यह लेख Arkadyuti Sarkar द्वारा लिखा गया है। इसमें जकारियस लाकरा बनाम भारत संघ (2005) के ऐतिहासिक मामले पर विस्तार से चर्चा की गई है। यह मामला मुख्यतः एक नाबालिग को मृत्युदंड देने से संबंधित था। इस लेख में भारत में मृत्युदंड की अवधारणा और इसके इतिहास के साथ-साथ तथ्यों, मुद्दों, तर्कों, प्रासंगिक कानूनों, कानूनी पूर्ववर्ती मामलों और मामले में अदालत के फैसले पर भी चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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परिचय
सभी दंड इस प्रस्ताव के आधार पर दिए जाते हैं कि गलत कार्य के लिए दंड अवश्य होना चाहिए। दंड देने के पीछे दो मुख्य कारण हैं: यह विश्वास कि अपराधियों को दंडित करने से एक चेतावनी मिलेगी जो दूसरों को वही गलत काम करने से हतोत्साहित करेगी; और दूसरा, यह धारणा कि गलत काम करने वाले को दंडित करना और उसे कष्ट देना सही और न्यायसंगत है।
दुनिया भर में मृत्युदंड देना हमेशा से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है और इसलिए इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं। वर्तमान में 112 देशों में मृत्युदंड का प्रयोग नहीं किया जाता है। चार देशों, अर्थात कजाकिस्तान, पापुआ न्यू गिनी, सिएरा लियोन और मध्य अफ्रीकी गणराज्य ने इसे पूरी तरह से समाप्त कर दिया है, जबकि इक्वेटोरियल गिनी और जाम्बिया इसे केवल असाधारण परिस्थितियों में ही प्रदान करते हैं। हालाँकि, कुछ देशों को छोड़कर, कहीं भी नाबालिगों, अर्थात् 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को मृत्युदंड नहीं दिया जाता है।
भारत की बात करें तो मृत्युदंड हमेशा से ही यहां की न्यायिक व्यवस्था का अभिन्न अंग रहा है। देश में मानवाधिकार आंदोलन के बढ़ने के साथ ही मृत्युदंड की नैतिकता पर भी सवाल उठने लगे हैं। दूसरी ओर, कई लोगों के अनुसार, असंख्य सामाजिक सदस्यों या संभावित पीड़ितों के जीवन की कीमत पर एक अपराधी को जीवित रखना अविश्वसनीय और नैतिक रूप से गलत है।
मृत्युदंड से संबंधित मुद्दे तब अधिक संवेदनशील हो जाते हैं जब अपराधी नाबालिग हो। ज़कारियस लाकरा बनाम भारत संघ (2005) एक ऐसा मामला है जो मृत्युदंड, विशेष रूप से नाबालिग को मृत्युदंड देने से संबंधित है। अब, इस मामले पर विस्तार से चर्चा करने से पहले, मृत्युदंड की संक्षिप्त अवधारणा को समझना आवश्यक है।
मृत्युदंड क्या है?
मृत्युदंड (जिसे प्राणदंड भी कहा जाता है) का अर्थ है किसी अपराध के संबंध में उपयुक्त न्यायालय के आदेशानुसार अपराधी को मृत्युदंड देना। मृत्युदंड को उचित कानूनी प्रक्रिया के अभाव में कार्यकारी शाखा द्वारा किए गए न्यायेतर (एक्स्ट्राजुडिशल) निष्पादन के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए।
मृत्युदंड से तात्पर्य सबसे कठोर प्रकार की सजा से है जो किसी अपराधी को मानवता के विरुद्ध सबसे जघन्य, गंभीर और घृणित अपराध करने के लिए दी जाती है। यद्यपि ऐसे अपराधों की परिभाषा और सीमा राष्ट्र, राज्य, आयु आदि के आधार पर भिन्न हो सकती है, तथापि मृत्युदंड को हमेशा प्राणदंड ही कहा जाता है।
भारत में मृत्युदंड का इतिहास
ब्रिटिश-भारत की विधानसभा में हुई बहसों की सावधानीपूर्वक जांच करने पर पता चलता है कि 1931 तक मृत्युदंड के बारे में कोई मुद्दा नहीं उठाया गया था, जब सदस्यों में से एक, श्री गया प्रसाद सिंह ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (जिसे अब भारतीय न्याय संहिता में बदल दिया गया है) के तहत अपराधों के लिए मृत्युदंड को समाप्त करने के लिए एक विधेयक पेश करने की मांग की थी। हालाँकि, यह प्रस्ताव विफल हो गया, क्योंकि तत्कालीन गृह मंत्री सर जॉन थॉर्न के अनुसार, ब्रिटिश सरकार किसी भी प्रकार के अपराध के लिए मृत्युदंड को समाप्त करना बुद्धिमानी नहीं समझती, जिसके लिए इसका प्रावधान किया गया था।
स्वतंत्रता के बाद, भारत ने ब्रिटिश औपनिवेशिक (कॉलोनियल) सरकार के कई कानूनों को बरकरार रखा, जिनमें मुख्य रूप से भारतीय दंड संहिता,1860 (जिसे आगे आईपीसी कहा जाएगा) और दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 (जिसे आगे सीआरपीसी कहा जाएगा) (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) शामिल हैं।
भारतीय दंड संहिता में मृत्युदंड सहित छह दंडों का प्रावधान था, जो कानूनी रूप से लागू करने योग्य थे। जिन अपराधों में मृत्युदंड का विकल्प था, उनमें दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 की धारा 367(5) के तहत यह आवश्यक था कि यदि संबंधित अपराध मृत्युदंड से दंडनीय हो तो न्यायालय द्वारा मृत्युदंड न देने का निर्णय लेने के पीछे के कारणों को दर्ज किया जाएगा। 1955 में संसद ने इस धारा को निरस्त कर दिया, जिससे मृत्युदंड की स्थिति में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया था। मृत्युदंड अब सामान्य बात नहीं रह गई थी, तथा न्यायालयों को यह बताने के लिए विशेष कारणों की आवश्यकता नहीं थी कि वे उन मामलों में मृत्युदंड क्यों नहीं दे रहे हैं जहां यह एक निर्धारित सजा थी।
1973 में सीआरपीसी को पुनः अधिनियमित किया गया तथा इसमें कई संशोधन किए गए, विशेष रूप से धारा 354(3) में, जिसके तहत न्यायालयों को अब ऐसे अपराध के लिए आजीवन कारावास या मृत्युदंड के मामले में विशेष कारण बताने की आवश्यकता थी, जो ऐसे दंड के अधीन है।
इन संशोधनों में धारा 235(2) के अंतर्गत मृत्युदंड सहित सजा पर दोषसिद्धि के बाद सुनवाई की संभावना को भी शामिल किया गया। यहां, न्यायाधीश को सजा के प्रश्न पर अभियुक्त की बात सुनने तथा कानून के अनुसार आवश्यक सजा सुनाने का अधिकार दिया गया था, जब तक कि अभियुक्त धारा 360 (अच्छे आचरण की परिवीक्षा (प्रॉबेशन) पर या चेतावनी के बाद रिहा करने का आदेश) के प्रावधानों के अनुसार आगे न बढ़े।
मृत्युदंड देने के संबंध में, केंद्र सरकार ने अपने कानून की किताबों में मृत्युदंड को एक निवारक के रूप में बनाए रखा है, और सामाजिक खतरों के बावजूद, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने “दुर्लभतम” सिद्धांत में मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है। सर्वोच्च न्यायालय ने बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) के ऐतिहासिक मामले में कुछ व्यापक और उदाहरणात्मक दिशानिर्देश निर्धारित किए थे तथा दुर्लभतम का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। यद्यपि ‘दुर्लभतम’ की कोई वैधानिक परिभाषा मौजूद नहीं है, लेकिन यह मुख्य रूप से किसी विशिष्ट मामले के तथ्यों और परिस्थितियों, संबंधित अपराध की क्रूरता, अपराधी के व्यवहार, अपराधी के पूर्व आपराधिक इतिहास आदि पर निर्भर करता है।
‘दुर्लभतम’ की कोई वैधानिक परिभाषा नहीं है। यह किसी विशेष मामले के तथ्यों और परिस्थितियों, अपराध की क्रूरता, अपराधी के आचरण, अपराध में उसकी संलिप्तता के पिछले इतिहास तथा सुधार होने और उसे मृत्युदंड दिए जाने की संभावनाओं पर निर्भर करता है। यह मुद्दा पूरे विश्व में सदैव विवादित रहा है।
बच्चन सिंह के मामले से निम्नलिखित प्रस्ताव उभर कर सामने आये:
- मृत्युदंड देने का चरम कदम केवल उन मामलों को छोड़कर लागू नहीं किया जाएगा जिनमें अत्यधिक दोषसिद्धि शामिल हो।
- मृत्युदंड देने से पहले अपराधी की परिस्थितियों पर विचार किया जाना चाहिए।
- आजीवन कारावास नियम है, जबकि मृत्युदंड अपवाद है।
- सभी उत्तेजक और शमनकारी (मिटीगेटिंग) स्थितियों को पूर्ण रूप से शामिल करने वाले तुलन पत्र (बैलेंस शीट) पर जोर दिया जाना चाहिए ताकि उनके बीच संतुलन बनाया जा सकता है।
अब, भारतीय कानूनी परिदृश्य में मृत्युदंड की स्थिति के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करने के बाद, आइए हम वर्तमान मामले के विवरण पर गौर करते है।
मामले के तथ्य
- याचिकाकर्ता, अर्थात् दोषी (अपीलकर्ता) जिसे अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, देहरादून द्वारा मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी जिसे पहले उत्तरांचल उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा था, के माता-पिता ने सजा के खिलाफ माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की।
- उन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 (इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उपाय) के तहत रिट याचिका दायर की और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई मृत्युदंड की वैधता पर सवाल उठाया था। उनके अनुसार, दोषी एक किशोर था, जिसका जन्म 4 दिसंबर, 1980 को हुआ था, और इसलिए 15 नवंबर 1994 जिस दिन अपराध किया गया था को वह नाबालिग था। उन्होंने अपने दावों के समर्थन में दो दस्तावेज भी प्रस्तुत किये थे।
- ये दस्तावेज पश्चिम बंगाल राज्य के एक स्कूल प्राधिकरण द्वारा जारी किए गए थे और इनकी तारीख क्रमशः 28.4.2001 और 2.8.2002 थी। हालाँकि, पूर्व में अपील की सुनवाई के दौरान उन्हें न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया गया था।
मामले से संबंधित कानून
किसी मामले के दौरान न्यायालय द्वारा विभिन्न कानूनों और कानूनी सिद्धांतों पर विचार किया जाता है और उनका विश्लेषण किया जाता है, जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर हो सकता है। इस मामले में निम्नलिखित कानूनी सिद्धांत शामिल थे:
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 313
सीआरपीसी की धारा 313 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 348) किसी भी अपराध के संबंध में अभियुक्त की जांच करने की अदालत की शक्ति के संबंध में प्रावधान करती है।
- प्रत्येक जांच या परीक्षण में, न्यायालय, अभियुक्त को साक्ष्य में उसके विरुद्ध प्रकट होने वाली किसी भी परिस्थिति को व्यक्तिगत रूप से स्पष्ट करने में सक्षम बनाने के लिए,
- मुकदमे के किसी भी चरण में, बिना किसी पूर्व चेतावनी के, अभियुक्त से कोई भी आवश्यक प्रश्न पूछ सकता है;
- अभियोजन पक्ष के गवाह की जांच हो जाने और उसे अपने बचाव के लिए बुलाए जाने के बाद, मामले पर सामान्य रूप से अभियुक्त से पूछताछ की जाएगी। इसके अलावा, यदि अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति को माफ कर दिया गया हो तो न्यायालय के विवेक पर ऐसी पूछताछ से छूट दी जा सकती है।
- धारा 313(1) के अनुसार, अभियुक्त से पूछताछ के दौरान कोई शपथ नहीं दिलाई जाएगी।
- अभियुक्त को ऐसे किसी भी प्रश्न का उत्तर देने से इंकार करने या गलत उत्तर देने के लिए दंडित नहीं किया जाएगा।
- अभियुक्त द्वारा दिए गए उत्तरों पर ऐसी जांच या परीक्षण में विचार किया जा सकता है तथा किसी अन्य अपराध से संबंधित किसी अन्य जांच या परीक्षण में उसके पक्ष या विपक्ष में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसमें ऐसे उत्तरों के कारण वह संलिप्त हो सकता है।
- न्यायालय ऐसे प्रश्न तैयार करने के लिए सरकारी वकील और बचाव पक्ष के वकील दोनों की सहायता ले सकता है तथा अभियुक्त को इस धारा के अनुपालन में लिखित बयान देने की अनुमति दे सकता है।
किशोर न्याय अधिनियम, 1986 की धारा 22(1)
किशोर न्याय अधिनियम, 1986 की धारा 22(1) में प्रावधान है कि किसी किशोर अपराधी को जुर्माना या सुरक्षा राशि का भुगतान न करने के कारण मृत्युदंड या कारावास नहीं दिया जाएगा। हालाँकि, कम से कम 14 वर्ष की आयु के किसी किशोर को गंभीर अपराध करने पर विशेष गृह भेजा जा सकता है, यदि किशोर न्यायालय ऐसा आवश्यक समझे।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा। सरल शब्दों में, भारतीय संविधान का यह प्रावधान भारतीय नागरिकों को गारंटी देता है कि उनके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से राज्य द्वारा कानूनी रूप से स्थापित संवैधानिक प्रक्रिया का पालन किए बिना समझौता नहीं किया जाएगा। मृत्युदंड की सजा देना, विशेष रूप से नाबालिग के मामले में, अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार पर एक स्पष्ट आघात है, जब तक कि उचित न्यायिक जांच द्वारा इसे मंजूरी न दी जाए। इसलिए, इस मामले में याचिकाकर्ताओं द्वारा न्यायिक जांच के लिए इस प्रावधान को भी उठाया गया था।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22
अनुच्छेद 22 कुछ मामलों में गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान करता है। संक्षेप में, ऐसे संरक्षण में गिरफ्तार व्यक्ति या बंदी को ऐसी गिरफ्तारी या हिरासत के आधारों के बारे में सूचित करना तथा गिरफ्तार व्यक्ति या बंदी को अपनी पसंद के किसी भी कानूनी व्यवसायी से परामर्श करने और बचाव कराने का अधिकार शामिल है। यह अनुच्छेद गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने का अधिकार प्रदान करता है। मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना किसी भी व्यक्ति को निर्धारित अवधि से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क
- याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि अपराध की तिथि पर अभियुक्त किशोर था। इस दावे के समर्थन में उन्होंने आरोपी के स्कूल के दस्तावेज प्रस्तुत किये, जिसमें बताया गया कि उसकी जन्मतिथि 4 जनवरी, 1980 थी।
- याचिकाकर्ताओं के विद्वान वकील ने कहा कि वे दोषसिद्धि को रद्द करने के लिए मुकदमे को पुनः खोलने की मांग नहीं कर रहे हैं। वे मुख्यतः मृत्युदंड की सजा को आजीवन कारावास में बदलना चाहते थे। वकील ने यह भी कहा कि उनके द्वारा उपलब्ध कराए गए दस्तावेजों की प्रामाणिकता की पुष्टि अदालत या किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा की जा सकती है।
- दोषी (अपीलकर्ता) ने उम्र का मुद्दा उठाते हुए एक समीक्षा याचिका भी दायर की थी। इस समीक्षा याचिका में उल्लिखित आधारों में से एक यह था कि दोषी की उम्र साबित करने के लिए दस्तावेज उपलब्ध कराए गए, जिसके कारण याचिका खारिज कर दी गई।
- याचिकाकर्ता के विद्वान वकील ने राज सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2015) और गोपीनाथ घोष बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1983) के मामलों का हवाला दिया, जिसमें अदालत ने दोषी के किशोर की याचिका को स्वीकार कर लिया और उचित उपचार प्रदान किया। उन्होंने राम देव चौहान एवं राज नाथ चौहान बनाम असम राज्य (2000) के मामले का भी उल्लेख किया, जिसमें न्यायपालिका ने उदार दृष्टिकोण अपनाया था और उम्र का लाभ प्रदान करने का विकल्प चुना था, भले ही दोषी के किशोर होने का प्रमाण न मिला हो, लेकिन अनिश्चितता के आधार पर लाभ प्रदान किया जा सकता था, क्योंकि दोषी उम्र की सीमा में था और इसलिए उसे वैकल्पिक रूप से आजीवन कारावास की सजा दी गई थी।
मामले में उठाए गए मुद्दे
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह मुद्दा था कि क्या दोषी को दी गई मृत्युदंड की सजा को इस आधार पर रद्द किया जा सकता है कि अपराध की तिथि पर वह किशोर था?
जकारियस लाकरा बनाम भारत संघ में निर्णय (2005)
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में प्रयुक्त सभी कानूनी प्रावधानों और उदाहरणों पर विचार किया और निर्णय दिया कि रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा (2002) में न्यायालय के निर्णय के अनुरूप, संबंधित याचिका भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत विचारणीय नहीं है। अदालत ने माना कि उद्धृत मामले में बताई गई प्रक्रिया के अनुसार, उपचारात्मक याचिका दायर करना ही उचित उपाय होगा। तदनुसार, न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं को आवश्यक संशोधनों को शामिल करके तथा उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए रिट याचिका को उपचारात्मक याचिका में परिवर्तित करने की अनुमति दे दी थी।
मामले में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय
राज सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2015)
इस मामले में, अभियुक्त/अपीलकर्ता ने दो अन्य सह-अभियुक्तों के साथ मिलकर शिकायतकर्ता के भाई की हत्या कर दी थी और अन्य लोगों को भी घायल कर दिया था। सत्र न्यायालय ने इन तीनों अभियुक्तों को दोषी ठहराया, जिसके बाद उन्होंने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में अपील की, जिसमें अपीलकर्ता के संबंध में विचारण न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा गया, जबकि अन्य दो सह-अभियुक्तों को बरी कर दिया गया था। इसलिए, अपीलकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसने माना कि उच्च न्यायालय ने सही निर्णय दिया था कि शिकायतकर्ताओं ने अपनी आत्मरक्षा के दायरे में कार्य किया था और यह अपीलकर्ता ही थे जिन्होंने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया था। इसके अलावा, शुरुआत में घटनास्थल शिकायतकर्ता का था, लेकिन 3 से 4 दिनों के अंतराल के बाद उसे अपीलकर्ता के स्थान में बदल दिया गया, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि अपीलकर्ता ही वास्तविक हमलावर थे। अपील खारिज कर दी गई तथा अपीलकर्ता की दोषसिद्धि बरकरार को बरक़रार रखा गया था।
गोपीनाथ घोष बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1983)
इस मामले में, अपीलकर्ता को अन्य दो अभियुक्तों के साथ, विद्वान अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या के लिए दंड) के साथ धारा 34 (सामान्य आशय को आगे बढ़ाने में कई व्यक्तियों द्वारा किए गए कार्य) अब, भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 103 जिसे भारतीय न्याय संहिता की धारा 3(5) के साथ पढ़ा जाएगा के तहत 19 अगस्त, 1974 को पीड़िता की हत्या के मामले में दोषी ठहराया गया था।
अपीलकर्ता और दो अन्य सह-अभियुक्तों ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में अपील की, जिसमें एक खंडपीठ ने माना कि अपीलकर्ता के खिलाफ अपराध सिद्ध हो चुका है और सत्र न्यायालय ने उसे सही रूप से दोषी ठहराया है, जबकि अन्य दो सह-अभियुक्तों को बरी कर दिया था। इस प्रकार अपीलकर्ता ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक विशेष अनुमति याचिका प्रस्तुत की तथा अपराध की तिथि पर अभियुक्त के नाबालिग होने का दावा किया था।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह निर्धारित करने के बाद कि अपराध की तिथि पर अभियुक्त वास्तव में नाबालिग था, उसने यह भी टिप्पणी की कि अपीलकर्ता के नाबालिग होने के तथ्य को कभी भी कहीं भी नहीं उठाया गया, न तो सत्र न्यायालय के समक्ष और न ही कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष उठाया गया था। हालांकि, इस तथ्य पर विचार करते हुए कि नाबालिग वास्तव में अपराध की तिथि पर किशोर अपराधी था, उन्होंने अपीलकर्ता की सजा को खारिज कर दिया और कानून के अनुसार निपटान के लिए उसे सत्र न्यायालय को वापस कर दिया।
रामदेव चौहान बनाम असम राज्य (2000)
इस मामले में, अपीलकर्ता पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (अब, भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 103) और धारा 326 (खतरनाक आयुधों या साधनों द्वारा स्वेच्छा से घोर उपहति कारित करना) अब, भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 116 के तहत परिवार के चार सदस्यों की हत्या करने तथा उनमें से दो को धारदार हथियार से गंभीर रूप से घायल करने का आरोप लगाया गया है। अभियुक्त को विचारण न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया था। उन्होंने गुवाहाटी उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने उनकी सजा को बरकरार रखा। इसलिए, अभियुक्त ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की थी।
सर्वोच्च न्यायालय ने मामले के तर्कों, ज्ञापनों, रिकॉर्डों और अन्य विभिन्न परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर गौर किया। अदालत ने अपीलकर्ता को उसकी मानसिक स्थिति का पता लगाने के लिए मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन और निरीक्षण के लिए भी भेजा, जिसे सामान्य पाया गया। उन्होंने विचारण न्यायालय और गुवाहाटी उच्च न्यायालय द्वारा पारित दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखा था।
इस मामले में, न्यायमूर्ति आर.पी. सेठी और न्यायमूर्ति फूकन ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि यद्यपि यह मामला समीक्षा से परे है, लेकिन चूंकि मुद्दा मृत्युदंड से संबंधित था, इसलिए उन्होंने यह निर्धारित करने का निर्णय लिया कि क्या अपराधी को किशोर होने की सीमा के करीब पाए जाने पर भी आयु का लाभ दिया जा सकता है।
न्यायमूर्ति थॉमस ने इस बात पर जोर दिया कि यदि अपराधी के किशोर होने या न होने के संबंध में कोई उचित संदेह हो तो मृत्युदंड नहीं दिया जाना चाहिए। उन्होंने एक कानूनी सिद्धांत का हवाला देते हुए तर्क दिया कि यदि आजीवन कारावास का विकल्प निस्संदेह खारिज हो जाए, तभी मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। न्यायमूर्ति थॉमस ने तर्क दिया कि इस मामले में मृत्युदंड को उचित नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि अपराधी की आयु किशोर सीमा से अधिक नहीं थी, और आगे तर्क दिया कि सजा को घटाकर आजीवन कारावास कर दिया जाना चाहिए।
रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा (2002)
यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसने भारत में सुधारात्मक याचिकाओं का प्रावधान शुरू किया है। यह मामला एक पति और पत्नी के बीच वैवाहिक कलह से संबंधित था, जो वर्षों से अलग रह रहे थे, और अंततः मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, क्योंकि महिला ने तलाक के लिए शुरू में दी गई अपनी सहमति वापस ले ली थी।
विधि का महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि क्या कोई पीड़ित व्यक्ति अनुच्छेद 32 के तहत या अन्यथा समीक्षा याचिका खारिज करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए अंतिम आदेश या फैसले के विरुद्ध किसी राहत का हकदार होगा।
पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने यह फैसला सुनाया, जिसने देश की न्याय व्यवस्था में एक नया आयाम खोल दिया। न्यायालय ने कई शर्तें सूचीबद्ध कीं जिनका उसके समक्ष सुधारात्मक याचिका दायर करते समय पालन किया जाना आवश्यक है:
- समीक्षा याचिका में याचिका के आधारों का उल्लेख किया जाना चाहिए।
- सुधारात्मक याचिका के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता से सभी आवश्यकताओं की पूर्ति की घोषणा का प्रमाणीकरण आवश्यक है।
- किसी योग्यताहीन और परेशान करने वाली याचिका के मामले में, न्यायालय याचिकाकर्ता पर अनुकरणीय (एक्सेमप्लेरी) लागत लगा सकता है।
- याचिका को तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों की पीठ तथा संबंधित निर्णय पारित करने वाले न्यायाधीशों के समक्ष प्रसारित किया जाना चाहिए। केवल तभी जब अधिकांश न्यायाधीश इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि मामले की सुनवाई होनी चाहिए, तभी इसे सूचीबद्ध किया जा सकता है और अधिमानतः (प्रिफरेबली) उसी पीठ के समक्ष सुनवाई की जा सकती है।
निष्कर्ष
यह एक अपराधी की अल्पवयस्कता से संबंधित मामला था, जिसमें अपराधी की आयु का खुलासा तब तक नहीं किया गया जब तक मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष नहीं गया था। अदालत ने सभी तथ्यों, कानूनी प्रावधानों और विभिन्न उदाहरणों पर विचार करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि यह मामला संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत चलने योग्य नहीं है। हालांकि, अदालत ने आगे कहा कि चूंकि मामला मौत की सजा और अपराधी की नाबालिगता से संबंधित है, इसलिए इसके लिए सुधारात्मक याचिका दायर की जा सकती है।
इसलिए, यह मामला एक मिसाल के रूप में कार्य करता है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि किसी अपराधी का नाबालिग होना आपराधिक मामले में विचार का एक महत्वपूर्ण बिन्दु है, विशेषकर जब मृत्युदंड का प्रश्न हो। मृत्युदंड एक अत्यधिक विवादित मुद्दा बना हुआ है, जो मानव अधिकारों और न्याय के प्रश्न उठाता है। कुछ लोग इसे सबसे गंभीर अपराधों के लिए उपयुक्त सजा मानते हैं, जबकि अन्य इसके खिलाफ हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
मृत्युदंड से क्या तात्पर्य है?
मृत्यु दंड या प्राणदंड का अर्थ है किसी अपराधी को मृत्युदंड देना, जो किसी उचित न्यायालय द्वारा दी जाती है। ऐसी सज़ा आम तौर पर आपराधिक अपराधों से संबंधित होती है, जो मानवता के खिलाफ सबसे जघन्य, गंभीर और घृणित अपराध होते हैं।
क्या भारत में मृत्युदंड प्रतिबंधित है?
हालांकि यह एक विवादास्पद विषय है, फिर भी भारत में अक्सर आतंकवाद, हत्या, बलात्कार आदि से जुड़े मामलों में मृत्युदंड दिया जाता है और उसे लागू भी किया जाता है।
क्या किसी नाबालिग को मृत्युदंड दिया जा सकता है?
भारत में किसी नाबालिग को मृत्युदंड बहुत कम ही दिया गया है। हालाँकि, निर्भया मामले में निर्णय के बाद आपराधिक कानून संशोधन में दुर्लभतम अपराधों से संबंधित मामलों में नाबालिग पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाने की अनुमति दी गई है।
समीक्षा याचिका क्या है?
समीक्षा याचिका, पक्षों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से उसके द्वारा दिए गए किसी आदेश या निर्णय की समीक्षा करने का अनुरोध करने का एक साधन है। इस याचिका के माध्यम से न्यायालय निम्नलिखित आधारों पर निर्णय को संशोधित कर सकता है:
- नई जानकारी या निर्णय की उपलब्धता।
- रिकॉर्ड में स्पष्ट गलतियाँ साफ दिख रही हैं।
- कोई अन्य पर्याप्त कारण हो सकता है।
सुधारात्मक याचिका क्या है?
सुधारात्मक याचिका एक कानूनी सहारा है जिसका उपयोग सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समीक्षा याचिका खारिज होने की स्थिति में न्याय की त्रुटि को सुधारने के लिए किया जाता है। रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा (2002) के फैसले में इस बात को दोहराया गया है। सुधारात्मक याचिका सर्वोच्च न्यायालय को अपने निर्णयों की समीक्षा करने की अनुमति देती है।
सुधारात्मक याचिका दायर करने के लिए क्या दिशानिर्देश हैं और इसके लिए क्या संवैधानिक प्रावधान है?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 137 में सुधारात्मक याचिकाओं का प्रावधान है। सर्वोच्च न्यायालय में सुधारात्मक याचिका दायर करने के लिए निम्नलिखित दिशानिर्देश हैं:
- समीक्षा याचिका में याचिका के आधारों का उल्लेख किया जाना चाहिए।
- सुधारात्मक याचिका के लिए सभी आवश्यकताओं की पूर्ति की घोषणा करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता से प्रमाणीकरण की आवश्यकता होती है।
- किसी योग्यताहीन और परेशान करने वाली याचिका के मामले में, न्यायालय याचिकाकर्ता पर अनुकरणीय लागत लगा सकता है।
- याचिका को तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों की पीठ तथा संबंधित निर्णय पारित करने वाले न्यायाधीशों के समक्ष प्रसारित किया जाना चाहिए। केवल तभी जब अधिकांश न्यायाधीश इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि मामले की सुनवाई होनी चाहिए, तभी इसे सूचीबद्ध किया जा सकता है और अधिमानतः उसी पीठ के समक्ष सुनवाई की जा सकती है।
संदर्भ