जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफ.एन. राणा एवं अन्य (1963)

0
251

यह लेख Shubham Choube द्वारा लिखा गया है। यह लेख जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफएन राणा (1963) के मामले का व्यापक विश्लेषण प्रदान करता है। इस लेख में, लेखक ने मामले के विवरण के साथ-साथ दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत तर्कों, इसमें शामिल संवैधानिक पहलुओं और निर्णय का आलोचनात्मक विश्लेषण किया है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफ.एन. राणा और अन्य 1963 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसे सवाल पर विचार किया जो भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों और उसमें निहित अधिकारों के खिलाफ था। सवाल यह निर्धारित करना था कि नागरिकों की नागरिक स्वतंत्रता को खतरे में डाले बिना स्थिति को संभालने के लिए राज्य किस हद तक अपने अधिकार, शक्तियों और विवेक का उपयोग कर सकता है।

यह एक ऐसा प्रश्न है जो किसी भी लोकतांत्रिक राज्य के दिल में निहित है, जिसे यह निर्धारित करना होता है कि जब स्वतंत्रता दांव पर हो तो वह कानून के शासन के सिद्धांतों के लिए कितना त्याग करने को तैयार है। इसमें संपत्ति, उचित प्रक्रिया और समानता के प्रावधानों पर विशेष ध्यान देने के साथ भारत पर शासन करने वाले संवैधानिक प्रावधानों की अधिक समझ शामिल है। यह मामला संतुलन का एक उत्कृष्ट उदाहरण था, जिसे कार्यकारी शाखा की संप्रभुता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच बनाए रखा जाना चाहिए।

एक तरफ राज्य को ऐसे कानून पारित करने या लागू करने का कानूनी अधिकार है जो लोगों के कल्याण, व्यापार, वाणिज्य के विकास और जिसे सामाजिक न्याय कहा जा सकता है, को विनियमित करने में उपयोगी और सहायक होंगे। दूसरी ओर, ऐसी कार्रवाइयों को संविधान द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को दिए गए अधिकारों और स्वतंत्रताओं से वंचित या उनका उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय के लिए न केवल कानूनों का स्पष्ट अर्थ प्रदान करना बल्कि साथ ही कानूनों की भावना को भी बताना एक बड़ा काम था। इसने संपत्ति के अधिकार, कानूनी प्रक्रियाओं और राज्य के हस्तक्षेप के इस मुद्दे जैसे मामलों को नियंत्रित करने वाले कानूनी मानदंडों की प्रकृति और दायरे को परिभाषित किया। 

यह मामला न्याय और लोकतंत्र के मूल मूल्यों के साथ-साथ राजनीतिक प्रक्रिया में व्यक्तिगत नागरिकों के स्थान और राज्य में संगठित भूमिका को दर्शाता है। साथ ही यह याद रखना आवश्यक है कि उस मामले में लिए गए निर्णय अभी भी प्रासंगिक हैं क्योंकि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय एक बेंचमार्क के रूप में कार्य करता है और भारत के संविधान में स्थापित न्याय, स्वतंत्रता और समानता के प्रमुख सिद्धांतों को प्रतिष्ठापित करता है।

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफएन राणा एवं अन्य
  • उद्धरण: एआईआर 1964 एससी 648
  • मामले का प्रकार: सिविल अपील
  • पीठ: न्यायमूर्ति जेसी शाह, न्यायमूर्ति पीबी गजेंद्रगढ़कर, न्यायमूर्ति केएन वांचू, न्यायमूर्ति रघुबर दयाल
  • लेखक: न्यायमूर्ति जे.सी. शाह
  • अपीलकर्ता का नाम: जयंतीलाल अमृत लाल शोधन
  • प्रतिवादी का नाम: एफ एन राणा और अन्य।
  • फैसले की तारीख: 5 नवंबर, 1963 

मामले के तथ्य

1 मई 1960 को, बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम 1960 के अंतर्गत बॉम्बे राज्य के पुनर्गठन के परिणामस्वरूप, बॉम्बे राज्य के क्षेत्र से दो राज्यों का गठन किया गया – महाराष्ट्र राज्य और गुजरात राज्य। भारत के राष्ट्रपति ने 24 जुलाई 1959 को भारत के संविधान के अनुच्छेद 258 के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण के संबंध में एक अधिसूचना जारी की। गुजरात राज्य के बड़ौदा विभाग के आयुक्त ने उक्त अधिसूचना द्वारा उन्हें सौंपी गई शक्तियों का प्रयोग किया और भूमि अधिग्रहण अधिनियम I, 1894 (संक्षिप्त में ‘अधिनियम’) की धारा 4(1) के अंतर्गत 01 सितंबर 1950 को एक नोटिस प्रकाशित किया, जिसमें अधिसूचित किया गया कि प्लॉट नंबर 686, एलिस ब्रिज टाउन का एक भूखंड, जो अपीलकर्ता के स्वामित्व में था, सार्वजनिक उद्देश्य अर्थात अहमदाबाद में एक टेलीफोन एक्सचेंज भवन के निर्माण के लिए आवश्यक था। इसके अलावा आयुक्त ने अधिनियम के तहत कलेक्टर के रूप में कार्य करने के लिए एक अतिरिक्त विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी को अधिकृत किया। अपीलकर्ता ने अधिनियम की धारा 5A के तहत भूमि के प्रस्तावित अधिग्रहण पर आपत्तियां दर्ज कीं। अपीलकर्ता द्वारा उठाई गई आपत्तियों पर विचार करने के बाद, कलेक्टर ने आयुक्त को अपनी रिपोर्ट सौंपी और 11 जनवरी 1961 को अधिनियम की धारा 6(1) के तहत एक और अधिसूचना जारी की गई, जिसमें उन्होंने अधिसूचित भूमि के अधिग्रहण की घोषणा की। इसके बाद अपीलकर्ता ने अधिसूचना को चुनौती देने और संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत परमादेश (मैनडेमस) की रिट मांगने के लिए गुजरात उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। हालांकि, उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी। इसलिए, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 132(1) और 133(c)(1) के तहत फिटनेस प्रमाण पत्र के साथ, यह अपील पेश की गई है। 

मामले में उठाए गए मुद्दे

  • क्या राष्ट्रपति द्वारा जारी अधिसूचना बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम, 1960 की धारा 2(d) के साथ धारा 87 के तहत कानून होने के दायरे में आती है ?
  • क्या यह नियुक्ति अधिकारों का अनुचित उप-प्रत्यायोजन (सब-डेलिगेशन) थी या राष्ट्रपति द्वारा सौंपी गई शक्तियों का वैध प्रयोग था?
  • क्या संविधान के अनुच्छेद 258 के अंतर्गत 24 जुलाई, 1959 को जारी राष्ट्रपति की अधिसूचना, बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम, 1960 के लागू होने के बाद भी अपनी ताकत और प्रभाव बनाए रखती है?
  • क्या नवगठित गुजरात राज्य के आयुक्त को राष्ट्रपति की अधिसूचना के अनुसार भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत अधिकार प्राप्त थे?

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ताओं 

अपीलकर्ताओं की दलीलें निम्नलिखित थीं:

  • आयुक्त के पास घटित घटनाओं के संबंध में कोई प्राधिकार नहीं था, अर्थात् भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 4 और 6 के अंतर्गत अधिसूचनाएं जारी करने का प्राधिकार, जो संविधान के अनुच्छेद 258(1) के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा 24 जुलाई, 1959 को जारी की गई अधिसूचना से प्राप्त माना गया है, जिसके द्वारा अधिग्रहण से संबंधित मामलों में संघ सरकार के प्राधिकारियों को कोई अधिकार नहीं था। 
  • भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 5A के तहत कार्यवाही अर्ध-न्यायिक प्रकृति की है, आयुक्त को उस धारा के तहत रिपोर्टिंग के लिए प्राधिकार सौंपने का अधिकार नहीं है, और आयुक्त को कलेक्टर द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पर विचार करने की भी अनुमति नहीं है।
  • संविधान के अनुच्छेद 258(1) के तहत राष्ट्रपति द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्ति कार्यकारी शक्ति से संबंधित है। यह राष्ट्रपति को राज्य सरकार या उसके किसी अधिकारी को कार्य सौंपने का अधिकार देता है। अपीलकर्ता ने दावा किया कि कार्यकारी शक्तियों को सौंपने की यह प्रथा बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम की धारा 87 के तहत “कानून” शब्द के अर्थ में नहीं आती है। इसलिए, 1 मई, 1960 के बाद राष्ट्रपति की अधिसूचना के अनुसार भूमि अधिग्रहण अधिनियम के प्रावधानों के तहत नए गुजरात राज्य के आयुक्त भारत की संघ सरकार की ओर से कार्य करने के लिए कानूनी रूप से सुसज्जित नहीं थे।
  • अपीलकर्ता ने संविधान के भाग XI को दो अध्यायों में विभाजित करने पर प्रकाश डालते हुए इस दलील का समर्थन किया: अध्याय I में, क्रमांकित अनुच्छेद 245 से 255 जो विधायी प्राधिकार के विभाजन के विषय को शामिल करते हैं और अध्याय II, अनुच्छेद 256 से 261 जिसमें राज्यों के बीच प्रशासनिक संबंधों से संबंधित प्रावधान हैं। अनुच्छेद 258 दूसरे अध्याय में आता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह विधायी प्रावधान नहीं बल्कि प्रशासनिक या कार्यकारी प्रावधान है। इस तर्क को अनुच्छेद 256 और 257 की पृष्ठभूमि से और समर्थन मिला, जो संसदीय कानूनों का पालन करने के लिए मजबूर करने और संघ की कार्यकारी प्राधिकार की बाधा को खत्म करने के लिए कार्यकारी प्राधिकार के उपयोग के प्रयोग से निपटते प्रतीत होते हैं। इस प्रकार, अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 258 के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना द्वारा सौंपे गए कार्यों को बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम की धारा 87 के तहत कानून नहीं माना जा सकता।

प्रतिवादी 

प्रतिवादी की दलीलें निम्नलिखित थीं:

  • प्रतिवादियों के अनुसार, 24 जुलाई, 1959 को अनुच्छेद 258 के तहत जारी राष्ट्रपति की अधिसूचना में ही कानून का बल था। उनके विचार में, इसका मतलब यह था कि अधिसूचना बॉम्बे मान्यता अधिनियम 1960 (अधिनियम संख्या XI, 1960) के अधीन थी, लेकिन उस अधिनियम द्वारा अग्रेषित नहीं की गई थी। इस अधिनियम की धारा 82 और 87 का हवाला देते हुए यह तर्क दिया गया कि राष्ट्रपति की अधिसूचना सहित कानूनी साधन अभी भी मौजूद और वैध थे। इस प्रकार, आयुक्त के पास कार्यों को निष्पादित करने का कानूनी अधिकार था, भारत की संघ सरकार ने उसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम के प्रावधानों के तहत निहित किया।
  • प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 258(1) के तहत की गई अधिसूचना के अनुसार आयुक्त को भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 3(c) के तहत कलेक्टर नियुक्त करने का अधिकार है । उन्होंने बताया कि यह नियुक्ति किसी भी तरह से अधिकार का अनुचित उप-प्रत्यायोजन नहीं है। 
  • प्रतिवादियों के अनुसार, भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 5A के तहत किए गए कार्य प्रकृति में प्रशासनिक थे, भले ही वे कानून की नज़र में अर्ध-न्यायिक रहे हों। उन्होंने दावा किया कि ये कार्य कलेक्टर या किसी अन्य अधिकारी द्वारा किए जा सकते हैं, जिन्हें अधिनियम में उल्लिखित कलेक्टर के कार्यों को करने के उद्देश्य से उचित सरकार द्वारा नियुक्त किया जा सकता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह वही था जो आयुक्त ने उक्त राष्ट्रपति अधिसूचना के माध्यम से किया था। इसलिए, आयुक्त इन कार्यों को निष्पादित करने के लिए कलेक्टर को विधिपूर्वक नियुक्त कर सकते थे, भले ही वे आंशिक रूप से अर्ध-न्यायिक और आंशिक रूप से प्रशासनिक थे। 

जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफ.एन. राणा एवं अन्य (1963) मामले में शामिल कानून

भारत का संविधान 

संविधान का अनुच्छेद 73(1)

भारत एक संघीय राष्ट्र है, इसलिए निश्चित रूप से केंद्र और राज्य सरकार के बीच शक्तियों का विभाजन है, जिसके अपने फायदे और नुकसान हैं। भारत के संविधान के संदर्भ में, संघ की कार्यकारी शक्ति का प्रयोग राष्ट्रपति द्वारा किया जाना है। हालाँकि, इसका प्रयोग तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि कोई यह न जान ले कि कार्यकारी शब्द का क्या अर्थ है और इन कार्यकारी शक्तियों में क्या शामिल है। भारत के संविधान के अनुसार संघ की कार्यकारी शक्ति को भाग V में अनुच्छेद 72 से 78 के तहत और राज्य की कार्यकारी शक्ति को भाग VI में अनुच्छेद 153 से 167 के तहत वर्णित किया गया है ।

यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि “कार्यकारी कार्य” शब्द का वास्तविक अर्थ संविधान में स्पष्ट नहीं किया गया है क्योंकि वे विधायी और न्यायिक कार्यों को हटा दिए जाने के बाद के कार्य के अवशेष (रेसिड्यू) हैं। अपने शाब्दिक अर्थ में, यह कानून के प्रवर्तन को संदर्भित करता है; हालाँकि, व्यापक अर्थ में, इसमें “कानून और व्यवस्था का संरक्षण, सरकारी संपत्ति और राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों (एंटरप्राइज) और सेवाओं का प्रशासन, विदेश नीति का निर्माण और निर्देशन, युद्ध का संचालन और राज्य द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और वित्तीय सहायता और बीमा जैसी सेवाओं की आपूर्ति या नियंत्रण शामिल है।” इस परिभाषा की अस्पष्टता यह सवाल उठाती है कि संघ में कार्यकारी अधिकार का कितना हिस्सा निहित हो सकता है। हालाँकि, अनुच्छेद 73 एक आवरण (शेल) के रूप में कार्य करता है और कार्यकारी शक्ति की सीमा को स्थापित करने में सहायता करता है।

अनुच्छेद 73(1) में कहा गया है कि इस संविधान के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, संघ की कार्यपालिका शक्ति में वे विषय शामिल होंगे जिन पर संसद को कानून बनाने का अधिकार है; और ऐसे अधिकारों का प्रयोग भारत सरकार द्वारा इस अनुच्छेद के प्रावधानों के अधीन रहते हुए किसी संधि या समझौते के आधार पर किया जा सकता है, वहां किसी राज्य की कार्यपालिका शक्ति, जहां राज्य विधानमंडल को भी कानून बनाने का अधिकार है, किसी राज्य में उन विषयों तक विस्तारित नहीं होगी जिनके संबंध में राज्य विधानमंडल को कानून बनाने की शक्ति है।

संविधान का अनुच्छेद 256

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 256 के अनुसार, प्रत्येक राज्य की कार्यकारी शक्ति को इस तरह से लागू किया जाना चाहिए कि संसद के कानूनों के साथ-साथ राज्य पर लागू होने वाले किसी भी मौजूदा कानून का अनुपालन सुनिश्चित हो। यह प्रावधान केंद्र सरकार को इस उद्देश्य के लिए आवश्यकतानुसार राज्यों को निर्देश जारी करने का अधिकार देता है। अनिवार्य रूप से, अनुच्छेद 256 राज्य सरकारों को केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन करने और उन्हें लागू करने की आवश्यकता रखता है, जिससे पूरे देश में कानूनी एकरूपता और सुसंगतता सुनिश्चित होती है। यदि कोई राज्य इन निर्देशों का पालन करने में विफल रहता है, तो इसे संवैधानिक तंत्र में खराबी के रूप में समझा जा सकता है, जिससे संभावित रूप से अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लग सकता है। यह अनुच्छेद केंद्र सरकार को राज्यों को केंद्र और राज्यों के बीच टकराव से बचने के लिए संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को अपनाने का निर्देश देने का विधायी अधिकार भी देता है। 

संविधान का अनुच्छेद 258

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 258 के अनुसार, देश के राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वे आवश्यकता पड़ने पर संघ के कार्यों के क्रियान्वयन का काम किसी राज्य सरकार या उसके अधिकारियों को सौंप सकते हैं। यह प्रावधान केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के प्रशासनिक तंत्र पर निर्भर रहकर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने की अनुमति देने के लिए महत्वपूर्ण है।

अनुच्छेद 258(1) राष्ट्रपति को संघ की किसी भी कार्यकारी शक्ति को सशर्त या बिना शर्त राज्य सरकार या उसके किसी अधिकारी को सौंपने की शक्ति देता है, यदि राज्य सरकार इस प्रत्यायोजन के लिए अपनी सहमति दे। यह प्रत्यायोजन किसी भी ऐसे मामले के संबंध में किया जा सकता है जिस पर संघ की कार्यकारी शक्ति लागू होती है। यह प्रावधान राज्यों के भीतर अधिकांश संघ नीतियों के समन्वय और प्रभावी कार्यान्वयन को बढ़ाकर उनके मामलों के संचालन में राज्य सरकारों के साथ संघ के एकीकरण को बढ़ावा देता है।

अनुच्छेद 258(2) संसद को ऐसे कानून बनाने का अधिकार देता है जो केंद्र सरकार को राज्य अधिकारियों को शक्तियाँ सौंपने और कर्तव्य निर्धारित करने में सक्षम बनाता है। इसका मतलब यह है कि, अपनी स्वीकृति से बनाए गए कानून के परिणामस्वरूप, संसद राज्य अधिकारियों को संघ से संबंधित कार्यों का निर्वहन करने के लिए शक्तियाँ सौंप सकती है। ऐसे कानून कानूनी समर्थन देते हैं जो राज्य अधिकारियों को कानूनी रूप से और कुशलतापूर्वक ऐसे सौंपे गए कार्यों को करने में सक्षम बनाते हैं।

इस संबंध में अनुच्छेद 258(3) में विस्तार से बताया गया है कि इस अनुच्छेद के खंड (1) के तहत राष्ट्रपति के आदेश द्वारा सौंपी गई शक्तियों के तहत राज्य अधिकारियों द्वारा किया गया कोई भी कार्य राज्य सरकार का कार्य नहीं माना जाएगा। यह प्रावधान पुष्टि करता है कि संघ के कार्यों का कार्यान्वयन राज्य अधिकारियों में निहित है, लेकिन यह संघ सरकार है जिस पर जिम्मेदारी और जवाबदेही का आरोप है।

इस प्रकार, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 258 प्रशासनिक तर्कसंगतता और सहकारी संघवाद को बढ़ावा देता है क्योंकि यह संघ सरकार को अपनी कार्यकारी शक्तियां राज्य सरकार को सौंपने की अनुमति देता है, जिसके परिणामस्वरूप इष्टतम (ऑप्टिमल) शासन के लिए स्थानीय प्रशासनिक संसाधनों का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सकता है।

संविधान का अनुच्छेद 372

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 372 ब्रिटिश शासन से ब्रिटिश भारत के बाद संक्रमण के दौरान कानूनी विकास में महत्वपूर्ण है। इसमें कहा गया है कि संविधान को अपनाने के समय देश का कानून तब तक लागू रहेगा जब तक कि इसे कानूनी प्रक्रियाओं के अनुसार बदला, समाप्त या संशोधित नहीं किया जाता। यह अनुच्छेद इस कमी को पूरा करता है, क्योंकि यह उस शून्यता की संभावना को टालता है जो तब उत्पन्न होगी जब ब्रिटिश काल के दौरान लागू सभी कानून नए संविधान के लागू होने के बाद असंवैधानिक हो जाएंगे।

इसलिए यह स्पष्ट है कि कानूनी व्यवस्था और अधिकार को बनाए रखने के उद्देश्य से अनुच्छेद 372 में प्रावधान महत्वपूर्ण है। इस प्रकार स्वतंत्रता के समय, भारत के पास प्रशासन या न्याय वितरण प्रणाली के सामान्य कामकाज को बाधित किए बिना एक नई कानूनी व्यवस्था विकसित करने का एक बड़ा काम था। संविधान के निर्माताओं ने यह भी स्पष्ट किया कि पहले से मौजूद कई कानून लागू रहेंगे, जिससे सरकार बिना किसी रुकावट के काम कर सकेगी और लोगों को हमेशा पता रहेगा कि क्या कानूनी है और क्या निषिद्ध है।

इसके अलावा, अनुच्छेद 372 के माध्यम से, देश अधिक सावधानी और सटीकता के साथ कानूनों को बदलने की दिशा में काम कर सकता है। यह इस तथ्य को स्वीकार करता है कि यद्यपि नया संविधान सरकारी प्रणाली में बहुत सुधार करता है, लेकिन यह राजनीतिक रूप से नासमझी है और एक बार में पूरे कानूनी ढांचे को बदलने के लिए अस्थिरता पैदा कर सकता है। यह विधायिका को औपनिवेशिक (कोलोनियल) कानूनों की समीक्षा करने और उन्हें राष्ट्र के स्वतंत्रता के बाद के वांछित कानूनों से बदलने का अधिकार देता है।

परिणामस्वरूप, अनुच्छेद 372 को संविधान निर्माताओं की बुद्धिमत्ता के रूप में सराहा जा सकता है। यह कानूनी निरंतरता बनाए रखने के महत्व पर भी जोर देता है, खासकर औपनिवेशिक शासन से संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य में संक्रमण के समय, ताकि नव स्थापित सरकार अपना संचालन कुशलतापूर्वक शुरू कर सके और साथ ही उन प्रगतिशील कानूनी बदलावों के लिए भी तैयार हो सके जिनकी परिकल्पना की गई है।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम (1894)

पहला भारतीय भूमि अधिग्रहण अधिनियम वर्ष 1894 में पारित किया गया था जिसका उद्देश्य परिवहन, नगर नियोजन, औद्योगिकीकरण और अन्य सार्वजनिक उद्देश्यों सहित सार्वजनिक उपयोगिता के लिए निजी संपत्ति का अधिग्रहण करने के लिए कानूनी ढांचा लाना था। इस अधिनियम का उद्देश्य भूमि प्राप्त करने का एक संरचनात्मक और न्यायसंगत साधन प्रदान करना था, साथ ही साथ सार्वजनिक विकास की प्रक्रिया से संबंधित भूमि मालिकों के अधिकारों का प्रावधान करना था। इसमें भूमि मालिकों को नोटिस देने, उनकी आपत्तियों पर विचार करने, मुआवजे का आकलन करने और अधिग्रहित भूमि पर प्रवेश करने के तरीके के बारे में प्रावधान किया गया था। इसका उद्देश्य सार्वजनिक परियोजनाओं के विकास की अनुमति देना था जबकि साथ ही यह सुनिश्चित करना था कि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया निष्पक्ष, न्यायसंगत और पारदर्शी हो।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4(1)

धारा 4(1) में कहा गया है कि जब समुचित सरकार को ऐसा प्रतीत हो कि किसी इलाके में भूमि की किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए आवश्यकता है या होने की संभावना है, तो उस आशय की अधिसूचना आधिकारिक राजपत्र में और उस इलाके में प्रसारित होने वाले दो दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित की जाएगी, जिनमें से कम से कम एक क्षेत्रीय भाषा में होगा, और कलेक्टर ऐसी अधिसूचना के सार की सार्वजनिक सूचना उक्त इलाके में सुविधाजनक स्थानों पर (अंतिम अधिसूचना को अंतिम तिथि से पहले) दे देगा।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 5A (2)

धारा 5A की उपधारा (2) भूमि के मालिकों को इच्छित अधिग्रहण पर आपत्ति उठाने का विकल्प देती है। इसका मतलब यह है कि एक बार धारा 4(1) के तहत नोटिस प्रकाशित होने के बाद, उपयुक्त सरकार या कोई अन्य प्राधिकरण जिसे शक्ति सौंपी गई है, उसे इन आपत्तियों पर विचार करना होगा। भूमि मालिकों को अपने मुद्दे बताने और यह बताने का मौका मिलता है कि वे अधिग्रहण के खिलाफ क्यों हैं। यह उपधारा कानूनी न्याय और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अधिग्रहण प्रक्रिया को यथासंभव कानूनी प्रक्रिया के समान बनाती है।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 6

धारा 6 सार्वजनिक हित के लिए उपयुक्त सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण से संबंधित है। सरकार द्वारा आपत्ति पर विचार करने के बाद, यदि कोई हो, तो सरकार आधिकारिक राजपत्र में घोषणा करती है। यह घोषणा अधिग्रहण को जारी रखने में सक्षम बनाती है और यह एक महत्वपूर्ण कानूनी कदम है जो भूमि के स्वामित्व को सरकार को हस्तांतरित करता है ताकि वह भूमि का भौतिक कब्ज़ा ले सके।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 3(ee)

यह खंड अधिनियम के संदर्भ में “कलेक्टर” शब्द का अर्थ भी स्थापित करता है। कलेक्टर सरकार का एक अधिकारी होता है जो भूमि अधिग्रहण के क्षेत्र में काम करता है; जो भूमि की माप, मुआवजे का आकलन करने और पूरी प्रक्रिया को वैध बनाने जैसी गतिविधियों में भी शामिल होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को लागू करने के मामले में कलेक्टर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम की धारा 87

इस संदर्भ में, बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम 1960 की धारा 87 में कानूनी प्रावधानों का पता लगाया गया है, जो पूर्ववर्ती बॉम्बे राज्य के पुनर्गठन के बाद राज्यों में कानूनों और अधिसूचनाओं के पहलू से संबंधित है। यह धारा पूर्ववर्ती बॉम्बे राज्य में लागू किसी भी कानून, नियम, विनियमन, आदेश या अधिसूचना को नए महाराष्ट्र और गुजरात राज्य में लागू करने की अनुमति देती है, जब तक कि किसी उपयुक्त प्राधिकारी द्वारा उसे निरस्त, संशोधित या प्रतिस्थापित न किया जाए। दूसरे शब्दों में, धारा 87 एक ऐसा प्रावधान है जो यह सुनिश्चित करता है कि पुनर्गठन के बाद कानून बिना किसी कानूनी या प्रशासनिक खामी के लागू रहे।

यह बॉम्बे राज्य या उसके किसी भी प्राधिकरण को संदर्भित करने वाले मौजूदा कानूनों के सभी प्रावधानों की व्याख्या नए राज्यों के संबंधित अधिकारियों के संदर्भ में करता है। पुनर्गठन के बाद उत्पन्न होने वाली किसी भी कानूनी जटिलता और संगठनात्मक व्यवधान से बचने के लिए यह प्रावधान आवश्यक है। यह संबंधित राज्य सरकारों को इन कानूनों और अधिसूचनाओं को लागू करने और लागू करने में सक्षम बनाता है जैसे कि पुनर्गठन कभी हुआ ही नहीं था, जो प्रशासनिक निरंतरता बनाए रखने में मदद करता है।

धारा 87 नए राज्यों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कानूनों में बदलाव और संशोधन की भी अनुमति देती है। यह लचीलापन तब ज़रूरी है जब स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करने और नई प्रशासनिक परिस्थितियों में कानूनी प्रणाली की प्रासंगिकता और दक्षता बनाए रखने की बात आती है।

जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफ.एन. राणा एवं अन्य (1963) का निर्णय

यह निर्णय 5:1 के अनुपात में लिया गया। न्यायमूर्ति केएन वांचू ने असहमति व्यक्त की। न्यायमूर्ति वांचू ने शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर अपनी प्राथमिक चिंता व्यक्त करते हुए असहमति व्यक्त की, जिसके तहत उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 258(1) के तहत कार्यकारी कार्रवाई अनुच्छेद 258 द्वारा आगे प्राधिकरण के बिना पुनर्गठन के बाद आयुक्तों में निरंतर अधिकार नहीं बना सकती। हालांकि, मुद्देवार निर्णय इस प्रकार है:

क्या राष्ट्रपति द्वारा जारी अधिसूचना बम्बई पुनर्गठन अधिनियम, 11, 1960 की धारा 2(d) के साथ पठित धारा 87 के अर्थ में कानून है

सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि 24 जुलाई 1959 को, संविधान के अनुच्छेद 258 के तहत निहित अधिकार का आनंद लेते हुए, राष्ट्रपति ने एक अधिसूचना के माध्यम से बॉम्बे राज्य सरकार के साथ समझौते के द्वारा बॉम्बे राज्य में विभागों के आयुक्तों को भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1, 1894 के संबंध में संघ सरकार के सभी कार्यों को सौंप दिया। संघ के लाभ के लिए पूर्वोक्त आयुक्तों के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र की सीमाओं के भीतर भूमि के अधिग्रहण के लिए, उसी तरह से जैसा कि बॉम्बे सरकार द्वारा प्रदान किया जा सकता है क्योंकि समय-समय पर राज्य के प्रयोजन के लिए भूमि अधिग्रहण पर नियंत्रण रख सकती है। जिस समय उपरोक्त अधिसूचना दी गई थी, वह क्षेत्र जो अब गुजरात राज्य का गठन करता है और जिसमें उक्त भूमि स्थित है, बॉम्बे राज्य में शामिल था, लेकिन 1 मई, 1960 को बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम, 1960 के तहत नियत दिन के रूप में जाना जाता अधिनियम की धारा 3 के तहत दो राज्यों का गठन किया गया है, महाराष्ट्र राज्य और गुजरात राज्य।

कानून के क्षेत्रीय प्रतिबंधों और अधिकारियों की नियुक्ति के निर्दिष्ट दिन से पहले उनके द्वारा धारित पदों पर बने रहने की क्षमता के बारे में कुछ शर्तें रखी गई हैं। बंबई पुनर्गठन अधिनियम 1960 की धारा 82 के तहत निरंतरता और समझी गई नियुक्ति में यह प्रावधान किया गया था कि प्रत्येक व्यक्ति जो नियत दिन से ठीक पहले बंबई राज्य के मामलों से संबंधित किसी भी पद या कार्यालय के कर्तव्यों को धारण कर रहा था या निर्वहन कर रहा था, किसी ऐसे क्षेत्र में जो उक्त दिन से महाराष्ट्र या गुजरात राज्य के अंतर्गत आता है, सक्षम प्राधिकारी के आदेश के अधीन, उसी पद या कार्यालय को धारण करना जारी रखेगा जिसके लिए धारा 87 में कानूनों के क्षेत्रीय संचालन को बढ़ाने के लिए विशिष्ट प्रावधान किए गए थे, यहां तक ​​कि नियत दिन के बाद भी। यह भी प्रावधान किया गया कि भाग II के प्रावधान अर्थात बॉम्बे राज्य के दो राज्यों में पुनर्गठन से संबंधित प्रावधान इस प्रकार प्रभावी होंगे मानो उक्त नया राज्य पहले से अस्तित्व में हो और धारा 3 के प्रावधानों को उन क्षेत्रों में परिवर्तन करने वाला नहीं माना जाएगा जिन पर निर्दिष्ट दिन से ठीक पहले प्रभावी कोई कानून लागू होता है या विस्तारित होता है और ऐसे कानूनों में बॉम्बे राज्य के लिए कोई भौगोलिक संदर्भ, जब तक कि अधिनियम द्वारा अन्यथा निर्दिष्ट न किया जाए, लागू नहीं होगा। बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम, 1960 की धारा 2 (d) के अनुसार कानून के अर्थ में कोई भी अधिनियम, अध्यादेश, विनियमन, आदेश, उपनियम, नियम, योजना, अधिसूचना या अन्य उपकरण शामिल होगा, जो नियत दिन से तुरंत पहले पूरे बॉम्बे राज्य या उसके किसी भी हिस्से में कानून का बल रखता था।

इस तर्क का उपयोग करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचने में सक्षम था कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत आयुक्त को भूमि अधिग्रहण की शक्ति प्रदान करने वाली राष्ट्रपति की अधिसूचना भी कानून की तरह ही मजबूत थी। इस प्रकार, आयुक्त की कार्रवाई कानूनी थी, जैसा कि एडवर्ड मिल्स मामले में दिए गए आदेश थे। 

क्या यह नियुक्ति प्राधिकार का अनुचित उप-प्रत्यायोजन थी या राष्ट्रपति द्वारा सौंपी गई शक्तियों का वैध प्रयोग था

सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 55 के अंतर्गत आयुक्त को अधिनियम के अंतर्गत नियम बनाने की शक्ति सौंपी गई है जिसका प्रयोग उपयुक्त सरकार कर सकती है। इस विशेष मामले में इस बात पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है कि ऐसा कार्य सौंपा जा सकता है या नहीं। हालाँकि, अनुच्छेद 258(1) के संचालन के क्षेत्र के बारे में गलत धारणा की ओर इशारा करते हुए एक तर्क उठाया गया था जिस पर ध्यान दिया जा सकता है। यह खंड राष्ट्रपति को संघ में निहित कार्यों को राज्य को सौंपने में सक्षम बनाता है, और जो संघ की ओर से राष्ट्रपति द्वारा किये जा सकते हैं: इसका मतलब यह नहीं है कि यह राष्ट्रपति को किसी अन्य व्यक्ति या प्राधिकरण को उन शक्तियों और कर्तव्यों को सौंपने का अधिकार देता है जिनका प्रयोग और पालन करने का संविधान राष्ट्रपति को अधिदेश देता है। अनुच्छेद 123, अनुच्छेद 268 से 279, अनुच्छेद 356, अनुच्छेद 360, अनुच्छेद 309 – कुछ का उल्लेख करने के लिए – केंद्र सरकार की शक्तियाँ नहीं हैं; ये संविधान के तहत राष्ट्रपति को दी गई शक्तियाँ हैं और इन्हें प्रत्यायोजन से परे माना जा सकता है या अनुच्छेद 258(1) के तहत किसी अन्य निकाय या प्राधिकरण द्वारा प्रयोग किया जा सकता है। ऐसी शक्तियों को अनुच्छेद 258(1) के तहत प्रत्यायोजित नहीं किया जा सकता क्योंकि वे संघ की शक्तियाँ नहीं हैं, और न ही उल्लिखित शक्तियों के विशेष चरित्र के कारण। राष्ट्रपति द्वारा प्रयोग की जाने वाली अन्य शक्तियों की एक विशाल श्रृंखला है, उदाहरण के लिए अनुच्छेद 124 और 217, अनुच्छेद 344, अनुच्छेद 340, अनुच्छेद 338, आदि।

अनुच्छेद 258(1) के अनुसार नियम बनाने की शक्ति संघ के प्रमुख के रूप में राष्ट्रपति में निहित है और यह शक्ति किसी भी ऐसे मामले से संबंधित है जिसमें संघ की कार्यकारी शक्ति निहित है और इसे किसी राज्य सरकार या उस सरकार के अधिकारी को सौंपा जा सकता है। ये वास्तव में संघ के कार्य हैं, राष्ट्रपति के नहीं। यह संदेह से परे हो सकता है कि राष्ट्रपति को शक्ति या अधिकार सौंपना संविधान में निहित है और आवश्यकता पड़ने पर, कानून का बल होगा। इस प्रकार सौंपे गए कार्य के प्रयोग की प्रकृति उस क्षेत्र से प्राप्त होनी चाहिए जिसमें उस कार्य का प्रयोग किया जाना है और उस प्रयोग का नागरिक अधिकारों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय सीधे अनुच्छेद 258(1) के तहत राष्ट्रपति द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्ति की प्रकृति से संबंधित है जब वह राज्य या उसके अधिकारियों को कुछ कार्य सौंपता है। यह बात सच है कि राष्ट्रपति संघ के मान्यता प्राप्त कार्यकारी प्रमुख हैं और यह कल्पना से परे है कि अनुच्छेद 258(1) के तहत उनके द्वारा इस्तेमाल की जा रही शक्ति बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम की धारा 87 के अर्थ में कानून की प्रकृति नहीं रख सकती। इस प्रकार, राष्ट्रपति द्वारा 24 जुलाई, 1959 की अधिसूचना द्वारा भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के तहत भूमि अधिग्रहण से जुड़े मामलों के मामले में बड़ौदा विभाग के आयुक्त को शक्ति सौंपी गई। 

सूची III के सामान 42 के अनुसार, संपत्ति अधिग्रहण का विषय संविधान की समवर्ती सूची में है। संसद को संघ के उद्देश्य के लिए संपत्ति के अधिग्रहण पर कानून बनाने का अधिकार है, और अनुच्छेद 73(1)(a) संघ की कार्यकारी शक्ति को संघ के लिए संपत्ति के अधिग्रहण तक बढ़ाता है। संविधान के अनुच्छेद 298 के अनुसार, संघ को किसी भी उद्देश्य के लिए कोई भी व्यापार या गतिविधि करने, साथ ही अधिग्रहण करने, रखने, बेचने और अनुबंध करने का विशेष अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 73(1) के अनुसार, संसद संघ के लिए संपत्ति खरीद सकती है। नतीजतन, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि संपत्ति के जबरन अधिग्रहण पर संघ का कार्यकारी क्षेत्राधिकार बरकरार रहता है, यहां तक ​​कि उन परिस्थितियों में भी जब राज्य के पास भूमि अधिग्रहण करने का अधिकार है।

क्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 258 के अंतर्गत 24 जुलाई, 1959 को जारी राष्ट्रपति की अधिसूचना ने बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम, 1960 के लागू होने के बाद भी अपना बल और प्रभाव बरकरार रखा

सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 258(2) के तहत केंद्र सरकार के कार्यों को सौंपना विधानमंडल के लिए खुला है, जिससे धारा 4, 5A, 7, 9 और 11 और संबंधित धाराओं के तहत राज्य प्रभागों के आयुक्तों को शक्तियां प्रदान की जा सकें और उन पर कर्तव्य थोपे जा सकें। इस तरह की शक्ति सौंपे जाने पर इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि यह अनधिकृत है। अधिनियम के माध्यम से सौंपे जाने की स्थिति में, इसमें कानून का बल होगा। भूमि अधिग्रहण अधिनियम में निहित या अन्यथा किसी उचित कानून द्वारा, संसद को भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4 और 6 के अनुसार अधिसूचनाएँ निर्धारित करने का अधिकार प्रदान करने की स्वतंत्रता है और कलेक्टर को नामित करने का अधिकार उचित सरकार द्वारा चुने गए अधिकारी को प्राप्त होना चाहिए। इस प्रकार, यदि समुचित सरकार ने शक्ति का प्रयोग करने के लिए अधिकारी का नाम बताते हुए अधिसूचना जारी की, तो यह निस्संदेह उक्त तरीके से मौजूदा सरकार द्वारा उक्त कार्यों को करने के संबंध में शक्ति का प्रयोग माना जाएगा और इस प्रकार धारा 2(d) के साथ धारा 2(c) के दायरे में आएगा। राष्ट्रपति राज्य सरकार या उसके अधिकारियों को संविधान द्वारा अधिकृत कर्तव्यों को सौंप सकते हैं, बजाय इसके कि वे विधायी शक्ति के प्रयोग के माध्यम से राज्य के अधिकारियों को दिए गए कार्यों को सभी प्रावधानों को सूचीबद्ध और वर्गीकृत करें। अनुच्छेद 258(1) का परिणाम केवल एक खुले प्रावधान को परिवर्तित करना है जिसका प्रयोग विधानमंडल समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा वर्णित अधिकारियों को कार्य सौंपने के उद्देश्य से विधायी के माध्यम से कर सकता है और उन शर्तों के तहत जो उक्त अधिसूचना प्रदान करती है। अधिसूचना केवल राज्य या राज्य के किसी अधिकारी को दी गई परिस्थितियों में और उक्त कार्यों को करने की सीमा तक कानून के तहत सशक्त बनाती है। राष्ट्रपति की उक्त अधिसूचना के निम्नलिखित परिणाम होंगे: जहां अधिनियम में, संघ के प्रयोजन के लिए भूमि अधिग्रहण के प्रावधानों के संबंध में ‘उपयुक्त सरकार’ शब्द आते हैं, वहां उक्त अभिव्यक्ति का अर्थ यह होगा कि जहां कहीं भी ‘उपयुक्त सरकार या उस क्षेत्र पर क्षेत्रीय अधिकारिता रखने वाले प्रभाग के आयुक्त जिसमें भूमि स्थित है’ शब्द आते हैं। दूसरे शब्दों में, यदि राष्ट्रपति की अधिसूचना जारी की जाती है, तो उसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम में आंशिक संशोधन करने वाला माना जाएगा। 

क्या नवगठित गुजरात राज्य के आयुक्त को राष्ट्रपति की अधिसूचना के अनुसार भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत शक्ति प्राप्त थी

सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम में प्रयुक्त शब्द ‘कलेक्टर’ का उल्लेख किया, जिसका तात्पर्य किसी भी जिले के कलेक्टर या किसी अन्य अधिकारी से है, जिसे अधिनियम के तहत कलेक्टर की सभी या कुछ शक्तियों का प्रयोग करने के लिए उपयुक्त सरकार द्वारा ऐसा घोषित किया जा सकता है। कानून स्वयं उपयुक्त सरकार को अधिनियम के अनुसार कलेक्टर को नामित करने का अधिकार देता है और संविधान के अनुच्छेद 258(1) के तहत निहित प्राधिकार वाले आयुक्त ने अधिनियम की धारा 5A के तहत अतिरिक्त विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी, अहमदाबाद को कलेक्टर के रूप में नियुक्त किया। इस प्रकार, अतिरिक्त विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी की नियुक्ति में आयुक्त उस प्राधिकार का उपयोग कर रहा था, जिसके माध्यम से उसे अधिनियम के प्रावधानों के तहत उपयुक्त सरकार द्वारा प्रदान किया गया था। यह नोट किया गया कि अपीलकर्ता ने कोई भी दस्तावेज संलग्न नहीं किया, जो इस तर्क का समर्थन कर सके, जो एक स्तर पर अस्पष्ट रूप से बनाया गया था कि कलेक्टर की कार्यवाही अवैधता या अनियमितता से दूषित थी। धारा 5A के प्रावधानों के अनुसार कलेक्टर ने जांच की और अपनी रिपोर्ट आयुक्त को सौंपी, जो उपयुक्त सरकार के अधीन प्राधिकारी के रूप में कार्य करता है और रिपोर्ट की सिफारिश के अनुसार, भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 6 के तहत अधिसूचना जारी की गई थी। धारा 5A(2) में कहा गया है कि अधिसूचित भूमि या इलाके की किसी भी भूमि के अधिग्रहण पर कोई भी आपत्ति आपत्तिकर्ता द्वारा कलेक्टर को लिखित रूप में की जानी चाहिए। इसके अलावा, कलेक्टर को आपत्तिकर्ता को व्यक्तिगत रूप से या वकील के माध्यम से सुनवाई का अवसर प्रदान करना होगा और सुनी गई सभी आपत्तियों को संकलित करना होगा। यदि किसी और जांच की आवश्यकता है तो कलेक्टर आपत्तियों के संबंध में सिफारिशों को रेखांकित करते हुए एक रिपोर्ट प्रस्तुत कर सकता है। धारा 5A द्वारा अपेक्षित रिपोर्ट को धारा 6 के तहत अधिसूचना जारी होने से पहले पूरा करने की आवश्यकता नहीं है।

धारा 17 के अनुसार उचित सरकार बिना किसी भार के भूमि का अधिग्रहण कर सकती है और धारा 17(4) के तहत आदेश दे सकती है कि किसी भी भूमि के संबंध में, जिसके लिए उपयुक्त सरकार निर्धारित करती है, धारा 5A(1), (2) में उल्लिखित प्रावधान लागू नहीं होंगे, जहां इस अधिनियम के निम्नलिखित प्रावधान लागू होते हैं: एक बार फिर कलेक्टर कोई निर्णय लेने के लिए बाध्य नहीं है। उसे अपने द्वारा की गई कार्यवाही के रिकॉर्ड और आपत्ति धारा पर अपनी सिफारिशों सहित एक रिपोर्ट के साथ मामले को निर्धारण के लिए उपयुक्त सरकार को भेजना होगा। पहली नज़र में, ऐसी रिपोर्ट एक प्रशासनिक रिपोर्ट होगी और इसके आधार पर सरकार धारा 6 के तहत निर्णय लेती है कि भूमि को अधिग्रहण के लिए अधिसूचित किया जाए या नहीं। यह धारणा कि किसी विशेष भूमि को सार्वजनिक उपयोग के लिए आवश्यक है, एक प्रशासनिक निर्णय है और निर्णय लेने के उद्देश्य से ही अधिनियम उन जांचों को करने के लिए बाध्य करता है। हालांकि, यह प्रावधान धारा 5A के तहत खुला है क्योंकि कलेक्टर को प्रस्तुत आपत्तियों के संबंध में जांच के अलावा एक स्वतंत्र जांच करने का अधिकार है। ऐसी परिस्थितियों में यह नहीं कहा जा सकता है कि जांच कानून के उद्देश्य के लिए न्यायिक या अर्ध-न्यायिक जांच है। वर्तमान मामले में न्यायिक शक्ति का कोई भी प्रत्यायोजन नहीं किया गया था जो कानून द्वारा केंद्र सरकार में निहित है। जांच करने की शक्ति कलेक्टर में वैधानिक रूप से निहित है और कलेक्टर ने अपना वैधानिक कर्तव्य निभाया है। ऐसे अधिकारी के रूप में कार्य करने वाले आयुक्त को केवल केंद्र सरकार की ओर से कलेक्टर के रूप में अतिरिक्त भूमि अधिग्रहण अधिकारी नियुक्त किया गया था। विवादित आदेश राष्ट्रपति द्वारा जारी अधिसूचना के तहत आयुक्त को सौंपी गई शक्तियों के संदर्भ में दी गई शक्तियों के प्रयोग में रिपोर्ट पर भी विचार करता है। ऐसा करने में उन्होंने किसी भी तरह से अपने में निहित अधिकार के साथ असंगत कार्य नहीं किया या कि कानून कुछ परिस्थितियों में उन्हें निहित कर सकता है। इसलिए अपील विफल हो गई और बहुमत के साथ लागतें खर्च हुईं।

मामले में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय 

बहुमत के दृष्टिकोण के लिए जिन निर्णयों पर भरोसा किया गया

राय साहिब राम जवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य (1955)

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ‘कार्यकारी कार्य’ का क्या अर्थ है और इसमें क्या शामिल है, इसे ठीक से परिभाषित करने में समस्या हो सकती है। आम तौर पर कार्यकारी शक्ति से तात्पर्य सरकार की जिम्मेदारी के उस हिस्से से है जो विधायी या न्यायिक जिम्मेदारी के प्रयोग के बाद बचा रहता है। राज्य के प्रमुख कार्यकारी अधिकार का प्रयोग करते हैं, कानूनों के प्रवर्तन, नीतियों के प्रबंधन और कार्यान्वयन और दैनिक आधार पर राज्य के मामलों के प्रबंधन में लगे रहते हैं। इसमें निर्णय लेना, नीति निर्माण के साथ-साथ सरकारी गतिविधियों के संचालन के लिए सार्वजनिक सेवाओं के निर्देश और समन्वय शामिल हैं। यह शक्ति राष्ट्रपति और/या प्रधान मंत्री और सरकारी विभागों और एजेंसियों के नेतृत्व में सरकार के कार्यकारी हिस्से के हाथों में होती है। इसे इसकी प्रशासनिक, नियामक और प्रबंधकीय भूमिकाओं द्वारा परिभाषित किया जाता है जो कानूनों को लागू करने और विधान और निर्णयों को प्रभावी बनाने और लागू करने में मदद करती हैं। 

इस मामले ने स्थापित किया कि कार्यकारी कार्य को सटीक रूप से परिभाषित करना मुश्किल है, लेकिन इसमें आम तौर पर कानूनों का प्रवर्तन, नीति कार्यान्वयन और राज्य के मामलों का दैनिक प्रबंधन शामिल होता है, जो राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कार्यकारी शाखा द्वारा सरकारी विभागों के सहयोग से किया जाता है। कार्यकारी शक्ति के इस दृष्टिकोण ने जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफएन राणा और अन्य (1963) के फैसले को प्रभावित किया, जिसने कार्यकारी प्राधिकरण के दायरे को स्पष्ट किया, विशेष रूप से भूमि अधिग्रहण के संबंध में। न्यायालय ने अनुच्छेद 73(1) के तहत संघ की शक्ति की व्याख्या करने और यह सुनिश्चित करने के लिए इस दृष्टिकोण का उपयोग किया कि संघ द्वारा संपत्ति का जबरन अधिग्रहण उसके कार्यकारी दायरे में रहे, भले ही राज्यों के पास भी ऐसा करने की क्षमता हो।

हरिनगर शुगर मिल्स लिमिटेड बनाम श्यामसुंदर (1961)

इस मामले में न्यायालय ने कहा कि हालांकि यह नहीं माना जा सकता कि विधायी कार्य केवल विधानमंडल द्वारा, कार्यकारी कार्य कार्यकारी द्वारा तथा न्यायिक कार्य न्यायपालिका द्वारा किए जा रहे हैं। संविधान ने राज्य की तीनों शाखाओं के बीच शक्तियों का स्पष्ट या सख्त पृथक्करण प्रदान नहीं किया है। यह विशिष्ट रूप से विधायी या न्यायिक कार्यों के प्रयोग को कार्यपालिका को सौंपता है। उदाहरण के लिए, नियम, विनियम और अधिसूचनाएँ बनाने का अधिकार, जो अनिवार्य रूप से विधायी प्रकृति का होता है, अक्सर कार्यपालिका को सौंप दिया जाता है। उसी तरह न्यायिक अधिकार भी विधान द्वारा कार्यकारी प्राधिकारी को सौंप दिया जाता है।

एडवर्ड मिल्स कंपनी लिमिटेड ब्यावर बनाम अजमेर राज्य (1954)

एडवर्ड मिल्स मामले में यह माना गया कि विवाद का मुख्य मुद्दा यह था कि क्या भारत सरकार अधिनियम, 1935 की धारा 94(3) के तहत किया गया आदेश संविधान के अनुच्छेद 395 के तहत लागू रहता है। विशेष रूप से, भारत सरकार अधिनियम की धारा 94(3) के संदर्भ में, 1949 में केंद्र सरकार द्वारा एक अधिसूचना जारी की गई थी जिसके अनुसार न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के तहत कार्य मुख्य आयुक्त के प्रांत में मुख्य आयुक्त द्वारा किए जाते थे। भारतीय संविधान को अपनाने के बाद, अजमेर के मुख्य आयुक्त न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के संबंध में प्रासंगिक सरकार थे और उन्होंने कपड़ा कारखानों के लिए रोजगार अधिसूचनाएँ जारी कीं।

इस आधार पर दावा किया गया कि संविधान के बाद इन अधिसूचनाओं की वैधता अस्वीकार्य थी क्योंकि मुख्य आयुक्त के पास ऐसी शक्ति नहीं थी क्योंकि धारा 94(3) के तहत गवर्नर-जनरल का आदेश संविधान के अनुच्छेद 372 के तहत ‘लागू कानून’ नहीं था। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 239 के तहत शक्तियों का नया प्रतिनिधिमंडल मुख्य आयुक्त को न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के तहत कानूनी रूप से काम करने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक था।

एडवर्ड मिल्स के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने बताया कि संविधान के अनुच्छेद 366(1) में परिकल्पित ‘मौजूदा कानून’ अनुच्छेद 372 में परिकल्पित ‘प्रचलित कानून’ के समान है। “प्रचलित कानून” वाक्यांश की व्याख्या करते हुए, इसने कहा कि इसमें कानून के बल वाले विनियम या आदेश शामिल हैं और जब गवर्नर-जनरल धारा 94(3) के तहत कोई आदेश देता है तो यह मुख्य आयुक्त के अधिकारों और शक्तियों के बारे में विधायी प्रावधान के समान होता है। इस प्रकार, ऐसे आदेश कानूनी रूप से अनुच्छेद 372 के तहत लागू रहे। 

जयंतीलाल के मामले में यह व्याख्या महत्वपूर्ण थी, क्योंकि न्यायालय ने संविधान के बाद सरकारी गतिविधियों की निरंतरता और वैधता से निपटा था। हमने पुष्टि की कि पूर्व कानूनी ढाँचों के तहत किए गए आदेश और कार्य, चाहे वे ‘मौजूदा कानून’ या ‘प्रभावी कानून’ के दायरे में हों, एडवर्ड मिल्स में स्थापित मिसाल के आधार पर नए संवैधानिक प्रावधानों के तहत वैध और लागू करने योग्य बने रहे। इससे यह स्पष्ट करने में मदद मिली कि संपत्ति की जबरन खरीद पर संघ का कार्यकारी अधिकार बरकरार रहा, जिससे भारत सरकार अधिनियम, 1935 से भारतीय संविधान में संक्रमण काल ​​के दौरान ऐसे उपायों की निरंतरता और वैधता सुनिश्चित हुई।

चनबसप्पा शिवप्पा बनाम गुरुपदप्पा मुरीगप्पा (1965)

विशेष रूप से चनबसप्पा शिवप्पा बनाम गुरुपदप्पा मुरीगप्पा (1976) में, राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 की धारा 119 के प्रावधानों के तहत मैसूर उच्च न्यायालय का निर्णय, जो कि बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम, 1960 की धारा 87 से बहुत भिन्न नहीं है; और यह देखते हुए कि उस अधिनियम की धारा 2(h) में ‘कानून’ की परिभाषा बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम की धारा 2(b) में दी गई परिभाषा के समान है, उच्च न्यायालय ने बॉम्बे सरकार द्वारा जारी अधिसूचना के संचालन को बरकरार रखा, जिसमें राज्य पुनर्गठन के तहत बॉम्बे राज्य के पुनर्गठन पर बॉम्बे जिला नगरपालिका अधिनियम 1901 के तहत चुनाव याचिकाओं की सुनवाई करने की शक्तियां प्रदान की गईं।

असहमतिपूर्ण राय देते समय जिन निर्णयों पर भरोसा किया गया 

सरकारी वकील बनाम इल्लुर थिप्पय्या, (1949)

इस मामले में आदेश आवश्यक आपूर्ति (अस्थायी शक्तियां) अधिनियम, 1946 के 24 के तहत जारी किए गए थे, जिन्हें वैधानिक प्रभाव वाला माना जाता था। उन आदेशों ने उन आदेशों में संबोधित मुद्दों से निपटने वालों के लिए एक आचार संहिता स्थापित की प्रतीत होती है, और इस तरह द्वितीयक कानून का निर्माण किया। इस मामले ने कार्यकारी शक्ति के दायरे और व्याख्या के लिए एक मिसाल कायम करके जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफएन राणा और अन्य (1963) की सहायता की। इल्लूर थिप्पय्या में, अदालत ने कार्यकारी प्राधिकार के दायरे को बढ़ाया, राज्य के कार्यों के विधायी जनादेश और संवैधानिक शर्तों के अनुरूप होने के महत्व पर जोर दिया। इस दृष्टिकोण ने जयंतीलाल में तर्क को मजबूत किया कि राज्य की गतिविधियां, विशेष रूप से संपत्ति अधिग्रहण से जुड़ी गतिविधियां, अनुच्छेद 256 के तहत केंद्रीय कानूनों और निर्देशों के अनुरूप होनी चाहिए

बॉम्बे राज्य बनाम एफ.एन. बलसारा (1951)

यह अधीनस्थ विधान का मामला था क्योंकि, वहां पारित आदेश, बॉम्बे निषेध अधिनियम संख्या 25, 1949 की धारा 139 के अंतर्गत था, जो सरकार को किसी भी मादक पदार्थ या मादक पदार्थों के वर्ग को सामान्य या विशेष आदेश द्वारा उस अधिनियम के किसी भी प्रावधान के आवेदन से छूट देने का अधिकार देता था। उस मामले में यही स्थिति थी जहाँ ऐसा आदेश स्पष्ट रूप से कानून का बल रखने वाला माना जाता क्योंकि यह अधीनस्थ विधान था।

किंग एम्परर बनाम अब्दुल हमीद और रामेंद्रचंद्र रे बनाम एम्परर (1922)

इस मामले में, पुलिस अधीक्षक ने पुलिस अधिनियम की धारा 30 के तहत जुलूसों पर रोक लगाने का आदेश जारी किया, और मुद्दा यह था कि क्या यह आदेश कानूनी था। पटना उच्च न्यायालय ने माना है कि यह कानून है। पुलिस अधिनियम के तहत सशक्त पुलिस अधीक्षक ने ऐसा आदेश जारी किया था जिसमें अपने पुलिस जिले के निवासियों से अपेक्षित आचरण के मानक निर्धारित किए गए थे और कोई भी विफलता दंडनीय थी। इसे अदालतों द्वारा भी लगाया जा सकता था और यह किसी भी कानूनी प्रावधान की तरह ही वैध होगा। दूसरा मामला कलकत्ता पुलिस अधिनियम की धारा 35 के तहत किए गए निषेध आदेश से संबंधित है और उसी कारण से इसे कानून का बल प्राप्त होगा। 

जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफ.एन. राणा एवं अन्य (1963) का विश्लेषण

सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 258(1) की व्याख्या की, जो राज्य सरकारों या अधिकारियों को कार्यों का हस्तांतरण प्रदान करता है। इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है कि इस तरह के अधिकार सौंपना संभव है, भले ही वे कार्यकारी स्वरूप के हों; बशर्ते कि यह हस्तांतरण कार्यकारी प्राधिकरण के मामलों पर हो, जो इस मामले में विधायी व्यवस्था का हिस्सा है। सर्वोच्च न्यायालय ने बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम की धारा 82 और 87 पर ध्यान केंद्रित किया, जो पुनर्गठन से पहले मौजूद कानूनों/आदेशों को संरक्षित करने के लिए कानूनी प्रावधान थे। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 258(1) के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना पुनर्गठन से पहले एक कानूनी दस्तावेज के रूप में जारी की गई थी, जिसे उचित रूप से अधिनियमित किया गया था, जो पुनर्गठन के बाद भी लागू रहा, ताकि राज्य अधिकारियों को कार्य सौंपे जा सकें। स्थापित मील, खासकर एडवर्ड मिल्स मामले के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि कार्यकारी आदेश को ‘प्रभावी कानून’ के रूप में माना जाने के लिए इसमें विनियमन या विधान की विशेषता होनी चाहिए। इस पर, सर्वोच्च न्यायालय ने नोट किया कि राष्ट्रपति द्वारा जारी किया गया नोटिस एक प्रशासनिक कार्य नहीं था, बल्कि कुछ विधायी प्रकृति का था। सर्वोच्च न्यायालय ने एक तरह से अनुच्छेद 372 की ओर भी इशारा किया जिसके अनुसार संविधान के प्रावधान संविधान के लागू होने की तिथि पर मौजूदा कानूनों को प्रभावित नहीं करेंगे। इसने माना कि अनुच्छेद 258(1) के तहत अधिसूचना उपरोक्त वर्गीकरण के दायरे में आती है और इस तरह इसके कानूनी चरित्र और प्रभावकारिता (एफिकेसी) को बचाया गया है जैसा कि कानून के माध्यम से प्रस्थान के मामले में होता है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, दी गई कार्यकारी अधिसूचना राज्य संस्थाओं के काम और व्यावसायिक कामकाज की निरंतरता से संबंधित विधायी इरादे को संबोधित करने के लिए अधिनियम के उद्देश्य के संबंध में उचित रूप से विशेषता थी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से पता चलता है कि ऐसी प्रक्रियाओं में किसी भी व्यवधान के लिए स्पष्ट वैधानिक प्रावधानों और अनुबंध कानून के सिद्धांतों के पालन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार, यह एक मजबूत ढांचे की आवश्यकता पर जोर देता है जो यह सुनिश्चित करने के उद्देश्य को प्राप्त करने में सक्षम बनाता है कि कार्यकारी आदेश और अधिसूचनाएं, पुनर्गठन के बावजूद, विधायी अखंडता को खतरा पहुंचाने वालों को छोड़कर राज्य तंत्र की कार्यक्षमता और प्राधिकार को संरक्षित करने के उद्देश्य से कानूनी प्रणाली में काफी आसानी से शामिल की जा सकती हैं। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय की इस समझ को भी दर्शाता है कि जब कार्यपालिका संवैधानिक और विधायी उपायों के तहत नोटिस देती है, तो वह नोटिस उतना ही वैध होता है जितना कि संसद द्वारा सीधे दिया जाता है। यह इस बात पर जोर देता है कि निरंतर प्रशासनिक अभ्यास, सरकारी कार्यों की दक्षता बनाए रखना, संबंधों को विनियमित करना और अधिसूचनाओं को बाध्यकारी कानूनी पाठ के रूप में मान्यता देना प्रमुख प्रशासनिक पुनर्गठन की अवधि के दौरान आवश्यक है।

निष्कर्ष 

जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफएन राणा और अन्य (1963) का मामला विधायी निकायों के निर्णयों के बारे में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करता है जो कुछ कार्यकारी कार्यों को सौंपते हैं और राज्यों के पुनर्गठन के बाद भी उनके जारी रहने की न्यायिक स्वीकृति देते हैं। पुनर्गठित गुजरात राज्य से संबंधित विषयों को विघटित बॉम्बे राज्य की पुरानी विधायी सूचियों से नई विधायी सूची में स्थानांतरित करने वाली विधायी क्षमता को मान्य करने के लिए यह परीक्षण सर्वोच्च न्यायालय के बहुमत के फैसले में पाया जाता है जो इस बात को पुष्ट करता है कि अनुच्छेद 258 (1) के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना बॉम्बे के पुनर्गठन के बाद भी वैध रही और इसलिए गुजरात राज्य के नए आयुक्तों के लिए इसके तहत दिए गए कार्यों का निर्वहन करना पूरी तरह से वैध बना।

अधिक सामान्य रूप से, यह इस बात का उदाहरण है कि संविधान के लिए यह कितना महत्वपूर्ण है कि वह सरकार के कार्य या कार्यों को सौंपने और निष्पादित करने या जारी रखने के लिए इष्टतम तरीके को स्पष्ट करे। यह यह भी दर्शाता है कि न्यायपालिका किस तरह से शासन प्रणालियों के सुचारू संचालन के लिए विधायी उद्देश्यों के साथ कार्यकारी शाखा के कार्यों के एकीकरण की सुविधा प्रदान करती है। लिया गया निर्णय केवल इस ठोस स्थिति तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सत्ता की शाखाओं की पदानुक्रमिक अधीनता और अंतःक्रिया, प्रशासनिक बदलावों के ढांचे के भीतर कानूनी उपकरणों की स्थिरता के बारे में जानकारी प्रदान करता है।

अंततः, जयंतीलाल अमृत लाल शोधन बनाम एफ.एन. राणा एवं अन्य के मामले में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि न्यायपालिका को संवैधानिक मूल्यों की व्याख्या करने तथा यह सुनिश्चित करने का दायित्व सौंपा गया है कि उन्नति अन्य लोगों के अधिकारों का उल्लंघन करने का साधन न हो।  

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

भारतीय संविधान का कौन सा प्रावधान कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्ति के पृथक्करण को नियंत्रित करता है?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 258(1) कार्यकारी शक्तियों से संबंधित है, इसके तहत कार्यों के प्रत्यायोजन को विधायी ढांचे में शामिल किया जा सकता है, इस प्रकार पुनर्गठन की प्रक्रिया में कानूनी निरंतरता और परिचालन प्रभावशीलता प्रदान की जा सकती है।

वर्तमान निर्णय में अल्पमत का दृष्टिकोण क्या था?

न्यायमूर्ति केएन वांचू ने इस प्रस्ताव पर असहमति जताते हुए कहा कि अनुच्छेद 258(1) के तहत कार्यकारी कार्यों को बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम की धारा 87 के अनुसार ‘प्रभावी कानून’ के रूप में नहीं लिया जा सकता। उनका मानना ​​था कि आयुक्त भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत कार्यवाही नहीं कर सकते क्योंकि संसद उन्हें ऐसा करने का अधिकार नहीं देती।

इस मामले के संबंध में न्यायालय का “प्रभावी कानून” शब्द से क्या तात्पर्य था?

बदले में, न्यायालय ने “प्रभावी कानून” शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि इसमें न केवल विधायी कार्य शामिल हैं, बल्कि कार्यकारी आदेश और अधिसूचनाएँ भी शामिल हैं, जिनके पास पूर्ववर्ती कानूनी अधिकार हैं। इस व्यापक व्याख्या ने इस दावे का समर्थन किया कि अनुच्छेद 258(1) के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना ने पुनर्गठन के बाद अपनी कानूनी व्यवहार्यता (वायबिलिटी) बरकरार रखी।

इस मामले में अर्ध-न्यायिक कार्यों के संबंध में न्यायालय ने क्या भूमिका निभाई?

न्यायालय ने इस मुद्दे पर यह निर्णय लेकर प्रतिक्रिया दी कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 5A के तहत भूमि अधिग्रहण पर आपत्तियां दर्ज करने के लिए निहित कार्य अर्ध-न्यायिक या प्रशासनिक प्रकृति के हैं या नहीं। निर्णय में यह भी निर्धारित करना शामिल था कि क्या ये कार्य राज्य अधिकारियों को वैधानिक रूप से सौंपे जा सकते हैं।

संदर्भ

 

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here