न्यायिक समीक्षा के बारे में सब कुछ

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Constitution of India
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यह लेख यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ एंड लीगल स्टडीज, जीजीएसआईपीयू द्वारका के Abhinav Rana द्वारा लिखा गया है।  यह लेख न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) की शक्ति से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

कानून आज के समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लोगों ने अपने अधिकारों को छोड़ दिया है और सरकार के साथ एक अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) किया है जिसके बदले में सरकार ने उन्हें गलत के खिलाफ सुरक्षा दी है। इसे हॉब्स द्वारा दिए गए सामाजिक अनुबंध सिद्धांत (सोशल कॉन्ट्रैक्ट थ्योरी) के रूप में जाना जाता है। कानून के शासन (रूल ऑफ लॉ) के इस चरण (फेज) में, न्याय के बिना कानून मनमाना बन सकता है और इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। इसलिए सरकार के प्रत्येक अंग की शक्ति पर नियंत्रण (कंट्रोल) और संतुलन (बैलेंस) बनाए रखने के लिए हमने न्यायिक समीक्षा को अपनाया है। न्यायिक समीक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा अदालत संविधान के विरुद्ध जाने वाले किसी भी कानून को शून्य घोषित कर देता है। हमने इस सुविधा को संयुक्त राज्य (यूनाइटेड स्टेट) के संविधान से अपनाया है। लेकिन हमारे संविधान में इस विशेषता को ठीक करने में काफी साल लग गए। न्यायपालिका ने इस संबंध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। न्यायिक समीक्षा संवैधानिक अमेंडमेंटों (कांस्टीट्यूशनल अमेंडमेंट), विधायी (लेजिस्लेटिव) कार्यों और विधायिका (लेजिस्लेचर) द्वारा बनाए गए कानूनों की हो सकती है। इस शोध (रिसर्च) पत्र में, हम भारतीय मामलो के साथ न्यायिक समीक्षा के इतिहास, विकास, विशेषताओं और प्रकारों पर चर्चा करेंगे।

भारत में सरकार के तीन अंग विधायिका, कार्यपालिका (एग्जिक्यूटिव) और न्यायपालिका है। विधायिका कानून बनाने का कार्य करती है, कार्यपालिका कानूनों का कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) करती है और न्यायपालिका ऊपर निर्दिष्ट दोनों अंगों पर नजर रखती है और यह सुनिश्चित करती है कि बनाए और लागू किए जा रहे कानून भारत के संविधान के अधिकार से बाहर नहीं हैं। इन अंगों को उनकी निर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) सीमा में काम करने के लिए हमारे संविधान में शक्ति के पृथक्करण (सेपरेशन ऑफ पावर) की विशेषता है। भारतीय संविधान का आर्टिकल 50 शक्ति के पृथक्करण की बात करता है।

अमेरिका की तुलना में जहां से इसे अपनाया गया है, इस अवधारणा (कंसेप्ट) का कड़ाई से पालन नहीं किया जाता है।  न्यायिक समीक्षा की अवधारणा को अमेरिकी संविधान से अपनाया गया है। न्यायपालिका के पास संसद द्वारा पास किसी भी कानून को रद्द करने की शक्ति है यदि वह भारत के संविधान में हस्तक्षेप (इंटरवीन) करता है। विधायिका द्वारा पास कोई भी कानून जो संविधान का उल्लंघन करता है, न्यायपालिका द्वारा शून्य बनाया जा सकता है। भारत के संविधान के आर्टिकल 13(2) के तहत, संसद द्वारा बनाया गया कोई भी कानून जो संविधान के भाग (पार्ट) 3 के तहत लोगों को दिए गए अधिकारों को कम करता है, वह शुरू से ही शून्य है। भारत के संविधान की पूर्ण सीमा तक व्याख्या (इंटरप्रेट) करने की शक्ति न्यायपालिका के पास है। यह भारत के संविधान का रक्षक है। न्यायिक समीक्षा की शक्ति 13, 32, 131136, 143, 145, 226, 246, 251, 254 और 372 जैसे कई आर्टिकल्स में निहित (वेस्टेंड) है।

आर्टिकल 372(1) पूर्व-संवैधानिक कानूनों की न्यायिक समीक्षा के बारे में बात करता है जो भारत के संविधान के प्रारंभ से पहले लागू थे।

आर्टिकल 13 (2) संविधान के प्रारंभ होने के बाद संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के बारे में बात करता है जिसे अदालत द्वारा शून्य घोषित किया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारो (फंडामेंटल राइट्स) का गारंटर कहा जाता है। यदि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है तो वह संविधान के आर्टिकल 32 या आर्टिकल 226 के तहत अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है।

आर्टिकल 251 और 254 में कहा गया है कि यदि यूनियन और राज्य के कानून के बीच कोई विसंगति (इनकंसिस्टेंसी) है, तो यूनियन का कानून मान्य होगा और राज्य के कानून को शून्य माना जाएगा।

न्यायिक समीक्षा का इतिहास

बोनहम केस में न्यायिक समीक्षा शब्द बहुत शुरुआती समय में अदालत के सामने आया था। इस मामले में, डॉ बोनहम को रॉयल कॉलेज ऑफ फिजिशियन द्वारा लंदन में अभ्यास करने से मना किया गया था क्योंकि उनके पास इसके लिए लाइसेंस नहीं था। यह मामला प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत (प्रिंसिपल ऑफ नेचुरल जस्टिस) के उल्लंघन के लिए भी जाना जाता है क्योंकि इस मामले में आर्थिक पूर्वाग्रह (पिक्यूनियरी बायस) है। जैसा कि डॉ बोनहम पर बिना लाइसेंस के जुर्माना लगाया जाता है, जुर्माना राजा और कॉलेज के बीच ही वितरित (डिस्ट्रीब्यूट) किया जाएगा।

बाद में, न्यायिक समीक्षा शब्द को मारबरी बनाम मैडिसन, 1803 में संक्षेपित (सम्मराइज) किया गया था। इस मामले में, संघवादी (फेडरलिस्ट) पार्टी से संबंधित राष्ट्रपति एडम की अवधि समाप्त हो गई थी और जेफरसन संघ-विरोधी सत्ता में आए थे। अपने अंतिम दिन में एडम ने संघीय पार्टी के सदस्यों को न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त (अपॉइंट) किया था। लेकिन जब जेफरसन सत्ता में आए तो वे इसके खिलाफ थे। इसलिए उन्होंने मैडिसन राज्य के सचिव को न्यायाधीशों को नियुक्ति पत्र भेजने से रोक दिया था।  न्यायाधीशों में से एक मारबरी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और मैंडेमस की रिट दायर की थी।  अदालत ने याचिका (प्ली) पर विचार करने से इनकार कर दिया और पहले विधायिका यानी कांग्रेस के आदेश का विरोध किया और इस तरह अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत को विकसित (डेवलप) किया था।

भारतीय मामले

शंकरी प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एआईआर 1951 एससी 458

इस मामले में, जमींदारों ने फर्स्ट अमेंडमेंट एक्ट 1951 की संवैधानिक वैधता को इस आधार पर चुनौती दी कि यह मौलिक अधिकारों और भारत के संविधान के आर्टिकल 13 (2) का उल्लंघन करता है और तर्क दिया कि आर्टिकल 31 असंवैधानिक (अनकांस्टीट्यूशनल) है। अदालत ने माना कि आर्टिकल 368 के तहत की गई कोई भी अमेंडमेंट संविधान के आर्टिकल 13 के तहत कानून नहीं है तो, फर्स्ट अमेंडमेंट एक्ट संवैधानिक (कांस्टीट्यूशनली) रूप से मान्य है। 

इस मामले के बाद, फोर्थ अमेंडमेंट एक्ट आया, जिसमें आर्टिकल 31(2A) जोड़ा गया जिसमें कहा गया था कि जब तक अर्जित (एक्वायर) संपत्ति का स्वामित्व राज्य या राज्य निगम (कॉर्पोरेशन) को हस्तांतरित (ट्रांसफर) नहीं किया जाता है, तब तक कोई मुआवजा (कंपनसेशन) नहीं होगा। इसने यह भी कहा कि मुआवजे की पर्याप्तता (एडिक्वेसी) जो कानून द्वारा तय की जानी है, गैर-न्यायसंगत (नॉन-जस्टिशिएबल) नहीं है।

आगे 17वां अमेंडमेंट 1964 में आया जिसे पूर्वप्रभावी (रेट्रोस्पेक्टिव) प्रभाव दिया गया। इसने आर्टिकल 31A(2)(a)(iii) को जोड़ा और कहा कि संपत्ति में कृषि या सहायक (एंसिलरी) उद्देश्य के लिए कोई भी भूमि शामिल है जिसमें बंजर भूमि या वन भूमि भी शामिल है।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य एआईआर 1965 एससी 845

इस मामले में, 1964 के 17वें अमेंडमेंट एक्ट की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। माननीय अदालत ने 3:2 के अनुपात (रेशियो) से विवाद को खारिज कर दिया और मूल और सार के सिद्धांत (प्रिंसिपल ऑफ पिथ एंड सब्सटेंस) को लागू किया और कहा कि आर्टिकल 368, 13 (2) में अमेंडमेंट करने की शक्ति देता है। इस मामले में शंकरी प्रसाद के फैसले को बरकरार रखा गया था।

आई.सी. गोलक नाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य एआईआर 1967 एससी 1643

इस मामले में, 1964 के 17वें अमेंडमेंट एक्ट की वैधता को फिर से चुनौती दी गई और इसे 11 न्यायाधीशों की एक बड़ी बेंच के पास भेज दिया गया। अदालत ने 6:5 के अनुपात से शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह में दिए गए पहले के फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि आर्टिकल 13 में कानून शब्द में आर्टिकल 368 के तहत किए गए संवैधानिक अमेंडमेंट शामिल हैं।

सी.जे.आई. सुब्बा राव ने 5 न्यायाधीशों की ओर से बोलते हुए कहा कि आर्टिकल 368 केवल प्रक्रिया प्रदान करता है, अमेंडमेंट करने की शक्ति नहीं। चूंकि यह आर्टिकल 248 यानी अवशिष्ट (रेसिड्यूरी) शक्ति (जैसा कि विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है) से अपनी शक्ति प्राप्त करता है, जो एक सामान्य कानून है, इसलिए आर्टिकल 13 का परीक्षण (टेस्ट) लागू होगा।

इस ऐतिहासिक मामले के बाद 1971 का 24वां अमेंडमेंट गोलकनाथ मामले के प्रभाव को बेअसर करने के लिए आया। इसने हमें आर्टिकल 13(4) दिया, जो कहता है कि आर्टिकल 368 के तहत किया गया कोई भी अमेंडमेंट आर्टिकल 13 के तहत कानून नहीं है। इसने आर्टिकल 368 के सीमांत (मार्जिनल) नोट को संसद की शक्ति और संविधान में अमेंडमेंट की प्रक्रिया में भी बदल दिया।

जल्द ही 1971 का 25वां अमेंडमेंट आया जिसने आर्टिकल 31(2) में “मुआवजा” शब्द को “राशि” में बदल दिया ताकि इस दायित्व को समाप्त किया जा सके कि सरकार मुआवजा देने के लिए बाध्य है।

इसने संविधान में आर्टिकल 31C जोड़ा जिसमें कहा गया था कि आर्टिकल 14, 19, 21 आर्टिकल 39(b) और (c) [डीपीएसपी] अंतर्निहित (अंडरलाइंग) नीति (पॉलिसी) को प्रभावी बनाने के लिए बनाए गए कानून पर लागू नहीं होगा।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य एआईआर 1973 एससी 1461

इस मामले में, 1971 के 24वें और 25वें अमेंडमेंट एक्ट को चुनौती दी गई थी। 13 जजों की बेंच का गठन (कांस्टीट्यूट) किया गया था। 7:6 के अनुपात के साथ कहा गया कि:

  1. संविधान में अमेंडमेंट करने की शक्ति आर्टिकल 368 में है। यह विश्वास करना कठिन है कि यह अवशिष्ट शक्ति में निहित है।
  2. साधारण कानून और संविधान अमेंडमेंट में अंतर होता है।
  3. संसद संविधान के बुनियादी ढांचे (बेसिक स्ट्रकचर) को नष्ट या अमेंड नहीं कर सकती है।

सी.जे.आई. सीकरी ने बुनियादी ढांचे की सूची दी, हालांकि संपूर्ण (एग्जाॅस्टिव) नहीं है;

  • संविधान की सर्वोच्चता (सुपरमेसी)।
  • सरकार का गणतंत्र (रिपब्लिक) और लोकतांत्रिक (डेमोक्रेटिक) रूप।
  • भारतीय संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र (सेक्युलर कैरेक्टर)।
  • शक्ति का पृथक्करण।
  • संघीय चरित्र।
  1. कोर्ट ने यह भी माना कि “मुआवजा” को “राशि” से नहीं बदला जा सकता है।
  2. आर्टिकल 31(c)(i) को वैध माना गया लेकिन आर्टिकल 31(c)(ii) को अमान्य घोषित कर दिया गया।

इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण एआईआर 1975 एससी 865

इस मामले में, 39वें अमेंडमेंट के क्लॉज 4 को चुनौती दी गई क्योंकि यह अध्यक्ष (स्पीकर) और प्रधान मंत्री के चुनाव को चुनौती देने के लिए एक रोक लगाता है। इस मामले में इसे रद्द कर दिया गया और अदालत ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया।

मिनर्वा मिल्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एआईआर 1980 एससी 1789

इस मामले में, मौलिक अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों (डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स) के बीच संतुलन (बैलेंस) के साथ-साथ संविधान की बुनियादी संरचना की सूची में न्यायिक समीक्षा को जोड़ा गया।

आई.आर.  कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य एआईआर 2008 एससी 861

इस मामले में अदालत ने कहा कि अनुसूची (शेड्यूल) 9 में शामिल किसी भी एक्ट की न्यायिक रूप से जांच की जा सकती है, लेकिन केवल वे एक्ट जो 24 अप्रैल 1973 के बाद डाले गए हैं।

न्यायिक समीक्षा की विशेषताएं

  • न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट दोनों के द्वारा किया जा सकता है

आर्टिकल 226 के तहत कोई व्यक्ति किसी मौलिक अधिकार के उल्लंघन या किसी कानूनी अधिकार के लिए हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। साथ ही, आर्टिकल 32 के तहत कोई व्यक्ति मौलिक अधिकार के उल्लंघन या कानून के प्रश्न के लिए सुप्रीम कोर्ट में जा सकता है। लेकिन संविधान की व्याख्या करने की अंतिम शक्ति सुप्रीम कोर्ट के पास है। सुप्रीम कोर्ट देश का हाईएस्ट कोर्ट है और इसके निर्णय पूरे देश में बाध्यकारी (बाइंडिग) होते हैं।

  • राज्य और केंद्रीय दोनों कानूनों की न्यायिक समीक्षा

केंद्र और राज्य दोनों द्वारा बनाए गए कानून न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं। सभी कानून, आदेश, उप-नियम (बाय-लॉज), अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) और संवैधानिक अमेंडमेंट और अन्य सभी अधिसूचनाएं (नोटिफिकेशन) न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं जो भारत के संविधान के आर्टिकल 13 (3) में शामिल हैं।

  • न्यायिक समीक्षा स्वचालित रूप (ऑटोमेटिकली) से लागू नहीं होती है

न्यायिक समीक्षा की अवधारणा को आकर्षित करने और लागू करने की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट स्वयं न्यायिक समीक्षा के लिए आवेदन (एप्लाई) नहीं कर सकता है। इसका उपयोग तभी किया जा सकता है जब कानून या नियम के किसी प्रश्न को माननीय अदालत के समक्ष चुनौती दी जाती है।

  • कानून द्वारा स्थापित (एस्टेब्लिश) प्रक्रिया का सिद्धांत

न्यायिक समीक्षा भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 में दिए गए “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” के सिद्धांत द्वारा शासित होती है। कानून को संवैधानिकता की कसौटी पर खरा उतरना होगा अगर वह योग्य है तो उसे कानून बनाया जा सकता है। इसके विपरीत, अदालत इसे शून्य घोषित कर सकती है।

अध्यादेशों की न्यायिक समीक्षा

भारतीय संविधान का आर्टिकल 123 और 213 राज्य के राष्ट्रपति और राज्यपाल (गवर्नर) को एक अध्यादेश पास करने का अधिकार देता है। राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा अध्यादेश का एक एक्ट उसी प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) के भीतर है जो संसद पर लगाया जाता है जो कोई कानून बनाता है। इस शक्ति का प्रयोग राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाता है। शक्ति का दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। हाउस ऑफ पीपल द्वारा प्रकाशित (पब्लिश) एक रिपोर्ट में यह प्रस्तुत किया गया था कि अक्टूबर 2016 तक राष्ट्रपति ने 701 अध्यादेश बनाए हैं।

अध्यादेश के माध्यम से, यह कहा गया था कि 500 और 1000 ​​रुपये के नोट 31 दिसंबर 2016 से देनदारी (लायबिलिटीज) में नहीं रहेंगे।

ए.के. रॉय बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (1982) 1 एससीसी 271 के मामले में यह माना गया कि अध्यादेश पास करने की राष्ट्रपति की शक्ति न्यायिक समीक्षा का विषय नहीं है।

टी. वेंकट रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1985) 3 एससीसी 198 के मामले में यह माना गया था कि जैसे विधायी शक्ति पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है, वैसे ही उद्देश्य या दिमाग के गैर-उपयोग या आवश्यकता के आधार पर बनाया गया अध्यादेश की पूछताछ नहीं हो सकती है।

मनी बिल की न्यायिक समीक्षा

भारत के संविधान के आर्टिकल 110(3) में कहा गया है कि जब भी यह सवाल उठता है कि कोई बिल, मनी बिल है या नहीं, तो लोकसभा के अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होगा।

वर्तमान परिदृश्य (सिनेरियो) में, एक “मनी बिल” न्यायिक समीक्षा की शक्ति से बाहर है।

भारत के संविधान के आर्टिकल 212 में यह प्रावधान (प्रोविजन) है कि अदालत प्रक्रिया की किसी भी कथित (एलेज्ड) अनियमितता (इर्रेगुलेरिटी) के आधार पर विधायिका की कार्यवाही की जांच नहीं कर सकते हैं।

भारत के संविधान के आर्टिकल 255 में प्रावधान है कि सिफारिश और पिछली मंजूरी केवल प्रक्रिया के मामले हैं।

मैंगलोर गणेश बीड़ी वर्क्स बनाम मैसूर राज्य एआईआर 1963 एससी 589 के मामले में, यह माना गया था कि अपीलकर्ता (अपीलेंट) कॉइनेज एक्ट के तहत बिक्री कर (टैक्स) के लिए उत्तरदायी था जिसे कॉइनेज अमेंडमेंट एक्ट, 1955 द्वारा बदल दिया गया था। कर बिल को मनी बिल के रूप में पास किया जाना चाहिए और मनी बिल के रूप में पास नहीं होने के कारण कर को अवैध माना जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि कॉइनेज अमेंडमेंट एक्ट 1955 ने पुराने सिक्के के स्थान पर नए सिक्के को प्रतिस्थापित (सब्सटीट्यूट) किया और इस प्रकार यह कोई कर नहीं था।

ओबिटर डिक्टा के माध्यम से, यह देखा गया कि यह कर देने वाला बिल होगा तो यह भी न्यायिक समीक्षा की कार्यवाही से बाहर था।

न्यायिक समीक्षा के लिए आधार

  • संवैधानिक अमेंडमेंट

इस चरण में अधिकारी द्वारा किए गए सभी संवैधानिक अमेंडमेंट की न्यायिक समीक्षा की जाती है। वे सभी अमेंडमेंट जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, शून्य घोषित कर दिए जाते हैं और इसे असंवैधानिक माना जाता है। संवैधानिक अमेंडमेंटों के लिए सभी न्यायिक समीक्षा का इतिहास में पता लगाया जा सकता है। हम ऊपर दिए हुए मामलो में पहले ही देख चुके हैं कि संवैधानिक अमेंडमेंटों को चुनौती दी गई थी और संविधान के खिलाफ सभी को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था और उन्हें शून्य घोषित कर दिया गया था। हम इन मामलों में संवैधानिक अमेंडमेंट की न्यायिक समीक्षा के निशान का पता लगा सकते हैं: शंकरी प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया; सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य; आई.सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य; केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य; आई.आर. कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य है। इन सभी मामलों पर इस लेख में ऊपर विस्तार से चर्चा की गई है।

  • प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) कार्रवाई

सामान्य शब्दों में, प्रशासनिक कार्रवाई की संवैधानिक वैधता को लॉर्ड डिप्लॉक द्वारा काउंसिल ऑफ सिविल सर्विस यूनियन बनाम मिनिस्टर ऑफ सिविल सर्विस के मामले में विकसित परीक्षणों द्वारा सत्यापित (वेरिफाई) किया जा सकता है। न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत भारत में हमारे संविधान की मूल विशेषता है। ये परीक्षण इस प्रकार थे:

1. अवैधता (इल्लीगेलिटी)

कानून निर्णय लेने वालों को नियंत्रित करता है और उन्हें इसे समझना चाहिए। यदि वे कानून का ठीक से पालन करने में विफल रहते हैं तो उनके कार्यों और उनके निर्णयों को अवैध बनाया जा सकता है। इसलिए, एक कार्रवाई को अवैध बनाया जा सकता है यदि सार्वजनिक निकाय (बॉडी) के पास स्वयं निर्णय लेने की कोई शक्ति नहीं है या यदि उन्होंने शक्तियों से परे कार्य किया है। उदाहरण के लिए, यदि कानून जो सार्वजनिक निकाय से संबंधित है, में आवश्यक शक्ति शामिल नहीं है और न ही उनकी सटीक सीमाएं हैं, तो उनकी शक्ति का उपयोग किया जा सकता है। सार्वजनिक निकाय जो अवैध तरीके से कार्य करते हैं उन्हें “अल्ट्रा वायर्स” के रूप में वर्णित किया जाता है।

कानून भी सार्वजनिक निकाय द्वारा व्यापक और अनर्गल (अनरेस्ट्रेंड) विवेक के कार्यान्वयन की अनुमति देता है। यह प्रदान करता है कि कुछ परिस्थितियों में एक कर्तव्य का निर्वहन (डिस्चार्ज) किया जा सकता है लेकिन यह निर्धारित करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया नहीं बताता है कि किसी विशेष मामले में परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं या नहीं।

2. तर्कहीनता (इर्रेशनेलिटी)

अदालतें किसी निर्णय को रद्द करने में भी हस्तक्षेप कर सकती हैं यदि उन्हें लगता है कि यह अनुचित है क्योंकि यह निर्णय निर्माता की ओर से इसे “तर्कहीन” या “विकृत (परवर्स)” बनाता है। 1948 में वेडनसबरी मामले में न्यायिक समीक्षा के इस सिद्धांत पर एक बेंचमार्क निर्णय लिया गया था। न्यायाधीशों को समीक्षा के आधार पर प्रशासनिक निर्णयों की श्रेष्ठता (एमिनेंस) की समीक्षा करने के लिए कई अवसर नहीं मिलते हैं क्योंकि न्यायिक हस्तक्षेप के लिए आधार बहुत अधिक है जो अक्सर संतुष्ट नहीं होते है। वेडनसबरी मामले में, लॉर्ड ग्रीन ने कहा कि समीक्षा के सफल होने के लिए, प्रशासन का निर्णय कुछ ऐसा होना चाहिए कि एक समझदार व्यक्ति यह सपना देख सके कि यह अधिकारी की शक्तियों के भीतर है।

3. प्रक्रियात्मक अनौचित्य (प्रोसीजरल इंप्रोप्रायटी)

इसमें निर्णयकर्ताओं को अपने निर्णय लेने में निष्पक्षता (फेयरली) से कार्य करना चाहिए। यह सिद्धांत है जो केवल प्रक्रिया के मामलों पर लागू होता है जो निर्णय के सार के विरोध में होती है। यह मामला उन लोगों द्वारा तय और सुना जाना चाहिए जिन्हें इसे सौंपा गया है, न कि किसी अन्य व्यक्ति द्वारा। नियम इस प्रकार है:

  • एक व्यक्ति को अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं होना चाहिए;
  • व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की भी बात सुननी चाहिए।

मामले को लेने से पहले निष्पक्ष रूप से कार्य करना अधिकारी का कर्तव्य है। सार्वजनिक निकाय को गलत तरीके से कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि यह शक्ति का दुरुपयोग है। इसका मतलब है-

  • कानून को निर्णयों का पालन करना चाहिए यदि वे कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रियाओं को व्यक्त करते हैं।
  • इसे प्राकृतिक न्याय के नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। सार्वजनिक निकायों को लोगों को निर्णय लेने और अपने विचार रखने की अनुमति देनी चाहिए जिससे वे पूर्वाग्रह के आधार पर निर्णय तक पहुंच सकें।
  • विधायिका शक्ति

एक विधायी एक्ट की संवैधानिकता अदालतों द्वारा निर्धारित की जाती है यदि कोई व्यक्ति मामला दर्ज करता है। अदालत संवैधानिकता के आधार पर किसी विधायी एक्ट को शून्य घोषित कर सकती है। विधायी, कार्यकारी या प्रशासनिक यह निर्धारित करते हैं कि अदालतों द्वारा समीक्षा संविधान द्वारा निषिद्ध (प्रोहिबिट) है या नहीं। अदालतों के पास कानून की वैधता के साथ-साथ सरकार के कार्यों की जांच करने की शक्ति है। हाई कोर्ट, विधायिका के समक्ष सामग्री पर्याप्त थी या नहीं, यह सवाल करके कानून की योग्यता का निर्धारण नहीं कर सकते है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

यहां भारत में हमने शक्ति के पृथक्करण की अवधारणा को अपनाया है, इसलिए हम न्यायिक समीक्षा की शक्ति को पूर्ण विस्तारित रूप में ग्रहण नहीं कर सकते हैं। यदि अदालतें न्यायिक समीक्षा की पूर्ण और मनमानी शक्ति मानती हैं तो इससे सरकार के सभी अंगों द्वारा काम का खराब प्रदर्शन होगा। तो सभी कार्यों को ठीक से करने के लिए प्रत्येक को प्रदान किए गए क्षेत्र में काम करना होगा। भारत में, हमारे पास संविधान की बुनियादी संरचना में न्यायिक समीक्षा की अवधारणा है। यह अदालतों को सरकार के अन्य दो अंगों पर नियंत्रण और संतुलन बनाए रखने में मदद करता है ताकि वे संविधान के अनुसार अपनी शक्ति और काम का दुरुपयोग न करें। अंत में, हमने न्यायिक समीक्षा की अवधारणा विकसित की है और यह मिनर्वा मिल्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में बुनियादी ढांचे का हिस्सा बन गया है। इसलिए, अंत में, यह कहना सही है कि न्यायिक समीक्षा व्यक्तिगत अधिकार की रक्षा के लिए, मनमानी शक्ति के उपयोग को रोकने और न्याय की विफलता को रोकने के लिए बढ़ी है।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

  • MANUPATRA
  • SCC ONLINE 
  • INDIAN KANOON
  • LEGAL SERVICES INDIA
  • THE HINDU ARTICLES
  • BAR AND BENCH BLOG
  • LIVE-LAW EDITORIALS

 

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