सी.आर.पी.सी., 1973 के तहत इंवेस्टीगेशन, इंक्वायरी और ट्रायल के संबंध में सामान्य प्रावधान

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2025
Criminal Procedure Code
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यह लेख एलायंस यूनिवर्सिटी से Vanya Verma ने लिखा है। यह एक विस्तृत (एक्जास्टिव) लेख है जो इंवेस्टीगेशन, इंक्वायरी और ट्रायल, साक्ष्य (एविडेंस) लेने और रिकॉर्ड करने के तरीके, एक ही अपराध के लिए व्यक्ति को फिर से बरी (एक्विट) करने, पब्लिक प्रॉसिक्यूटर्स द्वारा उपस्थिति (अपीयरेंस) और अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) करने की अनुमति से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja ने किया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

इस लेख में इंवेस्टीगेशन, इंक्वायरी और ट्रायल के साथ-साथ साक्ष्य लेने और रिकॉर्ड करने के तरीके, इसके प्रावधान (प्रोविजन) और संबंधित मामलों के साथ-साथ एक ही अपराध के लिए व्यक्ति को फिर से बरी करने, पब्लिक प्रॉसिक्यूटर्स द्वारा पेश होने, अभियोजन करने की अनुमति के साथ-साथ, इन सब से संबंधित प्रावधान भी शामिल हैं जो पाठक (रीडर) के लिए एक विस्तृत व्यू देते हैं।

इंवेस्टीगेशन, इंक्वायरी और ट्रायल

इंवेस्टीगेशन, पुलिस अधिकारी द्वारा उठाया गया पहला कदम है, जो अपराध और उसके अपराधी के खिलाफ किसी भी मामले में उठाया जाता है। इंक्वायरी में मजिस्ट्रेट द्वारा किया गया सब कुछ शामिल है, भले ही मामले को चुनौती दी गई हो या नहीं। एक ट्रायल एक न्यायिक कार्यवाही (ज्यूडिशियल प्रोसिडिंग) है जो या तो दोषसिद्धि (कनविक्शन) या बरी (एक्विटल) के साथ समाप्त होती है।

द कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर, 1973 का अध्याय (चैप्टर) XXIV इंक्वायरी और ट्रायल के सामान्य प्रावधानों से संबंधित है। इंक्वायरी और ट्रायल विभिन्न चरणों (स्टेजिस) में से केवल दो चरण हैं जो एक आपराधिक प्रकृति के नियत पाठ्यक्रम (ड्यू कोर्स) को तय करने में मदद करते हैं।

इंवेस्टीगेशन

इंवेस्टीगेशन को सी.आर.पी.सी. की धारा 2(h) के तहत परिभाषित किया गया है। इंवेस्टीगेशन में,  कोड के तहत साक्ष्य एकत्र (कलेक्ट) करने के लिए सभी आवश्यक कार्यवाही शामिल है। इसका संचालन (कंडक्ट) एक पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है, जिसे इस संबंध में मजिस्ट्रेट द्वारा अधिकृत (ऑथराइज) किया गया हो।

इंवेस्टीगेशन के चरण (स्टेप्स ऑफ़ इंवेस्टीगेशन)

  1. उस स्थान पर जाना जहां अपराध किया गया है।
  2. मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का पता लगाना।
  3. संदिग्ध (सस्पेक्टिड) अपराधी की खोज और गिरफ्तारी।
  4. अपराध के साक्ष्य एकत्र करना जिसमें निम्न शामिल हो सकते हैं:
    • विभिन्न व्यक्तियों (आरोपी सहित) की एग्जामिनेशन और उनके बयान को लिखित में करना, यदि अधिकारी द्वारा इसे ठीक समझा जाए।
    • तलाशी और जब्ती (सीज) जो इंवेस्टीगेशन के लिए और ट्रायल से पहले पेश करने के लिए आवश्यक माने जाते है।

इंवेस्टीगेशन करने का अधिकार किसके पास है?

पुलिस अधिकारी या कोई अन्य व्यक्ति जिसे मजिस्ट्रेट द्वारा अधिकृत किया गया है, इंवेस्टीगेशन करने के लिए सक्षम (कंपीटेंट) है।

इंवेस्टीगेशन की शुरुआत (कमेंसमेंट ऑफ़ इंवेस्टीगेशन)

इंवेस्टीगेशन शुरू करने के दो तरीके हैं:

  • एफ.आई.आर. दर्ज़ होने पर इंवेस्टीगेशन करने का अधिकार प्रभारी (इन चार्ज) पुलिस अधिकारी के पास होता है।
  • जब मजिस्ट्रेट को शिकायत की गई है तो कोई भी व्यक्ति जिसे मजिस्ट्रेट द्वारा अधिकृत किया गया है, इस संबंध में इंवेस्टीगेशन कर सकता है।

मलाफाइड इंवेस्टीगेशन

यदि इंवेस्टीगेशन एजेंसीज मलाफाइड तरीके से इंवेस्टीगेशन करती हैं, तो इसे हाई कोर्ट के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) को लागू करके सुधारा जा सकता है।

गुरमन सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान, 1968

इस मामले में, इंवेस्टीगेशन अधिकारी व थाने के इन चार्ज को अज्ञात (अननोन) जगह से हत्या की सूचना मिली थी। यह माना गया कि इंवेस्टीगेशन शुरू होने से पहले एक मजिस्ट्रेट को अपराध का कॉग्निजेंस लेना चाहिए।

स्टेट़ बनाम परेश्वर घासी, 1967

इस मामले में, कोर्ट द्वारा यह देखा गया कि व्युत्पत्ति (एल्टीमोलॉजिकली) के अनुसार, इंवेस्टीगेशन शब्द का अर्थ है कि किसी भी मामले में तथ्यों का पता लगाने के उद्देश्य से किसी भी प्रासंगिक (रिलेवेंट) डेटा की खोज करना या सामग्री की जांच करना।

इंक्वायरी

इंक्वायरी या तो मजिस्ट्रेट द्वारा की जा सकती है या यह कोर्ट द्वारा की जा सकती है लेकिन पुलिस अधिकारी द्वारा नहीं की जा सकती। इंवेस्टीगेशन इंक्वायरी से अलग है।

सिविल प्रोसीजर कोड की धारा 2(g) के अनुसार, इंक्वायरी में, इस कोड के तहत किए गए ट्रायल को छोड़कर हर इंक्वायरी शामिल है, जो या तो मजिस्ट्रेट या कोर्ट द्वारा की जाती है। इंक्वायरी उन कार्यवाही से संबंधित है जो एक ट्रायल से पहले मजिस्ट्रेट द्वारा की जाती है।

इंक्वायरी में वे सभी इंक्वायरी शामिल हैं जो इस कोड के तहत की जाती हैं लेकिन इसमें वे ट्रायल शामिल नहीं हैं जो एक मजिस्ट्रेट द्वारा किए जाते हैं।

सी.आर.पी.सी. की धारा 159, मजिस्ट्रेट को सी.आर.पी.सी. की धारा 157 के तहत पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद प्रारंभिक (प्रिलिमिनरी) इंक्वायरी करने का अधिकार देती है, कि यह सुनिश्चित (एस्सर्टेन) किया जा सके की क्या कोई अपराध किया गया है या नहीं। यदि अपराध किया गया है तो क्या किसी व्यक्ति पर ट्रायल किया जाना चाहिए या नहीं।

इंक्वायरी के प्रकार

  • ज्यूडिशियल) इंक्वायरी
  • नॉन ज्यूडिशियल इंक्वायरी/ एडमिनिस्ट्रेटिव इंक्वायरी
  • प्रारंभिक इंक्वायरी
  • स्थानीय (लोकल) इंक्वायरी
  • एक अपराध के संबंध में इंक्वायरी
  • अपराध के अलावा अन्य मामलों से संबंधित इंक्वायरी

सी.आर.पी.सी. की धारा 159 के तहत, मजिस्ट्रेट को सी.आर.पी.सी. की धारा 157 के तहत पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने पर प्रारंभिक इंक्वायरी करने का अधिकार है, यह पता लगाने के लिए कि क्या कोई अपराध किया गया है या नही और यदि कोई अपराध किया गया है, तो क्या किसी व्यक्ति पर ट्रायल किया जाना है या नहीं। 

जो मामले सेशन कोर्ट द्वारा विचारणीय (ट्रायबल) होते हैं, उनकी कार्यवाही का प्रारंभ मजिस्ट्रेट के समक्ष होता है। कार्यवाही एक इंक्वायरी की प्रकृति की हो सकती है, जो आरोपी को सेशन कोर्ट के समक्ष ट्रायल के लिए भेजने की तैयारी करती है।

मजिस्ट्रेट उन मामलों में भी इंक्वायरी करतें हैं जो सी.आर.पी.सी. की धारा 302 के तहत स्वयं विचारणीय हैं। यदि मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत रिकॉर्ड की जाती है, तो मजिस्ट्रेट गवाहों और शिकायतकर्ता (कंप्लेंनेंट) को शपथ पर एग्जामिन करते है कि क्या इंवेस्टीगेशन के लिए कोई मामला है जिसे आपराधिक कोर्ट द्वारा तय किया जाना है।

यदि मजिस्ट्रेट शिकायतकर्ता और गवाहों द्वारा दिए गए बयान पर अविश्वास (डिस्ट्रस्ट) करते है, तो मजिस्ट्रेट शिकायत को खारिज कर सकते है।

इंक्वायरी या इंवेस्टीगेशन के परिणाम मामले को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त आधार स्थापित (एस्टेब्लिश) नहीं करते हैं। ये सभी कार्यवाही इंक्वायरी की प्रकृति में की जाती है।

इंवेस्टीगेशन और इंक्वायरी के बीच अंतर

  • उद्देश्य (ऑब्जेक्ट): इंवेस्टीगेशन का उद्देश्य मामले से संबंधित साक्ष्य एकत्र करना है, जबकि इंक्वायरी का उद्देश्य अपराध से संबंधित कुछ तथ्यों की सच्चाई या असत्य को निर्धारण (डिटरमाइन) करना है, ताकि एक और कदम उठाया जा सके।
  • प्राधिकरण (अथॉरिटी): इन्वेस्टीगेशन, कोर्ट/मजिस्ट्रेट के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा या एक पुलिस अधिकारी द्वारा की जाती है, जबकि इंक्वायरी, मजिस्ट्रेट या कोर्ट द्वारा की जाती है।
  • चरण: इंवेस्टीगेशन किसी भी मामले का पहला चरण है और मजिस्ट्रेट इंक्वायरी के साथ आगे बढ़ते है।
  • कमेंसमेंट: एफ.आई.आर. दर्ज होने या मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत के बाद इंवेस्टीगेशन शुरू होती है, जबकि मजिस्ट्रेट के पास शिकायत दर्ज करने के बाद इंक्वायरी शुरू होती है।

मुकदमा (ट्रायल)

कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर, ट्रायल शब्द को परिभाषित नहीं करती है। एक ट्रायल एक न्यायिक कार्यवाही है जो या तो दोषसिद्धि या बरी में समाप्त होता है लेकिन किसी को भी डिस्चार्ज नहीं करता है। यह एक न्यायिक ट्रिब्यूनल द्वारा एक ऐसे कारण का एग्जामिनेशन और निर्धारण (डिटरमिनेशन) है, जिस पर उसका अधिकार क्षेत्र है।

वारंट मामले में ट्रायल, चार्ज तय होने के साथ ही शुरू होता है जब आरोपी को उसकी पैरवी (प्लीड) करने के लिए बुलाया जाता है। एक समन मामले में, औपचारिक (फॉर्मल) चार्ज तय करना आवश्यक नहीं है, जैसे ही आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाता है और अपराध का विवरण (पार्टिकुलर) उसे बताया जाता है, ट्रायल शुरू हो जाता है। वह मामला जो एक सेशन कोर्ट द्वारा विशेष रूप से विचारणीय होता है, वहां ट्रायल मजिस्ट्रेट द्वारा की गई प्रतिबद्ध (कमिटल) कार्यवाही के बाद ही शुरू होता है। अपील और रिवीजन शब्द, ट्रायल शब्द में शामिल हैं, वे पहले ट्रायल की निरंतरता (कंटीन्यूएशन) में होते हैं।

एक आपराधिक मुकदमे में, कोर्ट का कार्य यह पता लगाना है कि जिस व्यक्ति को कोर्ट के समक्ष आरोपी के रूप में पेश किया गया है, वह उस अपराध का दोषी है, जिसके लिए उस पर चार्ज लगाया गया है। यह मानने के लिए कि आरोपी उस अपराध का दोषी है, जिसके लिए उस पर चार्ज लगाया गया है, कोर्ट का उद्देश्य रिकॉर्ड पर यह पता लगाना है कि क्या कोई भरोसेमंद और विश्वसनीय (रिलायबल) साक्ष्य मोजूद है जिसके आधार पर आरोपी की सजा का पता लगाया जा सके।

आमतौर पर 3 प्रकार के ट्रायल होते हैं:

  • सेशन कोर्ट द्वारा ट्रायल।
  • मजिस्ट्रेट द्वारा ट्रायल (समन या वारंट केस हो सकता है)।
  • समरी ट्रायल।

साक्ष्य लेने और रिकॉर्ड करने का तरीका (मोड ऑफ़ टेकिंग एंड रिकॉर्डिंग एविडेंस)

जनरल रूल्स और सर्कुलर ऑर्डर वॉल्यूम I के अध्याय XII के तहत सी.आर.पी.सी. की धारा 272 से 283 में प्रदान किए गए नियमों के साथ पठित (रेड), आपराधिक मामलों में साक्ष्य लेने और रिकॉर्ड करने के तरीके की व्याख्या (एक्सप्लेन) की गई है। साक्ष्य रिकॉर्ड करने के तरीके निम्नलिखित हैं:

  • धारा 273– सभी साक्ष्यों को आरोपी की उपस्थिति में ही रिकॉर्ड करना अनिवार्य (मेंडेटरी) है और जब उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति अभिमुक्त (डिस्पेन्स) कर दी गई हो तो साक्ष्य को उसके प्लीडर की उपस्थिति में रिकॉर्ड किया जाना चाहिए।
  • धारा 274– मजिस्ट्रेट, कोर्ट की भाषा में साक्ष्य के सार (सब्सटेंस) का एक मेमोरेंडम रिकॉर्ड करेंगे और वह मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए।
  • धारा 275(1)– सभी वारंट मामलों में, प्रत्येक गवाह का साक्ष्य, लिखित रूप में, मजिस्ट्रेट द्वारा या उनके निर्देश (डायरेक्शन) और अधीक्षण (सुपरिटेंडेंस) के तहत नियुक्त (अपॉइंट) कोर्ट  के किसी अधिकारी द्वारा होगा, यदि मजिस्ट्रेट कुछ शारीरिक या अन्य अक्षमताओं (इनकैपेसिटी) के कारण ऐसा करने में असमर्थ (अनेबल) हैं। इस उपधारा (सब्सेक्शन) के तहत साक्ष्य को ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक मोड द्वारा रिकॉर्ड किया जाएगा।
  • धारा 275(3)– यह धारा मजिस्ट्रेट को प्रश्न और उत्तर के रूप में साक्ष्य रिकॉर्ड करने की अनुमति देती है।
  • धारा 276– सेशन कोर्ट में रिकॉर्डिंग, एक कथा के रूप में की जानी चाहिए। पीठासीन (प्रीसाइडिंग) अधिकारी अपने विवेक (डिस्क्रीशन) से साक्ष्य के किसी भी भाग को प्रश्न-उत्तर के रूप में ले सकते है, जो उनके द्वारा हस्ताक्षरीत किया जाना चहिए।
  • धारा 278– जब किसी गवाह के साक्ष्य पूरे हो जाते है तो उसे आरोपी या उसके प्लीडर के सामने पढ़ा जाना चाहिए। यह उस दिन के अंत में नहीं किया जाना चाहिए जब सभी गवाहों का परीक्षण हो गया हो। यदि आवश्यक हो तो साक्ष्य को आरोपी द्वारा ठीक किया जा सकता है।
  • धारा 280– पीठासीन जज या मजिस्ट्रेट को टिप्पणी (रिमार्क) रिकॉर्ड करने का अधिकार है।

एग्जिबिट्स की मार्किंग

अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष द्वारा कुछ साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते हैं, यह साक्ष्य जिस क्रम में प्रस्तुत किए जाते है, उस क्रम में उन्हें संख्या के साथ चिह्नित (मार्क) किया जाना चाहिए। दूसरे पक्ष की ओर से स्वीकार किए जाने वाले दस्तावेजों को बड़े अक्षरों के साथ चिह्नित किया जाना चाहिए। यदि कोई भी पक्ष, साक्ष्य को स्वीकार नहीं करता है तो साक्ष्य को एक्सटेंशन C-I, C-II आदि के रूप में चिह्नित किया जाएगा।

यदि एक से अधिक दस्तावेज़ समान प्रकृति के हैं, तो सीरीज में प्रत्येक दस्तावेज़ को अलग करने के लिए इसमें छोटे अक्षर या छोटे अंक को जोड़ा जाता है। साक्ष्य साबित होने और स्वीकार किए जाने के बाद इसे रोमन नंबर से चिह्नित किया जाता है। उदाहरण के लिए, MO-I, MO-II आदि, कोर्ट के बेंच क्लर्क उन लेखों की लिस्ट्स तैयार करेंगे जिन पर जज द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे।

मामले (केसेस)

जावर चंद और अन्य बनाम पुखराज सुराना, 1961

इस मामले में, यह कहा किया गया था कि जब भी ऐसी आपत्ति (ऑब्जेक्शन) पर कोई आदेश पास किये बिना कोर्ट में कोई आपत्ति उठाई जाती है तो कोर्ट आगे की कार्यवाही नहीं करता है। यदि किसी दस्तावेज की स्टैंप/स्टांप ड्यूटी पर आपत्ति होती है तो आगे की कार्यवाही से पूर्व उसी समय उस आपत्ति पर निर्णय लिया जाता है।

स्टेट ऑफ़ मध्य प्रदेश बनाम बुधराम, 1995

इस मामले में आरोपी को आई.पी.सी. की धारा 302 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था और उसे मौत की सजा दी गई थी। दोषसिद्धि को खारिज कर दिया गया था, क्योंकि उनकी उपस्थिति में साक्ष्य रिकॉर्ड नहीं किया गया था, बाद में मामले को ट्रायल के लिए वापस भेज दिया गया था।

बंछनिधि सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ उड़ीसा, 1989

यह मामला 1990 में क्रिमिनल लॉ जर्नल में रिपोर्ट किया गया था। इस मामले में आरोपी आई.पी.सी. की धारा 379 के तहत ट्रायल का सामना कर रहा था। एग्जामिनेशन के दौरान, आरोपी का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) करने वाला वकील उपस्थित नहीं था और आरोपी की व्यक्तिगत उपस्थिति को समाप्त कर दिया गया था। पूरे ट्रायल को हाई कोर्ट द्वारा निष्प्रभावी (विशिएट) माना गया, क्योंकि एग्जामिनेशन सी.आर.पी.सी. की धारा 273 के अनिवार्य प्रावधान के घोर (ग्रॉस) उल्लंघन (वायलेशन) में आयोजित (कंडक्ट) की गई थी।

एक ही अपराध के लिए व्यक्ति को फिर से बरी करना (एक्विटल ऑफ़ पर्सन अगेन फॉर द सेम ऑफेंस)

फ्रांसीसी शब्द ऑट्रेफ़ोइस एक्विट का अर्थ है “पहले बरी कर दिया गया” और ऑट्रेफ़ोइस कनविक्ट का अर्थ है “पहले दोषी ठहराया गया”। ऑट्रेफॉइस एक्विट होने की दलील (प्ली) का मतलब है कि किसी व्यक्ति पर अपराध के लिए इस कारण से ट्रायल नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह पहले भी उसी अपराध से बरी हो चुका है और इस तरह की दलील को संयुक्त (कंबाइन) या दोषी न होने की दलील (प्ली ऑफ़ नॉट गिल्टी) के साथ लिया जाता है।

जबकि, ऑट्रेफॉइस कनविक्ट की दलील का मतलब है कि किसी व्यक्ति पर अपराध के लिए ट्रायल नहीं चलाया जा सकता है क्योंकि उसे पहले ही इस अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था और इस तरह की दलील को दोषी न होने की दलील के साथ जोड़ा जाता है।

ऑट्रेफ़ोइस एक्विट और ऑट्रेफ़ोइस कनविक्ट को संयुक्त रूप से ऑट्रेफ़ोइस एक्विट और ऑट्रेफ़ोइस कनविक्ट का सिद्धांत (डॉक्ट्रिन) कहा जाता है। यह सिद्धांत मूल रूप से दोहरे खतरे (डबल जियोपर्डी) के खिलाफ एक नियम है, जिसका अर्थ है कि एक व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए, फिर से ट्रायल नहीं किया जा सकता है यदि उसे या तो उसी अपराध से संबंधित ट्रायल में बरी कर दिया गया हो या दोषी ठहराया गया हो।

यह भारतीय संविधान के आर्टिकल 20(2) के तहत प्रदान किया गया है कि “किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार ट्रायल नहीं किया जा सकता और उसे दंडित नहीं किया जा सकता है”। इस सिद्धांत को कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर, 1973 की धारा 300 और जनरल क्लॉजेस एक्ट, 1897 की धारा 26 में प्रदान किया गया है।

सी.आर.पी.सी. की धारा 300 “निमो डिबेट बिस वेक्सारी” पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि एक व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार खतरे में नहीं डाला जाएगा।

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(1)

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(1) के अनुसार किसी व्यक्ति पर किसी अपराध के लिए सक्षम (कंपीटेंट) अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) वाले कोर्ट द्वारा विचारण किया जाना चाहिए। उसी समय, किसी व्यक्ति पर उस अपराध के लिए ट्रायल नहीं चलाया जा सकता है जिसके लिए उसे पहले दोषी ठहराया जा चुका है। धारा 300(1) में व्यक्ति के दूसरे ट्रायल को रोक दिया जाता है, भले ही वह समान अपराध हो, लेकिन तब भी वह अपराध उन्हीं तथ्यों पर आधारित हो जिसके लिए धारा 221(1) के तहत उसके खिलाफ चार्ज बनाया था या जिसके लिए आरोपी को धारा 221(2) के तहत दोषी ठहराया गया था।

धारा 221(1) में प्रावधान है कि यदि मामले के तथ्यों पर संदेह है कि क्या अपराध किया गया है, तो आरोपी पर ऐसे सभी अपराधों या ऐसे किसी भी अपराध का चार्ज लगाया जा सकता है या इस तरह के अपराधो में से कोई भी करने का वैकल्पिक (अल्टरनेटिव) चार्ज दिया जा सकता है। 

धारा 221(2) में प्रावधान है कि यदि आरोपी पर एक अपराध का चार्ज लगाया गया है, और साक्ष्यों से यह प्रतीत होता है कि उसने एक अलग अपराध किया है, जिस अपराध के लिए उस पर धारा 221(1) के तहत चार्ज लगाया जा सकता है, तो उसको उस अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है, भले ही उस पर उस अपराध का चार्ज न लगाया गया हो।

निम्नलिखित पॉइंट्स धारा 300 के अंतर्गत आते हैं:

  • गुण-दोष (मेरिट्स) और निर्धारण के आधार पर आरोपी का ट्रायल होना चाहिए। धारा 300(1) के तहत बाद के ट्रायल पर रोक है। लेकिन आरोपी का ट्रायल होना चाहिए, और उसे पिछले ट्रायल में दोषी ठहराया जाना चाहिए या बरी किया जाना चाहिए। यदि कोई ट्रायल नहीं चल रहा है तो उसी अपराध के लिए बाद के ट्रायल पर रोक नहीं लगाई जा सकती है।
  • चार्ज सक्षम अधिकार क्षेत्र के कोर्ट द्वारा लगाया जाना चाहिए, यदि यह सक्षम अधिकार क्षेत्र की कोर्ट द्वारा नहीं है तो यह शुरू से ही अमान्य (वॉयड एब इनिशियो) है और यदि आरोपी को बरी कर दिया गया है, तो उस पर अपराध के लिए फिर से ट्रायल किया जाएगा। यदि कोर्ट द्वारा यह माना जाता है कि पहला ट्रायल सक्षम अधिकार क्षेत्र वाले कोर्ट द्वारा नहीं किया गया था तो यह दूसरे ट्रायल के लिए जाता है।
  • एक ही अपराध के लिए दूसरे ट्रायल को रोकने के लिए इस धारा के तहत एक दलील लेने के लिए व्यक्ति को पहले ट्रायल में या तो दोषी ठहराया जाना चाहिए या बरी करार किया जाना चाहिए। एक व्यक्ति जिसे डिस्चार्ज कर दिया गया है, उस पर फिर से चार्ज लगाया जा सकता है यदि उसके खिलाफ कोई अन्य गवाही पाई जाती है।
  • यदि सक्षम कोर्ट ने किसी आरोपी की दोषसिद्ध करते या उसे बरी करते हुए निर्णय दिया है, लेकिन यदि कोई आदेश या निर्णय कोर्ट द्वारा या तो रिवीजन या अपील पर खारिज कर दिया जाता है, तो ऐसे व्यक्ति पर उसी अपराध के लिए फिर से ट्रायल किया जा सकता है, क्योंकि पिछला विचारण रद्द कर दिया गया था।
  • पिछले मामले में बरी या दोषसिद्धि, एक ही व्यक्ति द्वारा के अलग-अलग अपराध के मुकदमे पर रोक नहीं लगा सकती है।

स्टेट ऑफ़ तमिलनाडु बनाम नलिनी, 1999

इस मामले में, टेररिस्ट एंड डिसरप्टिव एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट (टाडा), 1985 जो अब, द प्रीवेंशन ऑफ़ टेररिज्म एक्ट, 2002 (पोटा) है, और आई.पी.सी. के तहत अपराधों के लिए आपराधिक ट्रायल किया गया था। टाडा के तहत अपराधों के लिए बाद के ट्रायल को रोक दिया गया था क्योंकि वे समान तथ्यों पर ही आधारित थे और बाद के ट्रायल में आरोपी की सजा को खारिज कर दिया गया था।

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(2)

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(2) एक ऐसी स्थिति पर विचार करती है जिसमें किसी व्यक्ति पर सी.आर.पी.सी. की धारा 220(1) के अनुसार चार्ज लगाया जाता है और उस पर ट्रायल किया जाता है। ऐसे मामले में, जिस व्यक्ति पर इस तरह का आरोप लगाया गया है, उस पर पिछले मामले में दिए गए दोषसिद्धि या बरी होने के आदेश के बाद भी फिर से ट्रायल किया जा सकता है, लेकिन ऐसे में राज्य सरकार की पूर्व सहमति होनी चाहिए।

सी.आर.पी.सी. की धारा 220(1) में प्रावधान है कि यदि एक ही व्यक्ति द्वारा एक ही अपराध करने के लिए एक साथ जुड़े कार्यों की सीरीज के दौरान एक से अधिक अपराध किए जाते है तो उस पर ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए चार्ज लगाया किया जा सकता है और उस पर ट्रायल किया जा सकता है।

यदि किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है तो अन्य किसी अपराध के लिए उस पर एक अलग चार्ज लगाया जा सकता है, लेकिन यह चार्ज आरोपी के खिलाफ औपचारिक (फॉर्मल) ट्रायल में नहीं लगाया गया था, आरोपी एक और अपराध के लिए फिर से ट्रायल के लिए उत्तरदायी नहीं होगा, क्योंकि निश्चित रूप से यह स्वयं उसके शोषण (अब्यूज) की ओर ले जाता है। इस प्रकार, इस कारण से बाद के भाग में यदि यह प्रावधान है कि दूसरे ट्रायल के लिए जाने से पहले राज्य सरकार की पूर्व सहमति होनी चाहिए। न्याय को बढ़ावा देने की दृष्टि से मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर उचित विचार करने के बाद ही राज्य सरकार द्वारा सहमति दी जा सकती है।

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(3)

धारा 300(3) एक ऐसी स्थिति प्रदान करती है जहां एक व्यक्ति को ऐसे परिणाम देने वाले किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है, कि परिणाम के साथ एक कार्य उस अपराध के अलावा एक अलग अपराध का गठन (कांस्टीट्यूट) करता है, जिसके लिए आरोपी को दोषी ठहराया गया था। ऐसी स्थितियों में, यदि परिणाम नहीं होते है या कोर्ट को उस समय ऐसे परिणामों के बारे में पता नहीं होता जब व्यक्ति को दोषी ठहराया गया था, तो बाद में उस व्यक्ति पर इस तरह के अपराध के लिए ट्रायल किया जा सकता है।

धारा 300(3) केवल “दोषी व्यक्ति” शब्दों का प्रयोग करती है, बरी शब्द का नहीं। इसलिए, यह नियम उन स्थितियों में लागू नहीं होता है जहां व्यक्ति को बरी कर दिया जाता है।

उदाहरण (इलस्ट्रेशन)

  • S पर R को गंभीर चोट (ग्रीवस हर्ट) पहुंचाने का ट्रायल किया जाता है, S को इस अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है। बाद में पता चलता है कि गंभीर चोट के कारण R की मृत्यु हो जाती है। इधर, इस मामले में S पर एक बार फिर कल्पेबल होमीसाइड का ट्रायल किया जा सकता है।
  • यदि S को R को गंभीर चोट पहुंचाने से बरी कर दिया जाता है, तो S पर इस धारा के तहत एक बार फिर से कल्पेबल होमीसाइड का ट्रायल नहीं चलाया जा सकता है, अगर बाद में यह पाया जाता है कि गंभीर चोट के कारण, R की मृत्यु हो जाती है।

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(4)

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(4) में प्रावधान है कि जहां किसी व्यक्ति को किसी एक्ट के तहत गठित किसी अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है या उसे बरी किया जाता है, तो भी उस पर किसी अन्य कार्य या अपराध के लिए चार्ज लगाया जा सकता है, जो उन्हीं तथ्यों पर आधारित हो और उस पर उसी अपराध के लिए फिर से ट्रायल भी किया जा सकता है, अगर वह कोर्ट, जिसके द्वारा पहले उसका ट्रायल किया गया था, वह उस अपराध का ट्रायल करने के लिए सक्षम नहीं था, जिस चार्ज के लिए बाद में उस पर आरोप लगाया गया है। 

उदाहरण (इलस्ट्रेशन)

  • X पर फर्स्ट क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट द्वारा रॉबरी का ट्रायल किया जाता है। बाद में उन्हीं तथ्यों पर उस पर डकैती का आरोप लगाया गया। इस मामले में, चूंकि फर्स्ट क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट डकैती के अपराध का ट्रायल नहीं कर सकते है, क्योंकि यह केवल एक कोर्ट द्वारा विचारणीय है यदि यह एक सेशन कोर्ट है, इसलिए, X के बाद के ट्रायल की परवाह किए बिना कि उसे दोषी ठहराया गया है या बरी कर दिया गया है, वह वर्जित (बर्ड) नहीं होगा।

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(5)

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(5) एक ऐसी स्थिति प्रदान करती है जहां एक व्यक्ति, जिसको सी.आर.पी.सी. की धारा 258 के तहत डिस्चार्ज कर दिया जाता है, उस पर कोर्ट की पूर्व सहमति के बिना, जिसने डिस्चार्ज का आदेश दिया था या कोई अन्य कोर्ट, जो पहले वाले कोर्ट के अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) है, उसकी सहमती के बिना एक बार फिर से उसी अपराध के लिए ट्रायल नहीं किया जा सकता है। यह प्रावधान एक नए अभियोजन की शक्ति के दुरुपयोग (अब्यूज) के खिलाफ एक जांच प्रदान करता है, विशेष रूप से उक्त प्रावधानों के तहत डिस्चार्ज के मामलों में, इस प्रकार, यह कानून के अन्य प्रावधानों के तहत,  डिस्चार्ज को अलग तरह से ट्रीट करता है।

यह धारा उन मामलों को डिस्चार्ज करने पर लागू नहीं होती है जिन्हें शिकायत पर स्थापित किया गया था। धारा 258 के तहत डिस्चार्ज करने को धारा 300(5) के तहत कभी भी बरी नहीं माना जा सकता है। धारा 300 के स्पष्टीकरण (एक्सप्लेनेशन) में यह प्रावधान किया गया है कि किसी आरोपी को डिस्चार्ज करना या शिकायत को खारिज करना इस धारा के तहत बरी को संदर्भित (रेफर)  नहीं करता है।

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(6)

सी.आर.पी.सी. की धारा 300(6) विशेष रूप से यह प्रदान करती है कि “धारा 300 में कुछ भी जनरल क्लॉजेस एक्ट, 1897 की धारा 26 या इस कोड की धारा 188 के प्रावधानों को प्रभावित (इफेक्ट) नहीं करेगा”। यदि आरोपी को एक अलग कार्य के तहत एक ही तथ्य से बनने वाले किसी भी अपराध के लिए एक विशिष्ट (स्पेसिफिक) चार्ज पर पहले ट्रायल में बरी कर दिया जाता है।

स्टेट ऑफ़ एम.पी. बनाम वीरेश्वर राव अग्निहोत्री, 1957

इस मामले में, यह माना गया था कि आई.पी.सी. की धारा 409 के तहत ट्रायल करने और दोषी ठहराने पर कोई रोक नहीं हो सकती है, ऐसे मामले में जहां आरोपी पर द प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट, 1947 की धारा 52 के तहत ट्रायल किया गया था और उसे अपराध से बरी कर दिया गया था, क्योंकि अपराध समान तथ्यों पर गठित किया गया था।

पब्लिक प्रॉसिक्यूटर्स द्वारा उपस्थिति (अपीयरेंस बाय पब्लिक प्रॉसिक्यूटर )

सी.आर.पी.सी. की धारा 2(u) पब्लिक प्रॉसिक्यूटर को परिभाषित करती है। इसमें पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के निर्देशों (डायरेक्शंस) के अनुसार कार्य करने वाला कोई भी व्यक्ति शामिल है।

कोड ऑफ सिविप प्रोसीजर की धारा 24 पब्लिक प्रॉसिक्यूटर को परिभाषित करती है। एक पब्लिक प्रॉसिक्यूटर को एक स्टेट के एजेंट के रूप में माना जाता है, वह आपराधिक न्याय प्रणाली (सिस्टम) में आम लोगों के हित (इंटरेस्ट) का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) करता है। वे ऑडी अल्टरम पार्टम के सिद्धांत को फॉलो करते हैं यानी किसी भी व्यक्ति के पक्ष को बिना सुने उसे दोषी नहीं ठहराया जाएगा।

बाबू बनाम स्टेट ऑफ़ केरल, 2010

इस मामले में, कोर्ट द्वारा यह देखा गया था कि पब्लिक प्रॉसिक्यूटर न्याय के मंत्री होते हैं जिनका कर्तव्य न्याय के प्रशासन (एडमिनिसट्रेशन) में जज की सहायता करना है।

पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के डायरेक्टरेट, हाई कोर्ट को छोड़कर सेशन स्तर (लेवल) और असिस्टेंट सेशन स्तर पर विभिन्न अभियोजन एजेंसीज के कार्यों की निगरानी (सुपरवाइज) और जांच करता है।

सी.आर.पी.सी. की धारा 24 पब्लिक प्रॉसिक्यूटर का पदानुक्रम देती है (सेक्शन 24 ऑफ़ सी.आर.पी.सी. गिव्स द हाइरार्कि ऑफ़ पब्लिक प्रॉसिक्यूटर)

  • केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त (अपॉइंट) पब्लिक प्रॉसिक्यूटर।
  • राज्य सरकार द्वारा नियुक्त पब्लिक प्रॉसिक्यूटर।
  • राज्य सरकार द्वारा नियुक्त अतिरिक्त (एडिशनल) पब्लिक प्रॉसिक्यूटर।
  • केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त विशेष (स्पेशल) पब्लिक प्रॉसिक्यूटर।
  • राज्य सरकार द्वारा नियुक्त विशेष पब्लिक प्रॉसिक्यूटर।

धारा 24 में राज्य सरकार और केंद्र सरकार द्वारा डिस्ट्रिक्ट कोर्ट और हाई कोर्ट में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की नियुक्ति के बारे में बात की गई है।

धारा 24(3)– प्रत्येक जिले में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की नियुक्ति की जानी चाहिए और एक अतिरिक्त पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की नियुक्ति भी की जा सकती है।

धारा 24(4)– जिला मजिस्ट्रेट को सेशन जज के परामर्श (कंसल्टेशन) से ऐसे नामों का एक पैनल तैयार करना होता है जो ऐसी नियुक्ति के लिए उपयुक्त माने जाते हैं।

धारा 24(5)– किसी व्यक्ति को राज्य सरकार द्वारा किसी जिले में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर या अतिरिक्त पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के रूप में तब तक नही नियुक्त किया जा सकता है जब तक कि उस व्यक्ति का नाम सब सेक्शन 4 के तहत तैयार किए गए पैनल में न लिया गया हो।

धारा 24(6)– एक ऐसे मामले की व्याख्या (एक्सप्लेन) करता है जहां एक राज्य में अभियोजन अधिकारियों का स्थानीय (लोकल) संवर्ग (कैडर) है, यदि संवर्ग में नियुक्ति के लिए ऐसा कोई व्यक्ति उपयुक्त नहीं है, तो नियुक्ति सब सेक्शन 4 के तहत तैयार किए गए पैनल से की जानी चाहिए।

धारा 24(7)– व्यक्ति को कम से कम 7 वर्ष की अवधि के लिए अधिवक्ता (एडवोकेट) के रूप में अभ्यास करने के बाद ही पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।

सी.आर.पी.सी. की धारा 25 में कहा गया है कि जिले में एक असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर को मजिस्ट्रेट कोर्ट में ट्रायल करने के उद्देश्य से नियुक्त किया जाता है। कोर्ट किसी मामले के संचालन (कंडक्ट) के उद्देश्य से एक से अधिक असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर नियुक्त कर सकता है।

जिला मजिस्ट्रेट, असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की अनुपस्थिति (अबसेंस) में किसी अन्य व्यक्ति को असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के रूप में कार्य करने के लिए नियुक्त कर सकते है।

सी.आर.पी.सी. की धारा 321 के तहत पब्लिक प्रॉसिक्यूटर या असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर को फैसला सुनाने से पहले कोर्ट की अनुमति से मामले या ट्रायल से हटने की अनुमति दी जाती है।

पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के कार्य (फंक्शंस ऑफ़ पब्लिक प्रॉसिक्यूटर )

  • पब्लिक प्रॉसिक्यूटर- सेशन कोर्ट और हाई कोर्ट में एक अतिरिक्त पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के कार्यों का पर्यवेक्षण (सुपरविजन) करता है।
  • चीफ प्रॉसिक्यूटर- मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट कोर्ट में सहायक पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के कार्यों का पर्यवेक्षण करता है।
  • अतिरिक्त प्रॉसिक्यूटर- एक सेशन कोर्ट में आपराधिक कार्यवाही करता है।
  • असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर- एजेंसीज द्वारा संचालित (ऑपरेटेड) चार्जशीट की जांच करता है और बरी या डिस्चार्ज प्रस्तुत करता है। वे साक्ष्य के मूल्यांकन (इवेल्यूएशन) के साथ-साथ याचिका दायर करने के लिए भी जिम्मेदार हैं। वे मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट कोर्ट में आपराधिक कार्यवाही भी करता हैं।
  • अभियोजन निदेशक (डायरेक्टर of प्रॉसिक्यूशन)- यह हेड ऑफिस है, वे डायरेक्टरेट के अधिकारियों के उपर पूरी तरह नियंत्रण और पर्यवेक्षण का प्रयोग करते हैं। वे अकाउंट्स ब्रांच की देखभाल करते हैं।

एक पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की भूमिका (रोल ऑफ़ ए पब्लिक प्रॉसिक्यूटर)

पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की भूमिका को भागों में विभाजित (डिवाइड) किया गया है:

  1. इंवेस्टीगेशन प्रक्रिया (प्रोसीजर) में।
  2. ट्रायल के दौरान।

इंवेस्टीगेशन प्रक्रिया के दौरान एक पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की भूमिका

  • कोर्ट में उपस्थित होकर गिरफ्तारी के लिए वारंट प्राप्त करना।
  • निर्दिष्ट परिसर (स्पेसिफाइड प्रिमाइसेज) में तलाशी लेने के लिए तलाशी का वारंट प्राप्त करना।
  • पूछ ताछ के लिए पुलिस हिरासत में रिमांड प्राप्त करना, जिसमें आरोपी की हिरासत में पूछ ताछ शामिल है।
  • गैर-पता लगाने योग्य (नॉन ट्रेसेबल) अपराधी को प्रोक्लेम्ड अपराधी घोषित करने के लिए कार्यवाही शुरू करना।
  • अभियोजन पक्ष की उपयुक्तता (अवेलिबिलिटी) के संबंध में आरोपी के साक्ष्य को पुलिस रिपोर्ट में रिकॉर्ड करना।

ट्रायल के समय पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की भूमिका

  • यदि आरोपी का दोष सिद्ध हो जाता है तो पब्लिक प्रॉसिक्यूटर और बचाव पक्ष (डिफेंस) के वकील सजा की मात्रा तय करने के लिए आगे बहस करते हैं।
  • प्रोसिक्यूटर्स की जिम्मेदारी है कि वे उन सभी गवाहों को बुलाएं जिनके साक्ष्य मामले को तय करने में एक आवश्यक एलिमेंट हैं। उन्हें गवाह से क्रॉस एग्जामिन भी करना होता है और यह सुनिश्चित करना होता है कि कोई भी गवाह बिना एग्जामिनेशन के न छूटे और सभी आवश्यक दस्तावेज पेश करे जाएं।

मामले (केसेस)

  • विनीत नारायण बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 1997

इस मामले में, उच्च राजनीतिक गणमान्य (हाई पॉलिटिकल डिग्निटरीज) व्यक्ति शामिल थे। सी.बी.आई. इंवेस्टीगेशन में नाकामि रही। कोर्ट ने यह माना कि इंवेस्टीगेशन कार्यवाही शुरू करने के लिए प्रॉसिक्यूटर्स को लॉन्च करने में कोई प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शंस) या सीमाएं नहीं थी।

  • जाहिरा हबीबुल्लाह और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात  और अन्य, 2006

इस मामले को बेस्ट बेकरी केस के नाम से भी जाना जाता है। इस मामले में वडोदरा में एक निर्माण कार्य (कंस्ट्रक्शन) में आग लगने से 14 लोगों की मौत हो गई थी। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया, जहां कोर्ट ने कहा कि “पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने कोर्ट के सामने सच्चाई पेश करने पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय बचाव के रूप में अधिक काम किया है”।

  • जितेंद्र कुमार @ अज्जू बनाम स्टेट (एन.सी.टी. ऑफ दिल्ली) और अन्य, 1999

इस मामले में, हाई कोर्ट ने यह कहा था कि “पब्लिक प्रॉसिक्यूटर राज्य की ओर से कार्य करता है। पब्लिक प्रॉसिक्यूटर न्याय के मंत्री होते हैं, जो आपराधिक न्याय के प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं”।

  • टीकम सिंह बनाम स्टेट और अन्य, 2006

इस मामले में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के कार्यालय से जुड़ा एक पब्लिक एलिमेंट है। पब्लिक प्रॉसिक्यूटर एक शिकायतकर्ता (कंप्लेनेंट) के रूप में नहीं बल्कि राज्य की तरफ से एक प्रतिनिधि (रिप्रेजेंटेटिव) के रूप में कार्य करता है और निजी वकील (प्राइवेट काउंसिल) की भूमिका पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की भूमिका से भिन्न होती है।

  • कुंजा सुबिधि और अन्य बनाम सम्राट, 1928

इस मामले में, यह माना गया था कि पब्लिक प्रॉसिक्यूटर का कर्तव्य कोर्ट के समक्ष सभी प्रासंगिक (रिलेवेंट) साक्ष्य प्रस्तुत करना है। साक्ष्य आरोपी के पक्ष में है या विपक्ष में, यह फैसला कोर्ट पर छोड़ देना चाहिए।

अभियोजन चलाने की अनुमति (परमिशन टू कंडक्ट ए प्रॉसिक्यूशन)

सी.आर.पी.सी. की धारा 302 मजिस्ट्रेट को किसी भी व्यक्ति को अभियोजन चलाने की अनुमति देती है, जो किसी मामले की इंक्वायरी या ट्रायल कर रहे है, जो इंस्पेक्टर के पद से नीचे का पुलिस अधिकारी होना चाहिए। लेकिन एडवोकेट जनरल या पब्लिक प्रॉसिक्यूटर या असिटेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के अलावा कोई भी व्यक्ति ऐसी अनुमति के बिना अभियोजन चलाने का हकदार नहीं होगा।

एक पुलिस अधिकारी को अभियोजन चलाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है यदि उसने उस अपराध के संबंध में अपराध की इंवेस्टीगेशन प्रक्रिया में भाग लिया है, जिसके लिए आरोपी पर ट्रायल किया जा रहा है।

एक मजिस्ट्रेट के पास यह शक्ति है की वह किसी भी व्यक्ति या शिकायतकर्ता को व्यक्तिगत रूप से या एक प्लीडर के माध्यम से अभियोजन चलाने की अनुमति दे सकते हैं।

सी.आर.पी.सी. की धारा 302 और सुप्रीम कोर्ट के दो फैसले, मेसर्स जे.के. इंटरनेशनल बनाम स्टेट, गवर्नमेंट ऑफ एन.सी.टी. ऑफ दिल्ली और अन्य, इस प्रस्ताव (प्रिपोजिशन) का उत्तर है कि एक मजिस्ट्रेट द्वारा ट्रायल में, एक शिकायतकर्ता या एक पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के अलावा कोई अन्य व्यक्ति भी ट्रायल में सहायता कर सकते है और एक ट्रायल के संचालन में भी भाग ले सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी सभी कोर्ट्स पर बाध्यकारी (बाइंडिंग) भूमि के कानून (लॉ ऑफ द लेंड) का पालन (अधेड़) किया।

  • मेसर्स जे.के. इंटरनेशनल बनाम स्टेट, गवर्नमेंट ऑफ़ एनसीटी ऑफ दिल्ली, 2001

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अभियोजन के संचालन में भाग लेने का इरादा रखने वाले किसी भी निजी (प्राइवेट) व्यक्ति को अनुमति देने का दायरा धारा 302 के तहत व्यापक (वाइड) है। अगर कोर्ट को लगता है कि किसी पक्ष के अनुरोध (रिक्वेस्ट) पर, न्याय के कारण की बेहतर सेवा हो सकती है यदि ऐसी अनुमति दी जाती है, तो ऐसी अनुमति सामान्यतः (जनरली) कोर्ट द्वारा दी जानी चाहिए।

  • धारीवाल इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम किशोरी वाधवानी और अन्य, 2012

इस मामले में, यह माना गया था कि कोड के तहत योजना (स्कीम) यह इंगित (इंडिकेट) करती है कि अपराध से पीड़ित व्यक्ति को ट्रायल के परिदृश्य (सिनेरियो) से पूरी तरह से मिटाया नहीं जा सकता है, केवल इस आधार पर कि पुलिस द्वारा इंवेस्टीगेशन की गई थी और चार्ज शीट उनके द्वारा रखी गई थी। तथ्य यह है कि कोर्ट ने अपराध का कॉग्निजेंस लिया था, यहां तक ​​​​कि उसे अपनी शिकायत को व्यक्त करने के लिए कोर्ट तक पहुंचने से रोकने के लिए यह पर्याप्त नहीं है।

यहां तक ​​कि सेशन कोर्ट में भी जहां एकमात्र प्राधिकारी पब्लिक प्रॉसिक्यूटर है, उसे कोड की धारा 225 के तहत अभियोजन चलाने का अधिकार होता है। एक निजी व्यक्ति जो किसी अपराध से पीड़ित है, जो मामले में शामिल है, उसे ट्रायल में भाग लेने से पूरी तरह से वंचित नहीं किया जाता है।

निजी व्यक्ति जिसके पास मजिस्ट्रेट कोर्ट में अभियोजन चलाने की अनुमति है, वह अपनी ओर से आवश्यक कार्य करने के लिए एक वकील को नियुक्त कर सकता है।

यह भी बताया गया है कि यदि कोई निजी व्यक्ति उसके खिलाफ या किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ किए गए अपराध से पीड़ित है, जिसमें वह रुचि रखता है, तो वह मजिस्ट्रेट से संपर्क कर सकता है और स्वयं अभियोजन चलाने की अनुमति मांग सकता है। कोर्ट अनुरोध को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है, यह कोर्ट के निर्णय के लिए खुला है।

यदि कोर्ट की यह राय है कि यदि ऐसी अनुमति दी जाती है तो न्याय की बेहतर सेवा की जा सकती है, तो सामान्यतः ऐसी अनुमति कोर्ट द्वारा दी जाती है। यह व्यापक आयाम (एम्प्लीट्यूड) मजिस्ट्रेट कोर्ट्स तक सीमित है, क्योंकि अभियोजन के संचालन के लिए सेशन कोर्ट में भाग लेने का निजी व्यक्ति का अधिकार प्रतिबंधित (रेस्ट्रिक्टेड) है क्योंकि यह पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के नियंत्रण में है।

निष्कर्ष (कंक्लूजन)

लेख में इंवेस्टीगेशन, इंक्वायरी और ट्रायल, साक्ष्य लेने और रिकॉर्ड करने के तरीके से संबंधित प्रावधान, एक ही अपराध के लिए व्यक्ति को बरी करने, पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की उपस्थिति और अभियोजन चलाने की अनुमति, कोड के तहत उनके प्रावधानों के साथ-साथ उनके संबंधित मामलो का भी वर्णन किया गया है। 

संदर्भ (रेफरेंसेस)

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