यह लेख चाणक्य राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, पटना के छात्र Gautam Badlani द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत में न्यायिक प्रणाली और न्यायालयों के पदानुक्रम का विश्लेषण करता है। इसके अलावा, यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले प्रावधानों और समकालीन (कंटेम्पररी) समय में न्यायपालिका के सामने आने वाली बाधाओं की भी जांच करता है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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परिचय
भारत में सरकार की तीन शाखाएँ हैं: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। भारत के संविधान में शक्तियों के विभाजन तथा नियंत्रण एवं संतुलन की प्रणाली की परिकल्पना की गई है। न्यायपालिका यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है कि विधायिका और कार्यपालिका अपनी संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन न करें तथा उन्हें शक्तियों का मनमाना प्रयोग करने से रोकती है। भारत का संविधान यह सुनिश्चित करता है कि न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका के प्रभाव से स्वतंत्र रहे।
यह लेख भारत में न्यायालयों के पदानुक्रम तथा विभिन्न न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र, शक्तियों और कार्यों का विश्लेषण करता है। इस लेख में न्यायिक प्रणाली के समक्ष वर्तमान में आने वाली विभिन्न बाधाओं पर भी प्रकाश डाला गया है।
भारत में न्यायिक प्रणाली का इतिहास
प्राचीन भारत में, सबसे निचली अदालत पारिवारिक न्यायालय थी, जिसकी शुरुआत पारिवारिक मध्यस्थ (आर्बिट्रेटर) से होती थी और सबसे ऊंचे पद पर न्यायाधीश राजा होता था। संप्रभु के प्राथमिक कर्तव्यों में से एक न्याय का वितरण था, और इस प्रक्रिया में राजा को उसके सलाहकारों और मंत्रियों द्वारा सहायता मिलती थी। जैसे-जैसे सभ्यता आगे बढ़ी, राजा के कर्तव्य न्यायाधीशों को सौंप दिए गए जिन्हें वेदों का ज्ञान था। न्याय ‘धर्म’ या नियमों की संरचना के आधार पर प्रशासित किया जाता था, जिसमें उन जिम्मेदारियों को निर्दिष्ट किया जाता था जिन्हें व्यक्ति को अपने जीवन में पूरा करना होता था। रीति-रिवाज कानून के स्रोत के रूप में कार्य करते थे। यह व्यवस्था मुगल काल तक जारी रही थी।
मुगल काल के दौरान, काजी का पद न्याय के वितरण के लिए जिम्मेदार था। प्रत्येक प्रांतीय राजधानी और प्रत्येक बड़े शहर में एक काजी होता था। काजियों ने पक्षकारों की उपस्थिति में मुकदमा चलाया और उनसे अपेक्षा की गई कि वे अपने कानूनी दस्तावेज बहुत सावधानी से लिखें। राजा अपील का सर्वोच्च न्यायालय था। इस न्याय प्रणाली को अंग्रेजों ने प्रतिस्थापित कर दिया था।
अंग्रेजों ने भारत में सामान्य कानून प्रणाली की शुरुआत की और सदर दीवानी अदालत की स्थापना की थी। इसके बाद उच्च न्यायालयों की स्थापना की गई थी। पहला उच्च न्यायालय 1862 में कलकत्ता में स्थापित किया गया था। मद्रास और बम्बई में भी उच्च न्यायालय स्थापित किये गये थे। इसके बाद, भारत सरकार अधिनियम, 1935 द्वारा संघीय न्यायालय की स्थापना की गई, जिसका अधिकार क्षेत्र उच्च न्यायालयों की तुलना में अधिक व्यापक था। इस प्रकार, भारत की वर्तमान न्यायिक प्रणाली काफी हद तक सामान्य कानून प्रणाली पर आधारित है।
भारतीय न्यायपालिका के कार्य
- संविधान को कायम रखना और उसकी व्याख्या करना: न्यायपालिका संविधान और उसके आदर्शों की रक्षा और उसे कायम रखने के लिए जिम्मेदार है। न्यायालय संविधान की व्याख्या करते हैं और किसी भी कानून, अध्यादेश (ऑर्डिनेंस), नियम या विनियमन जो संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है को रद्द कर देते हैं।
- अंतर्राज्यीय विवादों का समाधान: भारत का संविधान शासन की संघीय संरचना निर्धारित करता है। इस प्रकार, राज्यों और संघ तथा राज्यों के बीच विवाद अपरिहार्य हैं। न्यायपालिका, विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय, ऐसे विवादों को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- मौलिक अधिकारों का संरक्षण: संविधान का भाग III नागरिकों के साथ-साथ गैर-नागरिकों और कानूनी तथा प्राकृतिक व्यक्तियों को कुछ मौलिक अधिकार प्रदान करता है। न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि इन मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न हो। यदि विधायिका या कार्यपालिका का कोई कार्य इन अधिकारों का हनन करता है, तो संवैधानिक न्यायालयों को रिट जारी करने का अधिकार है।
- कानून निर्माण में सहायता: कई मामलों में, न्यायालय दिशानिर्देश निर्धारित करते हैं जिन्हें बाद में विधायिका द्वारा कानूनों में शामिल किया जाता है। समकालीन समाज की समस्याओं से निपटने के लिए न्यायालय अक्सर विधायिका को नया कानून तैयार करने या मौजूदा कानून में संशोधन करने के लिए सुझाव देते हैं। न्यायपालिका राष्ट्रपति को सलाहकार राय भी प्रदान करती है तथा संवैधानिक प्रावधानों से संबंधित किसी भी संदेह का समाधान करती है।
भारत में न्यायालयों का पदानुक्रम
भारत में न्यायिक प्रणाली प्रकृति में पदानुक्रमिक है। पदानुक्रम की मुख्यतः चार परतें हैं:
- भारत का सर्वोच्च न्यायालय,
- विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालय,
- अधीनस्थ न्यायालय,
- न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल),
- न्याय पंचायत,
- लोक अदालत।
भारतीय न्यायालयों के पदानुक्रम का चित्रात्मक प्रतिनिधित्व
भारत का सर्वोच्च न्यायालय
- इसके निर्णय सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं।
- यह उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को स्थानांतरित कर सकता है।
- वह किसी भी न्यायालय से अपने यहां मुकदमा स्थानांतरित कर सकता है।
- यह मामलों को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर सकता है।
उच्च न्यायालय
- उच्च न्यायालय निचली अदालतों की अपीलों पर सुनवाई कर सकता है।
- उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को बहाल करने के लिए रिट जारी कर सकता है।
- उच्च न्यायालय राज्य के अधिकार क्षेत्र के भीतर मामलों को सुन सकता है।
- उच्च न्यायालय अपने नीचे के न्यायालयों पर अधीक्षण और नियंत्रण रखता है।
जिला न्यायालय
- जिला न्यायालय जिले में उत्पन्न होने वाले मामलों से निपटता है।
- जिला न्यायालय निचली अदालतों द्वारा दिए गए निर्णयों पर अपील पर विचार करता है।
- जिला न्यायालय गंभीर आपराधिक अपराधों से संबंधित मामलों का फैसला करता है।
अधीनस्थ न्यायालय
- अधीनस्थ न्यायालय सिविल और आपराधिक प्रकृति के मामलों पर विचार करते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय
भारत में शासन की संरचना संघीय है और भारत का सर्वोच्च न्यायालय संघीय न्यायालय है। संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 (भाग V) सर्वोच्च न्यायालय के कार्यों, शक्तियों और अधिकारिता से संबंधित हैं।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
1773 के विनियमन अधिनियम द्वारा कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई थी। इसी प्रकार की अदालतें क्रमशः 1800 और 1823 में मद्रास और बम्बई में स्थापित की गईं थी।
भारत का सर्वोच्च न्यायालय भारत के संघीय न्यायालय पर आधारित है जिसकी स्थापना भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत की गई थी। हालाँकि, यह संघीय न्यायालय से इस मायने में भिन्न है कि संघीय न्यायालय से अपील प्रिवी काउंसिल में की जा सकती है, जबकि भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपील का सर्वोच्च न्यायालय है और इसके आदेश के विरुद्ध किसी अन्य न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती।
सर्वोच्च न्यायालय को संघीय न्यायालय तथा प्रिवी काउंसिल दोनों के अधिकार क्षेत्र तथा शक्तियां प्रदान की गई हैं। न्यायालय ने 28 जनवरी, 1950 को कार्य करना प्रारम्भ किया था।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति
संविधान का अनुच्छेद 124(2) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया निर्धारित करता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से की जाती है। राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श कर सकते हैं जिन्हें वह आवश्यक समझें। विधि मंत्री सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में भी राष्ट्रपति को सलाह देते हैं।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय (न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण बनाम सिविल सलाहकार अधिकार क्षेत्र) (1998) में न्यायालय ने माना कि यद्यपि राष्ट्रपति के पास सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की शक्ति है, किन्तु ऐसी नियुक्तियों में भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय को प्राथमिक महत्व दिया जाएगा। न्यायालय ने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों का एक कॉलेजियम राष्ट्रपति को नामों की सिफारिश करेगा तथा ऐसी सिफारिशों को राष्ट्रपति द्वारा न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाएगा। न्यायालय ने कहा कि कॉलेजियम सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, उच्च न्यायालयों के अन्य न्यायाधीशों और बार के सदस्यों के विचारों पर विचार करने के बाद सिफारिशें करेगा। इस प्रकार, कॉलेजियम राष्ट्रपति को सर्वाधिक उपयुक्त सिफारिशें करेगा। कॉलेजियम राष्ट्रपति को लिखित रूप में सिफारिशें देगा।
सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र
सर्वोच्च न्यायालय के पास मूल, अपीलीय तथा सलाहकारी अधिकार क्षेत्र है।
- मूल अधिकार क्षेत्र: अनुच्छेद 131 सर्वोच्च न्यायालय के मूल अधिकार क्षेत्र का प्रावधान करता है। न्यायालय का मूल अधिकार क्षेत्र संघ और राज्यों के बीच विवादों तथा दो या अधिक राज्यों के बीच विवादों तक विस्तारित है।
न्यायालय का मूल अधिकार क्षेत्र संघ और राज्यों के बीच विवादों तथा दो या अधिक राज्यों के बीच विवादों तक विस्तारित है। अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय को राजदूतों और मंत्रियों से संबंधित मामलों में मूल अधिकार क्षेत्र प्राप्त है। दूसरी ओर, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का मूल अधिकार क्षेत्र केवल कानूनी व्यक्तियों तक ही सीमित है, निजी व्यक्तियों तक नहीं है। एकमात्र ऐसा मामला जहां कोई निजी व्यक्ति सीधे सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है, वह किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए है।
कर्नाटक राज्य बनाम भारत संघ (1977) के ऐतिहासिक मामले में, केंद्र सरकार की अधिसूचना ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए जांच आयोग की स्थापना की और इसे राज्य सरकार द्वारा अनुच्छेद 131 के तहत चुनौती दी गई। न्यायालय को यह निर्धारित करना था कि क्या उक्त अधिसूचना को अनुच्छेद 131 के तहत चुनौती दी जा सकती है। केन्द्र सरकार ने तर्क दिया कि चूंकि राज्य के कोई कानूनी अधिकार प्रभावित नहीं हुए हैं, इसलिए याचिका स्वीकार्य नहीं है। न्यायालय ने कहा कि जहां संसद सदस्य और राज्य विधानमंडल के सदस्य संविधान के किसी प्रावधान की अलग-अलग व्याख्या करते हैं, वहां अनुच्छेद 131 के तहत न्यायालय के समक्ष विवाद उठाया जा सकता है।
- अपीलीय अधिकार क्षेत्र: सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय अधिकार क्षेत्र बहुत व्यापक है। जहां मामला कानून के किसी महत्वपूर्ण प्रश्न से संबंधित हो, वहां सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील की जा सकती है। ऐसे मामलों को या तो उच्च न्यायालय की मंजूरी से या विशेष अनुमति याचिका [अनुच्छेद 136(1)] के तहत भेजा जा सकता है।
सर चुन्नीलाल वी. मेहता एंड संस लिमिटेड बनाम सेंचुरी स्पिनिंग एंड मैन्युफैक्चरिंग कंपनी (1962) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने यह निर्धारित किया कि कानून का महत्वपूर्ण प्रश्न क्या होगा। न्यायालय ने कहा कि यदि प्रश्न सार्वजनिक महत्व का माना जाता है या पक्षकारों के अधिकारों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करने वाला समझा जाता है और यदि न तो प्रश्न और न ही इसके निर्धारण के लिए लागू किए जाने वाले सिद्धांतों को न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से तय किया गया है, तो इसे कानून का महत्वपूर्ण प्रश्न माना जाएगा।
अनुच्छेद 132(1) सर्वोच्च न्यायालय को उच्च न्यायालय के किसी निर्णय, आदेश या डिक्री के विरुद्ध अपील की अनुमति देने का अधिकार देता है, यदि उच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 134A के तहत मामले को कानून का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न सम्मिलित प्रमाणित किया जाता है।
इसी प्रकार, आपराधिक मामलों में, उच्च न्यायालय के पूर्व प्रमाणीकरण के साथ सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील की जा सकती है या जहां अभियुक्त को उच्च न्यायालय द्वारा मृत्युदंड की सजा सुनाई गई हो, उसके दोषमुक्ति के फैसले को पलट दिया गया हो या जहां उच्च न्यायालय किसी अधीनस्थ न्यायालय से मामला वापस लेने के बाद किसी व्यक्ति को मृत्युदंड की सजा सुनाता है।
सिविल मामलों में उच्च न्यायालय की मंजूरी के बाद अनुच्छेद 133(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
- सलाहकार अधिकार क्षेत्र: सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति द्वारा संदर्भित किसी भी मामले पर अपनी सलाहकार राय देने का भी अधिकार है। राष्ट्रपति किसी भी कानूनी या सार्वजनिक महत्व के प्रश्न पर या जहां मामला संविधान-पूर्व समय से संबंधित किसी संधि या समझौते से संबंधित हो, सलाहकार की राय मांग सकते हैं।
न्यायालय की सलाहकार राय सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है। विशेष न्यायालय विधेयक (1978) के मामले में, आपातकाल के दौरान सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा किए गए अपराधों से संबंधित मामलों का निर्णय करने के उद्देश्य से विशेष न्यायालयों की स्थापना के लिए संसद में एक निजी सदस्य विधेयक पेश किया गया था। राष्ट्रपति ने विधेयक की संवैधानिकता के संबंध में न्यायालय की राय मांगी। न्यायालय ने कहा कि संसद को ऐसी अदालतें स्थापित करने का अधिकार है। हालाँकि, अदालत ने माना कि यह राय पक्षकारों पर बाध्यकारी नहीं है।
- समीक्षा अधिकार क्षेत्र: अनुच्छेद 137 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को अपने किसी भी पूर्व निर्णय की समीक्षा करने का अधिकार है।
यह ध्यान देने योग्य है कि अनुच्छेद 262 संसद को कानून द्वारा, अंतर-राज्यीय नदी जल के नियंत्रण, संचालन या वितरण से संबंधित मामलों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार प्रदान करने या उससे वंचित करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 138 के आधार पर संसद द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का विस्तार किया जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय के कार्य
सर्वोच्च न्यायालय के निम्नलिखित कार्य हैं
- यह संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करने के लिए जिम्मेदार है। यदि कोई केंद्रीय या राज्य कानून किसी संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन करता हुआ पाया जाता है या यदि कोई कानून संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे कानून को रद्द कर सकता है और उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय अपने कामकाज के लिए दिशानिर्देश और नियम बनाता है तथा प्रक्रिया निर्धारित करता है।
- सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा और उन्हें कायम रखने के लिए जिम्मेदार है। नागरिकों के अधिकारों को लागू करने के लिए न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत रिट जारी कर सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय सम्पूर्ण न्यायिक प्रणाली की अखंडता की सुरक्षा और उसे कायम रखने के लिए जिम्मेदार है तथा न्यायपालिका के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने वालों को अवमानना के लिए दंडित कर सकता है।
- यह संघ और राज्यों के बीच तथा दो या अधिक राज्यों के बीच विवादों का समाधान करता है।
- यह अपील का सर्वोच्च न्यायालय है। यह अधीनस्थ न्यायालयों और न्यायाधिकरणों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई करता है तथा मामलों पर अंतिम निर्णय देता है।
अनुच्छेद 141 में प्रावधान है कि अधीनस्थ न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून से आबद्ध होंगे।
उच्च न्यायालय
संविधान के अनुच्छेद 214 के अंतर्गत प्रत्येक राज्य में एक उच्च न्यायालय की स्थापना का प्रावधान है। हालाँकि, संसद को कानून द्वारा दो या अधिक राज्यों के लिए एक सामान्य उच्च न्यायालय स्थापित करने का अधिकार है। उदाहरण के लिए, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र पंजाब तथा हरियाणा दोनों पर है।
उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के मामले में, नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश और संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों के संबंध में राष्ट्रपति को संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करना आवश्यक है।
एस.पी. गुप्ता एवं अन्य बनाम भारत संघ (1981) के ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि तीनों प्राधिकारियों, अर्थात् भारत के मुख्य न्यायाधीश, संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और राज्य के राज्यपाल की राय समान रूप से महत्वपूर्ण है और एक की राय दूसरे पर प्राथमिकता नहीं रखती है। इसके अलावा, न्यायालय ने आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के उदाहरणों को ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश के लिए एक न्यायिक आयोग के गठन की सिफारिश की थी।
संविधान (निन्यानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2014 ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफारिश पर न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान किया और मुख्य न्यायाधीश से परामर्श की आवश्यकता को समाप्त करने का प्रयास किया, हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (1993) के मामले में, संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था।
उच्च न्यायालय के कार्य
- यह अधीनस्थ न्यायालयों के कामकाज को नियंत्रित करता है तथा उनके कामकाज के लिए नियम और दिशानिर्देश जारी करता है।
- उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय और आदेशों के विरुद्ध अपील सुनता है।
- उच्च न्यायालय को व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए रिट जारी करने का अधिकार है।
- उच्च न्यायालयों को न्यायिक समीक्षा का अधिकार है और यदि यह पाया जाता है कि कोई कानून संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध है तो वे उसे निरस्त घोषित कर सकते हैं।
- यदि अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष किसी मामले में कानून का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न है, तो उच्च न्यायालय को मामले को वापस लेने और सुनवाई करने का अधिकार है।
उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र
उच्च न्यायालय संबंधित राज्य की क्षेत्रीय सीमाओं पर अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करता है।
- मूल अधिकार क्षेत्र: उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन, कुछ राजस्व मामलों और राज्य विधानमंडल के चुनाव से संबंधित मामलों में मूल अधिकार क्षेत्र प्राप्त है। उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 215 के तहत अवमानना के लिए दंडित करने का अधिकार है।
- अपीलीय अधिकार क्षेत्र: उच्च न्यायालयों को सिविल और आपराधिक दोनों मामलों के संदर्भ में अपीलीय अधिकार क्षेत्र प्राप्त है। जहां अभियुक्त को सत्र न्यायालय द्वारा 7 वर्ष या उससे अधिक कारावास या मृत्युदंड की सजा सुनाई जाती है, वहां उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। इसके अलावा, कानूनी रूप से महत्वपूर्ण प्रश्नों से संबंधित मामलों में उच्च न्यायालयों में अपील की जा सकती है।
- रिट अधिकार क्षेत्र: संविधान का अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को व्यक्तियों के अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट जारी करने का अधिकार देता है। यह ध्यान देने योग्य है कि उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के साथ-साथ कानूनी अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट जारी कर सकता है।
- पर्यवेक्षी अधिकार क्षेत्र: संविधान का अनुच्छेद 227 उच्च न्यायालयों को पर्यवेक्षी अधिकार क्षेत्र प्रदान करता है। उच्च न्यायालय अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में स्थापित सभी न्यायालयों और न्यायाधिकरणों पर अधीक्षण करता है।
- समीक्षा अधिकार क्षेत्र: अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को समीक्षा अधिकार क्षेत्र प्रदान करता है तथा उन्हें अपने निर्णयों और आदेशों की समीक्षा करने का अधिकार देता है। उच्च न्यायालय किसी पुनरीक्षण याचिका पर तब विचार करते हैं जब कोई भौतिक त्रुटि हुई हो जिसके परिणामस्वरूप न्याय में चूक हुई हो या जहां कोई गंभीर प्रक्रियागत त्रुटि हुई हो।
सत्र न्यायाधीश द्वारा अभियुक्त को 7 वर्ष से अधिक की सजा सुनाए जाने के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। कुछ मामलों में मेट्रोपोलिटियन या अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील भी की जा सकती है।
हालाँकि, यह ध्यान देने योग्य बात है कि छोटे मामलों के संबंध में उच्च न्यायालय में कोई अपील नहीं की जा सकती।
अधीनस्थ न्यायालय
जिला न्यायालय राज्य सरकार द्वारा स्थापित किये जाते हैं। इन्हें किसी एक जिले या जिलों के समूह के लिए स्थापित किया जा सकता है। उच्च न्यायालय जिला अदालतों के प्रशासन की देखरेख के लिए जिम्मेदार है। जिला न्यायालय मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं:
- आपराधिक न्यायालय, और
- सिविल न्यायालय।
सिविल अदालतें समझौतों, किराये और तलाक जैसे मामलों से संबंधित विवादों का निपटारा करती हैं। इन मामलों का निर्णय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के आधार पर किया जाता है।
आपराधिक अदालतें कानून के उल्लंघन से संबंधित मामलों का फैसला करती हैं जो राज्य द्वारा दायर किए जाते हैं। इन मामलों में डकैती, हत्या आदि शामिल हैं। दंड संहिताओं का कार्य दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 द्वारा निर्धारित प्रक्रिया द्वारा नियंत्रित होता है।
यह ध्यान देने योग्य है कि आपराधिक मामलों से निपटने के दौरान जिला अदालतों को सत्र न्यायालय कहा जाता है। जिला न्यायालय के आदेश से व्यथित कोई भी व्यक्ति उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है। जिला न्यायालय के नीचे विभिन्न अन्य अधीनस्थ न्यायालय हैं जैसे कि अतिरिक्त जिला न्यायाधीश का न्यायालय, प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट का न्यायालय, द्वितीय श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट का न्यायालय आदि। इस स्तर पर सबसे अधिक मामलों का निपटारा किया जाता है। परीक्षण और साक्ष्य की रिकॉर्डिंग)l भी इसी स्तर पर होती है।
राज्य में भू-राजस्व मामलों का निर्णय राजस्व न्यायालयों द्वारा किया जाता है। राजस्व न्यायालयों में तहसीलदार, कलेक्टर आदि की अदालतें शामिल हैं। राजस्व समिति सर्वोच्च राजस्व न्यायालय है।
नियुक्तियाँ और संरचना
जिला अदालतों की अध्यक्षता जिला न्यायाधीश द्वारा की जाती है, जिसकी नियुक्ति राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाती है। राज्यपाल संबंधित उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद जिला न्यायाधीश की नियुक्ति करता है। कार्यभार के आधार पर अतिरिक्त जिला न्यायाधीश की नियुक्ति भी की जा सकती है।
अन्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा की जाती है।
न्यायाधिकरण
कर, भूमि विवाद आदि जैसे विशिष्ट मामलों से निपटने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न विशेष न्यायाधिकरण स्थापित किए जाते हैं। न्यायाधिकरण न्यायिक या अर्ध-न्यायिक हो सकते हैं। न्यायाधिकरण शीघ्र न्याय प्रदान करते हैं और आमतौर पर तब स्थापित किए जाते हैं जब पारंपरिक अदालतों के समक्ष किसी विशेष विषय से संबंधित कई मामले लंबित होते हैं। इस प्रकार, ये न्यायाधिकरण पारंपरिक अदालतों के बोझ को कम करने में मदद करते हैं।
संविधान का अनुच्छेद 323A संसद को केन्द्रीय तथा राज्य स्तरीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण स्थापित करने का अधिकार देता है, जो लोक सेवकों की भर्ती और सेवा से संबंधित मामलों पर निर्णय देते हैं।
अनुच्छेद 323B उन विषयों की सूची प्रदान करता है जिनके लिए न्यायाधिकरणों की स्थापना संघीय संसद या राज्य विधानमंडलों द्वारा की जा सकती है। इसमें कर, श्रम विवाद, चुनाव, भूमि सुधार आदि शामिल हैं। भारत संघ बनाम आर. गांधी एवं अन्य (2010) के ऐतिहासिक मामले में, यह माना गया कि अनुच्छेद 323B में प्रदान की गई मामलों की सूची का उद्देश्य विधायिका को किसी अन्य मामले पर निर्णय लेने के लिए न्यायाधिकरण स्थापित करने से प्रतिबंधित करना नहीं है। यह सूची संपूर्ण नहीं है और विधायिका सातवीं अनुसूची में दिए गए किसी भी मामले से संबंधित न्यायाधिकरण स्थापित कर सकती है।
न्याय पंचायतें
न्याय पंचायतें गांव स्तर पर स्थापित की जाती हैं और इनका उद्देश्य सस्ता और शीघ्र न्याय उपलब्ध कराना है। वे अनुच्छेद 40 द्वारा प्रदत्त निर्देशों पर आधारित हैं, जिसमें कहा गया है कि राज्य को पंचायतों को सशक्त बनाने के लिए कदम उठाने चाहिए। 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायतों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया। ये न्याय पंचायतें गलत तरीके से रोके जाने या चोरी जैसे छोटे अपराधों पर निर्णय लेती हैं। यद्यपि इन पंचायतों को सिविल तथा आपराधिक दोनों प्रकार के अधिकार क्षेत्र प्राप्त हैं, लेकिन इन न्यायिक घटकों का आर्थिक अधिकार क्षेत्र बहुत कम है।
पंचों की नियुक्ति गांव के वयस्क लोगों द्वारा की जाती है। इसके अलावा, चूंकि ये पद मानद (होनोरेरी) हैं, इसलिए सदस्यों को कोई वेतन नहीं मिलता। न्याय पंचायत के सदस्यों की न्यूनतम आयु 30 वर्ष है।
1977 में गठित अशोक मेहता समिति ने न्याय पंचायतों के सुधार के लिए कुछ सिफारिशें कीं थी। इसमें सुझाव दिया गया कि सरकार को न्याय पंचायत के न्यायाधीशों के लिए एक विशेष कैडर बनाना चाहिए। न्याय पंचायतों के सिविल अधिकार क्षेत्र को व्यापक बनाया जाना चाहिए तथा उनका आपराधिक अधिकार क्षेत्र प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट के समकक्ष होना चाहिए। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के प्रावधानों के साथ-साथ भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के प्रावधान न्याय पंचायत की कार्यवाही पर लागू नहीं होंगे। हालाँकि, समिति की सिफारिशों को लागू नहीं किया गया है।
लोक अदालत
न्याय पंचायत के विपरीत, लोक अदालतें विवादों का निपटारा नहीं करतीं, बल्कि उनका उद्देश्य बिचवई (मीडियशन) और माध्यस्थम (आर्बिट्रेशन) के माध्यम से विवादों का समाधान करना होता है। लोक अदालतों को ‘जनता की अदालत’ के नाम से भी जाना जाता है। लोक अदालतों में न्यायिक अधिकारी, सेवानिवृत्त एवं सेवारत (सर्विंग) तथा केन्द्र सरकार द्वारा निर्धारित अन्य व्यक्ति शामिल होते हैं।
विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 द्वारा लोक अदालतों को वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया। अधिनियम का अध्याय VI स्पष्ट रूप से लोक अदालतों के आयोजन से संबंधित है। अधिनियम की धारा 21 में प्रावधान है कि लोक अदालत द्वारा दिया गया निर्णय सिविल न्यायालय की डिक्री मानी जाएगी। इसके अलावा, ऐसा निर्णय विवाद से संबंधित पक्षों पर बाध्यकारी होता है।
लोक अदालत को ऐसे मामलों पर अधिकार क्षेत्र प्राप्त है जो उस अदालत के समक्ष लंबित हैं जिसके लिए अदालत बुलाई गई है। पक्षकार या तो मामले को लोक अदालत को भेजने के लिए सहमत हो सकते हैं या पक्षों में से कोई एक लोक अदालत के समक्ष आवेदन कर सकता है या मामले को अदालत द्वारा लोक अदालत को भेजा जा सकता है। धारा 20 में प्रावधान है कि लोक अदालत को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय “न्याय, समानता, निष्पक्षता और अन्य कानूनी सिद्धांतों” का पालन करना चाहिए।
न्यायिक स्वतंत्रता और संवैधानिक प्रावधान
भारत में एक स्वतंत्र न्यायपालिका है। विधायिका और कार्यपालिका को न्यायिक कार्यों में हस्तक्षेप करने से रोका जाता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि न्यायाधीश बिना किसी भय के अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें।
ऐसे कई संवैधानिक प्रावधान हैं जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखते हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि अनुच्छेद 50, जो एक निर्देशक सिद्धांत है, यह प्रावधान करता है कि राज्य यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाएगा कि न्यायपालिका कार्यपालिका से अलग होकर कार्य करे। न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए कई अन्य संवैधानिक सुरक्षा उपाय भी हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय के पास सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ विभिन्न उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की शक्ति है। अनुच्छेद 124(2) में प्रावधान है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के परामर्श से की जाएगी।
- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एक बार नियुक्त होने के बाद 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बने रहते हैं। इसी प्रकार, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बने रहते हैं।
- अनुच्छेद 124(4) में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया का प्रावधान है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को केवल राष्ट्रपति के आदेश से ही हटाया जा सकता है। निष्कासन को उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम 2/3 के विशेष बहुमत द्वारा समर्थित होना चाहिए। राष्ट्रपति को संसद के दोनों सदनों को संबोधित करना होगा और हटाने का प्रस्ताव उसी सत्र में उनके समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को केवल अक्षमता या कदाचार के आधार पर ही हटाया जा सकता है।
- अब तक सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश पर महाभियोग (इंपीचमेंट) नहीं लगाया गया है। वीरास्वामी रामास्वामी पहले न्यायाधीश थे जिनके खिलाफ कार्यवाही शुरू की गई थी, लेकिन प्रस्ताव लोकसभा में पारित नहीं हो सका।
- इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते में कटौती नहीं की जा सकती, सिवाय इसके कि अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपातकाल घोषित कर दिया गया हो।
- संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते भारत की संचित निधि (कंसोलिडेटेड फंड) से लिए जाते हैं।
- विधायिका किसी न्यायाधीश के अपने आधिकारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते समय उसके आचरण पर विचार-विमर्श नहीं कर सकती।
- संसद तथा राज्य विधानसभाओं को न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को कम करने से रोका गया है तथा वे केवल इसे बढ़ा सकते हैं।
- उपर्युक्त सुरक्षा उपायों के बावजूद, यदि कोई न्यायालय के अधिकार को कमजोर करता है, तो सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ उच्च न्यायालयों को क्रमशः अनुच्छेद 129 और अनुच्छेद 215 के तहत अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति है।
न्यायिक प्रणाली में बाधाएँ
भारत की न्यायिक प्रणाली वर्तमान में कई बाधाओं का सामना कर रही है। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
- संवैधानिक न्यायालय, अर्थात् सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय, मुकदमों के बोझ से अत्यधिक दबे हुए हैं। इसके परिणामस्वरूप न्याय में भारी देरी होती है और कभी-कभी मुकदमेबाजी दशकों तक चलती रहती है।
- मुकदमेबाजी एक महंगा मामला है और कई मामलों में, आम लोगों को अपने अधिकारों और दावों को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है क्योंकि वे कानूनी कार्यवाही का खर्च वहन करने में असमर्थ होते हैं।
- न्यायपालिका के पास भारी मुकदमों से उचित ढंग से निपटने के लिए बुनियादी ढांचे का अभाव है। न्यायिक परिसरों में भीड़भाड़ है और कई न्यायालयों में डिजिटल बुनियादी ढांचे की कमी है।
- ब्रिटिश काल के कई कानून अप्रचलित हो गए हैं और उन्हें संशोधित या निरस्त करने की आवश्यकता है।
- अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष मुकदमों का बोझ भी बहुत अधिक है और परिणामस्वरूप न्यायालयों द्वारा बार-बार स्थगन दिया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप देरी होती है।
- विचाराधीन कैदी वर्षों तक जेलों में सड़ते रहते हैं, जबकि उनके मामले लंबित रहते हैं।
- भारत में प्रति दस लाख लोगों पर लगभग 21 न्यायाधीश हैं। न्यायाधीशों और जनता का अनुपात बहुत कम है और विधि आयोग ने अपनी 245वीं रिपोर्ट में इस अनुपात में सुधार की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि न्यायाधीशों की कमी के कारण लंबित मामलों की संख्या बहुत अधिक हो गई है तथा इस मुद्दे पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
किसी भी लोकतंत्र के लिए एक जीवंत और स्वतंत्र न्यायपालिका आवश्यक है। भारत में न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि कानून का शासन हो और नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन न हो। यह सरकार के अन्य दो अंगों, अर्थात् विधायिका और कार्यपालिका पर भी नियंत्रण रखता है।
हालाँकि, भारत में न्यायिक प्रणाली कई चुनौतियों का सामना कर रही है, जिनका प्राथमिकता के आधार पर समाधान किया जाना आवश्यक है। न्यायाधीशों की कमी को दूर करने तथा मामलों का समय पर निपटारा सुनिश्चित करने की तत्काल आवश्यकता है। इसके अलावा, न्यायिक बुनियादी ढांचे और विचारण न्यायालय की कार्य स्थितियों में सुधार किया जाना चाहिए ताकि न्यायिक पेशे में प्रतिभाओं को आकर्षित किया जा सके।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
भारत के सर्वोच्च न्यायालय में कितने न्यायाधीश हैं?
सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश सहित 31 न्यायाधीश होते हैं।
कौन सा उच्च न्यायालय भारत का सबसे पुराना उच्च न्यायालय है?
1862 में स्थापित कलकत्ता उच्च न्यायालय भारत का सबसे पुराना उच्च न्यायालय है।
सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना कब हुई?
सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना 28 जनवरी 1950 को हुई थी।
तीन न्यायाधीशों के मामले क्या हैं?
तीन न्यायाधीशों के मामले में तीन निर्णय दिए गए हैं जिनमें न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताया है।
प्रथम न्यायाधीश मामला या एस.पी. गुप्ता बनाम भारत के राष्ट्रपति (1981) 1981 में तय किया गया था और इस मामले में, अदालत ने माना कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय पर उचित विचार करते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का अंतिम अधिकार राष्ट्रपति के पास है।
दूसरे न्यायाधीशों का मामला या सर्वोच्च न्यायालय बनाम भारत संघ (1993) का फैसला 1993 में सर्वोच्च न्यायालय की 9 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ द्वारा किया गया था। इस मामले में, न्यायालय ने माना कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और नियुक्ति की प्रक्रिया में मुख्य न्यायाधीश की सहमति आवश्यक है।
तीसरे न्यायाधीशों के मामले में, कॉलेजियम प्रणाली निर्धारित की गई और यह माना गया कि राष्ट्रपति को कॉलेजियम की सिफारिश के आधार पर न्यायाधीशों की नियुक्ति करनी चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की शक्ति किसे प्रदान की गई है?
अनुच्छेद 124 के तहत, राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर महाभियोग लगाया जा सकता है, बशर्ते कि महाभियोग प्रस्ताव को उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा अनुमोदित किया जाए।
संदर्भ