ककुमनु पेडा सुब्बय्या और अन्य बनाम ककुमनु अक्कम्मा और अन्य (1958)

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यह लेख Gargi Lad द्वारा लिखा गया है। यह लेख ककुमनु पेडा सुब्बय्या और अन्य बनाम ककुमनु अक्कम्मा और अन्य (1958) के ऐतिहासिक निर्णय का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। यह मामले के तथ्यों, मुद्दों और दोनों पक्षों द्वारा दिए गए तर्कों पर भी विस्तार से प्रकाश डालता है। इसके बाद, यह हिंदू अविभाजित परिवार के इतिहास और नाबालिग सहदायिक (कोपार्सनर) की अवधारणा और उसकी स्थिति और विभाजन की मांग करने के अधिकार पर गहराई से चर्चा करता है। लेख इस ऐतिहासिक निर्णय को संदर्भ के रूप में इस्तेमाल करने वाले मामलों को देखकर निर्णय के पीछे के तर्क और मामले के बाद की स्थिति के बारे में भी बात करता है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

पारिवारिक कानून, कानून के प्रति व्यक्तिपरक दृष्टिकोण (सब्जेक्टिव एप्रोच) है और इसे अज्ञात स्तर तक गलत तरीके से समझा जा सकता है। आम तौर पर एक व्यक्ति लिखित कानूनों पर भरोसा करता है या जब रिश्तेदारों के बीच संपत्ति का विवाद होता है या पारिवारिक कानून से संबंधित कोई मुद्दा हल करना होता है तो वह बहुत भावुक हो जाता है। यहीं से कानून या मामले की गलत व्याख्या शुरू होती है। 

वर्तमान मामला नाबालिग के अपने पैतृक संपत्ति में विभाजन के लिए पूछने के अधिकार के बारे में है, भले ही वह नाबालिग हो। यह इस बात पर गहराई से विचार करता है कि नाबालिग की ओर से पैतृक संपत्ति के विभाजन के लिए कौन मुकदमा दायर कर सकता है, और क्या नाबालिग का हित एक आवश्यक हिस्सा है जिसे पैतृक संपत्ति के विभाजन के लिए मुकदमा करते समय अदालत द्वारा ध्यान में रखा जाता है। यह मामला निचली अदालतों द्वारा स्पष्ट रूप से गलत व्याख्या का मामला है, उनके अलग-अलग मत थे और कुछ तथ्यों को गलत तरीके से समझा गया और उनकी गलत व्याख्या की गई जिसके कारण अलग-अलग फैसले आए जिन्हें हर बार चुनौती दी गई। अदालतों ने केवल सतही मुद्दों पर ध्यान दिया और नाबालिगों के तथ्यात्मक (फैक्चुअल) भागों और अधिकारों की उपेक्षा की।

मामले का विवरण

मामले की पृष्ठभूमि 

2.5 साल का नाबालिग और उसकी मां अपने पिता के साथ एक संपत्ति में रहते थे। पिता की शादी पहले हो चुकी थी और पिछली शादी से उनके दो बेटे हैं। पिता और पिछली शादी से हुए दो बेटे संयुक्त परिवार की संपत्ति को बेचने की कोशिश कर रहे थे जिसमें नाबालिग बेटे का भी कुछ हिस्सा था। संयुक्त परिवार की संपत्ति बेचने के बाद उनका इरादा एक अलग संपत्ति खरीदने का था जो व्यक्तिगत रूप से उनकी होगी, इसलिए उनका उद्देश्य नाबालिग को संयुक्त परिवार की संपत्ति में उसके हिस्से से वंचित करना था।

यह देखकर नाबालिग के नाना ने हस्तक्षेप किया और नाबालिग के हित में मुकदमा दायर किया, जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया। इस बीच नाबालिग की मृत्यु हो गई और फिर अदालत ने मां को नाबालिग का कानूनी प्रतिनिधि मान लिया।

मामले के तथ्य

नाबालिग के हित में एक मुकदमा दायर किया गया था, जिसने सहदायिक संपत्ति का विभाजन करने की मांग की थी। मामले के लंबित रहने के दौरान नाबालिग की मृत्यु हो गई थी। शुरू में, मुकदमे पर फैसला सुनाया गया था, लेकिन कुछ मुद्दों के लिए अधीनस्थ न्यायाधीश ने मामले को वापस भेज दिया था। प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर, जिला मुंसिफ ने माना था कि अलग-अलग धन से सामान खरीदना साबित नहीं हुआ था और इसलिए वे संयुक्त परिवार का हिस्सा थे और परिवार पर कोई कर्ज नहीं था। लेकिन उनका यह भी मत था कि उनके अनुसार इसने विभाजन के लिए कोई कार्रवाई का कारण नहीं दिया है और इसलिए उन्होंने मुकदमा खारिज कर दिया था। 

इसके अलावा, निर्णय से असंतुष्ट होकर उन्होंने निर्णय को चुनौती देने के लिए अपील दायर की। निचली अदालत का मानना था कि संपत्ति के विभाजन के लिए इस मामले के निष्कर्षों के आधार पर कार्रवाई का कोई कारण नहीं था और बाद में उन्होंने मुकदमा खारिज कर दिया। इसके बाद, बापटला के अधीनस्थ न्यायाधीश के समक्ष भी अपील दायर की गई, जिन्होंने जिला मुंसिफ के निर्णय को बरकरार रखा कि वर्तमान मामले में कार्रवाई का कोई कारण नहीं था और इसलिए अपील को खारिज कर दिया गया।

इसके अलावा, मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष एक और अपील दायर की गई, जहाँ यह माना गया कि प्रतिवादियों द्वारा किया गया दावा कि सामान 2 और 11 प्रतिवादियों की अलग-अलग संपत्तियाँ हैं और वह संयुक्त परिवार का हिस्सा नहीं हैं, यह झूठ था। अंततः यह माना गया कि इस तरह की कार्रवाई से नाबालिग के हित पर असर पड़ता है और उक्त संपत्ति के विभाजन का मुकदमा वैध है और नाबालिग के लिए फायदेमंद है। इन निष्कर्षों के आधार पर, न्यायालय ने विभाजन की प्रारंभिक डिक्री दी।

इस मामले में नाबालिग ककुमनु रमन्ना की ओर से नाना ने अंतिम अपील दायर की थी। यह अपील संयुक्त परिवार की संपत्ति के विभाजन के मुकदमे के संबंध में निचली अदालतों द्वारा दिए गए सभी असंतोषजनक निर्णयों से उत्पन्न हुई थी। वर्तमान मामले में प्रतिवादी उसके पिता, पिता के बेटे और उसकी मृतक पहली पत्नी थे।

उठाए गए मुद्दे

  • क्या यह वाद नाबालिग के लाभ के लिए दायर किया गया था? 
  • क्या नाबालिग परिवार का अविभाजित सदस्य था और संपत्ति में सहदायिक था?
  • क्या नाबालिग का प्रतिनिधित्व करनेवाले (नेक्स्ट फ्रेंड) द्वारा मुकदमा दायर करने से संयुक्त परिवार की संपत्ति का विभाजन प्रभावित हो सकता है?
  • क्या नाबालिग सहदायिक की मृत्यु पर मुकदमा समाप्त हो जाता है या नाबालिग के कानूनी प्रतिनिधि उसकी ओर से मुकदमा जारी रख सकते हैं?

पक्षों के तर्क

अपीलकर्ता

न्यायाधीश के समक्ष तीन आधार प्रस्तुत किए गए, जिनसे यह पता चला कि विभाजन की आवश्यकता क्यों उत्पन्न हुई और नाबालिग को विभाजन की मांग करने का अधिकार क्यों होना चाहिए। 

पहला आधार यह था कि वादी की मां का उचित तरीके से इलाज नहीं किया गया और पिता द्वारा उसकी और उसके बच्चों की उचित देखभाल नहीं की गई। जिला मुंसिफ और अधीनस्थ न्यायाधीश जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से पहले इस मामले की सुनवाई की थी, उनका मानना था कि उपर्युक्त तथ्य कि मां की देखभाल नहीं की गई थी, यह स्थापित नहीं हुआ था और इसलिए सर्वोच्च न्यायालय में इस पर आगे कोई तर्क नहीं दिया जाना चाहिए। 

दूसरे आधार के लिए, यह तर्क दिया गया कि पारिवारिक संपत्ति को बिना कोई कारण बताए, धमकी दिए या सूचना दिए, 9 मई, 1939 को अक्कुल वेंकटसुब्बा रेड्डी नामक एक तीसरे पक्ष को 2300 रुपये में बेच दी गई थी। संपत्ति की बिक्री वादी को परेशान करने, उत्पीड़न करने और उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए की गई थी। 

तीसरे तर्क में, वादी ने कहा कि कुछ वस्तुओं को संयुक्त परिवार के धन से संसाधनों के एक सामान्य पूल से खरीदा गया था, लेकिन बिक्री विलेख (सेल डीड) केवल पिता और मृतक पहली पत्नी के बेटों के नाम पर किया गया था, न कि हिंदू अविभाजित परिवार के सभी सदस्यों के नाम पर। वादी ने तर्क दिया कि यह दुर्भावनापूर्ण इरादे से किया गया था जिसका उद्देश्य वादी के स्वामित्व वाली संपत्तियों के मूल्य को कम करना और वादी के लिए धन की उपलब्धता को कम करना था। वादी ने यह भी बताया कि उनका परिवार संपन्न था, उन पर कोई कर्ज नहीं था और वह आर्थिक रूप से बहुत अच्छी स्थिति में था।

प्रतिवादी

प्रतिवादी अपीलकर्ताओं द्वारा लगाए गए आरोपों से असहमत थे। उन्होंने इस बात का खंडन किया कि वादी द्वारा उल्लिखित वस्तुएं संयुक्त परिवार के सामान्य संसाधनों से नहीं खरीदी गई थीं, बल्कि एक अलग कोष (फंड) से खरीदी गई थीं जिसका रखरखाव पिता और और उनकी मृतक पहली पत्नी के बेटों द्वारा किया जाता था। इसलिए प्रतिवादियों ने दावा किया कि संयुक्त परिवार का उन निश्चित वस्तुओं पर कोई अधिकार नहीं था, न ही उन्हें पैसे का दावा करने का कोई अधिकार था। 

इस आरोप के जवाब में कि परिवार संपन्न था तथा उस पर कोई कर्ज नहीं था, प्रतिवादी ने कहा कि परिवार पर सामूहिक रूप से लगभग 2600 रुपये का कर्ज बकाया था, जिसे चुकाया जाना था। 

ककुमनु पेडा सुब्बय्या और अन्य बनाम ककुमनु अक्कम्मा और अन्य (1958) में शामिल कानून/अवधारणाएं

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 3(f)

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 का यह प्रावधान वारिस की परिभाषा के बारे में बात करता है और यह समझने में सहायता करता है कि सहदायिक संपत्ति के हस्तांतरण के लिए वारिस कौन है। प्रावधान वारिस को लिंग की परवाह किए बिना, संयुक्त परिवार की संपत्ति पर उत्तराधिकार का अधिकार रखने वाले किसी भी व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है। यह अधिकार सहदायिक या मृतक के रिश्तेदार होने से आता है, जिसकी मृत्यु बिना वसीयत के हुई हो।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 3(g)

इस प्रावधान के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति ने अपनी संपत्ति के बारे में कोई वसीयत या वसीयतनामा नहीं बनाया है, तो उसे बिना वसीयत के मरना माना जाता है। कोई व्यक्ति केवल अपनी निजी संपत्ति के बारे में वसीयतनामा बना सकता है। सहदायिक संपत्ति तभी व्यक्तिगत संपत्ति बनती है, जब उस संपत्ति का विभाजन हो जाता है, जिसके बाद उसे व्यक्तिगत या निजी संपत्ति की तरह ही माना जाता है। यदि उक्त संपत्ति का वसीयतनामा निपटान नहीं किया जाता है, तो संपत्ति उत्तराधिकार के नियमों के अनुसार हस्तांतरित होती है।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 विशेष रूप से मिताक्षरा कानून द्वारा शासित संयुक्त परिवार की संपत्ति में हित के हस्तांतरण से संबंधित है। 

धारा 6 के अनुसार विभाजन की परिभाषा यह है कि शब्द “विभाजन” में एक ऐसा विभाजन शामिल है जो न्यायालय के आदेश के कारण या कानून द्वारा किया गया हो, तथा एक विभाजन विलेख द्वारा भी किया गया हो जो पंजीकरण अधिनियम, 1908 के तहत विधिवत पंजीकृत किया गया हो।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6(3)

इस प्रावधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि ऐसी स्थिति में जब किसी हिंदू की मृत्यु हो जाती है तो संपत्ति में उसका हित बिना वसीयत या वसीयतनामा के उत्तराधिकार के माध्यम से आगे हस्तांतरित हो जाएगा। यह धारा इस बात पर भी ध्यान केंद्रित करती है कि इस तरह के विभाजन की स्थिति में संपत्ति पर किसका अधिकार होगा।

इस अधिनियम के तहत जो कानून बनाए गए हैं, उनमें कहा गया है कि बेटियों और बेटों को समान हिस्से आवंटित किए जाते हैं। हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के बाद ऐसा किया गया, क्योंकि बेटियों को भी सहदायिक माना जाता है। इस प्रावधान में आगे कहा गया है कि किसी पूर्व-मृत बेटे या पूर्व-मृत बेटी के जीवित बच्चे को ऐसे पूर्व-मृत बेटे या पूर्व-मृत बेटी के हिस्से आवंटित किए जाएंगे। यही नियम पूर्व-मृत बेटे के पूर्व-मृत बच्चे के बच्चे और पूर्व-मृत बेटी के पूर्व-मृत बच्चे के बच्चे पर भी लागू होते हैं।

धारा 6(3) के लिए स्पष्टीकरण: यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि चाहे हिंदू मिताक्षरा सहदायिक परिवार की संपत्ति के विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं, ऐसे सहदायिक का हित संयुक्त परिवार की संपत्ति के हिस्से में इस तरह से माना जाएगा, कि विभाजन हिंदू सहदायिक की मृत्यु से तुरंत पहले हुआ था।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 के प्रावधान 20 दिसंबर, 2004 से पहले हुए किसी भी विभाजन पर लागू नहीं होंगे।

विभाजन 

यह संयुक्त परिवार की संपत्ति का बराबर या पहले से तय हिस्सों में विभाजन है। संपत्ति को सहदायिकों के बीच वितरित किया जाता है जो संयुक्त परिवार बनाते हैं, इसका पालन प्रत्येक सदस्य को स्मृति के रूप में अपने पूर्वजों की संपत्ति का हिस्सा प्रदान करने के लिए किया जाता है। विभाजन एक ऐसा तरीका है जिसके माध्यम से एक हिंदू संयुक्त परिवार समाप्त हो जाता है, केवल जब संयुक्त परिवार की संयुक्त स्थिति समाप्त हो जाती है, तो यह कहा जा सकता है कि विभाजन हुआ है। संयुक्त परिवार की संपत्ति का विभाजन दो तरीकों से हो सकता है – या तो परिवार की संयुक्त स्थिति को अलग करके या संपत्ति को माप और सीमांकन (मेट्स और बाउंड्स) द्वारा या दोनों द्वारा विभाजित करके। 

वैध विभाजन को प्रभावी बनाने की अनिवार्यताएं 

  • पहला, संयुक्त परिवार से अलग होने का इरादा, यह इरादा सहदायिक की ओर से स्पष्ट होना चाहिए।
  • दूसरा, अलग होने का इरादा घोषित किया जाना चाहिए। अलग होने का निर्णय स्पष्ट और जाहिर होना चाहिए।
  • तीसरा, यह बात परिवार के मुखिया कर्ता को बताई जानी चाहिए। किसी भी सहदायिक को यह बात बताना संचार नहीं माना जाएगा, हर सहदायिक को बताना महत्वहीन है, लेकिन कर्ता को बताना जरूरी है। कर्ता का कर्तव्य है कि वह अन्य सभी सहदायिकों को बताए, न कि विभाजन चाहने वाले सहदायिक को।

विभाजन को प्रभावी करने के तरीके

एक सहदायिक को जन्म के समय संपत्ति विरासत में मिलती है, फिर वह संपत्ति का विभाजन करने के लिए कह सकता है माप और सीमांकन के अनुसार अपना सही हिस्सा प्राप्त कर सकता है। विभाजन की मांग करने का अधिकार संपत्ति के अधिकार के साथ आता है। वह विभाजन की मांग कर सकता है:

एकतरफा घोषणा के माध्यम से व्यक्तिगत सहदायिकों द्वारा विभाजन 

जब एक सहदायिक यह निर्णय लेता है कि वह अब संयुक्त परिवार का हिस्सा नहीं रहना चाहता है, तो वह इस संबंध में कर्ता को बता सकता है। 

समझौते द्वारा विभाजन 

जो सहदायिक विभाजन चाहता है, वह अन्य सभी सहदायिकों की सहमति मांग सकता है, यद्यपि विभाजन के लिए सहमति कोई मायने नहीं रखती, यदि निश्चित संख्या में सहदायिक सहमत हों तो समझौते के माध्यम से विभाजन हो सकता है। 

आचरण द्वारा विभाजन

यदि सहदायिक घर छोड़कर अलग रहने लगे तो वह संयुक्त परिवार का हिस्सा नहीं रहता। यदि जाने से पहले वह बता दे कि वह विभाजन चाहता है और उसका व्यवहार जारी रहता है तो यह माना जा सकता है कि कर्ता को विभाजन की उसकी इच्छा के बारे में बताया गया है।

मुकदमों द्वारा विभाजन

जब एक बार अदालत में विभाजन का वाद प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे वास्तविक विभाजन माना जाता है।

नोटिस द्वारा विभाजन

सहदायिक जो विभाजन चाहता है, वह कर्ता को नोटिस दे सकता है कि वह विभाजन चाहता है। एक बार जब कर्ता को नोटिस दे दिया जाता है, तो उससे विभाजन की सूचना दी जाती है और उसे लागू किया जाता है।

वसीयत द्वारा विभाजन

यदि कोई सहदायिक अपनी वसीयत में विभाजन की इच्छा लिखता है और कर्ता सहित प्रत्येक सहदायिक को इसकी सूचना देता है तो यह मान लिया जाता है कि विभाजन हो चुका है और इसकी सूचना अच्छी तरह से दी गई है।

रत्नम चेट्टियार बनाम एसएम कुप्पुस्वामी चेट्टियार (1975) के मामले में, यह सिद्धांत निर्धारित किया गया था कि यदि नाबालिग सहदायिक को कभी भी लगता है कि उस समय जो विभाजन हुआ था वह अन्यायपूर्ण या अनुचित था, तो वयस्क होने के बाद उन्हें विभाजन को फिर से खोलने का अधिकार है। इस मामले का उल्लेख सर्वोच्च न्यायालय ने सुखरानी बनाम हरिशंकर (1979) के मामले में भी किया था।

विभाजन के प्रकार

विभाजन को दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है, विधित: (डी जूरे) और वास्तविक (डी फैक्टो)।

वास्तविक विभाजन

विभाजन को वास्तविक तब कहा जाता है जब विभाजन तथ्यों में होता है और वास्तविक जीवन में नहीं होता। इस तरह के विभाजन की कोई कानूनी मान्यता नहीं है। यह तब होता है जब कोई सहदायिक व्यक्ति कर्ता, सहदायिक के मुखिया को प्रभावी ढंग से सूचित करता है कि वह विभाजन करना चाहता है। वास्तविक विभाजन उसी दिन शुरू होता है जिस दिन संचार पूरा हो जाता है। हालाँकि, यह माना जाता है कि वास्तविक विभाजन शुरू होने के बाद भी, कर्ता पूरी संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं बेच सकता क्योंकि यह अब संयुक्त संपत्ति के रूप में मौजूद नहीं है। यह विभाजन के लिए एक सहदायिक की इच्छा के बारे में अन्य सहदायिकों को किए गए संचार की परवाह किए बिना है।

विधित: विभाजन

विभाजन को विधित: कहा जाता है जब विभाजन वास्तविक जीवन में होता है। इस तरह के विभाजन को कानूनी मान्यता दी गई है। ऐसा कहा जाता है कि संपत्ति का विभाजन हो गया है और यह विधित: विभाजन है जब संपत्ति को प्रत्येक सहदायिक को मूल्य के अनुसार वितरित किया जाता है, और विभाजन माप और सीमांकन द्वारा हुआ है। विधित: तब होता है जब विभाजन वास्तव में होता है और संपत्ति का मूल्यांकन किया जाता है और प्रत्येक सदस्य को उसका हिस्सा मिलता है।

नाबालिग सहदायिक के रूप में विभाजन

विभाजन एक ऐसी अवधारणा है जिसके माध्यम से किसी संपत्ति को दो या अधिक भागों में विभाजित किया जाता है। हिंदू कानून के अनुसार, विभाजन तब होता है जब प्रत्येक सहदायिक को संपत्ति में एक व्यक्तिगत हिस्सा मिलता है और हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति सभी सहदायिकों के बीच वितरित की जाती है। प्रत्येक सहदायिक को जन्म से ही संपत्ति में हिस्सा लेने का अधिकार है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यदि केवल एक सहदायिक है तो कोई विभाजन नहीं हो सकता है। किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत संपत्ति का विभाजन भी नहीं हो सकता है। एक बार विभाजन हो जाने पर संयुक्त परिवार का और हिंदू अविभाजित परिवार का दर्जा समाप्त हो जाता है।

संपत्ति के विभाजन में न्यायालय की भूमिका

हिंदू कानून के तहत संपत्ति के विभाजन के मामले में न्यायालयों की अहम भूमिका होती है। उन्हें यह सुनिश्चित करना होता है कि जो विभाजन हो रहा है, वह निष्पक्ष तरीके से हो। मिताक्षरा विधि के अनुसार संपत्ति का विभाजन तभी किया जा सकता है, जब परिवार के सभी सदस्यों की सहमति हो। न्यायालय जरूरत पड़ने पर मामले में हस्तक्षेप कर सकता है और विभाजन का आदेश दे सकता है।

संपत्ति का विभाजन करने से पहले यह ज़रूरी है कि अदालतें इस विभाजन में शामिल सभी पक्षों के अधिकारों का विश्लेषण करें और उनका निर्धारण करें। यह भी ज़रूरी है कि विभाजन वाली संपत्ति की प्रकृति का निर्धारण किया जाए।

निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले अदालतें शामिल लोगों की उम्र और स्वास्थ्य सहित अन्य कारकों पर भी विचार करती हैं। इसके अलावा अदालतें यह भी देखती हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की वित्तीय स्थिति क्या है और ऐसी संपत्ति के रखरखाव के लिए क्या योगदान दिया गया है। यह सुनिश्चित करना अदालतों की जिम्मेदारी है कि किसी नाबालिग बच्चे को संपत्ति में उसके अधिकारों से वंचित न किया जाए और साथ ही मृतक व्यक्ति की इच्छाओं को भी ध्यान में रखा जाए। इन सभी कारकों को ध्यान में रखने के बाद, अदालतें किसी निष्कर्ष पर पहुंचती हैं और अदालतों द्वारा दिया गया ऐसा निर्णय या आदेश परिवार के सभी सदस्यों पर बाध्यकारी होता है।

ककुमनु पेडा सुब्बय्या और अन्य बनाम ककुमनु अक्कम्मा और अन्य (1958) में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय

कुछ साल पहले तक यह माना जाता था कि विभाजन तभी हो सकता है जब सभी सहदायिक इसके लिए सहमत हो जाएं या विभाजन के लिए डिक्री पारित हो जाए। हालांकि गिरजा बाई बनाम सदाशिव धुंडिराज (1916) के मामले में अदालत ने माना था कि संयुक्त परिवार के हर सहदायिक को किसी भी समय विभाजन की मांग करने का अधिकार है और इस बात पर विचार नहीं किया जाना चाहिए कि अन्य सहदायिक इसके लिए सहमत हैं या नहीं। सहदायिक का विभाजन तब हो सकता है जब वह स्पष्ट रूप से अलग होने का इरादा व्यक्त करता है। यह माना जाता था कि सहदायिक द्वारा मुकदमा दायर करना एक ऐसा तरीका है जिससे अदालतें उसके अलग होने के इरादे की व्याख्या कर सकती हैं। आगे यह सवाल उठा कि क्या ऐसा नियम केवल बालिग सहदायिक पर ही लागू हो सकता है या यह ऐसे मामले में भी लागू होता है जहां मुकदमा नाबालिग द्वारा नहीं बल्कि उसके प्रतिनिधि द्वारा दायर किया गया हो। इस सवाल का जवाब कई फैसलों में दिया गया।

चेलिमी चेट्टी बनाम सुब्बाम्मा (1917) के मामले में न्यायालय ने इस मुद्दे पर विचार किया कि क्या नाबालिग वादी की ओर से दायर किया गया मुकदमा नाबालिग की मृत्यु के बाद भी जारी रखा जा सकता है या नहीं। न्यायालय का मत था कि संयुक्त संपत्ति के विभाजन के लिए मुकदमा दायर करने के लिए जिन नियमों का पालन किया जाता है, वे नाबालिग की ओर से दायर मुकदमे पर लागू नहीं होते हैं और इसी कारण से, कानूनी प्रतिनिधि नाबालिग बच्चे की ओर से मुकदमा जारी नहीं रख सकते हैं। यदि कोई वयस्क विभाजन की मांग करता है तो न्यायालय डिक्री देने के लिए बाध्य है। हालांकि नाबालिग बच्चे के मामले में, न्यायालयों को यह तय करने का अधिकार दिया गया है कि कोई निर्णय लिया जाए या नहीं। 

चेलिमी चेट्टी बनाम सुब्बम्मा (1917) के उपरोक्त मामले का हवाला लालता प्रसाद बनाम श्री महादेवजी (1920) के मामले में भी दिया गया था, जहां अदालत ने कहा था कि किसी भी कार्रवाई को जो कि किसी नाबालिग के प्रतिनिधि के माध्यम से दाखिल किया गया हो, किसी भी प्रकार के अलगाव (सेपरेशन) का कारण नहीं बनना चाहिए, क्योंकि अदालतों को नाबालिग के मामले में निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की गई है। 

इन मामलों का जिक्र करने के बाद अदालत ने यह भी कहा कि कानून ने अदालतों को नाबालिग के लिए विभाजन का मुकदमा तय करने का जो अधिकार दिया है, वह सिर्फ यह जांचने के लिए है कि नाबालिग की ओर से मुकदमा दायर करने वाला व्यक्ति उनके सर्वोत्तम हित में काम कर रहा है या नहीं। ऐसे मामलों में अदालत नाबालिग के सर्वोच्च अभिभावक की तरह काम नहीं कर रहा है, बल्कि एक पर्यवेक्षक की तरह काम कर रहा है, जो यह देखता है कि नाबालिग का प्रतिनिधित्व करनेवाला व्यक्ति नाबालिग के सर्वोत्तम हित में काम कर रहा है या नहीं।

ग़रीब-उल-लाह बनाम खलक सिंह (1903) के मामले का भी संदर्भ दिया गया कि संयुक्त परिवार के मामले में केवल कर्ता यानी परिवार का मुखिया ही किसी भी लेनदेन या मामले में नाबालिग सदस्य का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार रखता है जो उनसे संबंधित है। हालाँकि, यदि किसी विशेष मामले में परिवार की संयुक्त स्थिति नहीं है तो कर्ता द्वारा प्रतिनिधित्व के अधिकार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है और कोई अन्य व्यक्ति भी नाबालिग का प्रतिनिधित्व कर सकता है बशर्ते कि उक्त व्यक्ति नाबालिग के सर्वोत्तम हित में काम कर रहा हो।

मामले का फैसला

न्यायालय ने इस बात का उत्तर देते समय कि क्या नाबालिग परिवार का अविभाजित सदस्य है और संपत्ति में सहदायिक है, यह निर्धारित किया कि हां, नाबालिग सहदायिक है क्योंकि उसे यह अधिकार जन्म से प्राप्त होता है, इस अधिकार को न तो बनाया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है और इसलिए, उसे वैध सहदायिक के रूप में विभाजन की मांग करने का भी अधिकार है।

अदालत ने निर्धारित किया कि जो वादपत्र दायर किया गया था, वह नाबालिग के सर्वोत्तम हित में किया गया था और इसलिए नाबालिग को प्रतिवादियों के साथ संयुक्त रूप से नहीं रहने तथा विभाजन की मांग करने का निर्देश दिया गया, क्योंकि प्रतिवादियों ने सामान 2 और मद 11 पर वादी के अधिकार से इनकार कर दिया था और यह भी कहा था कि चूंकि परिवार की संपत्ति पर कर्ज था, इसलिए उस परिवार के साथ रहना बच्चे के सर्वोत्तम हित में नहीं था।

न्यायालय को यह विश्वास होना चाहिए कि नाबालिग का प्रत्यक्ष मित्र जो नाबालिग की ओर से विभाजन का मुकदमा दायर कर रहा है, नाबालिग के सर्वोत्तम हित में कार्य कर रहा है। यदि नाबालिग का प्रतिनिधित्व करनेवाला व्यक्ति न्यायालय के समक्ष उचित संदेह से परे यह साबित करने में सक्षम है कि मुकदमा नाबालिग के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए दायर किया गया था, तो उस समय मुकदमा स्वीकार किया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नाबालिग सहदायिक की मृत्यु पर मुकदमा समाप्त नहीं होता है, और यदि यह नाबालिग के हित में था तो मुकदमा उसके कानूनी प्रतिनिधियों द्वारा जारी रखा जाएगा। विभाजन तब होता है जब सहदायिक अलग होने का इरादा व्यक्त करता है और विभाजन के लिए मुकदमा दायर करना सहदायिक के स्पष्ट रूप से अलग होने के इरादे का स्पष्ट संकेत है। जिस तारीख को विभाजन के लिए मुकदमा दायर किया गया था, उस दिन वास्तविक विभाजन हुआ था और इसलिए नाबालिग की मृत्यु एक अलग सदस्य के रूप में हुई क्योंकि विभाजन के बारे में सभी सदस्यों को पहले ही सूचित कर दिया गया था। 

अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने अपील खारिज कर दी।

इस निर्णय के पीछे तर्क 

मिताक्षरा कानून में जो सिद्धांत निर्धारित किए गए हैं, उनके अनुसार सहदायिक को संयुक्त परिवार की स्थिति के अंतर्गत आने वाली किसी भी संपत्ति में रखरखाव का अधिकार है। साथ ही, जन्म तिथि से ही सहदायिक को संयुक्त परिवार की संपत्ति में हिस्सा लेने का अधिकार है। सहदायिक को संपत्ति में अपने हिस्से का अलग से कब्ज़ा मांगने का भी अधिकार है और वह विभाजन की मांग भी कर सकता है। सवाल यह उठता है कि क्या कोई नाबालिग जो अपने प्रतिनिधि के माध्यम से वाद कर रहा है, उसे भी कानून के तहत वही लागू होता है या नहीं। 

अदालत ने गिरजा बाई बनाम सदाशिव धुंडिराज (1916) मामले का भी हवाला दिया, जहां अदालत ने माना था कि प्रत्येक सहदायिक को अपनी इच्छानुसार विभाजन का समान अधिकार है और ऐसे मामले में अन्य सहदायिकों की सहमति मायने नहीं रखती और उसका कोई मूल्य नहीं है।

संयुक्त कब्जे के अधिकारों के संबंध में हिंदू कानून के अनुसार नाबालिग और वयस्क सहदायिक के बीच कोई अंतर नहीं है। यहां तक कि जब विभाजन होता है तो नाबालिग सहदायिक के अधिकार भी विभाजन चाहने वाले वयस्क सहदायिक के बराबर होते हैं।

जब ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, तो यह तय करना न्यायालय पर निर्भर करता है कि क्या ऐसा निर्णय बच्चे के सर्वोत्तम हित में लिया गया था या क्या ऐसा निर्णय उक्त बच्चे को उसके अधिकारों से वंचित करेगा। यदि न्यायालय संपत्ति का विभाजन करता है तो मुकदमा शुरू करने की तिथि नाबालिग सहदायिक की स्थिति के विच्छेद (सेवरेंस) की प्रभावी तिथि होगी। यदि ऐसे मामले में दावे के निपटारे से पहले नाबालिग की मृत्यु हो जाती है तो नाबालिग के कानूनी प्रतिनिधियों को मामले को जारी रखने का अधिकार है।

मामले का महत्व

ककुमनु पेडा सुब्बय्या बनाम ककुमनु अक्कम्मा का मामला नाबालिग सहदायिक के पक्ष में विभाजन के संबंध में एक ऐतिहासिक निर्णय बन गया। न्यायालयों ने कई मामलों में इस निर्णय पर भरोसा किया है, जैसा कि नीचे चर्चा की गई है:-

पी एम रामास्वामी चेट्टियार बनाम राजा कुप्पा चीती (1961)

रोया कुप्पा चेट्टी और कृष्णास्वामी चेट्टी जो उनके पोते हैं, एक संयुक्त हिंदू परिवार के सदस्य थे। कृष्णास्वामी चेट्टी अपनी मां की देखरेख और संरक्षण में रह रहे थे और उस समय वह एक नाबालिग थे। हालांकि वे दोनों एक ही घर में रह रहे थे, लेकिन ऐसा कहा गया कि रोया कुप्पा अपने पोते के साथ ठीक से पेश नहीं आते थे और उन्हीं कारणों से नाबालिग बच्चे की मां ने एक नोटिस भेजा था जिसमें उसने परिवार से अलग होने की मंशा जताई थी। मां संपत्ति का विभाजन चाहती थी। रोया कुप्पा ने भेजे गए नोटिस का जवाब नहीं दिया और इसके बजाय इस मामले के वादी को संपत्ति बेच दी। इस मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि रोया कुप्पा विवादित पूरी संपत्ति को बेचने के लिए सक्षम नहीं थे। 

मद्रास उच्च न्यायालय ने उपरोक्त मामले में पेडा सुब्बय्या के ऐतिहासिक मामले का संदर्भ दिया, ताकि ऐसी स्थिति में न्यायालयों की भूमिका और शक्ति निर्धारित की जा सके, जहां नाबालिग को उसकी पैतृक संपत्ति के अधिकार से वंचित किया गया हो। न्यायालय ने माना कि, अभिभावक द्वारा दायर मुकदमे को मंजूरी देने या न देने का निर्णय लेने की न्यायालयों की शक्ति सबसे पहले नाबालिग सहदायिक के अधिकारों की रक्षा करना है और दूसरा यह विश्लेषण करना है कि क्या नाबालिग को उसके अधिकार से वंचित किया गया है और नाबालिग को उसकी मूल स्थिति में वापस लाकर न्याय प्रदान करना है। यहां न्यायालय की स्थिति और भूमिका प्रकृति में पर्यवेक्षी है, यह देखने के लिए कि क्या न्याय दिया जा रहा है और नाबालिग की ओर से मुकदमा शुरू करने की आवश्यकता न हो।

लक्कीरेड्डी चिन्ना वेंकट रेड्डी बनाम लक्कीरेड्डी लक्ष्मामा (1963) 

एक विधवा और एक बेटे ने संयुक्त परिवार की संपत्ति के विभाजन के लिए मुकदमा दायर किया था। बेटा नाबालिग था और इस मामले में माँ उसकी प्रतिनिधि के रूप में काम कर रही थी। उन्होंने संयुक्त परिवार की संपत्ति में हिस्सा मांगा था लेकिन मुकदमा लंबित रहने के दौरान नाबालिग की मृत्यु हो गई और माँ नाबालिग की कानूनी प्रतिनिधि के रूप में काम कर रही थी। सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त मामले में पेडा सुब्बय्या के ऐतिहासिक फैसले का संदर्भ यह निर्धारित करने के लिए लिया कि नाबालिग की ओर से उसके अधिकार के लिए दायर किया गया मुकदमा उसकी मृत्यु के बाद समाप्त हो जाता है या नहीं। पेडा सुब्बय्या मामले के आधार पर, अदालत ने फैसला किया कि नाबालिग सहदायिक की मृत्यु पर मुकदमा समाप्त नहीं होता है, क्योंकि यह नाबालिग के अधिकार के लिए दायर किया गया था और नाबालिग की मृत्यु के बाद भी जारी रहेगा। मुकदमा अभी भी जारी है और इस पर सुनवाई होनी है। हालांकि, नाबालिग के अभिभावक या प्रतिनिधि के लिए यह साबित करना आवश्यक है कि मुकदमा नाबालिग के लाभ के लिए दायर किया गया था और उसे उसके अधिकार से वंचित किया गया था। 

चिन्नम्मा एवं अन्य बनाम गोपाल एवं अन्य (1995)

विभाजन का वाद एक मां और नाबालिग बेटे द्वारा दायर किया गया था, जहां मां उसकी प्रतिनिधि की तरह काम कर रही थी और उन्होंने विभाजन के साथ-साथ रखरखाव की वसूली का दावा किया था। इस मामले में एकमात्र मुद्दा यह था कि नाबालिग बच्चा संपत्ति के विभाजन का हकदार है या नहीं। न्यायालयों की राय थी कि चूंकि नाबालिग बच्चे का पिता, जो कि प्राकृतिक अभिभावक है, जीवित है, इसलिए दोनों के बीच जबरदस्ती विभाजन नहीं किया जा सकता। इस मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने ककुमनु पेडा सुब्बय्या एवं अन्य बनाम ककुमनु अक्कम्मा एवं अन्य के मामले का संदर्भ दिया था, जहां यह निर्धारित किया गया था कि नाबालिग के लाभ के लिए वाद दायर किया जा सकता है। अंततः चिन्नम्मा बनाम गोपाल के मामले में न्यायालय ने माना कि निचली अदालत का निर्णय कि संयुक्त परिवार की संपत्ति के विभाजन के लिए नाबालिग द्वारा दायर वाद चलाया नहीं नही जा सकता है, इसलिए निचली अदालत के निर्णय को रद्द कर दिया गया। इसके बाद अदालत ने स्पष्ट फैसला दिया कि संयुक्त परिवार के विभाजन के लिए नाबालिग द्वारा दायर किया गया कोई भी मुकदमा उसका अधिकार है और उसे विभाजन की मांग करने के उसके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।

एस. जसदीप सिंह बनाम एस. केहर सिंह (2004)

वर्तमान मामले में  वादी ने मौखिक विभाजन और घर की संपत्ति के संबंध में पूरी कार्यवाही को शून्य और अमान्य घोषित करने के लिए प्रार्थना की थी और अदालत से यह भी घोषित करने का अनुरोध किया था कि वादी और प्रतिवादी दोनों संपत्ति के 1/6 वें हिस्से के हकदार हैं। दूसरी ओर प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि मुकदमा कायम रखने योग्य नहीं था क्योंकि वादी के पास मुकदमा दायर करने का कोई अधिकार नहीं था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने उपरोक्त मामले में ककुमनु पेडा सुब्बय्या बनाम ककुमनु अक्कम्मा के मामले का हवाला देते हुए इस सवाल का जवाब दिया था कि क्या नाबालिग को अपने पिता के जीवनकाल में विभाजन की मांग करने का अधिकार है या नहीं। इस अदालत ने ककुमनु पेडा सुब्बय्या बनाम ककुमनु अक्कम्मा के फैसले के परिच्छेद (पैराग्राफ) 9 को उद्धृत किया था, जहां यह माना गया था कि नाबालिग सहदायिक और वयस्क सहदायिक के अधिकार बहुत समान हैं और नाबालिग सहदायिक का रखरखाव पारिवारिक संपत्ति से किया जाना चाहिए। 

सुश्री इलारिया कपूर बनाम राकेश कपूर (2012)

वर्तमान मामले में प्रतिवादी ने तर्क दिया कि उसकी संपत्ति को हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह एक महिला है और वह अपने पति और बेटे के हिंदू अविभाजित परिवार में सहदायिक नहीं है। उसने तर्क दिया कि उसके पास जो संपत्ति है वह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 और हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 द्वारा संरक्षित है और इसलिए मुकदमा वर्जित किया जाना चाहिए। इस मामले में, यह तर्क दिया गया कि वादी पिता की मृत्यु से पहले विभाजन की मांग नहीं कर सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने ककुमनु पेडा सुब्बय्या बनाम ककुमनु अक्कम्मा के मामले का हवाला दिया, जहां यह माना गया कि संयुक्त परिवार की संपत्ति में हिस्सा लेने और विभाजन की मांग करने का सहदायिक का अधिकार सहदायिक के जन्म से उत्पन्न होता है और हिंदू कानून नाबालिग और वयस्क सहदायिक के बीच कोई अंतर नहीं करता है।

निष्कर्ष

इस मामले में कुछ सिद्धांत तय किए गए थे। पहला सवाल यह उठा कि क्या नाबालिग सहदायिक द्वारा भी विभाजन के अधिकार का दावा किया जा सकता है। न्यायालय ने उल्लेख किया था कि सभी सहदायिक एक दूसरे से स्वतंत्र हैं और विभाजन के दौरान नाबालिग सहदायिक के अधिकार बड़े सहदायिक के समान हैं। उपर्युक्त कारणों से न्यायालय ने यह भी माना कि यदि नाबालिग की ओर से विभाजन के लिए मुकदमे के लिए डिक्री देने का निर्देश देते हुए मुकदमा दायर किया गया है, तो ऐसा मुकदमा वैध और लागू करने योग्य (मेंटेनेबल) है, लेकिन न्यायालय को यह संतुष्ट होना चाहिए कि विचाराधीन मुकदमा नाबालिग के लाभ के लिए ही शुरू किया गया है। न्यायालय ने इस पर भी अपनी राय व्यक्त की कि क्या नाबालिग सहदायिक की मृत्यु पर विभाजन का मुकदमा समाप्त हो जाता है। न्यायालय ने विभिन्न मामलों का हवाला दिया था, जहां यह माना गया था कि नाबालिग के कानूनी प्रतिनिधियों को नाबालिग की ओर से मुकदमा जारी रखने का अधिकार है। निचली अदालतों ने वास्तविक कार्रवाई के कारण की भी गलत व्याख्या की थी क्योंकि इस मामले में जो लेन-देन हुआ था, वह नाबालिग के जन्म से पहले हुआ था और इसमें कार्रवाई का कोई कारण नहीं दिया गया था। इसलिए इस मुद्दे के संबंध में न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय द्वितीय अपील में निचली अदालतों के निष्कर्षों में हस्तक्षेप कर सकता है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या कोई नाबालिग सहदायिक संपत्ति में सहदायिक हो सकता है?

सहदायिक हिंदू अविभाजित परिवार  का सदस्य होता है जो हिंदू संयुक्त परिवार की शुरुआत करने वाले सामान्य पुरुष पूर्वज से रक्त/गोद लेने के माध्यम से संबंधित होता है। सहदायिक बेटा/बेटी (2005 के संशोधन द्वारा पेश किया गया) हो सकता है और उसे जन्म से ही सहदायिक होने और सहदायिक संपत्ति में हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त होता है। इसलिए, सहदायिक होने का अधिकार किसी उम्र तक सीमित नहीं है, एक नाबालिग भी सहदायिक हो सकता है।

क्या कोई नाबालिग सहदायिक संपत्ति में विभाजन की मांग कर सकता है?

हर सहदायिक के पास पैतृक संपत्ति से जुड़े कुछ अधिकार होते हैं, इनमें से कुछ अधिकार विभाजन की मांग करने के भी होते हैं। इसलिए, एक नाबालिग के पास भी वही अधिकार होते हैं, जब से उसे सहदायिक बनने का अधिकार मिलता है।

सहदायिक और हिंदू संयुक्त परिवार में क्या अंतर है?

हिंदू संयुक्त परिवार, एक सामान्य पुरुष पूर्वज से बंधे हुए एक सामान्य घर में रहने वाले सदस्यों का समूह है। एचयूएफ बनाने वाले लोग रक्त/गोद लेने या विवाह से एक दूसरे से संबंधित होते हैं। एचयूएफ का मुखिया होता है जिसे कर्ता के रूप में जाना जाता है जो घर का निर्णय लेने वाला होता है।

दूसरी ओर, सहदायिकता, एचयूएफ के भीतर की एक व्यवस्था है। इसमें पहले केवल पुरुष सदस्य शामिल होते थे, लेकिन 2005 के संशोधन के बाद, बेटियाँ भी सहदायिकता का हिस्सा हैं। इसमें कर्ता, एचयूएफ के पुरुष सदस्य और कर्ता की बेटियाँ शामिल होती हैं।

क्या विभाजन के लिए सभी सहदायिकों की सहमति आवश्यक है?

वैध विभाजन के लिए एचयूएफ के सभी सदस्यों या सभी सहदायिकों की सहमति अनिवार्य नहीं है। यदि विभाजन की मांग करने का संचार वैध माध्यम से कर्ता को किया जाता है, तो उसे अन्य सदस्यों या कर्ता की सहमति की आवश्यकता नहीं होती है।

संदर्भ

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