भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 के अपवाद

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Indian Contract Act
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यह लेख लॉयड लॉ कॉलेज की छात्रा Shweta Kumari ने लिखा है। यह लेख भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 और इसके अपवादों का एक ओवरव्यू है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

परिचय

कानूनी कार्यवाही के माध्यम से संविदात्मक (कॉन्ट्रैक्चुअल) अधिकारों के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) को प्रतिबंधित करने का अनुबंध, भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 के तहत शून्य है। धारा 28 में तीन अपवाद हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा लार्सन एंड टुब्रो लिमिटेड बनाम पंजाब नेशनल बैंक और अन्य के मामले में 28 जुलाई, 2021 को एक महत्वपूर्ण निर्णय पास किया गया था, जिसमें धारा 28 के अपवाद 3 की व्याख्या की गई थी। यह लेख हाल के निर्णय के आलोक में धारा 28 और इसके अपवादों का एक ओवरव्यू है। यह महत्वपूर्ण मामलों पर भी चर्चा करता है।

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 में कहा गया है कि कानूनी कार्यवाही के पूर्ण प्रतिबंध में एक समझौता शून्य है।

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 (a) में कहा गया है कि:

  1. कोई भी समझौता न्यायालय के माध्यम से अधिकारों के प्रवर्तन पर रोक नहीं लगा सकता है।
  2. कोई भी समझौता न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को बाहर नहीं कर सकता है।
  3. कोई भी समझौता भारतीय परिसीमा अधिनियम, 1963 के तहत निर्धारित समय सीमा से कम समय सीमा निर्धारित नहीं कर सकता है।

97वें विधि आयोग ने खुद ही धारा 28 का विश्लेषण किया और एक संशोधन का प्रस्ताव रखा। भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28(b), जिसे भारतीय अनुबंध (संशोधन) अधिनियम, 1997 के माध्यम से सम्मिलित किया गया है, इसमें कहा गया है कि:

  1. कोई भी समझौता किसी निर्दिष्ट अवधि की समाप्ति पर किसी भी पक्ष के अधिकारों को समाप्त नहीं कर सकता है।
  2. कोई भी समझौता किसी भी पक्ष को एक निर्दिष्ट अवधि की समाप्ति पर किसी भी दायित्व से मुक्त नहीं कर सकता है।

किसी भी पक्ष को उनके अधिकारों के प्रवर्तन से प्रतिबंधित करने के लिए ऊपर दिए हुए प्रावधानों को सम्मिलित करने से अनुबंध उस सीमा तक शून्य हो जाएगा। संशोधन ने ‘सही’ और ‘उपाय’ के बीच की रेखाओं को धुंधला कर दिया है।

धारा 28 के अपवाद

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 पूर्ण नहीं है। इसके तीन अपवाद हैं।

  • पहला अपवाद कहता है कि एक समझौता जो पक्षों के बीच उत्पन्न होने वाले सभी विवादों को मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) के लिए संदर्भित करता है, वह शून्य नहीं होगा। इसके अलावा, संदर्भित विवादों में एक मात्र मध्यस्थता पुरस्कार वापस पाने योग्य होगा। अपवाद 1 का दूसरा खंड विशिष्ट राहत अधिनियम (स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट), 1877 द्वारा निरस्त कर दिया गया था।
  • दूसरे अपवाद में कहा गया है कि पक्षों के बीच मध्यस्थता के लिए खंड को सम्मिलित करने से पहले उत्पन्न होने वाले प्रश्नों को संदर्भित करने के लिए एक समझौता शून्य नहीं होगा।
  • तीसरे अपवाद में कहा गया है कि किसी बैंक या वित्तीय संस्थान का गारंटी समझौता किसी पक्ष के अधिकारों को समाप्त करने या किसी पक्ष को किसी भी दायित्व से मुक्त करने के प्रावधान के साथ एक निर्दिष्ट अवधि (> 1 वर्ष) की समाप्ति पर एक निर्दिष्ट घटना / गैर-घटना की तारीख से शून्य नहीं होगा।  

अपवाद 3 को भारतीय बैंक संघ (एसोसिएशन) की सिफारिशों पर 2013 में बैंकिंग कानून (संशोधन) अधिनियम, 2012 के माध्यम से जोड़ा गया था। इसने 1977 के संशोधन के बाद बैंकों के लिए एक निवारण तंत्र के रूप में कार्य किया है।

अपवाद 3 में अभिव्यक्ति “बैंक” में ये शब्द शामिल हैं:

शब्द धारा (परिभाषा)
बैंकिंग कंपनी बैंकिंग विनियमन (रेगुलेशन) अधिनियम, 1949 की धारा 5(c)
एक संबंधित (करेस्पोंडिंग) नया बैंक बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 की धारा 5(da)
भारतीय स्टेट बैंक भारतीय स्टेट बैंक अधिनियम, 1955 की धारा 3
एक सहायक (सब्सिडियरी) बैंक भारतीय स्टेट बैंक (सहायक बैंक) अधिनियम, 1959 की धारा 2(k)
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अधिनियम, 1976 की धारा 3
सहकारी (को-ऑपरेटिव) बैंक बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 की धारा 5(cci)
एक बहु-राज्य (मल्टी स्टेट) सहकारी बैंक बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 की धारा 5(cciiia)

अपवाद 3 में अभिव्यक्ति ‘एक वित्तीय संस्थान’ का अर्थ कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा 4-A के अर्थ में कोई भी सार्वजनिक वित्तीय संस्थान है।

2013 के संशोधन के माध्यम से भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 के अपवाद 3 को सम्मिलित करने से कानून में एक द्वंद्व पैदा हो गया। इसके दो दृष्टिकोण हैं, जिन्हे यहां संदर्भित किया गया है।

  1. बैंक गारंटी की न्यूनतम दावा अवधि 12 महीने से कम नहीं होनी चाहिए।
  2. जबकि बैंकों को बैंक गारंटी की न्यूनतम दावा अवधि 12 महीने से कम करने का अधिकार है, बैंकों के दायित्वों को पूरी तरह से समाप्त नहीं करना चाहिए।

लार्सन एंड टुब्रो लिमिटेड बनाम पंजाब नेशनल बैंक और अन्य के मामले में पहला दृष्टिकोण गलत था।

मध्यस्थता समझौता

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (आर्बिट्रेशन एंड कन्सिलीएशन एक्ट), 1996 की धारा 7 में कहा गया है कि एक ‘मध्यस्थता समझौता’ पक्षों के बीच उत्पन्न होने वाले सभी या विशिष्ट विवादों को मध्यस्थता के लिए संदर्भित करने के लिए पक्षों के बीच एक समझौता है। एक समझौता, अनुबंध में एक खंड या एक अलग समझौता हो सकता है। समझौता लिखा जाना चाहिए। मध्यस्थता समझौते के अभाव में किसी विवाद को मध्यस्थता के लिए संदर्भित नहीं किया जा सकता है जब तक कि पक्ष संयुक्त ज्ञापन (मेमो) या संयुक्त आवेदन के माध्यम से लिखित सहमति प्रदान नहीं करते हैं।

मेसर्स एलीट इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन (एचवाईडी) प्राइवेट लिमिटेड बनाम मेसर्स टेकट्रांस कंस्ट्रक्शन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2018) में, अदालत ने मध्यस्थता खंड को सम्मिलित करने के लिए विशिष्ट नियम और विनियम स्थापित किए थे।

  1. मध्यस्थता खंड के साथ दस्तावेज़ का स्पष्ट संदर्भ होना चाहिए।
  2. मध्यस्थता खंड के संदर्भ को मध्यस्थता खंड को शामिल करने के इरादे को इंगित करना चाहिए।
  3. मध्यस्थता खंड किसी भी और सभी प्रकार के विवादों तक विस्तारित होना चाहिए जो अनुबंध के संबंध में उत्पन्न हो सकते हैं।
  4. मध्यस्थता खंड के साथ किसी अन्य अनुबंध के संदर्भ में अनुबंध अस्वीकार्य होगा।
  5. जब तक अनुबंध में अन्य अनुबंध के मध्यस्थता खंड का कोई संदर्भ न हो, तब तक नियम और शर्तों के साथ किसी अन्य अनुबंध के संदर्भ में अनुबंध अस्वीकार्य है।
  6. अनुबंध में किसी संस्था के नियमों और शर्तों में बताए गए मध्यस्थता खंड का संदर्भ होना चाहिए।

धारा 28 से संबंधित महत्वपूर्ण मामले

  • तपश मजूमदार बनाम प्रणब दासगुप्ता (2006) में, ईस्ट बंगाल क्लब ने कार्यकारी समिति को क्लब के सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज)  किया, जिन्होंने अदालत में कार्यकारी (एग्जिक्यूटिव) समिति की चुनाव प्रक्रिया को चुनौती दी थी। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि इस तरह का प्रतिबंध सार्वजनिक नीति के खिलाफ था और भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 का उल्लंघन था।
  • भारत संचार निगम लिमिटेड बनाम मोटोरोला इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2008), में एक अग्रिम (एडवांस) खरीद आदेश में सीमित क्षति की राशि, जिसका मूल्यांकन क्रेता द्वारा लगाया गया था, उस राशि को आपूर्तिकर्ता द्वारा अपरिवर्तनीय घोषित किया गया था। अदालत ने फैसला सुनाया कि खरीदार का सीमित नुकसान का निर्धारण करने का एकतरफा अधिकार कानूनी कार्यवाही के अवरोध (रिस्ट्रेन) में था और इस प्रकार भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 के तहत शून्य था।
  • हकम सिंह बनाम गैमन (इंडिया) लिमिटेड (1971) में, पक्षों के बीच समझौते में कहा गया है, कि “अकेले बॉम्बे शहर में कानून के न्यायालय के पास उस पर निर्णय लेने का अधिकार क्षेत्र होगा”। वाराणसी में दायर एक मुकदमा खारिज कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि समझौता भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 का उल्लंघन नहीं करता है। यदि बॉम्बे अदालत के पास अधिकार क्षेत्र नहीं है तो समझौता शून्य होगा। एक समझौता एक अदालत पर गैर-मौजूद अधिकार क्षेत्र प्रदान नहीं कर सकता है।
  • दिल्ली बॉटलिंग कंपनी लिमिटेड बनाम टाइम्स गारंटी फाइनेंशियल लिमिटेड (2001) में, बॉम्बे में निष्पादित (एक्जीक्यूटेड) वाणिज्यिक (कमर्शियल) वाहनों के एक किराया खरीद समझौते ने किसी भी विवाद के मामले में बॉम्बे अदालतों को विशेष अधिकार क्षेत्र प्रदान किया था। अदालत ने फैसला सुनाया कि समझौते ने भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 का उल्लंघन नहीं किया क्योंकि पक्ष अधिकार क्षेत्र वाले किसी भी न्यायालय को विशेष अधिकार क्षेत्र सौंप सकते हैं।
  • यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम एसोसिएटेड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन लिमिटेड (1987), मालवाहक (कैरियर) के हस्ताक्षर के साथ खेप (कंसाइनमेंट) नोट पर “अकेले बॉम्बे अधिकार क्षेत्र के अधीन” मुद्रित शब्द एक समझौते के बराबर नहीं थे। केरल उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि मालवाहक और वाहक के विचार एक समान नहीं थे और इस प्रकार पक्षों ने एक समझौता नहीं किया था।
  • दिलीप कुमार रे बनाम टाटा फाइनेंस लिमिटेड (2001) में, मद्रास में निष्पादित टाटा एस्टेट कार के एक किराया खरीद समझौते ने सभी विवादों का अनन्य अधिकार क्षेत्र बॉम्बे को निर्धारित किया। यहां भुवनेश्वर में दायर एक मुकदमे को खारिज कर दिया गया था।
  • सी. सत्यनारायण बनाम के.एल. नरसिम्हम (1966), में प्रतिवादी ने वादी को लिखे पत्र पर “मद्रास अधिकार क्षेत्र के अधीन” शब्द छपवाए। अदालत ने फैसला सुनाया कि शब्द एक समझौते के बराबर नहीं थे और पक्ष मद्रास के अधिकार क्षेत्र के लिए बाध्य नहीं थे क्योंकि वादी ने इसके लिए अपनी सहमति नहीं दी थी।
  • बड़ौदा स्पिनिंग एंड वीविंग कंपनी लिमिटेड बनाम सत्यनारायण मरीन एंड फायर इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (1913), में अग्नि बीमा पॉलिसी को तीन महीने की अवधि के भीतर दावे की अस्वीकृति के खिलाफ कार्रवाई/मुकदमे की आवश्यकता थी। यदि निर्धारित समय सीमा के भीतर कोई कार्रवाई/मुकदमा नहीं किया गया तो सभी लाभ भंग कर दिए जाएंगे। अदालत ने समझौते को वैध करार दिया। 
  • रूबी जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम भारत बैंक लिमिटेड और अन्य (1950) में जस्टिस कपूर, ने समझाया कि पक्ष इस बात से सहमत हो सकते हैं कि एक वादाकर्ता वादा करने वाले को क्षतिपूर्ति करने के लिए उत्तरदायी होगा यदि उसे एक विशिष्ट समय सीमा के भीतर अधिसूचित (नोटिफाई) किया जाता है। यह बीमा समझौतों में आम है जहां समय का महत्व है।
  • नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम एस.जी नायक एंड कंपनी (1997) में अदालत ने एक बीमा अनुबंध खंड पर फैसला सुनाया, जिसने अगर 12 महीनों के भीतर नुकसान/क्षति का दावा दायर नहीं किया, तो भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 के उल्लंघन में नहीं होने पर बीमा कंपनी को सभी देयताओं से मुक्त कर दिया जाएगा। समझौते में सीमा की अवधि को कम करने का प्रयास नहीं किया गया था। एक निर्दिष्ट समय अवधि समाप्त होने से पहले अधिकारों को ज़ब्त करने/छोड़ने का एक समझौता शून्य नहीं है।
  • यूनियन ऑफ इंडिया बनाम इंडसइंड बैंक लिमिटेड (2016) में, यूनियन ऑफ इंडिया ने प्रस्तुत किया कि बैंक गारंटी जो उस समय अवधि को सीमित करती है जिसके भीतर उन्हें लागू किया जा सकता है, एक साल बाद पेश किए गए संशोधन से प्रभावित नहीं होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि धारा 28 मूल कानून है। यह संभावित (प्रोस्पेक्टिव) रूप से संचालित होता है न कि पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) रूप से। अदालत ने बैंक गारंटी पर धारा 28(b) को जोड़ने के नतीजों पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन कहा कि संसद ने धारा 28 में अपवाद जोड़कर बैंकों की शिकायतों का समाधान किया है।

अपवाद 3 पर दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय

लार्सन एंड टुब्रो लिमिटेड बनाम पंजाब नेशनल बैंक और अन्य में, पंजाब नेशनल बैंक और भारतीय बैंक संघ की भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 के अपवाद 3 की व्याख्या को चुनौती दी गई थी।

तथ्य

भारतीय बैंक संघ ने धारा 28 के अपवाद 3 की व्याख्या करने के प्रयास में सर्कुलर जारी किए, जिसमें 12 महीने से कम की न्यूनतम दावा अवधि को शून्य घोषित किया गया था, जिसके आधार पर पंजाब नेशनल बैंक ने लार्सन एंड टुब्रो को बैंक गारंटी की न्यूनतम दावा अवधि एक वर्ष तक निर्धारित करने के लिए मजबूर किया था।

उठाए गए मुद्दे

प्रतिवादियों द्वारा धारा 28 के अपवाद 3 की गलत व्याख्या के कारण याचिकाकर्ता को अतिरिक्त कमीशन शुल्क देना पड़ा। याचिकाकर्ता को एक विस्तारित अवधि के लिए संपार्श्विक (कोलेटरल) सुरक्षा बनाए रखने की भी आवश्यकता थी। गलत व्याख्या ने याचिकाकर्ता को अपना व्यवसाय करने में बाधा डाली और इस प्रकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत उनके मौलिक अधिकार को प्रभावित किया।

पंजाब नेशनल बैंक द्वारा लार्सन एंड टुब्रो को जारी किए गए 18.08.2018 और 28.03.2019 के पत्रों और भारतीय बैंक संघ द्वारा दिनांक 10.02.2017 और 05.12.2018 को सभी सदस्य बैंकों को जारी किए गए पत्रों को रद्द करने की मांग करते हुए एक रिट याचिका दायर की गई थी। याचिका में भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 23 के अपवाद 3 के साथ पठित धारा 28 (b) की व्याख्या की भी मांग की गई, जिसमें 12 महीने से कम की न्यूनतम दावा अवधि को रद्द करने का प्रावधान है।

न्यायालय का अवलोकन

धारा 28 दावा अवधि से संबंधित नहीं है बल्कि लेनदार के अपने अधिकारों को लागू करने के अधिकारों से संबंधित है। भारतीय बैंक संघ का सर्कुलर और पंजाब नेशनल बैंक का संचार गलत है। दावा अवधि एक अनुग्रह (ग्रेस) अवधि है जो गारंटी की वैधता अवधि से आगे बढ़ती है और बैंक गारंटी में मौजूद हो भी सकती है और नहीं भी।

निर्णय

दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अपवाद 3 ने बैंक गारंटी के लिए न्यूनतम दावा अवधि निर्धारित नहीं की है।

निष्कर्ष

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 और इसके अपवाद पक्षों के अपरिहार्य (इंडिस्पेंसेबल) हितों की रक्षा करते हैं। धारा 28, कई बार संशोधित हुई है और अभी भी कानून के क्षेत्र में एक पहेली है। लार्सन एंड टुब्रो लिमिटेड बनाम पंजाब नेशनल बैंक और अन्य मामले में हाल ही का निर्णय पहेली का एक टुकड़ा था।

संदर्भ

 

 

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