भारत में एडल्टरी से संबंधित कानून

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Indian Penal Code
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यह लेख पुणे के सिम्बायोसिस लॉ स्कूल की छात्रा Namrata Kandankovi ने लिखा है। इस लेख में एडल्टरी की अवधारणा (कांसेप्ट), भारत में इसके रुख और इसे वैध बनाने के परिणामी प्रभाव के बारे में विस्तार (डिटेल) से चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

एडल्टरी का इतिहास

एडल्टरी कानून का इतिहास हम्मुराबी के कोड से मिलता हैं, जिसमें 7वें कमांडमेंट में एडल्टरी को अपनाया गया था। एडल्टरी एक विवाहेतर (एक्स्ट्रामैरिटल) संबंध है जिसे सामाजिक (सोशल), नैतिक (मोरल), धार्मिक और कानूनी आधार पर गलत माना जाता है। इसका इस्तेमाल इंग्लैंड के राजा हेनरी VIII ने अपनी पत्नी कैथरीन हॉवर्ड से छुटकारा पाने के लिए किया था। अपने वर्तमान अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) के विपरीत (कॉनट्रेरी), इतिहास में इसका व्यापक (वाइडर) अनुप्रयोग (एप्लीकेशन) था, और ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि, यह केवल एक पुरुष, विवाहित या अविवाहित और एक विवाहित महिला के बीच एडल्टरी होने पर लागू होता है, बल्कि एक विवाहित पुरुष और एक अविवाहित महिला के बीच भी लागू होता है। एडल्टरी का दायित्व (ओनस) विवाह को एक पवित्र संस्था (इंस्टीट्यूशन) के रूप में माना जाता था और उसी के उल्लंघन के लिए सजा दी जाती थी। ऐतिहासिक रूप से कई संस्कृतियों ने एडल्टरी को एक गंभीर अपराध माना है, और इस प्रकार इसमें गंभीर दंड भी दिए गए थे जो मृत्युदंड, अंग-भंग (म्यूटेशन), यातना (टॉर्चर) आदि थे।

भारत में एडल्टरी कानून का अस्तित्व (एक्सिस्टेंस ऑफ़ एडल्टरी लॉ इन इंडिया)

भारत में वर्तमान में, लॉ कमीशन ने प्रारंभिक (अर्ली) स्वतंत्र युग में एडल्टरी को भारत में एक उपयुक्त (अप्रोप्रीएट) कानून के रूप में माना और यूसुफ अब्दुल अजीज के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे आगे भी बरकरार रखा।

जबकि ऐसा कानून मौजूद था, अन्ना चांडी ने अपनी राय में, मजबूत असंतोष (डिसेंट) व्यक्त किया, जिसमे उन्होंने इस क्लॉज को हटाने के लिए कहा और यह भी कहा की एडल्टरी के कानून पर पुनर्विचार (रिकंसीडर) करने और एक विवाहित महिला की वर्तमान स्थिति के साथ इसका मूल्यांकन (इवेलुएट) करने का उपयुक्त समय है, लेकिन अपने पिछले निर्णय को बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फिर से सौमित्री विष्णु बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में कानून को बरकरार रखा, और कोर्ट ने, इसके अलावा, इस बात पर जोर दिया कि हालांकि सामाजिक परिदृश्य (सिनेरियो) में बदलाव आया है, लेकिन यह कोर्ट का कार्य नही है बल्कि लेजिस्लेचर का कार्य है कि वह कानून की नीति (पॉलिसी) पर फैसला ले।

भारत में मौजूद एडल्टरी कानून ने महिलाओं की स्थिति को एक पुरुष के साथ विलय (मर्ज) के रूप में ग्रहण (अज्युम) किया है। कानून ने पुरुष को दंडित किया जो एक विवाहित महिला के साथ एडल्टरी करने का दोषी था, जबकि इसके विपरीत महिलाओं पर लागू नहीं था। यह कानून महिलाओं को निर्दोष पीड़ित मानता था, और इसलिए उनको एडल्टरी के अपराध के लिए दंडित नही किया जाता था। कानून की नजर में महिलाओं का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था और उन्हें अपने पति की संपत्ति माना जाता था। कानून को इस आधार पर उचित ठहराया गया था कि विवाह एक प्राचीन संस्था है जिसका एक व्यक्ति ने उल्लंघन किया है और इसलिए, केवल उसे ही दंडित किया जाना चाहिए।

एडल्टरी पर विधायी मंशा (लेजिस्लेटिव इंटेंट ऑन एडल्टरी) 

इंडियन पीनल कोड की धारा 497 ने पहले एडल्टरी को अपराध बनाते हुए दंडित किया था। हालांकि, आई.पी.सी. की धारा 497 को लागू करने के पीछे विधायी (लेजिस्लेटिव) मंशा उस से काफी अलग है जिसे आलोचकों (क्रिटिक्स) द्वारा माना जाता है। भारत के लॉ कमिशन को 1847 में पीनल कोड को फिर से तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई थी। पीनल कोड को फिर से तैयार करने के समय, कमिशन ने केवल पुरुषों को एडल्टरी के अपराध के लिए उत्तरदायी ठहराया और यह उस समय महिलाओं की स्थिति को ध्यान में रखते हुए किया गया था और कानून पर, महिलाओं के हितों (इंटरेस्ट) की रक्षा करने का कर्तव्य (ड्यूटी) डाला गया था। दूसरी ओर, आलोचकों का तर्क यह था कि आई.पी.सी. की धारा 497 दो सहमति देने वाले वयस्कों (एडल्ट्स) के जीवन में हुक्म चलाने और हस्तक्षेप (इंटरफेयर) करने की कोशिश करती है और यह इस तथ्य को भूल जाती है या उसकी देखरेख करती है कि एडल्टरी अन्य व्यक्तियों के जीवन को कैसे बर्बाद करती है। भारत में एडल्टरी को डिक्रिमिनलाइज करने के समर्थन (सपोर्ट) में अपनी राय रखने वाले लोग ही हैं जो नैतिकता (मॉरेलिटी) को परिभाषित करते हैं जो व्यक्तियों की कल्पनाओं पर आधारित होनी चाहिए।

भारत में एडल्टरी कानून के साथ क्या गलत था?

जैसा कि उस टाइम के सी.जे.आई. दीपक मिश्रा ने कहा था, एडल्टरी का कानून भेदभावपूर्ण (डिस्क्रिमिनेटिव) आधार पर आधारित है क्योंकि यह एडल्टरी के एक पक्ष को पीड़ित और दूसरे को अपराधी के रूप में मानता है। ऐसा करने का कोई औचित्य (रेशनल) नहीं है और आगे, यह भारतीय संविधान के आर्टिकल 14 का उल्लंघन है क्योंकि यह दो लिंगों के बीच तर्कहीन (इरेशनल) वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) करता है।

‘सहमति’ के पहलू को ध्यान में रखते हुए, यह कहा जा सकता है कि कानून ने निर्धारित किया कि एक महिला का अन्य विवाहित व्यक्तियों के साथ संबंध उसके पति की सहमति पर निर्भर करता है। इसका मतलब है कि एक महिला अपनी शादी के बाहर अपने पति की सहमति या मिलीभगत (कॉनिवेंस) से सम्बन्ध बना सकती है। आगे यह निर्धारित करता है कि पति अपनी कानूनी रूप से विवाहित पत्नी की कामुकता (सेक्शुएलिटी) को नियंत्रित कर सकता है।

एडल्टरी कानून कुछ अन्य पहलुओं में भी समस्याग्रस्त (प्रोब्लेमेटिक) है, जो हैं- कानून एक विवाहित व्यक्ति को उसकी शादी के टूटने के लिए किसी बाहरी एजेंसी को दोष देने का अधिकार देता है। यदि पत्नी अपनी शादी के बाहर किसी अन्य व्यक्ति के साथ सम्बंध बनाने का विकल्प चुनती है, तो जोड़े के लिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि वे अपनी शादी की अपर्याप्तता (इनेडिक्वेसी) पर विचार करें और इसके लिए किसी बाहरी व्यक्ति को जिम्मेदार न ठहराएं। यह अधिक समझ में आता है यदि एक जोड़ा, किसी तीसरे व्यक्ति को दोष देने और अपनी शादी के डिक्लाइन के लिए उसे सलाखों के पीछे डालने के बजाय आपसी तलाक के लिए कोर्ट की शरण ले।

क्या कानून एडल्टरर को रोक रहा है?

इसमें शामिल पक्षों के अधिकार और कोई भी देश इस अपराध को खत्म नहीं कर सकता है जो इस तरह की संस्था को कमजोर करता है। एडल्टरी को अपराध घोषित करने के पीछे का उद्देश्य एडल्टरर को रोकना है। कोई यह तर्क दे सकता है कि कानून एडल्टरी के कार्य को रोकने में विफल रहा है, लेकिन इस तरह का तर्क देते समय यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ऐसी विफलता कानून के लिए ही नहीं बल्कि कानून को लागू करने के लिए की जा सकती है। इसके अलावा, भारत जैसे कल्याणकारी (वेलफेयर-ओरिएंटेड) और समावेशी (इन्क्लूसिव) देश में, एडल्टरी को रोकना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि अपने साथी को स्वीकार करने और उनकी रक्षा करने के लिए शादी पंजीकृत (रजिस्टर्ड) होना चाहिए।  

क्या अमेंडमेंट की आवश्यकता थी?

तथ्य यह कि, आई.पी.सी. की धारा 497 कई अस्पष्टताओं (एंबीग्यूटीज) के साथ मौजूद है, और यह सब इसके आस पास के विवादों और तर्कों से बहुत स्पष्ट है, और इसलिए भारत में एडल्टरी से संबंधित कानून में बदलाव लाने की एक बड़ी आवश्यकता है।

  • भारत में एडल्टरी से संबंधित कानून में अमेंडमेंट करने के लिए सुझाव देने के लिए, एडल्टरी के कानून की परिभाषा का विश्लेषण (एनालिसिस) करना महत्वपूर्ण हो जाता है। आई.पी.सी. की धारा 497 के दूसरे चरण (फेज) में ‘दूसरे पुरुष की पत्नी’ वाक्यांश (फ्रेज) का उल्लेख (मेंशन) है, इससे यह स्पष्ट होता है कि यह लिंग भेदभावपूर्ण है क्योंकि यह इस विचार को बताता है कि अविवाहित महिला के साथ सेक्सुअल संबंध रखने वाला विवाहित पुरुष दोषी नहीं होगा एडल्टरी का।
  • एडल्टरी के अपराध को ‘विवाह से संबंधित अपराध’ अध्याय (चैप्टर) के तहत शामिल करके, यह इस पहलू पर संकेत देता है कि विवाह की पवित्रता एक पति या पत्नी द्वारा संरक्षित (प्रिजर्व) नहीं है बल्कि यह दोनों का सामूहिक (कलेक्टिव) कर्तव्य है। लेकिन धारा की भाषा, पति और पत्नी के बीच विवाह के भागीदार के रूप में भेदभाव करती है क्योंकि ‘दूसरी महिला का पति’ जो कि एडल्टरी में एक महिला साथी है, गलत करने के लिए उत्तरदायी नहीं है।
  • हाल ही के दिनों में जहां कोर्ट्स लिव-इन रिलेशनशिप जैसे विषयों पर ऐतिहासिक निर्णय और चर्चा के साथ आए हैं और लिव-इन रिलेशनशिप में एक महिला के अधिकारों को सुरक्षित करने में भी आगे बढ़े हैं, और होमो सेक्सुएलिटी पर हाल में ही आया निर्णय आगे बढ़ा है और इस क्षेत्र में और दो सहमति वाले वयस्कों के होमो सेक्सुअल कार्यों को अपराध से मुक्त कर दिया है। यहां तक ​​कि लेजिस्लेटर के लिए एडल्टरी पर कानूनों पर एक अधिक ठोस परिभाषा के साथ आने की भी आवश्यकता थी।

एडल्टरी को अपराध से मुक्त करना (डिक्रिमिनलाइजिंग एडल्टरी)

28 सितंबर, 2018 को, एपेक्स कोर्ट ने सबकी सहमति से आई.पी.सी. की धारा 497 को रद्द कर दिया, जो एडल्टरी से संबंधित थी। बेंच में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस नरीमन, जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस मल्होत्रा ​​शामिल थे। औपनिवेशिक (कोलोनियल) युग के 158 साल पुराने कानून को कोर्ट ने खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि एक महिला को पुरुष की संपत्ति के रूप में माना जाता है। यह दूसरा औपनिवेशिक युग का कानून था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने एक महीने की अवधि में रद्द कर दिया था। इसने पहले एक और 157 साल पुराने औपनिवेशिक कानून को ओवरटर्न कर दिया था, जिसने भारत में गे सेक्स संबंधों को अपराध घोषित कर दिया था।

कानून को किसने चुनौती दी?

41 वर्षीय,  केरल के नॉन रेसिडेंट, जोसेफ शाइन ने संविधान के आर्टिकल 32 के तहत पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन दायर की, पिटीशन में एडल्टरी के अपराध की संवैधानिकता (कांस्टीट्यूशनेलिटी) को चुनौती दी गई थी जिसे आई.पी.सी. की धारा 497 के तहत परिभाषित किया गया था। शाइन ने 45 पन्नों की एक पिटीशन में अमेरिकी कवि राल्फ वाल्डो इमर्सन, महिला अधिकार कार्यकर्ता (एक्टिविस्ट) मैरी वोलस्टोनक्राफ्ट और यूनाइटेड नेशंस के पूर्व सेक्रेट्री कोफी अन्ना को महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक (जेंडर) समानता पर अपने विचारों पर जोर देने के लिए लिबरली कोट किया था।

हालांकि, सत्तारूढ़ (रूलिंग) भाजपा ने पिटीशन का विरोध किया और आगे जोर देकर कहा कि एडल्टरी को एक अपराध के रूप में जारी रखना चाहिए। उनके तर्क के समर्थन में, यह रखा गया कि- एडल्टरी कानूनों को कमजोर करने से विवाह की पवित्रता प्रभावित होगी और इसे कानूनी बनाने से विवाह बंधनों को नुकसान होगा।

जजेस ने क्या कहा?

बेंच के सभी पांच जजेस की राय यह थी कि कानून बहुत पुराना, असंवैधानिक और मनमाना (आर्बिट्ररी) है। चीज जस्टिस मिश्रा ने कहा कि एक पति अपनी पत्नी का मालिक नहीं है, महिलाओं को पुरुषों के समान, समानता का अधिकार मिलना चाहिए। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, कानून महिलाओं की अधीनस्थ (सबॉर्डिनेट) स्थिति को कायम रखता है, सेक्सुअल ऑटोनोमी और गरिमा (डिग्निटी) से इनकार करता है और यह लैंगिक रूढ़ियों (स्टीरियोटाइप) पर आधारित है। आलोचकों ने एडल्टरी के कानून को एक ऐसा कानून कहा है जो आश्चर्यजनक (स्टैगरिंगली) रूप से सेक्सिस्ट है, क्रूर रूप से महिला का विरोधी है और साथ ही समानता के अधिकार का भी उल्लंघन करता है।

एडल्टरी के संबंध में कानून की मुख्य चिंता यह नहीं होनी चाहिए कि विवाह में निष्ठा (फिडेलिटी) की अपेक्षा (एक्सपेक्टेशन) सही है या गलत या क्या एडल्टरी सेक्सुअल स्वतंत्रता को बढ़ावा देती है बल्कि मुख्य चिंता यह होनी चाहिए कि क्या कोई राज्य वयस्कों के बीच संबंधों पर निगरानी रख सकता है या उसे ऐसा करना चाहिए, जो बहुत जटिल (कॉम्प्लेक्स), संवेदनशील (सेंसिटिव) और व्यक्तिगत है, और क्या यह केवल कोर्ट्स के लिए जोड़ों के व्यक्तिगत मामलों में पूर्ण हस्तक्षेप है।

क्या इस कानून के लिए पहले भी चुनौतियां रही हैं?

यह 1945 में था, जब पहली बार एक पेटीशनर द्वारा इस कानून को चुनौती दी गई थी, इस सवाल को सामने रखते हुए कि एक महिला को एडल्टरी के अपराध में लिप्त (इंडल्ज) होने के लिए दंडित क्यों नहीं किया जा सकता है और आगे कहा कि इस तरह की ‘छूट भेदभावपूर्ण थी’। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह पिटीशन खारिज कर दी।

1945 की पिटीशन के बाद से, सुप्रीम कोर्ट ने कानून की संवैधानिक वैधता सहित इसी तरह की पिटिशंस को खारिज कर दिया है। एडल्टरी पर इसी तरह की दलीलों (प्लीज़) को कोर्ट ने वर्ष 1985 और 1988 में खारिज कर दिया था। जज ने अपनी विचारधारा (आइडियोलॉजी) को इस अवधारणा (कॉन्सेप्ट) पर आधारित किया कि- “विवाह की स्थिरता (स्टेबिलिटी) का तिरस्कार (स्कॉर्न) किया जाना कोई आदर्श नहीं है”। एक मामले में, एक उदाहरण था जहां एक विवाहित महिला ने अपने पति की अविवाहित प्रेमी के खिलाफ एडल्टरी की शिकायत दर्ज करने के अधिकार की मांग करते हुए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। कोर्ट ने इस मामले पर फैसला सुनाते हुए पिटीशन को “एक महिला द्वारा एक महिला के खिलाफ धर्मयुद्ध (क्रुसेड)” के रूप में वर्णित किया।

यह बाद में 1971 और 2003 में हुआ, कि कानून के सुधार पर दो अलग-अलग पेनल ने सिफारिश की कि महिलाओं पर भी एडल्टरी के अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाना चाहिए। यह तर्क दिया गया कि- एक समाज हमेशा वैवाहिक बेवफाई (इंफिडेलिटी) से घृणा करता है। इसलिए एक ऐसी पत्नी के साथ समान व्यवहार न करने का कोई अच्छा कारण नहीं है जो अपनी शादी के बाहर किसी पुरुष के साथ सेक्सुअल संबंध रखती है। ये शब्द उन जज ने रखे थे, जिन्होंने 2003 के पेनल का नेतृत्व (लेड) किया था। इस क्षेत्र में हाल के घटनाक्रमों में से एक 2011 में था, जहां एपेक्स कोर्ट ने एक अन्य पिटीशन पर सुनवाई करते हुए कहा कि कानून “लिंग पूर्वाग्रह (बायस) दिखाने” के लिए आलोचना का सामना कर रहा था।

एडल्टरी और कहाँ एक अपराध है?

  • न्यूयॉर्क सहित 21 अमेरिकी राज्यों में एडल्टरी को अवैध माना जाता है। जबकि सर्वेक्षण (सर्वे) से पता चलता है कि ज्यादातर अमेरिकी एडल्टरी को अस्वीकार करते हैं और इसे अपराध नहीं मानते हैं।
  • शरिया या इस्लामी कानूनो में एडल्टरी निषिद्ध (प्रोहिबिटेड) है, और इसलिए, ईरान, सऊदी अरब, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और सोमालिया जैसे इस्लामी देशों में इसे एक अपराध माना जाता है।
  • ताइवान, एडल्टरी को अपराध मानता है और 1 साल तक की सजा का प्रावधान करता है। यहां तक ​​कि इंडोनेशिया में भी एडल्टरी को अपराध माना जाता है और वास्तव में, इंडोनेशिया ऐसे कानूनों का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार कर रहा है जो विवाह संस्था के बाहर सभी सहमति से सेक्सुअल संबंध बनाने पर रोक लगाते हैं।
  • 2015 में, दक्षिण कोरिया ने एडल्टरी पर एक कानून को रद्द कर दिया, जो भारत में एडल्टरी कानून के समान था, जहां उसने एडल्टरी के अपराध के लिए एक व्यक्ति को 2 साल या उससे कम के कारावास की सजा दी थी। कोर्ट ने आगे कहा कि एडल्टरी कानून को रद्द करने का कारण यह था कि यह आत्मनिर्णय (सेल्फ डिटरमिनेशन) और निजता (प्राइवेसी) का उल्लंघन करता था।
  • भारतीय वकील कलीस्वरम राज के अनुसार दुनिया के 60 से अधिक देशों ने एडल्टरी के कानूनों को खत्म कर दिया है। ब्रिटेन में एडल्टरी, कई अन्य देशों की तरह एक अपराध नहीं है, और कोर्ट्स ने एक कदम आगे बढ़कर यह निर्धारित किया है कि एडल्टरी को तलाक के आधार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है यदि वे बेवफाई के बाद 6 महीने से अधिक समय तक एक जोड़े के रूप में साथ रहते हैं। 

भारत में एडल्टरी को वैध बनाने के परिणामी प्रभाव (कंसीक्वेंशियल इफेक्ट्स ऑफ़ लिगलाइजिंग एडल्टरी इन इंडिया)

सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन पीनल कोड की धारा 497 को हटाकर देश की महिलाओं को आश्वासन (एश्योर) दिया कि कोई भी उनकी गरिमा और सशक्तिकरण (एंपावरमेंट) के रास्ते में नहीं आ सकता है।

आलोचक जो एडल्टरी को वैध बनाने के सकारात्मक परिणामों का समर्थन करते हैं (क्रिटिक्स हु फेवर पॉजिटिव कंसीक्वेंसेस ऑफ़ लिगलाइजिंग एडल्टरी)

एडल्टरी को वैध बनाने के पक्ष में अपनी राय व्यक्त करने वाले आलोचकों ने यह विचार प्रस्तुत किया कि एडल्टरी को उचित रूप से गैर-अपराधी बना दिया गया था क्योंकि यह लिंग तटस्थ (न्यूट्रल) नहीं था। यदि दो व्यक्ति सहमति से सेक्स संबंध बनाना चाहते हैं, तो उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोई चिंता नहीं है।

समाज इसे कैसे मानता है और नैतिक (मोरल) दृष्टि (सेंस) से यह कितना सही है, यह इस कानून के दायरे से बाहर होना चाहिए। कानून की नजर में सिर्फ दो वयस्क होने चाहिए जिन्होंने सहमति से सेक्शुअल इंटरकोर्स किया हो। इसके अलावा, व्यक्तिगत कानूनों और सामुदायिक (कम्युनिटी) कानूनों के बीच कोई भ्रम नहीं होना चाहिए, क्योंकि जब सामुदायिक कानूनों को वैध बनाने की बात आती है तो वे समाज के नैतिक ताने-बाने को देखते हुए किए जाते हैं और यह व्यक्तिगत कानूनों के लिए सही नहीं है।

1950-55 में जब हिंदू कोड बिल और डाउरी प्रोहिबिशन एक्ट (1961) पास किए गए, तो लोकप्रिय (पॉपुलर) भावना यह थी कि पुरुष ही गलत करते हैं और इसलिए, महिलाओं की स्थिति के लिए सुरक्षा देने की आवश्यकता है, क्योंकि वे उस समय समाज में एक कमजोर स्थिति में थी। लेकिन अब महिलाएं साक्षर (लिटरेट), स्वतंत्र, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं, और इसलिए, वर्तमान परिदृश्य (सिनेरियो) में इस तरह के कानून की कोई आवश्यकता नहीं है।

आलोचक जो एडल्टरी को वैध बनाने के नकारात्मक परिणामों का समर्थन करते हैं (क्रिटिक्स हु फेवर नेगेटिव कंसीक्वेंसेस ऑफ़ लेगलाइजिंग एडल्टरी)

समाज को सुचारू (स्मूथ) रूप से चलाने के लिए कुछ चीजें हैं जो आवश्यक हैं और विवाह उनमें से एक है। यह समाज के लिए बहुत आवश्यक है क्योंकि यह, आने वाली पीढ़ियों को एक स्थिर और देखभाल करने वाला वातावरण प्रदान करता है। एडल्टरी न केवल ऐसे वातावरण को खतरे में डालता है बल्कि उसको नष्ट भी करता है।

एडल्टरी को वैध बनाना ऐसा माना जा सकता है जो पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित है, और यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पश्चिमी देशों में तलाक की दर 52% है और अभी भी बढ़ रही है। भारत को उसी फैशन का पालन करने से रोकने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि विवाह के बाहर संबंधों को प्रोत्साहित (इनकरेज) न किया जाए जो कि एडल्टरी के अपराध के मुक्त होने से बढ़ेंगे।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

यह देखना बाकी है कि सुप्रीम कोर्ट की राय पर वर्तमान बहस हमें कहाँ ले जाती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपना विचार रखा है कि कानून गलत तरीके से महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति के रूप में मानता है और मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) के खिलाफ जाता है, फिर भी एडल्टरी तलाक के लिए एक वैध आधार है। इसलिए, इसे ऐसी चीज के रूप में देखा जा सकता है जो एक उचित प्रतिबंध लगाता है, जिसका अर्थ है कि सेक्शुअल ऑटोनोमी पर वैध सीमाएं हैं।

इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कानूनी प्रणाली (सिस्टम) को यह रेगुलेट नहीं करना चाहिए कि किसको किसके साथ सोना चाहिए, बल्कि अलग होने की प्रक्रिया को रेगुलेट करना चाहिए यदि दो भागीदारों में से एक विवाह की पवित्रता का उल्लंघन करता है। इसके अलावा विवाह में टूटे भरोसे का अपराधीकरण न तो एक जोड़े को एक आनंदमय (ब्लिसफुल) जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है और न ही यह समाज के सामाजिक व्यवहार को बदलता है।

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