यह लेख कोलकाता के एमिटी लॉ स्कूल की Oishika Banerji ने लिखा है। यह लेख भारतीय साक्ष्य अधिनियम (इंडियन एविडेंस एक्ट), 1872 के तहत सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम की अवधारणा का गहरा विश्लेषण प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।
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परिचय
प्रॉफर्ट इन क्युरिया के सिद्धांत जिसका अर्थ है कि यदि कोई पक्ष मूल दस्तावेजों को संबंधित अदालत के समक्ष लिखित रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकता है, तो वह अपने अधिकारों को खो देगा जो उन दस्तावेजों द्वारा बनाए गए थे, से उत्पन्न होने वाला सबसे सर्वोत्तम साक्ष्य का नियम “मूल दस्तावेज नियम (ओरिजनल डॉक्यूमेंट रूल)” के नाम से भी जाना जाता है। फोर्ड बनाम हॉपकिंस (1700) और ओमीचंद बनाम बार्कर (1745) के मामलों में न्यायाधीश हार्डविक का निर्णय उल्लेखनीय है क्योंकि उन्होंने उल्लेख किया था कि “कोई भी साक्ष्य तब तक स्वीकार्य नहीं होगा जब तक कि यह ऐसा सबसे सर्वोत्तम साक्ष्य नहीं बन जाता है जिसे प्रकृति अनुमति देता है”। सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम की उत्पत्ति इसलिए हुई क्योंकि 16 वीं शताब्दी के दौरान अदालत के क्लर्कों द्वारा दस्तावेजों की नकल मैन्युअल रूप से की जाती थी, जिसकी वजह से नकल की गई वस्तु में महत्वपूर्ण त्रुटि के लिए जगह रह जाती थी। भारत में, सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 91 से धारा 100 में प्रदान किया गया है, जिसका उद्देश्य न्यायालय में प्रस्तुत किए जाने वाले दस्तावेजों की वास्तविकता का निर्णय करना है। यह लेख भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के आलोक में सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम की अवधारणा और भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालयों द्वारा दिए गए पूर्व निर्णयों की गहरी समझ प्रदान करता है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत सर्वोत्तम साक्ष्य का नियम
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 91 से धारा 100 सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम की अवधारणा से संबंधित है। मौखिक साक्ष्य पर दस्तावेजी साक्ष्य को महत्व प्रदान करते हुए, साक्ष्य अधिनियम के प्रावधान इस तथ्य को स्थापित करते हैं कि यह दस्तावेजी साक्ष्य है, जो मौखिक साक्ष्य को पीछे छोड़ते हुए अधिकांश मामलों में सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम के दायरे में आता है।
दस्तावेजी साक्ष्य द्वारा मौखिक साक्ष्य का अपवर्जन (एक्सक्लूजन)
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का अध्याय 6 ऐसे प्रावधान प्रदान करता है जो दस्तावेजी साक्ष्यों द्वारा मौखिक साक्ष्य के अपवर्जन से संबंधित हैं। धारा 91 से धारा 100 लेकर यह अध्याय भारतीय साक्ष्य कानून में सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम की अवधारणा को लागू करता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 91 में अनुबंधों (कॉन्ट्रैक्ट) की शर्तों, अनुदानों (ग्रांट्स) और संपत्ति के अन्य प्रस्तावों (डिस्पोजिशंस) के साक्ष्य के प्रावधान को केवल दस्तावेजों के रूप में कम करने का प्रावधान है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने चंद्रावती बनाम लखमी चंद (1988) के प्रसिद्ध मामले में कहा था कि 1872 के अधिनियम की धारा 91 में एक कानूनी कहावत शामिल है कि जो कुछ भी लिखित रूप में उपलब्ध है, उसे केवल लिखित रूप में ही साबित किया जाना चाहिए। इस बात को ध्यान में रखते हुए, माननीय उच्च न्यायालय ने विभाजन विलेख (पार्टीशन डीड) की सामग्री के मामले में मौखिक साक्ष्य की स्वीकार्यता को खारिज कर दिया था क्योंकि यह पंजीकृत (रजिस्टर्ड) नहीं था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी एक विभाजन विलेख जो पंजीकृत नहीं थी, की सामग्री को साबित करने के लिए मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी थी। यह देखते हुए कि न तो मौखिक साक्ष्य और न ही अपंजीकृत विलेख को न्यायालय के समक्ष साक्ष्य के रूप में अनुमति दी जाएगी, माननीय उच्च न्यायालय ने रतन लाल बनाम हरि शंकर (1980) के उल्लेखनीय मामले में उनके समक्ष प्रस्तुत किए गए मौखिक साक्ष्य को खारिज कर दिया था।
तबुरी सहाय बनाम झुनझुनवाला (1967) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने धारा 91 के दायरे को स्पष्ट करते हुए यह कहा कि एक दस्तावेज या एक विलेख जिसे अनुबंध, अनुदान या संपत्ति के निपटान के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता है, वह प्रावधान के तहत स्थापित सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम से प्रभावित नहीं होगा। वर्तमान मामले में मुद्दा यह था कि क्या बच्चे को गोद लेने के एक विलेख को अनुबंध के रूप में माना जाएगा या नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इसे विलेख के रूप में नहीं लिया जाएगा और इसलिए यह धारा 91 और इसके द्वारा तय किए गए सिद्धांत से बाध्य नहीं होगा। बख्तावर सिंह बनाम गुरदेव सिंह (1996) के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय ध्यान देने योग्य है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इसमें कहा कि जब मौखिक और साथ ही दस्तावेजी साक्ष्य दोनों के आधार पर किसी कानून की अदालत में, उनके गुणों के आधार पर स्वीकार किया जाता है, तब न्यायालय उन साक्ष्यों पर जा सकता है जिन्हें वह अधिक विश्वसनीय मानता है, और यह जरूरी नहीं है कि मौखिक साक्ष्य पर हमेशा कोई दस्तावेजी साक्ष्य स्थापित हो।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2003 में रूप कुमार बनाम मोहन थेदानी के मामले में यह कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 91 स्वयं लिखने के अलावा किसी भी अन्य तरीके से किसी भी लेखन की सामग्री के प्रमाण को प्रतिबंधित करती है, जिसमें सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम को मूल कानून (सब्सटेंटिव लॉ) के एक सिद्धांत पर घोषित करना भी शामिल है। न्यायालय ने आगे कहा कि अधिनियम की धारा 91 और धारा 92 हालांकि भौतिक विवरणों (मैटेरियल फैक्ट्स) में भिन्न हैं, पर फिर भी वे सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम को स्थापित करने के लिए एक दूसरे के पूरक (सप्लीमेंट) हैं।
धारा 92 और इसके अंतर्निहित सिद्धांत
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 92 मौखिक समझौते के साक्ष्य के अपवर्जन से संबंधित प्रावधान है। ऐसा कहा जाता है कि धारा 92, धारा 91 के पूरक के रूप में कार्य करती है। इनमे से पूर्व में, यानी धारा 92 में यह प्रावधान है कि एक बार कोई अनुबंध, अनुदान, या प्रस्ताव, लेखन के माध्यम से साबित हो जाता है, तो पहले से दिए गए लेखन की सामग्री का खंडन करने के लिए मौखिक समझौते का कोई साक्ष्य प्रदान नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार धारा 92 को रेखांकित करने वाला सिद्धांत यह है कि पहले से प्रस्तुत दस्तावेज़ की शर्तों को पूरा करने के लिए कोई मौखिक साक्ष्य नहीं दिया जा सकता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि धारा 92 केवल पक्षों और उनके प्रतिनिधियों को दस्तावेज़ की सामग्री के समर्थन में मौखिक साक्ष्य प्रदान करने से रोकती है, इस प्रकार विश्व नाथन बनाम अब्दुल वाजिद (1986) के मामले में यह पाया गया था कि, इस तरह के साक्ष्य देने के लिए तीसरे पक्ष के लिए यह खुला रह गया है।
नबीन चंद्र बनाम शुना माला (1932) के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय का निर्णय उल्लेखनीय है क्योंकि माननीय उच्च न्यायालय ने इस प्रस्ताव से असहमति जताई कि प्रस्तुत दस्तावेज में विचार को यह साबित करके खंडित नहीं किया जा सकता है कि इस मामले में कुछ अन्य विचार पारित किया जाना था। इस प्रकार, प्रदान किए गए प्रावधान के पीछे के इरादे पर आंख मूंदकर विश्वास नहीं किया जा सकता है, और इसके अर्थ का उलंघन करने वाले प्रावधान से बचने के लिए सकारात्मक संशोधनों के बजाय मामले की योग्यता के आधार पर सहारा लिया जाना चाहिए।
धारा 91 और धारा 92 दोनों ही सामान्य नियम के नौ अपवादों को मान्यता देते हैं जो वे खुद ही निर्धारित करते हैं। इसलिए, ये अपवाद किसी दस्तावेज़ के संबंध में मौखिक साक्ष्य की अनुमति देते हैं। अपवादों को नीचे प्रस्तुत किया गया है;
- दस्तावेजों की वैधता (धारा 92 परंतुक (प्रोविसो) 1): किसी भी तथ्य का मौखिक साक्ष्य, जो प्रस्तुत किए गए दस्तावेज को अमान्य कर देता है, दिया जा सकता है।
- मामले जिन पर दस्तावेज़ मौन है (धारा 92 परंतुक 2): यदि मूल्य भुगतान के समय पर लिखित समझौता मौन है, तो ऐसे मामले में उस समय पर एक मौखिक समझौते को साबित किया जा सकता है।
- पूर्व शर्त (कंडीशन प्रीसिडेंट) (धारा 92 परंतुक 3): यदि कोई अलग मौखिक समझौता मौजूद है, जो प्रस्तुत दस्तावेज के तहत दायित्वों को संलग्न (अटैच) करने के लिए पूर्व शर्तों का गठन करता है, तो उसे साबित किया जा सकता है।
- खंडन (रेस्सिशन) या संशोधन (मोडिफिकेशन) (धारा 92 परंतुक 4): कोई भी मौखिक समझौता जो प्रश्न में आए हुए दस्तावेज़ को संशोधित या खंडित करता है, साबित किया जा सकता है।
- प्रथा (यूसेज) या रीति-रिवाज (कस्टम) (धारा 92 परंतुक 5): जब भी किसी अनुबंध में घटनाएं किसी विशेष प्रकार के रीति रिवाज या प्रथा से जुड़ी होती हैं, तो इसे मौखिक समझौते के माध्यम से साबित किया जा सकता है।
- तथ्यों के साथ भाषा का संबंध (धारा 92 परंतुक 6): किसी भी तथ्य को मौखिक समझौते के माध्यम से साबित किया जा सकता है जो यह दर्शाता है कि दस्तावेज़ भाषा मौजूदा तथ्यों से कैसे जुड़ी है।
- लोक अधिकारी (पब्लिक ऑफिसर) की नियुक्ति (धारा 91, अपवाद (एक्सेप्शन) 1): यदि कानून में कहा गया है कि लोक अधिकारी की नियुक्ति लिखित रूप से की जानी है, तो ऐसा ही किया जाएगा।
- वसीयतनामा (विल्स) (धारा 91, अपवाद 2): भारत में प्रोबेट के लिए स्वीकृत वसीयत केवल प्रोबेट के माध्यम से ही साबित की जा सकती है।
- बाहरी तथ्य (एक्सट्रेनस फैक्ट्स) (धारा 91, स्पष्टीकरण 1): जब भी किसी तथ्य को प्रस्तुत दस्तावेज द्वारा संदर्भित किया जाता है जो मामले के तथ्यों के अतिरिक्त होता है, तो उस तथ्य के मौखिक साक्ष्य को हमेशा अनुमति दी जाती है।
अस्पष्ट दस्तावेज: धारा 93 से 100
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 93 से धारा 100 अस्पष्ट दस्तावेजों के लिए प्रावधान करती है। अस्पष्ट दस्तावेज शब्द का अर्थ यह है कि जो दस्तावेज अदालत के सामने पेश किए जाते हैं वे या तो अपनी भाषा में स्पष्ट नहीं होते हैं या जब उन्हें तथ्यों पर लागू किया जाता है, तो यह संदेह पैदा करते है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 दो प्रकार की अस्पष्टता को मान्यता देता है, अर्थात्;
धारा 98, धारा 99, और धारा 100 अस्पष्ट वर्णों (इलेजिबल कैरेक्टर्स) के अर्थ के साक्ष्य से संबंधित हैं, जो दस्तावेज़ की अलग-अलग शब्दों के लिए समझौते का साक्ष्य दे सकते हैं, और क्रमशः वसीयत के संबंध में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम (इंडियन सक्सेशन एक्ट), 1925 के प्रावधानों की बचत भी कर सकते हैं।
पेटेंट अस्पष्टता
एक पेटेंट अस्पष्टता दस्तावेज़ में एक दोष का प्रतीक है जो दस्तावेज़ के बिल्कुल चेहरे पर ही स्पष्ट होता है, जिसका अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति जो सामान्य बुद्धि के साथ दस्तावेज़ को पढ़ रहा है वह दोष का निरीक्षण (ऑब्जर्व) कर सकता है। जबकि अधिनियम की धारा 93 में अस्पष्ट दस्तावेजों की व्याख्या या संशोधन करने के लिए साक्ष्य का अपवर्जन शामिल है, अधिनियम की धारा 94 मौजूदा तथ्य के लिए दस्तावेजों के आवेदन के खिलाफ साक्ष्य के अपवर्जन से संबंधित है। केशव लाल बनाम लाल भाई टी मिल्स लिमिटेड (1958) के प्रसिद्ध मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि किसी दस्तावेज़ में पेटेंट दोषों को दूर करने के लिए कोई बाहरी साक्ष्य प्रदान नहीं किया जा सकता है। इसके बजाय, न्यायालय दोष के मामलों में, ऐसे दोषों को भरने के लिए अन्य दस्तावेजी सामग्री की सहायता ले सकता है।
लेटेंट अस्पष्टता
कोई भी दोष जो दस्तावेज़ के चेहरे पर स्पष्ट नहीं है, उसे एक लेटेंट दोष माना जाता है। जबकि लेटेंट दोषों वाले दस्तावेज़, किसी के एक बार सादे पढ़े जाने से दोष प्रदर्शित नहीं करेंगे, यह केवल तभी होता है जब दस्तावेज़ को तथ्यों पर लागू किया जाता है, जब दोष स्पष्ट तरीके से दिखाई देता है। इसलिए लेटेंट दोष को गुप्त दोष (हिडन डिफेक्ट) के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 95 से धारा 97 लेटेंट अस्पष्टता से संबंधित है और इसके लिए तीन सिद्धांत निर्धारित करती है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 95 मौजूदा तथ्यों के संदर्भ में अर्थहीन दस्तावेज के साक्ष्य के बारे में बात करती है। सीधे शब्दों में कहें तो, जब किसी संबंधित दस्तावेज़ की भाषा स्पष्ट और सरल होती है, लेकिन मौजूदा तथ्यों पर इसे लागू करते समय, परिणाम अर्थहीन हो जाता है, तो ऐसे मामलों में अर्थहीन भाग में अर्थ जोड़ने के लिए साक्ष्य दिया जा सकता है। एक अन्य प्रकार की अव्यक्त अस्पष्टता 1872 के अधिनियम की धारा 96 में निहित है, जो भाषा के प्रयोग के संबंध में साक्ष्य के प्रावधान को निर्धारित करती है, जो कई व्यक्तियों में से केवल एक पर लागू हो सकती है। साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 97 तथ्यों के दो सेटों में से किसी एक पर भाषा के आवेदन के बारे में साक्ष्य के बारे में बात करती है, जिनमें से कोई भी सही ढंग से लागू नहीं होता है। यह इस बात का प्रतीक है कि जहां किसी दस्तावेज़ की भाषा आंशिक (पार्शियल) रूप से एक पक्ष पर और आंशिक रूप से दूसरे पक्ष पर लागू होती है, तो यह दिखाने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत किया जा सकता है कि प्रदान किए गए दस्तावेज़ किन तथ्यों पर लागू होते हैं।
इन तीन स्थितियों के अलावा, जहां किसी दस्तावेज के संबंध में बाहरी साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं, धारा 98 का भी उल्लेख किया जाना चाहिए जो अस्पष्ट वर्णों के अर्थ के रूप में साक्ष्य से संबंधित है। कैनेडियन- जनरल इलेक्ट्रिक डब्ल्यू. बनाम फतदा रेडियो लिमिटेड (1930) के उल्लेखनीय मामले में प्रिवी काउंसिल ने देखा कि एक दस्तावेज़ में उपयोग किए जाने वाले कलात्मक (आर्टिस्टिक) शब्दों और प्रतीकों के लिए स्पष्टीकरण प्रदान करने के उद्देश्य से मौखिक साक्ष्य स्वीकार्य होते है।
ऐतिहासिक निर्णय
आइए हम भारतीय अदालतों द्वारा दिए गए कुछ ऐतिहासिक निर्णयों पर एक नज़र डालें जो सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम की अवधारणा को उसके वास्तविक स्वरूप में लागू करने की व्याख्या करते हैं।
मोहन लाल शामलाल सोनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य (1991)
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मोहन लाल शामलाल सोनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य (1991) के मामले में यह कहा था कि साक्ष्य के कानून में कार्डिनल नियम यह कहता है कि केवल सर्वोत्तम उपलब्ध साक्ष्य को ही, एक तथ्य या मुद्दे को साबित करने के लिए, कानून की अदालत के समक्ष लाया जाना चाहिए। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम को इस प्रतीक के रूप में परिभाषित किया है कि “जब तक उच्च या श्रेष्ठ साक्ष्य आपके अधिकार में है या आपके द्वारा पहुँचा जा सकता है, तब तक आप इसके संबंध में कोई निम्न (इनफिरियर) साक्ष्य नहीं देंगे।” इस निर्णय से न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि जो साक्ष्य प्राप्त किए जाने थे, वे सभी कानूनी तरीकों से मामले की सच्चाई को प्राप्त करके संबंधित मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिए आवश्यक न्यायालय के सामने उपस्थित होने चाहिए, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि प्रतिद्वंद्वी पक्ष अनुचित लाभ नहीं लेता है क्योंकि ऐसा लाभ पीड़ित पक्ष के लिए पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) का कारण बनता है।
मुसाउद्दीन अहमद बनाम स्टेट ऑफ असम (2009)
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मुकुंदकम शर्मा, न्यायमूर्ति बी.एस. चौहान की एक बेंच ने, मुसाउद्दीन अहमद बनाम स्टेट ऑफ असम (2009) के मामले का फैसला करते हुए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 114 के उदाहरण (g) पर ध्यान दिया जिसमें कहा गया है कि “साक्ष्य जो लाया जा सकता है लेकिन जिसे प्रस्तुत नही करते है, तो उसे यदि बाद में न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया जाता है, तो यह उस व्यक्ति के प्रतिकूल (अनफेवरेबल) होगा जो इन दस्तावेजों को रोकता है”। सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि यह हमेशा अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) का कर्तव्य है कि वह सर्वोत्तम साक्ष्य के साथ ही न्यायालय का नेतृत्व करे और जब भी न्यायालय के समक्ष सर्वोत्तम साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया जाता है तो इसका प्रतिकूल निष्कर्ष निकालें। इसलिए यह कहा जा सकता है कि यह उदाहरण स्पष्ट रूप से विधायिका के इरादे की व्याख्या करता है और अदालतों के लिए एक मार्गदर्शक उपकरण के रूप में व्यवहार करता है। इस प्रकार यह कानून का एक स्थापित सिद्धांत बन गया है कि यदि अभियोजन पक्ष कानून की अदालत के समक्ष सबसे सर्वोत्तम साक्ष्य पेश करने में विफल रहता है तो यह अभियोजन के मामले पर गंभीर संदेह पैदा करेगा।
टोमासो ब्रूनो और अन्य बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश (2015)
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अनिल आर दवे, न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, और न्यायमूर्ति आर. भानुमति की एक बेंच ने टॉमसो ब्रूनो और अन्य बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश (2015) के मामले की सुनवाई करते हुए एक प्रासंगिक निर्देश दिया था। यह देखा गया कि अपराध स्थल पर आरोपी की उपस्थिति को साबित करने के लिए सीसीटीवी फुटेज को साक्ष्य का सबसे अच्छा हिस्सा माना जाना था और अभियोजन पक्ष को इस तरह के साक्ष्य पेश करना था। विफलता के मामलों में, अभियोजन पक्ष के मामले के बारे में गंभीर संदेह किया जा सकता है। इस मामले में अभियोजन पक्ष द्वारा जो तर्क दिए गए थे, वह यह था कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 106 के अनुसार यह साबित करने का दायित्व आरोपी पर था कि वह अपराध स्थल पर नहीं था, जिससे यह साबित करने का दायित्व की ये सब उनके ज्ञान में था, भी अभियोजन पक्ष पर ही आ जाता है। इसे विधिवत स्वीकार करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि 1872 के अधिनियम की धारा 106 को आरोपी के खिलाफ एलिबी साबित करने के लिए लागू करने के लिए, अभियोजन पक्ष को पहले आरोपी की उपस्थिति स्थापित करनी थी और चूंकि इस वर्तमान मामले में गवाहों ने खुद सीसीटीवी फुटेज का संदर्भ दिया था, और उसे ही पेश करने में विफलता ने अभियोजन के मामले पर गंभीर संदेह पैदा किया था।
जितेंद्र और अन्य बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश (2003)
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के.जी. बालकृष्णन और न्यायमूर्ति बी.एन. श्रीकृष्ण ने देखा कि सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम का उपयोग बरामदगी (सीजर्स) पर आधारित मामलों में अत्यधिक प्रासंगिकता रखता है, जैसे कि नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस (एनडीपीएस) अधिनियम, 1985 के तहत, 2003 के जितेंद्र और अन्य बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश के मामले में हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जब भी कोई मामला बरामदगी पर आधारित होता है, तो बरामद किया गया सामान सबसे अच्छा साक्ष्य होता है जो अभियोजन पक्ष को अदालत के समक्ष पेश करने के लिए उपलब्ध होता है। यदि अभियोजन पक्ष ऐसा करने में विफल रहता है तो ऐसी परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियोजन का मामला संदिग्ध हो जाता है।
दिगंबर वैष्णव बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़ (2009)
दिगंबर वैष्णव बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़ (2009) के एक हाल ही के मामले में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की बेंच ने पाया कि वर्तमान मामले में अभियोजन पक्ष की ओर से उन गवाहों से पूछताछ करने का कोई प्रयास नहीं किया गया था जो प्रासंगिक समय पर घटना के परिदृश्य में मौजूद थे और मृतक व्यक्तियों को देखने वाले पहले व्यक्ति थे, यह कार्य करके सबसे अच्छे साक्ष्य को अदालत के सामने आने से रोक दिया गया था।
शिवू और अन्य बनाम आर.जी. कर्नाटक उच्च न्यायालय (2007)
2007 में शिवू और अन्य बनाम आर.जी. कर्नाटक के उच्च न्यायालय के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सर अल्फ्रेड विल्स द्वारा विल्स के परिस्थितिजन्य साक्ष्य (विल्स सर्कमस्टेंसशियल एविडेंस) की निर्भरता पर अपना निर्णय आधारित किया था, जिन्होंने कहा था कि सर्वोत्तम साक्ष्य के नियम को परिस्थितिजन्य साक्ष्य के रूप में “परिस्थितिजन्य साक्ष्य के लिए एक फोर्टियरी” के रूप में लागू किया गया है और ऐसे साक्ष्य “स्वाभाविक रूप से प्रत्यक्ष और सकारात्मक गवाही से हीन” होते है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब भी सर्वोत्तम साक्ष्य ने अपनी क्षमता को जोड़ा है, साक्ष्य के विवरण को प्रतिस्थापित (रिप्लेस) करने का प्रयास आवश्यक रूप से एक ही डिग्री के बल के नहीं होने से संदेह पैदा होता है कि इसे भ्रष्ट और भयावह उद्देश्यों से रोक दिया गया है।
मोहमद अमन, बाबू खान और अन्य बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (1997)
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एम मुखर्जी और न्यायमूर्ति के वेंकटस्वामी की एक बेंच ने मोहम्मद अमन, बाबू खान और अन्य बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (1997) के मामले में उन साक्ष्यों की अवहेलना की थी जो उंगलियों के निशान की बरामदगी और मिलान के समर्थन में पेश किए गए थे। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वर्तमान मामले कि एक महत्वपूर्ण परिस्थिति जिसे अभियोजन पक्ष स्थापित करने में विफल रहा था, वह यह थी कि जिन वस्तुओं को आरोपियों की उंगलियों के निशान के उद्देश्य से बरामद किया गया था, उन्हें फोरेंसिक प्रयोगशाला में पहुंचने से पहले विकृत (डिस्टोर्टेड) नहीं किया गया था। न्यायालय ने कहा कि बरामद की गई वस्तु को पेश करना और उंगलियों के निशान की जांच करवाना, बरामदगी के साक्ष्य का सबसे अच्छा साक्ष्य होगा और इसे पेश न करना वर्तमान मामले में साक्ष्य की श्रृंखला (चैन) में एक लापता कड़ी बन सकता है।
निष्कर्ष
जैसा कि अब हम इस लेख के अंत में आते हैं, यह उल्लेख करना स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोत्तम साक्ष्य का नियम भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के कामकाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस नियम ने भारत में आपराधिक कानून न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) को तैयार करने और इसे विश्व स्तर पर भी फैलाने में एक प्रासंगिक भूमिका निभाई है। इसने न केवल न्यायाधीशों को यह तय करने में मदद की है कि उनके सामने साक्ष्य स्वीकार्य होंगे या नहीं, बल्कि अदालत के लिए एक जांच और संतुलन के रूप में भी व्यवहार किया है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि किसी आरोपी को पेश किए गए साक्ष्यों के आधार पर दोषी ठहराया जा सकता है या नहीं। संक्षेप में कहने के लिए, सर्वोत्तम साक्ष्य नियम भारत और दुनिया भर में साक्ष्य कानून के लिए उत्प्रेरक (कैटलिस्ट) है।
संदर्भ
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- https://www.legalbites.in/the-concept-of-best-evidence-rule-and-its-evolution-in-india/
- https://www.barandbench.com/columns/the-rule-of-best-evidence-in-criminal-jurisprudence
- https://www.mondaq.com/india/court-procedure/924124/best-evidence-rule-cardinal-principle-of-indian-evidence-act
- https://www.cali.org/sites/default/files/BestEvidenceRule_Miller_Dec2014.pdf