ईपुरु सुधाकर एवं अन्य बनाम आंध्र प्रदेश सरकार एवं अन्य (2006)

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यह लेख Charu Kohli द्वारा लिखा गया है। इस लेख में ईपुरु सुधाकर बनाम आंध्र प्रदेश सरकार (2006) मामले के तथ्यों, कानूनी मुद्दों और इस मामले के फैसले के साथ दिए गए तर्कों का विश्लेषण करके बहुत विस्तार से चर्चा की गई है। इसके अलावा, यह लेख कार्यपालिका की क्षमादान (पार्डन) शक्तियों तथा दोषी को कब क्षमा प्रदान की जा सकती है, से भी संबंधित है। इसमें इस बात पर भी विचार किया गया है कि क्या शक्ति की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है या नहीं की जा सकती है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

ब्लैक लॉ शब्दकोश के अनुसार, “क्षमादान” शब्द को अनुग्रह की एक कार्रवाई के रूप में परिभाषित किया गया है जो कानूनों के कार्यान्वयन का काम करने वाले किसी व्यक्ति की शक्ति से मुक्ति दिलाता है और ऐसा कार्य व्यक्ति को उस दंड से छूट देता है जो उसे किए गए अपराध के लिए कानून द्वारा दिया जाता है। सरल शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि ‘क्षमा’ शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति द्वारा की गई या कही गई बात के लिए उसे क्षमा करने का कार्य है। इसलिए, कानून की दृष्टि से, हम कह सकते हैं कि किसी को क्षमा करने का कार्य एक आधिकारिक कार्य है जिसके द्वारा राज्य का कार्यकारी प्रमुख, जो देश का राष्ट्रपति या राज्य का राज्यपाल हो सकता है, जैसा भी मामला हो, को उनके द्वारा किए गए अपराध के लिए दोषी को क्षमा करने का अधिकार है। 

अब आपके मन में यह सवाल जरूर होगा कि राष्ट्रपति या राज्यपाल सुनवाई प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी किसी दोषी को क्यों माफ करेंगे; क्या यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ नहीं है? महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर पाने तथा क्षमादान शक्ति की सीमा को समझने के लिए नीचे दिए गए मामले का विश्लेषण पढ़ें। 

मामले का विवरण

  • पीठ: न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत और न्यायमूर्ति एस.एच. कपाड़िया
  • याचिकाकर्ता: ईपुरु सुधाकर और अन्य।
  • प्रतिवादी: आंध्र प्रदेश सरकार और अन्य।
  • न्यायमित्र (एमिकस क्यूरी): श्री सोली जे. सोराबजी और श्री पी.एच. पारेख
  • निर्णय: 11 अक्टूबर, 2006

मामले का महत्व

न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत ने ईपुरु सुधाकर एवं अन्य बनाम आंध्र प्रदेश सरकार एवं अन्य (2006) मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। इसमें न्यायमूर्ति पसायत ने राष्ट्रपति और राज्यपाल से मिलकर बनी कार्यकारी शाखा को दी गई शक्ति के दायरे का पता लगाया है। फैसले में विशेष रूप से भारतीय संविधान द्वारा किसी अपराधी की सजा माफ करने की शक्ति पर चर्चा की गई। इसके अलावा, न्यायमूर्ति एस.एच. कपाड़िया ने फैसले का संक्षिप्त विश्लेषण किया, जिसमें उन्होंने न्यायिक समीक्षा की पेचीदगियों के बारे में बात की है। उनकी राय में, न्यायिक समीक्षा की शक्ति न्यायपालिका की शक्ति और भूमिका का एक प्रमुख पहलू है। 

इस निर्णय के अनुसार, अनुच्छेद 161 और अनुच्छेद 72 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति को दी गई क्षमादान शक्तियों को न्यायपालिका द्वारा समीक्षा के दायरे में रखा गया है। इसके अलावा इस मामले में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि कार्यकारी प्राधिकारियों द्वारा अपनी शक्तियों का मनमाने ढंग से प्रयोग नहीं किया जा सकता है और प्राधिकारियों के किसी भी प्रकार के दुर्भावनापूर्ण इरादे नहीं होने चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी क्षमा/छूट प्रदान करते समय विचार का आधार बाह्य (एक्सट्रेनियस) प्रकृति का नहीं होना चाहिए। 

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि न्यायिक प्राधिकरण की भूमिका और उसकी जिम्मेदारियां न केवल संतुलन की शक्ति को बनाए रखना है, बल्कि बुनियादी ढांचे को मजबूत करना भी है। इसलिए न्यायपालिका की भूमिका मौलिक ढांचे का पालन करना और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करके तथा कानून के शासन को कायम रखते हुए अपने सिद्धांतों को मजबूत बनाना है। इसलिए इस मामले को एक अनुस्मारक के रूप में देखा जाता है जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के महत्व को दर्शाता है तथा आज एक खुली और जवाबदेह सरकार की आवश्यकता को दर्शाता है। 

इसलिए, इस निर्णय का अध्ययन करना प्रासंगिक है क्योंकि यह न केवल क्षमादान प्राधिकारी के दायरे को स्पष्ट करने में मदद करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि क्षमादान देते समय शमन (मिटीगेट) करने वाली परिस्थितियों की पुनः जांच की जा सकती है। इसलिए, इस पुनर्परीक्षण से यह सुनिश्चित करने में मदद मिलती है कि किसी निर्दोष व्यक्ति को दंडित न किया जाए तथा सभी को निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण तरीके से सुनवाई का अवसर मिले। भारत की न्यायिक प्रणाली में ब्लैकस्टोन रेश्यो के सिद्धांत का पालन अनादि काल से किया जाता रहा है। रेश्यो कहता है कि ‘यह बेहतर है कि दस दोषी बच जाएं बजाय इसके कि एक निर्दोष को कष्ट सहना पड़े।’ इसके अलावा, यह एक ऐसे साधन के रूप में कार्य करता है जो दंड की मानवीय प्रकृति की जांच करता है और दोषियों को समाज में पुनः शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करता है। 

मामले के तथ्य

वर्तमान मामले में, श्री एपुरु चिन्ना रामसुभाई और अम्बी रेड्डी नामक दो व्यक्तियों की 19 अगस्त 1995 को प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा कथित रूप से हत्या कर दी गई थी। इसलिए, स्वर्गीय श्री एपुरु चिन्ना रामसुभा के पुत्र ने याचिकाकर्ता संख्या 1 के रूप में मामला दायर किया। याचिकाकर्ता संख्या 1 का नाम श्री ईपुरु सुधाकर है। इसके अलावा, इस मामले में याचिकाकर्ता संख्या 2 स्वर्गीय श्री तिरुपति रेड्डी का पुत्र है, जिसने आरोप लगाया है कि उसके पिता की हत्या गौरू वेंकट रेड्डी (प्रतिवादी संख्या 2) द्वारा की गई थी, जबकि उक्त प्रतिवादी संख्या 2 जमानत पर था। 

प्रतिवादी को पहले ही भारतीय दंड संहिता, 1860 (जिसे आगे “आईपीसी” कहा जाएगा) की धारा 302 के तहत हत्या के अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था। जिसके बाद आपराधिक अपील संख्या 519-521/2003 में प्रतिवादी संख्या 2 को 19.10.1995 को दोनों हत्याओं के मुकदमे का सामना करना पड़ा। मुकदमे के बाद, वर्ष 2003 में प्रतिवादी को अपीलीय आपराधिक न्यायालय द्वारा धारा 304(1) सहपठित धारा 109 के अंतर्गत सजा सुनाई गई थी। 

इसलिए हत्या की सजा को गैर इरादतन हत्या (कल्पैबल होमीसाइड) जो हत्या की श्रेणी में नही आती है की सजा में बदल दिया गया और यदि उकसाया गया कार्य किसी अन्य कार्य के परिणामस्वरूप किया गया है और जहां क्रमशः दंड देने के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, तो उकसाने की सजा दी जाएगी। 19 नवंबर 2003 को फैसला सुनाया गया जिसमें प्रतिवादी संख्या 2 को 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी। हालाँकि, जब प्रतिवादी संख्या 2 28 मई 2003 को जेल में था, तब प्रतिवादी संख्या 3 (प्रतिवादी संख्या 2 की पत्नी) ने अपने पति के लिए पैरोल की मांग की। इसमे प्रतिवादी संख्या 2 को 15 दिनों का पैरोल प्रदान किया गया था। हालांकि, जब कुरनूल के पुलिस अधीक्षक की रिपोर्ट अदालत के समक्ष प्रस्तुत की गई, जिसमें कहा गया था कि नंदीकोटकोर विधानसभा क्षेत्र में शांति और कानून-व्यवस्था भंग होने की संभावना है, तो पैरोल रद्द कर दी गई थी। 

इसके बाद, प्रतिवादी संख्या 2 की पत्नी ने आंध्र प्रदेश विधान सभा में चुनाव लड़ा और वह जीत गयी। 12 मई 2004 को उन्हें विधायक नियुक्त किया गया और 14 मई 2004 को उन्होंने पुनः अपने पति के पैरोल के लिए आवेदन किया। इस बार पैरोल न केवल 19 मई 2004 को, अर्थात् एक सप्ताह के भीतर, प्रदान किया गई, बल्कि इसे कई बार बढ़ाया भी गया था।

प्रतिवादी संख्या 2 को 15 दिन की पैरोल का चौथा विस्तार 18 जुलाई 2004 को प्रदान किया गया था। इसके अलावा, प्रतिवादी संख्या 3 ने 10 अक्टूबर 2004 को आगे बढ़कर राज्य के राज्यपाल से भारत के संविधान के अनुच्छेद 161 के दायरे में अपने पति के लिए क्षमादान मांगा। अन्य प्रतिवादियों द्वारा यह प्रतिनिधत्व किया गया, जिसमें उन्होंने कांग्रेस दल के लिए क्षमादान का अनुरोध करते हुए कहा कि प्रतिवादी पर लगाया गया मामला झूठा है। उन्होंने दलील दी कि जो मामला दर्ज किया गया है वह दुर्भावनापूर्ण इरादे से कांग्रेस कार्यकर्ता को फंसाने के लिए दर्ज किया गया है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि ऐसा पक्षों के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण किया गया था। 

अतः, मात्र आठ दिनों के भीतर, अर्थात् 18 अक्टूबर 2004 को, जबकि क्षमा याचिका लंबित थी, प्रतिवादी संख्या 2 को एक माह की अवधि की पैरोल प्रदान कर दी गई। इसके बाद 11 अगस्त, 2005 को आंध्र प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल ने भी अनुच्छेद 161 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए प्रतिवादी संख्या 2 की शेष सजा में छूट प्रदान की थी  

राज्यपाल ने आंध्र प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (डॉयरेक्टर जनरल) और महानिरीक्षक (इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस) (सुधार सेवाएं) को प्रतिवादी संख्या 2 को रिहा करने के लिए कार्रवाई करने का भी निर्देश दिया। इसके अलावा, 12 अगस्त 2005 को, केंद्रीय कारागार, चेरलापल्ली, आर.आर. जिले के अधीक्षक ने प्रतिवादी संख्या 2 को जेल से रिहा करने का निर्देश दिया था। 

यह सब देखकर मृतक तेलुगु देशम पक्ष के कार्यकर्ताओं के बेटे दुखी हो गए थे। चूंकि तत्कालीन राज्यपाल श्री सुशील कुमार शिंदे संयुक्त प्रांतीय गठबंधन सरकार (यूपीए) के तहत मंत्री भी थे, इसलिए उनके द्वारा क्षमादान शक्ति का प्रयोग करने के इस कार्य को याचिकाकर्ताओं द्वारा एक राजनीतिक कदम के रूप में देखा गया था। 

इसलिए, याचिकाकर्ताओं ने आंध्र प्रदेश के राज्यपाल द्वारा दी गई छूट की समीक्षा के लिए आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। इस मामले में माननीय उच्च न्यायालय ने राज्यपाल के क्षमादान के आदेश को इस आधार पर रद्द कर दिया था कि यह राजनीतिक मामलों और पक्ष के सदस्यों के संबंधों के आधार पर किया गया था। इसलिए, राज्यपाल द्वारा क्षमादान देने का यह कार्य प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धांतों के अनुरूप नहीं माना गया था। 

इसलिए, भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के दायरे में एक रिट याचिका दायर की गई। इस रिट के तहत, याचिकाकर्ताओं द्वारा प्रतिवादी को 10 वर्ष के कठोर कारावास की शेष अवधि के लिए छूट दिए जाने को चुनौती दी गई थी। यह छूट आंध्र प्रदेश के राज्यपाल द्वारा गौरू वेंकट रेड्डी (प्रतिवादी संख्या 2) की लगभग 7 वर्ष की कारावास और सजा के लिए दी गई थी। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे का गहन विश्लेषण किया कि क्या राज्यपाल के रूप में क्षमादान शक्ति रखने वाला कोई पक्ष सदस्य अपने पक्ष के सदस्यों को क्षमादान दे सकता है। इसके अलावा, इस मामले में इस प्रश्न का भी उत्तर दिया गया कि क्षमादान शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है या नहीं। 

उठाए गए मुद्दे 

इस मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत मुद्दे इस प्रकार थे-

  • क्या न्यायिक समीक्षा की शक्ति का उपयोग अनुच्छेद 161 के दायरे में राज्य के राज्यपाल द्वारा दी गई क्षमा/छूट की वैधता निर्धारित करने के लिए किया जा सकता है?
  • क्या किसी मामले में तथ्यों की समीक्षा किए बिना क्षमा प्रदान की जा सकती है? किसी दोषी को क्षमा/छूट देते समय महत्वपूर्ण तथ्य क्या होते हैं? 

मामले में शामिल सिद्धांत और अवधारणाएँ

क्षमादान की शक्ति

क्षमादान देने की शक्ति भारत के कार्यकारी प्राधिकारी के हाथ में है और यह अंतिम उपाय है जिसका उपयोग कोई दोषी व्यक्ति आपराधिक प्रकृति के मामलों में कर सकता है। भारत की कार्यकारी प्राधिकारी में भारत के राष्ट्रपति और प्रत्येक राज्य के राज्यपाल शामिल हैं। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि 1948 और 1949 में संविधान सभा में इस बात पर विचार-विमर्श के दौरान कि यह शक्ति अस्तित्व में आनी चाहिए या नहीं, इस संवैधानिक खंड के औचित्य पर कभी विचार नहीं किया गया और न ही इस पर कोई विवाद हुआ था। सजा को माफ करने की शक्ति देने का यह विचार अनादि काल से वैश्विक दुनिया का अभिन्न अंग रहा है और पहले केवल शक्तिशाली राजाओं के पास ही यह अधिकार था। ऐसा इसलिए था क्योंकि राजा के पास व्यक्ति को दण्डित करने का अंतिम अधिकार था, इसलिए वह एकमात्र ऐसा व्यक्ति था जिसे अपने विवेक के अनुसार दण्ड से छूट देने का भी अधिकार था। हालाँकि, इस सिद्धांत का उपयोग आज भी यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि प्राकृतिक न्याय के स्वर्णिम सिद्धांत सत्ताधारियों के प्रभाव में न आ जाएं। यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता संरचना में किसी प्रकार की बाधा न हो और सभी को सुरक्षा का समान अवसर मिले। 

ऐसे मामलों में जब किसी दोषी को आजीवन कारावास या मृत्युदंड जैसी सजा का सामना करना पड़ रहा हो तो उसे कार्यकारी प्राधिकारी के समक्ष दया याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार है। सरकार की कार्यकारी शाखा को दी गई यह दया याचिका क्षमादान शक्ति को क्रियाशील बनाती है, क्योंकि इस याचिका के बाद ही व्यक्ति की निगरानी करने वाले प्राधिकारियों को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आदेश दिया जाता है। इस प्राधिकरण द्वारा रिपोर्ट दिए जाने के बाद मामले का राज्य के राज्यपाल या भारत के राष्ट्रपति द्वारा गहराई से विश्लेषण किया जाता है। प्राधिकारी द्वारा दिए गए आधार और औचित्य तथा मामले के तथ्यों से पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद ही कार्यकारी प्रमुख अपना निर्णय देता है। यह निर्णय क्षमा प्रदान करने वाला या उसे निरस्त करने वाला हो सकता है। 

दुनिया भर के देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा और भारत में दोषियों को फांसी की सजा देने का प्रावधान है। दया याचिका शब्द आधिकारिक शब्दावली है जिसका प्रयोग संयुक्त राज्य अमेरिका में तब किया जाता है जब संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति या राज्य के राज्यपाल के समक्ष क्षमा की अपील की जाती है। भारत में इसे क्षमादान की शक्ति के रूप में जाना जाता है। हालाँकि, यहाँ भी भारत के संविधान के अनुसार शक्ति का प्रयोग केवल भारत के राष्ट्रपति और राज्य के राज्यपाल द्वारा ही किया जा सकता है। 

दया प्रदान करने की शक्ति की प्रक्रिया और आधार

  • भारत में, दोषी द्वारा प्राधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत की जाने वाली अंतिम अपील के आवेदन पर सुनवाई के लिए कोई वैधानिक प्रक्रिया नहीं है।
  • हालाँकि, इस शक्ति का प्रयोग केवल तभी किया जा सकता है जब दोषी द्वारा भारत के माननीय न्यायाधीशों की अन्य सभी राहतें समाप्त हो गई हों और वह अभी भी यह मानता हो कि उसे न्याय नहीं मिला है। ऐसे मामलों में, दोषी स्वयं या दोषी के रिश्तेदार राष्ट्रपति या राज्यपाल को याचिका प्रस्तुत कर सकते हैं ताकि उन पर लगाए गए आरोपों से माफी मिल सके। 
  • यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह कैदी का अधिकार नहीं है। लेकिन यह कार्यपालिका द्वारा तभी प्रदान किया जाता है जब कार्यपालिका का मानना है कि कानून की उचित प्रक्रिया के बाद भी जो न्याय दिया जाना चाहिए था वह ठीक से नहीं दिया गया है। ऐसा तब होता है जब कानून को अपराधी पर बहुत अधिक कठोरता से लागू किया जाता है। 
  • इसके अलावा, दया की याचिका को स्वास्थ्य, तंदुरुस्ती और पारिवारिक वित्तीय स्थिति की दृष्टि से नहीं देखा जाता है; बल्कि यह किसी भी प्रकार के अन्याय को व्यवस्था में प्रवेश करने से रोकने के लिए किया जाता है। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करने के लिए भी ऐसा किया जाता है कि निर्णय देते समय किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो। 

क्षमादान शक्ति का उद्देश्य

देश के कानून का मूल ढांचा ही यह कहता है कि हर किसी को जीने और न्याय पाने का अधिकार है। इसलिए राष्ट्रपति और राज्यपाल को क्षमादान देने की शक्ति प्राप्त है क्योंकि यह निम्नलिखित सुनिश्चित करता है- 

  • यह शक्ति यह सुनिश्चित करती है कि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों में किसी भी रूप में बाधा न आए,
  • इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलती है कि हर किसी को हर परिस्थिति में न्याय पाने का उचित अवसर मिले,
  • यह सुनिश्चित करता है कि न्यायिक प्रणाली में किसी भी प्रकार की मनमानी मौजूद न हो,
  • यह सुनिश्चित करता है कि सत्ताधारी अपनी शक्तियों का सही तरीके से उपयोग कर रहे हैं ताकि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को कायम रखा जा सके, तथा
  • यह सुनिश्चित करने का एक निश्चित तरीका है कि हर किसी को सुनने का अधिकार हो और बिना किसी प्रकार के पूर्वाग्रह के अपना मामला प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाए।

किसी भी दोषी के लिए न्याय के लिए अपील करना अंतिम विकल्प होता है, जब कानून का प्रयोग कठोर हो या जहां न्याय सही अर्थों में न दिया गया हो। संवैधानिक व्यवस्था के तहत क्षमादान की शक्ति इसलिए दी गई है ताकि नियमों के सख्त क्रियान्वयन के कारण होने वाले अन्याय से बचा जा सके। यह एक निगरानी संस्था के रूप में कार्य करता है जो निर्णय लेने वाले प्राधिकारियों की शक्ति पर नजर रखता है। क्षमादान शक्ति शुरू करने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि यदि कोई सजा सुनाई जाती है तो वह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध न हो तथा दोषी व्यक्ति अपना मामला प्रस्तुत करने में सक्षम हो। यह कहा गया है कि क्षमा प्रदान करने की शक्ति दंड के सुधारात्मक सिद्धांत का एक रूप है और यह सुनिश्चित करती है कि कैदियों के मानवीय अधिकारों का उल्लंघन नही होना चाइए। 

अन्याय को रोकने का यह प्रावधान भी एक ऐसा तरीका है जिसके द्वारा सरकार की कार्यपालिका शाखा को न्यायपालिका की किसी भी प्रकार की त्रुटि को सुधारने का अधिकार मिलता है। ऐसे मामलों में जब न्यायिक प्राधिकारी द्वारा दिए गए निर्णय में कुछ प्रकार की संभावित त्रुटियां होती हैं, तो समाज में संतुलित समीकरण बनाने के लिए भारत का संविधान लागू होता है और उन त्रुटियों को दूर करने के लिए कार्यपालिका प्रभारी होती है। न्यायिक त्रुटियों के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हो सकते हैं- 

  • न्याय में चूक, 
  • संदिग्ध दोषसिद्धि, 
  • स्पष्ट त्रुटियाँ, या 
  • आपराधिक कानून का अनुचित रूप से कठोर प्रवर्तन।

इसके अलावा, इस शक्ति का एक अतिरिक्त लाभ यह भी है कि यह कैदियों को उचित अनुशासन में रहने और जेल में अवधि के दौरान अच्छा प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करती है, क्योंकि यह सब अधिकारियों द्वारा रिपोर्ट में गणना की जाती है। राज्यपाल या राष्ट्रपति का निर्णय प्राधिकारियों की रिपोर्ट पर आधारित होता है, इसलिए उनका बहुत महत्व है। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 72

अनुच्छेद 72 भारत के संविधान में निहित है। यह अनुच्छेद भारत के राष्ट्रपति की क्षमादान देने की शक्ति से संबंधित है तथा न्याय सुनिश्चित करने के लिए दोषियों की सजा को निलंबित करने, माफ करने या कम करने की उनकी शक्ति से भी संबंधित है। 

अनुच्छेद में कहा गया है कि भारत के राष्ट्रपति के पास व्यापक शक्तियां हैं। शक्तियों की चर्चा नीचे की गई है – 

  • क्षमा प्रदान करना- क्षमा प्रदान करने का अर्थ है किसी व्यक्ति द्वारा कही गई या की गई बात के लिए उसे क्षमा करना या माफ़ करना। कानून के इस प्रावधान के तहत, क्षमा शब्द का अर्थ राष्ट्रपति का वह कार्य है जिसके द्वारा वह दोषी को उस पर लगाए गए सभी आरोपों से मुक्त कर देता है। 
  • प्रविलंबन (रिप्राइव) प्रदान करना- किसी बात या घटना को रद्द या स्थगित करना प्रविलंबन प्रदान करना कहलाता है। हालाँकि, कानूनी दृष्टि से, इस शब्दावली का अर्थ यह है कि राष्ट्रपति के पास किसी आपराधिक आरोप के तहत दोषी ठहराए गए व्यक्ति की सजा को स्थगित करने की शक्ति है। 
  • विराम (रेस्पाइट) प्रदान करना- विराम शब्द का अर्थ अपराधी की सजा पर अस्थायी रोक लगाना है। इसलिए इस अनुच्छेद के अंतर्गत राष्ट्रपति को किसी व्यक्ति की सजा पर अस्थायी रूप से रोक लगाने का अधिकार है। 
  • परिहार (रिमिशन) प्रदान करना- परिहार प्रदान करने का अर्थ यह है कि निवासी व्यक्ति को उसकी जेल की सजा से रिहा कर रहा है। सरल शब्दों में, इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति को अब अपनी सजा पूरी करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कार्यकारी प्राधिकारी उसे जेल की सीमा से मुक्त करना संतोषजनक और उचित समझते है। परिहार प्रदान करना इस तथ्य पर आधारित हो सकता है कि व्यक्ति ने जेल में अपनी अवधि के दौरान असाधारण रूप से अच्छा व्यवहार किया था या प्राधिकारी अब यह आवश्यक नहीं समझते कि व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए कार्य के लिए दंडित किया जाए। 
  • सजा कम करना- ‘सजा कम करना’ शब्द का अर्थ है कठोर सजा को कम कठोर सजा में बदलने का कार्य। यह मूलतः किसी व्यक्ति की सजा को प्रतिस्थापित करने का कार्य है और यह मामले के तथ्यों या प्राधिकारी की रिपोर्ट के आधार पर किया जा सकता है। किसी व्यक्ति के लिए कठोर दंड को आसान दंड में बदलने के लिए उसके दृष्टिकोण और आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जा सकता है। 

इसलिए क्षमादान अधिनियम के तहत राष्ट्रपति दोषी को दया या माफी दे सकता है। भारत का संविधान और अनुच्छेद 72 स्पष्ट रूप से इस शक्ति से निपटते हैं जो विशेष रूप से राष्ट्र के कार्यकारी प्रमुख को दी गई है और यह बताता है कि क्षमा प्रदान करने का राष्ट्रपति का अधिकार न केवल मृत्युदंड तक ही सीमित है, बल्कि संघीय कानून के उल्लंघन, सेना-न्यायालय या सैन्य न्यायाधिकरणों (ट्रिब्यूनल) के मामलों में भी मौजूद है। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 161

भारत के संविधान के अनुच्छेद 161 के अंतर्गत क्षमादान की शक्ति राज्य के राज्यपाल को प्रदान की गई है। क्षमादान देने की राज्यपाल की शक्ति को निम्नलिखित रूप में समझाया जा सकता है – 

  • राज्य का कार्यकारी प्रमुख राज्यपाल होता है और इसलिए उसे क्षमादान की शक्ति है। इसलिए उनके पास न केवल क्षमा प्रदान करने का अधिकार है, बल्कि दोषी को सजा में प्रविलंबन, विराम या परिहार देने का भी अधिकार है। 
  • किसी आपराधिक मामले में दोषी ठहराए गए व्यक्ति को अधिकार क्षेत्र के राज्यपाल द्वारा उसकी सजा का निलंबन, परिहार या यहां तक कि उसे कम भी किया जा सकता है। यह कोई अधिकार नहीं बल्कि एक शक्ति है जिसका प्रयोग राज्य के राज्यपाल द्वारा केवल राज्य की न्यायिक सीमा और क्षेत्र में ही विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए। 
  • राष्ट्रपति की शक्तियों के समान राज्यपाल भी शक्तिशाली हैं और किसी आपराधिक मामले में दोषी की सजा माफ कर सकते हैं। हालाँकि, वह सेना-न्यायालय द्वारा दंड को माफ नहीं कर सकता क्योंकि यह अधिकार केवल भारत के राष्ट्रपति के पास है। 

दया का विशेषाधिकार

  • उस समय जब राजा के पास दया देने की शक्ति थी, इसे एक विशेष प्राधिकार माना जाता था जो राजा के अधिकार क्षेत्र के अधीन आने वाले व्यक्ति के अधिकारों को प्रभावित कर सकता था। हालाँकि, आज की दुनिया में यह शाही विशेषाधिकार राजा के हाथ में नहीं है, बल्कि राज्य के कार्यकारी अधिकारी को सौंप दिया गया है। अब दया कार्यकारी प्राधिकारी द्वारा दी जाती है और वे ही यह सुनिश्चित करते हैं कि जब कोई दोषी न्याय की विफलता के मामले में निवारण की मांग करने आए तो यह उनका कर्तव्य है कि वे इसकी पुनः जांच करें और सुनिश्चित करें कि सभी को न्याय मिले। 
  • यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह शक्ति कर्तव्य के साथ आती है और वह है ऐसी क्षमा प्रदान करते समय औचित्य प्रदान करना है। राष्ट्रपति या राज्यपाल को क्षमादान देते या अस्वीकार करते समय इसका उचित औचित्य बताना होगा। 
  • न्यायालय की शक्तियों को केवल ‘विशेषाधिकार’ शब्द का प्रयोग करके समाप्त नहीं किया जा सकता है। बल्कि, न्यायिक समीक्षा के दौरान न्यायालय को भी अपना निर्णय देते समय उसके लिए कारण बताने होते हैं। 

न्यायिक समीक्षा

  • न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका की एक प्रक्रिया है, जिसमें न्यायाधीश यह विचार करता है कि सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा लिया गया निर्णय या कार्रवाई कानून की प्रक्रियाओं के अनुसार वैध है या नहीं। ऐसा देश में सत्ताधारियों के बीच नियंत्रण और संतुलन बनाए रखने के लिए किया जाता है। 
  • न्यायिक समीक्षा का अर्थ यह नहीं है कि न्यायपालिका सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा दिए गए निर्णय के गुण-दोष पर गौर करती है। बल्कि यह इस बात पर केंद्रित है कि अधिकारी किस प्रकार उस निष्कर्ष पर पहुंचे या उन्होंने वह कार्य कैसे किया। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि कार्य कानून की मूल संरचना के अनुरूप हो तथा प्रयुक्त प्रक्रिया न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतों का पालन करती हो। सरल शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया इस बात पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय कि निर्णय क्या है, इस बात पर प्रश्न उठाती है कि निर्णय कैसे लिया गया है।
  • अमेरिकी संविधान ही वह संविधान है जिससे भारत के संविधान को न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्राप्त है। इसमें कहा गया है कि न्यायिक समीक्षा देश की शक्ति गतिशीलता में संतुलन बनाए रखने में मदद करती है। यह शक्ति संतुलन देश के तीन प्रमुख स्तंभों अर्थात् विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच है जो मिलकर सरकार की कार्य प्रणाली का निर्माण करते हैं। 
  • न्यायिक समीक्षा के दो प्रमुख कार्य हैं:- 
    • न्यायिक समीक्षा सरकार द्वारा की गई कार्रवाई और उनके द्वारा पारित आदेशों को वैध बनाने में मदद करती है, जब भी ये देश के कानून के अनुरूप हों।
    • इसके अलावा, इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलती है कि सरकार किसी ऐसे तरीके से हस्तक्षेप न करे जो हानिकारक हो सकता है और संविधान के मूल ढांचे को हस्तक्षेप से सुरक्षित रखा जा सके।
  • न्यायपालिका की शक्ति भी संविधान का एक आवश्यक ढांचा है क्योंकि न्यायपालिका का कर्तव्य न केवल जांच और संतुलन बनाए रखना है, बल्कि प्रक्रियाओं की व्याख्या और निरीक्षण करना भी है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी भी मामले में कोई भी निर्दोष दोषी न समझा जाए। 
  • न्यायिक समीक्षा को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है: 
    • विधायी कार्यवाहियां- न्यायिक समीक्षा की इस प्रक्रिया में न केवल विधायिका द्वारा पारित कानून की जांच की जाती है, बल्कि यह भी देखा जाता है कि वे भारतीय संविधान के अनुरूप हैं या नहीं, बल्कि इस बात पर भी नजर रखी जाती है कि वे मूल ढांचे का पालन करते हैं या नहीं। 
    • प्रशासनिक कार्यवाहियाँ- प्रशासनिक कार्यवाहियाँ सरकार की कार्यकारी शाखा द्वारा की जाती हैं और इसमें न केवल कार्यकारी के आदेशों के लिए निर्णय शामिल होते हैं, बल्कि उनके द्वारा कार्यान्वित की जाने वाली नीतियाँ भी शामिल होती हैं। इसलिए ऐसे मामलों में न्यायपालिका का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह इन नीतियों, आदेशों और निर्णयों की समीक्षा करे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे कानूनी हैं और देश के संविधान से मूल रूप से संबंधित हैं। 
    • संवैधानिक संशोधन- न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित संवैधानिक संशोधनों की समीक्षा करती है ताकि यह देखा जा सके कि वे संविधान के मूल ढांचे या किसी अन्य प्रावधान का उल्लंघन करते हैं या नहीं। 
  • न्यायपालिका की यह शक्ति भारतीय प्रवासियों में सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक है क्योंकि यह संवैधानिक सर्वोच्चता सुनिश्चित करती है और प्राधिकारियों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को रोकती है। यह सुनिश्चित करता है कि लोगों के अधिकार सुरक्षित रहें और शक्ति संतुलन के कारण देश सुचारू रूप से चल सके। यह एक स्वतंत्र एवं स्वायत्त निकाय है जो यह सुनिश्चित करता है कि कार्यपालिका का अत्याचार न हो सके। 

  • न्यायिक समीक्षा एक कवच और ढाल दोनों है जो देश के संविधान के किसी भी प्रकार के उल्लंघन को रोककर नागरिकों को कानून या कार्यकारी प्राधिकारी के मनमाने शासन से बचाती है। 
  • इसलिए, जब राष्ट्रपति या राज्यपाल किसी दोषी को असंतोषजनक आधार पर क्षमा या छूट प्रदान करते हैं, तो न्यायपालिका का यह कर्तव्य है कि वह जांच करे और सुनिश्चित करे कि कार्यपालिका प्रमुख का निर्णय किसी भी तरह से पक्षपातपूर्ण नहीं है। 

सामान्य खंड अधिनियम (1897) की धाराएं 14 और 21

  • धारा 14: इस धारा में कहा गया है कि केन्द्रीय अधिनियम द्वारा किसी अधिनियम के प्रारंभ होने के पश्चात् यदि ऐसे अधिनियम के तहत शक्ति दी गई है तो उसका प्रयोग आवश्यकतानुसार किया जा सकता है।
  • धारा 21: यदि पारित केन्द्रीय अधिनियम या विनियमन के दायरे में अधिसूचना, आदेश, नियम या कानून जारी करने की शक्ति मौजूद है या यदि प्रावधान किसी प्रावधान को जोड़ने, संशोधित करने, बदलने या रद्द करने की अनुमति देता है तो ऐसा किया जा सकता है। 
  • केवल संपत प्रकाश बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य (1969) के मामले में ही न्यायालय ने धाराओं के दायरे के बारे में बात की थी। माननीय न्यायालय ने कहा है कि चूंकि धारा 21 में व्यापक शक्तियां दी गई हैं, जिसके कारण इसमें किसी भी प्रकार के संशोधन आदि की अनुमति है, इसलिए इसे भारत के संविधान के अनुरूप लाने की आवश्यकता है। यहां न्यायालय ने महसूस किया था कि कार्यपालिका की शक्तियां व्यापक हैं और उन्हें कुछ दिशानिर्देशों के अधीन रखा जाना आवश्यक है। 
  • इस मामले में सीआरपीसी की धारा 432(3) के दायरे का पता लगाया गया है। इसमें न्यायपालिका ने महसूस किया कि सीआरपीसी के केंद्रीय कानून को जब संविधान के प्रावधानों के साथ पढ़ा जाए तो यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि निलंबन या छूट की सजा की शर्तें पूरी नहीं होती हैं तो उपयुक्त सरकार के पास उसे रद्द करने का अधिकार है। 
  • इस दायरे को और अधिक विस्तार से समझने के लिए अमेरिका के कानून को भी सामने लाया गया और यहां तक कहा गया कि यदि क्षमा प्रदान करने का अधिकार रखने वाले व्यक्ति को गलत सूचना दी गई हो तो क्षमा निरस्त हो सकती है और यह जानबूझकर किया गया झूठ या किसी भी तरह से सच्चाई को दबाना हो सकता है। 
  • माननीय पीठ ने कहा कि सामान्य खंड अधिनियम, 1897 की धारा 14 और 21 के तहत भी क्षमा को अस्वीकार किया जा सकता है। ऐसा उन मामलों में किया जा सकता है जब क्षमा झूठे और धोखाधड़ीपूर्ण प्रतिनिधित्व या जानबूझकर सच्चाई को दबाने के द्वारा प्राप्त की गई हो, भले ही क्षमा किए गए व्यक्ति की धोखाधड़ी में किसी भी तरह की कोई भूमिका न हो। 

दंड प्रक्रिया संहिता (1973)

सीआरपीसी की धारा 432

सीआरपीसी की धारा 432 में सजा को निलंबित करने या परिहार करने की शक्ति प्रदान की गई है।

  • धारा के अंतर्गत उपयुक्त सरकार शब्द का तात्पर्य स्थिति के संबंध में केन्द्र सरकार या राज्य सरकार से है। इसका अर्थ यह है कि उपयुक्त सरकार का निर्धारण करते समय दोषी द्वारा किए गए अपराध जिसके लिए उसे सजा सुनाई गई है, के अधिकार क्षेत्र को भी देखा जाना चाहिए।
  • इस प्रावधान के तहत सजा को निलंबित करने या माफ करने की शक्ति केवल उपयुक्त सरकार को दी गई है। इस शक्ति का प्रयोग उपयुक्त सरकार द्वारा किसी शर्त के साथ या उसके बिना किया जा सकता है। 
  • उपयुक्त सरकार के पास दोषी की सजा के निलंबन या परिहार को रद्द करने की शक्ति भी है, जब दोषी उन शर्तों का पालन नहीं करता है जिन पर उसे निलंबन या परिहार दी गई थी। यह ध्यान देने योग्य है कि निलंबन किसी भी स्तर पर हो सकता है, जब दोषी शर्त का पालन नहीं करता है। 
  • यह महत्वपूर्ण है कि उपयुक्त सरकार द्वारा निर्देश तथा शर्तें प्रस्तुत की जाएं ताकि दोषी को स्थिति की जानकारी हो तथा वह सहमति दे सके। 
  • आपराधिक न्यायालय के आदेश द्वारा ये शर्तें या प्रतिबंध व्यक्ति की स्वतंत्रता या उसकी संपत्ति पर भी इस धारा की उपधारा के अनुसार लागू किए जा सकते हैं। 
  • यह राष्ट्र के कार्यकारी प्राधिकारी द्वारा दया और मानवता का कार्य है, जो आवेदन प्राप्त होने पर कारण सहित अपनी राय देता है कि क्षमा प्रदान की जानी चाहिए या नहीं। 

सीआरपीसी की धारा 433

सीआरपीसी की धारा 433 में दोषी की सजा कम करने की उपयुक्त सरकार की शक्ति का उल्लेख है। सजा में कमी का मतलब है कि सजा को कम कठोर बनाया जाना। इस धारा के अंतर्गत यह कहा गया है कि उपयुक्त प्राधिकार वाली सरकार निम्नलिखित मामलों में व्यक्ति की सहमति के बिना उसकी सजा कम कर सकती है- 

  • मृत्यु दण्ड या भारतीय दंड संहिता द्वारा प्रदत्त कोई अन्य दण्ड;
  • आजीवन कारावास, चौदह वर्ष से अधिक अवधि के कारावास या जुर्माने की सजा;
  • कठोर कारावास की सजा, किसी भी अवधि के लिए साधारण कारावास के लिए जो उस व्यक्ति को सजा दी जा सकती थी, या जुर्माना;
  • साधारण कारावास या जुर्माने की सजा।

मामले में पक्षों द्वारा उठाए गए तर्क

याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ताओं के वकील ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दलील दी और अपने तर्क के समर्थन में निम्नलिखित आधार बताए-

  • वकील ने तर्क दिया कि परिहार प्रदान करना, जिसे इस मामले में क्षमा के रूप में वर्णित किया गया है, अवैध है और इसलिए प्रतिवादी संख्या 2 को यह प्रदान नहीं की जानी चाहिए।
  • याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि क्षमादान देने के राज्यपाल के आदेश अप्रासंगिक तथ्यों पर आधारित थे। उन्होंने अदालत को संबोधित करते हुए कहा कि राज्यपाल द्वारा मामले की प्रासंगिक सामग्री पर विचार नहीं किया गया तथा राज्यपाल द्वारा निर्णय देने से पहले मामले के मुद्दों और तथ्यों पर भी विचार नहीं किया गया था। 

  • इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि छूट केवल अप्रासंगिक और बाहरी सामग्रियों पर आधारित थी, जो प्राधिकरण की रिपोर्ट में प्रस्तुत की गई थीं और इसका मामले से कोई लेना-देना नहीं था। 
  • अन्य प्रतिवादी (प्रतिवादी संख्या 3) की याचिका उसके पति को क्षमा करने का अनुरोध थी और यह केवल कथित राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता पर आधारित थी। इसके अलावा, याचिकाकर्ताओं ने कहा कि क्षमादान देने के एकमात्र आधार के रूप में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का दावा अपर्याप्त है और इसलिए दी गई क्षमादान पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
  • यहां उन्होंने यहां तक कहा कि राज्यपाल ने अदालत द्वारा पारित फैसले को संज्ञान में नहीं लिया। उन्होंने इस तथ्य को भी रेखांकित किया कि प्रतिवादी संख्या 2 को 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी, जिसे राज्य के राज्यपाल ने ध्यान में नहीं लिया था।
  • इन सभी तर्कों के आधार पर, उन्होंने माननीय पीठ के समक्ष दलील दी कि निचली अदालत के फैसले में कहा गया है कि क्षमा प्रदान करने से पहले प्रतिवादी के अपराध को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इसके अलावा, उन्होंने माननीय पीठ से यह भी प्रार्थना और निवेदन किया कि क्षमादान वास्तव में रिपोर्ट में प्रस्तुत अप्रासंगिक सामग्री पर आधारित है और इसलिए इसे रद्द कर दिया जाना चाहिए। 

प्रतिवादी

प्रतिवादी के वकील ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कहा कि- 

  • प्रतिवादी के वकील ने अपनी याचिका में तर्क दिया कि यह मामला और कुछ नहीं बल्कि ‘मात्र राजनीतिक प्रतिशोध’ है, जिसकी साजिश याचिकाकर्ताओं के पक्ष द्वारा रची गई थी।
  • याचिकाकर्ता के इस दावे का खंडन करते हुए कि तथ्यों पर ध्यान नहीं दिया गया, प्रतिवादियों के वकील ने कहा कि राज्य के राज्यपाल के समक्ष सभी प्रासंगिक सामग्री प्रस्तुत की गई थी। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य के राज्यपाल ने सलाहकार समिति के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर इस मामले में अभियुक्तों को परिहार देने से पहले मामले की सभी प्रासंगिक सामग्रियों का समुचित अध्ययन किया था। 
  • उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि इस मामले में याचिकाकर्ता दोषी है, क्योंकि वे क्षमा और परिहार के बीच भ्रमित हैं, क्योंकि मामला राज्यपाल द्वारा दी गई क्षमा के खिलाफ दायर किया गया है, हालांकि प्रतिवादी को राज्यपाल द्वारा परिहार प्रदान की गई है। 
  • इन तर्कों के आधार पर, प्रतिवादी ने माननीय न्यायालय से अनुरोध किया कि वह मामले में हस्तक्षेप न करें क्योंकि उपस्थित सभी सामग्रियां कानूनी रूप से छूट दिए जाने की ओर इशारा करती हैं। 
  • इसलिए, उन्होंने दलील दी कि इस याचिका को खारिज कर दिया जाना चाहिए क्योंकि न्यायिक समीक्षा के प्रावधान का दायरा सीमित है और यह राज्यपाल की क्षमादान संबंधी शक्तियों को अपनी निगरानी में नहीं ला सकता हैं।
  • श्री सोली सोराबजी के दिशानिर्देश निर्धारित करने के सुझाव के संबंध में, प्रतिवादी के वकील ने केहर सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1988) और अशोक कुमार @ गोलू बनाम भारत संघ एवं अन्य (1991) के मामलों का हवाला देते हुए यह समर्थन किया और बताया कि दिशानिर्देशों की सिफारिश की कोई आवश्यकता नहीं है। 

संदर्भित मामले 

यह समझने के लिए कि क्या क्षमादान शक्ति पर न्यायिक समीक्षा न्याय प्रदान करने की दिशा में पर्याप्त कदम है या नहीं, निम्नलिखित मामलों को सर्वोच्च न्यायालय को भेजा गया था-

मारू राम एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1980)

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संवैधानिक शक्ति सार्वजनिक शक्ति के अंतर्गत आती है, इसलिए इसका प्रयोग विधि की उचित प्रक्रिया के बिना नहीं किया जा सकता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि दिशानिर्देशों का पालन करना आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सत्ता का प्रयोग निष्पक्ष तरीके से हो तथा यह सभी के लिए समान हो। इसके अलावा, यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें यह माना गया कि केवल राजनीतिक कारणों से ही क्षमा नहीं दी जा सकती है। 

इसके अलावा, यह वह मामला था जहां अदालत ने यह भी कहा कि किसी दोषी को क्षमा प्रदान करने का कारण धर्म, जाति, रंग या किसी विशेष राजनीतिक दल के प्रति किसी व्यक्ति की राजनीतिक निष्ठा के मानदंड पर आधारित नहीं हो सकता है। इन मानदंडों को अप्रासंगिक और साथ ही भेदभावपूर्ण प्रकृति का बताया गया है, इसलिए इन्हें क्षमादान देने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। इसके अलावा, यह मामला यह दर्शाने में महत्वपूर्ण रहा है कि न्यायिक समीक्षा की शक्ति की सीमाएं हैं और इसका प्रयोग कानून द्वारा तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि मामला ऐसी प्रकृति का न हो कि न्याय को कायम रखने के लिए न्यायिक समीक्षा की आवश्यकता हो।

केहर सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1988)

प्रतिवादियों द्वारा केहर सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1988) मामले का हवाला दिया गया और इसमें राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति के प्रयोग के बारे में इस प्रकार बताया गया है-

  • इस मामले के दायरे में, भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 72 अपने आप में पर्याप्त दिशानिर्देश प्रदान करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राष्ट्रपति द्वारा क्षमा प्रदान करने की शक्ति विनियमित हो।
  • इसके अलावा, इस मामले में यह भी देखा गया कि अनुच्छेद 72 के उपयोग को विनियमित करने के लिए विशिष्ट दिशा-निर्देश आवश्यक नहीं समझे गए, भले ही अनुच्छेद में शक्तियों का व्यापक आयाम हो। अनुच्छेद की व्याख्या करते हुए संवैधानिक पीठ ने कहा कि राज्य के कार्यकारी प्रमुख के लिए कानून के अनुसार कार्य करने हेतु पर्याप्त दिशानिर्देश हैं। 
  • साथ ही, अदालत ने यहां तक कहा कि राष्ट्रपति के आदेश के लिए कारण पूछने का कोई सवाल ही नहीं है। 
  • इसके अलावा, कारण बताने की किसी बाध्यता के अभाव का अर्थ यह नहीं है कि आदेश पारित करने के लिए वैध या प्रासंगिक कारण नहीं होने चाहिए। इसलिए क्षमादान की शक्ति प्रासंगिक तर्क पर आधारित होनी चाहिए और इसका प्रयोग राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं किया जा सकता हैं। 
  • यहां भी, मारू राम के मामले को वापस ले लिया गया ताकि कहा जा सके कि क्षमा प्रदान करते समय धर्म, जाति, रंग और राजनीतिक निष्ठा के भेदभावपूर्ण दिशानिर्देशों की अवहेलना की जानी चाहिए। इसके अलावा, राष्ट्रपति की शक्ति की न्यायिक समीक्षा तब तक नहीं की जा सकती जब तक कि वापस लिए गए मामले की सीमाएं पूरी न हो जाएं। 
  • इस मामले में मुद्दा यह था कि क्या शक्ति विभाजन का सिद्धांत न्यायपालिका को क्षमादान शक्ति के प्रयोग का पुनर्मूल्यांकन करने की अनुमति देता है या नहीं। माननीय न्यायालय ने निर्णय सुनाते हुए कहा कि अनुच्छेद 72, जो क्षमा प्रदान करने की शक्ति रखता है, न्यायिक दायरे में है क्योंकि यह एक संवैधानिक शक्ति है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि आवश्यकता पड़ने पर इसे न्यायिक समीक्षा द्वारा चुनौती दी जा सकती है। 

स्वर्ण सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (1998)

इस मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 161 के दायरे में राज्यपाल की भागीदारी शक्ति की न्यायिक प्राधिकारी द्वारा पुनः जांच की जा सकती है। इस मामले में कहा गया कि यदि कानून के अनुसार यह आवश्यक समझा जाए तो न्यायालय को राज्यपाल के आदेशों पर विचार करने का अधिकार है और ऐसा निम्नलिखित मामलों में किया जा सकता है- 

  • पारित आदेश की प्रकृति मनमानी मानी जाती है;
  • आदेश का उद्देश्य दुर्भावनापूर्ण है;
  • जब उप-उत्पाद आदेश कानून द्वारा अनुमोदित नहीं किये जा सकते; या
  • यहां तक कि ऐसे मामलों में भी जब कार्यकारी प्राधिकारी द्वारा प्राकृतिक न्याय जैसे संवैधानिक सिद्धांतों की अवहेलना की जाती है। 

मामले के तथ्य यह थे कि दूधनाथ नामक व्यक्ति को जोगिंदर सिंह की हत्या का दोषी पाया गया था। दोषी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा से व्यथित होकर उन्होंने विशेष अनुमति याचिका के साथ-साथ उच्च न्यायालय में अपील भी दायर की, लेकिन उन्हें दोनों में से किसी से भी कोई राहत नहीं मिली। लेकिन, अगले दो वर्षों के भीतर, आश्चर्यजनक घटनाक्रम में, उनकी आजीवन कारावास की सजा कम कर दी गई और उन्हें छूट प्रदान कर दी गई थी। 

जब यह निर्णय न्यायिक समीक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए आदेश को पलट दिया कि राज्यपाल को न्यायोचित और निष्पक्ष तरीके से अपनी शक्ति का प्रयोग करने का अवसर नहीं दिया गया। ऐसा इसलिए कहा गया क्योंकि राज्यपाल को प्रासंगिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं कराये गये। इसलिए राज्यपाल के लिए उचित एवं न्यायोचित निर्णय लेना संभव नहीं था। परिणामस्वरूप, राज्यपाल से आग्रह किया गया कि वे प्रस्तुत नए साक्ष्य के आलोक में दूधनाथ की क्षमा और याचिका की पुनः जांच और पुनर्मूल्यांकन करें। 

सतपाल एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2000)

वर्ष 2000 के सतपाल मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 161 के व्यापक दायरे के बारे में बात की थी। यहां न्यायालय ने कहा था कि क्षमादान देने की इस संवैधानिक शक्ति की समीक्षा न्यायालय द्वारा केवल कुछ आधारों पर ही की जा सकती है और न्यायपालिका का हस्तक्षेप तभी उचित होगा जब- 

  • जब ऐसी शक्ति का प्रयोग सरकारी प्राधिकारियों की सलाह के बिना किया गया हो;
  • जब ऐसी शक्ति ने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया हो। दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ है कि क्षमादान देने वाले व्यक्ति की अधिकार क्षेत्र सीमा पार हो गई है। उदाहरण के लिए, दिल्ली का राज्यपाल केरल राज्य में हुई किसी हत्या के दोषी को क्षमा नहीं दे सकता, जिसका दिल्ली से कोई संबंध नहीं है। 
  • जब ऐसा प्रतीत होता है कि राज्यपाल ने कोई विवेक प्रयोग नहीं किया है; 
  • जब राज्यपाल द्वारा क्षमादान का आदेश दुर्भावनापूर्ण इरादे से दिया गया हो; या
  • जब ऐसी क्षमा कुछ बाह्य विचारों पर आधारित हो। 

मनसुखलाल विट्ठलदास चौहान बनाम गुजरात राज्य (1997) और टाटा सेलुलर बनाम भारत संघ (1994)

निम्नलिखित न्यायालय की टिप्पणियों को संदर्भित करने के लिए टाटा सेलुलर बनाम भारत संघ (1994) और मनसुखलाल विट्ठलदास चौहान बनाम गुजरात राज्य (1997) के मामलों का हवाला दिया गया।

  • माननीय सर्वोच्च न्यायालय के पास केवल निर्णयों की समीक्षा करने का अधिकार है, लेकिन अपीलीय न्यायालय के रूप में नहीं है। इसका अर्थ यह है कि चूंकि क्षमा, मुकदमा पूरा हो जाने के बाद दी जाती है, इसलिए यदि न्यायालय पुनः परीक्षण के मामलों में अपीलीय न्यायालय के रूप में कार्य करता है, तो इससे न्यायालय के पहले के निर्णय को ही प्रतिस्थापित किया जा सकता है। 
  • इसलिए, न्यायिक समीक्षा केवल कार्यकारी प्राधिकारी द्वारा लिए गए निर्णय की वैधता पर ध्यान केंद्रित करती है और सवाल करती है कि क्या प्राधिकारी ने अपनी शक्ति का अतिक्रमण किया है, कानून की कोई त्रुटि की है या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का किसी प्रकार का उल्लंघन किया है और यह भी निर्धारित करती है कि वे इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे। 
  • माननीय न्यायालय को संसद की निर्णय लेने की प्रक्रिया को विस्तार से समझने के लिए इस मामले में लॉर्ड डेनिंग की राय भी ली गई थी। उन्होंने कहा कि कार्यकारी प्राधिकारी अक्सर अपने निर्णय लेने की शक्ति दूसरों को सौंप देते हैं। चूंकि इन सभी निर्णयों की पुनः सुनवाई संभव नहीं है। इसलिए, यदि कार्यपालिका द्वारा लिए गए निर्णय किसी अनुचित विचार पर आधारित हों या झूठे हों तथा महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार न किए गए हों, तभी न्यायालय को प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना चाहिए। 

स्टर्लिंग कंप्यूटर्स लिमिटेड बनाम एम एंड एन पब्लिकेशन्स लिमिटेड और अन्य (1993)

इस मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने प्रोफेसर वेड के प्रशासनिक कानून के विश्लेषण की मदद से निर्णय लेने की प्रक्रिया में न्यायिक समीक्षा के महत्व के बारे में विस्तार से बात की है। यह विश्लेषण निर्णय लेने की प्रक्रिया में न्यायालय की भूमिका को समझने पर केन्द्रित है तथा निम्नलिखित बातें बताता है- 

  • न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग न्यायालयों द्वारा सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। इसमें आगे कहा गया कि समीक्षा इस प्रकार की जानी चाहिए कि सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा पारित निर्णय को न्यायपालिका द्वारा पलटा न जा सके।
  • इसके अलावा, न्यायिक प्राधिकारी द्वारा लिया गया निर्णय कानूनी तर्कसंगतता पर आधारित होना चाहिए तथा साथ ही वह प्राधिकारी के किसी भी प्रकार के विवेक से मुक्त होना चाहिए। 
  • इस मामले में यह भी कहा गया कि न्यायिक पीठ को अपनी व्यक्तिगत राय के आधार पर सख्त सीमाएं निर्धारित नहीं करनी चाहिए क्योंकि इससे शक्ति संतुलन में बाधा उत्पन्न हो सकती है। 
  • मामले में अदालत ने कहा कि सख्त सीमाएं निर्धारित करने के बजाय न्यायिक पीठ को हमेशा वस्तुनिष्ठ (ऑब्जेक्टिव) मानकों का पालन करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि निर्णय लेते समय प्राधिकारी के पास पर्याप्त विकल्प हों। 
  • इसके अलावा, मामले में अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि प्रशासनिक अधिकारियों का भी यह दायित्व है कि वे निष्पक्ष तरीके से कार्य करें ताकि कानून का शासन कायम रहे और किसी भी मामले में न्याय को विफल होने से बचाया जा सके। इसलिए, इस मामले में निर्णय यह था कि न्यायिक जांच प्रशासनिक कार्रवाई के रास्ते में नहीं आनी चाहिए।

 

यू.पी. फाइनेंशियल कॉर्पोरेशन बनाम जेम कैप (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड (1993)

इस मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कानून के शासन को बनाए रखने और न्याय में विफलताओं को रोकने के लिए प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा निष्पक्ष रूप से कार्य करने की आवश्यकता स्थापित की गई है। इसलिए, इस मामले में, न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के मानकों का समर्थन किया था। अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि अर्ध-न्यायिक और प्रशासनिक कार्रवाई के बीच की रेखा इस समय बहुत महीन और धुंधली है। इसलिए, प्रशासन के मामलों में न्यायिक जांच की सीमा पार नहीं होनी चाहिए। 

परिणामस्वरूप, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि इस मामले में उच्च न्यायालय के पास अर्ध-न्यायिक निर्णयों और आदेशों की जांच करने का अधिकार नहीं है। यह भी कहा गया कि न्यायालय ऐसे मामलों में प्रशासनिक निकाय के निर्णय को न्यायिक निर्णय से प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है। अदालत में यह रेखांकित किया गया कि न्यायिक प्राधिकारी प्रशासनिक प्राधिकारी के कार्यों में तभी हस्तक्षेप कर सकता है जब उसे इतना अनुचित या उचित समझा जाए कि कोई भी उचित और विवेकशील व्यक्ति उस तरीके से कार्य नहीं करता, अन्यथा न्यायिक प्राधिकारी हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।

एस.आर. बोम्मई एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1994)

एस.आर. बोम्मई एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1994) मामले में उस साक्ष्य के भार पर चर्चा की गई जो किसी डिक्री को चुनौती दिए जाने पर संघ सरकार पर होता है। इस मामले में कहा गया कि कार्यकारी निकाय द्वारा उठाए गए कदमों के लिए स्पष्टीकरण स्थापित करना महत्वपूर्ण है। इसलिए, ऐसे मामलों में जब कार्यकारी प्राधिकरण द्वारा कोई तर्क नहीं दिया जाता है, तो न्यायिक समीक्षा के दायरे का प्रयोग किया जा सकता है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा लिया गया निर्णय न केवल सार्वजनिक हो, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जा सके कि न्याय स्पष्ट रूप से प्रस्तुत हो। 

मामले का फैसला

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक निर्णय देते हुए उन मामलों पर प्रकाश डाला जिनमें न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत निर्विवाद हो जाता है और उसे स्वीकार किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 72 या अनुच्छेद 161 के अंतर्गत राष्ट्रपति या राज्यपाल के आदेश की न्यायिक समीक्षा निम्नलिखित आधारों पर की जा सकती है: 

  • यदि पारित आदेश इस प्रकार का है कि उसमें कोई बुद्धि का प्रयोग नहीं किया गया है;
  • ऐसे मामलों में जब आदेश दुर्भावनापूर्ण प्रकृति का हो;
  • जब आदेश पारित कर दिया गया हो, लेकिन यह केवल बाह्य या अप्रासंगिक विचारों पर आधारित हो;
  • जब प्रासंगिक सामग्रियां मौजूद थीं, लेकिन उन पर विचार नहीं किया गया; या
  • ऐसे मामलों में जब आदेश पूरी तरह से मनमाने ढंग से बनाया गया हो।

निर्णय को पूरी तरह समझने के लिए न्यायाधीशों की टिप्पणियां नीचे दी गई हैं। 

न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत का फैसला

न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत ने फैसला सुनाते हुए टिप्पणी की कि “सभ्य देशों में क्षमा करने की शक्ति को अनुग्रह और मानवता का कार्य माना जाता है।” फैसले में यह भी कहा गया कि ऐसे प्राधिकार के बिना किसी देश की राजनीतिक नैतिकता नहीं मानी जाएगी। इसके अलावा, निर्णय में यह विचार भी प्रस्तुत किया गया कि क्षमा या छूट देने की क्षमता एक समय में केवल राजपरिवार के पास थी, लेकिन आधुनिक विश्व में यह सरकार की कार्यकारी शाखा के हाथ में है। इसके अलावा, न्यायमूर्ति अरिजीत ने अपना फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति होम्स के शब्दों का उल्लेख किया, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे। न्यायमूर्ति होम्स के शब्द थे, “क्षमा एक संवैधानिक योजना है न कि व्यक्तिगत/निजी अनुग्रह का कार्य।” 

फैसले में यह विचार भी व्यक्त किया गया कि किसी दोषी को क्षमादान देने की शक्ति का आधार जनहित और राष्ट्र कल्याण है। क्षमादान देने की यह शक्ति भारत के संविधान में इसलिए दी गई है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्राधिकारियों द्वारा अन्याय न किया जाए और यदि किसी मामले में अन्याय हुआ है तो उसे सुधारा जा सके। चूंकि यह शक्ति कार्यकारी प्राधिकारी के हाथों में पुनः वापस आ गई है, इसलिए यह सुनिश्चित करना कर्तव्य और कार्य है कि समाज अन्याय से मुक्त हो तथा दोषियों का भी समाज में पुनर्वास हो सके। 

इसके अलावा, इस मामले में क्षमा के अधिकार के इतिहास पर भी विस्तार से चर्चा की गई हैं। दया याचिका की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इंग्लैंड राज्य से आती है, जहां इसका प्रयोग अनादि काल से किया जाता रहा है और यह क्षेत्र में संप्रभुता को परिभाषित करने वाली महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। इसके अलावा, भारत के इस उपमहाद्वीप (सबकॉन्टिनेंट) के इतिहास पर चर्चा करते हुए, अदालत ने टिप्पणी की कि भारत ने क्षमादान देने की यह शक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके संविधान से ली है। क्षमादान देने का प्रावधान अमेरिका और भारत दोनों देशों में राष्ट्रपति और राज्यपालों के पास है। 

पहले यह व्यवस्था भारत में अन्याय को समाप्त करने के लिए लाई गई थी, लेकिन बदलते समय और नए युग के उदय के साथ इसे दंड के सुधारात्मक सिद्धांत के एक महत्वपूर्ण भाग के रूप में देखा जाने लगा है। यह स्पष्ट रूप से अपराधी को समाज से प्रतिबंधित करने के बजाय उसे समाज में पुनः एकीकृत करने में सहायता करता है। 

इसके अलावा, माननीय न्यायालय ने सर विलियम वेड की पुस्तक के नौवें संस्करण का भी हवाला दिया जिसका नाम प्रशासनिक व्यवस्था है। अदालत ने दया याचिका की ऐतिहासिक संभावना को समझने के लिए इस पुस्तक का संदर्भ लिया है। यह पुस्तक दया याचिका की स्थिति को शाही विशेषाधिकार के रूप में वर्णित करती है जिसका प्रयोग कुलीन वर्ग द्वारा किया जाता है। इसके अलावा, इस पुस्तक में कहा गया है कि अदालतें निम्नलिखित परिस्थितियों में शाही विशेषाधिकार की समीक्षा कर सकती हैं- 

  • जब कार्य किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो मंत्री के रूप में काम कर रहा है; या
  • जब परिषद में विशेषाधिकार आदेश द्वारा उसे सौंपे गए प्राधिकार के अंतर्गत आने वाले व्यक्तियों के कार्य उपस्थित हों।

इसलिए, इन मामलों में, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत लागू होंगे और उनके द्वारा दी गई क्षमा की समीक्षा करना हर दृष्टि से उचित होगा। 

क्षमादान देते समय राज्यपाल द्वारा कारण की आवश्यकता

यह मामला अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें इस बात पर भी विचार किया गया है कि क्या राज्यपाल को क्षमादान के संबंध में लिए गए निर्णय के लिए कारण भी बताने होंगे। अदालत ने कहा कि चूंकि कोई कारण बताने का कोई वैधानिक दायित्व नहीं है, इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा आदेश पारित करने के लिए कोई वैध कारण नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि, हालांकि कानून में यह नहीं कहा गया है कि कार्यकारी प्राधिकारी को क्षमा देने या न देने के लिए कारण और राय देनी होगी, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि ऐसा आदेश देने के लिए कारण होना भी आवश्यक नहीं है। बल्कि, इसमें वास्तव में कहा गया है कि क्षमा, छूट आदि का आदेश पारित करने के लिए वैध तथा प्रासंगिक कारण होना चाहिए तथा उसका उल्लेख किया जाना चाहिए। 

इस मामले में माननीय न्यायाधीश ने कहा कि क्षमादान देने से पहले राज्यपाल को पुलिस अधीक्षक, जिला कलेक्टर, कुनूर और जिला परिवीक्षा (प्रोबेशन) अधिकारी सहित विभिन्न जिला स्तरीय अधिकारियों के विचारों से अवगत कराया गया था। साथ ही, निर्णय पर पहुंचने के लिए केंद्रीय कारागार, चेरलापल्ली के जेल अधीक्षक के विचार भी न्यायालय द्वारा विश्लेषण के लिए प्राप्त किए गए थे। 

माननीय न्यायालय ने यहां बताया और रेखांकित किया कि जिला कलेक्टर की रिपोर्ट जो 9 दिसंबर 2004 को दी गई थी और राजस्व प्रभागीय अधिकारी का पत्र जो 8 दिसंबर 2004 को दिया गया था, दोनों ने संकेत दिया था कि प्रतिवादी संख्या 2 को समय से पहले रिहा करने के संबंध में कोई आपत्ति नहीं थी। यह रिपोर्ट प्रतिवादी संख्या 2 के अच्छे आचरण और चरित्र पर आधारित बताई गई थी। 

ये रिपोर्टें पहले की उन रिपोर्टों पर आधारित थीं, जिनके अनुसार उन्होंने अपने एस्कॉर्ट पैरोल (19 मई 2004 से 07 अगस्त 2004) और यहां तक कि फ्री पैरोल (20 अक्टूबर 2024 से 06 नवंबर 2004) पर भी सामान्य जीवन व्यतीत किया था। इसके अलावा, जिला कलेक्टर ने भी अपनी रिपोर्ट के आधार पर समयपूर्व रिहाई की सिफारिश की थी। 

अदालत ने जिला परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट पर भी विचार किया था। यह वह रिपोर्ट थी जिसका निष्कर्ष था कि यदि प्रतिवादी को जेल से जल्दी रिहा कर दिया जाए तो ऐसी स्थिति में वह सुरक्षित रहेगा। प्रतिवादी संख्या 2 को सुरक्षा कवच इसलिए दिया गया क्योंकि उनकी पत्नी उस समय विधायक थीं। 

इसके अलावा, रिपोर्ट की जानकारी जिसे वादी ने दोषी के संबंध में ‘जिला परिवीक्षा अधिकारी की बाह्य रिपोर्ट’ माना था, उसके बारे में निम्नलिखित बताती है- 

  • दोषी व्यक्ति प्रतिवादी संख्या 2 – गौरू वेंकट रेड्डी है। वह स्वर्गीय श्री जनार्दन रेड्डी के पुत्र हैं। वह एक उच्च जाति के रेड्डी परिवार से हैं जो नंदीकोटकुर मंडल और तालुका के ब्राह्मणकोटकुर गांव में रहते हैं। 
  • दोषी के पारिवारिक इतिहास में दो मृत बहनें और माता-पिता शामिल हैं जिनकी भी मृत्यु हो चुकी है। केवल दोषी की दादी श्रीमती रत्नम्मा ही ऐसी हैं जो स्वयं एक बुजुर्ग महिला हैं और उनके घर में कोई पुरुष देखभालकर्ता नहीं है। वह वही थीं जिन्होंने दोषी को चिकित्सा सुविधा प्रदान करने के लिए घर वापस भेजने का अनुरोध किया था। 
  • इससे पहले, दोषी ने चुनाव लड़ा था और विपक्ष से मामूली अंतर से हार गया था। जांच में पाया गया कि वह कांग्रेस दल का सदस्य था और राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का शिकार था, जिसके परिणामस्वरूप उसे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था। 
  • बाद के चुनावों में, दोषी की पत्नी श्रीमती सरिता रेड्डी ने आंध्र प्रदेश विधानसभा की सीट के लिए चुनाव लड़ा और सफलतापूर्वक निर्वाचित हुईं। इसलिए, रिपोर्ट में यह माना गया कि चूंकि वह शक्तिशाली थी, इसलिए अपराधी उसके साथ सुरक्षित रहेगा। 
  • इसके अलावा, रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि स्थानीय अध्यक्ष, सचिव और बुजुर्गों सहित ग्रामीणों ने कहा है कि अपराधी को रिहा करने से किसी भी परिस्थिति में गांव में उनकी सुरक्षा को कोई खतरा नहीं होगा। 
  • इसके अलावा, प्रतिवादी संख्या 2 की जीवनशैली के संबंध में रिपोर्ट में कहा गया है कि जब वह पैरोल पर था तो उसने अपनी जीवनशैली बदल ली थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि तब से वह कृषिविद् के रूप में काम कर रहे हैं। इसके अलावा, यह भी कहा गया कि दोषी गांव में सामान्य और शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा था। 
  • इसके अलावा, यह भी बताया गया कि राजनीतिक दल में अपने कार्यकाल के दौरान वह एक ‘अच्छे कांग्रेस कार्यकर्ता’ रहे हैं। 
  • इसके अलावा, रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि दोषी ने गांव में कई लोगों को रोजगार भी दिलाया था।
  • रिपोर्ट के अनुसार, प्रतिवादी संख्या 2 को राजनीतिक मकसद से हत्या के झूठे मामले में फंसाया गया। उन्होंने यह भी कहा कि वह इस हत्या में शामिल नहीं थे और उन्हें इस मामले में झूठा अभियुक्त बनाकर फंसाया जा रहा है। उन्होंने आगे कहा कि यह सब झूठे गवाह पेश करके तथा उनके खिलाफ झूठा बयान गढ़कर किया गया। 
  • रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि पूरे घटनाक्रम के बाद से उन्होंने अपनी गलतियों को स्वीकार किया है और विपक्षी दलों के साथ भी मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे हैं।
  • रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि दोषी के इतिहास का अध्ययन किया गया और पुलिस को पता चला कि वह नक्सली, डकैत या किसी भी तरह का आदतन अपराधी नहीं था।

माननीय अदालत ने कहा कि प्रतिवादी नंबर 2 का यह बयान कि वह एक ‘अच्छा कांग्रेस कार्यकर्ता’ था और वह हत्या की साजिश में शामिल नहीं था, पूरी तरह से गलत है। इसके अलावा, अदालत ने कहा कि इन्हें किसी दोषी को क्षमा या छूट देने का आधार नहीं माना जा सकता है। अदालत ने माना कि उनके ‘अच्छे कांग्रेस कार्यकर्ता’ होने का सवाल मौजूदा मुद्दे से कोई प्रासंगिकता नहीं रखता है। इसके अलावा, पूछताछ में यह बयान भी आश्चर्यजनक था कि दोषी को पिछले चुनावों में राजनीतिक साजिश के कारण हराया गया था। 

अदालत ने पुलिस अधीक्षक की रिपोर्ट पर फिर से विचार किया, जिसमें कहा गया था कि यदि कैदी को समय से पहले रिहा कर दिया जाता है तो ब्राह्मणकोटकुर गांव और नंदीकोटकुर शहर में कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी। हालाँकि, यह रिपोर्ट 6 दिसंबर 2004 के चुनावों के बाद की है, जब प्रतिवादी संख्या 2 की पत्नी विधायक बन गई। माननीय न्यायालय द्वारा यह नोट करना दिलचस्प था कि इसी अधिकारी ने चुनाव से पहले रिपोर्ट दी थी कि यदि प्रतिवादी संख्या 2 को रिहा किया जाता है तो शांति, कानून और व्यवस्था भंग होने की संभावना है। 

अदालत ने तर्क दिया कि अधिकारी की रिपोर्ट में यह परिवर्तन “एकमात्र कारण है कि एक बहिष्कृत व्यक्ति मसीहा बन जाता है, जो कि शासन पद्धति में परिवर्तन प्रतीत होता है।” इसलिए, मजबूत नौकरशाही का प्रयोग करने के लिए क्षमा/छूट प्राधिकरण को लागू करते समय अधिक जांच की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, अदालत ने यह भी बताया कि प्रतिवादी संख्या 3 की याचिका में आपराधिक मामला संख्या 411/2000 के लंबित होने का कोई उल्लेख नहीं था। इसलिए अदालत ने कहा कि कानून की आवश्यकता यह है कि क्षमा प्रदान की जाए या नहीं, इस पर विचार करने के लिए जिन सामग्रियों और साक्ष्यों की आवश्यकता है, उन पर केवल सच्चे और स्वच्छ हाथों से ही विचार किया जाना चाहिए और केवल तभी अधिकारी किसी वैध निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। 

अदालत ने यह भी पाया कि निर्णय लेने की प्रक्रिया के दौरान बाहरी और अनावश्यक सामग्री आवश्यक नहीं थी और उसने प्रतिवादी संख्या 2 को आंध्र प्रदेश के राज्यपाल द्वारा दी गई छूट को रद्द कर दिया। इसके अलावा, अपीलीय प्राधिकारी के रूप में कार्य करने के बजाय न्यायालय ने केवल प्रक्रिया की समीक्षा की और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि याचिका राज्यपाल के पास पुनर्विचार के लिए लंबित है। इसके अलावा, राज्यपाल को अदालत ने नोटिस लेने और सभी आवश्यक जांच करने की अनुमति दी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यदि मामला अनुमति देता है तो क्षमा प्रदान करने के लिए सभी प्रासंगिक और महत्वपूर्ण सामग्रियों का उपयोग किया गया है। 

न्यायमूर्ति एस.एच. कपाड़िया द्वारा निर्णय

न्यायमूर्ति एस.एच. कपाड़िया ने अपने निर्णय में न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत द्वारा निकाले गए निष्कर्ष का सम्मान किया है। इसके अलावा, वह क्षमा, प्रविलंबन और छूट देने की कार्यकारी प्राधिकारी की शक्ति के प्रयोग का अध्ययन और चर्चा करते हैं। उन्होंने आगे कहा कि एक समय ये शक्तियां राजघरानों का विशेषाधिकार हुआ करती थीं; तथापि, आज ये शक्तियां राष्ट्र की कार्यकारी सत्ता से संबंधित हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 और 161 के तहत राष्ट्रपति और राज्य के राज्यपाल को क्षमादान देने का अधिकार है। 

न्यायमूर्ति कपाड़िया के अनुसार, क्षमादान देने की शक्ति कोई विशेषाधिकार नहीं बल्कि आधिकारिक जिम्मेदारी का निर्वहन है। उनका मानना है कि यह केवल राष्ट्र के लोगों के लाभ और समग्र समाज के कल्याण के लिए किया जाना चाहिए। 

इस निर्णय में कहा गया है कि केवल राष्ट्रपति और राज्यपाल ही यह निर्धारित करने में न्यायाधीश हो सकते हैं कि क्षमादान देने के लिए उनके समक्ष प्रस्तुत साक्ष्य पर्याप्त हैं या नहीं। इसके अलावा, उनका मानना है कि केवल ये कार्यकारी प्राधिकारी ही यह निर्धारित कर सकते हैं कि व्यक्ति को क्षमा प्रदान की जाएगी या नहीं। इसके अलावा, उन्होंने कहा कि भले ही यह शक्ति केवल कार्यकारी प्राधिकारी के हाथों में है, लेकिन यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि वे भारत के संविधान के दायरे में भी आते हैं। वहां यह माना जाता है कि वे भारत के संविधान की मूल संरचना की प्रक्रियाओं और सिद्धांतों का पालन नहीं कर रहे हैं। 

राज्यपाल की शक्तियाँ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 161 के अंतर्गत निहित हैं जबकि राष्ट्रपति की शक्तियाँ अनुच्छेद 72 के अंतर्गत हैं। चूंकि ये शक्तियां मूल संरचना का पालन करती हैं और लोगों के मौलिक अधिकारों का सम्मान करती हैं, इसलिए उनके साथ प्रकृति में भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि क्षमा किसी भी प्रकार के सामाजिक, वित्तीय या व्यक्तिगत कारकों के आधार पर नहीं दी जानी चाहिए; बल्कि, उन्हें न्यायिक समीक्षा के दायरे से मुक्त रखने के लिए प्रदान की गई पर्याप्त सामग्री पर केंद्रित होना चाहिए, न कि कानून के शासन के अधीन होना चाहिए। इसलिए यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि कार्यपालिका का निर्णय कानूनी निश्चितता के साथ-साथ निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए।

कानून का शासन 

“कानून का शासन” निष्पक्षता और वैधता के महत्व पर प्रकाश डालता है। यह प्रावधान यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि जो कानून बनाए जाएं वे भारत के संविधान के साथ-साथ न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतों के अनुरूप हों। इसके अलावा, कानून के अनुसार, सरकार की अवधारणा यह अपेक्षा करती है कि नियम सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बनाए और लागू किए जाने चाहिए। कार्यकारी प्राधिकारी के रूप में वे यह सुनिश्चित करते हैं कि क्षमा प्रदान की जाए या नहीं, इस पर निर्णय देते समय वे दोषी के हित के साथ-साथ पीड़ित के परिवार और समग्र समाज पर अपने निर्णय के परिणाम को भी ध्यान में रखना चाहिए। परिणामस्वरूप, कानून के इस सिद्धांत का सम्मान करना कानून के शासन की अखंडता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।

इसलिए, यह सुनिश्चित करना भारत के न्यायालयों का कर्तव्य है कि जब क्षमा प्रदान की जाए तो वह कानून के नियमों के सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए। कार्यकारी प्राधिकारी का यह भी कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि न्याय आधारभूत ढांचे में प्रदान किया जाए। यही कारण है कि न्यायमूर्ति कपाड़िया ने अपने फैसले में कहा था कि न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्राथमिक गठन कानून के शासन को बनाए रखना है। 

इसके अलावा, न्यायमूर्ति कपाड़िया ने फैसला सुनाते हुए यह भी कहा कि “कार्यकारी क्षमादान एक विवेकाधीन शक्ति है, विशेषाधिकार नहीं, बल्कि आधिकारिक कर्तव्य का पालन है।” यह कर्तव्य ऐसा है जो दोषी व्यक्ति की सजा को कम करता है, बिना यह देखे कि वह निर्दोष है या दोषी, इसलिए ऐसे कार्य की समीक्षा करने का न्यायिक विशेषाधिकार आवश्यक है। 

क्षमादान की शक्ति न्यायिक समीक्षा के दायरे से मुक्त नहीं है। इसलिए, निर्णयों में प्रबंधनीय मानकों को लागू करके शक्ति के प्रयोग का संकेत होना चाहिए; यहां प्रबंधनीय मानकों से तात्पर्य कार्यशील लोकतंत्र में अपेक्षित मानकों से है। इसलिए, जब कभी ये स्थितियां उत्पन्न होंगी, तो न्यायालयों को पर्यवेक्षी अधिकार-क्षेत्र में भी हस्तक्षेप नहीं करना पड़ेगा। 

ऐसे मामलों में जब राज्य के राज्यपाल या देश के राष्ट्रपति से गलती, गलत बयानी या धोखाधड़ी के आधार पर क्षमा प्राप्त की जाती है, तो ऐसी क्षमा को रद्द किया जा सकता है। यही कारण है कि न्यायपालिका द्वारा समीक्षा बहुत महत्वपूर्ण है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि दी गई क्षमा किसी भी प्रकार के दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य के बिना दी गई है। 

इसलिए, अनुच्छेद 72 और 161 के अंतर्गत क्षमा प्रदान करने की शक्ति कोई सीधा-सादा फार्मूला नहीं है, बल्कि उनमें से प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसलिए, प्रत्येक मामले का मूल्यांकन उसकी आवश्यकता, औचित्य, तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर करना महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि सभी मामलों में एक ही नियम लागू नहीं किया जा सकता है। इसलिए, विशेषाधिकार शक्ति एक लचीली शक्ति है और इसे विशेष मामले की परिस्थितियों के अनुरूप ढाला जाना चाहिए तथा यह मामला दर मामला भिन्न हो सकती है। 

निर्णय के पीछे तर्क

भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि प्रशासनिक अधिकारी अन्याय को दूर करने में मदद कर सकते हैं। कार्यपालिका के पास किसी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति के विरुद्ध किसी भी प्रकार के अन्याय को रोकने की शक्ति होती है। यह क्षमादान के प्रावधान के कारण संभव है। इससे आपराधिक कार्यवाही में कठोरता को भी रोका जा सकेगा। यह शक्ति यह सुनिश्चित करती है कि ऐसे मामलों में दोषी के लिए अंतिम रास्ता मौजूद हो, जब न्यायिक प्राधिकारियों ने कानून को बहुत कठोर तरीके से लागू किया हो या जब पक्षों को लगे कि उनकी बात नहीं सुनी गई है या जब दिए गए निर्णय में त्रुटियां हों। 

इसके अलावा, न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि न्यायिक समीक्षा के प्रवर्तन से वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि क्षमादान देने के प्रावधान का उपयोग राजनीतिक दल द्वारा पूर्वाग्रह के आधार पर नहीं किया जा रहा है। न्यायिक समीक्षा को यह पहचानने में भी महत्वपूर्ण स्रोत माना गया है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल के कार्य प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और राष्ट्र की मूल संरचना के अनुरूप हैं या नहीं। हालांकि, यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि ऐसे मामलों में न्यायालय केवल समीक्षा प्राधिकारी के रूप में कार्य करता है तथा उसके पास अपीलीय अधिकार क्षेत्र नहीं होता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने क्षमादान देने की शक्ति और न्यायिक समीक्षा के दायरे को समझते हुए निम्नलिखित ऐतिहासिक उदाहरणों का संदर्भ दिया है। ये वे मामले हैं जिनमें यह उत्तर देने का प्रयास किया गया है कि राष्ट्रपति के निर्णय की प्रकृति और विषय-वस्तु पर अदालती कार्यवाही की जा सकती है या नहीं। 

  • केहर सिंह बनाम भारत संघ (1988) मामले में यह माना गया कि, भले ही देश के सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक निर्णय दिया हो, राष्ट्रपति के पास अपनी प्रशासनिक उदारता का प्रयोग करने और मामले के गुण-दोष के बारे में जानने की शक्ति और अधिकार है।
  • टाटा सेलुलर बनाम भारत संघ (1994) मामला अत्यंत महत्वपूर्ण था क्योंकि इसमें न्यायालय ने माना था कि न्यायिक पीठ अपील न्यायालय के रूप में कार्य नहीं करती है, बल्कि केवल पुनरुद्धार (रिवाइवल) क्षमता में काम करती है। 

यह निर्णय दिया गया कि न्यायालय राष्ट्रपति के क्षमादान की समीक्षा कर सकते हैं, लेकिन अपील न्यायालय के रूप में नहीं। यह समीक्षा किसी भी प्रकार के अन्यायपूर्ण या मनमाने फैसलों को पलटने के लिए की जाती है। राष्ट्रपति की सहमति से क्षमादान का यह अधिकार सीमित है और आदेश दिए जाने के बाद ही लागू होता है। 

न्यायाधीश पसायत ने सर विलियम वेड के निर्णय का हवाला देते हुए दावा किया कि अनुच्छेद 72 का दायरा और उसकी शब्दावली शक्ति का उपयोग करने के लिए सटीक स्थिति स्थापित नहीं करती है। साथ ही, इस संदर्भ में यह भी कहा गया कि उचित शक्ति के सिद्धांत को हमेशा संविधान के कानून के सिद्धांतों के साथ चलना चाहिए। हालांकि, यह भी कहा गया कि अदालत को राष्ट्रपति के फैसले को पलटने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, लेकिन इस बात पर काम करना चाहिए कि निर्णय कैसे लिया गया है। यदि छूट का आदेश ऐसी प्रकृति का है कि वह टिकने योग्य नहीं है, तो याचिका को अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए किया जाना चाहिए क्योंकि राज्यपाल के पास प्राधिकारियों द्वारा उन्हें दी गई प्रासंगिक सामग्रियों का मूल्यांकन करने तथा दोषी की सजा माफ करने पर निर्णय देने से पहले कोई भी जांच करने की क्षमता और पूर्ण अधिकार है। 

इसके अलावा, माननीय अदालत ने शिकायतों के समाधान के तरीके खोजने के लिए न्यायमित्र के रूप में श्री सोली जे. सोराबजी की उपस्थिति का अनुरोध किया था। न्यायालय ने यह कदम उन बड़ी संख्या में मामलों को ध्यान में रखते हुए उठाया है जिनमें क्षमादान तथा छूट देने की शक्तियों के दायरे पर सवाल उठाए गए हैं तथा उन्हें चुनौती दी गई है। श्री सोली ने इस बात पर जोर दिया कि व्यक्तियों को क्षमादान और छूट दिए जाने की आवृत्ति में वृद्धि हो रही है तथा न्यायालय को इस संबंध में विशिष्ट दिशानिर्देश निर्धारित करने की आवश्यकता है। इसके अलावा, न्यायिक समीक्षा के सिद्धांतों के साथ-साथ क्षमा और छूट देने की शक्ति की व्याख्या करते हुए, श्री सोली ने यह भी बताया कि दिशानिर्देश बनाने की आवश्यकता है। उनका मानना था कि इन दिशानिर्देशों से राज्य के कार्यकारी प्राधिकार द्वारा क्षमादान शक्ति के दुरुपयोग को रोकने में मदद मिलेगी तथा यह सुनिश्चित होगा कि न्याय निष्पक्ष तरीके से हो। 

ईपुरु सुधाकर एवं अन्य बनाम आंध्र प्रदेश सरकार एवं अन्य (2006) का आलोचनात्मक विश्लेषण 

 

क्षमादान देने का प्रशासनिक कार्य कार्यपालिका के हाथ में है और यहां प्रश्न यह था कि क्या यह न्यायिक समीक्षा के दायरे में आएगा या नहीं। चूंकि यह भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त शक्ति है, इसलिए यह विचार करना उचित है कि शक्ति संतुलन का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि राज्य द्वारा दी गई क्षमा की भी समीक्षा की जाए। 

यह मामला एक महत्वपूर्ण निर्णय रहा है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि न्यायिक प्राधिकारी, जो कि न्यायालय हैं, के पास सार्वजनिक नैतिकता की रक्षा करने तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को कायम रखने के लिए हस्तक्षेप करने की शक्ति है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत में कल्याण के नैतिक मानदंड को महत्वपूर्ण माना जाए। इसके अलावा, इस मामले में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि परीक्षण प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी दोषी को कार्यकारी प्राधिकारी के समक्ष अपना मामला प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है। हालाँकि, ऐसे मामलों में जहां कार्यकारी प्राधिकारी द्वारा पारित निर्णय उचित और विवेकपूर्ण निष्कर्षों पर आधारित नहीं माना जाता है, न्यायपालिका जाँच कर सकती है। यह सब भारत राज्य में न्याय को बनाए रखने तथा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि सभी को न्याय मिलना चाहिए। 

देश का जीवंत कानून भारत का संविधान है और न्यायपालिका एक प्रहरी के रूप में कार्य करती है। यह सुनिश्चित करती है कि किसी के अधिकारों में किसी प्रकार का व्यवधान या कटौती न हो और ऐसे मामलों में जहां क्षमा गलत सूचना या धोखे से दी गई हो, उसे शून्य किया जा सकता है। यहां तक कि ऐसे मामलों में भी जब किसी पक्ष द्वारा किसी भी प्रकार के झूठे और धोखाधड़ीपूर्ण प्रतिनिधित्व का उपयोग करके क्षमा प्राप्त की जाती है या जब कोई व्यक्ति या पक्ष जानबूझकर सच्चाई को दबाता है, तो ऐसे मामलों में भी क्षमा को शून्य माना जाएगा, भले ही क्षमा किए गए व्यक्ति का धोखाधड़ी के कार्य में कोई हाथ न हो। 

चूंकि भारत की संसद को यह सुनिश्चित करने के लिए निर्णय लेने का अधिकार है कि राष्ट्र एक कल्याणकारी राज्य है और न्यायपालिका का काम देश के कानून की व्याख्या करना है, इसलिए शक्ति संतुलन के प्रावधानों के कारण ही दोनों एक-दूसरे पर नजर रख पाते हैं। न्यायपालिका द्वारा लिए गए निर्णय में कुछ प्रकार की त्रुटियां हो सकती हैं, इसलिए अंतिम विकल्प कार्यपालिका को दिया जाता है। 

हालाँकि, चूँकि इस कार्यपालिका का निर्णय किसी प्रकार के पूर्वाग्रह पर आधारित हो सकता है, इसलिए न्यायिक समीक्षा का प्रावधान मौजूद है। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि न्यायिक समीक्षा मामले के गुण-दोष पर ध्यान केंद्रित नहीं करती है, बल्कि इस बात पर ध्यान केंद्रित करती है कि निर्णय कैसे लिया गया, इसलिए यह इस मामले में अपीलीय प्राधिकारी नहीं है। शक्ति संतुलन की यह संरचना न केवल सरकार के तीनों अंगों के बीच स्वस्थ संतुलन सुनिश्चित करती है, बल्कि नागरिकों के कल्याण को भी सर्वोच्च कर्तव्य मानती है। 

निष्कर्ष

ईपुरु सुधाकर एवं अन्य बनाम आंध्र प्रदेश सरकार एवं अन्य का यह ऐतिहासिक मामला एक महत्वपूर्ण मिसाल है। इस मामले ने यह आधार तैयार करने में मदद की है कि देश के राष्ट्रपति के साथ-साथ राज्य के राज्यपाल की क्षमादान शक्तियों की भी न्यायिक प्राधिकारियों द्वारा समीक्षा की जा सकती है। यह एक सहायक कारक के रूप में भी कार्य करता है, क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि मानव अधिकारों का उल्लंघन न हो तथा राष्ट्र में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध अपील की जाए। 

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि आज के समय और दुनिया में शाही विशेषाधिकार समीक्षा से प्रतिरक्षा प्रदान नहीं करता है क्योंकि वर्तमान दुनिया का आदर्श वाक्य सभी को न्याय प्रदान करना है। इसलिए, कार्यपालिका द्वारा दी गई क्षमा, छूट आदि पर भी न्यायपालिका द्वारा जांच की जा सकती है, यदि कार्यपालिका द्वारा कोई तर्क नहीं दिया जाता है या यदि ऐसे तर्क को सही नहीं माना जाता है। इसके अलावा, शक्तियों के हस्तांतरण के माध्यम से मंत्रियों की कार्रवाई न्यायिक समीक्षा के दायरे में आती है। आज के समय और स्थान में, क्षमा प्रदान करने की शक्ति की समीक्षा करना आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि न्याय में कोई बाधा न आए और समाज में किसी भी व्यक्ति की बात अनसुनी नही रहनी चाहिए। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्षमा और छूट में क्या अंतर है?

जैसा कि नाम से पता चलता है, क्षमा एक प्रकार की दया है जिसके तहत अपराधी को माफ कर दिया जाता है और उसे मुक्त कर दिया जाता है। यहां व्यक्ति को उसी स्थिति में रखा जाता है मानो अपराध उसने कभी किया ही न हो। हालाँकि, छूट का अर्थ है सजा की अवधि को छोटा करना है। यहाँ सजा की प्रकृति नहीं बदलती, केवल अवधि में परिवर्तन होता है। 

क्या क्षमादान अपराधी का अधिकार है?

क्षमादान अपराधी का अधिकार नहीं है बल्कि यह अंतिम दया अपील का एक रूप है। यह कार्यकारी प्राधिकारियों पर निर्भर करता है कि वे याचिका को मंजूरी देना चाहते हैं या नहीं। 

क्या यह क्षमा शक्ति कार्यपालिका प्रमुख का विशेष अधिकार है?

भारत संघ बनाम वी. श्रीहरन @ मुरुगन एवं अन्य (2015) के मामले के बाद केंद्र ने दावा किया है कि राजीव गांधी की हत्या के मामले में चार दोषियों की सजा में छूट के बारे में निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति के पास ‘विशेष शक्तियां’ हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यद्यपि राष्ट्रपति के पास भारत के संविधान के अनुसार किसी दोषी को दया देने की शक्ति है, फिर भी वह सरकार से स्वतंत्र होकर इसका प्रयोग नहीं कर सकते हैं। 

इसलिए, न्यायालय ने मारू राम के मामले की ओर इशारा करते हुए यह बात पुनः स्थापित की कि राष्ट्रपति को दया प्रदान करने से पहले मंत्रियों की सलाह पर कार्य करना होगा। वह इसे केवल एक बार पुनर्विचार के लिए भेज सकता है, यदि वह मंत्रिपरिषद की राय से संतुष्ट न हो, लेकिन पुनर्विचार के बाद राष्ट्रपति इसके लिए बाध्य है। 

संदर्भ

 

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