डॉ. गुलशन प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य (2009)

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यह लेख Harshit Kumar द्वारा लिखा गया है। इस लेख में डॉ. गुलशन प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य, 2009 (14) स्केल 290 के मामले में दिए गए निर्णय पर विस्तार से चर्चा की गई है जिसमें स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए प्रावधान करने की राज्य की शक्ति पर चर्चा की गई है। इस मामले के विश्लेषण में ऐसे प्रावधान करने में राज्य की विवेकाधीन शक्ति पर चर्चा की गई है तथा उन उदाहरणों को भी निर्दिष्ट किया गया है जब राज्य ऐसा कोई प्रावधान न करने का निर्णय ले सकता है। इस लेख में परमादेश (मैंडेमस) रिट जारी करने के उद्देश्य तथा कुछ शर्तों जिनके अंतर्गत इसे जारी नहीं किया जा सकता है, पर भी चर्चा की गई है। इस लेख में उन मामलों पर चर्चा की गई है जिन पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपना अंतिम निर्णय दिया। अंत में, यह लेख कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करता है जिन पर न्यायालय को अपना अंतिम निर्णय देते समय विचार करना चाहिए था। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय 

मानव विकास प्रत्येक व्यक्ति की पसंद को व्यापक बनाने की एक विधि है, न कि केवल समुदाय के किसी विशेष वर्ग या किसी विशेष व्यक्ति के लिए। जब किसी विशेष समूह को मुख्यधारा की विकास प्रक्रिया से बाहर रखा जाता है तो विकास की प्रक्रिया असमान और अन्यायपूर्ण हो जाती है। लोकतंत्र में यह बहुत आवश्यक है कि सरकार नागरिकों के अधिकारों को बनाए रखे तथा अन्याय को मिटाने को विशेष महत्व दे। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के साथ-साथ स्थिति और अवसर में समानता प्राप्त करना भारत के संविधान की प्रस्तावना में निर्धारित लक्ष्यों में से एक है। संविधान में नागरिकों के बीच सामाजिक-आर्थिक समानता सुनिश्चित करने के लिए राज्य को राज्य नीति के विभिन्न निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने के निर्देश भी दिए गए हैं। संविधान निर्माता डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने संविधान के अंगीकरण (एडॉप्शन) दिवस पर संविधान सभा में अपने भाषण में सामाजिक और आर्थिक स्तर पर तत्कालीन विद्यमान असमानता पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि इस असमानता को यथाशीघ्र दूर करने की सख्त आवश्यकता है, अन्यथा जो लोग इन असमानताओं का सामना कर रहे हैं, वे संविधान सभा द्वारा कड़ी मेहनत से निर्मित राजनीतिक लोकतंत्र को नष्ट कर देंगे। इसलिए, संविधान के माध्यम से स्वतंत्र भारत में आरक्षण प्रणाली की शुरुआत की गई। 

शैक्षणिक संस्थानों में सीटों का आरक्षण उन आरक्षणों में से एक है जो संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 के माध्यम से अनुच्छेद 15 के खंड (4) की शुरूआत द्वारा नागरिकों के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को दिया गया है, जो मद्रास राज्य बनाम चंपकम दोराईराजन (1951) के मामले में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के परिणामस्वरूप है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मेडिकल कॉलेज में विभिन्न समुदायों के लिए सीटें आरक्षित करने के मद्रास सरकार के आदेश को रद्द कर दिया। न्यायालय ने पाया कि यह आदेश अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन है जो धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के कारण उत्पन्न चिंताओं के बाद, प्रथम संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 15 के अंतर्गत खंड (4) लाया गया, जिसने राज्य सरकार को शिक्षा क्षेत्र में अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों या सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लोगों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान करने की शक्ति प्रदान की है। 

डॉ. गुलशन प्रकाश एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2009) का ऐतिहासिक मामला चिकित्सा महाविद्यालयों की स्नातकोत्तर (पीजी) उपाधि (डिग्री) के तहत सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों और एससी/एसटी उम्मीदवारों के लिए आरक्षण के मामले के इर्द-गिर्द घूमता है। न्यायालय ने ऐसे आरक्षण प्रदान करने के लिए विशेष प्रावधान करने के लिए राज्य को प्रदान की गई विवेकाधीन शक्ति पर चर्चा की, तथा निर्णय दिया कि यदि कोई राज्य ऐसा कोई विशेष प्रावधान नहीं करने का निर्णय लेता है, तो इसे मूल अधिकार के उल्लंघन के मामले के रूप में परमादेश रिट के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में नहीं लाया जा सकता। इस निर्णय के पीछे के कारणों पर आगे विस्तार से चर्चा की जाएगी। 

डॉ. गुलशन प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य, 2009 के तथ्य

हरियाणा राज्य ने दिनांक 12/11/2007 के एक नोटिस के माध्यम से महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय (जिसे आगे एमडीयू कहा जाएगा), रोहतक को पीजी/एमडी/एमएस डिप्लोमा और एमडीएस पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित करने का निर्देश दिया। यह परीक्षा हरियाणा राज्य के सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों और डेंटल महाविद्यालयों में सत्र 2008-2009 के लिए आयोजित की गई थी। हरियाणा राज्य ने पंडित बी.जी. शर्मा पी.जी.आई.एम.एस., रोहतक को भी उसी अधिसूचना के तहत काउंसलिंग करने तथा उक्त पाठ्यक्रमों के अंतर्गत प्रवेश प्रक्रिया पूरी करने का निर्देश दिया है। जारी अधिसूचना के अनुसार, सत्र 2008-2009 के लिए सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों और डेंटल महाविद्यालयों में पीजी/एमडी/एमएस डिप्लोमा और एमडीएस पाठ्यक्रम प्रवेश परीक्षा आयोजित करने के लिए एमडीयू, रोहतक द्वारा एक सूचीपत्र (प्रॉस्पेक्टस) जारी किया गया था। 

अपीलकर्ताओं ने 15/12/2007 को राज्य सरकार द्वारा 19/03/1999 को जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार पीजीआईएमएस में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों (एमएस/एमडी/एमडीएस/डिप्लोमा) में एससी/एसटी के लिए आरक्षण शामिल करने के लिए आयुक्त और स्वास्थ्य सचिव, स्वास्थ्य और शिक्षा मंत्रालय, हरियाणा सरकार, पंचकूला से संपर्क किया। हालाँकि, उन्हें कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली, इसलिए, अपीलकर्ताओं ने एक रिट याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसमें सूचीपत्र को रद्द करने की प्रार्थना की गई, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया। इस निर्णय से व्यथित होकर याचिकाकर्ताओं ने इस मामले को विशेष अनुमति याचिका के तहत सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया तथा संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत अन्य राहत के साथ-साथ परमादेश रिट जारी करने की प्रार्थना की। 

उठाए गए मुद्दे 

इस मामले में उठाए गए पांच प्रमुख मुद्दे नीचे सूचीबद्ध हैं: 

  • क्या अनुच्छेद 15(4) के तहत राज्य को दी गई शक्ति विवेकाधीन शक्ति है या अनिवार्य शक्ति है?
  • क्या न्यायालय राज्य को आरक्षण प्रावधान करने का निर्देश देने के लिए परमादेश जारी कर सकता है?
  • जहां राज्य सरकार ने अनुच्छेद 15(4) के तहत स्नातक पाठ्यक्रमों में आरक्षण दिया है, क्या वह स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में भी ऐसा आरक्षण देने के लिए बाध्य है?
  • जहां भारत सरकार ने स्वयं अनुच्छेद 15(4) के अंतर्गत सभी चिकित्सा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान किया है, क्या यह उन चयनों पर स्वतः लागू होता है जहां राज्य सरकार के पास विनियमन शक्तियां हैं?
  • सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों या एससी/एसटी की उन्नति के लिए आरक्षण प्रदान करने या विशेष प्रावधान करने के लिए अनुच्छेद 15(4) द्वारा दी गई शक्ति का प्रयोग करने के लिए कौन पात्र है? 

पक्षों के तर्क

अपीलकर्ता

यह विवाद अपीलकर्ताओं द्वारा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को आरक्षण प्रदान करने वाले संगठनों के बारे में कुछ तथ्य प्रस्तुत करने के साथ शुरू हुआ। उनके अनुसार, हरियाणा में चिकित्सा/ आयुर्वेदिक/ डेंटल/ होम्योपैथिक महाविद्यालयों/ विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए एमबीबीएस/बीएचएमएस/बीडीएस/बीएएमएस प्रवेश परीक्षा के लिए एमडीयू द्वारा 07/08/2000 को एक सूचीपत्र प्रकाशित किया गया था। अधिसूचना के अनुसार विवरणिका में विभिन्न श्रेणियों में सीटें प्रदान की गई थीं जिनमें से 20% सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित थीं। 

आगे यह भी प्रस्तुत किया गया कि 17/09/2005 को अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान (एम्स) सहित सभी संस्थानों द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण प्रदान किया गया था। इसके अलावा, 2007 के सत्र में सरकारी मेडिकल कॉलेज, पटियाला, अमृतसर और फरीदकोट द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को आरक्षण प्रदान किया गया था। इसके अलावा, दिल्ली विश्वविद्यालय सहित कुछ अन्य राज्य भी स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को आरक्षण प्रदान कर रहे हैं। 

इन बिंदुओं को आगे रखते हुए अपीलकर्ता यह तर्क देना चाहते थे कि, जहां स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के लिए इतने सारे संस्थानों द्वारा आरक्षण प्रदान किया गया था, और जहां हरियाणा राज्य ने स्वयं 2007 के सत्र में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के लिए आरक्षण दिया था, यदि ऐसा है तो इसे वर्तमान सत्र में भी प्रदान किया जाना चाहिए, क्योंकि अनुच्छेद 15(4) के अनुसार राज्य के लिए इस प्रावधान का पालन करना अनिवार्य है और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के लिए भी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आवश्यक रूप से आरक्षण प्रदान करना है। 

अपीलकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि भारत सरकार ने पहले ही स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के लिए अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षाओं में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को आरक्षण प्रदान किया है, तो हरियाणा राज्य का भी ऐसा करना दायित्व है तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को आरक्षण प्रदान करने के लिए आदेश या निर्देश जारी करना चाहिए। इसके अलावा, जो सूचीपत्र जारी किया गया था, उसमें आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है, यह अनुचित है और इसे रद्द किया जाना चाहिए। 

प्रतिवादी

प्रतिवादियों का तर्क था कि हरियाणा राज्य ने पहले ही एमबीबीएस/बीएचएमएस/बीडीएस/बीएएमएस में आरक्षण प्रदान किया है, जो स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम हैं, और चूंकि स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के संबंध में कोई आरक्षण नहीं है, इसलिए स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के लिए जारी किए गए सूचीपत्र में कोई आरक्षण खंड शामिल नहीं है। 

आगे यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 15(4) केवल एक सक्षम प्रावधान है, इसलिए विभिन्न पहलुओं पर उचित ध्यान देने के बाद, हरियाणा राज्य इस निर्णय पर पहुंचा है कि स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को कोई आरक्षण प्रदान नहीं किया जाएगा। इसके अलावा, परमादेश रिट जारी करने से संबंधित राहत खंड के अनुसरण में, उन्होंने बताया कि किसी विशेष वर्ग के लोगों के लिए, राज्य को स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के तहत उन्हें आरक्षण प्रदान करने का निर्देश देने वाला परमादेश नहीं हो सकता है। 

इसके अलावा, राज्य (प्रतिवादियों में से एक) ने तर्क दिया कि उन्होंने स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/पिछड़े वर्गों को आरक्षण प्रदान नहीं करने के अपने निर्णय के बारे में बार-बार चर्चा की है और विभिन्न अधिसूचनाओं के माध्यम से इसे व्यक्त किया है। आरक्षण के मामले में, राज्य ने हमेशा भारतीय चिकित्सा परिषद की सिफारिशों को ध्यान में रखा है और निर्णय लिया है कि स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में आरक्षण न तो व्यवहार्य है और न ही आवश्यक है, इसका कारण यह है कि अखिल भारतीय चिकत्सा  संस्थान, नई दिल्ली द्वारा आयोजित अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा के माध्यम से हरियाणा राज्य के संस्थानों में एमडी/एमएस/पीजी डिप्लोमा और एमडीएस के पाठ्यक्रम के लिए 50% सीटों पर पहले से ही आरक्षण है, और अपीलकर्ताओं को पहले से ही उनके एमबीबीएस/बीडीएस योग्यता परीक्षा में सीटों के आरक्षण से लाभ मिल रहा है। 

प्रतिवादियों ने यह भी तर्क दिया कि राज्य में आरक्षण पर निर्णय लेने के लिए केवल राज्य ही उपयुक्त प्राधिकारी है। न्यायालय के समक्ष अपीलकर्ताओं की यह गलत धारणा है कि राज्य ने स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/पिछड़े वर्गों को आरक्षण प्रदान करने का निर्णय पहले ही ले लिया है, हालांकि, राज्य ने विभिन्न अधिसूचनाओं के माध्यम से बार-बार अपने निर्णय को बहुत स्पष्ट कर दिया है, जिसमें स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में इस तरह के आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होने की बात कही गई है। 

डॉ. गुलशन प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य, 2009 में निर्णय

न्यायालय ने अपीलकर्ताओं की दलीलों को खारिज कर दिया तथा परमादेश रिट की प्रार्थना भी खारिज कर दी। न्यायालय ने विभिन्न उदाहरणों का हवाला देते हुए इस निर्णय के तर्क को विस्तार से बताया। 

निर्णय के पीछे तर्क

इस मामले में एक प्रमुख प्रश्न अनुच्छेद 15(4) की प्रकृति और उद्देश्य था। यह अनुच्छेद इस प्रकार है:

“अनुच्छेद 15(4): इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़े नागरिकों के किसी वर्ग या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिए कोई विशेष प्रावधान करने से नहीं रोकेगी।” 

यह अनुच्छेद राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े नागरिकों के वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है। ये प्रावधान समाज के इन पिछड़े वर्गों की उच्च शिक्षा प्राप्त करने में भागीदारी को प्रोत्साहित करने और बढ़ाने के लिए होंगे। 

सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, जैसा कि इस मामले में निर्णय दिया गया है, यह प्रावधान एक सक्षमकारी प्रावधान है न कि अनिवार्य प्रावधान है। इसका अर्थ यह है कि यह प्रावधान राज्य पर कोई अनिवार्य बाध्यता नहीं डालता बल्कि राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए प्रावधान करने तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में आरक्षण प्रदान करने का विवेकाधिकार देता है। 

एक अन्य प्रमुख मुद्दा परमादेश रिट जारी करना था। अपीलकर्ता ने अदालत से अनुरोध किया कि वह राज्य सरकार को निर्देश देने के लिए एक रिट जारी करे कि वह स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के लिए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के द्वार खोले है। 

परमादेश एक प्रकार का रिट या न्यायिक उपाय है, जिसमें सरकार, न्यायालय, निगम या अन्य सार्वजनिक संगठन को उच्च प्राधिकारी द्वारा कुछ करने या कुछ न करने का निर्देश दिया जाता है, जिसे कानून द्वारा या जैसा भी मामला हो, उन्हें करने या न करने की आवश्यकता होती है। ये कार्य कुछ मामलों में सार्वजनिक कर्तव्य या वैधानिक कर्तव्य हो सकते हैं। इसे किसी प्राधिकारी को ऐसा कुछ करने के लिए बाध्य करने के लिए जारी नहीं किया जा सकता जो कानून के विरुद्ध हो या जो कानून द्वारा निषिद्ध हो (होप टेक्सटाइल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ, 1995)। परमादेश का अनुरोध कोई भी व्यक्ति नहीं कर सकता, जिसके कानूनी अधिकार का उल्लंघन न हुआ हो। जो कोई भी परमादेश के लिए प्रार्थना करता है, उसके पास कानूनी शिकायत होनी चाहिए जो कानूनी रूप से संरक्षित हो और न्यायालय भी उसे लागू कर सके। उल्लंघन तब होता है जब कोई प्राधिकारी किसी व्यक्ति को कानूनी अधिकार देने से इनकार करता है, जबकि वह उसी व्यक्ति या पक्ष को ऐसा अधिकार प्रदान करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है (मणि सुब्रत जैन बनाम हरियाणा राज्य, 1977)। 

किसी राज्य विधानमंडल को असंवैधानिक कानून या विधेयक पर विचार करने से रोकने के लिए परमादेश रिट जारी नहीं की जा सकती (छोटे लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1951)। न्यायालय द्वारा किसी विधायी निकाय को विशिष्ट कानून पारित करने के लिए निर्देशित नहीं किया जा सकता है, न ही न्यायालय किसी अधीनस्थ विधायी प्राधिकरण को कोई ऐसा कानून पारित करने के लिए निर्देशित कर सकता है, जिसे वह अधिनियमित करने के लिए सक्षम समझता है (जम्मू और कश्मीर राज्य बनाम एआर ज़क्की, 1992)। इसके अलावा, न्यायालय सरकार को किसी भी कानूनी प्रावधान को लागू करने से नहीं रोक सकता (नरिंदर चंद हेम राज बनाम उपराज्यपाल, प्रशासक, केंद्र शासित प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, 1971)। परमादेश मुख्य रूप से किसी प्राधिकरण को किसी अधिकार-बाह्य कार्य (बिहार राज्य बनाम डी.एन. गांगुली, 1958) को करने से रोकने के लिए जारी किया जाता है, तथा इसी प्रकार, सरकार को किसी ऐसे अधिनियम या कानून को लागू करने से रोकने के लिए जारी किया जाता है जो असंवैधानिक हो (वाई.एन. महबूब शेरिफ एंड संस बनाम मैसूर राज्य परिवहन प्राधिकरण, 1960)। 

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य के खिलाफ कोई रिट जारी नहीं की जा सकती है, जिससे उन्हें स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में एससी/एसटी/एसईबीसी उम्मीदवारों को आरक्षण प्रदान करने के लिए कोई विशेष प्रावधान करने का निर्देश दिया जा सके। 

संदर्भित पूर्ववर्ती निर्णय 

  • इस मामले में उठाए गए सबसे पहले मुद्दे पर चर्चा करते हुए, अपीलकर्ताओं के विद्वान वकील डॉ. कृष्णन सिंह चौहान ने केरल राज्य बनाम एन.एम. थॉमस (1975) के मामले में सात न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिए गए निर्णय का हवाला दिया। इस मामले में, केरल राज्य और अधीनस्थ सेवा नियम, 1958 के नियम 13-AA की संवैधानिकता, जो अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को पदोन्नति के उद्देश्य से एक निश्चित समय सीमा तक कुछ विशेष और विभागीय परीक्षण से छूट देने से संबंधित है, सवालों के घेरे में थी। 

न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिए गए निर्णय का अवलोकन किया और पाया कि बहुमत ने केरल राज्य और अधीनस्थ सेवा नियम, 1958 के नियम 13-AA की वैधता को बरकरार रखा। हालाँकि, समग्र निर्णय में, न्यायालय ने अनुच्छेद 15(4) के निहितार्थ और प्रभाव पर विचार नहीं किया, विशेष रूप से, क्या यह सिर्फ एक सक्षम प्रावधान है या क्या यह राज्य के लिए स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में आरक्षण प्रदान करना अनिवार्य बनाता है। 

न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण का सम्पूर्ण विचार सम्मिलित है या यह आरक्षण की अवधारणा को सम्पूर्ण रूप से समाहित करता है। दूसरे शब्दों में, क्या आरक्षण किसी अन्य प्रावधान जैसे अनुच्छेद 16(1) के तहत प्रदान किया जा सकता है? 

न्यायालय ने कहा कि इस मुद्दे पर दो अलग-अलग राय हैं; 

  • सबसे पहले, अनुच्छेद 16(4) आरक्षण के विचार के लिए संपूर्ण नहीं है, बल्कि यह केवल वंचित वर्गों या पिछड़े वर्गों के लिए किए गए आरक्षण निर्णयों के लिए संपूर्ण है। हालाँकि, इसका मतलब यह नहीं है कि सिर्फ इसलिए कि यह एक प्रकार के वर्गीकरण को एक विशिष्ट खंड के रूप में बताता है, अनुच्छेद 16(1) के तहत निहित वर्गीकरण का विचार और शक्ति समाप्त हो जाती है। लेकिन, साथ ही, अनुच्छेद 16(4) के तहत किया गया कोई भी विशेष प्रावधान अनुच्छेद 16(1) के अनुरूप होना चाहिए, वह भी अत्यंत दुर्लभ परिस्थितियों में और किसी यादृच्छिक कारणों से नहीं। ऐसी किसी भी चरम स्थिति में, न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि किया गया प्रावधान सार्वजनिक हित के लिए है तथा यह किसी विशेष स्थिति को संबोधित करने के लिए है।
  • दूसरे, अनुच्छेद 16(4) को उन वर्गों के आगे विकास को रोकने के लिए काम करना चाहिए जिन्हें अधिमान्य उपचार का अधिकार है। कारण सरल है, अनुच्छेद 16(4) और अनुच्छेद 16(1) के तहत आरक्षण प्रावधान करना उचित नहीं होगा क्योंकि इससे आरक्षित श्रेणियों और मुक्त प्रतिस्पर्धा दोनों के लिए रिक्तियों की संख्या कम हो जाएगी। 
  • न्यायालय ने आगे के. दुरैसामी बनाम तमिलनाडु राज्य (2001) के मामले का उल्लेख किया, जिसमें स्नातकोत्तर स्तर और उत्तम विशेषता स्तर पर आरक्षण पर चर्चा करते हुए तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि यह एक अच्छी तरह से लिखित और स्थापित धारणा है कि राज्य सरकार के पास यह निर्णय लेने की शक्ति और अधिकार है कि किस स्रोत के माध्यम से शैक्षणिक संस्थानों या कुछ पाठ्यक्रमों या विषयों में प्रवेश दिया जाना है और किस अनुपात तक दिया जाना है। न्यायालय ने लगातार इस धारणा को बरकरार रखा है और बनाए रखा है कि “सुरक्षात्मक भेदभाव” के रूप में जाना जाने वाला आरक्षण उन लोगों के लिए नहीं दिया जाना चाहिए जिन्हें पिछड़ा वर्ग माना जाता है, क्योंकि स्नातकोत्तर स्तर या उत्तम विशेषता स्तर पर इसकी अनुमति नहीं है। भले ही इस मामले में सेवारत उम्मीदवारों के पक्ष में आरक्षण का दावा किया गया हो, लेकिन इसे अनुच्छेद 15(4) और अनुच्छेद 16(4) के तहत परिकल्पित सहयोगी आरक्षण के बराबर या तुलना नहीं की जा सकती है। इन आरक्षणों के कार्यान्वयन (एक्जिक्यूशन) के लिए एक विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सामूहिक विचार के लिए आरक्षित कोटे के विरुद्ध खुली प्रतियोगिता द्वारा योग्यता के आधार पर चुने गए अभ्यर्थियों को बाहर करके इन्हें न्यूनतम रखा जा सके। 

अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान छात्र संघ बनाम अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान (2001) (जिसे आगे “एम्स मामला” कहा जाएगा) के मामले में इसी मुद्दे पर विचार करते हुए, न्यायालय ने कहा कि, जब समानता को बढ़ावा देने के लिए सुरक्षात्मक भेदभाव का तर्क दिया जाता है, तो दायित्व उस पक्ष पर होता है जो समानता से विचलन को उचित ठहराने का प्रयास कर रहा है। संविधान प्रत्येक व्यक्ति को मौलिक अधिकार के रूप में समान अवसर की गारंटी देता है। कोई भी उम्मीदवार जिसने उच्च अंक प्राप्त किए हैं, वह प्रवेश वरीयता (प्रेफरेंस) के लिए पात्र है। समान अवसर और समान अंक के विचार के अनुसार, शीर्ष उम्मीदवारों के चयन के लिए योग्यता ही मानदंड होना चाहिए। जैसे-जैसे स्तर ऊपर जाता है, इस विचार का महत्व बढ़ता जाता है, जैसे स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम। अपवाद के रूप में, आरक्षण को उन लोगों के बोझ को हटाने के लिए उचित ठहराया जा सकता है जो शैक्षिक रूप से विकलांग हैं और आरक्षण उस स्थिति पर काबू पाने के लिए है। मेडिकल छात्रों के लिए आरक्षण का औचित्य किसी भी समान या भिन्न भौगोलिक असुविधा या वर्ग अपर्याप्तता का उन्मूलन (एलिमिनेशन) होना चाहिए। साथ ही आरक्षण आवश्यकता से अधिक और समाज के लिए हानिकारक नहीं होना चाहिए। विशेषज्ञता का स्तर जितना ऊंचा होता जाता है, आरक्षण की भूमिका उतनी ही कम होती जाती है। 

इसी मामले में आगे यह भी कहा गया कि अनुमेय आरक्षण निम्नतम या प्राथमिक स्तर पर उन वंचित उम्मीदवारों को समाज में विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के बराबर लाने के लिए एक कदम है, जिसे वे तब तक प्राप्त नहीं कर सकते जब तक कि उन्हें सुरक्षात्मक रूप से आगे नहीं बढ़ाया जाता। एक बार जब वह स्तर प्राप्त हो जाता है तो उन वंचित उम्मीदवारों के पक्ष में यह संरक्षण हटा दिया जाना आवश्यक है, ताकि वे अपनी योग्यता के आधार पर इससे आगे जाने के लिए शक्ति और आत्मविश्वास जुटा सकें। यदि उच्च स्तर पर भी संरक्षण जारी रहेगा, तो इससे वंचित अभ्यर्थी अधिक असुरक्षित हो जाएंगे और फिर उन्हें हर कदम और हर स्तर पर इस समर्थन की आवश्यकता होगी। इसलिए, संवैधानिक दृष्टिकोण से व्यवहार्य होने के अलावा, किसी भी आरक्षण को स्वीकार किए जाने के लिए उचित होना चाहिए। इसलिए, जब भी कोई आरक्षण लागू किया जाता है तो यह जांचना महत्वपूर्ण है कि क्या इसकी मात्रा और चरित्र उस उद्देश्य को प्राप्त करने में सक्षम होंगे जिसके लिए इसे लागू किया गया है। 

इस प्रकार, अपीलकर्ताओं के इस तर्क को खारिज कर दिया गया और न्यायालय अपने इस दृष्टिकोण पर अडिग रहा कि अनुच्छेद 15(4) एक सक्षमकारी प्रावधान है और यह राज्य सरकार का विवेक है कि वह कानून पारित करके या कार्यकारी निर्देश जारी करके ऐसा आरक्षण प्रदान करे। 

  • परमादेश के अगले मुद्दे पर चर्चा करते हुए, न्यायालय ने भारत संघ बनाम आर. राजेश्वरन एवं अन्य (2001) के मामले का उल्लेख किया, जिसमें एमबीबीएस/बीडीएस सूची के अखिल भारतीय पूल के लिए निर्धारित सीटों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण को शामिल करने के लिए निर्देश देने का अनुरोध किया गया था। न्यायालय ने यहां कहा कि, जैसा कि न्यायालय ने अजीत सिंह (द्वितीय) बनाम पंजाब राज्य (1999) के मामले में चर्चा की थी, अनुच्छेद 16(4) राज्य पर कोई संवैधानिक कर्तव्य या दायित्व नहीं बनाता है, बल्कि यह विवेकाधीन है। अनुच्छेद 15(4) की भाषा एक जैसी है, इसलिए यह विचार स्वीकार्य नहीं है कि आरक्षण प्रदान करने या छूट प्रदान करने के लिए परमादेश जारी किया जा सकता है। इसलिए, आरक्षण की मांग वाली अपील खारिज कर दी गई। 
  • तीसरे मुद्दे पर आते हुए, जहां राज्य सरकार ने अनुच्छेद 15(4) के तहत स्नातक पाठ्यक्रमों में आरक्षण दिया है, क्या वह स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में भी ऐसा आरक्षण देने के लिए बाध्य है?, एक मामला था जिसमें अपीलकर्ताओं के विद्वान वकील ने डॉ. प्रीति श्रीवास्तव एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य (1999) के मामले में संवैधानिक पीठ द्वारा दिए गए निर्णय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि जहां सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों की तुलना में आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए अर्हता अंकों का कम न्यूनतम प्रतिशत निर्धारित करने की अनुमति है, वहां राज्य को स्नातकोत्तर स्तर पर भी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम योग्यता प्रतिशत निर्धारित करना चाहिए। 

हालाँकि, जब न्यायालय ने मामले के विवरण पर गौर किया तो पाया कि, 

  1. चिकित्सा शिक्षा के स्नातकोत्तर स्तर पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के मुद्दे पर चर्चा नहीं की गई, क्योंकि यह मुद्दा उनके समक्ष बहस योग्य नहीं था और उन्होंने इस पर कोई राय नहीं दी।
  2. स्नातकोत्तर चिकित्सा अध्ययन के लिए न्यूनतम योग्यता प्रतिशत भारतीय चिकित्सा परिषद द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए, क्योंकि चिकित्सा प्रवेश परीक्षा केवल एक स्क्रीनिंग परीक्षा नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक है।
  3. जब यह निर्णय लेने की बात आती है कि क्या एससी/एसटी उम्मीदवारों के लिए स्नातकोत्तर चिकित्सा अध्ययन के लिए कोई न्यूनतम अंक निर्धारित किया जाना चाहिए, तो इस प्रश्न को भारतीय चिकित्सा परिषद द्वारा संबोधित किया जाना चाहिए क्योंकि यह सीधे तौर पर चिकित्सा अध्ययन के स्नातकोत्तर स्तर की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। यदि आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए कोई न्यूनतम अंक कम भी निर्धारित किया जाता है, तो भी अध्ययन के इस उच्च स्तर पर आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए अर्हता अंकों और सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों के अर्हता अंकों के बीच कोई बड़ा अंतर नहीं होना चाहिए। इसलिए एससी/एसटी वर्ग के उम्मीदवारों के लिए 20% योग्यता अंकों और सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों के लिए 45% योग्यता अंकों का अंतर अनुच्छेद 15(4) के तहत अनुमत नहीं है और ऐसा अंतर स्नातकोत्तर स्तर के लिए बेतुका होगा और यह सार्वजनिक हित के खिलाफ होगा। 
  4. किसी भी अच्छे विशेषता पाठ्यक्रम में प्रवेश केवल योग्यता के आधार पर ही हो सकता है। इसके लिए कोई विशेष प्रावधान स्वीकार्य नहीं है और यह जनहित के भी विरुद्ध होगा। 

निर्णय से यह स्पष्ट था कि उपरोक्त मामले में न्यायालय ने स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में आरक्षण की अनुमति की जांच नहीं की। हालांकि, इसने यह जरूर कहा कि स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा के लिए आरक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों के लिए न्यूनतम योग्यता अंक निर्धारित करना स्वीकार्य है और यह भारतीय चिकित्सा परिषद द्वारा किया जाना चाहिए। न्यायालय ने परिषद द्वारा निर्धारित न्यूनतम योग्यता प्रतिशत पर ध्यान केंद्रित किया, जो आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए 40% और सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए 50% था। इस निर्णय के आलोक में, अपीलकर्ता के वकील द्वारा दी गई यह दलील कि यदि राज्य ने स्नातक स्तर पर आरक्षण प्रदान किया है तो उसे स्नातकोत्तर स्तर पर भी आरक्षण प्रदान करना चाहिए, खारिज कर दी गई। 

  • अंत में, अपीलकर्ता द्वारा संदर्भित अंतिम मामला अभय नाथ एवं अन्य बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय एवं अन्य (2006) था, जिसमें अतिरिक्त महा न्यायभिकर्ता द्वारा आरक्षण कोटे की ओर ध्यान दिलाया गया था। यह देखा गया कि अखिल भारतीय कोटे की 50% सीटों में से 22.5% सीटें एससी/एसटी छात्रों के लिए आरक्षित थीं। राज्य के लिए शेष बची 50% सीटों में से आरक्षण का पूरा प्रतिशत प्रदान करना चुनौतीपूर्ण होगा। स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय (डीजीएचएस) के लिए अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा के लिए आरक्षित 50% सीटों में से 22.5% आरक्षण पूरा करना भी उतना ही चुनौतीपूर्ण होगा। इसलिए, यह सुझाव दिया गया कि भारत संघ ने शैक्षणिक वर्ष 2007-2008 से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए 22.5% सीटें आरक्षित करने पर सहमति व्यक्त की है। इस प्रकार, अखिल भारतीय कोटे की 50% सीटों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित 22.5% सीटें शामिल थीं। 

न्यायालय ने कहा कि उपरोक्त मामले में न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देश अखिल भारतीय कोटे से संबंधित थे, लेकिन इसका राज्य कोटे के लिए दिए जाने वाले प्रवेश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। 

निर्णय का तर्क

मामले में अंतर्निहित मुद्दों के अनुसरण में न्यायालय निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुंचा: 

  • अनुच्छेद 15(4) द्वारा राज्य सरकार को दी गई शक्ति एक विवेकाधीन शक्ति है। अनुच्छेद 15(4) एक सक्षमकारी प्रावधान है, जिसका अर्थ है कि यह राज्य सरकार को समाज के अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए जहां भी वह आवश्यक समझे, कोई भी प्रावधान करने की शक्ति प्रदान करता है। हालाँकि, यह प्रावधान राज्य पर ऐसा कोई प्रावधान बनाने का अनिवार्य दायित्व नहीं डालता है जो उसे उस क्षेत्र के समाज के लिए उपयुक्त न लगे, न ही न्यायालय या कोई उच्च प्राधिकारी उसे ऐसा कोई प्रावधान बनाने के लिए बाध्य कर सकता है या दबाव डाल सकता है।
  • इस मामले में, न्यायालय ने पाया कि हरियाणा सरकार ने 05/11/1988 को पहली बार पीजी/डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में प्रवेश में कोई आरक्षण न देने पर विचार किया और निर्णय लिया। बाद में, 01/01/1991 को एक पत्र जारी किया गया, जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि हरियाणा सरकार पीजी/उपाधि/डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में एससी/एसटी के लिए कोई आरक्षण देने के पक्ष में नहीं है और न ही देगी। बाद में फिर से, 26/04/2002 के एक पत्र के माध्यम से, राज्य सरकार ने घोषणा की कि पीजीआईएम, रोहतक में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए एससी/एसटी उम्मीदवारों के लिए कोई आरक्षण नहीं होगा। इससे यह स्पष्ट है कि राज्य सरकार पीजी स्तर पर एससी/एसटी को कोई आरक्षण देने का इरादा नहीं रखती है तथा इस निर्णय में कोई खामी नहीं है। इसके अलावा, राज्य ने यह भी कहा कि यह निर्णय भारतीय चिकित्सा परिषद द्वारा दी गई सिफारिशों पर सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद लिया गया था, तथा अन्य राज्यों द्वारा किए गए अन्य उदाहरणों/निर्णयों पर भी विचार किया गया था, तथा यह निष्कर्ष निकाला गया था कि हरियाणा राज्य में आरक्षण व्यवहार्य नहीं है। 

न्यायालय ने अंत में कहा कि राज्य सरकार ने स्नातकोत्तर स्तर पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण न देने के अपने निर्णय की जानकारी एक से अधिक बार दी है। इसलिए, न्यायालय राज्य के निर्णय के विरुद्ध आदेश जारी नहीं कर सकता है और साथ ही प्रॉस्पेक्टस में किसी आरक्षण खंड को शामिल न करने के लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को कोई विशेषाधिकार तभी दिया जाएगा जब इसकी आवश्यकता होगी और यही अनुच्छेद 15(4) के पीछे का सिद्धांत है। अनुच्छेद 15(4) राज्य को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की बेहतरी के लिए नीतियां बनाने तथा उन्हें शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण प्रदान करने का अधिकार देता है। इसके अलावा, यह अनुच्छेद केवल उचित वर्गीकरण के सिद्धांत को लागू करता है और कोई अपवाद नहीं है। अनुच्छेद 15(4) के तहत, यदि ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है तो राज्य पर कोई आरक्षण प्रावधान करने का कोई अनिवार्य दायित्व नहीं है, और ऐसा प्रावधान करने की शक्ति पूरी तरह से विवेकाधीन है, इसलिए, राज्य सरकार को कोई आरक्षण नीति बनाने का निर्देश देने के लिए कोई रिट जारी नहीं की जा सकती है। इसके अलावा, यद्यपि स्नातकोत्तर स्तर पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को आरक्षण प्रदान किया जाना अनुमेय है, परन्तु हरियाणा राज्य ने ऐसा कोई आरक्षण प्रदान न करने का निर्णय लिया है तथा वह परमादेश रिट जारी करने की स्थिति भी नहीं बना सकता है। इसका कारण यह है कि, चिकित्सा शिक्षा एक महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर इस प्रकार की कोई अनिवार्य शर्त नहीं लगाई जानी चाहिए, क्योंकि इससे जनहित के विरुद्ध स्थिति उत्पन्न हो सकती है, तथा संविधान के अनुसार, राज्य सरकार ही यह जांचने तथा निर्णय लेने के लिए सर्वोत्तम प्राधिकारी है कि राज्य के लिए क्या आवश्यक है तथा क्या लाभदायक है। 

  • जहां राज्य सरकार ने स्नातक पाठ्यक्रमों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों को आरक्षण प्रदान किया है, वहां राज्य सरकार के लिए स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में भी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों को ऐसा आरक्षण प्रदान करना अनिवार्य नहीं है। यद्यपि स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में आरक्षण स्वीकार्य है, तथापि राज्य सरकार, राज्य की आवश्यकता तय करने के लिए उपयुक्त प्राधिकारी होने के नाते, ऐसा कोई आरक्षण प्रदान न करने का निर्णय ले सकती है। यह निर्णय लेना राज्य सरकार के विवेक पर निर्भर है कि क्या अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों को स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों या सुपर स्पेशियलिटी पाठ्यक्रमों जैसे स्तरों पर कोई आरक्षण दिया जाना चाहिए या नहीं, या चयन योग्यता के आधार पर होना चाहिए। 
  • यह सच है कि भारत सरकार ने स्वयं अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया है। यह प्रावधान एमडी/एमएस/पीजी डिप्लोमा और एमडीएस पाठ्यक्रमों के लिए अखिल भारतीय चिकित्सा प्रवेश परीक्षाओं और पीजी सीटों के लिए अखिल भारतीय कोटे में एससी/एसटी आरक्षण के संबंध में लागू है। हालाँकि, यह प्रावधान उन चयनों में लागू नहीं होगा जहां राज्य के पास विनियमन शक्ति है। 
  • अनुच्छेद 15(4) कोई अपवाद खंड नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा प्रावधान है जो समाज के वंचित वर्गों को आरक्षण प्रदान करने वाले किसी अन्य विशेष प्रावधान को लागू करने के लिए शक्ति के विशेष अनुप्रयोग की अनुमति देता है। यह शक्ति विवेकाधीन है और यह राज्य पर निर्भर करता है कि वह कानून पारित करके प्रावधान लाना चाहता है या कार्यकारी नोटिस जारी करके, जिसका अर्थ है कि या तो विधानमंडल या कार्यकारी निकाय ही ऐसा विशेष प्रावधान ला सकता है। 

डॉ. गुलशन प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य, 2009 का आलोचनात्मक विश्लेषण

डॉ. गुलशन प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य (2009) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने संविधान के अनुच्छेद 15(4) के मापदंडों को तय करने और प्रदर्शित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अनुच्छेद 15(4), जिसे प्रथम संवैधानिक संशोधन, 1951 द्वारा लाया गया था, राज्य सरकार को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी), अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) को शिक्षा में उनकी भागीदारी और उन्नति के उत्थान के लिए आरक्षण प्रदान करने के लिए कोई भी प्रावधान करने की शक्ति देता है। इस मामले ने ऐसे प्रावधान करने के लिए राज्य की विवेकाधीन शक्ति पर प्रकाश डाला तथा आगे के विश्लेषण के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिंदु सामने लाए। 

प्रमुख बिंदु

  1. समानता के स्थान पर योग्यता को प्राथमिकता देना: स्नातकोत्तर स्तर पर चयन के लिए उम्मीदवारों की योग्यता पर ध्यान केंद्रित करने वाले मामले में न्यायालय का अवलोकन काफी सराहनीय है, हालांकि, यह सकारात्मक कार्रवाई के उद्देश्यों के विपरीत है। जहां आरक्षण नीतियां अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ अतीत में हुए अन्याय को रोकने के उद्देश्य से बनाई गई हैं, वहां केवल योग्यता के आधार पर निर्णय लेने से अनजाने में ही उन असमानताओं को फिर से बल मिलेगा। 
  2. राज्य सरकार को दिया गया विवेकाधिकार और जवाबदेही का अभाव: अनुच्छेद 15(4) राज्य सरकार को आवश्यकता के अनुसार प्रावधान करने का पूर्ण विवेकाधिकार देता है, जिसका अर्थ है कि राज्य सरकार के पास राज्य सरकार द्वारा विनियमित संस्थानों के लिए प्रावधान करने का पूर्ण विवेकाधिकार है। साथ ही, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई है जो इस विवेकाधिकार के उपयोग की सीमा पर नजर रख सके। इसमें यह सुनिश्चित करने के लिए कोई ढांचा नहीं है कि राज्य द्वारा किसी भी समय इस विवेकाधीन शक्ति का दुरुपयोग न किया जाए। राज्य कुछ कारणों से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को आरक्षण प्रदान न करने का निर्णय ले सकता है, जो वास्तविक आवश्यकताओं के आकलन से संबंधित नहीं होंगे। 
  3. डाटा-संचालित नीति निर्माण का अभाव: मामले पर चर्चा करते समय न्यायालय आरक्षण नीतियों की जांच में आंकड़ों के महत्व पर जोर देने से चूक गया। कोई नीति या प्रावधान ठीक से काम कर रहा है या नहीं, यह समझने का बेहतर तरीका डेटा की जांच करना है, इससे यह समझने में मदद मिलेगी कि मौजूदा नीति से कौन सा लक्ष्य पहले ही हासिल किया जा चुका है और किस क्षेत्र को आरक्षण की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, दिए गए मामले में न्यायालय मौजूदा जनसंख्या की तुलना में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में एससी/एसटी/एसईबीसी के प्रतिनिधित्व को दर्शाने वाले आंकड़ों पर गौर कर सकता था। इससे न्यायालय को यह समझने में मदद मिलती कि आरक्षण की आवश्यकता है या नहीं, जिसे नजरअंदाज कर दिया गया। 

कुल मिलाकर, इस मामले में निर्णय सकारात्मक कार्रवाई के संदर्भ में योग्यता और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन की एक जटिल तस्वीर प्रस्तुत करता है। अभ्यर्थी की योग्यता पर न्यायालय का ध्यान सराहनीय है, लेकिन साथ ही न्यायालय ने कुछ पहलुओं को नजरअंदाज कर दिया है, जो ऐतिहासिक अन्याय की याद दिला सकते हैं, जिसका सामना एससी/एसटी/एसईबीसी अभ्यर्थियों ने विशेष रूप से शिक्षा की स्वतंत्रता के मामले में किया है।

डॉ. गुलशन प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य के मामले को आकार देने वाले पूर्ववर्ती निर्णय

न्यायालय ने इस मामले के विभिन्न मुद्दों पर निष्कर्ष निकालने के लिए कई मामलों का सहारा लिया है। न्यायालय ने अनुच्छेद 15(4) की सक्षम प्रकृति का निर्णय करने के लिए इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992), के. दुरैसामी बनाम तमिलनाडु राज्य (2001) और अखिल भारतीय चिकत्सा संस्थान छात्र संघ बनाम अखिल भारतीय चिकत्सा संस्थान (2001) पर भरोसा किया। न्यायालय ने राज्य सरकार को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों के लिए कोई विशेष प्रावधान करने का निर्देश देने के लिए परमादेश रिट जारी न करने के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए भारत संघ बनाम आर. राजेश्वरन एवं अन्य (2001) के मामले पर भी भरोसा किया। ये दोनों मामले के मुख्य मुद्दे थे जिनका निर्णय न्यायालय ने पूर्व उदाहरणों की सहायता से किया। 

निष्कर्ष

डॉ. गुलशन प्रकाश बनाम हरियाणा राज्य (2009) का मामला यह समझने के लिए एक महत्वपूर्ण मामला है कि अनुच्छेद 15(4) कैसे काम करता है। यह खंड मौलिक अधिकारों के क्षेत्राधिकार में आता है, लेकिन यह अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को सीधे तौर पर कोई मौलिक अधिकार प्रदान नहीं करता है, बल्कि इसके स्थान पर राज्य को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को आरक्षण प्रदान करने के लिए कुछ विशेष प्रावधान करने की शक्ति प्रदान करता है, जिससे शिक्षा के संदर्भ में समानता का अधिकार कायम रहेगा। 

न्यायालय के निर्णय में सकारात्मक कार्रवाई और योग्यता के बीच संतुलन पर जोर दिया गया तथा स्पष्ट किया गया कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के साथ किसी भी प्रकार का संरचनात्मक और ऐतिहासिक अन्याय नहीं होना चाहिए, भले ही चयन का तरीका योग्यता के आधार पर हो। न्यायालय ने अनुच्छेद 15(4) के तहत राज्य की विवेकाधीन शक्ति पर चर्चा की और फैसला सुनाया कि अनुभवजन्य साक्ष्य और सामाजिक वास्तविकताओं पर विचार करते हुए, राज्य ही यह निर्णय लेने के लिए उचित प्राधिकारी है कि क्षेत्र में आरक्षण आवश्यक है या नहीं। 

हालाँकि, निर्णय लेने में राज्य की पारदर्शिता और जवाबदेही से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण पहलू भी दिए गए थे। न्यायालय ने एक उचित प्रणाली की आवश्यकता को भी नजरअंदाज कर दिया, जो राज्य को प्रदान की गई विवेकाधीन शक्ति के दुरुपयोग पर नजर रखेगी। इसके अलावा, न्यायालय डाटा -संचालित नीति-निर्माण तंत्र के महत्व को भी समझने में विफल रहा है। 

इस मामले का निर्णय शिक्षा में समानता, सामाजिक न्याय और योग्यता के बीच संबंध के विषय में अधिक बहस और कार्रवाई के लिए एक मजबूत आह्वान है। यह इस बात पर केंद्रित है कि सकारात्मक कार्रवाई और योग्यता-आधारित चयन के बीच संतुलन बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रत्येक अभ्यर्थी को, चाहे उसकी सामाजिक पहचान और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच प्राप्त हो। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

सक्षमकारी प्रावधान और अनिवार्य प्रावधान के बीच क्या अंतर है?

सक्षमकारी प्रावधान और अनिवार्य प्रावधान के बीच का अंतर राज्य की शक्ति और निजी संगठनों की स्वायत्तता (ऑटोनोमी) की सीमा निर्धारित करता है। जहां अनिवार्य प्रावधान अनिवार्य दायित्व डालता है, वहीं सक्षमकारी प्रावधान राज्य को संविधान में निर्धारित किसी भी आवश्यकता से संबंधित प्रावधान बनाने की सीमित शक्ति प्रदान करता है। सक्षमकारी प्रावधान के माध्यम से बनाए गए किसी भी कानून का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह संवैधानिक है। 

डाटा-संचालित नीति निर्माण क्या है?

डाटा-संचालित नीति निर्माण, सर्वेक्षण डाटा पर विचार करके नीतियां बनाने की एक विधि है, जिसे कठोर डाटा विश्लेषण,  डाटा एकत्रीकरण और हितधारक भागीदारी के माध्यम से एकत्र किया जाता है, ताकि प्रभावी और केंद्रित नीतियां बनाई जा सकें।साक्ष्य आधारित नीति निर्माण से शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ती है। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4) के तहत राज्य को कौन सी विवेकाधीन शक्ति दी गई है?

अनुच्छेद 15(4) के तहत राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के साथ-साथ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान करने की विवेकाधीन शक्ति प्राप्त है। यह खंड राज्य को ऐसे प्रावधान करने की अनुमति देता है जिससे एससी/एसटी/एसईबीसी की प्रगति को बढ़ावा मिल सके, हालांकि, यह राज्य पर ऐसा करने के लिए कोई अनिवार्य बाध्यता नहीं डालता है। यह किसी विशेष समूह के लिए मौलिक अधिकार का निर्माण नहीं करता है, बल्कि राज्य को अन्याय से बचने के लिए कुछ प्रावधान लागू करने की विशेष शक्ति प्रदान करता है। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4) और अनुच्छेद 16(4) के बीच क्या संबंध है?

समानता का अधिकार एक व्यापक क्षेत्र है जिसके अंतर्गत दो अनुच्छेद आते हैं, अनुच्छेद 15(4) और अनुच्छेद 16(4)। अनुच्छेद 15(4) राज्य को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तथा सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान बनाने की विशेष शक्ति प्रदान करता है, दूसरी ओर, अनुच्छेद 16(4) सार्वजनिक रोजगार में समानता की गारंटी देता है, यह राज्य को सार्वजनिक रोजगार में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण प्रदान करने के लिए प्रावधान करने की शक्ति प्रदान करता है। दोनों अनुच्छेदों का प्राथमिक उद्देश्य ऐतिहासिक अन्याय का निवारण करना तथा समाज के विभिन्न घटकों में समानता को बढ़ावा देना है। 

जहाँ भारतीय संविधान का अनुच्छेद 29(2) स्वयं भेदभाव का निषेध करता है, वहीं अनुच्छेद 15(4) द्वारा शिक्षा में सकारात्मक कार्रवाई कैसे संभव हो पाती है?

एक सक्षम प्रावधान के रूप में अनुच्छेद 15(4) अनुच्छेद 29(2) के गैर-भेदभावपूर्ण खंड पर वरीयता लेता है। अनुच्छेद 29(2) में प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी जाति, मूलवंश, धर्म आदि के आधार पर किसी संस्थान में प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा। दूसरी ओर, वंचित वर्गों या एससी/एसटी/एसईबीसी लोगों के लिए सकारात्मक कार्रवाई का उपाय अनुच्छेद 15(4) द्वारा संरक्षित है, यह राज्य को ऐसे वंचित वर्गों के लोगों के लिए उनकी भागीदारी बढ़ाने और समानता बनाए रखने के लिए विशेष प्रावधान करने की अनुमति देता है। 

संदर्भ

 

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