यह लेख एडवांस्ड कॉन्ट्रैक्ट ड्राफ्टिंग, नेगोशिएशन एंड डिस्प्यूट रेजोल्यूशन में डिप्लोमा कर रहे Avirup Mondal द्वारा लिखा गया है और Shashwat Kaushik द्वारा संपादित किया गया है। इस लेख में राजद्रोह (सिडिशन) के कानून और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच विवाद के बारे में चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।
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परिचय
‘राजद्रोह’ शब्द का अर्थ, कोई कार्य करना या कुछ शब्दों का उपयोग करना है, जो लोगों को सरकारी अधिकारियों या कानून के शासन के खिलाफ जाने के लिए उकसाता है। यह कानून औपनिवेशिक (कोलोनियल) काल में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विरोध करने के लिए अंग्रेजों द्वारा पेश किया गया था। सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे कई स्वतंत्रता सेनानियों या नेताओं पर राजद्रोह के कानून के तहत आरोप लगाए गए थे। राजद्रोह और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच का विवाद हमेशा से बहस का विषय रहा है। ऐसा कहा जाता है कि राजनेता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करने के लिए राजद्रोह का उपयोग एक राजनीतिक उपकरण के रूप में करते हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है, और यह एक मौलिक अधिकार है जिसे छीना नहीं जा सकता है। इस लेख में, हम भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 124A और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के बीच के विवाद पर चर्चा करेंगे। आगे हम इस बात पर भी चर्चा करेंगे कि क्या अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए राजद्रोह कानून की आज भी आजाद भारत में जरूरत है या नहीं।
भारत में राजद्रोह कानून
आईपीसी की धारा 124A राजद्रोह को ऐसे कार्य के रूप में परिभाषित करती है “जो कोई भी शब्दों, बोले गए या लिखित द्वारा, या किसी संकेत द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा, भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना (कंटेंप्ट) लाता है या लाने का प्रयास करता है या असंतोष भड़काता है या भड़काने का प्रयास करता है।”
यह एक गैर-जमानती अपराध है और इसमें 3 साल से लेकर आजीवन कारावास तक और जुर्माना की सजा हो सकती है। इस कानून के तहत आरोपित किसी भी व्यक्ति को सरकार के लिए काम करने से भी प्रतिबंधित कर दिया जाएगा, और उनका पासपोर्ट सरकार द्वारा जब्त कर लिया जाएगा।
राजद्रोह और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच विवाद
राजद्रोह कानून और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच विवाद औपनिवेशिक काल से ही चला आ रहा है। अंग्रेजों ने स्वतंत्रता सेनानियों या नेताओं को अपने खिलाफ बोलने से रोकने और उनके खिलाफ खतरे को कम करने के लिए इस कानून को लागू किया था। 1837 में थॉमस बबिंगटन मैकाले ने राजद्रोह कानून का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार किया और 1870 में जेम्स स्टीफन द्वारा एक संशोधन के माध्यम से इस कानून को भारत में पेश किया गया। तब से, कई मौकों पर, इस कानून ने आम लोगों की भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन किया है, और बाद में यह किसी को भी उनके खिलाफ बोलने से रोकने के लिए एक राजनीतिक उपकरण में बदल गया। विडंबना यह है कि राजद्रोह कानून को अब ब्रिटेन, न्यूजीलैंड और घाना ने समाप्त कर दिया है। लेकिन भारत में ये कानून अभी भी बरकरार है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में 76 राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए। कई मामलों में, पत्रकारों या मीडिया पर भी इस कानून के तहत आरोप लगाए गए हैं। महज आलोचना पर राजद्रोह का आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए। एक लोकतांत्रिक देश में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल्य को नकारा नहीं जा सकता है। भावनाओं को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने में सक्षम होना ही किसी देश को वास्तव में लोकतांत्रिक बनाता है। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत हमें प्राप्त अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है और कुछ प्रतिबंधों के अधीन है। ये लगाए गए प्रतिबंध निम्नलिखित हैं-
- देश की संप्रभुता (सोवरेग्निटी) और अखंडता (इंटीग्रिटी) की सुरक्षा के लिए,
- उत्तेजना को रोकने के लिए,
- घृणास्पद भाषण आदि को रोकने के लिए
विवाद के उदाहरण
- विनोद दुआ बनाम भारत संघ (2021) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश के शिमला में वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ प्राथमिकी (एफआईआर) को खारिज कर दिया, एक साल से अधिक समय बाद स्थानीय भाजपा अधिकारियों ने उन पर अपने यूट्यूब शो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने का आरोप लगाया था। न्यायामूर्ति यूयू ललित और न्यायामूर्ति विनीत सरन की पीठ ने कहा कि प्रत्येक पत्रकार केदार नाथ सिंह मामले के तहत सुरक्षा का हकदार है, जिसने आईपीसी की धारा 124A के तहत राजद्रोह के कार्य की व्यापकता को परिभाषित किया है।
- 13 फरवरी 2021 को, दिशा रवि नाम की 22 वर्षीय जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता को किसान विरोध के लिए “टूलकिट” के साथ संबंध के लिए राजद्रोह के तहत हिरासत में लिया गया था। दिल्ली न्यायालय ने गिरफ्तारी के एक हफ्ते के भीतर ही उनकी रिहाई का आदेश जारी कर दिया। न्यायालय के अनुसार राजद्रोह को सरकार के अहंकार के लिए पट्टी के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
- एक अन्य महत्वपूर्ण मामला तारा सिंह गोपी चंद बनाम राज्य (1950) का है। इस मामले में पंजाब उच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून को संवैधानिक रूप से अमान्य माना क्योंकि यह कानून भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध लगाता था। यह एक महत्वपूर्ण मामला है क्योंकि इसने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाने के लिए प्रेरित किया।
- 2010 में, डॉ बिनायक सेन एक नागरिक अधिकार कार्यकर्ता को राजद्रोह का दोषी पाया गया और छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी क्योंकि उन्हें नक्सलियों के साथ साजिश रचने का दोषी पाया गया था। उन्होंने सरकार के विरूद्ध एक नेटवर्क बनाने की कोशिश की। 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें जमानत दे दी। न्यायाधीश ने कहा कि यह एक लोकतांत्रिक देश है, और डॉ. सेन सहानुभूति रखने वाले हो सकते हैं, लेकिन इससे उन्हें राजद्रोह का दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।
- केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए इसके दुरुपयोग की संभावना को सीमित करने का प्रयास किया। न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि सरकार की आलोचना को तब तक राजद्रोह के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता जब तक कि यह कोई ऐसा कार्य या भाषण न हो जो सार्वजनिक शांति को बाधित करता हो या हिंसा शुरू करता हो।
भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के रूप में जाना जाता है। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में, अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को राजनीतिक एजेंडे द्वारा नियंत्रित किया जाता है, तो यह एक परेशान करने वाली छवि बनाता है। 2022 के प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (इंडेक्स) में भारत को 180 देशों में से 150वां स्थान मिला था, लेकिन 2023 में भारत 161वें स्थान पर पहुंच गया। पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर रहने वाले देश क्रमशः नॉर्वे, फ़िनलैंड और डेनमार्क हैं। राजद्रोह न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा है; यह लोकतंत्र के लिए भी खतरा है। यह कहा जा सकता है कि इस कानून का दुरुपयोग आसानी से किया जा सकता है।
क्या भारत को अब भी औपनिवेशिक काल के राजद्रोह कानून की जरूरत है
भारतीयों पर अत्याचार करने और उन्हें सरकार के खिलाफ बोलने से रोकने के लिए ही अंग्रेजों द्वारा भारत में राजद्रोह कानून लाया गया था। आपने श्री बाल गंगाधर तिलक के बारे में तो सुना ही होगा, अब मैं आपको उनके बारे में एक रोचक तथ्य बताता हूँ। वह औपनिवेशिक भारत में राजद्रोह के दोषी ठहराए जाने वाले पहले व्यक्ति थे। ब्रिटिश सरकार ने तिलक के मराठी समाचार पत्र, केसरी में प्रकाशित उनके लेखों के कारण उन पर आरोप लगाया था। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और भगत सिंह कुछ प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी हैं जिन्हें भी राजद्रोह कानून के तहत दोषी ठहराया गया था। 1962 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून को संवैधानिक रूप से वैध माना था। क्योंकि इस कानून के बिना, राज्य पूरी तरह से अराजकता की स्थिति में होगा, और राज्य के खिलाफ नफरत या अव्यवस्था के प्रसार पर रोक लगाने के लिए कोई कानून नहीं होगा। सरकार को यह समझने की जरूरत है कि सरकारी नीति या सरकार की आलोचना लोकतंत्र का हिस्सा है। लोगों को अपनी बात व्यक्त करने से रोकने के लिए राजद्रोह का दुरुपयोग करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को चोट पहुँचाता है। हाल ही में, मई 2022 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून पर रोक लगा दी और आईपीसी की धारा 124A के तहत सभी लंबित अदालती मुकदमों को रद्द कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने भारत संघ को औपनिवेशिक युग के कानून की समीक्षा (रिव्यू) करने की अनुमति दी। भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री एन.वी. रमना की अगुवाई वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने सभी राजद्रोह के आरोपों को स्थगित रखने का निर्देश दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कानून के दुरुपयोग पर रोक लगाने के लिए यह फैसला किया। यह भारत में राजद्रोह कानून के इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उठाया गया एक सराहनीय कदम है। यही समय है जब हमें औपनिवेशिक युग के अपमानजनक कानूनों से बाहर आने की जरूरत है। यह कानून बेतुका है क्योंकि इसका गलत इस्तेमाल भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए किया गया है। आलोचना सदैव विकास की ओर ले जाती है। किसी को भी, चाहे मीडिया हो या आम लोग, अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वे सरकार या उसकी नीतियों की आलोचना करते हैं। राष्ट्रीय नीति की आलोचना करने से कोई राष्ट्रविरोधी नहीं हो जाता है। यह उस नीति, कानून आदि पर किसी के विचारों या राय का मात्र चित्रण है।
निष्कर्ष
राजद्रोह कानून और भाषण की स्वतंत्रता कभी न खत्म होने वाली बहस है। लेकिन पहली बार इस कानून के हटने से इसका अंत हो सकता है। लेकिन साथ ही, हम राष्ट्र की सुरक्षा के महत्व को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते है। इस कानून में इस बात का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि यदि कोई सार्वजनिक शांति भंग करने या हिंसा भड़काने की कोशिश करता है, तो ही उसे इस कानून के तहत दंडित किया जाना चाहिए। हमें इस कानून की आवश्यकता है या नहीं यह हमेशा एक विवादास्पद मुद्दा रहेगा। हमें बस यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि राजद्रोह कानूनों का दुरुपयोग करके स्वतंत्र रूप से भाषण देने या खुद को व्यक्त करने में सक्षम होने का मौलिक अधिकार छीना न जाए।
संदर्भ