यह लेख Mihir Ramdasi द्वारा लिखा गया है, जो लॉसिखो से लॉ फर्म प्रैक्टिस में डिप्लोमा: अनुसंधान (रिसर्च), प्रारूपण (ड्राफ्टिंग), ब्रीफिंग और ग्राहक प्रबंधन का कोर्स कर रहे हैं। इस लेख मे रोजगार कानून और कार्यस्थल पर भेदभाव के बारे मे विस्तृत रूप से चर्चा की गई है। इसमें संवैधानिक प्रावधान, वेतन संहिता, 2019, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, वेतन भुगतान अधिनियम, समान पारिश्रमिक (रिम्यूनरेशन) अधिनियम 1976, विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2016 और कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013 से संबंधित प्रावधानों की चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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परिचय
अमेरिकन मनोवैज्ञानिक संघ के अनुसार, “भेदभाव जाति, लिंग, आयु या यौन अभिविन्यास (ओरिएंटेशन) जैसी विशेषताओं के आधार पर लोगों और समूहों के प्रति अनुचित या पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार है।” ऐसा भेदभाव किसी भी स्थान पर हो सकता है। जहां तक कार्यस्थल का प्रश्न है, यह दो चरणों में हो सकता है: भर्ती-पूर्व और भर्ती-पश्चात। इसमें किसी अन्य व्यक्ति के पक्ष में संभावित कर्मचारियों को अस्वीकार करना, अनुचित भुगतान, कम लाभ और/या छुट्टी या यहां तक कि बर्खास्तगी (टर्मिनेशन) भी शामिल हो सकती है। इस लेख में रोजगार कानूनों के साथ-साथ कार्यस्थल पर भेदभाव पर भी चर्चा की गई है।
रोजगार और उसके लाभ
आज की दुनिया में हर व्यक्ति कुछ न कुछ पाने के लिए प्रयास और काम करता है। हर व्यक्ति रोजगार में लगा हुआ है। किसी न किसी तरह से कमाई करना हर व्यक्ति के जीवन में एक आवश्यक कारक है। यहां तक कि विरासत से धन प्राप्त करने वाले व्यक्ति को भी अपना जीवनयापन करने के लिए काम करना पड़ता है। रोजगार में होने से व्यक्ति को संतुष्टि या मूल्य का अहसास होता है, अर्थात, उसने कुछ हासिल किया है। रोजगार का अर्थ है ‘वेतनयुक्त कार्य की स्थिति में होना’। काम करके व्यक्ति अपने लिए तथा अपने पर निर्भर लोगों के लिए भी कमाता है। रोजगार न केवल साधन अर्जित करने के अवसर प्रदान करता है बल्कि व्यक्ति के समग्र विकास में भी मदद करता है। यह व्यक्ति को अपने कौशल विकसित करने, ज्ञान प्राप्त करने में मदद करता है। जैसे-जैसे कोई व्यक्ति नौकरी में अनुभव प्राप्त करता है, वह विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के संपर्क में आता है। इस प्रकार, रोजगार व्यक्ति को अपना दायरा बढ़ाने में मदद करता है। इस दायरे में अनुभवी लोग शामिल हो सकते हैं, जो एक और तरीका है जिससे व्यक्ति स्वयं को विकसित कर सकता है। जो व्यक्ति नौकरी करता है वह सदैव अच्छी स्थिति में रहता है। हर व्यक्ति धन लाभ या किसी अन्य चीज को पाने के लिए काम करता है। इसलिए, जब वह इसे हासिल कर लेता है, तो वह मानसिक रूप से स्थिर हो जाता है, आत्म-सम्मान बढ़ता है, और अंततः स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं कम हो जाती हैं। इसके अलावा, इससे सार्वजनिक सेवाओं को बेहतर बनाने में भी मदद मिलेगी, क्योंकि अधिक संख्या में लोगों को रोजगार मिलने से कर राजस्व (रेवेन्यू) में वृद्धि होगी।
रोजगार कानून
रोजगार के स्थान पर दो पक्ष शामिल होंगे: कर्मचारी और नियोक्ता। जो किसी को काम पर रखता है वह नियोक्ता है, जबकि जिसे काम पर रखा जाता है वह कर्मचारी या श्रमिक है। ऐसे कई उदाहरण हो सकते हैं जहां कार्यरत व्यक्ति को नौकरी के दौरान समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति ऐसी मजदूरी दर पर काम करने के लिए सहमत हो सकता है जो उसी स्तर पर काम करने वाले किसी अन्य व्यक्ति की मजदूरी दर से बहुत कम है या जिसे पाने का वह हकदार है। इसमें पक्षपात हो सकता है, जहां किसी को दूसरों की तुलना में अधिक दर पर या उसके हक से अधिक मजदूरी मिल सकती है। ऐसे कई उदाहरण हो सकते हैं जहां किसी व्यक्ति की सेवाएं बिना उचित नोटिस या काम छोड़ने का कारण बताए समाप्त कर दी जाएं। यह काम ही उनकी आजीविका का एकमात्र साधन है। ऐसे कई अन्य उदाहरण हैं जिनमें रोजगार कानूनों की आवश्यकता पड़ती है। ये कानून नियमों और विनियमों का एक समूह है जो कर्मचारियों और नियोक्ताओं दोनों के हितों की रक्षा करता है। इसमें पूर्ववर्ती उदाहरण भी शामिल हैं।
रोजगार कानूनों की आवश्यकता के कारण
- यह सुनिश्चित करना कि कर्मचारियों को उचित एवं न्यायसंगत वेतन मिले।
- काम से अनुचित बर्खास्तगी को रोकना, अर्थात नौकरी की सुरक्षा सुनिश्चित करना।
- यह देखना कि कार्य की स्थितियाँ अपेक्षित मानकों के अनुसार स्वस्थ्य एवं सुरक्षित हैं।
- ये रोजगार कानून प्रणाली में समग्र संबंधों, अर्थात् कर्मचारी और नियोक्ता संबंधों को भी नियंत्रित करते हैं।
- विश्राम के घण्टे एवं अवधि का निर्धारण।
- आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
- विवाद की स्थिति में निवारण तंत्र उपलब्ध कराना।
ब्रिटिश काल में रोजगार कानून
ब्रिटिश काल के कानून मूलतः नियोक्ताओं या उद्योगपतियों के लिए थे। ये कानून इन लोगों की रक्षा करते हैं और कर्मचारियों की जरूरतों पर ध्यान देने की बजाय नियोक्ता के अधिक पक्षधर हैं। सबसे पहला कानून कारखाना अधिनियम 1883 था। इसमें समय, मजदूरी, बाल श्रम उन्मूलन (एबोलिशन) तथा स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की स्थिति से संबंधित कुछ नियम या प्रावधान थे। फिर व्यापार संघ अधिनियम 1923 आया, जिसमें नियोक्ता-समर्थक से लेकर श्रमिकों की चिंताओं तक के प्रावधान थे। कुछ अन्य कानून: मजदूरी भुगतान अधिनियम 1936, व्यापार विवाद (संशोधन) अधिनियम 1938।
स्वतंत्र भारत में रोजगार कानून
स्वतंत्रता के बाद, बढ़ती जनसंख्या के साथ कल्याणकारी कानून की मांग उठने लगी। यहां तक कि उस समय स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों का भी अधिक प्रभाव था। सरकार को इन बातों को ध्यान में रखते हुए कानून बनाना पड़ा। इसके अलावा, विभिन्न मानवाधिकार विनियमों, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर की गई संधियों और अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन जैसे सम्मेलनों का पालन करने की आवश्यकता थी, ताकि कानूनों का समुचित संचालन सुनिश्चित किया जा सके और कानूनों के मानक को अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के समान स्तर पर रखा जा सके। इन कानूनों को संविधान के प्रावधानों का पालन करना था। किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जाएगा। उदाहरण के लिए, स्वस्थ वातावरण में रहने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है जो अनुच्छेद 21, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार में अंतर्निहित है। उचित जीवन जीने के लिए स्वस्थ वातावरण में रहना आवश्यक है, जिसका अर्थ है स्वच्छ कार्यस्थल जिसमें कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए उचित उपाय हों।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, भारत सरकार के सामने रोजगार के संबंध में कानून (श्रम कानून) बनाने का बड़ा काम था। जहां तक श्रम कानून का सवाल है, यह संघ सूची के साथ-साथ समवर्ती सूची के अंतर्गत भी आता है। जब यह संघ के मामले में दोनों माध्यमों के अंतर्गत आता है, तो इसके अंतर्गत आने वाले मामलों को केवल संघ द्वारा ही शामिल किया जा सकता है, जबकि समवर्ती मामलों को राज्य और संघ दोनों के द्वारा शामिल किया जा सकता है। ऐसे कई कानून हैं जो केवल संघ द्वारा पारित किए गए हैं, जबकि कुछ कानून ऐसे हैं जो राज्य और संघ दोनों द्वारा लागू किए गए हैं तथा कुछ ऐसे कानून हैं जो राज्य द्वारा लागू किए गए हैं जो केवल उसी राज्य पर लागू होते हैं।
संघ द्वारा पारित कुछ कानून इस प्रकार हैं:
- कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948
- कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम, 1952
- डॉक कर्मचारी (सुरक्षा, स्वास्थ्य और कल्याण) अधिनियम, 1986
- खान अधिनियम, 1952
जहां तक राज्यों का प्रश्न है, महाराष्ट्र में इस विषय पर 50 से अधिक कानून पारित किए गए हैं। ये कानून उद्योगों के संबंध में प्रचलित स्थितियों को ध्यान में रखते हुए पारित किए जाते हैं।
कार्यस्थल पर भेदभाव
भेदभाव किसी व्यक्ति के प्रति किया गया अन्यायपूर्ण व्यवहार है। यह लिंग, जाति, विकलांगता आदि के आधार पर हो सकता है। भेदभाव मूलतः व्यक्ति की विचारधारा या सोच का हिस्सा है। जब किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव किया जाता है, तो वह मूलतः उन अधिकारों या विशेषाधिकारों से वंचित हो जाता है जिनका वह हकदार है।
कार्यस्थल का अर्थ है वह स्थान जहाँ काम किया जाता है, जैसे कार्यालय, कारखाना आदि। कार्यस्थल पर ऐसे उदाहरण हो सकते हैं जहां वेतन असमानता हो सकती है, अर्थात समान या तुलनीय कार्य करने वाले दो कर्मचारियों को असमान वेतन दिया जा सकता है। ऐसे मामलों में कोई कारण नहीं दिया जा सकता है, या दिए गए कारण तर्कसंगत नहीं हैं या दिए गए कारण झूठे हैं। इसका कारण पारिवारिक संबंध या पक्षपात हो सकता है। यह लिंग के आधार पर भी हो सकता है। जुलाई 2022 और 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, एक औसत वेतनभोगी पुरुष ने 20,666 रुपये कमाए जबकि एक महिला ने 15,722 रुपये कमाए। दोनों राशियों के बीच का अंतर काफी बड़ा है।
भेदभाव केवल लिंग के संदर्भ में ही नहीं बल्कि जातीयता के संदर्भ में भी हो सकता है। लम्बे समय से जातीय अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव किया जाता रहा है। 1990 और 2005 के बीच आयोजित एक रिपोर्ट से पता चला है कि बहुसंख्यकों की तुलना में जातीय अल्पसंख्यकों के पास साक्षात्कार में सफल होने की कम संभावनाएं हैं।
भेदभाव उन स्थितियों में हो सकता है जहां लोग अधिक आकर्षक होते हैं, उन लोगों की तुलना में जो कम आकर्षक होते हैं या जो शारीरिक रूप से अयोग्य (अनफ़िट) होते हैं। इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रावधान किए जाने आवश्यक हैं कि कार्यस्थल पर कोई भेदभाव न हो।
संवैधानिक प्रावधान
संविधान में कुछ ऐसे अनुच्छेद हैं जो किसी भी प्रकार के भेदभाव को रोकते हैं। अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि “राज्य को धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने की अनुमति नहीं है। हालाँकि, इस मामले में कुछ अपवाद भी हैं। अनुच्छेद 15 राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के साथ-साथ आर्थिक रूप से कमजोर नागरिकों की उन्नति के लिए प्रावधान करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 14 कहता है कि कानून के समक्ष सभी समान हैं। राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के अनुसार, राज्य समान कार्य के लिए समान वेतन से संबंधित प्रावधान कर सकता है। किसी व्यक्ति को उसके द्वारा किये गए कार्य के अनुसार भुगतान किया जाना चाहिए और यदि दो व्यक्तियों ने समान कार्य किया है तो वेतन के संबंध में किसी प्रकार की असमानता नहीं हो सकती है।
वेतन संहिता, 2019
यह संसद का अधिनियम है। इसे वेतन, बोनस और संबंधित मामलों से निपटने के लिए अधिनियमित किया गया था। इसमें मजदूरी के सभी चार अधिनियम सम्मिलित हैं।
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम
1948 में अधिनियमित न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करने तथा उनके उचित मुआवजे को सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया एक महत्वपूर्ण कानून है। यह संसद के एक अधिनियम के रूप में कार्य करता है जिसका उद्देश्य विशेष रूप से कुशल और अकुशल दोनों प्रकार के श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी मानक निर्धारित करना है।
अतीत में, नियोक्ता प्रायः अनुचित व्यवहार करते थे, तथा कर्मचारियों को उनके हक या वादे से कम वेतन देते थे। इस अन्याय को स्वीकार करते हुए, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम लाया गया, ताकि न केवल यह गारंटी दी जा सके कि श्रमिकों को बुनियादी जीवन स्तर के लिए पर्याप्त न्यूनतम मजदूरी मिले, बल्कि इसमें नियोक्ता उद्योग की वित्तीय क्षमता पर भी विचार किया गया।
यह अधिनियम इन दोनों कारकों के बीच एक नाजुक संतुलन बनाने का प्रयास करता है। इसमें यह स्वीकार किया गया है कि यद्यपि कर्मचारियों को उनके काम के लिए उचित पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए, लेकिन उद्योग की वित्तीय व्यवहार्यता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करता है कि वेतन श्रमिकों के लिए उचित हो तथा व्यवसायों के लिए टिकाऊ होना चाहिए।
इसके अलावा, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम केंद्र सरकार और राज्यों दोनों को न्यूनतम मजदूरी दरें निर्धारित करने का अधिकार देता है। केंद्र सरकार आधारभूत न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करती है, जबकि राज्यों को क्षेत्रीय परिस्थितियों और प्रचलित आर्थिक स्थितियों के आधार पर इन दरों को समायोजित करने का अधिकार है। यह प्रावधान भारत भर में विविध क्षेत्रीय गतिशीलता को मान्यता देता है तथा स्थानीय कारकों के अनुरूप वेतन भिन्नता की अनुमति देता है।
न्यूनतम मजदूरी मानकों की स्थापना करके तथा यूनियनों और राज्यों के बीच सहयोग को बढ़ावा देकर, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने में एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में कार्य करता है। यह श्रमिकों को शोषण से बचाता है, यह सुनिश्चित करता है कि उन्हें उनके श्रम के लिए उचित मुआवजा मिले तथा अधिक सामंजस्यपूर्ण (हार्मोनियस) और संतुलित श्रम बाजार में योगदान देता है।
- अधिनियम के अनुसार, सामान्य कार्य दिवस के लिए मजदूरी तय करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए:
- निर्धारित किये जाने वाले घंटों की संख्या में एक या अधिक अंतराल शामिल होने चाहिए।
- कर्मचारी को आराम के लिए एक दिन की छुट्टी दी जानी चाहिए।
- जिस दिन आराम के लिए भुगतान करने का निर्णय लिया गया है, उसका भुगतान समयोपरि (ओवरटाइम) दर से कम नहीं होना चाहिए।
- यदि कोई कर्मचारी ऐसे कार्य में संलग्न है, जिसमें उसकी सेवा दो या अधिक अनुसूचित रोजगारों में वर्गीकृत है, तो कर्मचारी के वेतन में प्रत्येक कार्य के लिए समर्पित घंटों की संख्या के अनुसार सभी कार्यों की संबंधित मजदूरी दर शामिल होगी।
- नियोक्ता के लिए सभी कर्मचारियों के काम, वेतन और प्राप्तियों का रिकॉर्ड रखना अनिवार्य है।
- उपयुक्त सरकारें निरीक्षण का कार्य निर्धारित करेंगी और उसे सौंपेंगी तथा इसके लिए निरीक्षकों की नियुक्ति करेंगी।
ये अधिनियम के कुछ प्रावधान हैं। यह अधिनियम पूरे देश में लागू है।
वेतन भुगतान अधिनियम
वेतन भुगतान अधिनियम एक महत्वपूर्ण कानून है जो कर्मचारियों को वेतन भुगतान के तरीके को विनियमित करता है। यह निष्पक्षता, पारदर्शिता और मजदूरी का समय पर भुगतान सुनिश्चित करने के उद्देश्य से एक व्यापक ढांचा स्थापित करता है।
2017 की रिपोर्ट के अनुसार, यह अधिनियम उन कर्मचारियों पर भी लागू होता है जो प्रति माह 24,000 रुपये से कम कमाते हैं। यह सीमा, अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत शामिल कार्यबल खंडों की पहचान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
वेतन भुगतान को विनियमित करने के अधिनियम के मूल उद्देश्य के अलावा, यह नियोक्ताओं और कर्मचारियों के लिए आचरण के कुछ नियम स्थापित करने के महत्व पर भी जोर देता है। ये नियम सामंजस्यपूर्ण और सम्मानजनक कार्य वातावरण बनाने में सहायक होते हैं। नियोक्ताओं की जिम्मेदारी है कि वे अपने कर्मचारियों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करें, सुरक्षित और स्वस्थ कार्य स्थितियां प्रदान करें, तथा रोजगार अनुबंध में उल्लिखित नियमों और शर्तों का पालन करें। दूसरी ओर, कर्मचारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने कर्तव्यों का परिश्रमपूर्वक पालन करें, अनुशासन बनाए रखें तथा कंपनी की नीतियों और प्रक्रियाओं का अनुपालन करें।
इसके अलावा, अधिनियम कर्मचारियों की आवश्यकताओं और हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए संघटन जैसे निकाय के गठन के महत्व को मान्यता देता है। संघटन कर्मचारियों की सामूहिक आवाज के रूप में कार्य करती है, जिससे उन्हें वेतन, लाभ और कार्य स्थितियों से संबंधित मुद्दों पर नियोक्ताओं के साथ बातचीत करने में सक्षम बनाया जाता है। निष्पक्षता को बढ़ावा देने और कर्मचारियों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में संघटन महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
संक्षेप में, वेतन भुगतान अधिनियम वेतन भुगतान को विनियमित करने, कार्यस्थल पर नैतिक आचरण स्थापित करने तथा नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच रचनात्मक संबंधों को बढ़ावा देने में एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में कार्य करता है। अधिनियम के प्रावधान अधिक न्यायसंगत कार्य वातावरण बनाने में मदद करते हैं जहां कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा की जाती है और नियोक्ता अपनी जिम्मेदारियों को प्रभावी ढंग से पूरा करते हैं।
समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976
समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 भारत में एक महत्वपूर्ण कानून है जो लैंगिक वेतन असमानता के मुद्दे को संबोधित करता है। यह पुरुषों और महिलाओं के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन का प्रावधान करता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि समान कार्य करने वाले व्यक्तियों को उनके लिंग की परवाह किए बिना समान पारिश्रमिक मिले। यह अधिनियम लिंग के आधार पर नियुक्ति या रोजगार की शर्तों में किसी भी प्रकार के भेदभाव पर रोक लगाता है तथा कार्यस्थल पर निष्पक्षता और समानता को बढ़ावा देता है। इसका उद्देश्य भर्ती और सेवा शर्तों में भेदभावपूर्ण प्रथाओं को समाप्त करना भी है, सिवाय उन मामलों को छोड़कर जहां कानून द्वारा विशिष्ट छूट प्रदान की गई हो।
समान पारिश्रमिक अधिनियम के तहत स्थापित केंद्रीय सलाहकार समिति, केंद्रीय श्रम मंत्रालय के लिए एक परामर्शदात्री निकाय के रूप में कार्य करती है। नियोक्ताओं, श्रमिकों और सरकार सहित विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधियों से बनी यह समिति वेतन समानता से संबंधित मामलों पर मूल्यवान सलाह और सिफारिशें प्रदान करती है। समिति अधिनियम के कार्यान्वयन की समीक्षा करने, चुनौतियों की पहचान करने तथा इसके प्रवर्तन को सुदृढ़ बनाने के उपाय सुझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
समान पारिश्रमिक अधिनियम अधिक लिंग-समावेशी कार्य वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देता है। समान कार्य के लिए समान वेतन को बढ़ावा देकर, यह अधिनियम लैंगिक रूढ़िवादिता और पूर्वाग्रहों को तोड़ने में मदद करता है, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से वेतन असमानताओं को कायम रखा है। यह महिला श्रमिकों को सशक्त बनाता है, जिससे उन्हें कार्यबल में पूर्ण रूप से भाग लेने तथा आर्थिक विकास में योगदान करने का अवसर मिलता है।
इसके अलावा, अधिनियम एक कड़ा संदेश देता है कि वेतन भेदभाव अस्वीकार्य है और नियोक्ताओं को अपने पारिश्रमिक प्रथाओं में निष्पक्षता और समानता को प्राथमिकता देनी चाहिए। सभी श्रमिकों के लिए सम्मान और गरिमा की संस्कृति को बढ़ावा देकर, समान पारिश्रमिक अधिनियम एक ऐसे समाज के निर्माण में मदद करता है जहां महिलाओं को समान अवसर मिलेंगे और उनके योगदान को महत्व दिया जाएगा।
विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2016
विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 का उद्देश्य भारत में विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करना है। प्रमुख प्रावधानों में शामिल हैं:
- भेदभाव न करना: विकलांग व्यक्तियों को समानता का अधिकार है तथा उनकी विकलांगता के आधार पर उनके साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता हैं। इसमें रोजगार, शिक्षा और सार्वजनिक सेवाओं तक पहुंच में भेदभाव से सुरक्षा शामिल है।
- सुगम्यता: अधिनियम में यह अनिवार्य किया गया है कि सार्वजनिक भवनों, परिवहन तथा सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों को दिव्यांग व्यक्तियों के लिए सुगम्य बनाया जाए।
- शिक्षा: विकलांग बच्चों को अपने पड़ोस के विद्यालयों या विशेष विद्यालयों में निःशुल्क और समावेशी शिक्षा का अधिकार है। अधिनियम में उच्च शिक्षा संस्थानों में दिव्यांग व्यक्तियों के लिए सीटों के आरक्षण का भी प्रावधान है।
- रोजगार: यह अधिनियम रोजगार में विकलांग व्यक्तियों के विरुद्ध भेदभाव पर रोक लगाता है तथा यह अनिवार्य करता है कि सरकारी प्रतिष्ठान विकलांग कर्मचारियों को उचित सुविधाएं प्रदान करें। इसमें सरकारी प्रतिष्ठानों में विकलांग व्यक्तियों के लिए नौकरियों में आरक्षण का भी प्रावधान है।
- सामाजिक सुरक्षा: सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह विकलांग व्यक्तियों के कल्याण के लिए योजनाएं बनाए, जिसमें उन्हें वित्तीय सहायता, स्वास्थ्य देखभाल और पुनर्वास सेवाएं प्रदान करना शामिल है।
- शिकायत निवारण: अधिनियम विकलांग व्यक्तियों की शिकायतों के निवारण के लिए एक तंत्र स्थापित करता है, जिसमें विकलांग व्यक्तियों के लिए मुख्य आयुक्त और राज्य आयुक्तों की नियुक्ति भी शामिल है।
- कानूनी सहायता: विकलांग व्यक्तियों को निःशुल्क कानूनी सहायता पाने का अधिकार है।
- अपराधों के लिए दंड: अधिनियम में विकलांग व्यक्तियों के प्रति भेदभाव, उनके अधिकारों से वंचित करना और उनके विरुद्ध हिंसा जैसे अपराधों के लिए दंड का प्रावधान है।
कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013
कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013, या पोश अधिनियम, भारत में एक ऐतिहासिक कानून है जिसका उद्देश्य कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से बचाना है। इसे विशाखा दिशानिर्देशों के प्रत्युत्तर में अधिनियमित किया गया था, जो इस विषय पर घरेलू कानून के अभाव में 1997 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किए गए थे। पोश अधिनियम यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए एक व्यापक रूपरेखा प्रदान करता है, जिसमें यौन उत्पीड़न की परिभाषा, रिपोर्टिंग और जांच प्रक्रियाओं की स्थापना, और पीड़ितों को उपलब्ध अधिकारों और सुरक्षा की रूपरेखा शामिल है। अधिनियम की प्रमुख विशेषताओं में शिकायतों की जांच करने के लिए कार्यस्थलों में आंतरिक शिकायत समितियों (आईसीसी) की स्थापना, पीड़ितों के लिए गोपनीयता और प्रतिशोध से सुरक्षा जैसे सुरक्षा उपायों का प्रावधान, और अधिनियम का पालन करने में विफल रहने वाले नियोक्ताओं पर दंड लगाना शामिल है। इसके महत्व के बावजूद, पोश अधिनियम के कार्यान्वयन में चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जिनमें अधिनियम के बारे में जागरूकता और समझ की कमी, अपर्याप्त प्रवर्तन तंत्र, तथा प्रतिशोध के डर के कारण मामलों की कम रिपोर्टिंग शामिल है। इन मुद्दों के समाधान के लिए अधिक सरकारी निगरानी, जागरूकता एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों में वृद्धि, तथा अधिक प्रभावी शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना की मांग की गई है।
निष्कर्ष
संगठन के सुचारू संचालन के लिए इनकी आवश्यकता होती है, तथा साथ ही, कर्मचारी को उसके कार्य के लिए वह सब कुछ प्रदान करना भी आवश्यक है जिसका वह हकदार है। किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। ऐसे कृत्यों से व्यक्ति का मनोबल गिर सकता है तथा मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इसके अलावा, यह कम ऊर्जा का एक कारण भी हो सकता है। धीरे-धीरे और लगातार, यह कम उत्पादन दरों की ओर ले जाता है। यह अप्रत्यक्ष रूप से नियोक्ता के लिए हानिकारक है, क्योंकि इससे उसे भविष्य में नुकसान उठाना पड़ सकता है।
संदर्भ