दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961) 

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यह लेख Clara D’costa द्वारा लिखा गया है। इस लेख में दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य का मुख्य दृष्टांत (इंस्टेंस) शामिल हैं, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्वन्याय (रेस जुडिकाटा) के सिद्धांत के प्रावधानो को उच्च स्थान दिया था। इस मामले में चर्चा की गई सामग्री का विस्तार से उल्लेख किया गया है, जिसमें उठाए गए मुद्दे, पक्षों की दलीलें, निर्णय और निर्णय के पीछे तर्क शामिल हैं। यह लेख पूर्वन्याय के सिद्धांत के बारे में बात करता है, जो इस निर्णय का मुख्य पहलू था, साथ ही उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा क्रमशः भारत के संविधान के तहत रिट जारी करने के प्रावधानों के बारे में भी बात करता है। इस लेख का अनुवाद Ayushi Shukla के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य एआईआर (1961) (जिसे आगे “मामला” कहा जाएगा) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्वन्याय के सिद्धांत को उच्च स्तर पर रखा और इसे निर्णय का बाध्यकारी चरित्र माना गया। इस मामले में मुख्य मुद्दा इस बात के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226 के तहत एक याचिका, जिसे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था, अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष स्वीकार्य होगी। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11, अनुच्छेद 32 और भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226 के तहत दिए गए पूर्वन्याय के सिद्धांत प्रासंगिक (रिलेवेंट) कानून हैं जो इस मामले का फैसला करने में आवश्यक साबित हुए। 

पूर्वन्याय का सिद्धांत पक्षों को पहले से तय किए गए मुकदमे दायर करने से रोकता है। हालांकि, संविधान के तहत नागरिक के मौलिक अधिकारों से संबंधित रिट याचिकाओं के संदर्भ में इस पर विचार नहीं किया गया, जिससे इस सिद्धांत को सीमित गुंजाइश (स्कोप) मिली।

हालांकि, इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अगर किसी पक्ष द्वारा दायर रिट याचिका को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है, तो उसी मुद्दे पर उसी मामले के लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिका पूर्वन्याय का गठन करेगी। पक्ष सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उन्हीं तर्कों के लिए याचिका दायर नहीं कर सकती जिन्हें उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था, जब तक कि उसे संशोधित (मोडिफाइड), परिवर्तित (अल्टर्ड), उलटा (रिवर्स्ड) या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशेष रूप से अनुमति नहीं दी जाती।

मामले का विवरण 

  • मामले का नाम : दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य
  • याचिका संख्या: 1956 की 66 और 67, 1960 की 8, 1957 की 77, 1957 की 15, और 1958 की 5
  • मामले का प्रकार: रिट याचिका
  • न्यायालय का नाम: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • पीठ: मुख्य न्यायाधीश बीपी सिन्हा, न्यायमूर्ति एके सरकार, न्यायमूर्ति जेआर मुधोलकर, न्यायमूर्ति के. सुभा राव, न्यायमूर्ति एन. राजगोपाल अयंगर
  • फैसले की तारीख: 27 मार्च 1961
  • समतुल्य उद्धरण (साईटेशन): ए आई आर 1961 एस सी 1457, 1961 एस सी आर (1) 362
  • पक्षों का नाम: याचिकाकर्ता: दरयाओ और अन्य, प्रतिवादी: उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (संबंधित याचिकाएं)

दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961) के तथ्य

इस मामले ने पूर्वन्याय से संबंधित कानूनी सिद्धांतों को स्थापित करने और स्पष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने इस क्षेत्र में न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) में महत्वपूर्ण योगदान दिया। याचिकाकर्ताओं और उनके पूर्वजों ने उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिले में जमीन पट्टे पर ली थी, जैसा कि याचिका के साथ संलग्न अनुलग्नक (एनेक्सर) A में वर्णित है।

जुलाई 1947 में जिले में सांप्रदायिक अशांति के कारण याचिकाकर्ताओं और उनके परिवारों को अपने गांव से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। नवंबर 1947 में वापस लौटने पर, वे यह देखकर निराश हो गए कि प्रतिवादियों ने उनकी ज़मीन पर अवैध कब्ज़ा कर लिया है। उनके आने पर अपनी संपत्ति वापस करने की ईमानदारी से मांग करने के बावजूद, प्रतिवादियों ने उनकी मांग मानने से इनकार कर दिया।

अनुलग्नक में आगे बताया गया है कि प्रतिवादियों ने पिछले पचास वर्षों से भूमि पर स्वामित्व का दावा किया था। संपत्ति पर उनका उचित दावा होने और वापस लौटने पर इसे पुनः प्राप्त करने का प्रयास करने के बावजूद, उन्हें प्रतिवादियों से प्रतिरोध (रेसिस्टेंस) और अस्वीकृति (रिजेक्शन) का सामना करना पड़ा, जिससे उनकी स्थिति और खराब हो गई। उनके लौटकर आने पर अपनी संपत्ति को वापस करने की ईमानदारी से मांग करने के बावजूद, प्रतिवादियों ने दृढ़ता से पालन करने से इनकार कर दिया।

इसलिए, याचिकाकर्ताओं ने 1948 में यूपी काश्तकारी अधिनियम, 1939 की धारा 180 के तहत बेदखली (इजेक्टमेंट) और उक्त भूमि पर कब्ज़ा प्राप्त करने के लिए सिविल मुकदमा दायर किया। विचारण न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में एक डिक्री पारित की और प्रतिवादियों को बेदखल कर दिया। इसके बाद प्रतिवादियों ने अतिरिक्त आयुक्त (कमिश्नर) के समक्ष अपील की, जिन्होंने विचारण न्यायालय द्वारा पारित डिक्री की पुष्टि की और याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय के माध्यम से भूमि पर कब्ज़ा प्राप्त किया। इसके बाद, प्रतिवादियों ने यूपी काश्तकारी अधिनियम, 1939 की धारा 267 के तहत राजस्व मंडल के समक्ष दूसरी अपील दायर की। 

राजस्व मंडल (बोर्ड) ने प्रतिवादियों द्वारा दायर अपील को स्वीकार कर लिया तथा याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर मुकदमे को खारिज कर दिया। राजस्व मंडल ने कहा कि प्रतिवादी 3 से 5 उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार (संशोधन) अधिनियम XVI वर्ष 1953 के तहत विवादित भूमि पर कब्जे के हकदार हो गए थे।

याचिकाकर्ताओं ने राजस्व मंडल द्वारा दिए गए फैसले को रद्द करने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक रिट याचिका दायर की। हालांकि, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने 1953 के अधिनियम XVI द्वारा संशोधित यूपी भूमि सुधार अधिनियम की धारा 20 की व्याख्या की थी। चूंकि निर्णय का प्रभाव स्पष्ट रूप से याचिकाकर्ताओं के तर्कों के विरुद्ध था, इसलिए याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले विद्वान अधिवक्ता के पास उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका को आगे न बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। इसलिए, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 29 मार्च 1955 को इस याचिका को खारिज कर दिया।

इसके कारण, याचिकाकर्ता ने 14 मार्च 1956 को भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की। प्रतिवादियों ने आगे तर्क दिया कि रिट याचिका में याचिकाकर्ताओं ने उन आधारों पर भरोसा किया था जो इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा खारिज की गई याचिका में निहित आधारों के समान थे।

याचिकाकर्ता की याचिका को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में खारिज किए जाने के खिलाफ अनुच्छेद 136 के तहत अपील दायर करने के लिए निर्धारित समय सीमा पहले ही समाप्त हो चुकी थी। इस प्रकार, प्रतिवादियों ने आग्रह किया कि सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका को पूर्वन्याय के सिद्धांत द्वारा वर्जित किया गया था।

मामले में उठाए गए मुद्दे 

याचिकाकर्ताओं ने अनुच्छेद 32(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर कर कहा कि पूर्वन्याय का सिद्धांत उन मामलों पर लागू नहीं होता जो मौलिक अधिकारों से संबंधित हैं।

इस मामले में उठाए गए मुद्दे इस प्रकार थे:

  • क्या उच्च न्यायालय द्वारा खारिज या गुण-दोष के आधार पर निर्धारित मामला उन्हीं आधारों पर सर्वोच्च न्यायालय में दायर किया जा सकता है?
  • क्या मौलिक अधिकारों से संबंधित मामलों में पूर्वन्याय का सिद्धांत लागू होगा? 

दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961) में पक्षों की दलीलें 

याचिकाकर्ताओं 

याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ता एडवोकेट अग्रवाल ने तर्क दिया कि पूर्वन्याय का सिद्धांत विबंधन (एस्टोपल) के नियम के समान है, और इस प्रकार, इसे किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए दायर की गई याचिका के खिलाफ लागू नहीं किया जा सकता है। आगे तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 32 का प्रावधान नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करने का अधिकार देता है। इसलिए, इसे केवल पूर्वन्याय नियम के सख्त आवेदन के आधार पर कमतर नहीं आंका जाना चाहिए या खारिज नहीं किया जाना चाहिए, जो इस संदर्भ में इसके विचार या प्रासंगिकता (रेलिवेंस) को प्रतिबंधित कर सकता है।

याचिकाकर्ताओं ने प्रतिवादियों की इस दलील को खारिज कर दिया, जिसमें दावा किया गया था कि अनुच्छेद 32 नागरिकों को मूल याचिका के माध्यम से इस न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार नहीं देता है। इसके बजाय, यह कथित तौर पर उन्हें मामले की प्रकृति के आधार पर उचित कार्यवाही के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार देता है। याचिकाकर्ता द्वारा इसे एक निराधार (अनसाउंड) तर्क माना गया, और उनके कानूनी वकील ने कहा कि पक्ष द्वारा दावा किए गए आदेश या रिट और नागरिको को न्यायालय में जाने के लिए दिए गए अधिकार के आधार पर कार्यवाही को उचित माना जा सकता है। 

आगे यह तर्क दिया गया कि ऐसी याचिका में जिसमें अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दी जाती है, याचिकाकर्ता के लिए उपाय अनुच्छेद 136 के तहत विशेष अनुमति याचिका दायर करना है, जो अनुच्छेद 32(1) के तहत “उचित कार्यवाही” शब्द का उचित निर्माण है।

प्रतिवादियों

प्रतिवादियों के वकील ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 32 किसी नागरिक को ‘मूल याचिका’ के ज़रिए इस न्यायालय में जाने का अधिकार नहीं देता है, बल्कि संबंधित मामले की प्रकृति के अनुसार ‘उचित कार्यवाही’ के ज़रिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार देता है। वकील ने आगे तर्क दिया कि संविधान द्वारा अनुच्छेद 32(1) के तहत दिया गया याचिका दायर करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय पर राहत (रिलीफ) देने का दायित्व नहीं डालता है, क्योंकि अनुच्छेद 226 और 32 के मामले में अनुमति देना विवेकाधीन (डिस्क्रीशन) है।

आगे यह तर्क दिया गया कि यदि उच्च न्यायालय द्वारा याचिका खारिज कर दी गई या गुण-दोष के आधार पर निर्णय दे दिया गया, तो याचिकाकर्ता को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष समान मुद्दों और विषय-वस्तु (सब्जेक्ट मैटर) के साथ याचिका दायर करने से रोक दिया जाएगा। 

प्रतिवादी के वकील अपनी दलील पर अड़े रहे कि जब तक उच्च न्यायालय के निर्णय को किसी अपील या किसी अन्य कार्यवाही द्वारा संशोधित, परिवर्तित या उलट नहीं दिया जाता है, तब तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को दोनों पक्षों में से किसी के द्वारा अनदेखा नहीं किया जा सकता है। उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय अंतिम है, और कोई भी पक्ष इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को अनदेखा नहीं कर सकता है और याचिका को सर्वोच्च न्यायालय में नहीं ले जा सकता है।

प्रतिवादियों ने आगे तर्क दिया कि अनुच्छेद 32(1) एक मौलिक अधिकार प्रदान करता है जो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण है, और इस मामले में इसे बनाए रखना सर्वोच्च न्यायालय की जिम्मेदारी है। इसके अलावा, उन्होंने कहा कि पूर्वन्याय का नियम बड़े पैमाने पर सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है, और इस प्रकार, अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय का निर्णय याचिका के लिए एक बाधा होना चाहिए। उन्होंने कहा कि चूंकि मामला उचित कार्यवाही द्वारा सक्षम (कंपीटेंट) न्यायालय के माध्यम से उच्च न्यायालय में योग्यता के आधार पर तय किया गया था, इसलिए इसे पक्षों पर अनिवार्य रूप से बाध्यकारी होना चाहिए जब तक कि इसे पीड़ित पक्ष द्वारा अपील के कारण संशोधित या परिवर्तित नहीं किया जाता है या उच्च न्यायालय द्वारा उलट नहीं दिया जाता है।

दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961) में शामिल कानून और अवधारणाएँ

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32

अनुच्छेद 32 भारत के नागरिक को भारत के संविधान के भाग III द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उपयुक्त कार्यवाही द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार देता है। यह अनुच्छेद विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय को आदेश, निर्देश (डायरेक्शन) या रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है। यहाँ रिट में बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबियस कॉर्पस), परमादेश (मैंडेमस), निषेध (प्रोहिबिशन), अधिकार-पृच्छा (क्यू वारंटो) और उत्प्रेषण (सर्टियोररी) शामिल हैं।

इस मामले में याचिकाकर्ताओं द्वारा जो रिट दायर की गई थी वह उत्प्रेषण रिट थी, जिसमें न्यायालय उच्च प्राधिकारी के साथ निचली अदालत के निर्णय की समीक्षा (रिव्यू) करता है।

इसके अतिरिक्त, यह कहा गया है कि संसद सर्वोच्च न्यायालय को दी गई शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना किसी अन्य न्यायालय को अनुच्छेद 32(2) में निर्दिष्ट स्थानीय क्षेत्र के भीतर अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) कर सकती है। इसके अलावा, इस अनुच्छेद द्वारा दिए गए अधिकारों को तब तक रद्द या निलंबित नहीं किया जा सकता जब तक कि भारत के संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32(1) 

अनुच्छेद 32 (1) में कहा गया है कि नागरिकों को संबंधित मामले की प्रकृति के अनुसार उचित कार्यवाही करके सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार है। यह उन तर्कों में से एक था जो मामले में प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील द्वारा प्रस्तुत किए गए थे।

प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील ने कहा कि अनुच्छेद 32 किसी नागरिक को मूल याचिका के माध्यम से इस न्यायालय में जाने का अधिकार नहीं देता है, बल्कि संबंधित मामले की प्रकृति के अनुसार उचित कार्यवाही करके सीधे सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार देता है। याचिकाकर्ता द्वारा इसे एक निराधार तर्क माना गया, और उनके कानूनी वकील ने कहा कि पक्ष द्वारा दावा किए गए आदेश या रिट और नागरिक को न्यायालय में जाने के लिए दिए गए अधिकार के आधार पर कार्यवाही को उचित माना जा सकता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 136 

यह अनुच्छेद भारत के सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले या किसी भी मामले में किसी भी न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) या न्यायालय द्वारा पारित या बनाए गए किसी भी डिक्री, दंडज्ञा (सेंटेंस), निर्णय, आदेश या निर्धारण (डिटरमिनेशन) से अपील करने के लिए विशेष अनुमति देने के लिए दी गई विवेकाधीन शक्ति के बारे में बताता है। यह सशस्त्र बलों से संबंधित किसी भी कानून के तहत भारत में किसी भी न्यायाधिकरण या न्यायालय द्वारा पारित या बनाए गए किसी भी मामले या किसी भी मामले में किसी भी डिक्री, दंडज्ञा, निर्णय, आदेश या निर्धारण के अपवाद के साथ आता है। 

तथापि, वर्तमान मामले में, इस अनुच्छेद के तहत अनुमति मांगने का अधिकार याचिकाकर्ताओं को नहीं दिया जा सका क्योंकि सीमा अवधि समाप्त हो चुकी थी।

भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 226

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 226 भारत के नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त उनके कानूनी और मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उचित कार्यवाही करके उच्च न्यायालय में जाने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 226 स्पष्ट रूप से उच्च न्यायालय को विभिन्न आदेश, निर्णय और रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है। उच्च न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण जैसे रिट भी जारी कर सकता है।

मामले में याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर की गई रिट उत्प्रेषण की थी, जिसमें उच्च न्यायालय निचली अदालत के फैसले की समीक्षा करता है। इसके अलावा, इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को दी गई शक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32(2) द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को दी गई शक्ति से अलग नहीं है।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11

यह धारा पूर्वन्याय के नियम के बारे में बताती है, जो इस मामले का मुख्य आकर्षण है। इस धारा में कहा गया है कि कोई भी अदालत मुकदमा शुरू नहीं करेगी या आगे नहीं बढ़ेगी यदि विषय वस्तु पहले से ही किसी पिछले मामले में उठाई गई है, सुनी गई है और तय की गई है या वर्तमान में किसी अन्य सक्षम अदालत में विचाराधीन है। यहाँ, विषय वस्तु का अर्थ है किसी औपचारिक मुकदमे में संदर्भित मामला, जिस पर किसी एक पक्ष द्वारा आरोप लगाया गया हो और दूसरे पक्ष द्वारा निहित या स्पष्ट रूप से इनकार किया गया हो। विषय वस्तु को पहले के मुकदमे में सीधे और पर्याप्त रूप से (डायरेक्टली और सबस्टेंशियली) मुद्दा होना चाहिए था।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में कहा गया है कि पूर्ववर्ती (फॉर्मर) वाद से तात्पर्य ऐसे वाद से है जिसका निर्णय प्रश्नगत वाद से पहले हो चुका है, चाहे वह पहले संस्थित (इंस्टीट्यूट) किया गया हो या नहीं।

ऐसे मामलों में जहां न्यायालय किसी मुकदमे में मांगी गई राहत को विशेष रूप से प्रदान नहीं करता है, तो यह माना जाता है कि न्यायालय ने उस राहत को अस्वीकार कर दिया है। 

यदि लोग किसी सार्वजनिक या साझा (शेयर्ड) निजी (प्राइवेट) अधिकार के बारे में अदालत में ईमानदारी से बहस करते हैं, तो उस अधिकार में रुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इस खंड के लिए उस बहस का हिस्सा माना जाता है।

न्यायालय के समक्ष किसी अधिकार या राहत का वास्तविक रूप से दावा करने वाला कोई भी व्यक्ति, ऐसे किसी अधिकार में प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) या अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) हित रखने वाला कोई भी व्यक्ति, अधिकार का दावा करने वाले मामले में पक्षकार माना जाएगा। पूर्वन्याय के नियम को तय करने और लागू करने के दौरान केवल सक्षम न्यायालयों द्वारा लिए गए निर्णयों पर विचार किया जाता है। यदि न्यायालय के पास मामले पर निर्णय लेने का अधिकार क्षेत्र नहीं है, तो पूर्वन्याय नियम लागू नहीं किया जा सकता है।

दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961) में पूर्वन्याय की प्रासंगिकता

पूर्वन्याय एक लैटिन शब्द है जिसका अनुवाद “निर्णय की गई बात” होता है। यह सामान्य कानून सिद्धांत का एक हिस्सा है जो न्यायालयों में एक ही पक्ष के बीच मामलों के फिर से मुकदमेबाजी को रोकता है। यह बताता है कि एक बार जब कोई मामला तय हो जाता है और उचित कार्यवाही और सक्षम न्यायालय द्वारा अंतिम निर्णय दिया जाता है, तो उसी मुद्दे या महत्वपूर्ण मामलों के साथ एक नया मामला किसी अन्य न्यायालय में दायर नहीं किया जा सकता है। यह नियम पहले से तय किए गए मामले के पक्षों के साथ होने वाले अन्याय को खत्म करने के लिए लाया गया था, और जिन पक्षों को निर्णय से कोई लाभ नहीं हुआ, उन्होंने न्यायिक प्रणाली में अनावश्यक अराजकता पैदा करने के लिए इसे फिर से लाने का प्रयास किया।

हालाँकि, पूर्वन्याय उस प्रक्रिया को प्रतिबंधित नहीं करता है जिसके तहत पक्ष न्याय पाने के लिए उच्च प्राधिकारी (अथॉरिटी) की अदालतों में अपील करते हैं। अपील एक मामले की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जबकि पूर्वन्याय पहले से तय किए गए मुकदमे की नई सुनवाई पर रोक लगाता है। 

जब कोई न्यायालय ऐसा करने के लिए प्राधिकार और क्षेत्राधिकार के बिना निर्णय सुनाता है, तो उस निर्णय पर सक्षम न्यायालय द्वारा पुनः विचार किया जा सकता है, तथा यहां पूर्वन्याय लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि न्यायालय के पास मामले पर निर्णय करने की क्षमता नहीं थी, फिर भी उसने अंतिम निर्णय दे दिया।

पूर्वन्याय का सिद्धांत तीन लैटिन सिद्धांतों के आधार पर बना है, जो इस प्रकार हैं:

  1. निमो डेबेट बिस वेक्सारी प्रो ऊना एट ईएडेम : यह कहावत कहती है कि किसी भी व्यक्ति पर एक ही कारण से दो बार मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए। यह कहावत न्याय प्रशासन में मदद करती है और किसी मामले को लंबा खींचने से रोकने के लिए दोहरे खतरे के सिद्धांत के अंतर्गत आती है। 
  2. इंटरेस्ट रिपब्लिका यूट सिट फिनिस लिटियम : यह कहावत राज्य के हित को बनाए रखने की बात करती है। इसका मतलब है कि राज्य का हित मुकदमे को समाप्त करने का कारण होगा।
  3. रेस जुडीकाटा प्रो वेरिटा ओसीसीपिटुर : इस कहावत का अर्थ है कि न्यायालय द्वारा दिया गया न्यायिक निर्णय सही माना जाना चाहिए। न्यायिक रूप से तय किया गया कोई भी बिंदु प्रकृति में सही माना जाता है।

दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961) में शामिल मिसालें और सिद्धांत

इस पीठ ने इस मामले में फैसला सुनाने के लिए कई मिसालों का सहारा लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कई कानूनी सिद्धांतों और मिसालों का सहारा लेकर यह स्थापित किया कि एक बार जब कोई मामला सक्षम न्यायालय द्वारा तय कर दिया जाता है, तो उस मामले को फिर से उसी मुद्दे पर किसी न्यायालय में नहीं लाया जा सकता।

सर्वोच्च न्यायालय ने अंग्रेजी सामान्य कानून से प्राप्त सिद्धांतों पर भी विचार किया, जो सक्षम न्यायालय द्वारा पहले से तय किए गए मुद्दों पर पुनः मुकदमा चलाने पर रोक लगाता है।

लक्ष्मणप्पा हनुमंतप्पा जामखंडी बनाम भारत संघ और अन्य (1954) के मामले में न्यायालय ने माना कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 265 में दिए गए प्रावधान के कारण, कर का संग्रह या अधिरोपण (इंपोसिशन) कानून के अधिकारी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 265 मौलिक अधिकार नहीं है और इसलिए इसे अनुच्छेद 32 के तहत लागू नहीं किया जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश महाजन ने यह भी कहा कि, विशिष्ट परिस्थितियों के बावजूद, कोई भी रिट जारी करना उचित और न्यायसंगत नहीं होगा, जिसमें मुद्दा न्यायालय के विवेकाधीन हो। 

दीवान बहादुर सेठ गोपाल दास मोहता बनाम भारत संघ एवं अन्य (1954) मामले में मुख्य न्यायाधीश महाजन ने भी यही टिप्पणी की है। हालांकि, यह ध्यान देने वाली बात है कि ऊपर बताई गई टिप्पणियां केवल टिप्पणी हैं और इसलिए इन्हें सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय नहीं माना जा सकता। 

न्यायालय ने राज लक्ष्मी दासी बनाम बनमाली सेन (1952) मामले में अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिका में पूर्वन्याय नियम के अनुप्रयोग पर भी विचार किया कि पूर्वन्याय नियम को अनुच्छेद 226 के तहत दायर याचिका के विरुद्ध भी लागू किया जा सकता है।

न्यायालय ने यह देखा कि भागुभाई दुल्लाभाई भंडारी बनाम जिला मजिस्ट्रेट, थाना (1956) के मामले में, उच्च न्यायालय का निर्णय पक्षों के बीच बाध्यकारी (बाइंडिग) था और सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता को विशेष अनुमति देने से इनकार कर दिया। सरल शब्दों में, यह निर्णय लिया गया कि यदि उच्च न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि (कंविक्शन) आदेश पारित किया जाता है, तो यह दोषी व्यक्ति पर बाध्यकारी होगा और उसे अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका दायर करने का कोई अधिकार नहीं होगा।

जनार्दन रेड्डी बनाम हैदराबाद राज्य (1951) में, पीठ ने पाया कि उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध विशेष अनुमति के लिए याचिका दायर की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने याचिकाओं को स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में उन्हें योग्यता के आधार पर खारिज कर दिया, और मुख्य न्यायाधीश फजल अली ने फैसला सुनाया। उन्होंने कहा कि “इस मामले में, हमने यह तय करना आवश्यक नहीं समझा कि क्या भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 32 के तहत एक आवेदन उच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 226 के तहत एक समान आवेदन खारिज किए जाने के बाद बनाए रखने योग्य है और इस पर हमारी राय सुरक्षित (रिज़र्व) है”।

न्यायालय ने गुलाब कोयर बनाम बादशाह बहादुर (1909) में कलकत्ता उच्च न्यायालय के निर्णय पर भी भरोसा किया, जिसमें एक पक्ष ने धोखाधड़ी (फ्रॉड) के आधार पर अपने सहमति (कंसेंट) आदेश की समीक्षा की असफल मांग की थी, लेकिन इसके खिलाफ पूर्वन्याय की याचिका लाई गई थी।

इस मामले में, न्यायालय ने यह माना कि समीक्षा के लिए आवेदन एक अनुचित उपाय के लिए था, और मुकदमा दायर करना उस मुकदमे के पक्ष के लिए उपलब्ध एकमात्र उपाय था। इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि वह पक्षों के लिए उपलब्ध वैकल्पिक उपायों से संतुष्ट नहीं है और माना कि उच्च न्यायालय द्वारा सुनाया गया निर्णय दोनों पक्षों के लिए बाध्यकारी है। 

मामले का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मामले पर निर्णय देते हुए पीठ इस बात से संतुष्ट है कि विवादित कानून के खिलाफ याचिकाकर्ताओं द्वारा किए गए हमले के स्वरूप में परिवर्तन से वास्तविक कानूनी स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित और निर्णय दिया गया था।

यह कहा गया कि रिट याचिका उसी कानून और उन्हीं आधारों के खिलाफ निर्देशित की गई थी जो पहले उच्च न्यायालय में लाई गई रिट याचिका में उठाए गए थे। इसलिए, अनुच्छेद 226 के तहत याचिकाकर्ता की रिट याचिका के गुण-दोष पर उच्च न्यायालय द्वारा किया गया निर्णय अनुच्छेद 32 के तहत याचिका लाने पर रोक लगाता है।

इस प्रकार, यह निर्णय लिया गया कि याचिका विफल हो गई तथा उसे खारिज कर दिया गया, तथा लागत के संबंध में कोई आदेश नहीं दिया गया।

इस निर्णय के पीछे तर्क

सर्वोच्च न्यायालय ने ऊपर उल्लिखित उदाहरणों पर भरोसा करते हुए निष्कर्ष निकाला कि यदि किसी पक्ष द्वारा अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका दायर की जाती है और वह गुण-दोष के आधार पर खारिज हो जाती है, तो यह दोनों पक्षों के लिए बाध्यकारी है।

पीठ ने कहा कि जब तक निर्णय को अपील या किसी अन्य कार्यवाही द्वारा उलट या संशोधित नहीं किया जाता है, जो भारत के संविधान के तहत उचित और स्वीकार्य है, इसे किसी भी पक्ष द्वारा नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नागरिक आमतौर पर अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से राहत पाने के हकदार हैं, जब उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है। इसलिए, पीठ याचिकाकर्ता के इस तर्क का समर्थन नहीं करती है कि भारतीय संविधान के तहत अनुच्छेद 32 याचिका के लिए पूर्वन्याय के आवेदन पर निर्णय लिया जाना चाहिए, क्योंकि यह अनुच्छेद 226 द्वारा न्यायालय को उपयुक्त राहत प्रदान करने के लिए दी गई विवेकाधीन शक्ति से मिलता जुलता है।

न्यायालय ने इस कहावत पर भरोसा किया कि यह राज्य के हित में है और सार्वजनिक नीति तथा आवश्यकता के लिए है कि मुकदमेबाजी की प्रक्रिया समाप्त होनी चाहिए। इसके अलावा, पीठ ने इस कहावत पर भरोसा किया कि किसी व्यक्ति को एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जा सकता। 

सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि व्यक्ति को कई बार कठोर प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, जिससे उसे परेशानी हो सकती है। पीठ ने कहा कि तकनीकी रोक का नियम पूर्वन्याय के नियम से अलग है क्योंकि यह न्यायसंगत सिद्धांतों पर आधारित है। 

पूर्वन्याय का नियम सिद्धांतों पर आधारित है और यह कोई तकनीकी नियम नहीं है; इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय इस तर्क को स्वीकार नहीं कर सकता कि यह अनुच्छेद 32 पर लागू होता है। निर्णयों का बाध्यकारी चरित्र कानून का एक अनिवार्य हिस्सा है, जिसमें सक्षम क्षेत्राधिकार वाले उचित कार्यवाही के बाद न्यायालयों द्वारा सुनाए गए निर्णय दोनों पक्षों पर बाध्यकारी होते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने आगे यह माना कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11 के अंतर्गत पूर्वन्याय के नियम के अंतर्गत अनुवर्ती (सब्सिक्वेंट) वाद पर विचार करने के लिए प्रथम न्यायालय की क्षमता आवश्यक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुच्छेद 226 के अंतर्गत याचिका पर विचार करने के लिए उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र मूलतः वही है जो अनुच्छेद 32 के अंतर्गत याचिका पर विचार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र है। अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के अंतर्गत इन दोनों आवेदनों के लिए कार्रवाई का कारण मूलतः एक ही होगा। 

संविधान के अनुसार, अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालय को रिट याचिका पर विचार करने का अधिकार देता है, और अनुच्छेद 32 सर्वोच्च न्यायालय को उसी उद्देश्य के लिए समान रिट याचिका पर विचार करने का अधिकार देता है। 

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किए जाने वाले आदेशों, निर्देशों या रिट याचिकाओं का दायरा, उच्च न्यायालय द्वारा विचार किए जाने वाले आदेशों, निर्देशों या रिट याचिकाओं के दायरे के समवर्ती (सिमिलर) है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि दोनों याचिकाओं में दावा की गई राहत एक जैसी है। एकमात्र स्पष्ट अंतर मौलिक अधिकार के अस्तित्व और गैरकानूनी उल्लंघन के दावे में है, जिसका इस्तेमाल दोनों याचिकाओं के बीच अंतर करने के लिए किया गया था।

सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दायर याचिका में प्रस्तुत तर्क पर उच्च न्यायालय अनुच्छेद 226 के तहत विचार नहीं कर सकता। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह तर्क कि उच्च न्यायालय का निर्णय पूर्वन्याय के नियम के दायरे में नहीं आ सकता, क्योंकि वह भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत याचिका पर विचार नहीं कर सकता, खारिज किया जाता है। 

न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूर्वन्याय के नियम के अनुप्रयोग (एप्लीकेश), उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति और न्यायिक (ज्यूडिशियल) समीक्षा (रिव्यू) से संबंधित सिद्धांत निर्धारित किए गए थे। इसने बाद के मामलों के निर्णय के लिए एक मानदण्ड (बेंचमार्क) स्थापित किया और इसे अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के तहत याचिकाओं के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11 के दायरे में आने वाले मामलों के लिए एक ऐतिहासिक निर्णय कहा गया।

पूरे निर्णय में न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत निम्नानुसार सूचीबद्ध हैं:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 32 और 226 के तहत न्यायालयों को दी गई विवेकाधीन शक्तियों पर जोर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इन शक्तियों का प्रयोग कानून की सीमाओं के भीतर और संविधान द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार किया जाएगा।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब तक न्यायालय के निर्णय को अपील या किसी अन्य कार्यवाही द्वारा उलट या संशोधित नहीं किया जाता है, जो भारत के संविधान के तहत उचित और अनुमेय है, तब तक इसे किसी भी पक्ष द्वारा नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
  • पीठ ने यह भी कहा कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय को दी गई विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग सार्वजनिक हित और कल्याण के लिए किया जाना चाहिए, ताकि पक्षों के निजी या व्यक्तिगत हितों के बजाय निष्पक्षता (फेयरनेस) सुनिश्चित हो सके।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि पूर्वन्याय के आवेदन के लिए, न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय उचित कार्यवाही के माध्यम से लिया जाना चाहिए और न्यायालय मामले की सुनवाई करने के लिए न्यायिक रूप से सक्षम है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया कि जब कोई न्यायालय उचित प्राधिकार और अधिकार क्षेत्र के बिना कोई निर्णय जारी करता है, तो उस निर्णय की समीक्षा सक्षम न्यायालय द्वारा की जा सकती है। ऐसे मामलों में, पूर्वन्याय का सिद्धांत लागू नहीं होता क्योंकि प्रारंभिक न्यायालय के पास मामले पर अंतिम निर्णय देने की क्षमता नहीं होती।
  • पीठ ने यह भी कहा कि पूर्वन्याय का सिद्धांत अनुच्छेद 32 के तहत याचिका पर स्वतः लागू नहीं होगा, क्योंकि यह अनुच्छेद 226 के तहत न्यायालय को उचित उपचार प्रदान करने के लिए दी गई विवेकाधीन शक्तियों से मिलता जुलता है। नागरिकों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से राहत मांगने का अधिकार है, जब उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, न कि विवेकाधीन शक्तियों में समानता के आधार पर।

दरयाओ बनाम यूपी राज्य (1961) का विश्लेषण

इस मामले ने पूर्वन्याय के सिद्धांत को उच्च स्थान दिया तथा सक्षम न्यायालयों द्वारा उचित कार्यवाही के माध्यम से सुनाए गए निर्णय के बाध्यकारी चरित्र को कानून का अनिवार्य तत्व माना।

मुख्य न्यायाधीश गजेंद्रगडकर ने कहा कि सक्षम क्षेत्राधिकार वाली अदालतों द्वारा सुनाए गए बाध्यकारी निर्णयों की अंतिमता आम जनता के हित में है। उन्होंने यह भी कहा कि एक व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए दो बार मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए, जो जनता के हित में भी है। यदि ये दो सिद्धांत पूर्वन्याय के नियम का आधार बनते हैं, तो उन्हें अप्रासंगिक (इरेलिवेंट) नहीं माना जा सकता है और संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर मौलिक अधिकारों से संबंधित मामलों और याचिकाओं से निपटने में इन्हें लागू किया जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कुछ आवश्यक दिशा-निर्देश दिए हैं जो इस मामले के समान विषय-वस्तु वाले मामलों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण हैं। यह कहा गया कि जब तक अपील या किसी अन्य न्यायालय की कार्यवाही में संशोधन या उलट नहीं किया जाता, तब तक अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय पक्षों पर बाध्यकारी रहेगा।

इस मामले में दिए गए फैसले ने प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) निर्णयों पर न्यायिक समीक्षा के दायरे को स्पष्ट किया, जिसमें जोर दिया गया कि न्यायालयों के पास वैधानिकता (लेगलिटी), तर्कसंगतता (रेशनलिटी) और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए विवेकाधीन शक्तियों के प्रयोग की समीक्षा करने का अधिकार है। हालांकि, पीठ ने यह भी कहा कि न्यायालयों को प्रशासनिक प्राधिकरण के विवेक के स्थान पर अपने विवेक का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए, जब तक कि निर्णय अवैध (इल्लीगल) या तर्कहीन (इरेशनल) न हो।

सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि एक बार मामला तय हो जाने के बाद, पीड़ित पक्ष को इसे नजरअंदाज करने और उन्हीं तथ्यों और दावों के आधार पर अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में एक नई याचिका प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

निष्कर्ष 

इस मामले में कानून ने सही मायने में रिट याचिकाओं में पूर्वन्याय के नियम की प्रयोज्यता के संबंध में सिद्धांत निर्धारित किए तथा रिट याचिकाओं की कार्यवाही में पूर्वन्याय के नियम के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) के प्रश्न का उत्तर दिया।

इस मामले में कहा गया कि अनुच्छेद 226 के तहत योग्यता के आधार पर दिया गया निर्णय, यदि उसी पक्ष के बीच अनुच्छेद 32 के तहत बाद में रिट याचिका में उठाया जाता है, तो उसे पूर्वन्याय माना जाएगा। अनिवार्य बात यह है कि इसे उचित कानूनी कार्यवाही के माध्यम से सक्षम न्यायालय द्वारा दिया जाना चाहिए।

यह स्वीकार करना वास्तव में आवश्यक है कि किसी भी भविष्य के दाखिल करने में बाधा बनने के लिए, इसे उचित प्रक्रियाओं के माध्यम से सक्षम न्यायालय द्वारा लिया जाना चाहिए, और निर्णय गुण-दोष के आधार पर होना चाहिए।

इसलिए, यह निर्णय जनता और राज्य के हितों को उच्च स्थान पर रखता है, जो प्राकृतिक (नैचुरल) न्याय (जस्टिस) के सिद्धांतों के तहत दोहरे खतरे के सिद्धांत के समान है। यह मामला वास्तव में एक व्यक्ति को बार-बार मामले दायर करने के कारण होने वाले शारीरिक और मानसिक तनाव से बचाने के लिए एक ऐतिहासिक मामला था, जिससे अन्याय होता है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के लिए बाद की दलीलों पर रोक लगाने के लिए क्या आवश्यक है?

दरयाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (1961) में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत सुनाया गया निर्णय सक्षम न्यायालय द्वारा और उचित कार्यवाही के माध्यम से दिया जाना चाहिए। याचिका पर निर्णय या उसको खारिज, याचिका के गुण-दोष के आधार पर किया जाएगा। यदि याचिका को समय रहते खारिज कर दिया जाता है, तो उसे बोलने वाले आदेश के माध्यम से स्वीकार किया जाना चाहिए। ये वे आवश्यक तत्व हैं जो बाद में याचिका दायर करने पर रोक लगा सकते हैं।

भारत में पूर्वन्याय का नियम किस प्रकार के मामलों पर लागू होता है?

पूर्वन्याय का नियम सिविल मुकदमों, आपराधिक मामलों और रिट याचिकाओं में बाद की याचिकाओं पर रोक लगाने के लिए लागू किया जा सकता है। यह सुनिश्चित करता है कि एक बार निर्णय हो जाने के बाद, किसी कानूनी मामले को फिर से नहीं खोला जाएगा या कानून की प्रक्रिया को लम्बा खींचने के लिए उसी दावों और मुद्दों पर मूल याचिका के रूप में दायर नहीं किया जाएगा।

पूर्वन्याय के सिद्धांत के अपवाद क्या हैं?

पूर्वन्याय के सिद्धांत के अपवाद तब होते हैं जब पहले का निर्णय न्यायालय द्वारा उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर दिया गया हो, निर्णय धोखाधड़ी या अवैध तरीकों से प्राप्त किया गया हो, और निर्णय गुण-दोष के आधार पर तय नहीं किया गया हो। पूर्वन्याय के नियम को तय करने और लागू करने के दौरान सक्षम न्यायालयों द्वारा लिए गए निर्णय पर विचार किया जाता है। एक अन्य अपवाद किसी भी मामले या किसी भी कारण में डिक्री, दंडज्ञा, निर्णय, आदेश या निर्धारण है जो सशस्त्र बलों से संबंधित किसी भी कानून के तहत भारत में किसी भी न्यायाधिकरण या अदालत द्वारा पारित या बनाया गया हो। 

संदर्भ

 

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