यह लेख सिम्बायोसिस लॉ स्कूल, नोएडा के छात्र Sushant Biswakarma द्वारा लिखा गया है। यह लेख विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों के साथ-साथ भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 167 का विश्लेषण प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।
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परिचय
भारत एक लोकतांत्रिक एवं स्वतंत्र देश है। यदि किसी पर अपराध करने का आरोप लगाया गया है, तो उसे दोषी साबित होने तक निर्दोष माना जाता है। उसे निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार है, और यह अभियोजन पक्ष पर है कि वह उचित संदेह से परे उसका अपराध साबित करे।
अदालत के समक्ष कुछ भी साबित करने के लिए, किसी को अपने बयानों के समर्थन में साक्ष्य पेश करने की ज़रूरत होती है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 अदालत के समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करने का एक उचित प्रक्रियात्मक तरीका निर्धारित करता है। जो भी साक्ष्य प्रस्तुत किया जाना है वह इस अधिनियम के अनुपालन में किया जाना चाहिए।
साक्ष्य के प्रकार
साक्ष्य एक दस्तावेज़ या बयान है जो मामले के किसी तथ्य का समर्थन करने के लिए अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के साक्ष्य होते हैं।
मौखिक साक्ष्य – धारा 60
- धारा 60 के तहत मामले के तथ्यों के संबंध में एक गवाह द्वारा अदालत में कोई मौखिक साक्ष्य दिया गया था।
- इसे गवाह द्वारा व्यक्तिगत रूप से देखा या सुना गया होगा।
- यह कोई सुनी-सुनाई बात नहीं होनी चाहिए।
- यह प्रत्यक्ष होना चाहिए और इसे मुद्दे में मुख्य तथ्य स्थापित करना चाहिए।
दस्तावेजी साक्ष्य- धारा 3(2)(e)(2)
- धारा 3(2)(e)(2) के तहत ये न्यायालय के निरीक्षण के लिए प्रस्तुत किए गए कोई दस्तावेज़ और इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड हैं।
- धारा 65B में कहा गया है कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य हैं।
प्राथमिक साक्ष्य – धारा 62
- धारा 62 के तहत मुख्य दस्तावेज़ की मूल प्रति, जैसे, अनुबंध, पट्टा (लीज) समझौता, विक्रय विलेख (डीड) आदि।
- यह सर्वोत्तम प्रकार का साक्ष्य है क्योंकि यह मूल दस्तावेज़ है और साक्ष्य की विश्वसनीयता को साबित करने की आवश्यकता नहीं है।
- यदि संभव हो तो सबसे पहले प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत करने की अपेक्षा की जाती है।
द्वितीयक साक्ष्य – धारा 63
- धारा 63 के तहत यह मूल दस्तावेज़ की एक प्रति है।
- प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध न होने पर स्वीकार्य है।
इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य – धारा 65B
- इसमें डाटा और मीडिया भंडारण डाटा जैसे फ्लैश ड्राइव और उनके अंदर डाटा शामिल है।
- साइबर क्राइम के मामलों में यह काफी मददगार हो सकता है।
संहिताबद्ध (कोडीफाइड) साक्ष्य के अलावा, साक्ष्य का एक और वर्ग मौजूद है जो अतिरिक्त-वैधानिक है। जैसे कि:
भौतिक साक्ष्य
- साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत एक भौतिक वस्तु।
- यह हत्या के लिए इस्तेमाल किए गए हथियार या अपराध से संबंधित कोई वस्तु हो सकती है।
वैज्ञानिक साक्ष्य
- कोई फोरेंसिक निष्कर्ष, जैसे रक्त परीक्षण परिणाम, आदि।
- फोरेंसिक विशेषज्ञों द्वारा परीक्षण करने के बाद इन्हें सामने लाया जाएगा।
- साक्ष्यों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाना कठिन है।
अनुश्रुति (हियर से)
- ऐसा साक्ष्य जो गवाह द्वारा व्यक्तिगत रूप से देखा या सुना न गया हो।
- गवाह को यह बात किसी और ने बताई है।
- यह साक्ष्य का सबसे कमजोर रूप है।
- इसकी विश्वसनीयता बहुत कम है।
न्यायिक साक्ष्य
- ये अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए साक्ष्य हैं।
- यह अभियुक्त द्वारा स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) आदि हो सकते है।
गैर-न्यायिक साक्ष्य
- अदालत के बाहर अभियुक्त की का स्वीकारोक्ति।
- यह तब होता है जब मजिस्ट्रेट के सामने स्वीकारोक्ति बयान नहीं दिया जाता है।
- पूछताछ के दौरान पुलिस के सामने की गई स्वीकारोक्ति इसका उदाहरण हो सकता है।
प्रत्यक्ष साक्ष्य
- इस प्रकार का साक्ष्य ऐसा होना चाहिए जो मामले के तथ्य को स्थापित करे।
- यह मौखिक या दस्तावेजी हो सकता हैm
- गवाह द्वारा दिए गए बयान एक उदाहरण हैं।
अप्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य साक्ष्य
- यह किसी मामले में किसी तथ्य के बारे में एक अंदाज़ा देता है।
- ये ठोस साक्ष्य नहीं हैं लेकिन मामले को सही दिशा में ले जा सकते हैं।
- अपराध स्थल के निरीक्षण के बाद की गई रिपोर्ट इसका एक उदाहरण हो सकती है।
साक्ष्य कब स्वीकार्य है?
मामले के पक्ष अपने मामले का समर्थन करने के लिए अपने साक्ष्य प्रस्तुत कर सकते हैं, लेकिन सभी साक्ष्य अदालत के समक्ष स्वीकार्य नहीं हैं।
स्वीकार्यता का अर्थ है कि न्यायालय किसी साक्ष्य पर विचार करता है या नहीं। किसी भी साक्ष्य को स्वीकार्य होने के लिए, उसे मामले के प्रासंगिक तथ्य को साबित करने में मदद करनी चाहिए।
किसी निश्चित मामले में कई तथ्य हो सकते हैं, लेकिन उनमें से केवल कुछ ही तथ्य अदालती कार्यवाही के लिए प्रासंगिक होते हैं। साक्ष्य की स्वीकार्यता को समझने के लिए, हमें पहले यह समझना होगा कि कौन से तथ्य प्रासंगिक हैं।
तथ्य क्या है?
तथ्य एक ऐसी चीज़ है जिसे निश्चित रूप से सत्य माना जाता है। इसे सिद्ध किया जा सकता है और इसके अस्तित्व में कोई संदेह नहीं है।
यह कोई घटना या क्रिया हो सकती है जो निश्चित रूप से घटित हुई हो।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 3(1) ने ‘तथ्य’ को दो श्रेणियों में विभाजित किया है:
भौतिक तथ्य
धारा 3(1) भौतिक तथ्य को “चीजों की एक स्थिति, या चीजों के संबंध जो इंद्रियों द्वारा समझे जाने में सक्षम हैं” के रूप में परिभाषित करती है।
इसका मतलब यह है कि जब कोई व्यक्ति किसी निश्चित घटना या क्रिया को देखता है, सुनता है या बाहरी रूप से महसूस करता है, तो इसे एक तथ्य के रूप में माना जा सकता है।
उदाहरण के लिए:
- हैरी ने रॉन और हर्मोइन को मॉल में एक साथ देखा।
- हैरी ने हर्मोइन को कुछ कहते हुए सुना।
गैर-भौतिक तथ्य
इसे धारा में “किसी भी मानसिक स्थिति जिसके बारे में कोई भी व्यक्ति सचेत है” के रूप में परिभाषित किया गया है।
ये भावनाएँ, धारणाएँ या राय हो सकती हैं जिन्हें हमारी मस्तिष्क-संबंधी अंगों से नहीं समझा जा सकता है।
उदाहरण के लिए:
- हैरी टॉम को नापसंद करता है।
- हैरी एक सम्मानित व्यक्ति हैं।
प्रासंगिक तथ्य क्या है?
अधिनियम की धारा 2(e) प्रासंगिक तथ्य को “एक तथ्य जो अधिनियम के प्रावधान में दिए गए किसी भी तरह से दूसरे से जुड़ा हुआ है” के रूप में परिभाषित करती है। इसका मतलब है कि कोई भी तथ्य जो मामले में अन्य तथ्यों के साथ बिंदुओं को जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण है और मामले के पूरे परिदृश्य को स्थापित करने में मदद करता है। इसलिए, कोई भी तथ्य प्रासंगिक है यदि इसका उपयोग मामले में किसी महत्वपूर्ण मुद्दे को साबित या अस्वीकृत करने के लिए किया जा सकता है।
हालाँकि अदालत में केवल प्रासंगिक तथ्य ही स्वीकार्य हैं, फिर भी कुछ उदाहरण ऐसे हैं जब ये तथ्य भी स्वीकार्य नहीं हो सकते हैं। कुछ प्रासंगिक तथ्यों को संरक्षित किया जा सकता है और स्वीकार्य नहीं किया जा सकता है, जैसे:
- वकील और उनके मुवक्किल (क्लाइंट) के बीच विशेषाधिकार प्राप्त बातचीत।
- पूछताछ के दौरान एक अभियुक्त ने पुलिस के सामने जो स्वीकारोक्ति की है।
किसी तथ्य की स्वीकार्यता
केवल प्रासंगिक तथ्य ही स्वीकार्य हैं, लेकिन सभी प्रासंगिक तथ्य स्वीकार्य नहीं हैं।
अधिनियम निर्धारित करता है कि किसी तथ्य को स्वीकार्य होने के लिए, उसे कानूनी रूप से प्रासंगिक होना चाहिए न कि तार्किक (लॉजिकली) रूप से प्रासंगिक होना चाहिए।
अदालत को केवल ऐसे साक्ष्यों पर विचार करना चाहिए जो कानूनी रूप से स्वीकार्य हों।
इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकार्यता के बारे में बात करती है।
धारा कहती है कि:
- यदि कोई इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड या तो कागज पर मुद्रित किया जाता है, संग्रहीत किया जाता है, रिकॉर्ड किया जाता है या भंडारण उपकरण में कॉपी किया जाता है। ऐसे रिकार्ड को एक दस्तावेज माना जायेगा।
शफ़ी मोहम्मद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रावधान में ऑडियो रिकॉर्डिंग और वीडियो रिकॉर्डिंग को शामिल करके धारा 65B के दायरे का विस्तार किया है।
यदि किसी नये उपकरण का आविष्कार हुआ है और वह किसी भी तथ्य को किसी भी माध्यम से रिकार्ड करने में सक्षम है। यदि उस रिकॉर्डिंग की विश्वसनीयता साबित करने का कोई तरीका है, तो ऐसी रिकॉर्डिंग को साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। राम सिंह एवं अन्य बनाम कर्नल राम सिंह के मामले में भी यही बात कही गई थी।
हालाँकि, तुकाराम एस. दिघोले बनाम माणिकराव शिवाजी कोकाटे के मामले में अदालत ने कहा कि नई प्रौद्योगिकियों के साथ छेड़छाड़ की संभावना अधिक है और ऐसे उपकरणों की रिकॉर्डिंग संदेह के अधीन होगी। ऐसे साक्ष्य की स्वीकार्यता के संबंध में कोई उचित नियम नहीं दिया जा सकता। लेकिन, ऐसे साक्ष्यों की प्रामाणिकता के संबंध में अधिक विस्तृत नियम होने चाहिए।
टोमासो ब्रूनो और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में, यह माना गया कि अधिक दक्षता के लिए जांच के दौरान अन्य वैज्ञानिक तरीकों के साथ कंप्यूटर रिकॉर्ड का उपयोग किया जाना चाहिए। यदि किसी प्रासंगिक तथ्य को स्थापित करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य आवश्यक है, तो यह बहुत उपयोगी हो सकता है।
उपरोक्त मामले के कानूनों के साथ धारा 65B ने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रासंगिक तथ्य स्थापित करने के लिए फोटो, वीडियो आदि सहित एक इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को दस्तावेजी साक्ष्य के रूप में माना जा सकता है और यह स्वीकार्य है।
धारा 167
स्वीकार्य होने के लिए साक्ष्य कानूनी रूप से प्रासंगिक होना चाहिए। स्वीकृति साक्ष्य अधिनियम के अनुपालन में प्राप्त की जानी चाहिए।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 167 ‘साक्ष्य की अनुचित स्वीकृति या अस्वीकृति के लिए कोई नया मुकदमा नहीं’ के बारे में बात करती है। इसमें कहा गया हैं कि:
- साक्ष्य की अनुचित स्वीकृति या अस्वीकृति एक नया मुकदमा शुरू करने या किसी निर्णय को उलटने का आधार नहीं है;
- यदि निर्णय को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त साक्ष्य थे; या
- यदि जो साक्ष्य अस्वीकृत किया गया है वह प्राप्त हो गया हो;
- अस्वीकार किए गए या अनुचित तरीके से प्रस्तुत किए गए साक्ष्य इतने महत्वपूर्ण नहीं होने चाहिए कि यदि उन्हें स्वीकार कर लिया जाता तो निर्णय अलग हो सकता था।
इसलिए, यदि साक्ष्य के अनुचित बहिष्कार या साक्ष्य को स्वीकार करने के आधार पर अपील दायर की जाती है, तो अपीलकर्ता को यह साबित करने में सक्षम होना चाहिए:
- साक्ष्यों को अनुचित रूप से स्वीकार या बहिष्कृत किया गया था, और
- न्याय का मजाक उड़ाया गया है.
यह धारा आपराधिक और सिविल दोनों मामलों पर लागू होती है।
सिविल मामलों में साक्ष्य की अनुचित स्वीकृति या अस्वीकार करने के प्रभाव
सिविल मामलों में, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि जहां किसी निर्णय को सही ठहराने के लिए पर्याप्त साक्ष्य हैं, तो यह मायने नहीं रखता कि साक्ष्य को स्वीकार किया गया है या खारिज कर दिया गया है, एक साथ नया मुकदमा शुरू करने की आवश्यकता नहीं है।
धारा 167 में “निर्णय को उलटना” वाक्यांश का उपयोग किया गया है, और निर्णयों को केवल अपीलीय अदालत द्वारा ही पलटा जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि यह धारा अपीलों पर भी लागू होती है।
अब्दुल रहीम बनाम किंग एंपरर के मामले में, यह निर्धारित किया गया था कि:
- अस्वीकार्य साक्ष्य की स्वीकृति किसी नए मुकदमे के लिए वास्तविक आधार नहीं है।
- अस्वीकार्य साक्ष्य को स्वीकार करना किसी निर्णय को रद्द करने का आधार नहीं है।
- बशर्ते कि निष्कर्षों का समर्थन करने और उसी निर्णय पर पहुंचने के लिए अन्य साक्ष्य हों।
मैसूर राज्य बनाम संपंगिरमिया के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि:
- अस्वीकार्य साक्ष्य को स्वीकार करना, स्वीकार्य साक्ष्य को अस्वीकार करने की तुलना में कम हानिकारक है।
- क्योंकि पहले मामले में – फैसला तय करते समय, अनुचित तरीके से स्वीकार किए गए साक्ष्य को विचार से बाहर रखा जा सकता है।
- लेकिन, बाद वाले मामले में – गलत तरीके से खारिज किए गए साक्ष्य को केवल आगे की कार्यवाही का सहारा लेकर ही दर्ज किया जा सकता है।
यदि गलत तरीके से स्वीकार किए गए साक्ष्य के आधार पर विचारण न्यायालय द्वारा निर्णय लिया जाता है। ऐसे साक्ष्यों को अलग रखा जाना चाहिए और देखना चाहिए कि क्या वे प्रासंगिक हैं। यदि निर्णय केवल ऐसे गलत तरीके से स्वीकार किए गए साक्ष्यों पर आधारित है, तो इसे उलट दिया जाना चाहिए।
आपराधिक मामलों में साक्ष्य की अनुचित स्वीकृति या अस्वीकार करने के प्रभाव
यह धारा आपराधिक मामलों पर भी लागू होगी, जैसा कि अब्दुल रहीम बनाम किंग एंपरर के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा था।
- यह निर्धारित किया गया था कि यदि किसी आपराधिक मामले में मुकदमे के चरण में साक्ष्य गलत तरीके से स्वीकार किया गया है,
- अपील पर उच्च न्यायालय को उस अस्वीकार्य साक्ष्य को बाहर करने का प्रयास करना चाहिए और निर्णय को अभी भी वही रखना चाहिए।
- बशर्ते कि पहले से उपलब्ध साक्ष्य मामले को स्पष्ट रूप से स्थापित करने और उसी निर्णय पर पहुंचने के लिए पर्याप्त हों।
इसका मतलब है कि:
- यदि अपील पर उच्च न्यायालय अनिश्चित है कि किसी तथ्य में कोई कमी है तो किसी निश्चित प्राधिकारी की राय या निर्णय वही होगा या नहीं।
- उच्च न्यायालय हस्तक्षेप करता है लेकिन केवल तभी जब यह पूरी तरह से निश्चित हो कि कोई अन्य निर्णय नहीं हुआ होगा।
- उस स्थिति में, उपरोक्त अप्रासंगिक परिस्थितियाँ आदेश को पूरी तरह से नष्ट कर देंगी, जैसा कि मदन लाल बनाम प्रिंसिपल, एच.बी.टी. संस्थान के मामले में देखा गया था।
अब्दुल रहीम बनाम किंग एंपरर के मामले में अदालत ने कहा कि यह गलत दिशा हो सकती है और यह फैसला बदलने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है।
इसलिए, यदि साक्ष्य अनुचित तरीके से स्वीकार किया गया है और मामले को स्थापित करने के लिए पहले से ही पर्याप्त साक्ष्य थे। ऐसे अनुचित तरीके से स्वीकार किए गए साक्ष्यों को नजरअंदाज किया जा सकता है और निर्णय अभी भी वही रहेगा। या फिर नया विचारण करना पड़ेगा।
साक्ष्य की अस्वीकृति
नारायण बनाम पंजाब राज्य के मामले में, अभियोजन पक्ष ने एक निश्चित व्यक्ति को गवाह के रूप में उद्धृत किया था, लेकिन वे उससे पूछताछ करने के लिए बहुत उत्सुक नहीं थे।
जब उस गवाह ने गवाही देने का विरोध किया तो अभियोजन पक्ष ने उसे हटा दिया।
अदालत ने कहा कि ऐसे मामले में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 167 के तहत साक्ष्य को खारिज नहीं किया जा सकता है।
ऐसे मामले में अभियोजन पक्ष वास्तव में उस व्यक्ति को गवाह के रूप में प्रस्तुत नहीं करता है।
न्यायाधीश ने कहा कि धारा 167 के संबंध में वास्तविक सवाल इतना नहीं है कि क्या खारिज किए गए साक्ष्य को रिकॉर्ड पर अन्य गवाही के खिलाफ स्वीकार नहीं किया गया होगा, बल्कि यह है कि क्या साक्ष्य – “अलग-अलग निर्णय नहीं होने चाहिए”।
निष्कर्ष
अदालत में किसी के मामले को स्थापित करने का एकमात्र तरीका साक्ष्य है। न्याय अंधा है और वह केवल साक्ष्य चाहता है।
साक्ष्य की स्वीकार्यता के संबंध में भारत में कानून वास्तव में मददगार हैं। गलत तरीके से साक्ष्य प्रस्तुत करने से मुकदमे की पूरी दिशा बदल सकती है और न्याय से इनकार किया जा सकता है। सिर्फ पक्षों द्वारा ही नहीं, कई मौकों पर ऐसा हुआ है कि अदालत ने कुछ साक्ष्यों को गलत तरीके से स्वीकार कर लिया है, जिसके परिणामस्वरूप पूरे फैसले को बदल दिया गया है, इसे केवल अपीलीय अधिकार क्षेत्र द्वारा ही पलटा जा सकता है।
निष्कर्ष के लिए:
- केवल प्रासंगिक तथ्य ही स्वीकार्य हैं;
- स्वीकार्य होने के लिए किसी प्रासंगिक तथ्य को कानूनी रूप से प्रासंगिक होना चाहिए;
- स्वीकृति भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अनुपालन में की जानी चाहिए।
संदर्भ
बेयर एक्ट
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872
किताब
- बटुक लाल, साक्ष्य का कानून, केंद्रीय कानून एजेंसी, 2018
मामले
- अब्दुल रहीम बनाम राजा-सम्राट
- मदन लाल बनाम प्रिंसिपल, एच.बी.टी. संस्थान
- नारायण बनाम पंजाब राज्य
- राम सिंह और अन्य बनाम कर्नल राम सिंह
- शफी मोहम्मद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य
- मैसूर राज्य बनाम संपंगिरमिया
- टोमासो ब्रूनो और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य
- तुकाराम एस. दिघोले बनाम माणिकराव शिवाजी कोकाटे