यह लेख Gauri Saxena ने लिखा है, जो डॉ डी.वाई पाटिल कॉलेज ऑफ लॉ, नवी मुंबई से एलएलएम कर रही है। इस लेख में, भारत में एक बिल कानून कैसे बनता है, इसके विभिन्न चरणों और इसके पहलुओं पर विस्तृत शोध (रिसर्च) शामिल है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय
समाज और कानून अनादि काल से एक साथ चलते आ रहे हैं। समय और परिस्थिति के आधार पर समाज अपने नागरिकों की सुरक्षा और कल्याण के लिए कानून बनाते है। कानूनों के बिना, समाज एक जंगल से थोड़ा अधिक होगा जहां लोग अपनी सबसे बुनियादी जरूरतों पर संघर्ष करेंगे और तब अराजकता (अनार्की) शासन करेगी, जो किसी भी प्रकार की सभ्यता के लिए विनाशकारी है। कानून बनाना संसद का मौलिक कर्तव्य है। संसद द्वारा विचार किए जाने के लिए, सभी प्रस्तावित कानूनों को बिल के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। जब तक इसे संसद के दोनों सदनों और भारत के राष्ट्रपति द्वारा पारित नहीं किया जाता है, एक बिल, जो एक मसौदा (ड्राफ्ट) क़ानून है, को कानून नहीं कहा जा सकता है। सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने और नागरिकों की रक्षा करने के लिए सरकार के सबसे महत्वपूर्ण साधनों में से एक कानून है। अन्य उद्देश्यों के अलावा, यह उन व्यक्तियों और अधिकारियों के कर्तव्यों और अधिकारों को स्थापित करता है जिन पर कानून लागू होते है। हालांकि, जब तक प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) या प्रतिशोध (रिट्रिब्यूशन) नहीं होता है, तब तक कानून का बहुत कम उपयोग होता है।
भारत में कानून के पीछे का इतिहास
अंग्रेजों के जमाने से पहले
सामान्य कानून और धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) कानूनी ढांचे से गुजरते हुए, भारत की कानूनी व्यवस्था धार्मिक शिक्षा से आधुनिक संविधान और हमारे पास मौजूद कानूनी ढांचे तक विकसित हुई है। देश के प्रलेखित (डॉक्यूमेंटेड) विधायी इतिहास के अनुसार, जो कि वैदिक युग से पहले का है, भारत में कांस्य युग (ब्रोंज एज) और हड़प्पा सभ्यता में एक नागरिक व्यवस्था मौजूद हो सकती है। भारत में, धर्म और बौद्धिक (इंटेलेक्चुअल) चर्चा से सैद्धांतिक (डॉक्ट्रिनल) मार्गदर्शन के विषय के रूप में कानून का एक विशिष्ट इतिहास है। यह एक समृद्ध क्षेत्र था जिसे बाद में जैन और बौद्धों के विद्वानों ने मजबूत किया था। यह वेदों, उपनिषदों और अन्य पवित्र ग्रंथों से निकला था और कई हिंदू दार्शनिक स्कूलों से प्रभावित था।
अलग अलग क्षेत्र और अलग अलग नेताओं से, भारत में धर्मनिरपेक्ष कानून काफी अलग था। प्राचीन भारत में कई शासी वंशों में महत्वपूर्ण कारक थे, जैसे कि दीवानी (सिविल) और आपराधिक अदालत प्रणाली। मुगलों ने आधुनिक सामान्य कानून व्यवस्था को उत्पन्न किया, लेकिन मौर्य और मुगल दोनों के पास महान धर्मनिरपेक्ष अदालत प्रणाली थी।
ब्रिटिश काल के बाद
‘वकील’, या अधिवक्ता, जो मुगल न्यायिक व्यवस्था का हिस्सा थे, वह भी समय के साथ बदल गए, और उन्होंने बड़े पैमाने पर अपने मुवक्किल (क्लाइंट) का प्रतिनिधित्व करने के अपने पिछले कार्य को बनाए रखा। चूंकि केवल अंग्रेजी, आयरिश और स्कॉटिश पेशेवर संगठनों के सदस्यों को दर्शकों का अधिकार दिया गया था, भारतीय पेशेवर नए स्थापित सर्वोच्च न्यायालय में प्रवेश करने में असमर्थ थे। नियमों और कानूनों का पालन करते हुए, 1846 के लीगल प्रैक्टिशनर्स एक्ट ने इस पेशे को किसी भी व्यक्ति द्वारा अभ्यास करने की अनुमति दी, चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो।
पहले विधि आयोग (कमिशन) की स्थापना ने कानून को संहिताबद्ध (कोडिंग) करने की आधिकारिक शुरुआत की। 1862 तक, भारतीय दंड संहिता को मैकॉले के निर्देशन में लिखा गया, कानून के रूप में पारित किया गया और लागू किया गया था। दंड प्रक्रिया संहिता लिखने के लिए भी यही आयोग जिम्मेदार था।
आजादी के बाद
एक दस्तावेज जो नए स्वतंत्र देश के संविधान के रूप में काम करेगा, उसे उस समय नव स्वतंत्र भारत की संसद में लिखा जा रहा था। युवा राष्ट्र के लिए संविधान बनाने का कार्य बी.आर अंबेडकर को सौंपा गया था। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीय बार के महत्व को कम करके आंकना मुश्किल है; यह तथ्य कि वकीलों ने सभी राजनीतिक विचारधाराओं में आंदोलन के महान नेताओं के बहुमत को बनाया है, यह पर्याप्त सबूत है। संविधान के संस्थापको (फाउंडिंग फादर) को न्याय की परिणामी प्रणाली और समाज के साथ उसके संबंध द्वारा सीमा के संदर्भ में अद्वितीय (अनपैरलल) अनुपात का संविधान बनाने के लिए आवश्यक प्रयास करने के लिए प्रेरित किया गया था।
भारत में कानून व्यवस्था का एक स्वाभाविक परिणाम जैविक (ऑर्गेनिक) कानून है। यह न्यायिक फैसलों और कानूनी संस्थानों के माध्यम से भारतीय परिस्थितियों के लिए तैयार किया गया है। स्वतंत्र रूप से किए जाने के बावजूद, भारतीय विधायिका में सामाजिक दृष्टिकोण से बदलाव को अन्य सामान्य कानून अधिकार क्षेत्रों (ज्यूरिस्डिक्शन) में प्रवृत्तियों को प्रतिबिंबित (रिफ्लेक्ट) करने के लिए देखा जा सकता है।
भारतीय विधायिका, केवल ब्रिटिश उपनिवेशवादियों (कॉलोनाइजर) की रचना से दुनिया में सबसे महान लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण कारक बन गई है और सभी लोगों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ाई में एक महत्वपूर्ण मोर्चा बन गई है।
भारत में बिल के प्रकार
बिल पांच प्रकार के होते हैं।
- साधारण बिल
- वित्तीय (फाइनेंस) बिल
- धन बिल
- संविधान संशोधन बिल
- अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) की जगह लेने वाला बिल
साधारण बिल
यह बिल, वित्तीय मामलों को छोड़कर किसी भी विषय को संबोधित कर सकता है। एक साधारण बिल संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा साकता है। एक मंत्री या निजी सदस्य ही इस बिल को प्रस्तावित करते है। साधारण बिल की स्थिति में राष्ट्रपति का कोई प्रस्ताव नहीं होता है। राज्यसभा के पास सामान्य बिलों में संशोधन या उन्हें अस्वीकार करने और उन्हें छह महीने तक रखने का अधिकार है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 111 के तहत, इसे राष्ट्रपति को संसद के दोनों सदनों द्वारा उनकी सहमति के लिए दिया जाता है। साथ ही इन बिलों के लिए संयुक्त बैठक की अनुमति है।
वित्तीय बिल
केंद्रीय बजट में वित्तीय बिल होता है, जो वित्त मंत्री द्वारा सुझाए गए कराधान (टैक्सेशन) सुधारों के लिए आवश्यक सभी विधायी समायोजनों (एडजस्टमेंट) को निर्दिष्ट करता है। इस प्रकार, एक बिल को वित्तीय बिल तब माना जाता है जब इसमें अन्य मुद्दों को संबोधित करते हुए सरकारी खर्च शामिल हो। लोकसभा से स्वीकृति मिलने के बाद वित्तीय बिल एक वित्त अधिनियम में विकसित हो जाता है।
धन बिल
जब किसी बिल में विशेष रूप से करों, सरकारी उधारी और भारत की संचित निधि (कंसोलिडेटेड फंड) से खर्च या भारत की संचित निधि में प्राप्तियों (रिसिप्ट) से संबंधित प्रावधान होते हैं, तो इसे धन बिल कहा जाता है। बिल को धन बिल तब भी माना जा सकता है जब उनमें केवल इन विषयों के सहायक तत्व शामिल हों। भारत के संविधान के अनुसार, किसी भी कर का अधिरोपण (इंपोजिशन), विलोपन (एन्नलमेंट), संशोधन या प्रतिबंध धन बिल में निहित होता है। स्थानीय कर, हालांकि, धन बिल में शामिल नहीं किए जाते हैं और स्थानीय रूप से नहीं लगाए जा सकते हैं।
कोई बिल धन बिल है या नहीं, यह अंततः लोकसभा के स्पीकर द्वारा निर्धारित किया जाता है। इसके अलावा, कोई भी राष्ट्रीय अदालत इस आदेश के खिलाफ किसी मामले की सुनवाई नहीं कर सकती है।
केवल लोकसभा को ही यह बिल प्राप्त होता है, और विशेष रूप से, एक मंत्री एक प्रस्तावना (प्रीफेस) बना सकता है। राष्ट्रपति के प्रस्ताव पर धन बिल पेश किया जाता है। राज्य सभा के पास इस उपाय को बदलने या अस्वीकार करने का कोई अधिकार नहीं है। राज्यसभा इसे 14 दिन की समय सीमा तक रख सकती है। लोकसभा द्वारा पारित होने के बाद, धन बिल बाद में भारत के राष्ट्रपति को उनकी सहमति के लिए दिया जाता है। धन बिल के मामले में संयुक्त बैठक की अनुमति नहीं है।
संविधान संशोधन बिल
इस शब्द का उपयोग उन बिलों का वर्णन करने के लिए किया जाता है जिनका उद्देश्य भारत के संविधान में खंड को बदलना है, अर्थात् वे जो अनुच्छेद 368 (2) के परंतुक (प्रोविसो) में शामिल हैं। ऐसे बिल संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। जब भी किसी निजी सदस्य द्वारा कोई बिल पेश किया जाता है, तो निजी सदस्यों के बिलों और संकल्प संबंधी समिति को पहले बिल की समीक्षा (रिव्यू) करनी चाहिए और सुझाव देना चाहिए कि इसे पेश करने के लिए विषयो की सूची में जोड़ने से पहले इसे लाया जाना चाहिए या नहीं। साधारण बहुमत के नियम का उपयोग बिलों को पेश करने के प्रस्तावों को तय करने के लिए किया जाता है।
अध्यादेश की जगह लेने वाले बिल
भारत के संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत राष्ट्रपति द्वारा जारी एक अध्यादेश को बदलने के लिए, संशोधन के साथ या बिना संशोधन के, यह बिल संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
सरकारी बिल और निजी बिल में अंतर
भले ही निजी सदस्य और मंत्री दोनों कानूनों के प्रारूपण (ड्राफ्टिंग) में भाग लेते हैं, निजी सदस्यों द्वारा प्रस्तुत बिलों को ‘निजी सदस्य के बिल’ के रूप में जाना जाता है और मंत्रियों द्वारा प्रस्तुत बिलों को ‘सरकारी बिल’ के रूप में जाना जाता है।
एक बिल और एक अधिनियम के बीच अंतर
एक बिल, नया कानून लिखने की एक पहल है। कानून लाने का प्रस्ताव एक दस्तावेज के रूप मे होता है जो प्रस्तावित कानून की संरचना और उस नीति को रेखांकित करता है, जो इसे मजबूत बनाता है। संसद का कोई सदस्य किसी बिल का प्रस्ताव कर सकता है, जैसा कि संसद या राज्य सरकारें कर सकती हैं।
बहस के बाद निचले सदन से पारित होने के बाद बिल सहमति के लिए उच्च सदन में जाता है। भारतीय राष्ट्रपति को उच्च सदन द्वारा बिल के पारित होने की सूचना दी जाती है और उस पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा जाता है। संसद द्वारा बिल को मंजूरी मिलने के बाद एक अधिनियम या क़ानून बनाया जाता है। प्रस्तावित कानून हमेशा कानून के रूप में पारित नहीं होता है।
दूसरी ओर, राष्ट्रपति या राज्यपाल (गवर्नर) को, इस पर निर्भर करते हुए कि बिल एक केंद्रीय कानून है या राज्य का कानून है, विधायिका द्वारा इसे मंजूरी देने और उस पर हस्ताक्षर करने के लिए कहने के बाद अधिसूचित (नोटिफाई) किया जाता है। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद यह एक अधिनियम बन जाता है।
विधायिका, जैसे राज्य विधान सभा या संसद, अधिनियमों के माध्यम से कानून बनाती है। इस अधिनियम के लागू होने के बाद इसे संशोधित या निरस्त (रिपील) करने का एकमात्र तरीका एक नया अधिनियम पारित करना है। नतीजतन, एक कानून को बदला जा सकता है या कानून के एक हिस्से द्वारा एक नया कानून बनाया जा सकता है।
जब इस कानून को लागू किया जाता है, तो यह एक राष्ट्रीय कानून बन जाता है जो पूरे देश पर लागू हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है।
भारत में कोई बिल कानून कैसे बनता है?
साधारण बिल
एक साधारण बिल को कानून बनने के लिए पांच चरणों से गुजरना पड़ता है।
चरणों | विवरण |
चरण 1:
प्रथम पाठन |
किसी मंत्री या सदन के सदस्य द्वारा, संसद के दो सदनों में से एक में ‘प्रथम पाठन’ पर बिल पेश किया जाता है। बिल पेश करने से पहले उसे अनुमति मांगनी चाहिए। उसके बाद, उपाय का शीर्षक और उद्देश्य जोर से पढ़ा जाता है। इसे बिल को आगे बढ़ाने या बिल पेश करने के लिए प्रस्ताव बनाने के रूप में जाना जाता है।
विपक्ष ऐसे बिल को पेश करने का खंडन कर सकते है। विरोधी दल का कोई भी सदस्य बिल को पेश करने पर आपत्ति कर सकते है। स्पीकर उन्हें यह समझाने की अनुमति दे सकता है कि क्यों वह ऐसा सोचते है। स्पीकर के अनुसार, यह मुद्दा तब मतदान के लिए जाएगा। यदि सदन बिल को पेश करने को मंजूरी देता है, तो अगला कदम उठाया जाता है और बिल को पेश किया जाता है। इसके बाद बिल को प्रस्तुत किया जाता है, उसके बाद भारतीय राजपत्र (गैजेट) में इसका प्रकाशन किया जाता है। यह भी याद रखना महत्वपूर्ण है कि इस समय कोई विधायी संवाद नहीं होता है। |
चरण 2: द्वितीय पाठन | द्वितीय पठान दो चरणों में विभाजित होता है: पहला चरण जब बिल के मूल विचार पर चर्चा की जाती है, तो इसमें पूर्ण रूप से बिल की चर्चा होती है। अब यह सदन या दोनों सदनों की संयुक्त या प्रवर समिति (सिलेक्ट कमिटी) पर निर्भर है कि वह इसे तुरंत स्वीकार करे या प्रतिक्रिया (फीडबैक) प्राप्त करने के लिए इसका प्रचार करे। यदि किसी संयुक्त या प्रवर समिति को बिल की समीक्षा करने का कार्य दिया जाता है, तो वे उसे सदन की तरह, खंड दर खंड करते हैं। समिति के सदस्यों को विभिन्न खंडों में संशोधन पेश करने का अधिकार है। संघों, सरकारी एजेंसियों और मूल्यांकन में शामिल होने के इच्छुक पेशेवरों के अलावा, समिति उनकी गवाही भी सुन सकती है। समिति तब अपना बयान सदन के सामने रखती है, और समिति की रिपोर्ट के आलोक में बिल पर पुनर्विचार करती है। जब कोई बिल ऐसा करने के लिए प्रचारित किया जाता है तो राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों का उपयोग, जनता की राय लेने के लिए किया जाता है। विचार लिए जाने और सदन के पटल (टेबल) पर रखे जाने के बाद बिल को संयुक्त या प्रवर समिति को भेजने का प्रस्ताव अवश्य किया जाना चाहिए। इस बिंदु पर आम तौर पर बिल के मूल्यांकन के लिए प्रस्ताव पेश करने की अनुमति नहीं होती है। द्वितीय चरण प्रस्तावित विधान या संयुक्त समिति की रिपोर्ट का खंड-दर-खंड विश्लेषण द्वितीय पाठन के इस भाग के दौरान किया जाता है। इस सत्र के दौरान, बिल के प्रत्येक खंड को गहराई से देखा जाता है, और खंडों में प्रस्तावित परिवर्तनों को किया जाता है। उपयुक्त खंडों पर सदन के मतदान से पहले, एक खंड में संशोधन जो पेश किए गए हैं लेकिन अभी तक रद्द नहीं किए गए हैं, उन्हें सदन के मतदान के लिए रखा जाता है। यदि उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत द्वारा अनुमोदित (अप्रूव) किया जाता है, तो संशोधनों को बिल के अंतिम पाठ में शामिल किया जाता है। एक बार जब खंड, अनुसूचियां, और, यदि लागू हो, खंड 1, ‘अधिनियमन सूत्र (इनैक्टेड फॉर्मूला)’, को सदन द्वारा अनुमोदित कर दिया जाता है, तो बिल का दूसरा पाठन पूरा माना जाता है। संयुक्त समिति के सदस्य को दोनों सदनों से लिया जाता हैं। चयन समिति सदन की प्रवर समिति के सदस्य वे होते हैं जिनके लिए बिल पेश किया जाता है। |
चरण 3: तृतीय पाठन | इसके बाद प्रभारी सदस्य द्वारा बिल को पारित करने का प्रस्ताव किया जा सकता है। इस बिंदु पर चर्चा बिल के पक्ष और विपक्ष में तर्कों तक सीमित है, इससे अधिक जानकारी के बिना, जो अत्यंत महत्वपूर्ण है।
इस समय केवल वही संशोधन प्रस्तुत किए जा सकते हैं जो औपचारिक (फॉर्मल), अलिखित या परिणामी हैं। एक साधारण बिल को पारित करने के लिए, इसे उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। हालाँकि, संविधान में संशोधन करने वाले बिल को पारित करने के लिए, उसे संसद के प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई सदस्यों के साथ-साथ सदन के ज्यादातर सदस्यों का समर्थन प्राप्त करना होता है। |
चौथा चरण: दूसरे सदन में बिल भेजना | इस चरण में, तीनों पाठन पहले की तरह ही होते हैं। इस समय चार संभावनाएं मौजूद होती हैं: बिना किसी शुल्क के, बिल को सदन द्वारा अनुमोदित किया जाता है। विधेयक को दूसरी बार चर्चा करने के लिए, संशोधनों के साथ पहले (पिछले) सदन में वापस भेजा जा सकता है। इसमें बिल को खारिज करने या इसे लंबित रखने का विकल्प है। जब छह महीने के लिए किसी मामले पर निष्क्रियता (इनैक्शन) से डेडलॉक उत्पन्न होता है, तो राष्ट्रपति एक संयुक्त बैठक बुलाते हैं, जहां ज्यादातर सदस्य बिल को पारित करने के लिए मतदान करते हैं। |
पांचवां चरण: राष्ट्रपति की सहमति | दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित बिल पर, राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षर किए जाते हैं। लोकसभा सचिवालय (सेक्रेटरिएट) धन बिल या सदनों की संयुक्त बैठक में पारित बिल के विशिष्ट उदाहरण में राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त करता है। राष्ट्रपति की सहमति मिलने के बाद ही कोई बिल अधिनियम बनता है। किसी बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल भी सकती है या नहीं भी मिल सकती है। जब तक कि यह धन बिल न हो, राष्ट्रपति सिफारिशों के साथ आगे के विचार के लिए बिल को वापस सदन में भी भेज सकते हैं। हालाँकि, यदि सदन संशोधनों के साथ या बिना संशोधन के बिल पारित करते हैं, तो राष्ट्रपति को अपने हस्ताक्षर वापस लेने की अनुमति नहीं है। |
धन बिल
चरण | विवरण |
चरण 1: परिचय | राष्ट्रपति की सलाह पर, धन बिल केवल निचले सदन में प्रस्तुत किए जाते हैं, जबकि साधारण बिल किसी भी सदन में पेश किए जाते हैं। एक बार जब निचले सदन ने बिल को मंजूरी दे दी, तो इसे उच्च सदन में भेज दिया जाता है, जिसके पास कम अधिकार होता है और वह कानून को खारिज या बदल नहीं सकता है। |
चरण 2: राज्यसभा की शक्तियां | धन बिलों पर राज्य सभा का अधिकार इस प्रकार है: संशोधनों की सिफारिशों के साथ या बिना, राज्य सभा को बिल को 14 दिनों में वापस करना होता है। यह माना जाता है कि यदि बिल को दिए गए समय सीमा के भीतर वापस नहीं किया जाता है तो बिल पारित हो जाता है। राज्यसभा द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को लोकसभा द्वारा स्वीकार किया जा भी सकता है या नहीं भी किया जा सकता है। |
चरण 3: सहमति | बिल को दोनों सदनों से मंजूरी मिलने के बाद राष्ट्रपति की सहमति जरूरी है। उसके पास निम्नलिखित विकल्प हैं: ‘हाँ’ के रूप में मतदान दें, या ‘हाँ’ कहने से इनकार करें, हालाँकि, वह बिल को संशोधन के लिए वापस नहीं भेज सकता। |
चरण 4: बिल एक अधिनियम बन जाता है | प्रस्तावित कानून को, राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद भारतीय क़ानून की पुस्तक में एक अधिनियम के रूप में जारी किया जाता है। |
संविधान संशोधन बिल
चरण | विवरण |
चरण 1: परिचय | एक मंत्री या संसद का एक निजी सदस्य बिल पेश करता है। |
चरण 2: अनुमोदन | इसे प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ सदन के कुल सदस्यों के उपस्थित सदस्यों की विशेष बहुमत (50% से अधिक) द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। डेडलॉक की स्थिति में संयुक्त बैठक की अनुमति नहीं है। |
चरण 3: संघीय प्रावधानों के मामले में संशोधन | आधे राज्यों की विधायिका को साधारण बहुमत से या सदन के उन सदस्यों, जो संविधान के संघीय प्रावधानों को संशोधित करते हैं की बहुमत से बिल को मंजूरी देनी चाहिए। |
चरण 4: सहमति | साधारण बिलों के विपरीत, यहां राष्ट्रपति को सहमति देनी चाहिए और वह बिल को अस्वीकार या वापस करने में असमर्थ है। |
वित्तीय बिल
चरणों | विवरण |
चरण 1: परिचय | केवल राष्ट्रपति की सिफारिश पर ही कोई वित्तीय बिल लोकसभा में प्रस्तुत किया जा सकते है। |
चरण 2: अनुमोदन | राष्ट्रपति द्वारा यह सुझाव देने के बाद कि प्रत्येक सदन में बिल पर विचार किया जाए, इसे संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। इसके अलावा, राज्यसभा बिल में बदलाव का सुझाव दे सकती है। पेश होने के बाद, बिल को संसद में मंजूरी के लिए 75 दिनों का समय है। |
अध्यादेश की जगह लेने वाले बिल
चरणों | विवरण |
चरण 1: अध्यादेश का परिचय | अध्यादेश तैयार होने के बाद संसद की पहली बैठक के छह सप्ताह के भीतर, उसके समक्ष रखा जाना चाहिए। अध्यादेश में विधायिका के विवेक पर बनने या समाप्त होने का विकल्प होता है। |
चरण 2: अध्यादेश को बदलने के लिए बिल | संसद के समक्ष अध्यादेश रखे जाने के बाद उसी मुद्दे को संबोधित करने के लिए बनाया किया गया एक बिल सरकार द्वारा पेश किया जाता है। इस बिल का उद्देश्य उन कारकों पर जोर देना है, जिन्होंने अध्यादेश जारी करना आवश्यक बना दिया है। बिल तब मानक (स्टैंडर्ड) विधायी प्रक्रिया के अनुसार आगे बढ़ता है। |
एक संयुक्त समिति क्या है?
लोकसभा और राज्यसभा दोनों के सदस्य, संसदीय समितियों का बहुमत बनाते हैं। संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) एक विशेष लक्ष्य और समय सीमा को ध्यान में रखकर तैयार की गई एक तदर्थ (एड हॉक) निकाय है। संयुक्त समितियां बनाने के लिए संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित और एक सदन में पारित प्रस्ताव की आवश्यकता होती है। इसका उद्देश्य उन विशिष्ट बिलों को देखना है जो संसद के समक्ष लाए गए हैं या सरकारी गतिविधियों के सभी रूपों में वित्तीय अनियमितताओं (इर्रेगुलेरिटी) के उदाहरणों को देखना है।
एक जेपीसी की स्थापना के लिए एक प्रस्ताव को एक सदन में पारित होना चाहिए और दूसरे सदन से समर्थन प्राप्त करना चाहिए। संसद, समिति के सदस्यों का चयन करती है। परिवर्तनीय सदस्यता की गणना करना संभव है। राज्यसभा की तुलना में लोकसभा के सदस्यों की संख्या दोगुनी है।
संसद में बिल कौन पेश कर सकता है?
एक बिल को मंत्री के अलावा किसी अन्य सदस्य द्वारा और साथ ही एक मंत्री द्वारा पेश किया जा सकता है। इसे पहले उदाहरण में ‘सरकारी बिल’ और दूसरे में ‘निजी सदस्य का बिल’ कहा जाता है। दुर्भाग्य से, बहुमत न होने के स्पष्ट कारणों से, निजी सदस्य के बिल शायद ही कभी संसद में पारित होते हैं।
धन बिल पेश करने में दोनों सदनों की शक्तियां
लोकसभा एकमात्र ऐसा सदन है जहां धन बिल पेश किए जा सकते हैं। एक धन बिल जिसे लोकसभा द्वारा अनुमोदित किया गया है और राज्यसभा को भेजा गया है, उसे (राज्य सभा) द्वारा 14 दिनों के भीतर सिफारिशों के साथ या बिना सिफारिशों के वापस किया जाना चाहिए। राज्यसभा द्वारा की गई सिफारिशें लोकसभा द्वारा स्वीकृति या अस्वीकृति के अधीन हैं। हालाँकि, यदि राज्य सभा 14 दिनों के भीतर इसे वापस करने में विफल रहती है, तो बिल को लोकसभा और राज्यसभा दोनों द्वारा अनुमोदित माना जाता है।
किसी बिल को अधिनियम बनने में लगने वाला औसत (एवरेज) समय
एक रिपोर्ट के अनुसार, 2006 और 2015 के बीच संसद में बिलों को कानून बनाने में लगने वाला औसत समय 261 दिन निकला।
कानून बनाने में राष्ट्रपति की भूमिका
किसी बिल को पारित करने के संदर्भ में, राष्ट्रपति के विशिष्ट कर्तव्य होते हैं। संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित होने के बाद उसे एक अधिनियम बनने के लिए एक बिल की पुष्टि करनी होती है। जब किसी बिल को दोनों सदनों से अनुमोदन प्राप्त करने के बाद राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो उसके पास अपनी सहमति देने या अनुपस्थित रहने का विकल्प होता है। हालाँकि, यदि राष्ट्रपति द्वारा बिल पर सहमति देने से इनकार करने के जवाब में, संसद दूसरी बार बिल, या तो संशोधन के साथ या बिना संशोधन के पारित करती है तो राष्ट्रपति को अनुच्छेद 111 के तहत अपनी सहमति देने से इनकार करने की अनुमति नहीं है। वह अपनी स्वीकृति देने के लिए बाध्य है।
कुछ परिस्थितियों में, कानून पेश करने से पहले राष्ट्रपति का अनुमोदन प्राप्त करना आवश्यक है। नए राज्य की स्थापना या किसी मौजूदा राज्य या राज्यों की सीमाओं को बदलने वाले बिल को संसद में पेश करने से पहले राष्ट्रपति को पहले अपनी मंजूरी देनी होती है। एक अन्य उदाहरण जहां संविधान द्वारा राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक है, वह एक धन बिल है।
राज्यों में कानून बनाने की प्रक्रिया
केंद्रीय संसद की तरह ही राज्य विधायिका की मुख्य जिम्मेदारी कानून बनाना है।
राज्य सूची और समवर्ती (कंकर्रेंट) सूची के तहत दिए गए विषयों पर कानून केवल राज्य विधायिका द्वारा पारित किए जा सकते हैं। यदि राज्य विधायिका द्विसदनीय (बईकेमेरल) है, तो साधारण बिल किसी भी सदन में पेश किए जा सकते हैं, लेकिन धन बिल पहले विधानसभा में ही पेश किए जाने चाहिए। राज्यपाल को दोनों सदनों द्वारा बिल के पारित होने की सूचना दी जाती है और उस पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा जाता है। बिल को पुनरीक्षण (रिवीजन) के लिए राज्यपाल को लौटाया जा सकता है। विधायिका द्वारा इस बिल को एक बार फिर पारित करने पर राज्यपाल को अपनी स्वीकृति देनी चाहिए।
दोनों सदनों की सहमति प्राप्त करने के बाद, जैसा कि अनुच्छेद 200 में कहा गया है, बिल को फिर राज्यपाल के पास भेजा जाता है। इसके बाद राज्यपाल के पास अनुमोदन या अस्वीकृत करने का विकल्प होता है। इसके अलावा, उसके पास राष्ट्रपति की समीक्षा के लिए अपनी सहमति न देने का विकल्प होता है।
यहां, राज्यपाल को बिल के साथ सिफारिश का संदेश तुरंत राज्य विधायिका को वापस भेजना चाहिए। इस मामले में विधायिका के पास इन सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार करने का विकल्प होता है, और बिल को एक बार फिर राज्यपाल के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है। इस बिंदु पर उनके पास केवल दो विकल्प बचते हैं: या तो वे बिल पर अपनी सहमति देंगे, या वह इसे राष्ट्रपति के भविष्य के विचार के लिए सुरक्षित रखेंगे।
विधायी सत्र की अनुपस्थिति में, राज्यपाल राज्य से संबंधित मामलों पर एक अध्यादेश जारी कर सकता है। अध्यादेश कानूनी रूप से बाध्यकारी होते हैं। जब राज्य विधायिका का पुनर्गठन होता है, तो जारी किए गए अध्यादेश उनके सामने लाए जाते हैं। यदि विधायिका छह सप्ताह पूरे होने से पहले इसे अस्वीकार नहीं करती है, तो वह उस समय के बाद काम करना बंद कर देती है। अध्यादेश को एक नियमित बिल द्वारा प्रतिस्थापित (रिप्लेस) किया जाता है जो विधायिका द्वारा पारित किया जाता है और कानून बन जाता है। विधायिका के पुन: संयोजन (रीअसेंबली) के बाद, यह आम तौर पर छह सप्ताह के भीतर पूरा हो जाता है।
निष्कर्ष
एक बिल को कानून बनने से पहले विभिन्न चरणों से गुजरना पड़ता है, जो किसी भी समाज को बनाए रखने और फलने-फूलने के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण चीज है। राज्य के कानून के माध्यम से कानून पारित करने की प्रक्रिया संघ के कानून के लगभग समान है। नतीजतन, संसद द्वारा मसौदा बिलों को मंजूरी मिलने के बाद ही संसद उन सरकारी कार्यों का उपयोग करती है जो भारतीय संविधान में शामिल हैं। विधान की वर्तमान अवधि आवश्यकता से थोड़ी अधिक लंबी प्रतीत होती है। अब समय आ गया है कि इस प्रक्रिया को तेज किया जाए ताकि हमें देश की जरूरतों के हिसाब से नए कानून मिल सकें।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या ऐसा कभी हुआ है कि एक निजी सदस्य का बिल कानून बना है?
पीआरएस विधान के अनुसार, 1970 के बाद से, संसद ने एक भी निजी सदस्य के बिल को मंजूरी नहीं दी है।
भारत में कितने निजी बिल पारित किए गए हैं?
संसद द्वारा अब तक 14 निजी बिलों को मंजूरी दी जा चुकी है, जिसमें 1956 में 6 बिल शामिल हैं।
क्या सभी बिलों को पहले लोकसभा में पेश किया जाना चाहिए?
नहीं, लोकसभा में पहले केवल वित्त बिल और धन बिल को पेश करना होता है। बाकी बिल किसी भी सदन में पेश किए जा सकते हैं।
यह कौन निर्धारित करता है कि कोई बिल धन बिल है या नहीं?
कोई बिल धन बिल है या नहीं यह अंततः लोकसभा के स्पीकर द्वारा तय किया जाता है। इसके अलावा, देश की कोई भी अदालत इस आदेश के खिलाफ किसी मामले की सुनवाई नहीं कर सकती है।
एक निजी सदस्य कौन है?
एक सांसद जो मंत्री नहीं है उसे ‘निजी सदस्य’ कहा जाता है।
संदर्भ