैं, वह हमारा वर्तमान है न कि आने वाला भविष्य, क्योंकि भविष्य अब से बेहतर हो रहा है और अभी हमें और तलाशने की जरूरत है।

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