यह लेख Sana Virani द्वारा लिखा गया है। इस लेख में गुलिपिल्ली सोवरिया राज बनाम बंडारू पावनी के मामले का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। यह मामला हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत एक हिंदू और एक गैर-हिंदू के बीच विवाह की वैधता से संबंधित है। इसमें हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के विभिन्न प्रावधानों पर प्रकाश डाला गया है, जो हिंदुओं में विवाह के लिए एक व्यापक कानूनी ढांचा है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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परिचय
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, भारत में हिंदुओं के विवाह को नियंत्रित करने वाला एक क़ानून है। यह अधिनियम विवाह की वैधता के साथ-साथ विवाह के विभिन्न अन्य पहलुओं, जैसे तलाक, भरण-पोषण और विवाह की अभिरक्षा (कस्टडी) से संबंधित प्रावधानों को भी शामिल करता है। इसका उद्देश्य एक औपचारिक रूपरेखा तैयार करना है, जो साथी और संतानों को अधिकार के साथ-साथ सुरक्षा भी प्रदान करता है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 केवल उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो जन्म से हिंदू हैं या हिंदू धर्म में परिवर्तित हुए हैं और इसमें बौद्ध, जैन और सिख शामिल हैं। हालाँकि, यह कानून मुसलमानों, ईसाइयों या यहूदियों पर लागू नहीं होता है, क्योंकि वे हिंदू धर्म की श्रेणी के प्रावधानों से बाहर हैं और उनके संबंधित व्यक्तिगत कानून द्वारा शासित होते हैं। गुलिपिल्ली सोवरी राज बनाम बंडारू पावनी (2008) सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुना गया एक ऐतिहासिक मामला है, जो एक हिंदू और गैर-हिंदू के बीच विवाह की वैधता से संबंधित मुद्दे पर चर्चा करता है। यह मामला भारत की आज की कानूनी प्रणाली में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की प्रयोज्यता को रेखांकित करता है।
मामले का विवरण
- मामले का नाम: गुलिपिल्ली सोवरिया राज बनाम बंडारू पावनी
- मामला संख्या: सिविल अपील संख्या 2005 के 2446
- समतुल्य उद्धरण: एआईआर 2009 एससी 1085, 2009 (1) एससीसी 714 अधिनियम में शामिल: हिंदू विवाह अधिनियम, 1955
- न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
- पीठ: अल्तमस कबीर, आफताब आलम, जेजे।
- फैसले के लेखक: अल्तमस कबीर
- याचिकाकर्ता: गुलिपिल्ली सोवरिया राज
- प्रत्यर्थी: बंडारू पावनी
- फैसले की तारीख: 4 दिसंबर, 2008
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता, गुलिपिल्ली सोवरिया राज, एक ईसाई, जिसने खुद को एक हिंदू के रूप में गलत तरीके से प्रस्तुत किया, ने प्रत्यर्थी, एक हिंदू, बंडारू पावनी से विवाह किया। यह विवाह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 8 के तहत 2 नवंबर 1996 को विधिवत पंजीकृत किया गया। हालाँकि, प्रत्यर्थी ने 13 मार्च, 1997 को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 12(1)(c) के तहत विवाह को शून्य घोषित करने के लिए याचिका दायर की, जिसमें अपीलकर्ता द्वारा हिंदू होने के गलत बयान का हवाला दिया गया।
प्रत्यर्थी ने पारिवारिक न्यायालय में याचिका दायर की, जिसे खारिज कर दिया गया, जिसके बाद प्रतिवादी (वर्तमान मामले में) उच्च न्यायालय में गया, जहां विवाह को आरंभ से ही शून्य घोषित कर दिया गया, जिसका अर्थ है कि इसका कोई कानूनी प्रभाव नहीं है, और कानून के तहत इसे ऐसे माना गया जैसे कि यह कभी अस्तित्व में ही नहीं था। अपीलकर्ता ने उच्च न्यायालय के आदेश से असहमति जताई और आगे की कार्यवाही के लिए सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। मुख्य मुद्दा यह था कि क्या एक हिंदू और गैर-हिंदू के बीच शुरू हुआ विवाह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत वैध हो सकता है।
मामले के तथ्य
प्रतिवादी हिंदू थी और अपीलकर्ता रोमन कैथोलिक था, जिसने 24 अक्टूबर 1996 को एक मंदिर में बिना किसी गवाह के केवल ‘थाली’ का आदान-प्रदान करके उससे विवाह कर लिया था। इस विवाह को 2 नवम्बर 1996 को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 8 के अंतर्गत कानूनी मान्यता प्रदान की गयी। प्रतिवादी ने 13 मार्च, 1997 को विशाखापत्तनम में पारिवारिक न्यायालय के खिलाफ एक याचिका दायर की, जिसमें अधिनियम की धारा 12(1)(c) के तहत विवाह को अमान्य घोषित करने की मांग की गई। इस विवाह को केवल इस आधार पर भी अमान्य माना गया कि अपीलकर्ता ने स्वयं को हिंदू बताकर विवाह किया था। उन्होंने न केवल प्रत्यर्थी के समक्ष अपने धर्म के बारे में गलत जानकारी दी, बल्कि दुर्भावनापूर्ण तरीके से ईसाई होने की अपनी पृष्ठभूमि और आस्था को भी छुपाया था।
विचारण न्यायालय ने उनके आवेदन को खारिज कर दिया; इसके बाद, वह उच्च न्यायालय गए, जिसने यह विचार व्यक्त किया कि इस तरह के विवाह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (जिसे यहां “अधिनियम” कहा गया है) के तहत लागू करने योग्य नहीं थे, जिससे वे पूरी तरह से शून्य हो गए। उच्च न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट होकर अपीलकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की।
उठाए गए मुद्दे
- क्या अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार हिंदू-ईसाई विवाह कानूनी रूप से वैध है?
- क्या यह अधिनियम हिंदुओं को अन्य धर्म के लोगों से विवाह करने से रोकता है?
पक्षों के तर्क
अपीलकर्ता की ओर से एक बिल्कुल नया तर्क प्रस्तुत किया गया, जिसमें कहा गया कि अधिनियम के तहत हिंदुओं को विभिन्न धर्मों के लोगों से विवाह करने पर प्रतिबंध नहीं है। इस प्रस्तुतिकरण की समीक्षा करने में न्यायालय की सहायता के लिए, न्यायालय ने जानकार वरिष्ठ अधिवक्ता श्री यू.यू. ललित से सहायता मांगी थी। सबसे पहले, श्री ललित ने अधिनियम, 1955 और इसकी धाराओं पर जोर दिया, जिसमें हिंदू विवाह के लिए आवश्यक शर्तें बताई गई हैं। “किसी भी हिंदू के बीच विवाह संपन्न हो सकता है, बशर्ते कि निम्नलिखित शर्तें पूरी हों, विशेष रूप से:…” ये धारा 5 के पहले शब्द हैं, जिसमें तर्क दिया गया है कि शुरुआती वाक्यों में “हो सकता है” शब्द से पता चलता है कि मानदंड वैकल्पिक थे। परिणामस्वरूप, उन्होंने दावा किया कि, ये शर्तें प्रतिवादी और अपीलकर्ता के बीच संपन्न विवाह पर अनिवार्य रूप से बाध्यकारी नहीं होंगी।
अपने अतिरिक्त वक्तव्य (रिमार्क) में श्री ललित ने इस बात पर जोर दिया कि अधिनियम की धारा 5 और धारा 11, जो अमान्य और शून्य विवाहों से संबंधित हैं, में निम्नलिखित प्रावधान हैं:
- धारा 5: ऐसे मामलों में जहां धारा 5 के खंड (i), (iv) और (v) में वर्णित निम्नलिखित प्रावधानों की पूर्ति नहीं होती है, अधिनियम की प्रभावी तिथि के बाद संपन्न प्रत्येक विवाह को शून्य माना जा सकता है और यदि एक पक्ष द्वारा दूसरे के खिलाफ याचिका दायर की जाती है तो उसे शून्यता के आदेश द्वारा निरस्त किया जा सकता है।
- धारा 11: श्री ललित ने अधिनियम की धारा 11 का हवाला देते हुए तर्क दिया कि मामले के तथ्यों में बताई गई कोई भी आवश्यकता पूरी नहीं हुई।
इसलिए, उन्होंने तर्क दिया कि विवाह संबंधी तर्क यह था कि प्रत्यर्थी और अपीलकर्ता के बीच विवाह को शून्य नही माना जा सकता है। इसके बजाय, उन्होंने सुझाव दिया कि विवाह को केवल शून्यकरणीय (वॉयडेबल) माना जा सकता है। हालाँकि, उच्च न्यायालय के विश्लेषण से ऐसा प्रतीत हुआ कि विवाह को शुरू से ही अस्तित्वहीन माना गया था।
याचिकाकर्ता
इस तर्क पर अपीलकर्ता के वकील श्री मुकुंद ने यह कहते हुए जवाब दिया कि अधिनियम का शीर्षक, “हिंदू विवाह के लिए शर्तें” और धारा 5 की पहली कुछ पंक्तियों में “हो सकता है” शब्द भ्रामक शब्द हैं। श्री मुकुंद ने स्पष्ट किया कि धारा 5 की आवश्यकताओं को अनिवार्य के बजाय विवेकाधीन माना जाना चाहिए।
श्री मुकुंद ने आगे तर्क दिया कि यदि अधिनियम की धारा 7 की उपधारा (1) में “कर सकता है” शब्द की व्याख्या विवाह के पक्षों को शामिल करने के लिए की जाती है, तो यह विधायिका की अलग-अलग कार्य करने की मंशा को विफल कर देगा। उन्होंने कहा कि धारा 5 में कई ऐसी आवश्यकताओं का उल्लेख है जिनका क्रियान्वयन तभी किया जाना है जब पक्ष ऐसा करना चाहे, और इस प्रकार अधिनियम की धारा 11, जो शून्य विवाहों से संबंधित है, धारा 5 के प्रतिबंधों को दरकिनार कर देगी।
श्री मुकुंद के अनुसार, अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो केवल हिंदुओं के बीच विवाह को वैध बनाने को मंजूरी देता हो। उन्होंने आगे तर्क दिया कि प्रतिवादी ने अधिनियम की धारा 12(1)(c) के माध्यम से अलग रहने की अनुमति मांगी, जिसे उच्च न्यायालय ने धारा की गलत व्याख्या के कारण गलत तरीके से प्रदान कर दिया।
प्रत्यर्थी
मामले में पक्षों के बीच आयोजित विवाह समारोह के बारे में उपलब्ध कराए गए साक्ष्य की ओर अदालत का ध्यान आकर्षित करते हुए, प्रतिवादी जो अपीलकर्ता की पत्नी हैं, के वकील श्री वाई राजगोपाल राव ने तर्क दिया कि यह पूछना प्रासंगिक है कि दोनों के बीच किया गया विवाह वैध हिंदू विवाह था या नहीं।
उन्होंने कहा कि इस अधिनियम का उद्देश्य हिंदुओं के बीच विवाह संबंधी कानूनों को सुदृढ़ बनाना है, तथा उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता, क्योंकि अधिनियम की प्रस्तावना की भाषा से यह स्पष्ट है कि अधिनियम और इसके प्रावधान केवल हिंदुओं पर लागू होंगे, अन्य किसी पर नहीं। धारा 2(1)(c) ने ईसाई, मुस्लिम और यहूदियों को भी हिंदू विवाह ढांचे से स्पष्ट रूप से बाहर रखा।
उन्होंने न्यायालय में अपने तर्क में इस बात पर भी जोर दिया कि भारत में ईसाई, मुस्लिम और यहूदी जैसे विभिन्न धार्मिक समूह अपने निजी कानूनों के साथ-साथ अपनी विवाह परंपराओं से भी शासित होते हैं। ऐसी परिस्थितियों में जहां हिंदू और ईसाई जैसे दो अलग-अलग धर्मों के व्यक्ति विवाह करना चाहते हैं, विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के प्रावधान सामने आते हैं, क्योंकि वे अंतर-धार्मिक विवाहों को वैध बनाते हैं। इसलिए, विवाह के व्यक्तिगत कानून अन्य धार्मिक समूहों को स्वीकार नहीं करते हैं।
गुलिपिल्ली सोवरिया राज बनाम बंडारू पावनी @ गुलिपिल्ली पावनी (2008) में चर्चा किए गए कानून
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2
अधिनियम का अनुप्रयोग अधिनियम की धारा 2 में शामिल है। इसमें अधिनियम के दायरे और प्रयोज्यता के बारे में प्रावधान हैं। अधिनियम की धारा 2(1) में निर्दिष्ट किया गया है कि यह अधिनियम ऐसे किसी भी व्यक्ति पर लागू होता है जो किसी भी रूप में हिंदू है और ऐसे व्यक्ति पर भी जिसके माता-पिता हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म या सिख धर्म के अनुयायी (फॉलोवर्स) हैं। यह उन सभी व्यक्तियों पर भी लागू होता है जिन्होंने इनमें से किसी धर्म को अपना लिया है या पुनः धर्म परिवर्तन कर लिया है।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5
अधिनियम की धारा 5 के अनुसार, वैध रूप से पंजीकृत विवाह के लिए निम्नलिखित आवश्यकताएं हैं:
- किसी भी पक्ष का जीवनसाथी जीवित नहीं है;
- कोई भी पक्ष विकृत मस्तिष्क का नहीं है या किसी मानसिक विकार से ग्रस्त नहीं है जो उन्हें वैवाहिक दायित्वों की पूर्ति के लिए अयोग्य बनाता हो;
- दूल्हा और दुल्हन की उम्र क्रमशः 18 वर्ष और 21 वर्ष है;
- दोनों पक्ष एक दूसरे से निकट रूप से संबंधित नहीं हैं।
यह धारा उन सभी आवश्यकताओं को रेखांकित करती है जिन्हें दोनों हिंदू साथी द्वारा अपने विवाह को कानूनी रूप से वैध बनाने के लिए पूरा किया जाना चाहिए।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 8
धारा 8 अधिनियम के तहत हिंदू विवाहों के पंजीकरण से संबंधित है। यदि पक्ष धारा 5 में सूचीबद्ध आवश्यकताओं को पूरा करते हैं तो उन्हें अधिनियम की धारा 8 के तहत अपने विवाह को पंजीकृत कराना चाहिए तथा अपने विवाह को औपचारिक रूप देना चाहिए। इस धारा के माध्यम से विवाह को औपचारिक रूप से मान्यता दी जाती है और कानूनी स्वीकृति मिलती है।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11
अधिनियम के अंतर्गत धारा 11 शून्य एवं अमान्य विवाहों से संबंधित है। यह माना गया कि धारा 5 के खंड (i), (iv) और (v) में उल्लिखित किसी भी शर्त का उल्लंघन करने पर विवाह शून्य माना जाएगा। इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि यदि यह विवाह निषिद्ध रिश्ते में होने, जीवित जीवनसाथी होने, या किसी भी पक्ष के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने की शर्तों का उल्लंघन करता है तो यह विवाह अवैध है या इसका कोई कानूनी आधार नहीं है।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 के तहत वैध विवाह की अनिवार्यताएं
विवाह में शामिल होने वाले सभी पक्ष हिंदू होने चाहिए
अधिनियम की धारा 5 में हिंदू विवाह के लिए आवश्यकताओं की सूची पर प्रकाश डाला गया है, तथा स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है कि विवाह में शामिल होने वाले दोनों पक्षों का हिंदू होना आवश्यक है। यमुनाबाई अनंतराव बनाम अनंतराव शिवराम (1988) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस पूर्व शर्त को दोहराया और कहा कि अधिनियम की धारा 5 के तहत केवल दो हिंदुओं के बीच विवाह ही औपचारिक रूप से संपन्न हो सकता है। तदनुसार, 1955 का अधिनियम ऐसे विवाह पर प्रतिबंध लगाता है, यदि एक या दोनों पक्ष हिंदू धर्म का पालन नहीं करते हैं।
विवाह को पारंपरिक रीति-रिवाजों और समारोहों के अनुसार संपन्न किया जाना चाहिए
अधिनियम की धारा 7 के अनुसार, एक हिंदू विवाह तभी वैध माना जाता है जब दोनों पक्ष अपने पारंपरिक संस्कारों और समारोहों, जैसे थाली और “सप्तपदी” प्रक्रियाओं से बंधे हों। इन समारोहों के दौरान, जब पक्ष सातवां कदम उठाते हैं, तो यह विवाह के पूरा होने का संकेत होता है। ये अनुष्ठान हिंदू परंपराओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और वैवाहिक बंधन की औपचारिक मान्यता के रूप में भी काम करते हैं।
दोनों पक्षों का स्वस्थ दिमाग होना चाहिए
अधिनियम की धारा 5(ii)(a) के तहत स्पष्ट किया गया है कि हिंदू विवाह को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने के लिए दोनों पक्षों को अपनी सहमति व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए। यदि एक पक्ष मानसिक रूप से विकलांग है, तो दूसरा पक्ष विवाह को अमान्य घोषित कर सकता है। श्रीमती अलका शर्मा बनाम अभिनेश चंद्र शर्मा (1991) में, पति ने महिला के खिलाफ मुकदमा दायर किया क्योंकि पहली रात को उसकी हरकतें और व्यवहार अजीब थे, जो उसके वैवाहिक दायित्वों को पूरा करने में उसकी अक्षमता को दर्शाता था, जिसके बाद अदालत ने विवाह को शून्य घोषित कर दिया।
विवाह एकपत्नीक (मोनोगेमस) होना चाहिए
अधिनियम के अंतर्गत, विशेष रूप से धारा 5(i) के अनुसार, कोई भी दम्पति किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं कर सकता, यदि उनका वर्तमान साथी अभी जीवित है। कानून के अनुसार, विवाह को अवैध माना जाता है यदि विवाह के समय किसी भी पक्ष का जीवित जीवनसाथी मौजूद हो। इस शर्त के अनुसार, अधिनियम के तहत बहुविवाह निषिद्ध है तथा इस प्रावधान का उल्लघंन करने पर विवाह को शून्य माना जाता है।
विवाह के दोनों पक्षों को वयस्कता की आयु प्राप्त कर लेनी चाहिए
अधिनियम की धारा 5(iii) के अनुसार विवाह के समय वर और वधू की आयु क्रमशः कम से कम 18 और 21 वर्ष होनी चाहिए। अधिनियम की धारा 18 के अनुसार, कानूनी आयु मानदंड को पूरा किए बिना इस प्रकार का विवाह करने वाले व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया जा सकता है और उन्हें एक लाख रुपये तक का जुर्माना, दो साल की जेल या दोनों सजाएं दी जा सकती हैं। यह प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि विवाह के समय पक्षों में उपयुक्त परिपक्वता होनी चाहिए।
विवाह में शामिल पक्षों को सपिंड के रूप में संबंधित नहीं होना चाहिए या निषिद्ध संबंधों की श्रेणी में नहीं आना चाहिए
दो व्यक्तियों के बीच कोई भी विवाह, जो जैविक संबंध रखते हैं या अधिनियम की धारा 3(g) के प्रत्यक्ष विरुद्ध हैं, पूर्णतः शून्य है। दूसरे शब्दों में, पति और पत्नी अधिनियम में उल्लिखित किसी भी निषिद्ध डिग्री में संबंधित नहीं हो सकते हैं या एक ही रक्त संबंध साझा नहीं कर सकते हैं। इसमें सामाजिक मानक को बनाए रखने और आनुवंशिक विकारों को रोकने के लिए भाई-बहन, सौतेले भाई-बहन आदि जैसे रिश्ते शामिल हैं।
धोखाधड़ी से सहमति प्राप्त करना
हाल ही में मोनिका नरेंद्र शर्मा बनाम मुस्केशकुमार रामनाथ भागल (2022) में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने दस साल पुरानी शादी को भंग कर दिया क्योंकि पुरुष की सहमति धोखाधड़ी और महत्वपूर्ण जानकारी छिपाने के माध्यम से प्राप्त की गई थी, जो विवाह को “शून्यकरणीय” बनाती है। यह विवाह के लिए अनुमति मांगते समय ईमानदारी की प्रमुखता को रेखांकित करता है।
धारा 5, खंड (i) (c) के तहत, विवाह को शून्यकरणीय माना जा सकता है यदि याचिकाकर्ता की सहमति समारोह के विवरण या प्रत्यर्थी से जुड़े किसी अन्य प्रमुख कार्यक्रम के संबंध में धोखाधड़ी या जबरदस्ती से प्राप्त की गई हो। वे सभी घटनाएं और तथ्य जो संभावित रूप से किसी पक्ष की विवाह के लिए सहमति को प्रभावित करते हैं, प्रासंगिक जानकारी माने जाते हैं। हालाँकि, मात्र झूठ बोलना धोखाधड़ी के समान नहीं है, न ही हर झूठ या गलत बयान धोखाधड़ी के माध्यम से प्राप्त सहमति की श्रेणी में आता है।
गुलिपिल्ली सोवरिया राज बनाम बंडारू पावनी @ गुलिपिलि पावनी (2008) में निर्णय
इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम की प्रस्तावना पर प्रकाश डाला, जो इस प्रकार है, “हिंदुओं में विवाह से संबंधित कानून को संशोधित और संहिताबद्ध (कोडीफाइड) करने के लिए एक अधिनियम।” प्रस्तावना से यह स्पष्ट है कि यह अधिनियम हिंदू विवाह कानून को संहिताबद्ध करने के लिए अपनाया गया था। यह दृष्टिकोण अधिनियम की धारा 2 में भी देखा गया है, जो अधिनियम के अनुप्रयोग को संबोधित करता है और जिसे पहले भी उजागर किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि अधिनियम, 1955 की धारा 5 में निर्दिष्ट किया गया है कि दो हिंदू तभी विवाह कर सकते हैं जब धारा में उल्लिखित आवश्यकताएं पूरी हों।
न्यायाधीशों ने अपीलकर्ता के तर्क को मान्य किया, जिसमें कहा गया था कि धारा के पहले परिच्छेद (पैराग्राफ) में “कर सकता है” शब्द को शामिल करने से धारा 5 के प्रावधान वैकल्पिक नहीं हो जाते; बल्कि, इसका मतलब यह है कि यदि इस धारा के तहत आवश्यकताएं पूरी नहीं होती हैं तो हिंदू जोड़े का विवाह नहीं हो सकता है। हालाँकि, 1955 अधिनियम की धारा 7 में वर्णित अनुष्ठानों की व्याख्या और पालन इस अधिनियम की धारा 5 के संदर्भ में किया जाना चाहिए।
इस मामले में दोनों पक्षों, जो अपीलकर्ता और प्रत्यर्थी हैं, के बीच विवाह हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न हुआ था और अपीलकर्ता द्वारा 1955 के अधिनियम की धारा 12(1)(c) के तहत अपने आवेदन में दी गई जानकारी और अपीलकर्ता की इस स्वीकारोक्ति के आधार पर कि वह रोमन कैथोलिक संप्रदाय का ईसाई था और रहेगा, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे शून्य घोषित कर दिया गया था। उनका विवाह न तो वैध था और न ही अधिनियम की धारा 8 के तहत पंजीकृत होने के योग्य था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने प्रत्यर्थी की अपील को सही ढंग से बरकरार रखा है; इसके निर्णय में आगे हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं थी।
इस निर्णय के पीछे तर्क
न्यायालय ने अधिनियम, 1955 के अनुप्रयोग के संबंध में प्रत्यर्थी के तर्कों पर ध्यानपूर्वक विचार किया और यह सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। न्यायाधीशों ने अधिनियम के दायरे को समझने में प्रस्तावना की भूमिका पर प्रकाश डाला और इस बात पर भी जोर दिया कि अधिनियम का प्राथमिक लक्ष्य हिंदुओं के बीच विवाहों के अनुष्ठान को विनियमित करना है। इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि अधिनियम की धारा 2 की उपधारा 1(1)(c) का समग्र अनुप्रयोग हिंदुओं तक सीमित होगा और ईसाइयों के साथ-साथ अन्य धर्मों को भी इससे बाहर रखा जाएगा।
उन्होंने अधिनियम की धारा 2 का भी उल्लेख किया, जिसमें इस बारे में कई पहलू शामिल हैं कि किसे हिंदू कहा जा सकता है, और इसमें निम्नलिखित बातें निर्दिष्ट की गई हैं:
- कोई व्यक्ति जो हिंदू धर्म के विभिन्न रूपों या विकासों का पालन करता है, जिसमें वीरशैव, लिंगायत, या ब्रह्मो, प्रार्थना, या आर्य समाज के अनुयायी शामिल हैं;
- कोई भी व्यक्ति जो बौद्ध धर्म, जैन धर्म या सिख धर्म का पालन करता है; और
- इस अधिनियम के अंतर्गत आने वाले राज्यक्षेत्रों में रहने वाला कोई अन्य व्यक्ति जो इस्लाम, ईसाई, पारसी या यहूदी धर्म का पालन नहीं करता है, जब तक कि यह निर्धारित न किया जा सके कि ऐसे व्यक्ति के मामले में, वह हिंदू कानून या इसमें शामिल किसी भी मामले के संबंध में उस कानून के भाग के रूप में किसी प्रथा के अंतर्गत नहीं आता है।
इस निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत तर्कों पर गहनता से विचार किया तथा अपीलकर्ता द्वारा ईसाई होने की स्वीकृति और अन्य घटनाओं को भी ध्यान में रखा, जिसके परिणामस्वरूप न्यायालय इस बात पर सहमत हुआ कि विवाह शून्य है, भले ही यह हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार किया गया हो।
पी. शिवकुमार बनाम एस. बेउला
गुलिपिल्ली सोवरिया राज बनाम बंडारू पावनी के समान, अधिनियम, 1955 के संबंधित पहलुओं, जो धारा 5 और 12 (1) (c) हैं, पर सवाल उठाए गए और साथ ही पी शिवकुमार बनाम एस बेउला (2003) के मामले में भी उजागर किया गया। मद्रास उच्च न्यायालय ने पी. शिवकुमार बनाम एस. बेउला (2003) के मामले में कहा था कि केवल उल्लिखित शर्तों के अनुपालन से ही विवाह को औपचारिक रूप से संपन्न करना संभव है। इस प्रकार, अधिनियम इस बात पर बल देता है कि विवाह को वैध माने जाने के लिए अधिनियम की धारा 5 में निर्धारित शर्तों को पूरा करना होगा। अधिनियम की धारा 12(1)(c) के तहत विवाह को रद्द करने के कारण बताए गए हैं। इसमें कहा गया है कि, जहां कोई विवाह शून्य पाया जाता है, शायद द्विविवाह, धोखे या धर्म के संबंध में धोखाधड़ी के कारण, तो यह संभवतः शून्य है। इस संदर्भ में, यह प्रश्न उठा कि क्या प्रत्यर्थी का यह कथन कि वह ईसाई है, वास्तव में इस्लामी धर्म से संबंधित है, अधिनियम के प्रावधानों के तहत विवाह को अमान्य घोषित करने का कारण बन सकता है। जहां तक अदालत के फैसले का सवाल है, अलग धर्म बताना गलत बयानी होगी, क्योंकि इससे विवाह की बुनियादी कानूनी वैधता कमजोर होगी और इसलिए विवाह शून्य हो जाएगा।
गुलिपिल्ली सोवरिया राज बनाम बंडारू पावनी @ गुलिपिल्ली पावनी (2008) का विश्लेषण
इस मामले में दोहराई गई महत्वपूर्ण कानूनी अवधारणा हिंदुओं और गैर-हिंदुओं के बीच विवाह की वैधता और अधिनियम की उसी की व्याख्या से संबंधित है। न्यायालय ने मामले के तथ्यों और विवरणों, अधिनियम की प्रयोज्यता तथा इसके प्रावधानों को केवल हिंदुओं तक सीमित किये जाने का बारीकी से अवलोकन किया। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि धारा 5 और ‘हो सकता है’ शब्द का प्रयोग दायित्वों को वैध विवाह के लिए अनिवार्य शर्त नहीं बनाता है। उन्होंने इसका उपयोग यह समझाने के लिए किया कि अधिनियम के तहत, हिंदू गैर-हिंदुओं से विवाह कर सकते हैं, क्योंकि यह संबंध कानूनी रूप से वैध हो सकता है, क्योंकि दायित्व अनिवार्य हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश उपरोक्त से असहमत थे और प्रत्यर्थी के तर्क का समर्थन किया। अधिनियम में कानूनी विवाह और हिंदू विवाह के अनुष्ठान की दिशा में प्रारंभिक कदम निर्धारित करने वाले प्रावधानों को पर्याप्त रूप से परिभाषित किया गया है, और न्यायालय ने कानून के इन बिंदुओं पर प्रत्यर्थी के तर्क को सही ठहराया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय के माध्यम से हिंदू विवाहों की परंपराओं और पवित्रता को संरक्षित करने का प्रयास किया, क्योंकि अधिनियम की धारा 5 में उनकी वैधता के लिए स्पष्ट रूप से मानदंड निर्दिष्ट किए गए हैं। शर्तों के अनुसार, दोनों पक्ष हिंदू, अविवाहित, कानूनी बालिग, विवाह के समय मानसिक रूप से स्वस्थ होने चाहिए तथा विवाह की निषिद्ध डिग्री में नहीं होने चाहिए।
निष्कर्ष
यह अधिनियम हिंदू विवाह के लिए तरीका निर्धारित करता है और भारत में हिंदुओं के लिए वैवाहिक कानून तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसमें कई मुद्दों को शामिल किया गया है, जैसे कि हिंदू समुदाय द्वारा दंपत्तियों और उनकी संतानों को दी जाने वाली सुरक्षा और विशेषाधिकार। यह महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने और विवाह से पैदा हुए बच्चों को वैधता और विरासत सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण रहा है। इसके अलावा, इस अधिनियम में धर्मांतरित बौद्ध, जैन और सिख भी शामिल हैं। हालाँकि, यह ध्यान रखना प्रासंगिक है कि हिंदू धर्म के अलावा किसी अन्य धर्म के अनुयायियों के बीच विवाह नहीं हो सकता। मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी को इस प्रावधान के साथ-साथ अधिनियम द्वारा प्रदत्त संरक्षण से भी बाहर रखा गया है। इनमें से प्रत्येक धर्म में विवाह और उससे संबंधित मामलों को नियंत्रित करने वाले निजी अध्यादेशों (ऑर्डिनेंस) की अपनी प्रणाली है। इस विशिष्ट मामले में, कानून के विवादास्पद मुद्दे, एक हिंदू द्वारा किसी गैर-हिंदू (रोमन कैथोलिक ईसाई) से विवाह को अधिनियम के तहत वैध माना जाना है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मामले में किए गए विश्लेषण और निर्णय ने अधिनियम के संबंध को स्पष्ट कर दिया, जो हिंदू धर्म के अनुसार विवाह को वैध मानने के लिए सख्त कानूनी पहलुओं का पालन करने को बाध्य करता है। इस मामले में निर्णय में न्यायालय ने पुनः इस बात पर बल दिया कि यद्यपि अधिनियम हिंदू विवाहों के लिए कानूनी प्रावधानों को विस्तृत रूप से प्रस्तुत करता है, तथापि यह हिंदू धर्म का पालन करने वाले लोगों के बीच विवाहों को नियंत्रित और औपचारिक बनाता है, तथा अधिनियम, 1955 के अंतर्गत हिंदुओं और अन्य धर्मों के लोगों के बीच विवाह के लिए कोई प्रावधान नहीं है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
निर्णय के अनुसार हिंदुओं और गैर-हिंदुओं के बीच विवाह की कानूनी स्थिति क्या है?
गुलिपिल्ली सोवरिया राज बनाम बंडारू पावनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हिंदू और गैर-हिंदू के बीच विवाह अधिनियम के अनुसार नहीं होगा और इसे शून्य माना जाएगा। यह अधिनियम हिंदुओं के बीच होने वाले विवाहों को नियंत्रित करता है। इस मामले में, विशेष विवाह अधिनियम, 1954 अंतरधार्मिक विवाहों को संबोधित करता है और उन्हें मान्यता देता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अधिनियम का प्राथमिक उद्देश्य हिंदुओं में विवाह से संबंधित कानून को संशोधित और संहिताबद्ध करना है। इसलिए, अधिनियम की धारा 2 में उल्लिखित अधिनियम की प्रयोज्यता यह निर्धारित करती है कि अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत आने वाले पक्ष धारा 8 के तहत अपने विवाह का पंजीकरण करा सकते हैं। यह भी आवश्यक है कि दोनों पक्ष अधिनियम के दायरे में आएं हैं। तब पक्षों के बीच सम्पन्न विवाह को इस अधिनियम के अंतर्गत वैध माना जाता है।
अधिनियम, 1955 के अनुसार कौन से धर्म में विवाह किया जा सकता है?
अधिनियम के अनुसार, कोई हिन्दू किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह कर सकता है जो हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिख हो, तथा यह प्रावधान विवाह में धार्मिक एकरूपता बनाए रखता है। यह किसी हिन्दू के किसी ईसाई, यहूदी, मुस्लिम या पारसी के साथ विवाह को तब तक मान्यता नहीं देता जब तक कि वे अधिनियम के तहत किसी अनुमत धर्म में धर्मांतरण न कर लें। हालाँकि, हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म या सिख धर्म में किया गया धर्म परिवर्तन वास्तविक होना चाहिए, न कि केवल विवाह के लिए होना चाहिए।
किन परिस्थितियों में कोई व्यक्ति विवाह को रद्द करने की मांग कर सकता है?
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार, यदि कोई विवाह अधिनियम की कानूनी आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता है, जो उसे शून्य बनाता है, या अधिनियम की धारा 12 के तहत सूचीबद्ध किसी भी पक्ष की नपुंसकता, मानसिक अस्वस्थता, वैध सहमति का अभाव आदि जैसे विशिष्ट आधारों पर विवाह को निरस्त करने की मांग की जा सकती है। यदि विवाह अधिनियम की धारा 12 के अनुसार कानूनी आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता है, तो कोई भी पक्ष विवाह को रद्द करने की मांग कर सकता है। हालाँकि, याचिका विवाह की तिथि से एक विशिष्ट समय सीमा के भीतर या अधिनियम की आवश्यकता के विरुद्ध आधारों का पता चलने पर दायर की जानी चाहिए।
यह मामला अधिनियम, 1955 के अंतर्गत अंतरधार्मिक विवाहों से जुड़े भविष्य के मामलों के लिए क्या मिसाल कायम करता है?
गुलिपिल्ली सोवरिया राज बनाम बंडारू पावनी का मामला, अधिनियम, 1955 के तहत अंतरधार्मिक विवाहों पर एक महत्वपूर्ण मिसाल प्रस्तुत करता है। इस मामले के अंतर्गत स्थापित मिसालें इस प्रकार हैं:
- कोई भी विवाह जिसमें एक पक्ष हिंदू है और दूसरा किसी अन्य धर्म का है, अधिनियम के तहत न तो मान्यता प्राप्त है और न ही वैध है;
- विवाह के लिए अपने धर्म का गलत विवरण देना धोखाधड़ी माना जाता है, जो अधिनियम के तहत विवाह को रद्द करने का एक वैध आधार है।
संदर्भ