कानून के समक्ष समानता और कानून का समान संरक्षण

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Constitution of India
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यह लेख तिरुवनंतपुरम के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज की छात्रा Adhila Muhammed Arif ने लिखा है। यह लेख “कानून के समक्ष समानता” और “कानून के समान संरक्षण (प्रोटेक्शन)” और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, जो इन अभिव्यक्तियों को वहन करता है, के दायरे के बारे में चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय 

न्यायपालिका की एक निष्पक्ष और न्यायपूर्ण व्यवस्था हर आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य की विशेषता है। ऐसी स्थिति में, देश के कानून को इस तरह से लागू किया जाना चाहिए कि सभी नागरिकों को एक ही स्थान पर रखा जाए। यदि कानून किसी भी अनुचित आधार जैसे वर्ग, स्थिति, लिंग, आदि पर किसी नागरिक का पक्ष लेता है, तो कानून अनुचित है और न्याय को बनाए रखने के अपने उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहता है। एक राज्य के प्रत्येक नागरिक को कानून के समक्ष समान माना जाना चाहिए और किसी भी नागरिक को लिंग, जाति, वर्ग, धर्म आदि जैसे अनुचित आधार पर कुछ विशेष महत्त्व के साथ नहीं मानना चाहिए। इस अवधारणा को “कानून के समक्ष समानता” और “कानून के समान संरक्षण” वाक्यांशों के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। यह विचार ए.वी. डाइसी के अनुसार कानून के शासन (रूल ऑफ़ लॉ) की अवधारणा का एक मुख्य हिस्सा है। ‘कानून के समक्ष समानता’ और ‘कानून के समान संरक्षण’ के वाक्यांश भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत पाए जा सकते हैं, जो प्रत्येक नागरिक के लिए यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी अनुचित आधार पर, किसी भी कानून के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) या लागू होने से उनके साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स) के अनुच्छेद 7 में भी प्रदान किया गया है । 

कानून का शासन 

कानून के शासन की उत्पत्ति फ्रांसीसी वाक्यांश ‘ला प्रिंसिपे डे लीगलाइट’ से हुई है जिसका अर्थ वैधता का सिद्धांत है। इसे सबसे पहले सर एडवर्ड कोक ने प्रतिपादित (प्रोपाउंड) किया था। इस सिद्धांत का तात्पर्य एक ऐसी सरकार से है जो कानून के सिद्धांतों से चलती है न कि शासन करने वाले पुरुषों की मनमानी से। ए.वी. डाइसी ने अपनी पुस्तक ‘द कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ इंग्लैंड’ में इस अवधारणा का और विस्तार किया था। उनके अनुसार, कानून के शासन की अवधारणा में तीन सिद्धांत शामिल होते हैं, जो निम्नलिखित हैं: 

  1. कानून की सर्वोच्चता (सुप्रीमेसी)
  2. कानून के समक्ष समानता
  3. कानूनी भावना की प्रधानता 

डाइसी के अनुसार कानून के शासन की अवधारणा को पूरा करने के लिए कानून के समक्ष समानता और सामान्य अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) में सभी लोगों की समान अधीनता आवश्यक है। ए.वी. डाइसी के अनुसार, व्यक्तियों का कोई भी वर्ग अलग या विशेष अधिकार क्षेत्र के अधीन नहीं होना चाहिए। उन्होंने द्रोइट प्रशासनिक की फ्रांसीसी कानूनी प्रणाली की आलोचना की जिसने सार्वजनिक प्राधिकारियों (पब्लिक ऑफिशियल) और नागरिकों के बीच विवादों को तय करने के लिए अलग-अलग न्यायाधिकरणों (ट्रिब्यूनल) की स्थापना की थी। 

कानून का शासन भारतीय संविधान का आधार है। भारतीय संविधान को सर्वोच्च माना जाता है और कोई भी इसके खिलाफ नहीं जा सकता है। 

यह अवधारणा मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद 7 में भी पाई जा सकती है, जिसमें भारत एक हस्ताक्षरकर्ता है। इस प्रावधान में कहा गया है कि “कानून के समक्ष सभी समान हैं और बिना किसी भेदभाव के कानून के समान संरक्षण के हकदार हैं। इस घोषणा के उल्लंघन में किसी भी भेदभाव के खिलाफ और इस तरह के भेदभाव के लिए किसी भी उत्तेजना के खिलाफ सभी समान संरक्षण के हकदार हैं । 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता’ और ‘कानून के समान संरक्षण’

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 यह गारंटी देता है कि भारत के क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता के अधिकार या कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा। यह एक ऐसा अधिकार है जिसका दावा कोई भी व्यक्ति, चाहे वह नागरिक हो या नागरिक न भी हो कर सकता है। यहां, हम देख सकते हैं कि अनुच्छेद 14 में दो अभिव्यक्ति शामिल हैं, जो ‘कानून के समक्ष समानता’ और ‘कानून के समान संरक्षण’ हैं। पहली अभिव्यक्ति ‘कानून के समक्ष समानता’ अंग्रेजी आम कानून से ली गई है। अभिव्यक्ति ‘कानून के समान संरक्षण’ संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से ली गई है। अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन की धारा 4 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उसके अधिकार क्षेत्र में किसी भी राज्य द्वारा कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा। इसके अतिरिक्त, कानून की समानता की अवधारणा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निर्धारित प्रतिष्ठा की समानता की अवधारणा का एक हिस्सा है। मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1978) में न्यायमूर्ति भगवती द्वारा यह कहा गया था की, समानता एक गतिशील अवधारणा है जिसे हमारी पारंपरिक समझ और ज्ञान तक सीमित नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद 14 राज्य के कार्यों की मनमानी पर रोक लगाता है और यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों के साथ न्याय और समानता के साथ व्यवहार होना चाहिए। 

‘कानून के समक्ष समानता’ का अर्थ

डॉ. जेनिंग्स के अनुसार, कानून के समक्ष समानता की अवधारणा का सीधा अर्थ यह है कि कानून को समान लोगों के बीच समान रूप से लागू और प्रशासित किया जाना चाहिए। जाति, धर्म, सामाजिक प्रतिष्ठा, धन, प्रभाव आदि के आधार पर बिना किसी भेद के व्यसक्ता (मेजॉरिटी) और परिपक्वता (मैच्योरिटी) की उम्र के सभी विषयों के लिए मुकदमा करने और एक ही कार्रवाई के लिए मुकदमा चलाने का अधिकार समान होना चाहिए। अनुच्छेद 14 ‘कानून की समानता’ वाक्यांश के माध्यम से उपाय की समानता की गारंटी देता है न कि समान उपाय की। इसका सीधा सा मतलब है कि जन्म या वर्ग या ऐसे किसी भी आधार पर किसी विशेषाधिकार (प्रिविलेज) का अभाव है जो किसी भी विषय के पक्ष में हो। इसका तात्पर्य यह भी है कि सभी को समान अधिकार क्षेत्र के अधीन किया जाएगा। 

कानून के समक्ष समानता के अपवाद 

हालांकि, यह अवधारणा पूर्ण नहीं है क्योंकि इसके कई अपवाद भी हैं। 

  • इनमें से कुछ अपवाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 361 में दिए गए हैं, जो निम्नलिखित हैं: 
  1. राष्ट्रपति या किसी भी राज्य के राज्यपाल अपने कर्तव्यों या शक्तियों के प्रयोग के लिए किसी न्यायालय के प्रति जवाबदेह नहीं होता है। 
  2. राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल को उनके खिलाफ कोई आपराधिक कार्यवाही शुरू करने से छूट होगी। 
  3. कोई भी न्यायालय, राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल को उनके कार्यकाल के दौरान गिरफ्तारी या कारावास की प्रक्रिया जारी नहीं करेगा। 
  4. राष्ट्रपति या किसी भी राज्य के राज्यपाल के खिलाफ 2 महीने की पूर्व सूचना दिए बिना उनके कार्यकाल के दौरान राहत का दावा करने वाली कोई भी सिविल कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती है।
  • इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 361 A के अनुसार, संसद या राज्य विधानमंडल का कोई भी सदस्य सत्र के दौरान आपराधिक या सिविल के किसी भी मामले में अदालत के समक्ष पेश होने के लिए बाध्य नहीं है। 
  • अनुच्छेद 105 और 194 के अनुसार, संसद या राज्य विधानमंडल का कोई भी सदस्य सदन में दिए गए भाषणों, मतों के लिए किसी न्यायालय के प्रति जवाबदेह नहीं है। 
  • इसके अतिरिक्त, विदेशी संप्रभु (सोवरेन), राजनयिकों (डिप्लोमेट्स) और राजदूतों (एंबेसडर) के खिलाफ कोई सिविल या आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती है। यह एक ऐसी चीज है जिसे वैश्विक स्तर पर स्वीकार किया जाता है।  

‘कानून के समान संरक्षण’ का अर्थ

अभिव्यक्ति ‘कानून का समान संरक्षण’ ‘कानून के समक्ष समानता’ के विपरीत एक सकारात्मक अभिव्यक्ति है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि समान परिस्थितियों में सभी व्यक्तियों को समान अधिकार और दायित्व दिए जाते हैं। इसका अनिवार्य रूप से मतलब है कि समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए और उनके बीच कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। समान और असमान को एक ही स्थान पर नहीं रखा जा सकता है और बिना किसी भेदभाव के उनके साथ व्यवहार किया जा सकता है। 

कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण के बीच अंतर

‘कानून के समक्ष समानता’ और ‘कानून के समान संरक्षण’ की अभिव्यक्तियों के बीच अंतर निम्नलिखित हैं: 

  1. अभिव्यक्ति ‘कानून के समक्ष समानता’ एक नकारात्मक अवधारणा है क्योंकि इसका तात्पर्य उन विशेषाधिकारों की अनुपस्थिति से है जो किसी व्यक्ति के पक्ष में हैं। हालांकि, दूसरी ओर अभिव्यक्ति ‘कानून के समान संरक्षण’ एक सकारात्मक अवधारणा है क्योंकि इसका सीधा सा मतलब है कि समान परिस्थितियों में व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। 
  2. अभिव्यक्ति ‘कानून के समक्ष समानता’ अंग्रेजी सामान्य कानून से उत्पन्न हुई है और अभिव्यक्ति ‘कानून के समान संरक्षण’ अमेरिकी संविधान से उत्पन्न हुई है। 
  3. ‘कानून के समक्ष समानता’ की अवधारणा सभी व्यक्तियों को सामान्य कानून अदालतों द्वारा प्रशासित भूमि के सामान्य कानून के अधीन करने पर अधिक जोर देती है। इसका तात्पर्य है कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। हालांकि, ‘कानूनों के समान संरक्षण’ की अवधारणा का तात्पर्य है कि सभी व्यक्ति जो समान परिस्थितियों में हैं, उन्हें कानून के समान प्रयोग के अधीन होना चाहिए। समान लोगों के साथ समान व्यवहार करने पर अधिक जोर दिया जाता है। 

इसके अतिरिक्त, कुछ मामलों में इस भेद को भी स्पष्ट किया गया था। श्री श्रीनिवास थिएटर बनाम तमिलनाडु सरकार (1992) के मामले में, यह माना गया था कि ‘कानून के समक्ष समानता’ और ‘कानून के समान संरक्षण’ का एक ही अर्थ नहीं है, हालांकि उनके बीच बहुत कुछ एक जैसा है। पहली अभिव्यक्ति में ‘कानून’ शब्द अर्थ में अधिक सामान्य है और दूसरी अभिव्यक्ति में यह अधिक विशिष्ट है। यह भी देखा गया कि ‘कानून के समक्ष समानता’ एक गतिशील अवधारणा है जिसके कई पहलू हैं और, एक पहलू किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग या व्यक्ति, जो कानून से ऊपर हो की अनुपस्थिति को दर्शाता है और दूसरा पहलू राज्य के दायित्व समाज को और अधिक समान बनाने की अवधारण को दर्शाता है, जैसा कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना और भाग IV में दिया गया है।  पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (1952) के मामले में, यह माना गया था कि कानून के समान संरक्षण की अवधारणा कानून के समक्ष समानता की अवधारणा का एक हिस्सा है। जब ‘कानून के समान संरक्षण’ का उल्लंघन होता है, तो ऐसी स्थिति में ‘कानून के समक्ष समानता’ बनाए रखने की कल्पना करना मुश्किल होता है। 

उचित वर्गीकरण (रीजनेबल क्लासिफिकेशन)- अनुच्छेद 14 का अपवाद

‘वर्ग’ शब्द का अर्थ लोगों का एक समरूप समूह है जो एक साथ समूहित होते हैं क्योंकि उनमें कुछ विशेषताएं समान होती हैं। हालांकि अनुच्छेद 14 किसी ऐसे कानून की अनुमति नहीं देता है जो वर्गीकरण का प्रावधान करता है, लेकिन कभी-कभी इसकी अनुमति उचित उद्देश्यों के लिए दी जा सकती है। बुधन चौधरी बनाम बिहार राज्य (1955) और वज्रवेल्लू मुदलियार बनाम स्पेशल डेप्युटी कलेक्टर फॉर लैंड एक्विजिशन (1965) के मामले में वर्ग कानून को उचित या तर्कसंगत (रैशनल) माना जाने के लिए निम्नलिखित मानदंड निर्धारित किए गए हैं :

  1. वर्गीकरण मनमाना नहीं होना चाहिए। वर्ग में आने वाले लोगों और न आने वाले लोगों के बीच अंतर करने के पीछे कुछ तर्कसंगत या पर्याप्त तर्क होना चाहिए। 
  2. उस वर्गीकरण के पीछे कुछ तर्कसंगत उद्देश्य होना चाहिए, जिसे कानून प्राप्त करना चाहता है। वर्गीकरण भूगोल (जियोग्राफी), आयु या व्यवसाय जैसे विभिन्न कारकों के आधार पर हो सकता है। कानून के उद्देश्य के लिए वर्गीकरण के साथ मिलान करना आवश्यक है। 

उचित वर्गीकरण के आधार

निम्नलिखित कुछ आधार हैं जिन्हें कई कानूनों में उचित समझा जाता है: 

1. भूगोल

कभी-कभी भौगोलिक या क्षेत्रीय सीमाओं को कई उचित कानूनों में वर्गीकरण का आधार पाया जा सकता है। क्लेरेंस पेस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2001) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “ऐतिहासिक कारणों से अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों के विभेदक (डिफरेंशियल) उपाय को उचित ठहराया जा सकता है, बशर्ते कि यह उस मामले के संबंध में एक कारण और उचित संबंध रखता हो जिसके संबंध में विभेदक उपाय प्रदान किया जाता है। कानून में एकरूपता हासिल करनी होगी, लेकिन यह एक लंबी प्रक्रिया है।”

शस्त्र अधिनियम, 1878 के तहत किसी अपराध के विचारण (ट्रायल) के लिए केंद्र सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है। हालांकि, गंगा और यमुना नदियों के उत्तर में किए गए अपराध के विचारण के लिए यह आवश्यकता नहीं है। यह भेदभाव 1857 में विद्यमान राजनीतिक स्थिति का परिणाम है। लेकिन जिया लाल बनाम दिल्ली प्रशासन (1962) के मामले में, यह माना गया था कि वर्तमान परिदृश्य में इस तरह का भेदभाव उचित नहीं है। 

2. उम्र 

उदाहरण के लिए, भारतीय संविदा (कॉन्ट्रेक्ट) अधिनियम, 1872, अठारह वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को संविदा करने की अनुमति नहीं देता है। यह नाबालिगों को संविदात्मक दायित्वों, जिन्हें समझने मे वह सक्षम नहीं हो सकते है, से बंधने से बचाने के लिए है। 

गौतम कपूर बनाम राजस्थान राज्य (1987) के मामले में, न्यायालय ने माना कि मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए उम्मीदवार की आयु कम से कम 17 वर्ष की होनी चाहिए, यह उचित है क्योंकि एक निश्चित परिपक्वता आवश्यक है। 

3. लिंग

राज्य को ऐसे प्रावधान करने की अनुमति है जो उचित उद्देश्यों के लिए पुरुषों और महिलाओं के बीच भेदभाव करते हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 497,  व्यभिचार (एडल्टरी) को अपराध बनाती है और इसके लिए केवल पुरुषों को ही दंडित किया जाता था न कि महिलाओं को। यूसुफ बनाम बॉम्बे राज्य (1954) के मामले में, इस धारा की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। प्रावधान को वैध माना गया था क्योंकि यह एक वैध वर्गीकरण पर आधारित था। हालांकि, बाद में जोसेफ शाइन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) के मामले में व्यभिचार के प्रावधान को अपराध से मुक्त कर दिया गया था, इस तर्क पर कि यह पति को अपनी पत्नी की कामुकता (सेक्शुअलिटी) को नियंत्रण में रखता है। न्यायालय ने आगे कहा कि महिलाओं की अपनी पहचान होती है और वे पुरुषों के समान ही होती हैं। परिणामस्वरूप, यह माना गया था कि इस प्रावधान द्वारा किया गया वर्गीकरण मनमाना और अनुचित है और इसलिए अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है । 

4. एक निकाय या व्यक्ति 

पी.वी. शास्त्री बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1974), के मामले में यह माना गया था कि प्रधान मंत्री की स्थिति अपने आप में एक वर्ग है। इसलिए, यह देखा गया था कि प्रधान मंत्री को भारतीय वायु सेना के विमान को गैर-आधिकारिक उद्देश्यों के साथ-साथ चुनावों के लिए उपयोग करने की अनुमति देना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं है। 

5. व्यवसाय की प्रकृति

कभी-कभी सरकार ऐसे कानून बना सकती है जो तर्कसंगत कारणों से कुछ व्यवसायों पर कुछ प्रतिबंध लगाते हैं। इसमें ऐसे कानून भी शामिल हैं जो सरकार को कुछ व्यवसायों का एकाधिकार (मोनोपोली) प्रदान करते हैं। अमरचंद्र बनाम आबकारी संग्रह (1972) के मामले में, शराब के कारोबार पर कुछ प्रतिबंध लगाने वाले कानून को वैध माना गया था। 

6. कर (टैक्स) कानून 

विधायिका लोगों को कर लगाने के उद्देश्य से वर्गीकृत कर सकती है न कि कर लगाने, प्रोत्साहन, लाभ आदि निर्धारित करने के लिए। इस प्रकार, वे कुछ संपत्तियों पर कर लगाने से छूट दे सकते हैं, या कुछ संपत्तियों पर विशेष कर लगा सकते हैं, आदि। पश्चिमी भारत के थिएटर बनाम छावनी बोर्ड (1959), के मामले में यह माना गया था कि समृद्ध इलाकों में बड़े सिनेमा हॉल पर उच्च कर लगाना एक वैध वर्गीकरण है और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं है। 

7. अन्य आधार 

ऊपर उल्लिखित आधारों के अलावा, कुछ अन्य उचित वर्गीकरण भी हैं जैसे नागरिक और गैर-नागरिक, किशोर अपराधी और अन्य अपराधी, परक्राम्य लिखतों (नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट) पर साधारण वाद और वाद आदि। 

निष्कर्ष 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में ‘कानून के समक्ष समानता’ और ‘कानून के समान संरक्षण’ की अभिव्यक्तियाँ पाई जाती हैं। कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण की अवधारणाएं थोड़ी अलग हैं। हालांकि, बाद वाला पूर्व का एक हिस्सा है। जहां कानून का समान संरक्षण नहीं है, वहां कानून के समक्ष समानता नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि यह अवधारणा निरपेक्ष नहीं है क्योंकि हम इसे केवल उन लोगों के बीच लागू कर सकते हैं जो समान हैं और असमान नहीं है। संविधान, राज्य को ऐसे कानून बनाने की भी अनुमति देता है जो कुछ उचित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए केवल कुछ वर्गों के लोगों पर लागू होते हैं। 

संदर्भ 

 

 

 

 

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