कामेश्वर प्रसाद एवं अन्य बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (1962)

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यह लेख Gauri Gupta द्वारा लिखा गया है। लेख का उद्देश्य कामेश्वर प्रसाद सिंह और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962) के ऐतिहासिक फैसले का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करना है। लेख सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर प्रकाश डालता है और विस्तार से बताता है और आवश्यक प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा करता है। यह निर्णय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों और विनियमों को रद्द करने की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति का एक उदाहरण स्थापित करता है। इसका अनुवाद Pradyumn Singh ने किया है। 

Table of Contents

परिचय 

हड़ताल करने का अधिकार “मजदूर का अंतिम हथियार” माना जाता है। हड़तालों को कर्मचारियों या श्रमिकों की ओर से एक साथ काम बंद करने के रूप में वर्णित किया जा सकता है। हड़तालें हर उद्योग में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं क्योंकि प्रबंधन और श्रमिकों के बीच सौदेबाजी की शक्ति की असमानता के कारण प्रबंधन और श्रमिकों के पास अपनी जरूरतों और कामकाजी परिस्थितियों पर बातचीत करने के लिए एक शक्तिशाली हथियार की आवश्यकता होती है। औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 और विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों (कन्वेंशन) और संगठनों, जिनमें शामिल हैं आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा (कॉवेनेंट) और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अंतर्गत हड़ताल करने का अधिकार एक वैधानिक एवं कानूनी अधिकार है। 

कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक फैसला है।  इस मामले में न्यायालय ने हड़ताल के अधिकार को भारत के संविधान के भाग III के अंतर्गत मौलिक अधिकार घोषित करने से इनकार कर दिया। हालांकि, इससे सरकार द्वारा बनाए गए उन नियमों को रद्द कर दिया जो सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रदर्शनों पर रोक लगाते थे। 

मामले का विवरण

मामले का शीर्षक

कामेश्वर प्रसाद बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (1962)

फैसले की तारीख

22 फरवरी, 1962

मामले के पक्ष

याचिकाकर्ता

कामेश्वर प्रसाद सिंह 

प्रतिवादी 

बिहार राज्य

समतुल्य उद्धरण

1962 ए आई आर 1166 1962 एससीआर (सप्ल) (3)369

मामले का प्रकार

सिविल अपील

अदालत

भारत का सर्वोच्च न्यायालय

शामिल प्रावधान और क़ानून

  1. भारत का संविधान: अनुच्छेद 13, 19, 33, 132, 226 और 309 
  2. बिहार सरकारी सेवक आचरण नियमावली, 1956 की धारा 4-A

पीठ 

न्यायमूर्ति एन. राजगोपाल अयंगर, पी.बी. गजेंद्रगडकर, ए.के. सरकार, के.एन. वांचू, और के.सी. दास गुप्ता।  

फैसले के लेखक

न्यायमूर्ति एन.राजगोपाला अय्यंगार

कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य के तथ्य (1962) 

इस मामले के तथ्य को निम्नलिखित बिंदुओं में संक्षेपित किया जा सकता है:

  1. बिहार सरकार ने 1957 में एक अधिसूचना के माध्यम से बिहार सरकारी सेवक आचरण नियम, 1956 में एक प्रावधान (धारा 4-A) पेश किया। यह प्रावधान सरकारी कर्मचारियों को किसी भी प्रदर्शन में भाग लेने या किसी मामले के संबंध में हड़ताल करने से रोकता है।
  2. इसके बाद, छह अपीलकर्ताओं ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत पटना उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की और भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के उल्लंघन सहित विभिन्न आधारों पर नियम की वैधता को चुनौती दी।
  3. इसके अलावा, अपीलकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि यह नियम भारत के संविधान के अनुच्छेद 309 के तहत सरकार की नियम बनाने की शक्ति से परे है।
  4. पटना उच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 19(1)(a) और 19(1)(c) के तहत स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है इसमें हड़ताल का सहारा लेने का अधिकार या सरकारी कर्मचारियों के प्रदर्शन में भाग लेने का अधिकार शामिल नहीं है। परिणामस्वरूप, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने बिहार सरकार द्वारा पेश किए गए नियमों को भारत के संविधान के भाग III के तहत दी गई मौलिक स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध के रूप में देखा।
  5. अपीलकर्ता उच्च न्यायालय के फैसले से व्यथित थे। इसलिए, उन्होंने भारत के संविधान के अनुच्छेद 132 के तहत पटना उच्च न्यायालय से प्रमाण पत्र प्राप्त करने के बाद भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।

मुद्दा 

  1. क्या बिहार सरकारी सेवक आचरण नियम, 1956 में शामिल धारा 4-A संवैधानिक रूप से वैध है?

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि 1956 के नियमों का नियम 4-A अवैध और असंवैधानिक था। उन्होंने अपना तर्क इस आधार पर दिया कि यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 19(1)(c) का उल्लंघन है। इसके अलावा, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि नियम सरकारी कर्मचारियों पर प्रदर्शन और हड़ताल करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है। याचिकाकर्ताओं के विद्वान वकील ने यह भी कहा कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा था। 

प्रतिवादी

प्रतिवादी ने तर्क दिया कि नियम 4-A की व्याख्या कानूनी और असंवैधानिक भागों को अलग करके करना संभव नहीं है। परिणामस्वरूप, उन्होंने तर्क दिया कि पूरे प्रावधान को रद्द करना भारत के संविधान का उल्लंघन था। उन्होंने आगे इस बात पर प्रकाश डाला कि सरकारी कर्मचारियों को भारत के संविधान के भाग III के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के दायरे से छूट नहीं है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि सरकारी अधिकारियों की जिम्मेदारियाँ नागरिकों के अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती हैं।

कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962) मामले में चर्चा किए गए कानून 

भारत के संविधान 1950 का अनुच्छेद 13 

भारत के संविधान का अनुच्छेद 13 स्पष्ट रूप से प्रदान करता है कि भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों को किसी भी अन्य कानून पर सर्वोच्चता प्राप्त है। अनुच्छेद 13 को चार खंडों में विभाजित किया गया है। ये खंड उन विभिन्न प्रावधानों पर विस्तार से बताते हैं जो भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।

अनुच्छेद 13 इस मामले के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह बताता है कि कैसे सर्वोच्च न्यायालय के पास भारत के संविधान के भाग III के तहत निहित मौलिक अधिकारों को निरस्त करने वाले राज्य द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को रद्द करने की शक्ति है।

अनुच्छेद 13(1) में प्रावधान है कि कोई भी कानून जो भारत के संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों के साथ असंगत या अपमानजनक है, तो अमान्य होगा। दूसरे शब्दों में, यदि कोई कानून भारत के संविधान के भाग III के तहत भारतीय नागरिक को दिए गए मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता पाया जाता है, तो इसे अमान्य माना जाएगा और अदालतों द्वारा रद्द कर दिया जाएगा।

यह प्रावधान अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत के नागरिकों के बुनियादी और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों को बनाने और लागू करने की संसद की शक्ति को सीमित करता है।

अनुच्छेद 13(2) में प्रावधान है कि कोई भी कानून जो भारत के संविधान के लागू होने से पहले बनाया गया था और भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ असंगत या अपमानजनक है, उसे शून्य माना जाएगा। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह केवल ऐसी असंगतता की सीमा तक ही शून्य होगा। हालांकि, सरकार के पास ऐसे कानूनों में संशोधन करने और यह सुनिश्चित करने की शक्ति है कि वे भारत के संविधान के अनुसार हैं। सरल शब्दों में, यह प्रावधान स्वतंत्रता-पूर्व कानूनों को निरस्त करने और संशोधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है यदि वे भारत के संविधान के भाग III का उल्लंघन करते हैं।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 13(3) में उन राज्य कानूनों को निरस्त करने का प्रावधान है जो मौलिक अधिकारों के साथ असंगत या अपमानजनक हैं। यह प्रावधान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि यह राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को रद्द कर देता है, यदि वे नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते पाए जाते हैं।

अनुच्छेद 13(4) अन्य उपखंड से भिन्न है।  भारत के संविधान का भाग IV यह प्रावधान करता है कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (डीपीएसपी) के अंतर्गत नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन पाए जाने पर इसे रद्द नहीं माना जाएगा। यह प्रावधान बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सरकार को कानून बनाने का अधिकार देता है, जिससे डीपीएसपी लागू हो सके।  

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आई .सी गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के मामले में, यह देखा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 13(2) के तहत “कानून” शब्द में संविधान में संशोधन शामिल हैं। परिणामस्वरूप, यदि कोई संशोधन भारत के संविधान के भाग III के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को निरस्त करता है, तो संपूर्ण संशोधन अधिनियम शून्य माना जाएगा।

इसके अलावा, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973), के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 24वां संशोधन अधिनियम, 1971, जिसने अनुच्छेद 13(4) डाला की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा।

भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 19

भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत भारत के नागरिकों को छह मौलिक स्वतंत्रताएँ दी गई है। इस प्रावधान को लोकतंत्र का एक स्तंभ माना जाता है क्योंकि इसका महत्व समाज के लगातार विकसित हो रहे परिवर्तनों के अनुकूल होने की क्षमता में निहित है। नागरिकों को दिए गए अधिकार प्रकृति में पूर्ण नहीं हैं और भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(2) में कुछ उचित प्रतिबंधों के अधीन हैं। ये प्रतिबंध सार्वजनिक व्यवस्था सुनिश्चित करने और देश की अखंडता बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है, और इसमें भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और शालीनता शामिल हैं।

यह प्रावधान इस मामले के लिए प्रासंगिक है क्योंकि यह भारत के प्रत्येक नागरिक को कुछ मौलिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। हालांकि, ये स्वतंत्रता सरकारी कर्मचारियों को उपलब्ध नहीं है, जैसा कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से पता चलता है। 

अनुच्छेद 19(1)(a) – भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के अनुसार प्रत्येक भारतीय नागरिक को अपने विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता है। इस अधिकार में अपनी राय व्यक्त करने, अपने विचारों को ऑनलाइन या प्रिंट में प्रकाशित करने और इन विचारों को रेडियो, टेलीविजन और डिजिटल मीडिया प्लेटफार्मों पर प्रसारित करने का अधिकार शामिल है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह अधिकार कुछ उचित प्रतिबंधों के अधीन है, जिसमें भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता आदि शामिल हैं। 

एक्सप्रेस समाचार पत्र बनाम भारत संघ (1958) के मामले में, श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम, 1955 की संवैधानिक वैधता, को चुनौती दी गई। इस अधिनियम ने समाचार पत्र उद्योग में कार्यरत सभी लोगों के लिए सेवा की कुछ शर्तो को निर्धारित किया गया है, जिसमे काम के घंटे, छुट्टी, वेतन आदि के लिए नियम निर्धारित किए गए थे और इस प्रकार इसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन होने के आधार पर चुनौती दी गई थी। न्यायालय ने अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा और कहा कि यह अधिनियम समाचार पत्र उद्योग में कार्यरत लोगों के लिए सेवा की शर्तों में सुधार के लिए पारित किया गया था। इसलिए, यह अधिनियम अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन नहीं था और उचित प्रतिबंधों के दायरे में आता था। 

अनुच्छेद 19(1)(b) – शांतिपूर्वक और बिना हथियारों के इकट्ठा होने का अधिकार

इस खंड के तहत प्रदान किया गया अधिकार भारतीय नागरिकों को बिना किसी हथियार के शांतिपूर्वक इकट्ठा होने की अनुमति देता है। इस अधिकार को भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की नींव माना जाता है, क्योंकि यह सार्वजनिक जुलूसों और प्रदर्शनों की अनुमति देता है। हालाँकि, नागरिकों को इन कार्यवाहियों के दौरान हिंसक नहीं होना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंधों का सम्मान करें।

अनुच्छेद 19(1)(b) के तहत अधिकार बिना हथियारों के शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार प्रदान करता है और इसमें सार्वजनिक बैठकें और जुलूस आयोजित करने का अधिकार भी शामिल है।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक मामले टी.के. रंगराजन बनाम तमिलनाडु सरकार (2003) में यह टिप्पणी की कि सरकारी कर्मचारियों को हड़ताल करने का मौलिक अधिकार नहीं है। इसके पीछे तर्क सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखना और शांति और सद्भाव को बाधित किए बिना समाज के सुचारू कामकाज को सुनिश्चित करना था। 

अनुच्छेद 19(1)(c) – भारत में संघ या यूनियन बनाने की स्वतंत्रता

भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(c) के तहत गारंटीकृत अधिकार यह प्रदान करता है कि भारत के नागरिकों को संघ, यूनियन या सहकारी समितियां बनाने का अधिकार है। इस अधिकार में अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंधों के अधीन राजनीतिक दल, कंपनियां, साझेदारी, सोसायटी आदि बनाने का अधिकार शामिल है।

दमयंती बनाम भारत संघ (1971) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संघ बनाने के मौलिक अधिकार का मतलब है कि संघ बनाने वाले व्यक्ति को केवल उन्हीं लोगों के साथ जुड़े रहने का अधिकार है, जिन्हें स्वेच्छा से संघ में रहना स्वीकार  हो।

अनुच्छेद 19(1)(e) – भारत में निवास करने और बसने का अधिकार

यह प्रावधान भारतीय नागरिक को भारतीय क्षेत्र के किसी भी हिस्से में निवास करने, बसने या संपत्ति किराए पर लेने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। हालांकि, यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंधों के अधीन है।

यू.पी आवास इवान\एम विकास परिषद बनाम फ्रेंड्स को-ऑप हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड (1995) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि आश्रय का अधिकार  अनुच्छेद 19(1)(e) के तहत निहित एक मौलिक अधिकार है जो और भारत के संविधान के भाग III के तहत प्रदान किए गए निवास के अधिकार से उत्पन्न होता है। दूसरे शब्दों में, शीर्ष अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 19(1)(e) के तहत भारत में निवास करने और बसने के अधिकार में निवास के उद्देश्य से आश्रय और घर बनाने का अधिकार शामिल है। 

भारत के संविधान का अनुच्छेद 33, 1950

भारत के संविधान का अनुच्छेद 33 संसद को ऐसे कानून बनाने का अधिकार देता है जो सशस्त्र बलों, पुलिस बलों, खुफिया एजेंसियों या इसी तरह के बलों के सदस्यों के लिए भारत के संविधान के भाग III के तहत निहित मौलिक अधिकारों के अनुप्रयोग को प्रतिबंधित या संशोधित करता है। इसी तरह के कानून राज्य की कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह प्रावधान केवल संसद को सशक्त बनाता है, राज्य की विधानसभाओं को नहीं। 

अनुच्छेद 33 पर निम्नलिखित प्रतिबंध लगाए गए हैं:

  • अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15, और अनुच्छेद 19 के अंतर्गत निहित अधिकार को सशस्त्र बलों द्वारा प्रतिबंधित किया गया है।
  • 1950 का सेना अधिनियम, 1950 का वायु सेना अधिनियम, और 1957 का नौसेना अधिनियम के प्रावधान को संविधान के भाग III के तहत निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • अनुच्छेद 19 के तहत दी गई बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सभा करने और संगठनों और संघों के गठन की स्वतंत्रता केंद्र सरकार द्वारा प्रतिबंधित है।

ये प्रतिबंध भारतीय क्षेत्र के सशस्त्र बलों के संवैधानिक अधिकारों को नहीं छीनते हैं। 

यह प्रावधान इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे सरकार ऐसे कानून या प्रावधान नहीं बना सकती जो भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निरस्त करते हों। इस मामले में भी यही बात स्पष्ट की गई है।

भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 132

भारत के संविधान का अनुच्छेद 132 संविधान से संबंधित मामलों के संबंध में उच्च न्यायालयों से अपील पर सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार का प्रावधान करता है। यह प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय को सिविल  और आपराधिक मामलों पर उच्च न्यायालय के फैसले, डिक्री या आदेश के खिलाफ अपील सुनने का अधिकार देता है। सर्वोच्च न्यायालय को कानून के महत्वपूर्ण प्रश्नों से जुड़े उच्च न्यायालय द्वारा प्रमाणित किसी भी मामले की अपील सुनने का भी अधिकार है।

एसपी संपत कुमार बनाम भारत संघ (1987), के मामले में प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम, 1985, की संवैधानिक वैधता न्यायिक समीक्षा भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह अधिनियम सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा करने की शक्ति को बाहर करता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 132 के तहत अपील केवल तभी दायर की जा सकती है, जहां उच्च न्यायालय ने कानून के किसी महत्वपूर्ण प्रश्न के लिए प्रमाणपत्र जारी किया हो।

भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 226

संविधान का अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने का अधिकार देता है। इन रिटों में बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबीयस कॉर्पस) परमादेश (मेंडमस), निषेध (प्रोहिबिशन), उत्प्रेषण (सर्टियोररी)  और अधिकार पृच्छा (क्वो वारंटो) की रिट शामिल हैं। यह प्रावधान भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

अनुच्छेद 226 के खंड 1 में प्रावधान है कि भारत में प्रत्येक उच्च न्यायालय को किसी भी व्यक्ति या प्राधिकारी को आदेश, निर्देश और रिट जारी करने का अधिकार है। इसमें भारत सरकार और विभिन्न राज्य शामिल हैं। ये रिट भारत के संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए जारी की जाती हैं।

खंड 2 में प्रावधान है कि उच्च न्यायालयों को किसी भी सरकारी प्राधिकारी या स्थानीय क्षेत्राधिकार से बाहर के किसी व्यक्ति को आदेश, निर्देश और रिट जारी करने का अधिकार है। यह उन परिस्थितियों में लागू होता है जहां कार्रवाई का कारण न्यायालय के क्षेत्राधिकार में है, लेकिन न्यायालय के पास व्यक्ति के निवास स्थान या उस स्थान पर क्षेत्राधिकार नहीं है जहां उस व्यक्ति का सरकारी कार्यालय स्थित है।

खंड 3 प्रतिवादी के विरुद्ध अंतरिम आदेश जारी करने का प्रावधान करता है। इसे निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) या स्थगन (स्टे)  के रूप में जारी किया जा सकता है। इसके अलावा, प्रतिवादी को याचिका की प्रति, साक्ष्य या सुनवाई का अवसर प्रदान किए बिना अंतरिम आदेश जारी किया जा सकता है।

इसके अलावा, अनुच्छेद 226 के खंड 4 पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है, जो यह प्रावधान करता है कि उच्च न्यायालय की रिट जारी करने की शक्ति संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए रिट जारी करने की शक्ति को प्रतिबंधित या बाधित नहीं करती है।

सामान्य कारण बनाम भारत संघ (2018) के मामले में  सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 226 के तहत रिट जारी करने का अधिकार है। ये रिट भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए जारी की जाती हैं। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये रिट “किसी अन्य कारण” के लिए जारी की जा सकती हैं, जो मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन से परे और सार्वजनिक जिम्मेदारियों के प्रवर्तन सहित है। 

भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 309

भारत के संविधान का अनुच्छेद 309 भारतीय क्षेत्र के भीतर राज्यों के संघ की सार्वजनिक सेवा में सेवारत व्यक्तियों की नियुक्ति, सेवा की शर्तों और कार्यकाल को संबोधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 

यह प्रावधान संसद या राज्य विधानमंडल को, जैसा भी मामला हो, भर्ती और सेवा की शर्तों को विनियमित करने वाले कानून बनाने का अधिकार देता है। यह प्रावधान सार्वजनिक सेवाओं से संबंधित मौजूदा कानूनों और विनियमों की वैधता को भी मान्यता देता है। इसके अलावा, राष्ट्रपति या राज्यपाल को ऐसे नियम बनाने का अधिकार है जो संविधान के प्रावधानों के अनुरूप हों और सरकारी सेवकों की नियुक्ति के लिए भर्ती और सेवा की शर्तों से संबंधित हों।

नगर निगम, जबलपुर बनाम ओम प्रकाश दुबे (2006), के मामले में कर्मचारियों की सेवाओं को नियमित करने से संबंधित नीतिगत निर्णय मध्य प्रदेश नगर निगम द्वारा निर्धारित किये गये थे। भारत के संविधान के भाग III के तहत निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने के आधार पर इन नीतियों पर सवाल उठाते हुए कई याचिकाएं दायर की गयी।  सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार द्वारा लागू किए गए विनियमन आदेश अनुच्छेद 309 के तहत बनाए गए नियमों को खत्म नहीं कर सकते। 

बिहार सरकारी सेवक आचरण नियमावली, 1956 की धारा 4-A 

धारा 4-A में प्रावधान है कि “कोई भी सरकारी कर्मचारी अपनी सेवा शर्तों से संबंधित किसी भी मामले के संबंध में किसी भी प्रदर्शन में भाग नहीं लेगा या किसी भी प्रकार की हड़ताल का सहारा नहीं लेगा।
सरल शब्दों में कहें तो यह प्रावधान सरकारी कर्मचारियों द्वारा उनकी सेवा शर्तों से संबंधित मामलों में प्रदर्शनों और हड़तालों पर स्पष्ट प्रतिबंध का प्रावधान करता है। कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962) के मामले में भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और (b) के तहत निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने के आधार पर प्रावधान को चुनौती दी गई थी।

कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962) में उदाहरणों की चर्चा की गई

अधीक्षक, केंद्रीय कारागार, फतेहगढ़ बनाम राम मनोहर लोहिया (1960)

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह देखा कि अनुच्छेद 19 के तहत सार्वजनिक व्यवस्था सार्वजनिक शांति का पर्याय है। इसके अलावा, अनुच्छेद 19(2) और अनुच्छेद 19(3) के तहत सार्वजनिक व्यवस्था विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा की अनुपस्थिति का प्रावधान करती है। सार्वजनिक व्यवस्था के लिए कानून बनाना महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, ऐसी स्वतंत्रता पर प्रतिबंध और सार्वजनिक नैतिकता और व्यवस्था के संभावित व्यवधान के बीच एक स्पष्ट और उचित संबंध होना महत्वपूर्ण है। बनाए गए कानूनों से सार्वजनिक अव्यवस्था नहीं होनी चाहिए।

यह निर्णय इस मामले के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि धारा 4-A में मौलिक अधिकारों जिसमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्वक सभा करने का अधिकार शामिल है, पर प्रतिबंध का प्रावधान है। 

पटना उच्च न्यायालय का फैसला 

पटना उच्च न्यायालय ने 7 जुलाई, 1958 को अपने फैसले में कहा कि नियम 4-A के तहत लगाए गए प्रतिबंध अनुच्छेद 19 के खंड 6 के तहत उचित प्रतिबंध हैं। न्यायालय ने कहा कि यह नियम अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 19(1)(b) के तहत निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है, क्योंकि वे सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के हित में आवश्यक प्रतिबंध लगाते हैं।

रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (1950) के मामले में पटना उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया। जिसमें न्यायालय ने ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ अभिव्यक्ति पर विचार किया। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रावधान किया कि ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ शब्द का व्यापक अर्थ है और कहा कि सरकार द्वारा अधिनियमित और लागू किए गए नियमों के कारण समाज में शांति कायम है। इसके अलावा, इससे पता चला कि 1956 के बिहार नियमावली के तहत नियम संविधान के अनुच्छेद 19(2) और 19(4) के तहत सार्वजनिक व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था।

कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य में निर्णय (1962)

बिहार सरकारी सेवक आचरण नियम, 1956 की धारा 4-A की संवैधानिक वैधता से संबंधित पटना उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि भारत के संविधान के भाग III में ऐसा कोई विशिष्ट संदर्भ नहीं है जो यह बताता हो कि प्रावधान उन पर लागू नहीं होते हैं। न्यायालय ने उस तर्क को खारिज कर दिया, जिसमें प्रावधान था कि संविधान सरकारी अधिकारियों को संविधान के भाग III के तहत विशेष प्रावधान मौजूद हैं, जो गारंटीकृत सुरक्षा से बाहर रखता है।

न्यायालय ने आगे चर्चा की कि क्या “प्रदर्शन” का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 19(1)(b) के तहत आता है। न्यायालय ने “प्रदर्शन” शब्द की व्याख्या किसी के विचार जिसे वह संप्रेषित करना चाहता है को दूसरों तक संप्रेषित करने के एक रूप में की है। यह विभिन्न रूप ले सकता है जो अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 19(1)(b) के तहत गारंटीकृत स्वतंत्रता के दायरे में आता है।

इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय ने उस तर्क को स्वीकार कर लिया, जिसमें प्रावधान था कि भाग III के तहत मौलिक अधिकार सरकारी कर्मचारियों पर लागू होते हैं और इसलिए यह घोषित करते हुए अपील की अनुमति दी गई कि धारा 4-A जो किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर रोक लगाती है, अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 19(1)(b) का उल्लंघन है और इस प्रकार इसे असंवैधानिक घोषित किया गया। इसके अलावा, अदालत ने कहा कि हड़ताल करने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है।

फैसले के पीछे तर्क

सर्वोच्च न्यायालय ने कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962), में ऐतिहासिक फैसला सुनायाnजिसमें बिहार सरकारी सेवक आचरण नियमा, 1956 की धारा 4-A को रद्द कर दिया गया। नियम ने सरकारी सेवकों को प्रदर्शनों में भाग लेने और हड़ताल करने से रोक दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस नियम को भारत के संविधान के दायरे से बाहर घोषित कर दिया क्योंकि यह अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 19(1)(b), जो क्रमशः भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बिना हथियारों के शांतिपूर्वक एकत्र होने का अधिकार प्रदान करते है, के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।  

कामेश्वर प्रसाद एवं अन्य बनाम बिहार राज्य एवं अन्य का विश्लेषण (1962)

कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962) का ऐतिहासिक फैसला सरकारी अधिकारियों के लिए भारत के संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों के अनुप्रयोग  पर प्रकाश डाला गया है। यह स्पष्ट करता है कि यद्यपि भारत की संप्रभुता की रक्षा के लिए और जनता की शांति के लिए अनुच्छेद 19(6) के तहत उचित प्रतिबंध हैं, लेकिन सरकारी कर्मचारी भारत के नागरिकों की तरह ही इन मौलिक अधिकारों का आनंद लेते हैं।  लोक सेवकों के अधिकारों की रक्षा के लिए यह निर्णय महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार सरकारी सेवक आचरण नियम, 1956 की धारा 4-A को रद्द कर दिया, लेकिन यह देखा कि हड़ताल का अधिकार भारत के संविधान के भाग III के दायरे में मौलिक अधिकार नहीं है।

निष्कर्ष 

कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962) के ऐतिहासिक फैसले ने सार्वजनिक महत्व और अत्यधिक संवैधानिक महत्व के एक महत्वपूर्ण प्रश्न पर निर्णय लिया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सामने मुद्दा यह था कि क्या बिहार सरकारी सेवक आचरण नियम, 1956 की धारा 4-A भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 19(1)(b) का उल्लंघन है? शीर्ष अदालत ने नियम को रद्द कर दिया और पाया कि धारा 4-A प्रदर्शनों और हड़तालों पर रोक लगाती है और इस प्रकार, यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) और अनुच्छेद 19(1)(B) के तहत क्रमशः प्रदान किए गए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा बिना हथियार शांतिपूर्वक सभा करने के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों का हनन करती है।

सर्वोच्च न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया, जिसमें प्रावधान था कि धारा 4-A संविधान के अनुच्छेद 19(6) के तहत उचित प्रतिबंधों के अंतर्गत आती है। इसके अतिरिक्त, यह भी रेखांकित करना आवश्यक है कि शीर्ष अदालत ने प्रदर्शनों को शामिल करने के लिए अनुच्छेद 19(1)(A) और (B) के तहत क्रमशः प्रदान किए गए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा बिना हथियार शांतिपूर्वक सभा करने के अधिकार के दायरे को विस्तारित किया। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या हड़ताल का अधिकार मौलिक अधिकार है?

कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962) का फैसला प्रदर्शन के अधिकार के दायरे को स्पष्ट किया। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि हालांकि प्रदर्शन और हड़ताल का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 19(1)(b) के दायरे में आता है, जो भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार प्रदान करता है, बिना हथियार के हड़ताल करने का अधिकार स्वयं भारत के संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकार नहीं है।

क्या भारत के संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकार सरकारी कर्मचारियों पर लागू होते हैं?

हां, भारत के संविधान के भाग III के तहत प्रदान किए गए मौलिक अधिकार और स्वतंत्रताएं सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों पर भी लागू होती हैं। हालांकि, वे भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(6) के तहत उचित प्रतिबंधों के अधीन हैं।

क्या कर्मचारियों को हड़ताल करने का अधिकार है?

हां, श्रमिकों को औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत हड़ताल करने का कानूनी अधिकार है। हालांकि, यह वैधानिक बाधाओं के अधीन है और भारत के संविधान के भाग III के तहत निहित मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। हड़ताल का कानूनी अधिकार कर्मचारी को अपनी जायज मांगों को व्यक्त करने के लिए शांतिपूर्वक प्रदर्शन और जुलूस निकालने का अधिकार देता है। हालांकि, सरकारी कर्मचारियों को हड़ताल करने का संवैधानिक या वैधानिक अधिकार नहीं है।

क्या हड़ताल करने का अधिकार अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के तहत गारंटीकृत है?

हां, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा में यह प्रावधान है कि हस्ताक्षरकर्ताओं को यह सुनिश्चित करना होगा कि देश के घरेलू कानूनों के अनुरूप हड़ताल करने के अधिकार की गारंटी है। भारत, इस सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते, इससे बंधा हुआ है। इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने हड़ताल के अधिकार को मान्यता दी है और इस प्रकार, भारत, इसका एक हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते, यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है कि यह अधिकार कानूनी अधिकार के रूप में दिया गया है।

संदर्भ

 

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