कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2023)

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यह लेख Utkarsh Singh द्वारा लिखा गया और आगे Pujari Dharani द्वारा अद्यतन (अपडेट) किया गया। यह लेख कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2023), के मामले के विश्लेषण से संबंधित है, जो मामले के पृष्ठभूमि तथ्यों, मामले में शामिल कानूनों, तर्कों, अनुपात निर्णय के साथ विस्तृत निर्णय और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की असहमति की विस्तृत व्याख्या करता है। यह मामला अन्य बातों के अलावा अनुच्छेद 19(1)(a) पर प्रतिबंध, गैर-राज्य कर्ताओं के खिलाफ इसकी प्रवर्तनीयता और मंत्री के अपमानजनक बयानों के लिए राज्य की देनदारी जैसे सवालों से संबंधित है। इसका अनुवाद Pradyumn singh ने किया है। 

Table of Contents

परिचय

एक संस्कृत पाठ का उल्लेख करना प्रासंगिक है, जिसे भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले की शुरुआत में उद्धृत किया था। संस्कृत श्लोक कहता है:

वही सत्य बोलो, जो प्रिय लगे और जो सत्य अप्रिय लगे, वह मत बोलो। 

मनुष्य को मधुर बोलना चाहिए और झूठ नहीं बोलना चाहिए, यही सनातन धर्म है।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान् न ब्रूयात् सत्यं प्रियम | 

प्रियं च नृतं ब्रूयाद् एष धर्मः सनातनः ||

इसका मतलब है “जो सच है वही बोलो; जो अच्छा लगे वही बोलो; जो बात अप्रिय हो, चाहे वह सत्य ही क्यों न हो, मत बोलो; और जो सुखदायक है, परन्तु झूठ है, वह न कहो; यह शाश्वत नियम है.

भारत का संविधान अपने नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार प्रदान करता है। इनमें से एक है अनुच्छेद 19(1)(a) जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। यह अधिकार नागरिकों को स्वतंत्र रूप से सोचने, भाषण और राय और जानकारी साझा करने की अनुमति देता है। हालांकि, इस स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध लगाने होंगे ताकि ऐसा भाषण अराजकता का कारण न बने। अनुच्छेद 19(2) इस अधिकार के प्रयोग पर लगाए जा सकने वाले उचित प्रतिबंध निर्धारित करता है। यहां असली सवाल यह है कि क्या अनुच्छेद 19(2) में उल्लिखित प्रतिबंध लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त है। क्या इस स्वतंत्र पर और अधिक प्रतिबंध लगाए जाने चाहिए? यदि किसी व्यक्ति के भाषण से दूसरे व्यक्ति की गरिमा या निजता को खतरा हो तो क्या होगा? क्या होगा यदि ऐसा व्यक्ति, जिसने विवादास्पद भाषण दिया, एक सार्वजनिक पदाधिकारी है? क्या ऐसे भाषण और पीड़ित पक्ष को हुए नुकसान के लिए किसी राज्य को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है?

कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) के मामले में ऐसे कई महत्वपूर्ण प्रश्न माननीय सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के समक्ष उठाए गए। आइए इस मामले पर गौर करें और जानें कि संवैधानिक अधिकारों की रक्षक मानी जाने वाली न्यायपालिका ने ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों को कैसे निपटाया।

मामले का विवरण

मामले का विवरण इस प्रकार है-

  1. mamle का नाम- कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य।
  2. समतुल्य उद्धरण– (2023) 4 एससीसी 1;  2023 आईएनएससी 4। 
  3. अदालत– भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  4. पीठ– न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना, न्यायमूर्ति वी. रामसुब्रमण्यम, और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना।
  5. याचिकाकर्ता– कौशल किशोर 
  6. याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता- अपराजिता सिंह, वरिष्ठ अधिवक्ता (न्यायमित्र); रिकार्ड के अनुसार वकील उत्तारा बब्बर, सुविदत्ता एम.एस और मंजु जेटली और अधिवक्ता शिप्रा जैन, कालीशवरम राज, थुलसी. के राज, सोमलग्न बिस्वास, रिशेष सिकरवार, यमन खुलर, रेनू यादव, समेर जीत सिंह चौधरी, हितेश कुमार शर्मा, अखिलेश्वर झा, निहारिका, इ.विनय कुमार, अमित कुमार चावला, नितिन शर्मा, रविश कुमार गोयल, नरेंद्र पाल शर्मा, श्वेता सिंह एण्ड मृदुला सिंह चौहान। 
  7. प्रतिवादी – उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य
  8. प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता- भारत के महान्यायवादी (अटॉर्नी जनरल), आर. वेंकटरमणी; भारत के महाधिवक्ता (सॉलिसिटर जनरल), तुषार मेहता; भारत के अतिरिक्त महाधिवक्ता (एडिशनल सॉलिसिटर जनरल) बलबीर सिंह और माधवी दीवान; अतिरिक्त महाधिवक्ता, गरिमा प्रसाद; वरिष्ठ अधिवक्ता, आर बाला; रिकार्ड के अनुसार वकील अरविंद कुमार शर्मा, मुकेश कुमार मारोरिया, अजय विक्रम सिंह, स्वरूपमा चतुर्वेदी, प्रदीप मिश्रा, अभिषेक, लक्ष्मी रमन सिंह और लक्ष्मी एन कैमल; अधिवक्ता नमन टंडन, समरवीर सिंह, प्रसेनजीत महापात्र, रजत नायर, अंकुर तलवार, कानू अग्रवाल, अनिरुद्ध भट्ट, श्याम गोपाल, मोनिका बेंजामिन, सुजाता बागधी, श्रद्धा देशमुख, उदय खन्ना, अनु एस., मयंक पांडे, विनायक मेहरोत्रा, चितवन सिंघल, सोनाली जैन, अभिषेक कुमार पांडे, विकास बंसल, प्रियंका सिंह, शरजील अहमद, रेंजिथ बी मरार, अरुण पूमुली, आशु जैन और दवेश कुमार शर्मा। 
  9. फैसले की तारीख– 3 जनवरी, 2023

मामले के पृष्ठभूमि तथ्य

29 जुलाई 2016 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय राजमार्ग 91 पर एक युवा लड़की और उसकी माँ के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। वे एक रिश्तेदार के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए परिवार के अन्य सदस्यों के साथ नोएडा से शाहजहाँपुर गए थे। उक्त गिरोह ने नकदी के साथ-साथ आभूषण जो उनके पास थे लूट लिए। उनके साथ यात्रा कर रहे लोगों को खेत में बांध दिया गया और बेरहमी से पीटा गया। बुलंदशहर पुलिस स्टेशन में भारतीय दंड संहिता, 1860 (इसके बाद “आईपीसी” के रूप में संदर्भित) के तहत धारा 395, 397 और 376D के साथ पढ़े गए यौन अपराध से बच्चों का संरक्षण (पॉस्को) अधिनियम के तहत सामूहिक बलात्कार के अपराधों के लिए 30 जुलाई 2016 को प्रथम सूचना रिपोर्ट (बाद में “एफआईआर” के रूप में संदर्भित) दर्ज की गई।

इसके बाद, मीडिया इस घटना से जुड़ गया और यह अखबारों, टेलीविजन चैनलों और सोशल मीडिया पर सुर्खियों में आ गया। उत्तर प्रदेश में शहरी विकास मंत्री आज़म खान ने जनता को संबोधित करते हुए इस कथित सामूहिक बलात्कार की घटना को “राजनीतिक साजिश” बताया क्योंकि “चुनाव नजदीक थे, और हताश विपक्ष सरकार को बदनाम करने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकता था”। इसके बाद उक्त मंत्री के खिलाफ आईपीसी के धारा 395, 397, 376-D और 342 के तहत एफआईआर दर्ज की गई।

संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत 2016 में, दो सामूहिक बलात्कार पीड़ितों के पति और पिता ने सर्वोच्च न्यायालय  से निम्नलिखित राहत मांगने के लिए एक याचिका दायर की। 

  • केंद्रीय जांच ब्यूरो (बाद में “सीबीआई” के रूप में उल्लेखित) द्वारा इस मामले की आपराधिक जांच की निगरानी करना।
  • उक्त मामले की सुनवाई की कार्यवाही उत्तर प्रदेश राज्य के बाहर आयोजित करने के लिए क्योंकि आजम खान के बयान ने उस राज्य में निष्पक्ष सुनवाई की संभावना को खराब कर दिया है।
  • ऐसे बयान देने के लिए आजम खान के खिलाफ शिकायत दर्ज करने के लिए जो कथित तौर पर पीड़ितों की लज्जा के लिए अपमानजनक था।

उन्होंने तर्क दिया कि आजम खान के सार्वजनिक बयान से पीड़ितों की प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इस याचिका के बाद सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने आजम खान को मामले में प्रतिवादी बनाया। बाद में उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय  के समक्ष बिना शर्त माफी मांगी और याचिकाकर्ता को गंभीर पश्चाताप की पेशकश की।

अदालत ने इस माफी को स्वीकार कर लिया और मामले में शामिल बड़े सवालों पर विचार करने के लिए आगे बढ़ गई। मामला जारी रहा और 5 अक्टूबर 2017 के आदेश से, तीन न्यायाधीशों की पीठ ने याचिका को सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ को निर्देशित किया ताकि महत्वपूर्ण प्रश्नों पर निर्णय लिया जा सके, अर्थात् जांच के अधीन संवेदनशील मामलों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और क्या यह एक व्यक्ति के गरिमामय जीवन के अधिकार की पेशकश करता है। यह मंत्री द्वारा किए गए बयान के संबंध में था। 2017 के आदेश में, सर्वोच्च न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय से एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) पर भी विचार किया। इस याचिका में केरल सरकार के बिजली मंत्री के खिलाफ दो जनहित याचिकाएं शामिल थीं। मंत्री ने कथित तौर पर एक प्रिंसिपल महिला, एक छात्र की माँ और एक चाय बागान में महिला मजदूरों के खिलाफ अपमानजनक बयान दिए थे। इन याचिकाओं को केरल उच्च न्यायालय की एक खंड पीठ ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि प्रश्न इस प्रकार के हैं कि इसका निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि हालांकि राजनीतिक दल द्वारा उस पर सार्वजनिक निंदा जारी की गई थी, लेकिन उक्त मंत्री के खिलाफ कोई आधिकारिक कार्रवाई नहीं की गई। इस एसएलपी में याचिकाकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय से निम्नलिखित कदम उठाने का अनुरोध किया।

  • केरल के मुख्यमंत्री को संविधान द्वारा निर्धारित कार्यालय में प्रवेश करने से पहले शपथ लेने वाले मंत्रियों के लिए एक आचार संहिता बनाने का निर्देश देना। 
  • यदि कोई मंत्री शपथ में किए गए वादे का उल्लंघन करता है तो केरल के मुख्यमंत्री को उचित कार्रवाई करने का निर्देश देना।
  • मंत्री के अपमानजनक बयानों के लिए संबंधित अधिकारियों को उनके खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश देना।

क्योंकि उक्त एसएलपी और रिट याचिका में सर्वोच्च न्यायालय  द्वारा तय किए जाने वाले कुछ प्रश्न एक जैसे थे, हालांकि मामले के तथ्य और परिस्थितियां अलग-अलग थीं, न्यायालय ने उन्हें टैग करके मामले को एक साथ सुनने का फैसला किया।

घटनाओं की कालानुक्रमिक सूची

मामले की पृष्ठभूमि की बेहतर और अधिक विस्तृत समझ के लिए, नीचे दी गई तालिका को देखने का सुझाव दिया गया है जिसमें कानूनी विकास की कालानुक्रमिक सूची शामिल है।

तारीख घटना 
29 जुलाई 2016 उत्तर प्रदेश में नेशनल हाईवे 91 पर एक नाबालिग लड़की और उसकी मां के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया।
30 जुलाई 2016 बुलंदशहर पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज की गई थी।
13 अगस्त 2016 बुलंदशहर सामूहिक बलात्कार की घटना में नाबालिग लड़की ने सर्वोच्च न्यायालय  का दरवाजा खटखटाया और अपने और घटना के बारे में ऐसे अपमानजनक बयान देने के लिए मंत्री के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की। लड़की ने यह भी आरोप लगाया कि पुलिस अभियुक्तों की मदद कर रही है और इसलिए, न्यायालय से प्रार्थना की गई कि मामला को दिल्ली भेजा  गया और इस मामले की जांच, जो कि सीबीआई कर रही है, की निगरानी न्यायालय  द्वारा की जाए, क्योंकि उन्हें यूपी सरकार के कामकाज पर कोई भरोसा नहीं है और वो मंत्री से बेहद प्रभावित हैं। (स्रोत: लाइव लॉ)
12 अगस्त 2016 इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सीबीआई को इस मामले में कदम उठाने और जांच शुरू करने का निर्देश दिया क्योंकि वह राज्य पुलिस द्वारा की गई जांच से संतुष्ट नहीं थी (स्रोत: लाइव लॉ)।
29 अगस्त 2016 सर्वोच्च न्यायालय की पीठ में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति यू.यू. ललित ने नाबालिग लड़की द्वारा दायर याचिका पर इस अदालत द्वारा संबोधित किए जाने वाले प्रश्न तैयार किए। अदालत ने इस मामले में सीबीआई द्वारा जांच के खिलाफ स्थगन आदेश पारित किया और इस मामले को दूसरे राज्य में स्थानांतरित करने का आदेश दिया। इसके अलावा, अदालत ने निर्धारित प्रश्नों के समाधान में न्यायालय को सहायता देने के लिए श्री फली एस. नरीमन को न्याय मित्र नियुक्त किया।
8 सितंबर 2016 सर्वोच्च न्यायालय  ने सीबीआई जांच पर लगी रोक हटा दी और उन्हें कानून के मुताबिक जांच करने की इजाजत दे दी। न्यायालय  ने इस मामले में एक पक्ष बनने के लिए सीबीआई के अनुरोध को भी स्वीकार कर लिया। न्यायालय  ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय  को इस मामले में कार्यवाही रोकने का आदेश दिया क्योंकि पूरा मामला सर्वोच्च न्यायालय  द्वारा उठाया गया था। (स्रोत: लाइव लॉ)।
27 सितंबर 2016 सर्वोच्च न्यायालय  ने सीबीआई को आदेश दिया कि वह मंत्री को नोटिस देकर उनसे बुलन्दशहर सामूहिक बलात्कार घटना पर उनके कथित बयानों के लिए स्पष्टीकरण देने को कहे। (स्रोत: लाइव लॉ).
8 नवंबर 2016 तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री आज़म खान ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात से इनकार किया कि उन्होंने इस तरह के कथित विवादास्पद बयान दिए थे, यानी कि बुलंदशहर सामूहिक बलात्कार की घटना को आगामी चुनावों के मद्देनजर प्रतिद्वंद्वी  पक्ष  द्वारा एक साजिश बताया गया था। उनका खंडन उनके अधिवक्ता श्री कपिल सिब्बल द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया। अदालत के मित्र श्री फली एस. नरीमन ने न्यायालय को उन समाचार संगठनों को उस प्रेस कॉन्फ्रेंस की ऑडियो रिकॉर्डिंग प्रस्तुत करने का आदेश देने का सुझाव दिया, जिन्होंने पहले ही लेख और रिपोर्ट प्रकाशित कर दी थी कि मंत्री ने ऐसे बयान दिए हैं। अदालत के मित्र द्वारा अदालत को इस मामले पर एक व्यापक रिपोर्ट भी सौंपी गई जिसमें उन्होंने कनाडा के सर्वोच्च न्यायालय  और यूनाइटेड किंगडम के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि मंत्री अपकृत्य (टॉर्ट्स) के कानून के तहत उत्तरदायी होंगे (स्रोत: लाइव लॉ)।
17 नवंबर 2016 सर्वोच्च न्यायालय ने मंत्री को एक हलफनामे में अपने विवादास्पद बयानों के लिए बिना शर्त माफी मांगने का निर्देश दिया और उक्त हलफनामा अदालत में जमा करने के लिए दो सप्ताह का समय दिया। अदालत ने फैसला किया कि एक महिला की गरिमा से समझौता नहीं किया जाना चाहिए और उत्तर प्रदेश राज्य सरकार को इसे स्वीकार करने का निर्देश दिया। सामूहिक बलात्कार की शिकार नाबालिग अपने पिता की पसंद के पास के केंद्रीय विद्यालय में पढ़ती है। न केवल प्रवेश, बल्कि उसकी शिक्षा की फीस और खर्च भी राज्य सरकार द्वारा वहन किया जाएगा। न्यायालय ने यह भी कहा कि पीड़िता केंद्र सरकार से आवश्यक सहायता भी प्राप्त कर सकती है। इसके अलावा, न्यायालय ने विद्यालय जहां बच्ची को प्रवेश दिया गया था पर एक कर्तव्य भी यह सुनिश्चित करने के लिए लगाया कि उसकी गरिमा धूमिल न हो (स्रोत: द हिंदू)।
6 दिसंबर 2016 सर्वोच्च न्यायालय  मंत्री के माफी के हलफनामे से इस आधार पर संतुष्ट नहीं था कि उनकी माफी सशर्त थी और इसलिए, इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया। न्यायालय  ने माफी को सशर्त पाया क्योंकि इसमें कहा गया है कि अगर मंत्री के बयान से पीड़ित को ठेस पहुंची है तो वह माफी मांगते हैं, जिसे मीडिया द्वारा तोड़-मरोड़कर पेश करने का दावा किया गया है (स्रोत: लाइव लॉ)।
16 दिसंबर 2016 सर्वोच्च न्यायालय  ने मंत्री के ताज़ा माफी हलफनामे को स्वीकार कर लिया। इस संबंध में, न्यायालय ने उक्त हलफनामे से संबंधित पैराग्राफ का हवाला दिया: “यदि उनके द्वारा दिए गए किसी भी बयान से, याचिकाकर्ता को अपमानित महसूस हुआ है, तो वह बिना शर्त और बिना संकोच के इस संबंध में अपनी ईमानदारी और हार्दिक पश्चाताप व्यक्त करते हैं।” (स्रोत: लाइव लॉ)
20 अप्रैल 2017 सर्वोच्च न्यायालय  ने इस मामले को, जिसमें कानून का एक बड़ा सवाल शामिल है, यानी कि क्या कोई मंत्री ऐसे बयान दे सकता है जिससे तत्कालीन चल रही जांच में हस्तक्षेप करने की बड़ी संभावना हो, संवैधानिक पीठ को भेज दिया (स्रोत: लाइव लॉ और द हिंदू)
5 अक्टूबर 2017 सर्वोच्च न्यायालय ने मंत्रियों या सार्वजनिक पदों पर आसीन किसी अन्य व्यक्ति के लिए आचार संहिता प्रदान करने के साथ-साथ विवादास्पद बयान देने के लिए दंड निर्धारित करने वाली नीति के निर्माण के मुद्दे के रूप में एक संवैधानिक पीठ को संदर्भित किया (स्रोत: लाइव लॉ)।

शामिल प्रावधान और अवधारणाएँ 

पूरा मामला मुख्य रूप से नीचे उल्लिखित संवैधानिक प्रावधानों और अवधारणाओं की विभिन्न जटिलताओं से संबंधित है। अगर किसी को इसके बारे में बुनियादी जानकारी हो तो मामले को समझना आसान होगा। तो, आइए उन पर गौर करें।

अनुच्छेद 19(1)(a)

यह संवैधानिक प्रावधान प्रत्येक भारतीय नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, विदेशियों को नहीं। यह मौलिक अधिकार हमारे देश में महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके अभाव से लोकतांत्रिक व्यवस्था ध्वस्त हो जायेगी। हमारे देश में, शासकों या राजनीतिक कार्यपालिका को लोगों द्वारा चुना जाता है और लोकतंत्र का सार लोगों द्वारा सूचित और बुद्धिमान निर्णयों के साथ निष्पक्ष चुनाव कराने में निहित है, जो तभी होगा जब स्वतंत्र राजनीतिक चर्चा होगी।

एक नागरिक किसी भी विषय पर अपने विचार, विश्वास, भावनाएँ आदि संचार के किसी भी माध्यम जैसे समाचार पत्र, सोशल मीडिया या इशारों से भी व्यक्त कर सकता है। राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि इस देश के नागरिकों को उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से प्रतिबंधित न किया जाए। हालांकि, इस तरह की स्वतंत्र अभिव्यक्ति अनुच्छेद 19(2) के अधीन है, जो राज्य को कुछ परिस्थितियों में इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है।

भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में अधिक जानकारी के लिए, कृपया अतिरिक्त संसाधन या कानूनी पाठ देखें।

अनुच्छेद 19(2)

हर स्वतंत्रता का जिक्र अनुच्छेद 19(1) मे है। भारत के संविधान में उचित प्रतिबंध हैं और इसलिए, यह पूर्ण अधिकार नहीं है। किसी भी आधुनिक और संगठित समाज में, कोई पूर्ण अधिकार नहीं होगा क्योंकि यह साथी प्राणियों के अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है और सामाजिक नियंत्रण की कमी से सामाजिक असंतुलन हो सकता है। इसलिए, अनुच्छेद 19 के खंड (2) के तहत, संसद निम्नलिखित में से किसी भी आधार पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगा सकती है;

  1. भारत की संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखना;
  2. राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करना;
  3. विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देना;
  4. सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए;
  5. शालीनता या नैतिकता को कायम रखना;
  6. न्यायालय की अवमानना ​​को रोकने के लिए;
  7. मानहानि; और
  8. किसी अपराध को उकसाना।

यदि संसद द्वारा लगाए गए किसी प्रतिबंध पर अदालत के समक्ष सवाल उठाया जाता है, तो अदालत उचित प्रतिबंध का परीक्षण अपनाएगी और आकलन करेगी कि यह मनमाना है या उचित है।

उचित प्रतिबंधों के बारे में अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें। 

अनुच्छेद 21

यह प्रावधान प्रत्येक भारतीय नागरिक के साथ-साथ विदेशियों को भी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है और यह सुनिश्चित करता है कि कार्यकारी और विधायी कार्यों द्वारा इसका उल्लंघन न हो। हालांकि, यदि कोई कानून ऐसा निर्देशित करता है तो इस अधिकार से वंचित किया जा सकता है, बशर्ते ऐसे कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित होनी चाहिए और अनुच्छेद 14 और 19 के अनुसार होनी चाहिए।

अनुच्छेद 32 और 226

संविधान निर्माताओं का मानना ​​था कि उनके उल्लंघन के समाधान के बिना मौलिक अधिकार प्रदान करना निरर्थक होगा। इसलिए, संवैधानिक उपचारों का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक मौलिक अधिकार के रूप में प्रदान किया गया है जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय को उन मामलों से निपटने के लिए सशक्त बनाता है जहां मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए उपचार मांगे जाते हैं और तदनुसार उचित रिट, निर्देश या आदेश जारी करते हैं। इसी प्रकार, अनुच्छेद 226 भारत के विभिन्न राज्यों में उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने का अधिकार देता है। इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को क्रमशः अनुच्छेद 32 और 226 के तहत रिट अधिकार क्षेत्र प्राप्त है।

सामूहिक जिम्मेदारी का सिद्धांत

सामूहिक जिम्मेदारी का सिद्धांत सरकार के संसदीय स्वरूप का मूल सिद्धांत है। संविधान का अनुच्छेद 75(3) और 164(2) इस सिद्धांत को समाहित करता है जो क्रमशः केंद्र और राज्य में मंत्रिपरिषद को राज्य के किसी भी मामले से संबंधित उनकी सामान्य गतिविधियों के लिए अपने संबंधित विधानमंडलों के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदार होने के लिए बाध्य करता है। इसका मतलब यह है कि मंत्रिपरिषद एक टीम के रूप में कार्य करती है, और उनके द्वारा लिया गया प्रत्येक निर्णय इसके सभी सदस्यों द्वारा लिया गया संयुक्त निर्णय माना जाता है। यद्यपि केन्द्रीय के भीतर मतभेद मौजूद हैं, यह सिद्धांत प्रत्येक सदस्य को न केवल विधानसभाओं में केन्द्रीय के सभी निर्णयों का समर्थन करने के लिए बाध्य करता है, बल्कि उन्हें इन संयुक्त निर्णयों का सार्वजनिक रूप से समर्थन करने की भी आवश्यकता है। यह मंत्रिपरिषद के बीच एकता और अनुशासन सुनिश्चित करता है।

संवैधानिक अपकृत्य

जब किसी सरकार या लोक सेवक द्वारा कोई अत्याचार पूर्ण कार्य किया जाता है, तो इसे एक संवैधानिक अपकृत्य माना जाता है और ऐसे मामलों में, राज्य को प्रत्यावर्ती रूप से उत्तरदायी ठहराया जाएगा। कुछ संवैधानिक प्रावधान, जैसे अनुच्छेद 294(b) और 300(1), अपने कर्मचारियों द्वारा किए गए संवैधानिक अपकृत्यों के लिए राज्य के दायित्व को संबोधित करें। एक बार जब संवैधानिक अपकृत्य के लिए कार्रवाई शुरू हो जाती है, तो दावेदार को यह साबित करना होगा कि सरकारी कर्मचारियों द्वारा किए गए अपकृत्य पूर्ण कार्यों के परिणामस्वरूप संवैधानिक अपकृत्य होगा और, एक बार यह साबित हो जाने पर, राज्य को दावेदार को हर्जाना देने का आदेश दिया जाएगा।

कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2023) में उठाए गए प्रश्न 

  • प्रश्न क्रमांक 1- क्या न्यायालय किसी अन्य मौलिक अधिकारों को लागू करके भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत प्रदान किए गए मौजूदा उचित प्रतिबंधों से परे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध लगा सकता है।
  • प्रश्न क्रमांक 2- क्या अनुच्छेद 19, के तहत एक मौलिक अधिकार, अर्थात भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, या अनुच्छेद 21, के तहत, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, ‘राज्य’ या उसके साधनों के अलावा किसी अन्य के खिलाफ लागू किया जा सकता है?
  • प्रश्न क्रमांक 3- क्या संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत नागरिकों के अधिकारों की सकारात्मक रूप से रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है, भले ही वह किसी अन्य नागरिक या निजी एजेंसी के कार्यों या चूक से नागरिक की स्वतंत्रता के लिए खतरा हो।
  • प्रश्न क्रमांक 4- चाहे किसी मंत्री का बयान, राज्य के किसी भी मामले से जुड़ा हो या सरकार की रक्षा के लिए हो, विशेष रूप से सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का पालन करते हुए, इसका श्रेय प्रत्यावर्ती रूप से सरकार को ही दिया जाना चाहिए।
  • प्रश्न क्रमांक 5- क्या एक मंत्री द्वारा दिया गया बयान, जो संविधान के भाग III, के तहत नागरिक को दिए गए अधिकारों, अर्थात मौलिक अधिकारों के साथ असंगत है, ऐसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और ‘संवैधानिक अपराध’ के रूप में कार्यवाही योग्य है? 

दोनों पक्षों की ओर से पेश किए गए तर्क 

याचिकाकर्ता की ओर से पेश किए गए तर्क

विद्वान अदालत के मित्र  अपराजिता सिंह  द्वारा प्रस्तुतियाँ

वरिष्ठ अधिवक्ता सुश्री अपराजिता सिंह ने ‘अदालत के मित्र’ की भूमिका निभाई और इस मामले के लिए सर्वोच्च न्यायालय को अपनी सहायता दी। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अधिवक्ता द्वारा उक्त प्रश्नों के लिए की गई लिखित दलीलें नीचे संक्षेप में दी गई हैं।

  • प्रश्न क्रमांक 1- अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध अनुच्छेद 19(2) के तहत प्रदान किया गया है। और, जब भी दो मौलिक अधिकार किसी विशेष उदाहरण में एक दूसरे के साथ विवाद करते हैं, तो अदालतें हमेशा दोनों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करती हैं और दोनों को सार्थक तरीके से लागू करने में सफल होती हैं। विभिन्न उदाहरणों को उजागर करने के लिए, अधिवक्ता ने कई मामलों आर. राजगोपाल बनाम तमिलनाडु राज्य (1994), पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम भारत संघ (1996), सहारा इंडिया रियल एस्टेट कारपोरेशन लिमिटेड बनाम भारतीय प्रतिभूति (सेक्यूरिटीज) और विनिमय बोर्ड (2012) का हवाला दिया।
  • प्रश्न क्रमांक 2- आमतौर पर, मौलिक अधिकारों की सुरक्षा और प्रवर्तन का कर्तव्य राज्य पर होता है, और इसलिए, उक्त अधिकारों को राज्य के खिलाफ पीड़ित पक्ष द्वारा उसके उल्लंघन के मामले में लागू किया जाता है। यह एक अच्छा संकेत है कि संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत परिभाषित “राज्य” की अभिव्यक्ति का दायरा बढ़ रहा है ताकि जितनी संभव हो उतनी संस्थाओं को नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न करने के लिए बाध्य किया जा सके। हालाँकि, कुछ मौलिक अधिकार, जैसे कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(2), 17, 23 और 24 के तहत अधिकार और स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार जैसे अनुच्छेद 21 के कुछ अंतर्निहित अधिकार, उन संस्थाओं के खिलाफ भी प्रयोग किए जा सकते हैं जो “राज्य” के बजाय “व्यक्ति” शब्द के उपयोग के कारण अनुच्छेद 12 के दायरे में नहीं आती हैं। फिर भी, यह ध्यान रखना प्रासंगिक है कि, जहाँ तक संविधान के भाग III के किसी भी प्रावधान में “राज्य” शब्द का उल्लेख किया गया है, राज्य का संवैधानिक दायित्व है कि न केवल नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करे बल्कि यह भी सुनिश्चित करे कि निजी व्यक्ति और संस्थाएं भी उनका उल्लंघन न करें, भले ही कोई मौजूदा कानून राज्य पर ऐसा दायित्व नहीं थोपता है। सिर्फ इसलिए कि कोई व्यक्ति या संस्था, जिसने नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है, एक निजी व्यक्ति या संस्था है, इसका मतलब यह नहीं है कि अदालतें इस तरह के उल्लंघन से अनजान हैं। अधिवक्ता ने कुछ उदाहरणों का हवाला दिया जहां निजी व्यक्तियों को नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन करने के लिए उत्तरदायी ठहराया गया था। उद्धृत मामले बोधिसत्व गौतम बनाम सुभ्रा चक्रवर्ती (1995), जहां अदालत ने निजी संस्थाओं के खिलाफ अंतरिम मुआवजा लगाकर सार्वजनिक कानून उपचार का सहारा लिया, और एम.सी. मेहता बनाम कमल नाथ एवं अन्य (1996), जहां अदालत ने पीड़ित पक्षों को क्षतिपूर्ति प्रदान की जिनके स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार का गैर-राज्य कारक द्वारा उल्लंघन किया गया था, थे।
  • प्रश्न क्रमांक 3- मौलिक अधिकार नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह के होते हैं। वे सकारात्मक अधिकार हैं क्योंकि राज्य इन अधिकारों को उल्लंघन से संरक्षित करने के लिए बाध्य है। राज्य के इस तरह के सकारात्मक दायित्व को सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2018) के मामले में स्पष्ट रूप से समझाया है। राज्य यह बचाव नहीं कर सकता कि वे मौलिक अधिकारों को लागू करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि कारण उनके हाथ में नहीं है जैसा कि एस. रंगराजन बनाम पी. जगजीवन राम (1989) में तय किया गया था। अधिवक्ता ने भी पंडित परमानंद कटारा बनाम भारत संघ एवं अन्य (1989) का हवाला दिया, जहां अदालत ने माना कि सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर भी अनुच्छेद 21 के तहत राज्य के संवैधानिक कर्तव्य को लागू करने के लिए बाध्य हैं। 
  • प्रश्न क्रमांक 4- अधिवक्ता ने तर्क दिया कि मंत्रिमंडल अपने आधिकारिक कर्तव्य या गतिविधियों के दौरान राज्य की ओर से कार्य करता है और इस प्रकार, राज्य को मंत्रिमंडल द्वारा किए गए कार्यों के लिए उत्तरदायी बनाया जा सकता है। अधिवक्ता ने आगे सुझाव दिया कि यह अनुचित होगा यदि मंत्री, जो राज्य के लिए कार्य करता है, स्वयं अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार का उल्लंघन करता है और किसी भी दायित्व से प्रतिरक्षित है जब राज्य स्वयं वह है जो इसे उल्लंघन से संरक्षित करना चाहिए। इसके अलावा, अधिवक्ता ने कहा कि आरोपित उल्लंघन को अदालत द्वारा मामले के तथ्यों पर विचार करके निर्धारित किया जाना चाहिए जैसे कि जब मंत्री ने इस तरह का कथित अपमानजनक बयान दिया – व्यक्तिगत या आधिकारिक क्षमता के दौरान, कथित सामूहिक बलात्कार की घटना किस प्रकार का मामला है – सार्वजनिक या निजी मामला और मंत्री ने ऐसे बयान कहाँ दिए – निजी या सार्वजनिक स्थान। यह कहते हुए, अधिवक्ता ने अमीश देवगन बनाम भारत संघ (2020) जैसे मामलों का हवाला दिया, जहां अदालत ने एक सरकारी पद धारण करने वाले व्यक्ति के प्रभाव और शक्ति पर प्रकाश डाला; महाराष्ट्र राज्य और अन्य बनाम सरबधर्शींह शिवदासिंग सिंह चावण और अन्य (2010) में, राज्य को मुख्यमंत्री के मामले की जांच में अनुचित हस्तक्षेप के लिए जिम्मेदार बनाया गया था; जयपुर विकास प्राधिकरण, जयपुर के सचिव बनाम दौलत मल जैन (1996) और मनोज नारूला बनाम भारत संघ (2014) के मामले में मंत्री कार्यालय के संवैधानिक कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से समझाया गया है, हालांकि ऐसी आचार संहिता लागू नहीं है जैसी कि आर साई भारती बनाम जे जयललिता और अन्य (2003) में निर्धारित की गई है। विद्वान अदालत के मित्र  ने अंत में तर्क दिया कि केंद्र या राज्य में मंत्री संविधान में निर्धारित राज्य के कर्तव्यों के अनुसार कार्य करें।
  • प्रश्न क्रमांक 5- राज्य एक काल्पनिक इकाई है और इसलिए, समाज में कार्य करने के लिए एक मानवीय एजेंसी की आवश्यकता होती है। इसलिए, व्यक्तियों, निकायों और अन्य साधनों का एक समूह एक राज्य का गठन करता है। इसी प्रकार, कहा जाता है कि राज्य सरकार अपने केन्द्रीय और अन्य लोक सेवकों के माध्यम से कार्य करती है। इस सादृश्य के साथ, अधिवक्ता ने तर्क दिया कि राज्य को मंत्रियों सहित उसकी एजेंसियों द्वारा की गई गलतियों के लिए संवैधानिक अपकृत्य के तहत उत्तरदायी ठहराया जाएगा और वह संप्रभु प्रतिरक्षा के सिद्धांत का सहारा लेकर अपने दायित्व से बच नहीं सकता क्योंकि यह  नागरिकों के मौलिक अधिकारों की उल्लंघन के मामलों में लागू नहीं है। इस संबंध में, अधिवक्ता ने श्रीमती नीलाबती बेहरा उर्फ ​​ललिता बेहरा (सर्वोच्च न्यायालय  कानूनी सहायता समिति के माध्यम से) बनाम उड़ीसा राज्य और अन्य (1993) और कॉमन कॉज (एक पंजीकृत सोसायटी) बनाम भारत संघ (2018), मामलों का हवाला दिया, जहां राज्य दायित्व के सिद्धांत पर चर्चा की गई है।

अधिवक्ता श्री कालीश्वरम राज द्वारा प्रस्तुत प्रस्तुतियाँ 

विशेष अनुमति याचिका में याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता कालीश्वरम राज उपस्थित हुए और व्यापक लिखित दलीलें प्रस्तुत किया। उच्चतम न्यायालय के समक्ष विद्वान अधिवक्ता द्वारा की गई दलीलें नीचे संक्षेप में दी गई है।

  • याचिकाकर्ता का मुख्य तर्क उन राजनीतिक हस्तियों के लिए आचार संहिता का निर्माण है जो सार्वजनिक कार्यालयों में रहते हुए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करते हैं ताकि उनकी दैनिक गतिविधियों में बेहतर जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके क्योंकि उनके हर उच्चारण से सरकार की नीति प्रभावित होगी। अधिवक्ता ने यह भी अनुरोध किया कि आचार संहिता संवैधानिक नैतिकता और सुशासन के मानदंडों के अनुरूप होनी चाहिए। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि आचार संहिता के साथ-साथ सार्वजनिक सेवकों द्वारा उक्त अधिकार के दुरुपयोग के बारे में सतर्क रहने के लिए लोकपाल जैसी उपयुक्त व्यवस्था स्थापित करने की भी सख्त आवश्यकता है। जब तक ऐसा पद बनाया नहीं जाता, राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोगों को मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के प्रावधानों के अनुसार उचित कदम उठाने चाहिए।
  • सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के संबंध में, याचिकाकर्ता ने संविधान के अनुच्छेद 75(3) और 164(2) का उल्लेख किया और तर्क दिया कि, हालांकि इन प्रावधानों के शब्दार्थ से पता चलता है कि मंत्रिपरिषद का सामूहिक उत्तरदायित्व केंद्र या राज्य के मंत्रिमंडल और विधायिका के प्रति होना चाहिए, प्रावधानों का सार यह है कि ऐसा उत्तरदायित्व व्यापक रूप से आम जनता के प्रति होना चाहिए। यह उपरोक्त आचार संहिता को संवैधानिक रूप से जायज बनाता है क्योंकि यह लोगों के सर्वोत्तम हित में है। अधिवक्ता ने यह भी बताया कि दुनिया के विकसित लोकतंत्रों में इस तरह की आचार संहिता मौजूद है।
  • याचिकाकर्ता ने कहा कि अदालत व्याख्या कार्य करते समय अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्रता में नया प्रतिबंध नहीं जोड़ सकती है और सकल पेपर्स प्राइवेट लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ (1961), के मामले का हवाला दिया, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि भाषण की स्वतंत्रता केवल राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता या अदालत की अवमानना, मानहानि या अपराध के लिए उकसाने के हित में ही प्रतिबंधित की जा सकती है। यह कहते हुए, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि, हालांकि अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्रता में नया प्रतिबंध नहीं डाला जा सकता है, लेकिन सार्वजनिक अधिकारियों के भाषणों को विनियमित करने के लिए एक आचार संहिता वर्तमान स्थिति में आवश्यकता है।
  • याचिकाकर्ता ने कहा कि दुनिया के देश धीरे-धीरे कल्याणकारी शासन की ओर बढ़ रहे हैं यह लैसेज फेयर शासन के कारण मौलिक अधिकारों को लागू करने और उनकी रक्षा करने में राज्य की भूमिका और जिम्मेदारी बढ़ती जा रही है। दक्षिण अफ्रीका, आयरलैंड, कनाडा और जर्मनी जैसे कई देशों में, क्षैतिज (हॉरिजॉन्टल) अनुप्रयोग की अवधारणा का पालन किया जाता है यानी, मौलिक अधिकारों का प्रयोग न केवल राज्य के खिलाफ बल्कि निजी व्यक्तियों के खिलाफ भी किया जा सकता है। जबकि, भारत में, सभी मौलिक अधिकारों के लिए क्षैतिज अनुप्रयोग का पालन नहीं किया जाता है, बल्कि केवल भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(2), 17, 23 और 24 के लिए किया जाता है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में अनुच्छेद 32 के तहत निजी व्यक्तियों के खिलाफ विभिन्न रिट जारी कीं; और प्रदान किया कि 
    • ऐसे निजी व्यक्ति सार्वजनिक कार्य कर रहे हैं; या
    • ऐसे निजी व्यक्ति वैधानिक कार्य कर रहे हैं जो नागरिकों के अधिकारों को प्रभावित करते हैं।

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ एवं अन्य (1986) उल्लेखनीय मामलों से स्पष्ट है कि न्यायालय उपर्युक्त निजी व्यक्तियों के विरुद्ध अपने रिट अधिकार क्षेत्र  का प्रयोग कर सकता है।

प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत तर्क

भारत के महान्यायवादी, आर. वेंकटरमणि, ने भारत के महाधिवक्ता, तुषार मेहता के साथ, प्रतिवादी – भारत संघ का प्रतिनिधित्व किया। उक्त प्रश्नों के लिए उनकी संक्षिप्त प्रस्तुतियाँ नीचे दी गई हैं।

  • प्रश्न क्रमांक 1- अटॉर्नी जनरल ने कहा कि खंड (2) और (6) के तहत प्रदान की गई मौजूदा उचित प्रतिबंधों को हमेशा सम्पूर्ण माना जाना चाहिए और एक अदालत के पास उक्त खंडों में उल्लिखित लोगों के अलावा कोई और नियम या मानदंड जोड़ने का अधिकार नहीं है, क्योंकि यह एक विधायी कार्य है। ऐसा कुछ अदालत द्वारा किसी अन्य मौलिक अधिकार की मदद से भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि, एक संवैधानिक योजना में, एक मौलिक अधिकार या स्वतंत्रता दूसरे के साथ विरोध नहीं कर सकती है। हालांकि यदि दो मौलिक अधिकार किसी विशेष मामले में परस्पर विरोधी हैं और अदालत के समक्ष यह तय करने के लिए आते हैं कि कौन सा मौलिक अधिकार अधिक महान या अधिक महत्वपूर्ण है, तो अदालत हमेशा दोनों मौलिक अधिकारों को संतुलित करने और उनमें से दो का एक साथ प्रयोग करने का प्रयास करती है।
  • प्रश्न क्रमांक 2- अटॉर्नी जनरल ने कहा कि भारत के संविधान में, कुछ मौलिक अधिकारों का प्रयोग केवल राज्य या उसकी एजेंसियों के खिलाफ ही किया जा सकता है, जबकि कुछ अन्य मौलिक अधिकार राज्य या उसकी एजेंसियों के अलावा व्यक्तियों या निकायों के खिलाफ भी उपलब्ध हैं जैसे कि संविधान का अनुच्छेद 15(2), 17, 23 और 24। इस व्यवस्था में कोई भी जोड़ ‘संवैधानिक परिवर्तन’ होगा, जिसका प्रभाव अंतहीन संवैधानिक मुकदमेबाजी है। उन्होंने आगे कहा, “राज्य के अलावा व्यक्तियों के खिलाफ दावे, या तो अधिनियमित कानून या अन्यथा, संवैधानिक रूप से अधिनियमित विषयों या मामलों तक ही सीमित होना चाहिए।”
  • प्रश्न क्रमांक 3- अटॉर्नी जनरल ने दृढ़ता से कहा कि अदालत का नागरिक के लिए अनुच्छेद 21 के तहत अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करने का कोई दायित्व नहीं है यदि इसका किसी व्यक्ति द्वारा उल्लंघन किया जाता है, खासकर यदि नागरिक के पास संवैधानिक और कानूनी उपचार जैसे पर्याप्त सुरक्षा हैं। यदि कोई नागरिक अपने उल्लंघन के आधार पर मौलिक अधिकारों को लागू करना चाहता है, तो नागरिक भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत भारत के सर्वोच्च न्यायालय और अनुच्छेद 226 के तहत भारत के उच्च न्यायालयों से संपर्क करके संवैधानिक उपायों का लाभ उठा सकता है।
  • प्रश्न क्रमांक 4- अटॉर्नी जनरल ने पुष्टि की कि मंत्रियों जैसे सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों का आचरण न्यायिक समीक्षा के अधीन है और अदालत को उसी पर फैसला करने की अनुमति है। उन्होंने आगे स्पष्ट किया कि ऐसे व्यक्तियों पर सजा तब ही लगाई जा सकती है जब दुराचार, जिसमें बयान भी शामिल हैं, कार्यालय के तहत किए गए साबित हो जाते हैं और सरकार को सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का पालन करते प्रत्यावर्ती दायित्व (वकेरियस लायबिलिटी) रूप से उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है, यदि उक्त दुराचार एक सांविधिक उल्लंघन नहीं है, अर्थात सार्वजनिक कर्तव्य और राज्य के मामलों से संबंधित कर्तव्य का उल्लंघन नहीं है, क्योंकि दुराचार को व्यक्तिगत गलत या उल्लंघन माना जाएगा। अटॉर्नी जनरल ने नोट किया कि सर्वोच्च न्यायालय उन व्यक्तियों को मुआवजा दे सकता है जिनके संवैधानिक अधिकारों का सार्वजनिक अधिकारियों के दुराचार के कारण उल्लंघन हुआ है, जैसे कि कस्तूरीलाल रलिया राम जैन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1964) और रुदुल साह बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (1983) था और आगे अदालत के ध्यान में लाया कि बेहतर स्पष्टता और निश्चितता के लिए एक वैचारिक आधार देने की आवश्यकता है जो सांविधिक अधिनियम के माध्यम से दिया जा सकता है।
  •  प्रश्न क्रमांक 5- श्रीमती नीलाबती बेहरा उर्फ ​​ललिता बेहरा (सर्वोच्च न्यायालय  कानूनी सहायता समिति के माध्यम से) बनाम उड़ीसा राज्य और अन्य (1993) के मामले में संवैधानिक अपकृत्य का सिद्धांत उभरा इसे संवैधानिक उपचार प्रदान करने के लिए विभिन्न मामलों में लागू किया गया था। अटॉर्नी जनरल ने एक उचित कानूनी ढांचा लाने की आवश्यकता के बारे में चिंता जताई ताकि सिद्धांतों और प्रक्रियाओं को स्पष्ट रूप से प्रदान किया जा सके और अस्पष्टता के लिए कोई जगह न हो।

कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2023) में निर्णय 

3 जनवरी 2023 को न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना, न्यायमूर्ति वी. रामा सुब्रमण्यम और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने इसके समक्ष आए सभी सवालों के जवाब दिए और याचिका के पक्षों द्वारा उठाए गए संवैधानिक प्रावधानों के बारे में सभी अस्पष्टता को स्पष्ट किया। सर्वोच्च न्यायालय  द्वारा प्रश्नों के दिए गए सटीक उत्तर नीचे दिए गए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संबोधित प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय  की पकड़
क्या अदालत भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत प्रदान की गई मौजूदा उचित पाबंदियों से परे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध लगा सकती है, किसी अन्य मौलिक अधिकार का आह्वान करके? “अनुच्छेद 19(2) में भाषण की स्वतंत्रता के अधिकार को सीमित करने के लिए जिन आधारों को सूचीबद्ध किया गया है, वे सम्पूर्ण हैं। अन्य मौलिक अधिकारों का आह्वान करने या दो मौलिक अधिकारों के एक दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धी दावा करने की आड़ में, अनुच्छेद 19(2) में नहीं पाए जाने वाले अतिरिक्त प्रतिबंध, किसी भी व्यक्ति पर अनुच्छेद 19(1)(a) द्वारा प्रदत्त अधिकार के प्रयोग पर नहीं लगाए जा सकते हैं।”
क्या अनुच्छेद 19 के तहत मौलिक अधिकार, यानी, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, या अनुच्छेद 21, यानी, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, ‘राज्य’ या उसके साधनों के अलावा किसी और के खिलाफ लागू किया जा सकता है? “अनुच्छेद 19/21 के तहत मौलिक अधिकार को राज्य या उसके साधनों  के अलावा अन्य व्यक्तियों के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है।”
क्या संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत नागरिकों के अधिकारों की सकारात्मक रूप से रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है, भले ही वह किसी अन्य नागरिक या निजी एजेंसी के कार्यों या चूक से नागरिक की स्वतंत्रता के लिए खतरा हो? “राज्य पर अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति के अधिकारों की सकारात्मक रूप से रक्षा करने का कर्तव्य है, जब भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए कोई खतरा हो, भले ही वह गैर-राज्य अभिनेता द्वारा हो” और “व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का महत्व अनुच्छेद 19 और 14 के तहत गारंटीकृत अन्य सभी अधिकारों से ऊपर है, इस पर जोर देने की आवश्यकता नहीं है।”
क्या किसी मंत्री का बयान, जो राज्य के किसी भी मामले से जुड़ा हो, उसको प्रत्यावर्ती  रूप से सरकार को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, खासकर सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का पालन करते हुए? “किसी मंत्री द्वारा दिया गया बयान, भले ही राज्य के किसी भी मामले से जुड़ा हो या सरकार की रक्षा के लिए हो, सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत को लागू करके सरकार को प्रत्यावर्ती रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।“
क्या किसी मंत्री द्वारा दिया गया बयान, जो संविधान के भाग III के तहत नागरिकों को दिए गए अधिकारों, यानी मौलिक अधिकारों से असंगत है, ऐसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और ‘संवैधानिक अपकृत्य’ के रूप में कार्रवाई योग्य है? “किसी मंत्री द्वारा दिया गया एक मात्र बयान, जो संविधान के भाग III के तहत एक नागरिक के अधिकारों के साथ असंगत है, संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं हो सकता है और संवैधानिक अपकृत्य के रूप में कार्रवाई योग्य नहीं हो सकता है। लेकिन अगर ऐसे बयान के परिणामस्वरूप, अधिकारियों द्वारा कोई चूक की जाती है जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति/नागरिक को नुकसान होता है, तो यह संवैधानिक अपकृत्य के रूप में कार्रवाई योग्य हो सकता है।”

मामले के फैसले के पीछे रेश्यो डेसीडेंडी  

आइए कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2023) के मुद्दे के हिसाब से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय देने के पीछे रेश्यो डेसीडेंडी को देखे। 

अनुच्छेद 19(2) में दिए गए प्रतिबंधों की व्यापकता

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संबोधित पहला प्रश्न यह है कि क्या न्यायालय किसी अन्य मौलिक अधिकारों को लागू करके भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत प्रदान किए गए मौजूदा उचित प्रतिबंधों से परे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध लगा सकता है।

अनुच्छेद 19(2) का ऐतिहासिक विकास

इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले, न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 19(2) के विकास के इतिहास पर नज़र डाली।

संविधान सभा की बहस

न्यायालय ने सबसे पहले मसौदा समिति द्वारा राष्ट्रपति को सौंपी गई विभिन्न रिपोर्टों और संविधान के मसौदे को देखकर संविधान सभा की बहस के साथ-साथ अनुच्छेद 19 के खंड (1) और (2) के विकास पर चर्चा की। वर्तमान चर्चा के लिए प्रासंगिक मसौदा संविधान फरवरी 1948 (बीएसआर III, 522) में तैयार और प्रस्तुत किया गया है, जहां अनुच्छेद 13(2), वर्तमान अनुच्छेद 19(2) में उल्लेख है “कोई अन्य मामला जो शालीनता या नैतिकता के ख़िलाफ़ हो या राज्य के अधिकार या नींव को कमज़ोर करता हो” स्वतंत्र भाषण को प्रतिबंधित करने के आधारों में से एक के रूप में है।

खंडपीठ द्वारा संदर्भित मामले

संविधान सभा की बहसों की समीक्षा करने के बाद, न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के कई ऐतिहासिक न्यायिक निर्णयों की जांच की। न्यायालय द्वारा संदर्भित मामलों में निम्नलिखित शामिल हैं:-

न्यायालय  ने रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (1950) मामले पर चर्चा की, इस मामले में, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि साप्ताहिक पत्रिका के प्रसार पर वैधानिक प्रतिबंध अनुच्छेद 19(2) में उल्लिखित ‘राज्य की सुरक्षा’ के अंतर्गत आता है। यह प्रतिबंध मद्रास सरकार द्वारा मद्रास सार्वजनिक व्यवस्था रखरखाव अधिनियम, 1949 की धारा 9(1-A) के तहत लगाया गया था, जिसका उद्देश्य ‘सार्वजनिक सुरक्षा सुरक्षित करना या सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखना’ है। सर्वोच्च न्यायालय  ने जवाब दिया कि ऐसे कानून, जो मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करने के आधार के रूप में सार्वजनिक सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव जैसे व्यापक शब्दों का उपयोग करते हैं, उन्हें अनुच्छेद 19 (2) के तहत उचित प्रतिबंध के रूप में बरकरार नहीं रखा जा सकता है क्योंकि ये शर्तें संविधान द्वारा निर्धारित शर्तों से परे हैं। बृज भूषण एवं अन्य बनाम दिल्ली राज्य (1950) के मामले में भी यही कहा गया था। 

अनुच्छेद 19(2) में संशोधन

इन दो ऐतिहासिक निर्णयों के बाद विधायिका ने संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 से अनुच्छेद 19(2) में संशोधन किया। इस संशोधन, जिसे पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) प्रभाव दिया गया था, ने कई प्रतिबंध लगाए, जिनमें विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था और अपराध के लिए उकसाना शामिल था। इसमें ‘उचित प्रतिबंध’ शब्द भी जोड़ा गया, जिससे तर्कसंगतता की परीक्षा को अपनाना अनिवार्य हो गया। इस परीक्षण और प्रतिबंध की तर्कसंगतता का निर्धारण करने के लिए विचार किए जाने वाले कारकों को पहली बार सर्वोच्च न्यायालय  द्वारा स्पष्ट रूप से मद्रास राज्य बनाम वी.जी. पंक्ति (1952) मामले मे समझाया गया था। 

अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अधिकार का प्रयोग करने से भारत की संप्रभुता और अखंडता को खतरा हो सकता है। इसे राष्ट्रीय एकता परिषद और उसकी समिति की सिफारिशों द्वारा मान्यता दी गई थी जिसके कारण संविधान (सोलहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 से अनुच्छेद 19 के खंड (2) में “भारत की संप्रभुता और अखंडता” नामक एक नया प्रतिबंध जोड़ा गया था।

क्या अनुच्छेद 19(2) में उल्लिखित प्रतिबंध संपूर्ण हैं

प्रश्न संख्या 1 का पहला भाग यह है कि क्या अनुच्छेद 19(2) के तहत प्रदान किए गए उचित प्रतिबंध संपूर्ण हैं या क्या राज्य द्वारा भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई अन्य अतिरिक्त प्रतिबंध लगाया जा सकता है?

अदालत ने देखा कि अनुच्छेद 19 का खंड (2) न केवल प्रतिबंध प्रदान करता है, बल्कि मौजूदा कानूनों को भी बचाता है और राज्य को निर्धारित आधारों पर स्वतंत्र भाषण पर प्रतिबंध लगाने में सक्षम बनाता है। अदालत ने नोट किया कि भारतीय दंड संहिता, 1860 (इसके बाद “आईपीसी” के रूप में उल्लेख किया गया है), जो एक मौजूदा कानून है, में धारा 117, 124A, 153(1)(A), 153B, 171C, 228, 228A, 295A, 298, 351, 354, 354A, 354C, 354D, 354E, 355, 383, 390, 499, 504, 505(1)(B), 505(1)(C) और 509 जैसे कई प्रावधान हैं जो व्यक्तिगत व्यक्तियों, राज्य, अदालतों, समाज के कुछ वर्गों और अन्य संस्थाओं की रक्षा के लिए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करते हैं। अदालत ने यह भी नोट किया कि आईपीसी के अलावा कई अन्य अधिनियम हैं जो अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अधिकार पर प्रतिबंध लगाते हैं, जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, राष्ट्रीय गौरव अपमान निवारण अधिनियम, 1971, आदि।

इन वैधानिक प्रावधानों की सावधानीपूर्वक समीक्षा करने पर, यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुच्छेद 19(2) में उल्लिखित प्रतिबंध समाज के लिए सभी संभावित खतरों को समाहित करने के लिए पर्याप्त है, और इसलिए संपूर्ण हैं। यह तर्क सर्वोच्च न्यायालय पहले ही एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1985)  और सकल पेपर्स प्राइवेट लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ (1961) जैसे मामलों में दे चुका है, जहां न्यायालय ने दृढ़तापूर्वक फैसला सुनाया कि राज्य द्वारा स्वतंत्र भाषण पर लगाया गया कोई भी प्रतिबंध, जो अनुच्छेद 19(2) में उल्लिखित किसी भी आधार से संबंधित नहीं है, संवैधानिक रूप से अमान्य है। न्यायालय ने आगे इस बात पर प्रकाश डाला कि न केवल राज्य बल्कि उसकी एजेंसियां ​​भी कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकतीं, जिसका उल्लेख खंड (2) में नहीं किया गया है जैसा कि बिजोए इमैनुएल और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य (1986) के मामले में निर्णय लिया गया है। न्यायालय ने कहा कि यहां तक ​​कि राज्य और उसके उपकरणों के साथ-साथ अदालतों को भी अनुच्छेद 19(2) के दायरे को बढ़ाने या व्याख्या की शक्ति के माध्यम से अधिक आधार जोड़ने की अनुमति नहीं है। इस संदर्भ में, राम जेठमलानी और अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2011) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी का उल्लेख करना उचित है न्यायालय ने कहा: “एक तर्क दिया जा सकता है कि यह न्यायालय इस मामले की विशिष्ट परिस्थितियों में अपवाद बना सकता है… मौलिक सिद्धांतों और अधिकारों को अचानक अपवाद बनाने में एक अंतर्निहित खतरा है। वे अपवाद, धीरे-धीरे, मुख्य अधिकार की सामग्री को ही ख़त्म कर देंगे”।

इसके अलावा, न्यायालय ने विभिन्न अन्य देशों, अर्थात यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोपीय संघ और दक्षिण अफ्रीका गणराज्य में निर्धारित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों की ओर भी इशारा किया और कहा कि वे बहुत हद तक भारत के समान है। तुलनात्मक विश्लेषण जांचने के लिए फैसले का पैरा 31 देखें।

इस प्रकार, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि अनुच्छेद 19(2) के तहत प्रदान किए गए उचित प्रतिबंध संपूर्ण हैं और सक्षम प्राधिकारी कानून बनाता है जो अनुच्छेद 19 के खंड (2) में उल्लिखित आधारों के अनुरूप प्रतिबंध लगाने के लिए अधिकृत है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर राज्य है, न कि अदालतें। अपने अधिकार के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट करते हुए कहा कि “न्यायालय के लिए संवैधानिक योजना में परिकल्पित भूमिका, मौलिक अधिकारों के मंदिर में प्रतिबंधों के प्रवेश की सख्ती से जांच करने के लिए एक द्वारपाल (और विवेक रक्षक) की है। न्यायालय की भूमिका कानूनी प्रतिबंधों द्वारा सीमित मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है, न कि प्रतिबंधों की रक्षा करना और अधिकारों को अवशिष्ट (रेसिडुअल) विशेषाधिकार बनाना।

क्या अन्य मौलिक अधिकारों का उपयोग करके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई अन्य नए प्रतिबंध लगाए जा सकते है

प्रश्न संख्या 1 का दूसरा भाग यह है कि क्या भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अन्य मौलिक अधिकारों का उपयोग करके अनुच्छेद 19(2) में दिए गए प्रावधानों के अलावा अन्य आधार पर कोई अन्य नया प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

न्यायालय  ने कहा कि सकल पेपर्स प्राइवेट लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ (1961) मामले में इस प्रश्न का आंशिक रूप से उत्तर दिया गया है। इस मामले में, न्यायालय ने माना कि कोई भी स्वतंत्रता या मौलिक अधिकार दूसरे से बड़ा नहीं है और इसलिए, राज्य दूसरे मौलिक अधिकार के बेहतर आनंद के लिए एक अधिकार को कम या प्रतिबंधित नहीं कर सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को संतुलित करने के सिद्धांत के अनुप्रयोग के संबंध में अदालत के मित्र की दलीलों से सहमत हुआ। यह सिद्धांत अदालतों द्वारा तब लागू किया जाता है जब किसी दिए गए मामले में दो या दो से अधिक मौलिक अधिकारों का टकराव होता है, जैसा कि विभिन्न उदाहरणों में परिलक्षित होता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी भी कानून का मूल सिद्धांत ऐसी आचार संहिता घोषित करना है जहां एक व्यक्ति को अपने मौलिक अधिकारों का इस तरह से आनंद लेना चाहिए कि यह सुनिश्चित हो कि अन्य व्यक्तियों के मौलिक अधिकार प्रभावित नहीं हुए हैं। समाज में सभी व्यक्ति शांतिपूर्वक अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग कर सकते हैं यदि वे अन्य नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करते हुए समझदारी और जिम्मेदारी से कार्य करते हैं। दरअसल, आपसी सम्मान, मेलजोल और भाईचारे की भावना संविधान की प्रस्तावना अर्थात “भाईचारा” शब्द में निहित है।

उल्लेख किए गए उदाहरण

न्यायालय ने कुछ उदाहरणों का उल्लेख किया जहां अनुच्छेद 19(1)(a) और 21 विरोधाभासी थे और उन मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों की जांच की। संदर्भित मामले और अदालत की टिप्पणियाँ नीचे दी गई है।

संदर्भित मामले  मौलिक अधिकार जो विवाद में हैं प्रासंगिक न्यायालय/न्यायाधीश की टिप्पणियाँ
राजगोपाल बनाम तमिलनाडु राज्य (1994) अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21 के तहत सरकारी कर्मचारियों की निजता का अधिकार।  न्यायालय ने एक सामान्य नियम बनाया कि किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत पहलुओं जैसे कि उसका परिवार, विवाह और प्रजनन (रिप्रोडक्शन) , अन्य पहलुओं को व्यक्ति की सहमति के बिना सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है। हालांकि, इस सामान्य नियम का एक अपवाद है। कोई भी व्यक्ति किसी भी मामले पर टिप्पणी कर सकता है, चाहे वह सराहना हो या आलोचना, जिसे “सार्वजनिक रिकॉर्ड” के रूप में प्रकाशित किया जाता है, जिसमें न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय भी शामिल होते हैं। हालांकि, यदि किसी सार्वजनिक रिकॉर्ड में यौन अपराधों, अपहरण या इसी तरह के अपराधों की शिकार महिलाओं की गरिमा और विनम्रता शामिल है, तो मीडिया और व्यक्तियों को ऐसे संवेदनशील मामलों पर स्वतंत्र रूप से चर्चा करने से प्रतिबंधित किया जाता है। यह इन महिलाओं की गरिमा की रक्षा के लिए है।
पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम भारत संघ (1996) अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत मतदाताओं को सूचना का अधिकार और चुनावी उम्मीदवार के पति/पत्नी की निजता का अधिकार है।  न्यायमूर्ति वेंकटराम रेड्डी ने राय व्यक्त की कि सूचना के अधिकार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, क्योंकि यह जनता के व्यापक हितों की पूर्ति करता है। नतीजतन, निजता के अधिकार को मतदाताओं के सूचना के अधिकार के मुकाबले द्वितीयक माना जाना चाहिए। 
इन रे: ध्वनि प्रदूषण (वी.) अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 21 के तहत प्रदूषण मुक्त वातावरण के अधिकार का प्रयोग करके लाउडस्पीकर का उपयोग करना।  शोर मचाने वाले व्यक्तियों ने तर्क दिया कि उनके कार्य संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत दी गई भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता द्वारा संरक्षित हैं। हालांकि, अदालत ने पुष्टि की कि यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है। इसने फैसला सुनाया कि व्यक्ति, उदाहरण के लिए, लाउडस्पीकर का उपयोग करके और दूसरों को अपना भाषण सुनने के लिए मजबूर करके शोर नहीं पैदा कर सकते। इस तरह की कार्रवाइयां पड़ोसियों के शांतिपूर्वक अपनी संपत्ति का आनंद लेने और ध्वनि प्रदूषण से मुक्त वातावरण पाने के अधिकार का उल्लंघन करती हैं। न्यायालय  ने कहा कि अनुच्छेद 19(1)(a), अनुच्छेद 21 को पराजित नहीं कर सकता।
राम जेठमलानी और अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2011) अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत नागरिकों को जानने का अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत विदेशी बैंक खाताधारकों की गोपनीयता का अधिकार।  न्यायालय ने कहा कि, लोकतंत्र में, नागरिकों को राज्य की गतिविधियों के बारे में सूचित होने, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने का अधिकार है। हालांकि, इस अधिकार का प्रयोग साथी नागरिकों के खिलाफ इस तरह से नहीं किया जा सकता है जिससे उनकी निजता के अधिकार का उल्लंघन हो। इस तरह के उल्लंघन से अवांछनीय सामाजिक व्यवस्था पैदा हो सकती है।
सहारा इंडिया रियल एस्टेट कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (2012) अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत प्रेस की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार लोगों और मीडिया की स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर एक उचित प्रतिबंध है। प्रचार स्थगन आदेश से निपटते हुए, न्यायालय ने माना कि इस तरह का आदेश, अस्थायी अवधि के लिए, केवल असाधारण मामलों में प्रेस के खिलाफ पारित किया जा सकता है, जहां पारित नहीं होने पर न्याय प्रशासन और मुकदमे की निष्पक्षता में गड़बड़ी होगी।
थलप्पलम सर्विस कोऑपरेटिव बैंक लिमिटेड और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य (2013) अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत नागरिकों को जानने का अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत सहकारी बैंक खाताधारकों की गोपनीयता का अधिकार।  न्यायालय ने माना कि कुछ व्यक्तियों की गोपनीयता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता क्योंकि उनकी जानकारी सार्वजनिक हित से अधिक किसी बड़े उद्देश्य की पूर्ति नहीं करती है। यदि कोई महत्वपूर्ण सार्वजनिक हित शामिल है, तो व्यक्तियों को जानकारी का खुलासा करने की आवश्यकता हो सकती है; अन्यथा, उनकी गोपनीयता की रक्षा की जानी चाहिए।
सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ, कानून मंत्रालय और अन्य (2016) अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21 के तहत किसी साथी व्यक्ति की गरिमा और प्रतिष्ठा का अधिकार।   न्यायालय ने माना कि किसी व्यक्ति को अपने स्वतंत्र भाषण के अधिकार का इस तरह से आनंद लेने की अनुमति नहीं है जो किसी अन्य व्यक्ति की प्रतिष्ठा को धूमिल करता हो क्योंकि स्वतंत्र भाषण एक योग्य अधिकार है और इसका प्रयोग किसी अन्य को बदनाम किए बिना किया जाना चाहिए। यहां, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि “मानहानि” अनुच्छेद 19(2) में मौजूद है।

पूर्वोक्त उदाहरणों के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि यह स्पष्ट है कि अदालत किसी भी स्थिति के साथ दो मौलिक अधिकारों के विवाद होने पर संतुलन बनाएगी और आगे यह भी कहा कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अन्य मौलिक अधिकारों को शामिल करके प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता जो अनुच्छेद 19(2) से परे हैं। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरथना ने अपने अलग मत में बहुमत के निष्कर्ष और पहले प्रश्न के बारे में अनुपात निर्णय के साथ सहमति व्यक्त की।

गैर-राज्य कर्ताओं के विरुद्ध मौलिक अधिकारों को लागू करना

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विचार किया गया दूसरा प्रश्न अनुच्छेद 19 (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत ‘राज्य’ या उसके उपकरणों के अलावा अन्य संस्थाओं के खिलाफ मौलिक अधिकारों की प्रवर्तनीयता से संबंधित है।

जैसा कि न्यायालय में देखा गया अंतर्निहित प्रश्न यह है कि क्या मौलिक अधिकारों का ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) या क्षैतिज प्रभाव होता है। प्रश्न का उत्तर देने से पहले, अदालत ने इन शब्दों का अर्थ बताते हुए कहा कि इस दुनिया का हर देश इन दोनों दृष्टिकोणों का पालन करता है, जैसा कि नीचे दिया गया है।

  • ऊर्ध्वाधर प्रभाव: जब कोई संवैधानिक प्रावधान केवल उन लेनदेन को नियंत्रित करता है जहां एक पक्ष राज्य और/या उसकी एजेंसियां ​​हैं, तो प्रावधान को अनुप्रयोग का ऊर्ध्वाधर प्रभाव कहा जाता है। यह दृष्टिकोण व्यक्तिगत स्वायत्तता, पसंद और गोपनीयता पर अधिक जोर देता है।
  • क्षैतिज प्रभाव: जब कोई संवैधानिक प्रावधान केवल उन लेनदेन को नियंत्रित करता है जहां दोनों पक्ष निजी व्यक्ति या संस्थाएं हैं, तो प्रावधान को क्षैतिज रूप से लागू करने का प्रभाव कहा जाता है। इस दृष्टिकोण का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति में संवैधानिक मूल्यों और भावना को बनाए रखना है।

अन्य देशों में स्थिति

न्यायालय विभिन्न अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय मामलों जैसे जोन्स बनाम अल्फ्रेड एच मेयर कंपनी (1968) और शेली बनाम क्रेमर (1948) का विश्लेषण करता है।इन मामलों में, अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने अमेरिकी संविधान की चौदहवाँ संशोधन के समान सुरक्षा खंड को बरकरार रखकर अफ्रीकी और एशियाई अमेरिकियों को नस्लीय भेदभावपूर्ण अनुबंधों से बचाने के लिए संवैधानिक अधिकारों को अनुबंध अधिकारों पर अधिक वरीयता दी, और इस प्रकार, निजी व्यक्तियों को संवैधानिक दायित्वों का पालन करने के लिए बाध्य किया। इस विश्लेषण से, अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि यू.एस.ए. ने भी क्षैतिज दृष्टिकोण अपनाना शुरू कर दिया।

जबकि, आयरिश सर्वोच्च न्यायालय  ने व्याख्या की कि उसके संवैधानिक अधिकारों में पूर्ण क्षैतिज दृष्टिकोण है, ऐसा ही एक उदाहरण जॉन मेस्केल बनाम आयरिश परिवहन प्रणाली (1973), का है जहां निजी खिलाड़ियों को संघ बनाने के उनके अधिकार का उल्लंघन करने पर नियोक्ता को मुआवजा देने का आदेश दिया जाता है।

दक्षिण अफ्रीकी संविधान में, नागरिकों को एक साथ कई अधिकार प्रदान किए गए हैं और न केवल राज्य, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को इसका उल्लंघन नहीं करने के लिए बाध्य किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय  ने दक्षिण अफ्रीका के संवैधानिक न्यायालय द्वारा किए गए विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों और उनकी व्याख्याओं का उल्लेख किया, जहां नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने की स्थिति में उन्हें गैर-राज्य कर्ताओं के खिलाफ लागू किया जाता है, जो उन्हें साथी लोग के अधिकारों में हस्तक्षेप न करने के लिए बाध्य करते हैं।

भारत में स्थिति

संविधान के भाग III के तहत उल्लिखित सभी प्रावधानों की जांच करने के बाद, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कुछ मौलिक अधिकार जैसे कि अधिकार अनुच्छेद 15(2)(a) और (b), 17, 20(2), 20(3) 21, 23, 24 और 29(2) यदि उनका उल्लंघन किया जाता है तो गैर-राज्य कर्ता के खिलाफ लागू किया जा सकता है।

उल्लेख किए गए उदाहरण

न्यायालय  ने गैर-राज्य कर्ताओं के खिलाफ मौलिक अधिकारों की प्रवर्तनीयता पर अदालत के रुख के विकास को समझने के लिए सर्वोच्च न्यायालय  द्वारा बनाई गई कुछ मिसाल का हवाला दिया। संदर्भित मामले और अदालत की टिप्पणियाँ नीचे दी गई है।

संदर्भित मामले  प्रश्नगत मुद्दा और मौलिक अधिकार प्रासंगिक न्यायालय/न्यायाधीश की टिप्पणियाँ
पी.डी. शामदासानी बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड (1952) याचिकाकर्ता के शेयर प्रतिवादी द्वारा ग्रहणाधिकार (राइट टू लियान)  के अपने अधिकार का प्रयोग करके बेच दिए जाते हैं। याचिकाकर्ता ने दलील दी कि अनुच्छेद 19(1)() और 31(1) के तहत उसके अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। अनुच्छेद 31(1) और 21 एक सामान्य वाक्यांश साझा करते हैं, “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर”। इसका तात्पर्य यह है कि, यदि निजी संस्थाएँ इन अधिकारों का उल्लंघन करती हैं, तो राज्य उनका पालन करने के लिए बाध्य नहीं है और इसलिए, इन मामलों में कोई रिट नहीं होगी। श्रीमती विद्या वर्मा बनाम डॉ. शिव नारायण वर्मा (1956) के मामले में यह दृष्टिकोण दोहराया गया था।
सुखदेव सिंह और अन्य बनाम बगतराम सरदार सिंह रघुवनसी (1975) क्या अनुच्छेद 14 और 16 एक वैधानिक निगम के विरुद्ध लागू किया जाता है। न्यायमूर्ति के.के. मैथ्यू ने अपनी अलग लेकिन सहमत राय में कहा कि यदि किसी निजी व्यक्ति के दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन करने का कार्य राज्य द्वारा समर्थित नहीं है, तो यह राज्य की कार्रवाई नहीं है और इसलिए, राज्य इसके लिए उत्तरदायी नहीं हो सकता है।
पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम भारत संघ  (1996) क्या अनुच्छेद 24 के तहत अधिकारों को ठेकेदारों के खिलाफ लागू किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि यह सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है कि ठेकेदार संवैधानिक प्रावधानों का पालन कर रहे हैं। क्योंकि अनुच्छेद 24 प्रत्येक व्यक्ति के खिलाफ लागू करने योग्य है, न्यायालय ने निर्णय लिया कि इन मौलिक अधिकारों को पूरी दुनिया के खिलाफ लागू किया जा सकता है।
एस रंगराजन बनाम पी जगजीवन राम (1989) मद्रास उच्च न्यायालय ने एक तमिल फिल्म का ‘यू’ प्रमाणपत्र रद्द कर दिया, जिसे तमिलनाडु सरकार ने उस फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए सार्वजनिक विरोध के आधार पर समर्थन दिया था। न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार द्वारा दिए गए कारणों पर आश्चर्य व्यक्त किया और मौलिक अधिकारों की रक्षा के संवैधानिक कर्तव्य के तहत, यह माना कि राज्य उन अधिकारों की रक्षा करेगा जो उन्हें जनता की राय और उनके विरोध पर विचार किए बिना प्रदान किए गए हैं। न्यायालय ने निर्णय लिया कि सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने में असमर्थता कोई बहाना नहीं है।
श्रीमती नीलाबती बेहरा उर्फ ​​ललिता बेहरा (सर्वोच्च न्यायालय  कानूनी सहायता समिति के माध्यम से) बनाम उड़ीसा राज्य और अन्य (1993)  अपनी एजेंसियों द्वारा किए गए अपकृत्यों और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में संप्रभु प्रतिरक्षा के सिद्धांत की प्रयोज्यता पर चर्चा की और अंतर किया। न्यायमूर्ति डॉ. ए.एस. आनंद ने अपनी अलग लेकिन सहमत राय में आर्थिक मुआवजे के प्रावधान पर जोर दिया और इसे सख्त दायित्व की अवधारणा में निहित एक सार्वजनिक कानून उपाय के रूप में देखा। न्यायमूर्ति ने यह भी कहा कि इस तरह का मुआवजा, जो आम तौर पर अनुकरणीय (एक्जेम्पलरी)  क्षति है, गलत काम करने वाले के लिए सजा के रूप में और लोगों के अधिकारों की रक्षा के अपने सार्वजनिक कर्तव्य को पूरा करने में विफल रहने के लिए राज्य पर दायित्व के रूप में भी निर्धारित होता है। उन्होंने आगे स्पष्ट किया कि यह सार्वजनिक कानून उपाय नागरिक और आपराधिक उपचारों के अलावा पीड़ित पक्ष के लिए उपलब्ध है।
लखनऊ विकास प्राधिकरण बनाम एम.के. गुप्ता (1994) प्रशासनिक कानून के तहत राज्य का दायित्व।  न्यायालय ने कहा कि राज्य को उन पीड़ित नागरिकों को मुआवजा देकर जवाबदेह बनाया जाएगा जिन्हें सरकार के कर्मचारियों की मनमानी और अधिकारातीत कार्यों के कारण चोट लगी है। 
बोधिसत्व गौतम बनाम मेसर्स सुभ्रा चक्रवर्ती (1995) अभियोजन के लंबित रहने के दौरान पति द्वारा मासिक भरण-पोषण न्यायालय ने माना कि यह अनुच्छेद 21 के तहत महिला के अधिकार के उल्लंघन का मामला है और इस प्रकार, आरोपी पति, एक गैर-राज्य अभिनेता, को पीड़ित पत्नी को मासिक अंतरिम मुआवजा देने का निर्देश दिया।
एम.सी. मेहता बनाम कमल नाथ एवं अन्य (1996) पर्यावरणीय क्षति की भरपाई के लिए एक क्लब के मालिक, निजी व्यक्ति का दायित्व।  न्यायालय ने “प्रदूषक भुगतान सिद्धांत” और “एहतियाती (प्रिकॉशनेरी) सिद्धांत” लागू किया और निजी व्यक्ति को पर्यावरण को उसकी मूल स्थिति में बहाल करने के लिए लागत का भुगतान करने का आदेश दिया।
उपभोक्ता शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1995) अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 226 के तहत रिट अधिकार क्षेत्र  के प्रयोग में एक उपाय के रूप में मुआवजा।  न्यायालय ने कहा कि राज्य या उसकी एजेंसियों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में मुआवजा सबसे व्यावहारिक और सस्ता उपाय है।
विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (1997) कामकाजी महिलाओं ने लैंगिक समानता के अपने अधिकार को लागू करने और अपने कार्यस्थल पर एक कामकाजी महिला के प्रति यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए एक वर्ग कार्रवाई याचिका दायर की।  न्यायालय ने कामकाजी महिलाओं के लैंगिक समानता के अधिकार को लागू करने के लिए दिशा निर्देश निर्धारित किए। ऐसे दिशानिर्देश न केवल राज्य के लिए बल्कि निजी नियोक्ताओं के लिए भी बाध्य हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने मेधा कोटवाल लेले एवं अन्य बनाम भारत संघ (2013) के मामले में अपना निर्देश दोहराया और राज्य पदाधिकारियों और निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के निकायों को तत्काल ऐसे तंत्र स्थापित करने का आदेश दिया जैसा कि विशाखा दिशा निर्देश मे आदेश दिया गया है। 
गीता हरिहरन (सुश्री) एवं अन्य बनाम भारतीय रिज़र्व बैंक एवं अन्य (1999) हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6(a)और संरक्षक एवं प्रतिपाल्य (वार्ड) अधिनियम, 1890 की धारा 19(b) के प्रावधान, जो बच्चे के नाम पर पिता को बच्चे और संपत्तियों का प्राकृतिक संरक्षक मानते हैं, को चुनौती दी गई है क्योंकि अलग हो चुकी माताओं को समस्याओं का सामना करना पड़ा था। प्रावधानों के अनुसार, “पिता के बाद” माँ ही प्राकृतिक संरक्षक होगी। अनुच्छेद 21 और 14 के तहत क्रमशः माताओं के गरिमा और लैंगिक समानता के अधिकार का आह्वान करते हुए, इस मुद्दे के विभिन्न पहलुओं की जांच करने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने “बाद में” शब्द की व्याख्या “अनुपस्थिति में” के रूप में करने का निर्णय लिया।
भारतीय चिकित्सक संघ बनाम भारत संघ (2011) आर्मी चिकित्सा विज्ञान विद्यालय प्रवेश परीक्षा आयोजित करके केवल सेना कर्मियों के बच्चों को प्रवेश देता है। गैर-सैन्य कर्मियों ने इस नीति को चुनौती दी क्योंकि यह उनके प्रति भेदभावपूर्ण और अनुच्छेद 15 का  उल्लंघन है।  न्यायालय  ने कहा कि, जब आप अनुच्छेद 15(2) पढ़ते हैं, साथ ही प्रस्तावना और अनुच्छेद 14, 15, 16, और 38, इससे यह समझा जाता है कि शैक्षणिक संस्थानों को, निजी संस्था होते हुए भी, अपने संस्थानों का प्रबंधन इस तरह से करना चाहिए कि वे उन वर्गों को भेदभाव को बढ़ावा न दें जो पहले से ही भेदभाव का सामना कर रहे हैं।
राजस्थान के गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों के लिए सोसायटी बनाम भारत संघ (2012) क्या बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 की धारा 12 जो सार्वजनिक और निजी स्कूलों को हाशिए के लोगों को एक-चौथाई सीटें आवंटित करने का आदेश देता है, संवैधानिक रूप से वैध था और क्या यह प्रावधान अनुच्छेद 19(1)(g) और 30 का उल्लंघन करता है जो उन लोगों ने निजी स्कूल स्थापित किए हैं?  न्यायालय ने माना कि उक्त प्रावधान, अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के साथ, राज्य को न केवल बच्चों के अधिकारों को प्रदान करने बल्कि उनकी रक्षा करने के लिए बाध्य करते हैं, यहां तक ​​कि गैर-राज्य कर्ताओ  के खिलाफ भी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उन अधिकारों का कोई उल्लंघन न हो।
जीजा घोष और अन्य  बनाम भारत संघ एवं अन्य (2016) फ्लाइट क्रू ने याचिकाकर्ता, जो सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित है, को उसकी विकलांगता के कारण निजी कंपनी स्पाइसजेट एयरलाइन की फ्लाइट से उतरने का अनादरपूर्वक निर्देश दिया। अदालत ने निजी एयरलाइंस को याचिकाकर्ता की गरिमा, समानता और स्वतंत्र आवाजाही के मौलिक अधिकारों समेत अन्य अधिकारों के उल्लंघन के लिए मुआवजा देने का आदेश दिया। इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में भारत संघ, प्रतिवादी 1, यह देखने के लिए बाध्य है कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जाती है और उनका उल्लंघन नहीं किया जाता है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि नागरिकों, विशेष रूप से विकलांग व्यक्तियों को अपमान और भेदभाव का सामना न करना पड़े।
ज़ी टेलीफिल्म्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2005) इस मामले में यह सवाल उठाया गया है कि क्या बीसीसीआई उनके खिलाफ मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए राज्य है। न्यायालय ने घोषणा की कि बीसीसीआई अनुच्छेद 12 के अनुसार एक राज्य माने जाने वाले मानदंडों को पूरा नहीं करता है। इसलिए, कोई भी बीसीसीआई के खिलाफ अनुच्छेद 32 के तहत मौलिक अधिकारों को लागू नहीं कर सकता है। इसके अलावा, न्यायालय ने बीसीसीआई द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में सामान्य अदालतों से संपर्क करने या अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका दायर करने के उपाय प्रदान किए। न्यायालय ने कहा कि “किसी संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करने वाला केवल इसलिए बच नहीं सकता क्योंकि वह एक राज्य नहीं है।”

सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति केएस पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2018) के मामले में नौ-न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय पीठ द्वारा किए गए निर्णय पर काफी हद तक भरोसा किया, इसमें कहा गया है कि अधिकार दो प्रकार के होते हैं, अर्थात् सामान्य कानून अधिकार और संवैधानिक अधिकार, जिनमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं, और हितों को सामान्य कानून अधिकार और संवैधानिक अधिकार दोनों के रूप में माना जा सकता है। न्यायालय ने आगे फैसला सुनाया कि, यदि राज्य और उसकी एजेंसियों द्वारा संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है, तो अनुच्छेद 32 और 226 के तहत उपचार मांगा जा सकता है; यदि उल्लंघनकर्ता राज्य के अलावा कोई निजी व्यक्ति या निकाय है, तो सामान्य कानून की कार्रवाई सामान्य अदालत में होगी।

अंत में, दूसरे सवाल के जवाब में सर्वोच्च न्यायालय  ने कहा कि इस सवाल के जवाब का कुछ हिस्सा के.एस. पुट्टास्वामी के मामले से मिलता है। न्यायालय का अंतिम उत्तर यह था कि “अनुच्छेद 19/21 के तहत मौलिक अधिकार को राज्य या उसके उपकरणों के अलावा अन्य व्यक्तियों के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है।

अनुच्छेद 19 की अपेक्षा अनुच्छेद 21 की रक्षा करना राज्य का दायित्व है

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विचार किया गया तीसरा प्रश्न यह है कि क्या संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तियों के अधिकारों की सकारात्मक रूप से रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है, भले ही वह किसी अन्य नागरिक या निजी एजेंसी के कार्यों या चूक से नागरिक की स्वतंत्रता के लिए खतरा हो।

न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 21 में “राज्य” शब्द का उल्लेख नहीं है; यह बस कहता है “किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा”। इसका तात्पर्य यह है कि राज्य यह सुनिश्चित करने के लिए ज़िम्मेदार है कि अनुच्छेद 12 में उल्लिखित इस अधिकार का किसी भी व्यक्ति के लिए उल्लंघन नहीं किया जाता है जब तक कि यह कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के साथ संरेखित न हो। हमारी स्वतंत्रता की शुरुआत में, आवश्यक सेवाएँ जिनमें किसी के जीवन का अधिकार शामिल है, केवल राज्य द्वारा ही प्रदान की जाती थीं। लेकिन, अब, निजी खिलाड़ियों को भी जनता को ऐसी सेवाएं प्रदान करने की अनुमति है। इसके अतिरिक्त, व्यापक अधिकारों के तहत अंतर्निहित अधिकार, जैसे कि अनुच्छेद 21 के तहत ‘जीवन का अधिकार’, अदालती व्याख्याओं और मिसालों के कारण समय के साथ विस्तारित हुए हैं। इन परिवर्तनों के कारण अदालतों को रिट याचिका की अनुमति के लिए परीक्षण या निर्णायक तत्वों को संशोधित करना पड़ा। प्रारंभ में, परीक्षण यह पहचानने के लिए था कि प्रतिवादी कौन है – यदि प्रतिवादी राज्य है, तो रिट याचिका बरकरार रखी जाती है; अन्यथा, इसे खारिज कर दिया जाता है। लेकिन, अब, यह देखने के लिए कि कोई रिट याचिका सुनवाई योग्य है या नहीं, अदालत द्वारा अपनाई जाने वाली परीक्षा प्रतिवादी द्वारा निभाए जा रहे कार्यों या कर्तव्यों और लोगों के अधिकारों पर इसके प्रभाव की जांच करना है।

न्यायालय ने सबसे पहले अनुच्छेद 21 द्वारा विचारित व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा और गैर-राज्य कर्ता द्वारा इसके अभाव की जांच करने का निर्णय लिया, और फिर इसकी रक्षा करने के लिए राज्य के कर्तव्य के मुख्य प्रश्न का उत्तर दिया। न्यायालय स्वयं को ‘जीवन के अधिकार’ के अलावा ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार’ की चर्चा तक ही सीमित रखना चाहता है, क्योंकि मुख्य प्रश्न में पूर्व शामिल है।

अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता

न्यायालय  ने सिद्धराम सतलिंगप्पा म्हेत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2011) मामले का हवाला दिया जहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा की विस्तृत व्याख्या, जिसमें ग्रीक सभ्यता में इसकी उत्पत्ति भी शामिल है, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रदान की गई है।

उल्लेख किए गए उदाहरण

न्यायालय ने “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” की अभिव्यक्ति की न्यायालय की व्याख्या के विकास को समझने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई कुछ मिसालों का उल्लेख किया। संदर्भित मामले और अदालत की टिप्पणियाँ नीचे दी गई है।

संदर्भित मामले  प्रासंगिक न्यायालय/न्यायाधीश की टिप्पणियाँ
ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) न्यायालय ने माना कि अभिव्यक्ति “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का तात्पर्य किसी व्यक्ति की शारीरिक संयम और जबरदस्ती से स्वतंत्रता है जो वैधानिक कानूनों में प्रदान की गई प्रक्रिया नहीं है। इसलिए, अनुच्छेद 21 के अनुसार, न्यायालय ने माना कि प्रत्येक व्यक्ति को अनधिकृत गिरफ्तारी और हिरासत से स्वतंत्रता है।
खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (1962) न्यायमूर्ति के.सुब्बा राव ने अपनी अल्पमत राय में कहा कि, एक उन्नत और सभ्य समाज में, मानव मनोविज्ञान के संदर्भ में मनोवैज्ञानिक प्रतिबंध शारीरिक प्रतिबंधों से अधिक प्रभावी हैं। इसलिए, व्यक्तिगत स्वतंत्रता न केवल शारीरिक गतिविधियों को प्रतिबंधित होने से बचाती है बल्कि किसी के निजी जीवन में घुसपैठ से भी बचाती है।
गोबिंद बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य (1975) किसी व्यक्ति की उसके घर पर गोपनीयता की सुरक्षा पर जोर दिया गया।
सतवंत सिंह साहनी बनाम डी. रामरत्नम, सहायक पासपोर्ट अधिकारी, नई दिल्ली (1967) न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 21 में आवाजाही के अधिकार और विदेश यात्रा के अधिकार को भी शामिल किया गया है, जिसे बाद में मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) मामले मे सात न्यायाधीशों की पीठ ने बरकरार रखा था। न्यायालय ने आगे कहा कि अनुच्छेद 21 में “स्वतंत्रता” अमेरिकी संविधान के पांचवें और चौदहवें संशोधन में उल्लिखित “स्वतंत्रता” के समान है और इसमें अनुच्छेद 19 के तहत उल्लिखित और प्रदान की गई स्वतंत्रताएं शामिल नहीं हैं।
मिस्टर ‘एक्स’ बनाम हॉस्पिटल ‘जेड’ (1998) न्यायालय ने माना कि एचआईवी रोगी की निजता के अधिकार का उल्लंघन करने के लिए अस्पताल उत्तरदायी नहीं है क्योंकि इस निजी तथ्य के खुलासे से संभावित रूप से उसकी मंगेतर की जान बच गई। हालांकि, न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत अधिकारों के बंडल के एक भाग के रूप में निजता के अधिकार पर भी जोर दिया और डॉक्टरों का अपने और मरीज के बीच गोपनीयता बनाए रखने का नैतिक और कानूनी दायित्व है। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी मरीज की निजता का अधिकार पूर्ण नहीं है और दूसरों के अधिकारों की रक्षा के लिए इसमें कटौती की जा सकती है। 

न्यायालय ने कुछ मामलों का उल्लेख किया जहां सर्वोच्च न्यायालय ने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य के दायित्व पर चर्चा की, जो नीचे दिए गए हैं।

संदर्भित मामले  प्रासंगिक न्यायालय/न्यायाधीश की टिप्पणियाँ
बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ एवं अन्य (1982) न्यायालय ने पत्थर खदानों में बंधुआ मजदूरों की अमानवीय कार्य स्थितियों के संबंध में एक शिकायत का समाधान किया। इस मामले में रिट याचिका की स्थिरता पर सवाल उठाया गया था। न्यायालय  ने जवाब देते हुए कहा कि यह मुद्दा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जुड़ा है। चाहे श्रमिक बंधुआ हों या नहीं, न्यायालय को जबरन मजदूरी के मामलों की ऐसी शिकायतों की जांच करनी चाहिए। निष्कर्षों के आधार पर, न्यायालय को राज्य को सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए उचित उपाय करने का निर्देश देना चाहिए। 
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बनाम अरुणाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (1996) निर्देश जारी करते हुए न्यायालय  ने कहा कि पीड़ित समूह को दूसरी भीड़ के हमलों से बचाना राज्य का संवैधानिक और वैधानिक कर्तव्य है।
पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम भारत संघ  (1997) न्यायालय ने माना कि टेलीफोन टैपिंग को किसी के निजी जीवन में घुसपैठ कहा जाता है और इसलिए, यह निजता के अधिकार का उल्लंघन है। इसका उल्लंघन केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया की स्थिति में ही किया जा सकता है, अन्यथा नहीं।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले का उल्लेख करते हुए कहा कि यह निर्णय उस समय अर्थात् 1997 में दिया गया था, जब मोबाइल एक विशेषाधिकार थे, न कि बहुत आम आदमी के लिए एक नया सामान्य, और दूरसंचार सेवाएं भी ज्यादातर राज्य द्वारा एकाधिकार थीं। लेकिन अब, स्थिति में एक बड़ा बदलाव आया है। अधिकांश सेवा प्रदाता निजी कंपनियां हैं। इसे देखते हुए अदालत ने कहा कि यदि गैर-राज्य कर्ता के खिलाफ प्रयोग योग्य नहीं है तो व्यक्तियों के निजता के अधिकार को खतरा होगा।
अरुमुगम सर्वई बनाम तमिलनाडु राज्य (2011) विवाह में चयन की स्वतंत्रता अनुच्छेद 21 में अंतर्निहित है और पुलिस तंत्र सहित राज्य, इसकी रक्षा करने के लिए बाध्य है। न्यायालय ने आगे कहा कि राज्य का कर्तव्य पीड़ितों को मुआवजा देने तक ही समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए उनका पुनर्वास करना भी अनिवार्य है। शक्ति वाहिनी बनाम भारत संघ एवं अन्य (2018) में भी इसी तरह कहा गया था। 

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय  ने मोहम्मद आरिफ @ अशफाक बनाम रजिस्ट्रार, भारत का सर्वोच्च न्यायालय और अन्य (2014) मामले में न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन की टिप्पणियों का हवाला दिया। इस मामले में, न्यायाधीश ने काल्पनिक पिरामिड संरचना में जीवन को सबसे ऊपर माना, जिसके बाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता, जिसमें अधिकारों के सभी न्यायिक रूप से मान्यता प्राप्त बंडल शामिल हैं, दूसरे स्थान पर आती है।

उपर्युक्त अदालत के अवलोकन और दिए गए तर्क से, वर्तमान मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि “राज्य का कर्तव्य है कि वह अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति के अधिकारों की सकारात्मक रूप से रक्षा करे, जब भी किसी गैर-राज्य अभिनेता द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता को खतरा हो ” और “अनुच्छेद 19 और 14 के तहत गारंटीकृत अन्य सभी अधिकारों से ऊपर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के महत्व पर शायद ही अधिक जोर देने की आवश्यकता है।

एक मंत्री के बयानों के लिए राज्य का दायित्व

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विचार किया गया पहला प्रश्न यह था कि क्या किसी मंत्री का बयान, जो राज्य के किसी भी मामले से जुड़ा हो या सरकार की रक्षा के लिए हो, के लिए प्रत्यावर्ती रूप से सरकार को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, खासकर सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का पालन करते हुए।

प्रारंभ में, न्यायालय ने हमारी संवैधानिक योजना के अनुसार एक मंत्री की भूमिका की जांच की। न्यायालय  ने भाग V और भाग VI और अनुच्छेद 74, 75, 75(3), 77, 77(3) और 78 जो केंद्रीय विधायिका के विभिन्न पहलुओं से संबंधित है की समीक्षा की। राज्य विधानमंडल से संबंधित समान प्रावधान क्रमशः अनुच्छेद 163, 164, 164(2), 166, 166(3) और 167 के तहत प्रदान किए गए हैं।

जब “सामूहिक जिम्मेदारी” का मुद्दा उठता है, तो कोई अनुच्छेद 75(3) और 164(2) का उल्लेख करेगा, जिसमें कहा गया है कि केंद्रीय मंत्रियों, राज्य मंत्रियों के मामले में या राज्य विधान सभा के मामले में मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदार है। वर्तमान मामले में न्यायालय का विचार है कि उक्त प्रावधान मंत्रिपरिषद के निर्णयों और गतिविधियों का उल्लेख कर रहे हैं, न कि उनके द्वारा दिए गए प्रत्येक बयान का।

उल्लेख किए गये उदाहरण

न्यायालय ने सामूहिक जिम्मेदारी और राज्य दायित्व की अवधारणा की पहले से स्थापित व्याख्याओं को समझने के लिए सर्वोच्च न्यायालय  द्वारा निर्धारित कई मिसालो की जांच की। संदर्भित मामले और अदालत की टिप्पणियाँ नीचे दी गई है।

संदर्भित मामले  प्रासंगिक न्यायालय/न्यायाधीश की टिप्पणियाँ
ए. संजीवी नायडू बनाम मद्रास राज्य (1970) अनुच्छेद 166(3) से निपटते समय, न्यायालय ने कहा कि “मंत्रिमंडल किसी भी मंत्रालय में की गई प्रत्येक कार्रवाई के लिए विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी है। यही संयुक्त जिम्मेदारी का सार है”। 
वर्तमान मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायालय ने संजीवी नायडू के मामले में “सामूहिक जिम्मेदारी” नहीं, बल्कि “संयुक्त जिम्मेदारी” अभिव्यक्ति का प्रयोग किया गया।
कर्नाटक राज्य बनाम भारत संघ (1977) न्यायालय ने अनुच्छेद 164(2) की व्याख्या करते हुए कहा कि सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा का उद्देश्य मंत्री पदों पर बैठे सभी व्यक्तियों को अन्य मंत्रियों द्वारा लागू किए गए कार्यों, निर्णयों और नीतियों के लिए प्रत्यावर्ती रूप से जवाबदेह बनाना है, भले ही वे व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी मंत्री न हों। न्यायालय ने आगे इस बात पर प्रकाश डाला कि इस अवधारणा का एक राजनीतिक उद्देश्य, उत्पत्ति और संचालन है। न्यायालय ने यह भी कहा कि, परंपरा के अनुसार, मंत्री को अपने गलत कार्यों और निर्णयों के कारण पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया जा सकता है; हालांकि, उक्त सामूहिक जिम्मेदारी को लागू करने का एकमात्र तरीका जनता की राय के दबाव के कारण, संसद या राज्य विधान सभा के सदस्यों द्वारा राजनीतिक समर्थन वापस लेना है।
उपरोक्त न्यायालय की व्याख्याओं और टिप्पणियों से, सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि “सामूहिक उत्तरदायित्व के प्रवर्तन के लिए एकमात्र मंजूरी जनमत का दबाव है”।
आर.के. जैन बनाम भारत संघ (1993) न्यायालय ने मंत्रिपरिषद के कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से समझाया। ऐसा कहा गया था कि मंत्रिपरिषद अपने-अपने मंत्री पद पर तब तक बने रहते हैं जब तक कि वे संसद या विधानसभा में बहुमत का विश्वास बनाए रखते हैं। उन्हें गोपनीयता बनाए रखने की भी आवश्यकता होती है। इसके अलावा, न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि प्रत्येक मंत्री को, सरकारी नीतियों पर अपने व्यक्तिगत विचारों की परवाह किए बिना, प्रभावी शासन सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा बनाई गई सभी नीतियों और निर्णयों का सार्वजनिक रूप से समर्थन करना आवश्यक है। यदि कोई मंत्री सरकार की नीतियों का समर्थन करने में असमर्थ है, तो उसके पास अपने पद से इस्तीफा देना ही एकमात्र विकल्प है। इसलिए, जब तक मंत्री अपने पद पर है, उसे केन्द्रीय मंत्रिपरिषद के निर्णयों का समर्थन करना चाहिए।
सचिव, जयपुर विकास प्राधिकरण, जयपुर बनाम दौलत मल जैन (1997) न्यायालय ने माना कि यद्यपि सभी कार्यकारी कार्य राज्यपाल के नाम पर और नौकरशाहों की सहायता से किए जाते हैं, फिर भी प्रत्येक मंत्री सरकारी नीतियों और निर्णयों के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से जिम्मेदार होने के कारण लोगों के प्रति जवाबदेह है। इसके अलावा, विचाराधीन मंत्री अपने कार्यों और नीतियों के लिए उत्तरदायी होगा, यह देखते हुए कि वह एक लोकतांत्रिक समाज में एक सार्वजनिक पद रखता है। अत: उनका दायित्व संयुक्त एवं अनेक है।
कॉमन कॉज़ (एक पंजीकृत सोसायटी) बनाम भारत संघ (2018) न्यायालय ने माना कि मंत्री सिर्फ इसलिए अपने दायित्व से बच नहीं सकते क्योंकि उनकी गतिविधियाँ राष्ट्रपति के नाम पर की जाती हैं, जिन्हें अनुच्छेद 361 के तहत छूट प्राप्त है। मंत्री ने विचाराधीन तर्क दिया कि राष्ट्रपति की छूट उनके नाम पर जारी अनुच्छेद 77 के  खण्ड (1) या (2) के आदेशों पर भी लागू होगी।

विभिन्न मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई व्याख्याओं के आधार पर, न्यायालय ने वर्तमान मामले में निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:

  1. भारत के संविधान में सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा मुख्य रूप से राजनीतिक है।
  2. ऐसी सामूहिक जिम्मेदारी मंत्रिपरिषद को सौंपी जाती है, चाहे वह संघ हो या राज्य। इससे तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मंत्री मंत्रिपरिषद के सदस्यों द्वारा मिलकर किये गये कार्यों एवं निर्णयों के लिये उत्तरदायी है, अन्यथा नहीं।
  3. मंत्रिपरिषद की जिम्मेदारी विधानमंडलों के प्रति होती है, अर्थात संसद में संघ के लिए लोकसभा, या राज्य के लिए राज्य विधानसभा।
  4. ऐसी जिम्मेदारी आम तौर पर दो चीजों के कारण उत्पन्न होती है- एक मंत्री द्वारा लिए गए निर्णय और कार्य या चूक।
  5. अंत में, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि “सामूहिक जिम्मेदारी की इस अवधारणा को लोक सभा/विधान सभा के बाहर किसी मंत्री द्वारा मौखिक रूप से दिए गए किसी भी बयान तक विस्तारित करना संभव नहीं है।

मंत्रियों के लिए आचार संहिता बनाने की प्रार्थना के संबंध में न्यायालय ने कहा कि अदालतों में ऐसी संहिता लागू करना संगत नहीं होगा। हालांकि, मंत्रियों या उस मामले में किसी भी सरकारी कर्मचारी को उनके कदाचार या सेवा नियमों के उल्लंघन के लिए जवाबदेह बनाने के लिए पहले से ही एक मौजूदा तंत्र है, यानी अनुशासनात्मक कार्यवाही। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कहा कि “यहां तक ​​कि सरकारी सेवकों के मामले में, किसी सरकारी सेवक द्वारा दिए गए बयान के आधार पर सेवा से बर्खास्तगी/हटाने को उचित ठहराना संभव नहीं हो सकता है, क्योंकि यह आनुपातिकता परीक्षण, यानी कदाचार की गंभीरता, को पास नहीं कर सकता है। .

इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि हालांकि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को मंत्रिपरिषद का प्रमुख माना जाता है, लेकिन उनके लिए मंत्रियों पर अनुशासनात्मक नियंत्रण रखना व्यावहारिक रूप से असंभव है, खासकर गठबंधन सरकार में।

ऊपर उल्लिखित अदालत के अवलोकन और दिए गए तर्क से, वर्तमान मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि “किसी मंत्री द्वारा दिया गया बयान, भले ही राज्य के किसी भी मामले से जुड़ा हो या सरकार की रक्षा के लिए हो, सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत को लागू करके सरकार को प्रत्यावर्ती रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय  ने यह भी स्पष्ट किया कि वर्तमान मामले में व्याख्याएं और टिप्पणियां पूरी तरह से सामूहिक जिम्मेदारी से संबंधित है, घृणास्पद भाषण की अवधारणा से नहीं। न्यायालय मंत्रियों को गैर-जिम्मेदाराना बयान देने या घृणास्पद भाषण देने और फिर सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा की अनुपयुक्तता के तहत शरण लेने के लिए समर्थन या प्रोत्साहित नहीं कर रहा है।

क्या किसी मंत्री का बयान संवैधानिक अपकृत्य है

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विचारित प्रश्न संख्या 5 यह है कि क्या एक मंत्री द्वारा दिया गया बयान, जो संविधान के भाग III के तहत नागरिकों को दिए गए अधिकारों, यानी मौलिक अधिकारों से असंगत है, का उल्लंघन है? मौलिक अधिकार और ‘संवैधानिक अपकृत्य’ के रूप में कार्रवाई योग्य है।

न्यायालय  ने कहा कि ऊपर दिए गए सवाल में सिर्फ “एक मंत्री द्वारा दिया गया बयान” कहा गया है। कोई बयान संवैधानिक अपकृत्य है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि ऐसा बयान कब, कहां और कैसे दिया गया है, जिसका उल्लेख प्रश्न में नहीं किया गया है।

इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि किसी मंत्री के महज बयान संवैधानिक अपकृत्य कार्रवाई का आधार नहीं बन सकते, भले ही इसमें संवैधानिक नैतिकता का अभाव हो। साथ ही, न्यायालय ने कहा कि “कहने की जरूरत नहीं है कि संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप राय रखने के लिए किसी पर न तो कर लगाया जा सकता है और न ही दंडित किया जा सकता है।”। निष्कर्ष में, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक मंत्री के बयान, अपने आप में, एक संवैधानिक अपकृत्य नहीं हैं। हालांकि, यदि ऐसे बयानों के परिणामस्वरूप नुकसान या क्षति होती है, तो एक संवैधानिक अपकृत्य कार्रवाई कायम की जा सकती है, जिसके पहले न्यायालय ने इंग्लैंड के हैल्सबरी के कानून द्वारा दी गई अपकृत्य की परिभाषा का अध्ययन किया था। इसने अपकृत्य को इस प्रकार समझाया “कार्रवाई के वे नागरिक अधिकार जो उन व्यक्तियों द्वारा अनिश्चित क्षति (अनलिक्विडेटेड डैमेज) की वसूली के लिए उपलब्ध हैं, जिन्हें कर्तव्य के उल्लंघन या समझौते के बजाय कानून द्वारा लगाए गए या प्रदत्त अधिकार के उल्लंघन में दूसरों के कार्यों, बयानों या चूक से चोट या हानि हुई है तो अपकृत्य में कार्रवाई के अधिकार हैं।

उल्लेख किए गये उदाहरण

सर्वोच्च न्यायालय ने “अपकृत्य में राज्य का दायित्व” विषय पर विधि आयोग की पहली रिपोर्ट के पैरा 66 का संवैधानिक अपकृत्य की अवधारणा की बेहतर समझ के लिए विस्तृत अध्ययन किया था। 1967 में, इस रिपोर्ट के आधार पर, सरकार (अपकृत्य में उत्तरदायित्व) विधेयक को विधानमंडल में पेश किया गया था। हालांकि, यह अधिनियम नहीं बन सका। परिणामस्वरूप, कानून विकसित करने का दायित्व भारत में अदालतों पर पड़ गया, जिन्हें न्यायिक उदाहरणों पर निर्भर रहना पड़ा। कुछ न्यायिक उदाहरण और सर्वोच्च न्यायालय के महत्वपूर्ण अवलोकन नीचे दिए गए हैं।

संदर्भित मामले  प्रासंगिक न्यायालय/न्यायाधीश की टिप्पणियाँ
बिहार राज्य बनाम अब्दुल माजिद (1954) इस मामले में, एक सरकारी कर्मचारी ने बकाया वेतन की वसूली के लिए राज्य के खिलाफ मामला दायर किया। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रसादपर्यंत (प्लेजर) के सिद्धांत की राज्य की दलील को खारिज कर दिया और माना कि यह सिद्धांत भारत में लागू नहीं है।
राजस्थान राज्य बनाम श्रीमती विद्यावती (1962) इस मामले में, विधवा, जो एक सरकारी वाहन से गंभीर रूप से घायल हो गई थी, ने राज्य के खिलाफ हर्जाने के लिए दावा दायर किया। राज्य ने संप्रभु प्रतिरक्षा के सिद्धांत को लागू करके अपना बचाव किया, जो परंपरागत रूप से किसी राज्य को उसकी सहमति के बिना मुकदमा चलाने से बचाता है। न्यायालय ने माना कि, चूंकि संप्रभु प्रतिरक्षा का नियम यूनाइटेड किंगडम में लागू नहीं किया गया था, जहां यह नियम उत्पन्न हुआ था, इसलिए भारत में इस नियम का पालन जारी रखने का कोई कानूनी वारंट नहीं है, खासकर जब इस देश ने हमारे संविधान को अपनाया है।
कस्तूरी लाल रलिया राम जैन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1964) कस्तूरी लाल की गिरफ्तारी पर उसके सोने के आभूषण पुलिस ने जब्त कर लिए। हालांकि, हेड कांस्टेबल द्वारा इसका दुरुपयोग किया गया, जो फिर पाकिस्तान चला गया। कस्तूरी लाल ने सोने के आभूषणों के मूल्य की वसूली के लिए राज्य पर मुकदमा दायर किया और राज्य ने कोई दायित्व नहीं होने का दावा किया। न्यायालय ने माना कि, यदि कोई सरकारी कर्मचारी कोई अपकृत्यपूर्ण कार्य करता है जिसे राज्य द्वारा प्रत्यायोजित(डेलीगेटेड) या सौंपा नहीं गया है, तो पीड़ित को हर्जाने के लिए मुकदमा करने का अधिकार है।
रुदुल साह बनाम बिहार राज्य (1983) इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय  ने राज्य को उस कैदी को मौद्रिक मुआवजा देने का आदेश दिया, जिसने अपने ऊपर लगे अपराधों से बरी होने के बाद भी 14 साल कारावास में बिताया था।
इसी प्रकार, सेबस्टियन एम. होंग्रे बनाम भारत संघ, (1984), भीम सिंह, विधायक बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य (1985), पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम बिहार राज्य और अन्य (1987), सहेली, सुश्री नलिनी भनोट और अन्य के माध्यम से एक महिला संसाधन केंद्र बनाम पुलिस आयुक्त, दिल्ली पुलिस मुख्यालय और अन्य (1990), सर्वोच्च न्यायालय कानूनी सहायता समिति अपने माननीय सचिव के माध्यम से बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (1991), (श्रीमती) नीलाबती बेहरा उर्फ ​​ललिता बेहरा (सर्वोच्च न्यायालय कानूनी सहायता समिति के माध्यम से) बनाम उड़ीसा राज्य और अन्य (1993), अरविंदर सिंह बग्गा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (1994), एन नागेंद्र राव एंड कंपनी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1994), इंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (1995), पश्चिम बंग खेत मजदूर समिति एवं अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य (1996), डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997), पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ एवं अन्य(1997) और दिल्ली नगर निगम, दिल्ली बनाम उपहार त्रासदी पीड़ित संघ और अन्य (2011) के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने उस पीड़ित पक्ष को मुआवजा या क्षतिपूर्ति प्रदान की जो राज्य या उसके सेवकों के अत्याचार पूर्ण या गलत कार्यों के कारण घायल हो गया था।

उपर्युक्त अदालत के अवलोकन और दिए गए तर्क से, वर्तमान मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि “किसी मंत्री द्वारा दिया गया एक मात्र बयान, जो संविधान के भाग III के तहत एक नागरिक के अधिकारों के साथ असंगत है, संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं हो सकता है और संवैधानिक अपकृत्य के रूप में कार्रवाई योग्य नहीं हो सकता है। लेकिन अगर ऐसे बयान के परिणामस्वरूप, अधिकारियों द्वारा कोई चूक या कार्य किया जाता है जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति/नागरिक को नुकसान होता है, तो यह संवैधानिक अपकृत्य के रूप में कार्रवाई योग्य हो सकता है।

कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2023) के मामले में न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की अलग राय

कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2003) में न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना बहुमत के कुछ प्रश्नों के तर्क और निष्कर्ष से सहमत हुए, लेकिन अन्य प्रश्नों पर एक अलग राय और तर्क देने के लिए दिए गए प्रश्नों पर अपनी अलग राय दी। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना के प्रत्येक प्रश्न के निष्कर्ष नीचे दिए गए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संबोधित प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निष्कर्ष  न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना द्वारा निष्कर्ष
क्या न्यायालय किसी अन्य मौलिक अधिकारों को लागू करके भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत प्रदान किए गए मौजूदा उचित प्रतिबंधों से परे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध लगा सकता है। “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को प्रतिबंधित करने के लिए अनुच्छेद 19(2) में दिए गए आधार विस्तृत हैं। अन्य मौलिक अधिकारों को लागू करने की आड़ में या दो मौलिक अधिकारों की आड़ में एक-दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धी दावा करते हुए,अनुच्छेद 19(2) में नहीं पाए गए अतिरिक्त प्रतिबंध, किसी भी व्यक्ति पर अनुच्छेद 19(1)(ए) द्वारा प्रदत्त अधिकार के प्रयोग पर नहीं लगाए जा सकते हैं।  प्रश्न क्रमांक 1 पर बहुमत द्वारा दिया गया उत्तर पूर्णतः सहमत है तथा इस पर कोई अलग निष्कर्ष नहीं है।
क्या अनुच्छेद 19 के तहत मौलिक अधिकार, यानी, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, या अनुच्छेद 21, यानी, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, ‘राज्य’ या उसके उपकरणों के अलावा किसी और के खिलाफ लागू किया जा सकता है? “अनुच्छेद 19/21 के तहत मौलिक अधिकार को राज्य या उसके उपकरणों के अलावा अन्य व्यक्तियों के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है।” अनुच्छेद 19 और 21 के तहत अधिकारों के मामले में कोई क्षैतिज दृष्टिकोण नहीं हो सकता है, सिवाय उन अधिकारों के जो वैधानिक रूप से प्रदत्त हैं। इस प्रकार, इन मौलिक अधिकारों को रिट याचिका के माध्यम से गैर-राज्य कर्ता के खिलाफ लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि मामले में तथ्य के प्रश्न शामिल हैं। हालांकि, पीड़ित पक्ष के लिए सामान्य कानून उपचार उपलब्ध हैं।
क्या संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत नागरिकों के अधिकारों की सकारात्मक रूप से रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है, भले ही वह किसी अन्य नागरिक या निजी एजेंसी के कार्यों या चूक से नागरिक की स्वतंत्रता के लिए खतरा हो? “राज्य का कर्तव्य है कि वह अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति के अधिकारों की सकारात्मक रूप से रक्षा करे, जब भी किसी गैर-राज्य अभिनेता द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता को खतरा हो” और “अनुच्छेद 19 और 14 के तहत गारंटीकृतअन्य सभी अधिकारों से ऊपर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के महत्व पर शायद ही अधिक जोर देने की आवश्यकता है।” राज्य का मुख्य रूप से सकारात्मक कर्तव्य के साथ-साथ एक नकारात्मक कर्तव्य भी है कि वह अनुच्छेद 21 के अनुसार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन न करे। यदि इस तरह के अधिकार का उल्लंघन किया जाता है, तो यह कहा जाता है कि राज्य अपने कर्तव्यों को पूरा करने में विफल रहा है।
क्या किसी मंत्री का बयान, जो राज्य के किसी भी मामले से जुड़ा हो, को प्रत्यावर्ती रूप से सरकार को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, खासकर सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का पालन करते हुए। “किसी मंत्री द्वारा दिया गया बयान, भले ही राज्य के किसी भी मामले से जुड़ा हो या सरकार की रक्षा के लिए हो, सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत को लागू करके सरकार को प्रत्यावर्ती रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।” मंत्री के बयान, यदि सरकार के विचारों के अनुरूप हैं और राज्य के किसी भी मामले से संबंधित हैं, तो सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का पालन करते हुए राज्य को प्रत्यावर्ती रूप से उत्तरदायी बनाया जाएगा और पीड़ित पक्ष को उचित उपाय दिए जाने चाहिए। यदि कथन सरकार के विचारों से असंगत है या सरकार द्वारा समर्थित नहीं है, तो केवल मंत्री को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी बनाया जाएगा।
क्या किसी मंत्री द्वारा दिया गया बयान, जो संविधान के भाग III के तहत नागरिकों को दिए गए अधिकारों, यानी मौलिक अधिकारों से असंगत है, ऐसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और ‘संवैधानिक अपकृत्य’ के रूप में कार्रवाई योग्य है। “किसी मंत्री द्वारा दिया गया एक मात्र बयान, जो संविधान के भाग III के तहत एक नागरिक के अधिकारों के साथ असंगत है, संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं हो सकता है और संवैधानिक अपकृत्य के रूप में कार्रवाई योग्य हो सकता है। लेकिन अगर ऐसे बयान के परिणामस्वरूप, अधिकारियों द्वारा कोई चूक या कार्य किया जाता है जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति/नागरिक को नुकसान होता है, तो यह संवैधानिक अपकृत्य के रूप में कार्रवाई योग्य हो सकता है।” लोक सेवकों द्वारा दिए गए सभी बयान जिनके परिणामस्वरूप किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंची हो, संवैधानिक अपकृत्य नहीं माना जाएगा। यह सरकार के विचारों पर निर्भर करता है और वह इस तरह के बयानों का समर्थन करती है या नहीं। इसके अलावा, अस्पष्टता को दूर करने और संवैधानिक अपकृत्य के उपायों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने और उसके लिए एक निवारण तंत्र निर्धारित करने के लिए इस मामले पर कानून बनाना आवश्यक महसूस किया गया है।

निष्कर्ष 

हमारे संविधान ने यह सुनिश्चित किया है कि प्रत्येक नागरिक मौलिक अधिकारों के रूप में अपने मूल अधिकारों और स्वतंत्रताओं के हकदार हैं और साथ ही नागरिकों की स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध भी लगाए हैं ताकि साथी लोगों के अधिकारों का उल्लंघन न हो और इस प्रकार संतुलन बनाए रखा जा सके। इसी तरह, अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी अनुच्छेद 19(2) द्वारा प्रतिबंधों के अधीन है। इन प्रतिबंधों को अन्य मौलिक अधिकारों जैसे अनुच्छेद 21 द्वारा मजबूत करने के प्रयास धीरे-धीरे सभी नागरिकों को गारंटीकृत स्वतंत्र भाषण के अधिकार को कम कर रहे हैं। भारत जैसे संवैधानिक लोकतंत्र में, न्यायाधीश की भूमिका नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना और परस्पर विरोधी अधिकारों के बीच संतुलन बनाना है। भारत में अदालतें नागरिक स्वतंत्रता पर अधिक प्रतिबंध लगाने के अधिकार नहीं रखती हैं, यह विधानमंडल का काम है। आज, यदि अदालत अनुच्छेद 21 के साथ असंगति के कारण गरिमा के आधार पर भाषण की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने की अनुमति देती है, तो कल अन्य कारण हो सकते हैं जो न्यायाधीश नागरिकों की स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए विचार कर सकते हैं। इसलिए, वर्तमान मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 19(2) के तहत प्रतिबंध एक बलात्कार पीड़िता के प्रति किए गए भाषण या बयान को शामिल करने के लिए पर्याप्त व्यापक हैं। 

इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने कई महत्वपूर्ण प्रश्नों के भी उत्तर दिए। अदालत ने माना कि किसी के मौलिक अधिकारों की रक्षा और संरक्षण का दायित्व राज्य पर डाला गया है और इसे राज्य के साथ-साथ गैर-राज्य कर्ताओं  के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है। अदालत ने यह भी फैसला सुनाया कि राज्य को किसी मंत्री द्वारा किए गए प्रत्येक उच्चारण के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता; हालांकि, यदि ऐसा भाषण नुकसान या चोट पहुँचाता है, तो इसे संवैधानिक अपकृत्य माना जा सकता है और राज्य के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।

संदर्भ

 

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