आई.आर. कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007)

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यह लेख S A Rishikesh द्वारा लिखा गया था और इसे Monesh Mehndiratta द्वारा अद्यतन किया गया है। यह लेख आई.आर. कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों में से एक की व्याख्या करता है। यह मामले की पृष्ठभूमि, तथ्यों, मुद्दों, अदालत के फैसले, अदालत की टिप्पणियों और लागू कानून की व्याख्या करता है, इसके अलावा इसका महत्वपूर्ण विश्लेषण भी प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

क्या आप जानते हैं कि हमारे संविधान में संशोधन किया जा सकता है?

हां, हमारे संविधान में संशोधन किए जा सकते हैं जिसके आधार पर हमारे संविधान में कुछ जोड़ा, बदला या परिवर्तित किया जा सकता है। हालाँकि, यह अधिकार केवल संसद को दिया गया है। इस शक्ति का प्रयोग संसद द्वारा कई बार किया गया है। संसद को दी गई एक और बड़ी शक्ति यह है कि वह संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर किसी क़ानून या अधिनियम को अदालत में चुनौती देने से रोक सकती है। यह संविधान की नौवीं अनुसूची में क़ानून और विधान सम्मिलित करके किया जा सकता है।

इन शक्तियों का प्रयोग करके संसद ने कई क़ानूनों को अनुसूची में शामिल किया है जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अदालत में चुनौती दिए जाने से बचाया जाता है। हालाँकि, संसद की इन कार्रवाइयों और शक्तियों की आलोचना की गई है, और इस संबंध में कई मामले दायर किए गए हैं। आई आर कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007) ऐसा ही एक मामला है।

इस मामले ने इस पहलू में न्यायिक समीक्षा के महत्व और न्यायपालिका की शक्तियों पर प्रकाश डाला। इस मामले को 9वीं अनुसूची मामले के रूप में भी जाना जाता है और इसमें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 31-B पर विस्तृत चर्चा शामिल है। इस मामले ने मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाने के लिए विधायिका द्वारा ली गई ढाल को हटा दिया। फैसले में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) को एक मिसाल के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। प्रस्तुत लेख इस मामले के तथ्यों, मामले की पृष्ठभूमि, इसमें शामिल मुद्दों, अदालत के फैसले और न्यायाधीशों की राय के साथ-साथ इसके महत्वपूर्ण विश्लेषण को बताता है। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: कानूनी प्रतिनिधि द्वारा आई.आर. कोएल्हो (मृत) बनाम तमिलनाडु राज्य 
  • उद्धरण: (2007) 2 एससीसी 1, 2007 एससीसी ऑनलाइन एससी 71। 
  • निर्णय की तिथि: 11/01/2007
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय 
  • पीठ: पीठ में 9 न्यायाधीश शामिल थे, अर्थात्:
  1. मुख्य न्यायाधीश वाई.के. सभरवाल
  2. न्यायमूर्ति अशोक भान
  3. न्यायमूर्ति डॉ अरिजीत पसायत
  4. न्यायमूर्ति बी.पी. सिंह
  5. न्यायमूर्ति एस.एच. कपाड़िया
  6. न्यायमूर्ति सी.के. ठक्कर
  7. न्यायमूर्ति पी.के.बालासुब्रमण्यम
  8. न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर
  9. न्यायमूर्ति डी.के. जैन
  • याचिकाकर्ता का नाम: कानूनी प्रतिनिधि द्वारा आई.आर. कोएल्हो (मृत)
  • प्रत्यर्थी (रिस्पांडेंट) का नाम: तमिलनाडु राज्य और भारत संघ 
  • लागू कानून: संविधान के अनुच्छेद 31-B और नौवीं अनुसूची 

मामले की पृष्ठभूमि

भारतीय संविधान के निर्माता इस तथ्य से अवगत थे कि किसी भी पीढ़ी के पास ज्ञान का एकाधिकार नहीं है, न ही उसे भविष्य की पीढ़ियों पर अपनी आवश्यकताओं के अनुसार सरकार के तंत्र को ढालने के लिए अपने फैसले डालने का अधिकार है। संविधान सभा के सामने दो विकल्प थे। पहला यूनाइटेड किंगडम का अनुसरण करना था, जहां संसद सर्वोच्च है और इसलिए, इसका संविधान बहुत लचीला है, और एक संवैधानिक संशोधन साधारण बहुमत से लाया जा सकता है। दूसरा संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान था, जहां संविधान सर्वोच्च है, जो संशोधनों को बहुत कठोर बनाता है, सरकार के संघीय स्वरूप की एक विशेषता, लिखित और कठोर संविधान है। संविधान निर्माताओं ने बीच का रास्ता अपनाया और भारत के संविधान को कठोर और लचीला बनाया। डॉ. अम्बेडकर ने इसे एक लचीला संघ कहा।

भारतीय संविधान के भाग XX में अनुच्छेद 368 शामिल है। यह अनुच्छेद संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति देता है। इसमें दो प्रकार के संशोधन का उल्लेख है:

  • संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के विशेष बहुमत से
  • संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत से और आधे राज्यों द्वारा अनुसमर्थित (रेटिफाइड)। यहां अनुसमर्थित का अर्थ राज्य विधानसभा के सामने एक विधेयक के रूप में पेश किया जाना और साधारण बहुमत यानी पचास प्रतिशत से अधिक उपस्थित और मतदान, से पारित होना है।

लेकिन अनुच्छेद 368 हमेशा सवालों से घिरा रहा है। अनुच्छेद 368 का दायरा क्या है? क्या यह भारतीय संविधान के भाग 3 में संशोधन कर सकता है? 1973 में भ्रम के सभी बादल साफ हो गए जब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 368 भारतीय संविधान के भाग III में भी संशोधन कर सकता है। यह मूल रूप से संविधान में निहित हर चीज़ में संशोधन कर सकता है, केवल यह ध्यान में रखते हुए कि यह ‘मूल संरचना’ को बाधित नहीं करता है। 

आई.आर. कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007) के संक्षिप्त तथ्य

इस मामले को 1999 में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा भेजा गया था। गुडलूर जन्मम संपदा (उन्मूलन (एबोलिशन) और रैयतवारी में रूपांतरण) अधिनियम, 1969 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बाल्माडीज़ प्लांटेशन लिमिटेड और अन्य बनाम तमिलनाडु राज्य (1972) में रद्द कर दिए जाने के बाद। इस अधिनियम को संविधान के चौंतीसवें संशोधन अधिनियम (1974) द्वारा नौवीं अनुसूची में डाला गया था। इसी तरह, पश्चिम बंगाल भूमि धारक राजस्व अधिनियम, 1979 की धारा 2(c) को कलकत्ता उच्च न्यायालय ने मनमाना बताते हुए असंवैधानिक ठहराया था। इस अधिनियम को छियासठवें संशोधन अधिनियम (1990) द्वारा नौवीं अनुसूची में भी शामिल किया गया था। ये संशोधन पांच न्यायाधीशों की पीठ के सामने विषय थे।

संवैधानिक पीठ ने वामन राव और अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य। (1981) के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का संदर्भ लिया और माना गया कि 24 अप्रैल 1973 (जिस दिन केशवानंद भारती मामले का फैसला सुनाया गया था) के बाद किए गए संशोधन द्वारा नौवीं अनुसूची में डाले गए कानूनों को मूल संरचना का उल्लंघन करने के आधार पर चुनौती दी जा सकती है। यह अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21 और उक्त अनुच्छेदों के अंतर्निहित सिद्धांतों में परिलक्षित होता है। इस प्रकार, वामन राव मामले के फैसले पर फिर से विचार करने और सर्वोच्च न्यायालय का अंतिम रुख निर्धारित करने के लिए मामले को नौ न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ के पास भेजा गया था। 

मामले में शामिल मुद्दे

  • क्या मूल संरचना के सिद्धांत के प्रतिपादन (प्रोपाउंड) के बाद संसद संविधान की नौवीं अनुसूची का उपयोग करके कानून को मौलिक अधिकारों से मुक्त कर सकती है। 
  • संसद की ऐसी शक्ति का न्यायालय की न्यायिक समीक्षा पर क्या प्रभाव पड़ेगा? 

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता द्वारा दिए गए तर्क

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि 13 वस्तुओं के साथ अनुच्छेद 31-B, संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा एक बार के उपाय के रूप में पेश किया गया था। अनुच्छेद की भाषा में यह नहीं बताया गया है कि नौवीं अनुसूची में और अधिक अधिनियम जोड़े जा सकते हैं, और इस प्रकार शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951) के मामले में इस पर प्रकाश डाला गया है। इसके अलावा वस्तु या तो अदालत के पहले के फैसलों या लंबे समय से चली आ रही सहमति के आधार पर जोड़े गए थे। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के फैसले पर भरोसा करते हुए यह तर्क दिया गया कि संसद के पास संविधान की मूल संरचना या रूपरेखा को बदलने की कोई शक्ति नहीं है और अनुसूची में और अधिक अधिनियम जोड़ने का कोई औचित्य नहीं है। इसके बाद जोड़े गए अधिनियम संविधान की मूल संरचना के उल्लंघन के आधार पर चुनौती के लिए खुले थे। 

आगे यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 31-B को लागू करने और विधानों और अधिनियमों को नौवीं अनुसूची में रखने की इस निरंतर प्रथा के परिणामस्वरूप प्रभावी न्यायिक समीक्षा असंभव हो जाएगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे कोई पैरामीटर नहीं होंगे जिनके आधार पर संवैधानिक संशोधनों की वैधता की जाँच की जा सके। याचिकाकर्ताओं ने आगे तर्क दिया कि मौलिक अधिकारों के अनुरूप कानून बनाने की संसद और राज्य विधानसभाओं की शक्ति को संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा माना जाना चाहिए। क्या कोई संवैधानिक संशोधन संविधान की बुनियादी विशेषताओं को नष्ट कर देता है, इसका निर्णय किसी सिद्धांत के आधार पर किया जाना चाहिए, यानी सामाजिक अधिकारों के विरुद्ध व्यक्तिगत अधिकार। सीधे शब्दों में कहें तो, “जन कल्याण सर्वोच्च कानून है” (सैलस पॉपुल्ली इस्ट सुप्रीमा लेक्स)। 

आगे यह प्रस्तुत किया गया कि न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है और इसे नौवीं अनुसूची का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। यह तर्क दिया गया कि यदि कोई कार्य या प्रावधान जिसे न्यायालयों द्वारा असंवैधानिक ठहराया गया है, नौवीं अनुसूची में डाला जाता है, तो यह संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत को नष्ट कर देगा। किसी भी अधिनियम या प्रावधान को सम्मिलित करना जिसे इस आधार पर असंवैधानिक माना गया है कि यह संविधान के भाग III में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, नौवीं अनुसूची में फिर से मूल संरचना सिद्धांत को नष्ट कर देगा। इससे नागरिकों को दी गई स्वतंत्रता का भी उल्लंघन होगा। उदाहरण के लिए, कोई भी कानून जिसे इस आधार पर रद्द कर दिया गया है कि उसने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन किया है, नौवीं अनुसूची में डाले जाने पर लागू हो जाएगा।

प्रत्यर्थी द्वारा दिए गए तर्क

यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 31-A और 31-B को सामाजिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शामिल किया गया था। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (डीपीएसपी) और मौलिक अधिकार दोनों इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रदान करते हैं। हालाँकि, डीपीएसपी गतिशील हैं, जबकि मौलिक अधिकार स्थिर हैं। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि जब एक सक्षम विधायिका कोई कानून पारित करती है, तो उसे स्वचालित रूप से अनुच्छेद 31A का संरक्षण प्राप्त होता है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कानून को अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है। अनुच्छेद 31B ऐसी कोई श्रेणी प्रदान नहीं करता जिसे सुरक्षा दी जानी चाहिए। प्रत्यर्थियो ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 31-B उन क़ानूनों को मान्य करने के लिए एक संवैधानिक तंत्र प्रदान करता है जिन्हें इस आधार पर रद्द कर दिया गया है कि उन्होंने संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है। जब किसी क़ानून को अनुसूची में शामिल किया जाता है, तो मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से संबंधित असंवैधानिकता के सभी दोष ठीक हो जाते हैं। 

आगे यह तर्क दिया गया कि जब भी कोई क़ानून नौवीं अनुसूची में डाला जाता है, तब भी वह सामान्य कानून ही रहता है। अनुच्छेद 31B का संरक्षण ऐसे क़ानून को नहीं मिलेगा, जो मूल संरचना का उल्लंघन करता हो और अभी भी अनुसूची में शामिल हो। प्रत्यर्थियो ने आगे तर्क दिया कि अनुच्छेद 31-B के तहत जिन क़ानूनों को सुरक्षा दी गई है, उनकी न्यायिक समीक्षा से पूरी तरह इनकार नहीं किया गया है। यह अनुच्छेद 368 की आवश्यकताओं और विधायी क्षमता के संबंध में किया जा सकता है। साथ ही, मौलिक अधिकारों को संशोधन योग्य, अछूत या पवित्र नहीं बनाया गया है। यदि यह संभव होता तभी यह तर्क दिया जा सकता था कि अनुच्छेद 31-B असंवैधानिक है क्योंकि यह असंसोधनीय मौलिक अधिकारों को निरस्त करने की अनुमति देता है। 

यह एक भ्रांति है कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से संबंधित मामलों में न्यायिक समीक्षा को उक्त अनुच्छेद और अनुसूची से बाहर रखा गया है। प्रत्यर्थी द्वारा यह तर्क दिया गया कि जब किसी क़ानून को अदालतों द्वारा असंवैधानिक घोषित किया जाता है, तो यह न तो लोगों की इच्छा को रद्द करता है और न ही संसद की संप्रभुता का अतिक्रमण करता है। इसी प्रकार, जब किसी निर्णय को संवैधानिक संशोधन द्वारा निष्प्रभावी कर दिया जाता है, तो न्यायालय के निर्णय की अवज्ञा नहीं होती है। प्रत्यर्थियो ने आगे तर्क दिया कि अनुच्छेद 31-B समय की कसौटी पर खरा उतरा है और संविधान का एक हिस्सा है, जिसे उन्हीं लोगों द्वारा अनुच्छेद 368 की शर्तों और आवश्यकताओं का अनुपालन करके वैध रूप से अधिनियमित किया गया था जिन्होंने संविधान और मौलिक अधिकारों को अधिनियमित किया था और मसौदा तैयार किया था। इसे लोगों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करने के उद्देश्य से नहीं बनाया गया था। 

प्रत्यर्थियो ने तर्क दिया कि किसी क़ानून को नौवीं अनुसूची में शामिल करने का एक कारण विभिन्न चुनौतियों और न्यायिक घोषणाओं के कारण इसकी वैधता के बारे में किसी भी अनिश्चितता को दूर करना और लंबी मुकदमेबाजी प्रक्रिया को रोकना है। भविष्य में ऐसे उदाहरण हो सकते हैं जहां अदालतों में संभावित चुनौतियों, विभिन्न निर्णयों और समय लेने वाली मुकदमेबाजी में खर्च होने वाले संसाधनों के कारण कानूनों को नौवीं अनुसूची में डालना होगा। प्रत्यर्थियो ने बताया कि नौवीं अनुसूची का विश्लेषण करने से पता चला कि उसमें मौजूद क़ानून ज्यादातर भूमि सुधारों से संबंधित हैं और किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं करते हैं। अनुसूची में क़ानून शामिल करने के मामले में संसद पर भरोसा किया जाना चाहिए और यह कि शक्ति का दुरुपयोग नहीं किया जाएगा। प्रत्यर्थियो ने बताया कि अनुच्छेद 31B संविधान के भाग III को पूरी तरह से समाप्त नहीं करता है, बल्कि उक्त अनुसूची में शामिल विशेष कानूनों को मौलिक अधिकारों के आधार पर चुनौती दिए जाने से छूट देता है। 

अदालत का फैसला

निर्णय लेने का कारण (रेशियो डिसाइडेंडी)

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि:

  • एक कानून जो संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों को निरस्त करता है, वह संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत का उल्लंघन भी कर सकता है और नहीं भी कर सकता है। हालाँकि, यदि कोई कानून निरस्त कर दिया जाता है और फिर भी नौवीं अनुसूची में डाला जाता है, तो इसकी वैधता का परीक्षण किया जाएगा, और यदि प्रदान किया गया है, तो इसे न्यायिक समीक्षा द्वारा अमान्य कर दिया जाएगा। 
  • यह निर्धारित करने के लिए कि क्या कोई क़ानून संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता है, संविधान के भाग III पर इसके प्रभावों पर विचार करना होगा। 
  • केशवानंद भारती मामले के फैसले के बाद उक्त अनुसूची में शामिल किए गए सभी क़ानूनों को संविधान की आवश्यक विशेषताओं के आधार पर परीक्षण करना होगा। इस प्रकार, भले ही किसी क़ानून को संशोधन के माध्यम से उक्त अनुसूची में डाल दिया गया हो, यदि यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तो इसे मूल संरचना के आधार पर चुनौती दी जा सकती है। 
  • क्या किसी क़ानून को नौवीं अनुसूची के तहत सुरक्षा दी जानी है, इसका निर्धारण ऐसे क़ानून द्वारा मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की प्रकृति और सीमा की जांच करके और संविधान की मूल संरचना के आधार पर, जैसा कि अनुच्छेद 14 और 19 के साथ अनुच्छेद 21 में परिलक्षित होता है, अधिकार परीक्षण लागू करके निर्धारित किया जाना चाहिए। अधिकार परीक्षण यह प्रदान करता है कि संशोधन का रूप प्रासंगिक कारक नहीं है, बल्कि इसके परिणाम निर्धारण कारक हैं। 
  • यदि उक्त अनुसूची में शामिल किए गए किसी क़ानून को न्यायालय द्वारा बरकरार रखा जाता है, तो उसे दोबारा चुनौती नहीं दी जा सकती। हालाँकि, यदि क़ानून को संविधान के भाग III का उल्लंघन माना जाता है और 24.04.1973 के बाद भी इसे नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है, तो इसे संविधान की मूल संरचना के आधार पर चुनौती दी जा सकती है। 

ओबिटर डिक्टा 

न्यायालय ने संविधान की पृष्ठभूमि, इसके उद्देश्य और इसकी स्थापना के बाद से अब तक हुए विकास पर विचार किया। इसमें पाया गया कि संविधान को जाति, पंथ, लिंग और धर्म के आधार पर गरीबी, अशिक्षा, अभाव और असमानताओं जैसी कई चुनौतियों और समस्याओं के विस्तृत अध्ययन के बाद तैयार किया गया था। संविधान सभा में होने वाली बहसें संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों और भाग IV में कल्याणकारी राज्य के दायित्वों के महत्व को प्रदान करती हैं। न्यायालय ने नौवीं अनुसूची और संवैधानिक संशोधनों से संबंधित विभिन्न निर्णयों पर विचार किया। 

यह देखा गया कि संसदीय और संवैधानिक संप्रभुता के बीच अंतर है। अनुच्छेद 14, 19 और 21 कानून के शासन और न्यायिक समीक्षा का आधार बनते हैं। संविधान में कोई भी प्रावधान जो पूर्ण कानून बनाने की शक्ति का प्रयोग करके तैयार या डाला गया है, अधिकारातीत (अल्ट्रा वायरस) नहीं हो सकता क्योंकि संविधान के बाहर इसकी वैधता को चुनौती देने का कोई आधार नहीं है। इसलिए, संशोधन की शक्ति संविधान की सीमा के भीतर होनी चाहिए। यह निर्धारित करने के लिए कि संविधान का कोई विशेष सिद्धांत या अनुच्छेद इसकी मूल संरचना के दायरे में आता है या नहीं, ऐसे सिद्धांत को मूल संरचना में जोड़ने के उद्देश्य और परिणामों पर विचार करना होगा। उदाहरण के लिए, शक्तियों के पृथक्करण (सेपरेशन) को संविधान की मूल संरचना का एक भाग माना गया है। 

न्यायालय ने पाया कि, जैसा कि पक्षों की दलीलों में कहा गया है, बिना किसी निर्धारित मानदंड के उक्त अनुसूची में कानूनों को शामिल करने की शक्ति का दुरुपयोग किया गया है। हालाँकि, केवल दुरुपयोग की संभावना किसी भी प्रावधान की वैधता निर्धारित करने के लिए एक वैध परीक्षण नहीं है। इस प्रकार, कथित दुर्व्यवहार के संबंध में कोई धारणा नहीं बनाई जा सकती। यह देखा गया कि नौवीं अनुसूची में कानूनों को संशोधित करने और सम्मिलित करने की शक्ति का प्रयोग मौलिक अधिकारों को पूरी तरह से हटाने पर आधारित है। दूसरा, उक्त अनुसूची में क़ानूनों का समावेश किसी भी मानदंड या कारकों द्वारा नियंत्रित नहीं होता है जिसका मूल्यांकन किया जा सके। इसके परिणामस्वरूप मौलिक अधिकार समाप्त हो जाते हैं और उन पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता है। 

आगे यह देखा गया कि मौलिक अधिकारों का उद्देश्य एक ऐसे समाज का निर्माण करके सामाजिक कल्याण और क्रांति को बढ़ावा देना है जिसमें सभी नागरिक राज्य के दबाव या प्रतिबंधों से मुक्त हों। मौलिक अधिकारों और डीपीएसपी की शुरुआत करके, संविधान निर्माताओं ने सरकार के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सार्वजनिक कल्याण के बीच एक मध्य मार्ग अपनाना अनिवार्य बना दिया। यह संतुलन संविधान का एक अनिवार्य घटक है। मौलिक अधिकार राज्य की शक्ति पर नियंत्रण प्रदान करते हैं। इस प्रकार, जब किसी क़ानून को उक्त अनुसूची में शामिल किया जाता है, तो यह अनुच्छेद 32 सहित संविधान के भाग III से पूरी तरह से प्रतिरक्षा है।

आगे यह देखा गया कि अनुच्छेद 31-B का मूल उद्देश्य सीमित संख्या में कानूनों की रक्षा करना था, लेकिन शक्ति के अनियंत्रित प्रयोग के कारण नौवीं अनुसूची में डाले गए क़ानूनों की संख्या 13 से 284 बढ़ गई है जो दर्शाता है कि यह है अब यह मात्र अपवाद नहीं है। इन शक्तियों के प्रयोग के संबंध में किसी भी दिशानिर्देश की अनुपस्थिति संवैधानिक नियंत्रण की अनुपस्थिति की ओर ले जाती है, जो इसकी सर्वोच्चता को नष्ट कर देती है और संसदीय आधिपत्य (हेगमोनी) पैदा करती है और ऐसे कानूनों और शक्ति की वैधता को चुनौती देने के लिए न्यायिक समीक्षा की अनुपस्थिति होती है। 

अदालत ने आगे कहा कि अनुच्छेद 31-B काल्पनिक प्रतिरक्षा के आधार पर वैधता तय करता है। संविधान संशोधन की वैधता का निर्णय करते समय प्रभाव परीक्षण लागू करना होगा। संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत के अनुसार राज्य को मौलिक अधिकारों के आक्रमण की डिग्री को उचित ठहराने की आवश्यकता है। ऐसी धारणा है कि संसद को ऐसे तरीके से कानून बनाना चाहिए जो मौलिक अधिकारों के अनुकूल हो। आक्रमण की डिग्री का निर्णय न्यायालय द्वारा किया जाना है। इसलिए सबसे पहले यह निर्धारित करना होगा कि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है या नहीं। दूसरा, इसके प्रभाव की जांच की जानी चाहिए और यदि यह सामने आता है कि यह संविधान की मूल संरचना को प्रभावित या नष्ट करता है, तो इसके परिणामों पर विचार किया जाना चाहिए। 

मामले में लागू कानून

संविधान का अनुच्छेद 31-B

संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा संविधान में अनुच्छेद 31-B डाला गया है। इसमें प्रावधान है कि संविधान की नौवीं अनुसूची में उल्लिखित कोई भी अधिनियम या विनियमन इस आधार पर शून्य नहीं होगा कि यह संविधान के भाग III में निहित अधिकारों के साथ असंगत या संक्षिप्त है, और वे ऐसे अधिनियम या विनियमों के विपरीत किसी भी न्यायालय के किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश के बावजूद लागू रहेंगे।

संविधान की नौवीं अनुसूची

भारत का संविधान एक जैविक या जीवंत दस्तावेज़ है। संविधान निर्माता यह भलीभांति जानते थे कि बदलते समय और समाज की जरूरतों के साथ संविधान में संशोधन की आवश्यकता है। भारत को जमींदारी प्रथा से मुक्त कराने के लिए संविधान में संशोधन करने की शक्ति विधायिका के हाथों में दे दी गई। संविधान में पहला संशोधन 1951 में हुआ जब नौवीं अनुसूची इस दस्तावेज़ का हिस्सा बन गई। इसमें केंद्रीय और राज्य कानूनों की एक सूची शामिल है जो न्यायिक समीक्षा से सुरक्षित हैं। प्रारंभ में, अनुसूची में 13 कानून थे, उन सभी का उद्देश्य भूमि सुधार था, लेकिन वर्तमान में, इसमें आरक्षण, व्यापार, उद्योग, खनन आदि को शामिल करने वाले 284 कानून शामिल हैं। भारत में भूमि सुधार लाने का उपकरण सरकारों के लिए कूड़ादान बन गया। असीमित क्षमता का संवैधानिक कूडादान। 

सरल शब्दों में कहें तो नौवीं अनुसूची ने न्यायपालिका के हाथ बांध दिये थे। यदि कोई कानून मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तो भी उसे न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नौवीं अनुसूची में रखकर न्यायपालिका द्वारा शून्य घोषित किए जाने से बचाया जा सकता है। नौवीं अनुसूची की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) प्रकृति की है। यदि किसी कानून को असंवैधानिक घोषित होने के बाद नौवीं अनुसूची में जोड़ा जाता है, तो उसे उसके प्रारंभ होने की तारीख से वैध और अनुसूची का हिस्सा माना जाएगा। 

मूल संरचना सिद्धांत

संविधान चौबीसवें संशोधन अधिनियम, 1971 की वैधता को संविधान पच्चीसवें संशोधन अधिनियम, 1972 और संवैधानिक (उन्नीसवें संशोधन) अधिनियम, 1972 के साथ, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में चुनौती दी गई थी, जिसे लोकप्रिय रूप से मौलिक अधिकार मामले से जाना जाता है। इस मामले में शामिल प्रश्नों में से एक यह था कि संविधान के अनुच्छेद 368 द्वारा प्रदत्त संशोधन शक्ति की सीमा क्या है? मामले की सुनवाई के लिए 13 न्यायाधीशों की एक विशेष पीठ का गठन किया गया था। फैसले में, अदालत ने माना कि अनुच्छेद 368 विधायिका को संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन करने की व्यापक शक्ति प्रदान करता है, जब तक कि यह संविधान के आवश्यक तत्वों या मूल संरचना को नुकसान या नष्ट नहीं करता है। इस मामले में, भारत में मूल संरचना का सिद्धांत अस्तित्व में आया। केशवानंद भारती मामले से पहले सर्वोच्च न्यायालय ने आई.सी गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य (1967) ने 6:5 के बहुमत से माना कि संसद को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान के भाग III में संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं है। 

मूल संरचना और कुछ नहीं बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए एक उपकरण या न्यायिक नवाचार है कि विधायिका अनुच्छेद 368 में दी गई शक्ति का दुरुपयोग नहीं करती है। मूल संरचना का हिस्सा क्या है इसकी कोई सटीक परिभाषा नहीं है। यह एक उभरती हुई अवधारणा है, और विभिन्न निर्णयों के माध्यम से, अब हमारे पास उन विशेषताओं की एक सूची है जो मूल संरचना का हिस्सा हैं। कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं:

  1. संविधान की सर्वोच्चता
  2. भारत की एकता और संप्रभुता
  3. सरकार का एक लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक स्वरूप।
  4. संविधान का संघीय चरित्र
  5. संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र
  6. शक्ति का पृथक्करण (सेपरेशन)
  7. व्यक्तिगत स्वतंत्रता
  8. कानून का शासन
  9. न्यायिक समीक्षा
  10. संसदीय प्रणाली
  11. समानता का नियम 
  12. मौलिक अधिकारों और डीपीएसपी के बीच सामंजस्य और संतुलन
  13. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव
  14. संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति सीमित है
  15. अनुच्छेद 32, 136, 142 और 147 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ
  16. अनुच्छेद 226 और 227 के तहत उच्च न्यायालय की शक्तियाँ।

यह केवल एक सांकेतिक सूची है, संपूर्ण सूची नहीं।

मामले का गंभीर विश्लेषण

वर्तमान मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 31-B और नौवीं अनुसूची के संबंध में अस्पष्टता को सही ढंग से स्पष्ट किया है। इसमें अनुच्छेद में दी गई शक्ति के निरंतर दुरुपयोग पर प्रकाश डाला गया है। वर्तमान मामले तक, ऐसे कोई मानदंड या कारक नहीं थे जो नौवीं अनुसूची में कानूनों को सम्मिलित करने का आधार निर्धारित करते हों। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित करने के लिए परीक्षण दिया कि क्या किसी विशेष क़ानून को उक्त अनुसूची के तहत सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 31-B को लागू करने के संविधान निर्माताओं के उद्देश्य और मूल इरादे पर भी प्रकाश डाला और कहा कि इसके दुरुपयोग के कारण, समय के साथ उक्त अनुसूची में क़ानूनों की संख्या 13 से 284 बढ़ गई है, जिसका अर्थ यह था कि यदि ये विशेष अधिनियम संविधान के भाग III का उल्लंघन करते हैं तो उन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती है। इस मुद्दे को उजागर करना होगा, अन्यथा यह न्यायालय की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को सीमित कर देगा। 

हालाँकि, आलोचकों का तर्क है कि न्यायपालिका केवल कानून और सार्वजनिक नीतियां बनाने के लिए विधायिका की शक्तियों को सीमित करने की कोशिश कर रही है। समय-समय पर एक नया सिद्धांत प्रतिपादित करना न केवल विधायिका के काम में बाधा डाल रहा है, बल्कि अस्पष्टता और भ्रम भी बढ़ा रहा है जो पहले से ही मूल संरचना सिद्धांत के आसपास है। न्यायपालिका ने कभी भी मूल संरचना की कोई सटीक परिभाषा नहीं दी है और न ही कोई पूरी सूची दी है जिसमें यह बताया गया हो कि मूल संरचना वास्तव में क्या है। न्यायामूर्ति मैथ्यू ने इंदिरा गांधी मामले (1975) में कहा था कि ‘संविधान के विशिष्ट प्रावधानों के अलावा आकाश में सर्वव्यापी के रूप में मूल संरचना की अवधारणा एक सामान्य कानून की वैधता के लिए एक पैमाना प्रदान करने के लिए बहुत अस्पष्ट और अनिश्चित है।’

निष्कर्ष 

विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं, और उनमें से प्रत्येक से अपने कार्य करने की अपेक्षा की जाती है। विधायी कार्य या कानून बनाने का कार्य संसद के हाथों में दे दिया गया है। संविधान में संसद की व्यापक शक्तियों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। दूसरी ओर, न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने और अस्पष्ट क्षेत्रों की पहचान करने की शक्ति दी गई है। संसद की एक ऐसी शक्ति, जो किसी भी कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डालकर उसे अदालतों में चुनौती देने से रोक सकती थी, को वर्तमान मामले में चुनौती दी गई थी। 

वर्तमान मामला सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए सबसे प्रभावशाली और महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक है, जहां इसने इस संबंध में संसद को दी गई शक्ति के निरंतर दुरुपयोग पर प्रकाश डाला और कुछ प्रतिबंध लगाकर दुरुपयोग को रोका। न्यायाधीशों ने कानूनों की व्याख्या की और खामियों की पहचान की। इसने संविधान के मूल संरचना के सिद्धांत पर भी जोर दिया और उस आधार को निर्धारित करने के लिए एक परीक्षण तैयार किया जिसके आधार पर उक्त अनुसूची में एक क़ानून डाला जा सकता है और न्यायिक समीक्षा तब भी की जा सकती है यदि यह संविधान के भाग III का उल्लंघन है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

कौन सा मामला मौलिक अधिकार मामले के नाम से प्रसिद्ध है?

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) का मामला लोकप्रिय रूप से मौलिक अधिकार मामले के रूप में जाना जाता है। 

संविधान में अनुच्छेद 31B कब जोड़ा गया था?

अनुच्छेद 31-B को 1951 में संविधान में पहले संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया था। 

क्या न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है?

हां, न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है। 

संदर्भ

 

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