यह लेख Sai Manoj Reddy द्वारा लिखा गया है जो लॉसिखो से एडवांस्ड सिविल लिटिगेशन: प्रैक्टिस प्रोसीजर एंड ड्राफ्टिंग में सर्टिफिकेट कोर्स कर रहे हैं। लेख का संपादन Prashant Baviskar (एसोसिएट लॉसिखो) और Ruchika Mohapatra (एसोसिएट लॉसिखो) ने किया है। यह लेख सीपीसी के तहत लागत और लागत लगाने के लिए उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र पर कानूनी मामलों और विधि आयोग की सूचना के माध्यम से चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Deeksha Singh द्वारा किया गया है।
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परिचय
हर कोई जिसने सिविल प्रैक्टिस में एक वाद या किसी प्रकार के आवेदन या याचिका को देखा है या उसका मसौदा (ड्राफ़्ट) तैयार किया है उसने देखा होगा कि हमेशा एक प्रार्थना होती है कि न्यायालय “मुकदमे की लागत” (कॉस्ट टू द सूट) तय करे। यह एक प्रारूप बन गया है और बहुत अधिक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है लेकिन बहुत से लोग यह नहीं जानते हैं कि लागत की अवधारणा (कांसेप्ट) को कहां और किस क़ानून के तहत निपटाया जाता है। एक सिविल मुकदमे में लागत को एक पक्ष द्वारा दावा किए गए मुआवजे या नुकसान के साथ भ्रमित नहीं करना चाहिए क्योंकि दोनों पूरी तरह से अलग अवधारणाएं हैं जिन्हें इस लेख में आगे समझाया जाएगा।
शुरू करने के लिए कानूनी शब्दावली के तहत लागत का अर्थ लागत मौद्रिक/ आर्थिक भत्ता है। यह न्यायालय द्वारा एक सफल पक्ष को सिविल मुकदमा चलाने या बचाव करने में किए गए खर्चों के लिए दी जाती है। एक सिविल मुकदमे की लागतों को सिविल प्रक्रिया संहिता (‘सीपीसी’) के आदेश XXA के साथ सीपीसी की धारा 35, 35A, 35B के तहत निपटाया जाता है। इन धाराओं के तहत अलग-अलग कारणों से लागतें लगाई जाती हैं जैसे सफल पक्ष को सामान्य लागत झूठे और परेशान करने वाले दावों के खिलाफ क्षतिपूरक लागत देरी के लिए लागत कई तरह के खर्चों की लागत जैसे सूचना पत्र देना टाइपिंग आदि।
इस लेख में हम सीपीसी के तहत लागतों के प्रकार देखेंगे और समझेंगे कि न्यायालय कब किसी पक्ष पर लागत लगा सकती है। इसके अलावा दिल्ली उच्च न्यायालय के हालिया फैसले में फिल्म अभिनेत्री जूही चावला द्वारा दायर एक मुकदमे के खिलाफ लागत के रूप में 20 लाख रुपये लगाने के आलोक में सीपीसी के तहत लागत लगाने में उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र पर एक विश्लेषण (एनालिसिस) भी करेंगे।
लागतें लगाने की आवश्यकता क्यों है
यह सर्वविदित (वेल नोन) तथ्य है कि भारत में सिविल मुकदमेबाजी एक कठिन और लंबी प्रक्रिया है जिसे हल करने में वर्षों लग जाते हैं। आग में घी डालने के लिए बड़ी संख्या में सिविल मुकदमे हैं जो हर साल दर्ज होते है जो झूठे और परेशान करने वाले होते हैं जिससे करोड़ों लंबित मामले और न्यायाधीशों पर अत्यधिक कार्यभार हो रहा है।
लागत लगाने की अवधारणा वादियों को झूठे और परेशान करने वाले मामले दर्ज करने में लिप्त होने से रोकना और अनावश्यक स्थगन (एडजोर्नमेंट) आदि लेने जैसी समय व्यर्थ करने वाले रणनीति का उपयोग करके अनावश्यक देरी करना है। सीपीसी में लागत के प्रावधान प्रदान करने में विधायकों की मंशा सबसे पहले सफल पक्ष को मुकदमा चलाने या बचाव में कानूनी खर्च देकर मुकदमे की क्षतिपूर्ति करना है। दूसरा वादियों को झूठे और फर्जी मामले दर्ज करने से रोकना है। तीसरा वादियों को अनावश्यक विलंब करने से रोकना है।
सीपीसी के तहत मौजूदा लागत के प्रकार और बनावट
सिविल मुकदमेबाजी में लागत लगाने के संबंध में प्रावधान सीपीसी की धारा 35 35A 35B और ऑर्डर XXA के तहत निहित हैं। सीपीसी उपरोक्त अनुभागों के तहत विभिन्न प्रकार की लागतों अर्थात् सामान्य लागत क्षतिपूरक लागत विलंब पैदा करने की लागत और विविध (मिसलेनीअस) लागतों के लिए प्रदान करता है।
सामान्य लागतों को सीपीसी की धारा 35 के तहत निपटाया जाता है। इस धारा में कहा गया है कि न्यायालयों द्वारा अपने विवेक के तहत मुकदमे के किसी भी पक्ष को लागत दी जा सकती है। यदि लागत नहीं दी जाती है तो न्यायालयों को ऐसा करने के लिए कारण बताने की आवश्यकता होती है। इस प्रावधान के तहत लागत एक सफल पक्ष को लाभ कमाने के लिए या हारने वाले पक्ष को सजा के रूप में नहीं दी जाती है। इस खंड का मुख्य उद्देश्य सफल पक्ष को मुकदमा चलाने या बचाव के लिए किए गए खर्चों के खिलाफ एक वाद के लिए लागत प्रदान करना है।
क्षतिपूरक लागतों को सीपीसी की धारा 35A के अंतर्गत निपटाया जाता है। यह खंड सामान्य लागत के सिद्धांत का अपवाद (इक्सेप्शन) है जो सफल पक्ष को क्षतिपूर्ति (इन्डेम्नफाइ) करता है। इस धारा का उद्देश्य वादियों द्वारा दायर किए जा रहे झूठे और परेशान करने वाले मामलों को दूसरे पक्ष को मुआवजा देने के लिए जुर्माना लगाकर रोकना है जो इस तरह के झूठे मुकदमेबाजी से पीड़ित हैं। यदि न्यायाधीश संतुष्ट है कि मुकदमा झूठा और परेशान करने वाला है तो पीड़ित को अधिकतम 3000 रुपये की राशि के साथ क्षतिपूर्ति लागत दी जा सकती है।
विलंब करने की लागत सीपीसी की धारा 35B के तहत निपटाई जाती है। इस धारा का उद्देश्य मुकदमे के पक्षकारों को समय व्यर्थ करने वाले रणनीति को नियोजित (एम्प्लॉय) करने से रोकना है। न्यायालयों मुकदमे की प्रगति में अनावश्यक रूप से देरी करने की कोशिश करने वाली पक्ष के खिलाफ जुर्माना लगाने का आदेश दे सकती है जिससे मामले के समाधान में देरी हो सकती है।
विविध लागतें सीपीसी के ऑर्डर XXA के तहत प्रदान की जाती हैं। इस आदेश के तहत न्यायालय को सूचना पत्र देने टाइपिंग और प्रिंटिंग शुल्क गवाहों के उत्पादन आदि जैसे विविध खर्चों के संबंध में लागत प्रदान करने की शक्ति देने के लिए विशिष्ट प्रावधान किए गए हैं।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यदि किसी पक्ष के खिलाफ सिविल वाद को लागत से सम्मानित किया जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसे किसी अन्य आपराधिक या नागरिक दायित्व से छूट दी गई है। यदि कोई व्यक्ति झूठा मामला दायर करते हुए पाया जाता है तो पीड़ित क्षतिपूर्ति के लिए एक नया मुकदमा दायर कर सकता है भले ही ऐसे व्यक्ति के खिलाफ झूठा और परेशान करने वाला मामला दर्ज करने के लिए जुर्माना लगाया गया हो।
सीपीसी के तहत सिविल वाद में लागत और रिट कार्यवाही/ जनहित याचिका के बीच का अंतर
सीपीसी के तहत लागत और रिट कार्यवाही में लागत के बीच मुख्य अंतर लागत की संख्या की अधिकतम सीमा है। सीपीसी के तहत प्रत्येक राज्य के संबंधित उच्च न्यायालयों द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर झूठे और परेशान करने वाले मामलों के लिए क्षतिपूरक लागत और अन्य सीमाओं के लिए 3000 रुपये की सीमा है। जबकि रिट कार्यवाही और जनहित याचिकाओं के तहत यदि वे झूठे और परेशान करने वाले पाए जाते हैं तो उच्च न्यायालयों के पास अनुकरणीय (इग्ज़ेम्प्लरी) लागतों का आदेश देने की शक्ति है और इसकी कोई सीमा नहीं है। झूठी या राजनीति से प्रेरित जनहित याचिकाओं के कई उदाहरण हैं जहां न्यायालयों ने कुछ हजार से लेकर कुछ लाख तक की अनुकरणीय लागत लगाई है।
जूही चावला का मामला
जूही चावला ने मानव पशु और पौधों के जीवन को दीर्घकालिक (लॉन्ग टर्म) और अल्पकालिक (शॉर्ट टर्म) नुकसान और बड़े पैमाने पर पर्यावरण पर हानिकारक प्रभाव के आधार पर भारत में 5G संचार प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) के रोल आउट के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक सिविल मुकदमा दायर किया है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने जून 2021 के महीने में प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री जूही चावला के खिलाफ 2000000 रुपये (बीस लाख रुपये) का जुर्माना लगाया है। यह मामला तब काफी वायरल हुआ जब जूही चावला ने जाने-अनजाने मामले की सुनवाई से जुड़ी मीटिंग के लिंक को अपने सोशल मीडिया हैंडल के जरिए जनता से साझा किया और आग में घी डालने के लिए अनजाने अजनबियों ने कई बार न्यायालय की सुनवाई बाधित की और इनमें से एक ने जूही चावला की एक फिल्म का एक गाना भी गाया। न्यायलय ने कहा कि यह सभी गलत कारणों से और अभिनेत्री द्वारा प्रचार के लिए दायर किया गया मामला है और इस न्यायालय का मूल्यवान न्यायिक समय उनके द्वारा बैठक लिंक के सार्वजनिक साझाकरण के कारण बर्बाद हो गया है।
जैसा यह मामला है सवाल यह उठता है कि क्या उच्च न्यायालय के पास सीपीसी के तहत अनुकरणीय लागत लगाने की शक्ति है जबकि सीपीसी के तहत लागत देने के लिए एक वैधानिक सीमा है। इसका विश्लेषण इस लेख के अगले भाग में किया जाएगा।
सीपीसी के तहत लागत लगाने की उच्च न्यायालयों की शक्ति पर विश्लेषण
सबसे पहले भारत में सभी उच्च न्यायालयों के पास सामान्य मूल सिविल क्षेत्राधिकार नहीं है और इसलिए सिविल मुकदमे सीधे उन उच्च न्यायालयों में दायर नहीं किए जा सकते हैं। केवल दिल्ली बॉम्बे कलकत्ता मद्रास और हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालयों के पास भारत में सामान्य मूल नागरिक क्षेत्राधिकार है। इसलिए सिविल वाद सीधे इन 5 उच्च न्यायालयों में दायर किए जा सकते हैं और अन्य सभी उच्च न्यायालयों के पास केवल अपीलीय क्षेत्राधिकार है जब सिविल मुकदमों की बात आती है।
जैसा कि इस लेख के पहले के हिस्सों में चर्चा की गई है लागत की अवधारणा सीपीसी के तहत प्रदान की गई है और एक पक्ष द्वारा दायर झूठे या परेशान करने वाले मुकदमों के लिए लागत के रूप में लगाए जा सकने वाले धन की एक सीमा है। सीपीसी की धारा 35A के अनुसार एक झूठे और परेशान करने वाले मुकदमे के लिए अधिकतम राशि 3000/- रुपये है।
यह उच्च न्यायालय की शक्ति के भीतर है कि वह पर्याप्त न्यायलय शुल्क या अन्य दोषों की कमी के कारण और झूठे और परेशान करने वाले मुकदमे को खारिज कर दे और 3000/- रुपये की लागत लगाए लेकिन इससे ऊपर कुछ भी लागत लगाना न्यायिक अतिरेक (ओवर्रीच) के अलावा और कुछ नहीं है।
दिल्ली न्यायालय द्वारा जुर्माना लगाने में सीपीसी के प्रावधानों का पालन नहीं करने का जूही चावला का मौजूदा मामला एक स्पष्ट उदाहरण है। सीपीसी के तहत दायर सिविल वाद में उच्च न्यायालयों के पास लागत लगाने की बहुत सीमित शक्ति है और माननीय सर्वोच्चा न्यायालय ने भी अपने कई निर्णयों में इसे बार-बार दोहराया है। अशोक कुमार मित्तल बनाम राम कुमार गुप्ता और अन्य एक ऐसा मामला है जहां दिल्ली उच्च न्यायालय ने शपथ पर झूठ बोलने के लिए वादी और प्रतिवादी प्रत्येक पर 1 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है। सर्वोच्चा न्यायालय ने कहा है कि उच्च न्यायालयों को सिविली मुकदमों का निपटारा करने के दौरान सीपीसी की धारा 35 A के तहत निर्धारित सीमा का पालन करने की आवश्यकता है। इसके अलावा सर्वोच्चा न्यायालय ने संजीव कुमार जैन बनाम रघुबीर सरन चैरिटेबल ट्रस्ट के मामले में अशोक मित्तल के फैसले को एक बार फिर दोहराया है जहां दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा जुर्माने के रूप में 45 लाख रुपये लगाए गए थे। इस मामले में सर्वोच्चा न्यायालय ने लागत से संबंधित आदेश को निरस्त करते हुए और प्रतिवादी को लागत के रूप में केवल 3000/- रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया और दृढ़ता से कहा कि उच्च न्यायालय सीपीसी में निर्धारित 3000/- रुपये की सीमा की अनदेखी करते हुए सिविल वाद में अनुकरणीय लागत नहीं लगा सकता है। विनोद सेठ बनाम देविंदर बजाज के मामले में सर्वोच्चा न्यायालय ने एक बार फिर दोहराया कि उच्च न्यायालय को लागत देने में सीपीसी के तहत प्रदत्त वैधानिक सीमा का पालन करने की आवश्यकता है। इस मामले में सर्वोच्चा न्यायालय ने यह भी कहा है कि यदि कोई मुकदमा सीपीसी द्वारा शासित होता है तो कोई भी न्यायालयों केवल इसलिए कि वह इसे ठीक और उचित मानती है ऐसे निर्देश जारी नहीं कर सकती है जो कानून के विपरीत हों या अधिकृत (ऑथराइज़्ड) न हों।
सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव और 240 वें विधि आयोग की सूचना 2012
भारत का सर्वोच्च न्यायालय एक ओर उच्च न्यायालयों को सीपीसी में प्रदान की गई शक्तियों से अधिक अपनी शक्तियों को पार करने की अनुमति नहीं देकर अपना काम कर रहा है। दूसरी ओर यह कई निर्णयों में सुझाव देता रहा कि सीपीसी के तहत लागत की अधिकतम सीमा में नियमित आधार पर परिवर्तन होना चाहिए और यह कि वर्तमान प्रणाली पुरानी है और यह झूठे और परेशान करने वाले मुकदमों को रोक नहीं रही है या मुकदमा चलाने या बचाव करने वाले सफल वादी के लिए पर्याप्त खर्च प्रदान नहीं कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावित किया है कि (i) सीपीसी के तहत ऊपरी सीमा को 3000/- से बढ़ाकर कम से कम 100000/- किया जाए ताकि वादियों को झूठे/ परेशान करने वाले मुकदमे दर्ज करने से प्रभावी ढंग से रोका जा सके और (ii) नाममात्र की लागत लगाने के बजाय वास्तविक लागतें लगाई जानी चाहिए अर्थात ऐसी लागतें जो उपयोगी हैं और वे लागतें जो एक सामान्य अधिवक्ता किसी विशेष प्रकृति के सामान्य मामले में वसूल करेगा।
न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त (रिटायर्ड)) पी.वी. रेड्डी की अध्यक्षता में भारत के विधि आयोग ने अपनी 240 वीं सूचना में सीपीसी के तहत वर्तमान लागत व्यवस्था में कई अन्य आवश्यक परिवर्तनों के साथ-साथ लागत की ऊपरी सीमा में वृद्धि के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए सुझावों का समर्थन किया है। लेकिन आज तक इन सुझावों पर सांसदों द्वारा कोई विधायी (लेजिस्लेटिव) कार्रवाई नहीं की गई है।
निष्कर्ष
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत को सीपीसी के तहत लागत व्यवस्था में बड़े पैमाने पर सुधार की जरूरत है अन्यथा इस पर और कोई बहस नहीं है। वर्तमान शासन काफी पुराना है क्योंकि अंतिम संशोधन 1970 के दशक में किया गया था और तब से धन का मूल्य बहुत बढ़ गया है। विधायिका को सर्वोच्च न्यायालय के सुझावों के साथ-साथ 240वें विधि आयोग की सुझाव पर विचार करने और सीपीसी के तहत लागत व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन करने और इसे और आधुनिक और मजबूत बनाने की आवश्यकता है। इसके अलावा विधायिका द्वारा यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि परिवर्तन करते समय न्यायालय का शुल्क अधिवक्ताओं का शुल्क कार्यवाही की अवधि और सफल वादी के लिए उचित क्षतिपूर्ति जैसे पहलुओं पर विचार करने की आवश्यकता है। आवश्यक सुधारों के अभाव में न्यायालयों के हाथ बंधे हुए हैं और न्यायाधीश झूठे और तुच्छ मुकदमों को रोकने/ निवारने के लिए शक्तिहीन हैं क्योंकि वर्तमान शासन के तहत लागत नाममात्र है।
फिर भी न्यायालयों द्वारा जिस प्रवृत्ति का पालन किया जा रहा है खासतौर पर उच्च न्यायालयों द्वारा जो सामान्य मूल सिविल अधिकार क्षेत्र के साथ सीपीसी में निर्धारित 3000/- रुपये की अधिकतम सीमा से आगे जाकर अनुकरणीय लागतें दे रहे है एक अच्छा चलन नहीं है। यह विनोद सेठ बनाम देविंदर बजाज में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खूबसूरती से समझाया गया है जहां सर्वोच्च न्यायालय ने बेंजामिन एन कॉर्डोजो को उद्धृत (क्वोट) किया है:
“न्यायाधीश भले ही वह स्वतंत्र है फिर भी पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं होते है। उसे अपने आनंद में कुछ नया नहीं करना है। वह सौंदर्य या भलाई के अपने आदर्श की खोज में इच्छानुसार घूमने वाला शूरवीर नहीं है। उसे पवित्र सिद्धांतों से अपनी प्रेरणा लेनी है। उसे अनियमित भावना अस्पष्ट और अनियंत्रित परोपकार के आगे झुकना नहीं है। उसे परंपरा द्वारा सूचित विवेक का प्रयोग करना है सादृश्य (अनैलजी) द्वारा विधिवत व्यवस्था द्वारा अनुशासित और “सामाजिक जीवन में व्यवस्था की मौलिक आवश्यकता” के अधीन रहना है।”
और देखा कि न्यायाधीश उन लोगों को अनुशासित करने के लिए नवाचार कर सकते हैं जिन्हें वह मुकदमेबाजी में साहसी मानता है लेकिन इसे कानून के चारों कोनों के भीतर ऐसा करना होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा है कि “सख़्त मामले खराब कानून बनाते हैं” और नॉर्दर्न सिक्योरिटीज कंपनी बनाम यूनाइटेड स्टेट्स 193 (1903) यू एस 197 में जस्टिस होम्स की असहमतिपूर्ण राय को उद्धृत किया है कि इक्विटी से संबंधित एक मुकदमा जो एक न्यायाधीश को इस मुद्दे पर कानून के सिद्धांत को फैलाने या यहां तक कि अवहेलना करने के लिए प्रेरित करता है लेकिन एक न्यायाधीश को चाहिए की वह हार ना माने और नैतिक उच्च आधार ले।
अंत में मैं यह कहते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा कि दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा जूही चावला के मामले में दिए गए आदेश भले ही उसने झूठे और परेशान मुकदमे को रोकने के लिए अच्छे उद्देश्य के लिए किया हो लेकिन इससे जनता का धीरे-धीरे न्यायपालिका में विश्वास कम हो सकता है और वे अपने दावों को निपटाने के लिए गुंडों/ माफिया या पुलिस की मदद लेने जैसे अतिरिक्त न्यायिक उपायों की तलाश शुरू कर सकते हैं जिससे कानून का शासन टूट जाएगा। इसलिए उच्च न्यायालय का कोई भी आदेश या निर्देश भले ही वह झूठी और तुच्छ मुकदमेबाजी को रोकने के लिए ही क्यों न हो न्यायालयो तक पहुंच में बाधा उत्पन्न नहीं करना चाहिए और कानून के शासन के चार कोनों के भीतर ही होना चाहिए।
संदर्भ