यह लेख Diksha Shastri द्वारा लिखा गया है। यह कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश (1977) के मामले में तथ्यों, मुद्दों, निर्णय के साथ-साथ इसके पीछे के तर्क की तह तक जाने का प्रयास करता है । इस मामले में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन (रेस्टिट्यूशन) के अनुरोध पर निर्णय लेते समय, काम करने के अपने स्वतंत्र अधिकार की रक्षा के लिए, पूरी तरह से पत्नी के विवेक पर, केवल कभी-कभार बैठकों को शामिल करने वाले विवाह के इरादे पर विचार किया गया है। इस लेख का अनुवाद Ayushi Shukla के द्वारा किया गया है।
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परिचय
विवाह केवल एक अनुबंध से अधिक है। सदियों से, हिंदुओं के लिए, विवाह एक पवित्र संस्था बनी हुई है, जो एक साथ जीवन बनाने और विकसित करने का वादा करती है। एक संस्था के रूप में विवाह की इस पवित्रता की रक्षा के लिए हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (जिसे इसके बाद अधिनियम के रूप में संदर्भित किया गया है) पारित किया गया था। जो दो हिंदुओं के बीच विवाह के संबंध में उत्पन्न होने वाले सभी विभिन्न मुद्दों पर निर्णय लेने के लिए प्रचलित कानून है। इस अधिनियम में हिंदू विवाह के सभी अलग-अलग पहलुओं को शामिल किया गया है, इसे परिभाषित करने, इसकी औपचारिक प्रक्रिया और पंजीकरण स्थापित करने से लेकर न्यायिक अलगाव (ज्यूडिशियल सेप्रेशन) और तलाक तक शामिल हैं। हर साल, भारत की अदालतें इनमें से किसी भी मुद्दे से संबंधित कई अलग-अलग मामलों से निपटती हैं। समय के साथ, हमने वैवाहिक विवादों में वृद्धि देखी है। हालाँकि, एक सकारात्मक पहलू यह है कि आजकल, महिलाओं के मौलिक अधिकार, जैसे कि उनकी इच्छा के अनुसार काम करने का अधिकार, संरक्षित है। पुराने दिनों में, वैवाहिक विवादों में, एक पत्नी के कर्तव्य एक महिला के अधिकार का स्थान लेते थे। इस तरह का एक परेशान करने वाला वास्तविक मुद्दा कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश (1977) के मामले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष आया।
इस लेख में, हम 1977 में वापस जाएंगे जब पत्नी के एकतरफा निर्णय पर सप्ताहांत (वीकेंड) विवाह की पवित्रता पर सवाल उठाने वाला एक मुद्दा अदालत के समक्ष लाया गया था, जब पत्नी अपने वैवाहिक घर से दूर एक शिक्षक के रूप में अपनी नौकरी जारी रखने की इच्छुक थी।
मामले का विवरण
- मामले का नाम: कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश
- पक्षों के नाम: श्रीमती कैलाशवती (अपीलकर्ता), और अयोध्या प्रकाश (प्रतिवादी)
- न्यायालय: पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय
- पीठ : न्यायमूर्ति सिद्धू, न्यायमूर्ति एसपी गोयल और न्यायमूर्ति एसएस संधावालिया
- मामले का प्रकार: लेटर्स पेटेंट अपील (एकल न्यायाधीश के निर्णय के विरुद्ध उसी न्यायालय की भिन्न पीठ में अपील)
- महत्वपूर्ण प्रावधान: हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9
- फैसले की तारीख: 19 नवंबर, 1976
- उद्धरण: (1977) 79 पीएलआर 216
मामले की पृष्ठभूमि
मामले की संक्षिप्त पृष्ठभूमि यह है कि पति और पत्नी दोनों ही कामकाजी पेशेवर थे। हालाँकि, जब पत्नी का दूसरे स्थान पर तबादला (ट्रांसफर) हो गया, तो पति चाहता था कि वह उसके साथ रहे और कहीं और न जाए। इसलिए, उसने वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए अधिनियम की धारा 9 के तहत मुकदमा दायर किया। विचारण न्यायालय ने पति के अनुरोध से सहमति जताई, जिसके बाद पत्नी ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में अपील की, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने तब लेटर्स पेटेंट अपील में निष्कर्ष निकाला, विशेष रूप से इस मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए कि क्या पत्नी को अपने पति से उनके वैवाहिक घर पर कभी-कभार मिलने का एकतरफा फैसला करने का अधिकार है, वो भी केवल अपने रोजगार के उद्देश्य से।
कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश (1977) के तथ्य
कैलाशवती नामक महिला ने 29 जून 1964 को हिंदू विवाह अधिनियम की पवित्रता के तहत श्री अयोध्या प्रकाश के साथ विवाह किया। दोनों साथी कामकाजी पेशेवर थे और गांव स्तर के शिक्षक के रूप में कार्यरत थे। कैलाशवती का कार्यस्थल तहसील फिल्लौर (उनके मायके) के बिलगा गांव में था। हालाँकि, उनके पति का कार्यस्थल कोट ईसे खान गांव में था। शादी के बाद, उन्हें अपने पति के कार्यस्थल पर तबादला मिल गया और वे अपने वैवाहिक घर में 8-9 महीने तक खुशी-खुशी रहने लगे।
इसके बाद, श्री अयोध्या प्रकाश के आरोपों के अनुसार, कैलाशवती ने खुद को फिर से अपने मायके बिलगा गांव में तबादला करवाने पर जोर दिया। तबादला के बाद से ही वह अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने माता-पिता के साथ रह रही थी। वे दोनों केवल 2 से 3 दिनों के लिए ही साथ रहे थे, जब वे मोगा में किसी अन्य स्थान पर गए थे।
परिणामस्वरूप, पति ने 4 नवंबर, 1971 को वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत एक आवेदन दायर किया। इस आवेदन के जवाब में, पत्नी ने कहा कि उसने कभी भी अपने वैवाहिक दायित्व को निभाने से इनकार नहीं किया। हालाँकि, वह अपनी नौकरी से इस्तीफा देने और वैवाहिक घर लौटने के लिए दृढ़ और अनिच्छुक थी।
5 फरवरी, 1973 को विचारण न्यायालय ने पति के पक्ष में फैसला सुनाया। फैसले से व्यथित होकर पत्नी ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश पीठ के समक्ष अपील दायर की। श्रीमती तीरथ कौर बनाम कृपाल सिंह (1962) में स्थापित मिसाल पर भरोसा करने के बाद न्यायाधीश ने विचारण न्यायालय के फैसले को बरकरार रखने का फैसला किया।
जब उसे शांति नहीं मिली, तो अपीलकर्ता ने लेटर्स पेटेंट अपील दायर की। हालांकि, अधिकार के टकराव के कारण मामला पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के समक्ष लाया गया।
उठाए गए मुद्दे
कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश (1977) मामले में तीन मुख्य मुद्दों पर चर्चा की गई और उनका समाधान किया गया।
- क्या पति को अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत लागू प्रावधानों के अतिरिक्त किसी अन्य आधार पर वैवाहिक अधिकारों से राहत देने से इनकार किया जा सकता है?
- क्या एक पत्नी को, जो अपने वैवाहिक घर से दूर कार्यरत है, कानून द्वारा अपनी नौकरी छोड़ने से इंकार करने की अनुमति होगी ताकि वह अपने पति के साथ उनके वैवाहिक घर में रह सके?
- क्या हिंदू विवाह कानून वैवाहिक घर की अवधारणा को पवित्र बनाता है, जो पत्नी की एकतरफा इच्छा पर कभी-कभार रात्रिकालीन (नॉक्टर्नल) मुलाकात तक सीमित हो जाता है?
पक्षों के तर्क
अपीलकर्ता
अपीलकर्ता पत्नी कैलाशवती और उसकी ओर से उपस्थित वकील अपने रुख पर अडिग थे, क्योंकि वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए पहली याचिका उसके पति द्वारा दायर की गई थी।
सबसे पहले, उसने दावा किया कि वह अपने पति के साथ उनके वैवाहिक घर में रहने के लिए सीमित या बाध्य नहीं थी, क्योंकि उससे शादी करने का फैसला पति ने उसकी कामकाजी महिला की स्थिति को जानने और स्वीकार करने के बाद लिया था। याद रखें, 70 के दशक में, यह कोई सामान्य घटना या रोज़मर्रा की परिस्थिति नहीं थी। पत्नी ने काम करना जारी रखने के अपने फैसले के बारे में काफ़ी मुखरता (वोकल) से बात की थी, जिसे उसके पति ने सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लिया था।
इसके अलावा, पत्नी ने यह भी दोहराया कि वह हमेशा वफादार रही है और एक पत्नी के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा किया है, उसे अपने पति को पास आने की अनुमति दी है, छुट्टियों, यात्राओं और अन्य चीजों के लिए उसके साथ जाती है। वह इस तथ्य से दुखी थी कि इन तथ्यों के बावजूद पति ने उसे नौकरी छोड़ने पर जोर दिया। नतीजतन, वह वैवाहिक घर में वापस जाने के लिए सहमत नहीं हुई।
प्रतिवादी
प्रतिवादी, श्री अयोध्या प्रकाश का शुरू से ही यह तर्क रहा कि उनकी पत्नी जानबूझकर वैवाहिक घर से दूर रह रही थी। इसे साबित करने के लिए, उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि वह लगातार 6 वर्षों से दूर रह रही थी। इसके अलावा, उन्होंने यह भी दावा किया कि वह अपनी आय के विभिन्न स्रोतों के माध्यम से अपनी पत्नी को उनके वैवाहिक घर में सम्मान से भरा जीवन प्रदान करने में सक्षम हैं। वह इस तथ्य से व्यथित थे कि उनके जीवन के सबसे अच्छे वर्षों में, उन्हें वैवाहिक जीवन के समाज और जीवनाधार से वंचित रखा गया था। उनके अनुसार, सरकार से सेवानिवृत्ति की आयु तक उनकी पत्नी का उनसे दूर रहने की बहुत अधिक संभावना थी।
कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश (1977) में शामिल कानूनी प्रावधान
हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों ने इस निर्णय को सुनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना
अधिनियम की धारा 9 विवाह के किसी भी पक्ष को न्यायालय से अपने वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन की मांग करने की अनुमति देती है। इसके अलावा, इस धारा के अनुसार, यदि इन अधिकारों का आनंद लेने की अनुमति न देने के पीछे कोई उचित परिस्थितियाँ नहीं हैं, तो न्यायालय आसानी से दूसरे पक्ष को वैवाहिक या दांपत्य अधिकारों को बहाल करने का आदेश दे सकता है। जिस समय पति अयोध्या प्रकाश ने यह मामला दायर किया था, उस समय इस धारा में संशोधन नहीं किया गया था और इसमें सबूत के भार की बात नहीं की गई थी। हालाँकि, जब न्यायालय इस मामले पर निर्णय ले रहा था, तो विवाह कानून (संशोधन) अधिनियम, 1976 के अधिनियमन के बाद, पूरे खंड को ध्यान में रखा गया था। यहाँ, एक स्पष्टीकरण जोड़ा गया जिसके कारण, वैवाहिक कर्तव्य से इस तरह के विराम के लिए एक उचित कारण साबित करने का भार उस व्यक्ति पर था जिसने कर्तव्य को त्याग दिया था, यानी इस मामले में पत्नी।
धारा 9 का उद्देश्य
हिंदू सिद्धांतों के अनुसार, विवाह दो व्यक्तियों का पवित्र मिलन है, जिनकी आयु 18 वर्ष (महिला) और 21 वर्ष (पुरुष) से अधिक है। लंबे समय से, दो वयस्कों के बीच सहमति से विवाह को हमेशा के लिए चलने वाले बंधन के रूप में देखा जाता है। भले ही समय बदल रहा है और तलाक की दरें बढ़ रही हैं, लेकिन सिद्धांत में कोई कमी नहीं आई है। इस अधिनियम की धारा 9 का उद्देश्य इस पवित्र बंधन की रक्षा करना है।
एक बार जब दोनों पक्ष सहमति से विवाह कर लेते हैं, तो यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे अपने विवाह की संस्था का सम्मान करें। वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए आदेश पारित करके, न्यायालय का उद्देश्य इस धार्मिक और पवित्र संस्था की रक्षा करना है, खासकर तब जब एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को त्यागने का कोई उचित कारण न हो।
वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना लागू करने के लिए आवश्यक बातें
अधिनियम की धारा 9 में कुछ महत्वपूर्ण आवश्यकताएं बताई गई हैं। हिंदू विवाह में पति या पत्नी अपने वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए तभी आवेदन कर सकते हैं जब निम्नलिखित आवश्यकताएं पूरी हों:
- दोनों पक्षों का विवाह हिंदू रीति-रिवाजों और कानूनों के अनुसार होना चाहिए
- या तो पत्नी या पति को दूसरे की उपस्थिति से बाहर रखा जाना चाहिए
- यह बहिष्कार बिना किसी विशिष्ट वैध कारण के होता है; तथा
- अंत में, दोनों पक्षों को सुनने के बाद भी न्यायालय के पास प्रत्यास्थापन देने से इनकार करने का कोई वैध कारण नहीं है।
वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना का दायरा
इस पहलू पर न्यायालयों के कई निर्णय हुए हैं। अधिनियम की धारा 9 के साथ-साथ वे हिंदू विवाहों में वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन के निम्नलिखित दायरे को इंगित करते हैं:
- यह उस स्थिति में सहवास (कोहैबिटेशन) के अधिकार की रक्षा करता है जब एक पक्ष बिना किसी उचित कारण के दूसरे पक्ष को छोड़ देता है।
- ऐसी प्रत्यास्थापन के लिए आवेदन उस स्थान पर दायर किया जा सकता है जहां विवाह सम्पन्न हुआ था, या जहां दोनों पक्षों में से कोई भी निवास करता हो।
- इस धारा के अंतर्गत न्यायालय द्वारा पारित आदेश, विवाह के नियमों का पालन न करने वाले पति या पत्नी पर भी लागू किया जा सकता है।
- यह सहवास का अधिकार देता है, लेकिन अधिकांश मामलों में डिक्री पक्षों के बीच भावनात्मक मेल-मिलाप नहीं ला पाती।
इसलिए, वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए दायर किए गए आवेदनों का दायरा शारीरिक सहवास तक ही सीमित है। अदालतें पक्षों को भावनात्मक संबंध बनाने या बहाल करने के लिए नहीं ला सकती हैं।
मामले का फैसला
सभी तर्कों पर विचार करने के बाद, पीठ ने प्रतिवादी की पत्नी कैलाशवती की वर्तमान अपील को खारिज करते हुए अपना फैसला सुनाया। हालांकि, न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि चूंकि भविष्य में ऐसी स्थितियां अधिक बार सामने आएंगी, इसलिए कानून निर्माताओं के लिए इन बदलते समय पर विचार करना और तदनुसार कानूनों में संशोधन करना महत्वपूर्ण है। ऋषियों द्वारा प्रस्तुत हिंदू विवाह का विचार और वर्तमान युग में विवाहित जीवन जीने की वास्तविक व्यावहारिकता में बहुत सी खामियां हैं।
इस निर्णय के पीछे तर्क
इस निर्णय पर पहुँचने से पहले, न्यायालय ने मुख्य रूप से सप्ताहांत या कभी-कभार वैवाहिक घर के अस्तित्व पर विचार किया। उसका विचार था कि भले ही यह वास्तव में कोई नई अवधारणा नहीं है, लेकिन पति और पत्नी दोनों की सहमति आवश्यक है। यहाँ, मुख्य मुद्दा पत्नी की अलग रहने की एकतरफा इच्छा थी।
क्या पत्नी के एकतरफा निर्णय पर वैवाहिक घर पर कभी-कभार बैठक के इरादे पर विचार किया जा सकता है?
अदालत ने कहा कि आधुनिक रोजगार प्रतिबद्धताओं (कमिटमेंट्स) को ध्यान में रखते हुए, इस तरह की रहने की व्यवस्था असामान्य नहीं है। हालाँकि, पत्नी के दूर रहने के एकतरफा फैसले पर पूरी तरह से निर्भर रहना, भले ही पति इसके विपरीत जोर दे रहा हो, अन्य समस्याओं को जन्म देगा। याद रखें, हिंदू कानून के तहत विवाह एक दिव्य संस्था है, जहाँ दोनों पक्षों के अपने कर्तव्य हैं। महत्वपूर्ण जीवन के मामलों पर निर्णय लेते समय, पति और पत्नी के बीच आपसी सहमति और समझ वास्तव में महत्वपूर्ण है।
इस मुद्दे पर निर्णय लेते और तर्क देते समय न्यायालय ने हिंदू ऋषियों के दृष्टिकोण पर नहीं, बल्कि हिंदू विवाह अधिनियम पर भरोसा किया, जिसके प्रावधानों ने एक संस्था के रूप में विवाह के विचार को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया था। सामान्य सिद्धांतों के अनुसार, वैवाहिक घर का विचार पूरे विवाह के लिए केंद्रीय है। इसके अलावा, यह एकमात्र तरीका है जिसके माध्यम से पति और पत्नी सही मायने में अपनी संस्था का निर्माण और विकास कर सकते हैं। न्यायालय ने लेन बनाम लेन (1953) पर भरोसा किया, जिसमें वैवाहिक स्थिति और वैवाहिक घर के विचार का परस्पर उपयोग किया गया है और इसे अत्यधिक महत्व दिया गया है। इसके अलावा, इस मामले में पुलफोर्ड बनाम पुलफोर्ड (1923) का हवाला दिया गया, जिसमें विवाह में परित्याग के मुद्दे पर चर्चा की गई थी। परित्याग केवल शारीरिक परित्याग को संदर्भित नहीं करता है, बल्कि चीजों की स्थिति का परित्याग भी करता है, जिसमें वैवाहिक संबंध और जिम्मेदारियां शामिल हैं।
इन उदाहरणों के आधार पर, न्यायालय का मानना था कि वैवाहिक घर, जिसमें भागीदारों के बीच अधिकार और संगति शामिल है, यह विवाह की अवधारणा का अभिन्न अंग है। अंग्रेजी सामान्य कानून और रोमन कानून में, पहले के समय से ही पति के संघ या वैवाहिक घर के अधिकार को महत्व दिया जाता था। इसलिए, उस समय, सामान्य दृष्टिकोण और आम सहमति यह थी कि पति को अपनी पत्नी की संगति और समाज तक पहुँचने का अधिकार था। हालाँकि, न्यायालय ने यह भी कहा कि समय बीतने के साथ, इसे एक पारस्परिक अधिकार के रूप में देखा जाने लगा, जिसका अर्थ है कि पत्नी को भी अपने पति की संगति और समाज तक पहुँचने का अधिकार है। हालाँकि, वर्तमान मामले में, मुद्दा इस सवाल के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या पत्नी को अपने पति के वैवाहिक आनंद के अधिकार को अस्वीकार करने का अधिकार है, विशेष रूप से उसके रोजगार के कारण।
इसकी गहराई से जांच करने के लिए तीन अलग-अलग स्थितियों की जांच की गई:
- सबसे पहले, जब पति को पत्नी के ऐसे रोजगार के बारे में पहले से ही पता है और वह विवाह के लिए सहमत है, तो क्या इसका अर्थ यह है कि वह अपनी पत्नी के साथ वैवाहिक घर का दावा करने के अपने अधिकार को छोड़ने के लिए सहमत है?
न्यायालय ने इस प्रश्न पर नकारात्मक राय व्यक्त की, केवल इस कारण से कि विवाह के लिए सहमत होने वाली कामकाजी महिला भी जानती है कि उसे अपने मायके का घर छोड़ना होगा और ससुराल जाना होगा। तब इस बात पर जोर दिया गया कि यदि पक्षों की आम सहमति शामिल होती, तो इस तरह का कोई सवाल ही नहीं उठता। हालांकि, एक पत्नी या पति एकतरफा दावा नहीं कर सकते कि चूंकि वे अलग-अलग जगहों पर काम कर रहे हैं, इसलिए वे अलग रह सकते हैं। यह आवेदक के तर्क को अमान्य बनाता है, क्योंकि उसने दावा किया कि उसके पति को उसके कामकाजी स्वभाव के बारे में पता था और इसलिए, उसे अपनी पत्नी से अलग रहना स्वीकार करना चाहिए, ताकि वह काम करना जारी रख सके। इसके अलावा, न्यायालय इस बात से भी सहमत था कि यदि दोनों पक्ष आपसी सहमति से किसी ऐसे समझौते पर पहुँचते हैं जो उन दोनों के लिए कारगर हो, तो यह पूरी तरह से वैध और कानूनी रूप से उन पर बाध्यकारी होगा। हालांकि, कोई भी पक्ष ऐसा नहीं करना चाहता था, इसलिए न्यायालय ने इस पर अपनी अंतिम राय नहीं दी।
- दूसरा, पति अपनी पत्नी को शादी के बाद सरकारी नौकरी या निजी क्षेत्र में काम करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। ऐसा करके क्या वह अपनी पत्नी के साथ रहने के अपने अधिकार को फिर से त्याग देता है?
इस स्थिति में भी न्यायालय ने नकारात्मक राय दी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वित्तीय स्थिति या ज़रूरत के कारण दोनों पति-पत्नी को काम करना पड़ सकता है। सिर्फ़ इस ज़रूरत के कारण, पत्नी का वैवाहिक घर को हमेशा के लिए छोड़ देना, न तो सिद्धांत रूप में और न ही अधिकार के रूप में सही या समर्थनीय लगता है। इस स्थिति में भी, दोनों पक्षों की स्पष्ट सहमति काम कर सकती है। हालाँकि, इसके बावजूद, न्यायालय का विचार था कि विवाह के बाद पत्नी के लाभकारी रोजगार के लिए स्वेच्छा से सहमत होने से, पति स्वाभाविक रूप से वैवाहिक संगति के अपने अधिकार को नहीं छोड़ता है।
- तीसरी और अंतिम स्थिति वह है जब पत्नी पति की इच्छा के विरुद्ध जाकर ससुराल से दूर नौकरी करने लगती है।
जाहिर है, इस स्थिति को अनुचित और एकतरफा माना जाता है। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि इस तरह की स्थिति पति-पत्नी के साथ रहने और साथ मिलकर जीवन बनाने के आपसी कर्तव्य का सीधा उल्लंघन है।
जैसा कि इन तीन अलग-अलग स्थितियों से स्पष्ट है, न्यायालय का मानना था कि पत्नी के लाभकारी रोजगार के लिए सहमत होने मात्र से पति अपनी पत्नी के साथ रहने के अपने अधिकार को नहीं छोड़ता। हालाँकि, यह दो शर्तों के अधीन लागू होता है:
- पति को इतना संपन्न होना चाहिए कि उसका वैवाहिक घर हो, जहां वह आसानी से अपनी पत्नी का भरण-पोषण कर सके तथा उसे सम्मानपूर्वक जीवन प्रदान कर सके; तथा
- ऐसा करते समय पति को सद्भावना से कार्य करना चाहिए, न कि केवल अपनी पत्नी को अपने अधिकार या शक्ति का दंभ दिखाने के लिए।
इसलिए, जब कोई पति अपनी पत्नी को गलत इरादे से, जैसे कि वैवाहिक अपराध करना, वैवाहिक घर लौटने के लिए कहता है, तो पत्नी के पास अपने पति के साथ वैवाहिक घर लौटने से इंकार करने का उचित कारण होता है।
इन शर्तों और सामान्य सिद्धांतों के आधार पर, न्यायालय ने कहा कि पत्नी को अपने पति के साथ रहने से एकतरफा रूप से अलग होने का अधिकार नहीं है। पत्नी द्वारा दिए गए तर्क, जैसे कि पति को पता होना और जब भी संभव हो, अपने पति को जाने से मना न करना, अनुचित माने गए।
वैवाहिक घर का स्थान
वैवाहिक घर के स्थान का मुद्दा भी सवालों के घेरे में था। अपीलकर्ता का मानना था कि वर्तमान समय में पति के पास वैवाहिक घर के बारे में अंतिम निर्णय लेने का एकमात्र अधिकार नहीं है। अपनी योग्यता और रोजगार के साथ, उसे यह निर्णय लेने का समान अधिकार था। इसके अलावा, वर्तमान मामले में, पत्नी अपने पति के साथ उसके रोजगार के स्थान पर आकर रहने के लिए भी स्वतंत्र थी। यदि वह पति से आर्थिक रूप से अधिक सक्षम थी, तो उसके लिए उसके द्वारा चुनी गई जगह पर आकर उसके साथ रहना अधिक उचित होगा।
अब जब यह निर्णय हो चुका था कि जीवनसाथी की सहमति के बिना एकतरफा तरीके से दूर चले जाना गलत है, तो वैवाहिक घर के स्थान पर चर्चा करना महत्वपूर्ण था।
इस मुद्दे को ठीक से संभालने के लिए हिंदू कानून के नियमों और अन्य सामान्य सिद्धांतों की जांच करने की आवश्यकता है। हालाँकि, दो कारक निर्णय के अभिन्न अंग थे:
- अधिकांश सभ्यताओं में विवाह कानूनों के तहत पति पर विवाह से उत्पन्न पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण करने का दायित्व होता है। जबकि पत्नी पर ऐसा कोई दायित्व नहीं होता, आर्थिक रूप से; तथा
- परिवार का “श्रमजीवी (वेजअर्नर)” होने के नाते, पति आमतौर पर अपने कार्यस्थल के पास ही रहता है।
इन दो कारकों के आधार पर, पति की आमतौर पर परिवार के प्रति अधिक वित्तीय जिम्मेदारी होती है। इसलिए, श्रमजीवी के रूप में अपने कानूनी कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए, उसे वह घर चुनने का अधिकार मिलना चाहिए जहाँ से वह इन कानूनी कर्तव्यों का प्रभावी ढंग से निर्वहन कर सके।
न्यायालय ने पहले अमेरिकी कानूनी सिद्धांतों की जांच की। अमेरिकी कानूनों में यह अच्छी तरह से स्थापित है कि पति को अपनी पसंद के स्थान पर वैवाहिक घर चुनने और स्थापित करने का अधिकार है। जबकि, पत्नी का कर्तव्य है कि वह इस निर्णय को स्वीकार करे और उसका अनुसरण करे। इसलिए, पति को बिना किसी दुर्भावना के, सद्भावनापूर्वक ऐसा निर्णय लेना चाहिए। यह उसका एक विशेषाधिकार और जिम्मेदारी दोनों है।
हालांकि, अंग्रेजी कानूनी सिद्धांत और अधिकार इस दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं हैं। अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग दृष्टिकोण प्रदान किए गए हैं। उदाहरण के लिए, मैन्सी बनाम मैन्सी (1940) के मामले में , यह माना गया कि यदि पत्नी पति से बेहतर स्थिति में पहुंच जाती है, जहां वह उसका भरण-पोषण कर सकती है, तो वह वैवाहिक घर का स्थान चुन सकती है। हालांकि, ऐसे मामलों में जहां वह ऐसी स्थिति में नहीं पहुंची है, उसे वैवाहिक घर पर पति के फैसले से सहमत होना होगा। यह भी माना गया कि यदि वह वैवाहिक घर के स्थान से सहमत नहीं है, तो इसे वैवाहिक दायित्व का उल्लंघन माना जाएगा और उसे पति को त्यागने वाला माना जाएगा।
ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए न्यायालयों की सर्वसम्मति पाना मुश्किल है। इसके बाद न्यायालय ने डन बनाम डन (1949) के मामले पर भरोसा किया। यह बताया गया कि यदि वैवाहिक घर के स्थान को तय करने का मुद्दा पति पर पड़ता है, तो यह कानून का सवाल नहीं है, पत्नी पर अपनी असहमति को उचित ठहराने का कोई कानूनी दायित्व नहीं है। बल्कि, यह सिद्धांतों का सवाल था, जो उस समय कहते थे कि श्रमजीवी के रूप में पति को अपने कार्यस्थल के पास रहने का अधिकार है। इसके अलावा, यह बताया गया कि आधुनिक दिनों में यह एक आम प्रथा नहीं है। इसलिए, पक्षों, यानी पति और पत्नी को अपने और अपने बच्चों की भलाई के लिए आपसी सहमति से निर्णय लेना चाहिए।
इन मामलों में विचारों पर सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद, कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश के वर्तमान मामले में न्यायालय ने सबसे पहले इस बात पर सहमति व्यक्त की कि वैवाहिक घर के स्थान को चुनने का निर्णय आदर्श रूप से तीन पक्षों – पति, पत्नी और बच्चों पर पड़ेगा। निर्णय एक दूसरे के साथ मिलकर लिए जाने चाहिए और उचित होने चाहिए। हालाँकि, न्यायालय ने यह भी महसूस किया कि अधिकांश मामलों में ऐसा संभव नहीं होगा। इसने यहाँ तक कहा कि यदि ऐसा कुछ संभव होता, तो इन मामलों में कानून के शासन की कोई आवश्यकता नहीं होती। हालाँकि, वर्तमान स्थिति अलग थी। इसलिए, कानून को लागू किया जाना चाहिए और पक्षों की ओर से आचरण का एक नियम बनाकर निर्णय लेना चाहिए जो उचित हो और शांतिपूर्ण विवाह के लिए सबसे अच्छा काम करे।
इसके अलावा, इस मामले में कानून के बुनियादी नियम की आवश्यकता पर जोर देते हुए, न्यायालय ने यहां तक कहा कि हर बार, यदि विचारण न्यायालय केवल पक्षों की बातों के आधार पर निर्णय लेते हैं, तो इससे केवल मुकदमों की संख्या में वृद्धि होगी। इसलिए, इस कानूनी मुद्दे पर एक निश्चित उत्तर निर्धारित करना बहुत महत्वपूर्ण है। जब विवाह मे पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रति विचारशील और उचित नहीं होते हैं, तो हर बार, विचारण न्यायालय को या तो पत्नी या पति में से किसी को शक्ति संतुलन प्रदान करना होगा। कई निर्णयों और अलग-अलग दृष्टिकोणों की जांच करने के बाद, न्यायालय ने माना कि अंग्रेजी निर्णयों में विरोधाभासी विचारों का पालन करना व्यर्थ था।
परिणामस्वरूप, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि सामान्य सिद्धांतों के आधार पर, जब तक पति सद्भावनापूर्ण इरादे से काम कर रहा है, तब तक वह वैवाहिक घर के अंतिम स्थान पर निर्णय लेने का कानून द्वारा हकदार है। जबकि यह एक सामान्य दृष्टिकोण है, हिंदू कानून के तहत विशिष्ट मामलों के लिए, निर्णय भी पति के अपनी पत्नी और बच्चों को भरण-पोषण करने के प्राथमिक कर्तव्य के इर्द-गिर्द घूमता है।
भारत में, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत, यदि पर्याप्त साधनो से संपन्न पति अपने परिवार का भरण-पोषण करने के अपने दायित्व का पालन करने में विफल रहता है, तो न्यायालय उसे नियमित भरण-पोषण के लिए एक निश्चित राशि प्रदान करने का आदेश दे सकता है और यदि वह ऐसा करने से इनकार करता है तो उसे कारावास की सजा दे सकता है। विशिष्ट हिंदू कानूनों की बात करें तो न्यायालय ने हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 18 पर भरोसा किया । इस धारा के अनुसार, एक हिंदू पत्नी अपने जीवनकाल के दौरान अपने पति से भरण-पोषण के संरक्षण की हकदार है। इसके अलावा, इसमें यह भी प्रावधान है कि यदि पति उसे छोड़ने या त्यागने या बिना किसी उचित कारण के जानबूझकर उसकी उपेक्षा करने का दोषी है, तो पत्नी अलग रह सकती है और फिर भी भरण-पोषण का दावा कर सकती है।
इन प्रावधानों से यह स्पष्ट है कि हिंदू कानूनों के तहत पत्नी को जीवन भर अपने पति से भरण-पोषण पाने का सामान्य अधिकार है। इसके अलावा, कुछ मामलों में, उसे अलग रहने और फिर भी भरण-पोषण का दावा करने का भी अधिकार है। हालाँकि, यह इस शर्त के अधीन है कि वह पवित्र हो और हिंदू धर्म का पालन करे।
इसके अतिरिक्त, हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम की धारा 20 का भी हवाला दिया गया, जिसमें सभी हिंदुओं को अपने नाबालिग वैध या नाजायज बच्चों और अपने वृद्ध एवं अशक्त माता-पिता के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है। यहां यह जिम्मेदारी सिर्फ पति पर नहीं, बल्कि पत्नी पर भी है। इसलिए, एक महिला पर भी अपने माता-पिता और बच्चों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है। हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम के तहत अन्य प्रावधान भी हैं, जैसे धारा 22, जिसमें हिंदू मृतक के उत्तराधिकारी को मृतक व्यक्ति के आश्रितों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी लेनी चाहिए और धारा 19 , जिसमें विधवा हिंदू बहू के भरण-पोषण का प्रावधान किया गया है। धारा 3(b) के तहत भरण-पोषण को भोजन, कपड़े, आश्रय, शिक्षा और चिकित्सा देखभाल प्रदान करने के रूप में परिभाषित किया गया है।
इस प्रकार, हिंदू कानून के तहत विभिन्न प्रावधानों के अनुसार, अपने जीवनसाथी का भरण-पोषण करने का प्रमुख कर्तव्य सीधे पति पर लगाया जाता है। ये उसके कानूनी और सामान्य कर्तव्य हैं, जो रिश्ते के अस्तित्व से ही उत्पन्न होते हैं। इसके विपरीत, भले ही पत्नी आर्थिक रूप से पर्याप्त और समृद्ध हो, लेकिन उसे अपने पति या परिवार का भरण-पोषण करने की कोई बाध्यता नहीं है।
पति की इन जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए, यह सवाल उठता है कि क्या उसे अपने घर के स्थान को चुनने में कोई अधिकार है, जहाँ वह इन दायित्वों और कर्तव्यों को पूरा करेगा? भले ही इस मुद्दे को एक पल के लिए अलग रख दिया जाए, लेकिन ऐसी शादी में पैदा होने वाले बच्चों का क्या होगा? एक बच्चा ऐसे माहौल में कैसे बड़ा होगा जहाँ पत्नी को एकतरफा तौर पर वैवाहिक घर से दूर अलग रहने की अनुमति और अधिकार है? ऐसे मामले में, जहाँ पत्नी और बच्चे पति की इच्छा के विरुद्ध अलग रह रहे हैं, क्या तब भी वह उनका भरण-पोषण करने के लिए बाध्य होगा? अदालत ने इन सवालों और प्रावधानों का सीधा और सरल उत्तर दिया। पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण का कर्तव्य, वैवाहिक घर के स्थान को चुनने के सहायक अधिकार के साथ आता है। एक सामान्य परिप्रेक्ष्य में, यह अधिकार यह सुनिश्चित करने के लिए प्रदान किया जाता है कि लाभ और भार एक समान हों।
न्यायालय ने हिंदू कानून के सामान्य नियमों पर भी भरोसा किया, जिसमें पत्नी का अपने पति के प्रति प्राथमिक दायित्व है कि वह उसकी छत और सुरक्षा में रहे, जबकि पति का कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी का भरण-पोषण और सुरक्षा करे। न्यायालय ने तब श्रीमती तीरथ कौर बनाम कृपाल सिंह (1962) के फैसले का हवाला दिया, जिसमें तथ्य कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश (1977) के वर्तमान मामले के समान थे। उस मामले में, पत्नी की दलीलों को निरस्त कर दिया गया और यह देखा गया कि ऐसा कोई कानूनी सिद्धांत या नियम नहीं है जो पत्नी को अपने पति की उपस्थिति और समाज से खुद को अलग करने की अनुमति देता हो। हालांकि, बाद में, इस आदेश को लेटर पेटेंट पीठ द्वारा काफी हद तक संशोधित किया गया और यह निर्णय लिया गया कि पक्षों को आपसी सहमति से काम की जगह बदलने और एक ही वैवाहिक घर में रहने का फैसला करना चाहिए। फिर भी, न्यायालय का अभी भी यह मानना था कि इस फैसले में कानून का कोई प्रस्ताव नहीं है, कि पत्नी अपनी मर्जी से अपने पति के वैवाहिक घर से खुद को अलग कर सकती है। इसके अलावा, यह प्रस्ताव कि पत्नी को अलग रहने का हक है, सिर्फ इसलिए कि उसका कार्यस्थल अलग जगह पर है, एक संस्था के रूप में विवाह की जड़ों को काटने के बराबर है। इसलिए, इस पीठ ने उद्धृत मामले के लेटर्स पेटेंट फैसले को खारिज कर दिया।
इसके बाद न्यायालय ने सुरिंदर कौर बनाम गुरदीप सिंह (1972) के मामले का हवाला दिया , जिसमें फिर से न्यायालय के समक्ष समान तथ्य प्रस्तुत किए गए। यह माना गया कि पत्नी का पति के प्रति उपस्थिति, आज्ञाकारिता और आदर का कर्तव्य है। इसके अलावा, वह वहीं रहने के लिए बाध्य है जहाँ पति रहना चाहता है। इसी तरह, गया प्रसाद बनाम श्रीमती भगवती (1965) के मामले में, यह माना गया कि केवल इसलिए कि पति की आय कम है, और यदि पत्नी को किसी अन्य स्थान पर रहने और काम करने की अनुमति दी जाती है, तो यह पूरे परिवार की आय में वृद्धि कर सकता है, पत्नी को अपने पति तक पहुंचने से इनकार करने का पर्याप्त कारण नहीं बनता है। यह भी बताया गया कि पूरे हिंदू कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है जो ऐसी किसी स्थिति को स्वीकार करता हो या इसे अपनाने का वारंट देता हो।
इसके अलावा, न्यायालय ने वुय्युरु पोथुराजू बनाम वुय्युरु राधा (1964) के फैसले पर भी भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि हिंदू विवाह में सभी अधिकारों को हिंदू कानून के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए। यह भी आशंका जताई गई कि पत्नी का घर पति का घर होता है।
हालांकि, प्रवीणबेन बनाम सुरेशभाई त्रिभोवन अरवा (1973) के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय के एकल पीठ के न्यायाधीश के विरोधाभासी विचार भी मौजूद हैं। एक स्कूल शिक्षिका को अपने रोजगार के लिए अलग रहने के अधिकार का हकदार माना गया और पति द्वारा वैवाहिक अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए याचिका खारिज कर दी गई। उस मामले के तथ्यों पर करीब से नज़र डालने पर पति की अपनी पत्नी से तलाक लेने की बुरी मंशा सामने आई, जिसके कारण मामला उसके खिलाफ़ तय किया गया।
निष्कर्ष के तौर पर, इस पीठ ने कहा कि एंग्लो अमेरिकन न्यायशास्त्र के तहत भी, वैवाहिक घर का विचार विवाह के केंद्र में है। पाषाण युग से लेकर आधुनिक समय तक, पति और पत्नी अपने जीवन को साथ-साथ बनाने के लिए घर की तलाश करते हैं। एक-दूसरे के प्रति उनकी अपनी ज़िम्मेदारियाँ और दायित्व होते हैं। एक पक्ष द्वारा अपने दायित्वों या वैवाहिक कर्तव्यों को एकतरफा छोड़ने का निर्णय लेना विवाह संस्था के लिए उचित नहीं है। स्पष्ट रूप से बढ़ी हुई परिस्थितियों के लिए अपवाद बनाया गया है।
पश्चिमी सिद्धांत चाहे जो भी कहें, हिंदू नियमों और सिद्धांतों के सभी पहलू जो मुख्य रूप से कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश (1977) के मामले में लागू हैं, कहते हैं कि पति को वैवाहिक घर चुनने का अधिकार है। हिंदू कानूनों के तहत, पत्नी का भी अपने पति के साथ, उसकी छत और संरक्षण में रहना एक स्पष्ट कर्तव्य है। केवल कदाचार (मिसकंडक्ट) की स्थिति में ही पत्नी अलग रहने की हकदार हो सकती है। साधारण रोजगार अलग-अलग जगहों पर रहने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के पीछे का विचार वैवाहिक संबंध के उस पक्ष को तत्काल उपाय प्रदान करना है, जिसे दूसरे द्वारा गलत ठहराया गया है। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी बताया कि इन प्रावधानों के बावजूद, यदि विवाह के दो पक्ष अपने घर के स्थान के एक साधारण प्रश्न के संबंध में भी सौहार्दपूर्ण निर्णय पर नहीं पहुंच पाते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि विवाह बिना समाधान के बिंदु पर पहुंच गया है। इसलिए, ऐसे मामले में, पक्षों के हित में यह अधिक होगा कि वे विवाह को समाप्त कर दें, बजाय इसके कि वे अदालत का दरवाजा खटखटाएं और उसके बाद दुखी होकर साथ रहने के लिए बाध्य हों।
इस प्रकार, प्रासंगिक तथ्यों के आधार पर कि पत्नी ने जानबूझकर वैवाहिक घर से दूर तबादला की मांग की, 12 वर्षों की अवधि तक वहां रहती रही, और अपने पति के साथ लगातार 2 या 3 दिनों से अधिक समय तक रहने से इनकार कर दिया, भले ही वह उसकी देखभाल करने में सक्षम और इच्छुक है, यह माना गया कि निचली अदालतों का निर्णय वैध था और वर्तमान अपील को खारिज कर दिया गया।
कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश (1977) का विश्लेषण
पहली नज़र में ऐसा फ़ैसला पुराना और महिला सशक्तिकरण के ख़िलाफ़ लगता है। हालाँकि, जब हम मामले के तथ्यों और मुद्दों पर गहराई से विचार करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अदालत ने यह फ़ैसला क्यों लिया।
भारत में और अधिकांश सभ्य समाजों में, विवाह को एक पवित्र संस्था के रूप में देखा जाता है, यह पति और पत्नी दोनों पर अधिकारों और जिम्मेदारियों का एक विशेष समूह लागू करता है। 70 के दशक में, जब यह मामला हुआ, तब महिला सशक्तीकरण आज की तुलना में कहीं भी नहीं था। ऐसा कहने के साथ, अभी भी बहुत सी महिलाएं थीं जो बाधाओं को तोड़ रही थीं और काम करना, बढ़ना और अध्ययन करना चुन रही थीं। ऐसी ही एक महिला कैलाशवती थीं, और उनके दृष्टिकोण से यह गलत नहीं है कि वह आगे न बढ़ने और अपनी नौकरी न छोड़ने की इच्छा रखें। हालांकि, उन दिनों लागू हिंदू कानून के सिद्धांतों और नियमों के अनुसार, यह उसका कर्तव्य था कि वह अपने पति के संरक्षण में रहे, जब तक कि उसके पीछे कोई उचित कारण न हो। इस मामले में, काम करने का उसका अधिकार और उसकी वित्तीय स्वतंत्रता को उसके अपने विवेक से अलग रहने की अनुमति देने के लिए पर्याप्त उचित कारण नहीं माना गया।
इसके अलावा, जब आप इसे देखते हैं, तो विवाह में दोनों पक्षों के बीच समझ होनी चाहिए। उन्हें एक-दूसरे की स्थिति के बारे में सोचना चाहिए और उसके अनुसार निर्णय लेना चाहिए। हालाँकि, इस मामले में, कोई भी पक्ष ऐसा करने के लिए तैयार नहीं था। इस तथ्य को नज़रअंदाज़ ना करना ज़रूरी है कि पति अपनी पत्नी से 12 साल की अवधि तक दूर रहा था, जो उसके जीवन के सबसे अच्छे साल भी थे। इसलिए, भले ही क़ानून उन्हें वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन की मांग करने की अनुमति देता हो, उस समय, इसके खिलाफ़ कुछ भी निर्णय लेना पति के साथ अनुचित होता।
इसके अलावा, प्राचीन हिंदू कानूनों में, परिवार और पत्नी का भरण-पोषण करने का कर्तव्य पूरी तरह से पति पर है। इस मामले में, पति ऐसा करने के लिए आसानी से सहमत भी था। इन तथ्यों के बावजूद, पत्नी की नौकरी जारी रखने की इच्छा को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसलिए, इस तरह के विवाह के लिए न्यायिक अलगाव या तलाक की मांग करना बेहतर होता। हालाँकि, पक्षों ने इसके बजाय दूसरा रास्ता अपनाने का फैसला किया। इससे अदालत के पास पीड़ित पति की ओर से वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन की अपील को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में, वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए आवेदन विवाह के किसी भी पक्ष द्वारा किया जा सकता है, यदि उन्हें दूसरे पक्ष से विवाह के अधिकार प्रदान नहीं किए जाते हैं। इसके अलावा, जैसा कि तब लागू होता है जब तक कि कोई उचित कारण न हो, यह न्यायालय का कर्तव्य भी था कि वह आवेदन को स्वीकार करे, कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश (1977) के मामले में, काम करने की उसकी इच्छा के अलावा ऐसा कोई उचित कारण नहीं था। हालाँकि, रोजगार की प्रकृति सामान्य थी, और उसके कार्यों को उसके पति के प्रति वैवाहिक कर्तव्यों के अनुरूप नहीं माना गया, इसलिए, उसकी अपील खारिज कर दी गई।
तब से लेकर अब तक, बदलते समय के साथ, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 की संवैधानिक वैधता को कई बार चुनौती दी गई है, और अदालत ने इसकी वैधता को बरकरार रखा है। यह एक वैधानिक उपाय है जो विवाह के किसी भी पक्ष के समर्थन में काम करता है जो अपने भागीदारों के समाज से अन्यायपूर्ण अलगाव का सामना करता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या अपनी पत्नी का भरण-पोषण करना केवल पति का कर्तव्य है?
हिंदू सिद्धांतों और कानूनों के तहत, पति का कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी और नाबालिग बच्चों की सुरक्षा और भरण-पोषण करे, जबकि पत्नी का यह कर्तव्य नहीं है।
क्या कोई पत्नी एकतरफा तौर पर वैवाहिक घर से दूर जा सकती है?
विवाह के भौतिक उल्लंघन के मामले में, जब पत्नी के पास अलग होने और रहने का उचित कारण हो, तो वह अलग रहने की हकदार हो सकती है। हालांकि, उचित कारण के बिना, उसका यह कर्तव्य है कि वह अपने पति के साथ, उसकी छत और सुरक्षा के नीचे रहे।
विवाह में वैवाहिक घर का स्थान तय करने का अधिकार या शक्ति किसके पास है?
आदर्श दुनिया में यह पति, पत्नी और बच्चों का आपसी निर्णय होता है। लेकिन व्यावहारिक दुनिया में जहां पति पर परिवार के भरण-पोषण की कानूनी जिम्मेदारी होती है, वहीं उसे अपनी पसंद और सुविधा के अनुसार ऐसा करने का अधिकार भी दिया जाता है।
कैलाशवती बनाम अयोध्या प्रकाश के मामले में, क्या पति ने उस समय एक कामकाजी महिला से शादी करने के लिए सहमत होकर अपनी पत्नी के साथ रहने के अपने अधिकार को त्याग दिया था?
नहीं, यह माना गया कि केवल यह जानना कि वह काम कर रही है, उसे बिना किसी उचित कारण के अलग रहने का अधिकार देने के लिए पर्याप्त कारण नहीं था।
क्या हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 वैध है?
हां, यह धारा वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना का प्रावधान करती है तथा जब विवाह के किसी पक्ष को बिना किसी उचित कारण के अन्यायपूर्ण तरीके से त्याग दिया जाता है तो तत्काल उपचार प्रदान करती है।
जब एक पत्नी अपने पति को छोड़ देती है तो क्या होता है?
हिंदू विवाह में जब पत्नी बिना किसी उचित कारण के अपने पति को छोड़ देती है, तो पति पत्नी के खिलाफ वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए याचिका दायर कर सकता है।
जब एक पति अपनी पत्नी को छोड़ देता है तो क्या होता है?
हिंदू विवाह में यदि पति बिना किसी पर्याप्त कारण के अपनी पत्नी को छोड़ देता है, तो पत्नी पति के खिलाफ वैवाहिक अधिकारों की प्रत्यास्थापन के लिए याचिका दायर कर सकती है।
संदर्भ