यह लेख Shivani A द्वारा लिखा गया है। यह कश्मीरा सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले का विश्लेषण करने वाला एक विस्तृत लेख है। इस निर्णय को ऐतिहासिक माना जाता है, क्योंकि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आजीवन कारावास के दोषी व्यक्ति को उसकी अपील के लंबित रहने के दौरान जमानत देने से संबंधित कानून की व्याख्या की थी। यह लेख मामले के संक्षिप्त तथ्य, इसमें शामिल मुद्दे तथा मामले का निर्णय प्रस्तुत करता है। इसमें निर्णय देते समय न्यायाधीशों द्वारा प्रयुक्त कानून के महत्वपूर्ण प्रावधानों पर भी चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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परिचय
आपराधिक न्याय प्रणाली का यह एक प्रसिद्ध सिद्धांत है कि “जमानत नियम है और कारागृह अपवाद है।” ‘जमानत’ शब्द का तात्पर्य किसी व्यक्ति को कानूनी हिरासत से कुछ जमानत पर और इस शर्त पर रिहा करना है कि जब भी उसे अदालत में उपस्थित होने की आवश्यकता होगी, वह व्यक्ति अदालत के समक्ष उपस्थित होगा। जमानत का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मान्यता प्राप्त अधिकारों में से एक है, जो किसी व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। हालाँकि, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में एक सामान्य प्रथा का पालन किया जाता था कि, जब भी किसी व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती थी और अभियुक्त व्यक्ति अपील दायर करता था, तो उसे जमानत नहीं दी जाती थी, भले ही उसकी अपील अपीलीय अदालत के समक्ष लंबित हो और सुनवाई निकट भविष्य में होने की संभावना न हो। वर्तमान में इस प्रथा का पालन नहीं किया जाता है तथा इसे समाप्त कर दिया गया है, क्योंकि इसे अभियुक्त के अधिकारों के लिए हानिकारक माना जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कश्मीरा सिंह बनाम पंजाब राज्य (1977) के मामले में आजीवन कारावास के दोषी व्यक्ति को जमानत न देने की इस प्रथा को समाप्त कर दिया, भले ही उसकी अपील पहली बार अपीलीय अदालत में लंबित हो। यह निर्णय देकर न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि दोषी के अधिकारों की रक्षा न्यायालय द्वारा की जाएगी।
मामले का विवरण
- मामले का नाम: कश्मीरा सिंह बनाम पंजाब राज्य
- मामला संख्या: आपराधिक विविध याचिका संख्या 1907/1976
- समतुल्य उद्धरण: 1977 एआईआर 2147, (1977) 4 एससीसी 291, 1977 एससीसी (सीआरआई) 559
- शामिल अधिनियम: भारतीय दंड संहिता, 1860 और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973।
- महत्वपूर्ण प्रावधान: भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302, धारा 323 और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 389।
- न्यायालय: सर्वोच्च न्यायालय
- पीठ: न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती, न्यायमूर्ति ए.सी. गुप्ता
- अपीलकर्ता: कश्मीरा सिंह
- प्रतिवादी: पंजाब राज्य और अन्य
- निर्णय की तिथि: 2 सितम्बर 1977
मामले के तथ्य
इस मामले में अपीलकर्ता पर भारतीय दंड संहिता की धारा 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाने के लिए सजा) और धारा 302 (हत्या के लिए सजा) के तहत आरोप लगाया गया था। इसके बाद विचारण न्यायालय ने उन्हें धारा 323 के तहत दोषी ठहराया। जब राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय में अपील दायर की तो न्यायालय ने धारा 302 के तहत उसे बरी करने के फैसले को खारिज कर दिया और उसके बाद उसे हत्या के लिए दोषी ठहराया। इसके बाद अपीलकर्ता को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की विशेष अनुमति 28 फरवरी, 1974 को प्रदान की गई थी। अपील की सुनवाई लंबित रहने तक अपीलकर्ता की जमानत अर्जी 10 जनवरी, 1975 को खारिज कर दी गई। परिणामस्वरूप, अपीलकर्ता ने एक और जमानत याचिका दायर की थी।
उठाए गए मुद्दे
क्या आजीवन कारावास की सजा पाए व्यक्ति को उसकी अपील के निपटान के दौरान विशेष अनुमति द्वारा जमानत पर रिहा किया जा सकता है?
पक्षों के तर्क
अपीलकर्ता के तर्क
अपीलकर्ता का मुख्य तर्क यह था कि उसे जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए क्योंकि उसकी अपील का आवेदन बहुत लंबे समय से लंबित है और निकट भविष्य में इसकी सुनवाई नहीं होगी। इसलिए, अपीलकर्ता ने न्यायालय से जमानत देने की प्रार्थना की थी।
प्रतिवादी के तर्क
वर्तमान मामले में, प्रतिवादी द्वारा उठाया गया मुख्य तर्क यह था कि अभियुक्त को जमानत नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाई गई प्रथा के विरुद्ध होगा। जैसा कि इस लेख में पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, अधिकांश उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में आजीवन कारावास के दोषी व्यक्ति को जमानत न देने की आम प्रथा थी। वर्तमान मामले में भी, चूंकि अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया था और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, इसलिए प्रतिवादी ने दावा किया कि सर्वोच्च न्यायालय को वर्तमान मामले में भी यही प्रक्रिया अपनानी चाहिए और अभियुक्त को जमानत पर रिहा नहीं करना चाहिए।
कश्मीरा सिंह बनाम पंजाब राज्य (1977) में शामिल प्रावधान
भारतीय दंड संहिता,1860
आईपीसी की धारा 302
यह धारा उस सजा के बारे में जानकारी प्रदान करती है जो उस व्यक्ति को दी जा सकती है जिसे भारतीय दंड संहिता की धारा 300 के अंतर्गत हत्या करने का दोषी पाया गया हो। इसमें कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति हत्या का दोषी पाया जाता है, तो उसे या तो मृत्युदंड या आजीवन कारावास और एक निश्चित राशि के जुर्माने से दंडित किया जा सकता है, जिसका निर्णय न्यायालय द्वारा किया जाएगा।
आईपीसी की धारा 323
यह धारा उस स्थिति के बारे में जानकारी प्रदान करती है जिसमें कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को स्वैच्छिक चोट पहुंचाने का अपराध करता है। इसमें कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाता है, तो उसे अधिकतम 1 वर्ष के कारावास की सजा दी जा सकती है या उसे अधिकतम 1000 रुपये का जुर्माना भरने के लिए कहा जा सकता है, या दोनों, जो न्यायालय के निर्णय पर निर्भर करता है।
दंड प्रक्रिया संहिता,1973
सीआरपीसी की धारा 389
यह धारा इस बारे में जानकारी प्रदान करती है कि क्या किसी व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया जा सकता है, जब उसे पहले ही दोषी ठहराया जा चुका है, लेकिन उसकी अपील की सुनवाई अपीलीय अदालत में लंबित है। धारा 389(1) में प्रावधान है कि अपील लंबित रहने के दौरान व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया जा सकता है, बशर्ते कि अपीलीय अदालत दोषी की रिहाई के कारणों को दर्ज करे। इसमें आगे कहा गया है कि यदि व्यक्ति को किसी ऐसे अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है जिसके लिए सजा मृत्युदंड, आजीवन कारावास या कम से कम 10 वर्ष की अवधि की कारावास है, तो न्यायालय को सरकारी वकील को आवेदन दायर करने और जमानत रद्द करने के कारण बताने का अवसर देना चाहिए।
इसके अलावा, धारा 389(2) में यह प्रावधान है कि यदि दोषी ठहराए गए व्यक्ति ने उच्च न्यायालय के अलावा किसी अन्य अपीलीय न्यायालय में अपील दायर की है और उसकी अपील ऐसी अपीलीय अदालत में लंबित है, तो ऐसी स्थिति में भी उच्च न्यायालय इस धारा के तहत उसे प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग कर सकता है। इसका अर्थ यह है कि उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय को, जिसमें दोषी की अपील लंबित है, सजा को निलंबित करने तथा दोषी को जमानत देने का आदेश दे सकता है।
साथ ही, धारा 389(3) के तहत यह प्रावधान है कि दोषी व्यक्ति को केवल उस अवधि तक जमानत पर रिहा किया जा सकता है, जिसमें अपीलीय अदालत द्वारा अपील की सुनवाई हो जाती है। इसमें यह भी प्रावधान है कि, एक बार दोषी ठहराए गए व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर दिया जाए तो, उस पर शुरू में लगाई गई सजा, उस अवधि के लिए निलंबित मानी जाएगी, जिसके लिए वह जमानत पर है। धारा में यह भी कहा गया है कि जब दोषी को अपीलीय न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से एक निश्चित अवधि के कारावास या आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है, तो दोषी की कारावास अवधि की गणना करते समय उस समय को शामिल नहीं किया जाता है, जिसके दौरान वह जमानत पर रिहा होता है।
कश्मीरा सिंह बनाम पंजाब राज्य (1977) में निर्णय
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि यदि अपीलीय अदालत किसी दोषी के मामले की सुनवाई उचित समयावधि में करने की स्थिति में नहीं है, तो उसे जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए। न्यायालय ने यह भी कहा कि उच्च न्यायालय और सर्वोच न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास की सजा पाए व्यक्ति को जमानत न देने की प्रथा, भले ही न्यायालय उचित अवधि के भीतर उस व्यक्ति के मामले की सुनवाई करने में सक्षम न हो, दोषी के साथ अन्याय है।
निर्णय का विश्लेषण
वर्तमान मामले में, अपीलकर्ता को पहले भारतीय दंड संहिता की धारा 323 के तहत दोषी ठहराया गया था और सत्र न्यायालय द्वारा 6 महीने के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी। हालाँकि, उन्होंने उच्च न्यायालय में अपील दायर की और उन्हें उस अवधि के दौरान जमानत दे दी गई, जिसके दौरान अपील न्यायालय में लंबित थी। बाद में जब मामले की सुनवाई उच्च न्यायालय में हुई तो अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। हालाँकि, अपीलकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति के लिए अपनी याचिका प्रस्तुत करने से पहले ही आत्मसमर्पण कर दिया और तब से वह लगभग साढ़े 4 वर्षों से कारागृह में है।
न्यायालय ने यह भी कहा कि अपील 1974 में दायर की गई थी और कम से कम दो वर्षों तक इस पर सुनवाई होने की संभावना नहीं है। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता द्वारा दायर याचिका पर विचार किया तथा उसे अपनी सजा के विरुद्ध अपील करने की विशेष अनुमति प्रदान की। यह अपने आप में यह दर्शाता है कि न्यायालय का मानना था कि अपीलकर्ता के पास प्रथम दृष्टया विचार करने योग्य मामला है और उसकी अपील की सुनवाई लंबित रहने के दौरान उसे और अधिक समय तक कारागृह में रोकना अत्यधिक अन्यायपूर्ण होगा।
इसलिए, न्यायालय ने कहा कि यदि न्यायालय उचित समयावधि के भीतर अपील पर सुनवाई करने की स्थिति में नहीं है, तो सर्वोच्च न्यायालय को दोषी को जमानत पर रिहा करना चाहिए, जब तक कि व्यक्ति को जमानत देने से इनकार करने के लिए कोई उचित आधार न हो।
निर्णय का औचित्य
उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाई गई प्रथा के संबंध में न्यायालय ने कहा कि “कोई भी प्रथा, चाहे वह कितनी भी पवित्र क्यों न हो और समय के साथ उसे कितना भी माना क्यों न हो गई हो, यदि वह अन्याय का कारण बनती है तो उसे चलने नहीं दिया जा सकता।” न्यायालय ने आगे कहा कि न्यायालयों का प्रत्येक व्यवहार न्याय के हितों के अनुरूप होना चाहिए।
न्यायालयों द्वारा आजीवन कारावास की सजा पाए व्यक्ति को रिहा न करने की प्रथा इस कारण विकसित हुई कि न्यायाधीशों का मानना था कि एक बार किसी व्यक्ति को दोषी ठहराए जाने के बाद, उसे तब तक नहीं छोड़ा जाना चाहिए जब तक कि उसकी सजा को पलट न दिया जाए। हालाँकि, यह समझ इस आधार पर थी कि दोषी ठहराए गए व्यक्ति की अपील पर उचित समय के भीतर सुनवाई की जाएगी और यदि वह निर्दोष पाया जाता है, तो उसे लंबे समय तक कारागृह में नहीं रहना पड़ेगा। हालांकि, न्यायालय ने यह भी कहा कि उपरोक्त प्रथा का औचित्य तब सही नहीं रह जाता जब अपीलीय न्यायालय पांच या छह वर्षों तक अपील का निपटारा करने की स्थिति में नहीं होता, क्योंकि न्यायालय ने कहा कि किसी ऐसे अपराध के लिए दोषी को पांच या छह वर्षों तक कारागृह में रखना न्याय का मजाक होगा, जो अंततः उसके द्वारा किया गया नही पाया जाता है।
इसी प्रकार के कानूनी मामले
उरमान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022)
मामले के तथ्य
इस मामले में अपीलकर्ता को 14 नवंबर 2011 को भारतीय दंड संहिता की धारा 147, 148, 149, 302, 307 और 504 के तहत अपराध करने के लिए दोषी ठहराया गया था। बिना किसी छूट के लगभग 15 वर्ष से अधिक समय तक वास्तविक हिरासत में रहने के बाद, उन्होंने 29 मई, 2015 को पहली बार उच्च न्यायालय के समक्ष जमानत के लिए आवेदन दायर किया, जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया। न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने 8 सितम्बर, 2021 को जमानत के लिए एक और आवेदन दायर किया, लेकिन उच्च न्यायालय ने इस आवेदन को भी अस्वीकार कर दिया। इसलिए, अपीलकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की ताकि उसे उच्च न्यायालय से जमानत पर रिहा किया जा सके।
मामले का मुद्दा
क्या अपीलकर्ता को न्यायालय द्वारा जमानत दी जा सकती है?
मामले का निर्णय
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ता जमानत का हकदार है। ऐसा इसलिए क्योंकि न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्ता द्वारा दायर अपील उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित है और उस पर जल्द ही सुनवाई नहीं होगी। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता को जमानत दे दी थी।
संजय भट बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022)
मामले के तथ्य
इस मामले में सत्र न्यायालय ने 15 अगस्त 2014 को अभियुक्तों को भारतीय दंड संहिता की धारा 147, 148, 149, 201 और 302 के तहत अपराध करने का दोषी ठहराया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि अभियुक्त को हत्या के लिए दंडित किया जाएगा तथा उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इससे व्यथित होकर दोषी ने 30 अगस्त, 2016 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर की थी। इसके बाद दोषी ने उच्च न्यायालय में जमानत के लिए अर्जी दाखिल की, लेकिन उच्च न्यायालय ने 1 अक्टूबर, 2019 को अर्जी खारिज कर दी थी। इसलिए, दोषी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की थी।
मामले का मुद्दा
क्या अपीलकर्ता को न्यायालय द्वारा जमानत दी जा सकती है?
मामले का निर्णय
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि अभियुक्त को जमानत दी जानी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि न्यायालय ने पाया कि व्यक्ति पहले ही बिना किसी छूट के 11 वर्ष और 8 महीने की सजा काट चुका है और इस बात की तत्काल कोई संभावना नहीं है कि न्यायालय द्वारा व्यक्ति की अपील पर कोई निर्णय लिया जाएगा।
निष्कर्ष
इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कश्मीरा सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को देश की अन्य सभी अदालतों द्वारा एक ऐतिहासिक निर्णय माना जा सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि दोषी के पक्ष में फैसला सुनाकर तथा उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई वर्षों से अपनाई जा रही प्रथा को अमान्य करार देकर न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया है कि वह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को बरकरार रखे। इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि यद्यपि आजीवन कारावास के लिए दोषी ठहराया गया व्यक्ति अपने अधिकार के रूप में जमानत का दावा नहीं कर सकता है, फिर भी न्यायालय को मामले की परिस्थितियों पर विचार करना चाहिए और यदि परिस्थितियां न्यायालय को ऐसा करने की अनुमति देती हैं तो उसे जमानत प्रदान करनी चाहिए। न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि दोषी द्वारा दायर अपील लंबे समय से अपीलीय न्यायालय के समक्ष लंबित है और ऐसी कोई संभावना नहीं है कि दोषी की अपील की सुनवाई उचित समयावधि के भीतर होगी, तो न्यायालय को न्याय के हित में व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर देना चाहिए।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
आजीवन कारावास का क्या अर्थ है?
आजीवन कारावास एक प्रकार की सजा है जो भारतीय दंड संहिता के तहत प्रदान की जाती है, जिसके अनुसार जिस व्यक्ति को ऐसी सजा दी जाती है, उसे जीवन भर कारागृह में रहना होता है। हालाँकि, सीआरपीसी की धारा 342 के अनुसार सजा माफ की जा सकती है। हालाँकि, धारा के अनुसार कुल सजा 14 वर्ष से कम नहीं की जा सकती है। यह निर्णय राज्य को करना है कि अभियुक्त को जीवन भर कारागृह में रहना है या 14 वर्षों तक रहना है।
किसी व्यक्ति के लिए उपलब्ध जमानत के विभिन्न प्रकार क्या हैं?
सीआरपीसी में जमानत के 4 प्रकार दिए गए हैं, जो इस प्रकार हैं:
- नियमित जमानत: यह एक प्रकार की जमानत है जिसका उपयोग आमतौर पर गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा किया जाता है। इस जमानत के लिए आवेदन दायर करने की एक शर्त यह है कि ऐसा आवेदन दायर करने वाला व्यक्ति गिरफ्तार होना चाहिए और यदि व्यक्ति गिरफ्तार नहीं हुआ है, तो वह नियमित जमानत का दावा नहीं कर सकता है। इस प्रकार की जमानत के बारे में जानकारी सीआरपीसी की धारा 437 और धारा 439 के तहत दी गई है।
- अंतरिम जमानत: ‘अंतरिम’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘अस्थायी’ है। इसलिए, जब भी किसी व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि उसे अंतरिम जमानत पर रिहा किया गया है, तो इसका मतलब है कि वह अल्प अवधि के लिए जमानत पर है। यह जमानत किसी अभियुक्त को नियमित या अग्रिम जमानत की सुनवाई से पहले दी जाती है।
- अग्रिम जमानत: यह जमानत उस व्यक्ति को दी जाती है जब उसे गिरफ्तार होने की उचित आशंका होती है। यदि किसी व्यक्ति को संदेह है कि उसे गैर-जमानती अपराध के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है, तो वह अग्रिम जमानत के लिए याचिका दायर कर सकता है। अग्रिम जमानत का प्रावधान सीआरपीसी की धारा 438 के तहत किया गया है। अग्रिम जमानत की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका प्रयोग कोई व्यक्ति केवल पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने से पहले ही कर सकता है।
- वैधानिक जमानत: इस प्रकार की जमानत को ‘व्यतिक्रम जमानत’ के नाम से भी जाना जाता है। वैधानिक जमानत और सीआरपीसी की धारा 437, 438 और 439 के तहत दी जाने वाली जमानत में अंतर है। वैधानिक जमानत और सीआरपीसी की धारा 437, 438 और 439 के तहत दी गई जमानत के बीच मुख्य अंतर यह है कि वैधानिक जमानत केवल तभी दी जा सकती है जब कोई व्यक्ति शिकायत दर्ज कराता है और पुलिस अधिकारी या कोई अन्य जांच अभिकरण (एजेंसी) एक निश्चित समय सीमा के भीतर शिकायत दर्ज करने से इनकार कर देती है।
क्या किसी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति को जमानत दी जा सकती है?
हां, किसी व्यक्ति को अपराध का दोषी पाए जाने के बाद भी जमानत पर रिहा किया जा सकता है। ऐसा आमतौर पर तब होता है जब व्यक्ति ने अपीलीय अदालत में अपील दायर की हो और उक्त अदालत में अपील की सुनवाई लंबित हो। यह सीआरपीसी की धारा 389 के तहत प्रदान किया गया है। हालांकि, नियमित जमानत के विपरीत, इस तरह की जमानत का दावा दोषी व्यक्ति अधिकार के तौर पर नहीं कर सकता है; बल्कि, यह अदालत द्वारा अपने विवेक पर दी जाती है। अदालत जमानत देने से पहले विभिन्न कारकों पर विचार करती है, जैसे कि अपराध की प्रकृति जिसके लिए व्यक्ति को दोषी ठहराया गया है, व्यक्ति का चरित्र आदि।
संदर्भ