मध्यस्थता और वार्ता के बीच अंतर

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यह लेख Tannu Shree द्वारा लिखा गया है। इस लेख में ए.डी.आर. के दो महत्वपूर्ण अलग-अलग तरीकों यानी मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) और वार्ता (नेगोशियेशन) पर चर्चा की गई है। इसके अलावा, यह लेख इनके बीच के अंतर, इनके फायदे और नुकसान पर भी ध्यान केंद्रित करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

जब भी हमारे पास श्रम, वाणिज्यिक (कमर्शियल) या व्यक्तिगत विवाद जैसे वैवाहिक और संपत्ति से संबंधित कोई विवाद होता है, तो हम अक्सर समय पर न्याय पाने के लिए खुद को अदालत के सामने पाते हैं, लेकिन इसकी लंबी प्रक्रिया, समय लेने वाली प्रकृति और न्याय की गैर-गारंटी के कारण, हम जाना पसंद नहीं करते हैं। राष्ट्रिय न्यायायिक डेटा ग्रिड के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2020 में भारतीय न्यायालयों में लंबित मामलों की कुल संख्या 29.9% थी, जो अपने आप में एक चिंताजनक मामला है। इसलिए, ऐसे मुद्दों को खत्म करने के लिए, हमारी कानूनी प्रणाली विभिन्न समाधानों के साथ आई है और ऐसे प्रमुख मुद्दों में से एक वैकल्पिक विवाद समाधान है। 

ए.डी.आर. भारतीय न्यायपालिका में एक बड़ा बदलाव है क्योंकि यह न केवल न्यायालय पर बोझ कम करता है बल्कि पीड़ित पक्ष और विरोधी पक्षों को स्वतंत्र वार्ता करने की समान स्वतंत्रता भी देता है। इस तरह की पद्धति को अपनाने में, हमें विभिन्न प्रकार के ए.डी.आर. का ज्ञान होना चाहिए ताकि हमें एक बुनियादी समझ हो कि हम किसमें से चुन सकते हैं। इस लेख का उद्देश्य मध्यस्थता और वार्ता के बीच अंतर को परिभाषित करना और उनकी संबंधित विशेषताओं, इसके लाभों और अनुप्रयोगों का पता लगाना है। 

ए.डी.आर. के तरीकों में से एक के रूप में मध्यस्थता

जैसा कि पहले ही चर्चा की जा चुकी है, मध्यस्थता वैकल्पिक विवाद समाधान के तरीकों में से एक है, जिसमें विवाद में शामिल पक्ष अपने विवाद को तीसरे पक्ष को सौंपने के लिए सहमत होते हैं, जिसे मध्यस्थ कहा जाता है, जिसका मुख्य काम निष्पक्ष होकर मामले को सुलझाना और मध्यस्थता पंचाट (अवॉर्ड) के रूप में बाध्यकारी निर्णय देना होता है, जिसका प्रत्येक पक्ष को पालन करना होता है। मध्यस्थता प्रक्रियाओं में, यहां तक ​​कि ऐसे साक्ष्य भी स्वीकार किए जाते हैं जो नियमित न्यायालय में स्वीकार्य नहीं हैं। यह प्रक्रिया आम तौर पर पारंपरिक न्यायालय प्रणाली की तुलना में कम औपचारिक होती है और अधिक लचीली होती है, जो पक्षों को न्यायिक प्रणाली के बाहर मामलों को सुलझाने का एक अलग तरीका प्रदान करती है। इसका उपयोग अक्सर वाणिज्यिक, श्रम, निर्माण और उपभोक्ता विवादों और अन्य पारिवारिक विवादों जैसे संपत्ति से संबंधित और वैवाहिक विवादों में किया जाता है। हालाँकि मध्यस्थता एक ऐसी प्रक्रिया है जो किफ़ायती है, लेकिन कई बार हमें लगता है कि यह एक अच्छा विकल्प नहीं है क्योंकि इसमें कई खामियाँ हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है। ए.डी.आर. के एक रूप में मध्यस्थता प्रक्रिया में लचीलापन, मामले में मध्यस्थ की विशेषज्ञता और प्रकृति में उच्च गोपनीयता प्रदान करती है, लेकिन यह सामान्य लोगों के लिए थोड़ा महंगा हो सकता है और निर्णय न्यायालयों की तुलना में सीमित उपचार प्रदान करता है। कुल मिलाकर, यह मुकदमेबाजी का एक बेहतर विकल्प है, लेकिन इसके फायदे और नुकसान के बारे में पता होना आवश्यक है।

भारत में मध्यस्थता का तंत्र

भारत में मध्यस्थता मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 द्वारा शासित होती है। यह कानून वर्ष 1985 में अनसिट्रल  (संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून आयोग) के अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता पर मॉडल कानून और 1976 के अनसिट्रल मध्यस्थता नियमों से उत्पन्न हुआ था। भारत में मध्यस्थता ढांचे को और बढ़ाने के लिए, मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम 2015 पेश किया गया था। 

भारत में मध्यस्थता को तब जाना और मान्यता दी गई जब मध्यस्थता अधिनियम 1899 को अधिनियमित किया गया, लेकिन इसकी प्रयोज्यता केवल बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता तक ही सीमित थी। प्रावधानों को धारा 89 के साथ-साथ सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की अनुसूची II में शेष क्षेत्रों में भी विस्तारित किया गया था। हालाँकि, यह देखा गया कि मध्यस्थता से आम जनता को अपेक्षित लाभ नहीं मिला और देश में आर्थिक सुधारों को पूरा करने के लिए 1940 में मध्यस्थता अधिनियम लागू किया गया। पिछले अधिनियम को सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के साथ निरस्त कर दिया गया था।

इस अधिनियम को मौजूदा कानूनों के एकीकरण के रूप में देखा जा सकता है; हालाँकि, विदेशी पंचाटो के प्रवर्तन से संबंधित कोई निर्धारित प्रक्रिया नहीं थी। यह घरेलू क्षेत्र तक ही सीमित था और इसलिए, इसने अपने अधिनियमन के पीछे के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया। गुरु नानक फाउंडेशन बनाम रतन सिंह, (1981) के मामले में, न्यायमूर्ति डी.ए. देसाई ने अधिनियम की अप्रभावीता और खराब कार्यान्वयन की आलोचना की। उन्होंने बताया कि विवादों को सुलझाने में शामिल जटिल, महंगी और समय लेने वाली अदालती प्रक्रिया ने न्यायविदों को अधिक प्रभावी मंच पर जाने के लिए मजबूर किया; हालाँकि, जिस तरह से मंच काम करता है, उसने अदालतों से कड़ी आलोचना को आमंत्रित किया है। 

विवाद समाधान के तरीके के रूप में मध्यस्थता अपनाने के लाभ

इस व्यस्त युग में, न्यायालय की जटिलताओं में खुद को शामिल करना बहुत मुश्किल है क्योंकि हर कोई चाहता है कि समस्या का समाधान जल्दी हो जाए। अधिकांश लोग मध्यस्थता के लिए इसलिए जाते हैं क्योंकि इससे पक्षों को समय पर परिणाम प्राप्त करना आसान होता है, जिससे न्यायालय की कार्यवाही में जाने और मामले की तारीख का इंतजार करने की असुविधा से बचा जा सकता है। मध्यस्थता का विकल्प चुनना क्यों फायदेमंद है, इसके अन्य कारणों पर नीचे चर्चा की गई है-

  1. अनौपचारिक प्रक्रिया – अनौपचारिक प्रकृति के कारण, पक्ष अपनी बात खुलकर कह सकते हैं और इसलिए, यह सफलता की ओर एक कदम है, जहां न्यायिक प्रणाली ऐसा करने में विफल रही है।
  2. आत्म-जागरूकता- मध्यस्थता की अन्य प्रक्रियाओं में किसी तीसरे पक्ष की भागीदारी नहीं होती है, विवाद से संबंधित पक्ष स्वयं निर्णयकर्ता होते हैं और अपने परिणामों की सच्चाई से भली-भांति परिचित होते हैं, इसलिए कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती है।
  3. कम खर्चीला – जैसा कि चर्चा की गई है, अधिकांश समय, मध्यस्थता मुकदमेबाजी की तुलना में बहुत कम खर्चीली होती है। मध्यस्थता में कम समय लगता है और इसलिए, अधिवक्ता अक्सर मुकदमेबाजी की तुलना में कम शुल्क लेते हैं। इसके अलावा, मुकदमेबाजी या जूरी ट्रायल की तुलना में मध्यस्थता की तैयारी में कम लागत शामिल होती है।
  4. विशेषज्ञता – इस प्रक्रिया में पक्ष विवाद के विषय में विशेषज्ञता वाले मध्यस्थों का चयन कर सकते हैं, जिससे पक्षों के लिए लाभदायक परिणाम के लिए मध्यस्थ पर भरोसा करना आसान हो जाता है और साथ ही यह सुनिश्चित होता है कि निर्णयकर्ता के पास क्षेत्र में आवश्यक ज्ञान और अनुभव है।
  5. कोई अपील नहीं – मध्यस्थता के फैसले आम तौर पर अंतिम और बाध्यकारी प्रकृति के होते हैं, जिनमें अपील के लिए सीमित या कोई अवसर नहीं होता। इससे पक्षों को विवाद की बेहतर समझ मिलती है और उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई से अंतिम समाधान के साथ आगे बढ़ने में मदद मिलती है।
  6. गोपनीयता – ये प्रक्रियाएँ आम तौर पर गोपनीय प्रकृति की होती हैं और इसलिए विवाद से संबंधित जानकारी लीक होने की संभावना कम होती है। मुकदमेबाजी के मामले में, मामले से संबंधित जानकारी प्राप्त करना आसान होता है और संभावित रूप से संवेदनशील व्यावसायिक जानकारी तक सार्वजनिक पहुँच का जोखिम शामिल होता है। 

मध्यस्थता के नुकसान

यह एक पुरानी कहावत है कि हर चीज का एक अच्छा पक्ष होता है और साथ ही एक बुरा पक्ष भी होता है और मध्यस्थता भी ऐसी ही है। मध्यस्थता के कई नुकसानों पर नीचे चर्चा की गई है-

  1. यह अनिवार्य है : यदि पक्षों के बीच कोई अनुबंध है जिसमें मध्यस्थता खंड है, तो मामले को सुलझाने के लिए इस प्रक्रिया को चुनना अनिवार्य है, भले ही एक पक्ष को यह विचार बहुत पसंद न हो। दूसरा पक्ष इसे एक लाभ के रूप में ले सकता है और इससे लाभ उठा सकता है।
  2. मिसाल का अभाव : हमारे पास आम तौर पर भविष्य के मामलों को निर्देशित करने के लिए मिसाल के मामले नहीं होते। मामलों में मिसाल के अभाव के कारण असंगत परिणाम और कानून में अनिश्चितता हो सकती है।
  3. लागत और व्यय : हालांकि मध्यस्थता मुकदमेबाजी की तुलना में कम खर्चीली हो सकती है, लेकिन कुछ मामलों में विवाद जटिल प्रकृति का हो या कई सुनवाईयों की आवश्यकता हो, तो यह थोड़ा अधिक महंगा हो सकता है। पूरे खर्च के भुगतान के लिए पक्ष स्वयं जिम्मेदार होते हैं।
  4. कोई अपील नहीं : हालांकि यह विवाद से अंतिम समाधान पाने के लिए पक्षों के पक्ष में एक लाभ है, लेकिन कभी-कभी यह पक्षों के बीच अराजकता पैदा कर सकता है। चूंकि अपील प्रणाली बहुत कम या बिलकुल नहीं है, इसलिए जो पक्ष परिणाम से संतुष्ट नहीं हैं, वे प्रभावित हो सकते हैं।
  5. गोपनीयता का मामला : हालांकि दस्तावेजों की गोपनीयता और रहस्यों का खुलासा मध्यस्थता का एक लाभ हो सकता है क्योंकि मध्यस्थ का चयन पक्षों द्वारा स्वयं किया जाता है, लेकिन इस प्रक्रिया में सार्वजनिक जांच या जवाबदेही की कमी थोड़ी चिंताजनक हो सकती है।
  6. पक्षपात: जैसा कि हम पहले से ही जानते हैं कि पक्ष स्वयं मध्यस्थों का चयन करते हैं, जिससे पक्षों के बीच पक्षपात और निष्पक्षता की कमी भी हो सकती है। हालाँकि मध्यस्थों से आम तौर पर तटस्थ रहने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि पक्ष मध्यस्थ पर सवाल भी उठा सकते हैं।

संबंधित मामले 

हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम भारत संघ, (2019) 2 एससीसी 311

मामले के तथ्य:

यह मामला हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड (एच.सी.सी.) नामक एक इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी के इर्द-गिर्द घूमता है, जो सरकारी निकायों के लिए एक एजेंट के रूप में काम करती है। कंपनी ने सड़क, जलविद्युत, पुल, सुरंग आदि से जुड़ी बड़ी परियोजनाओं पर काम किया था। चूंकि कंपनी सरकार की ओर से काम करती है और अक्सर लागत में वृद्धि के मामलों का सामना करती है। ऐसे मुद्दों को रोकने के लिए कंपनी बकाया राशि की वसूली के मामले में मध्यस्थता में जाने के लिए सहमत हो गई। तदनुसार, याचिकाकर्ता ने मामला दायर किया और उसके पक्ष में एक मध्यस्थता पंचाट दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप सरकारी निकाय ने अधिनियम की धारा 34 और 37 के अनुसार इसे चुनौती दी, जिससे पंचाटों पर रोक लग गई। इसके अलावा, सरकारी निकाय एक वैधानिक निकाय होने के एकमात्र कारण से दिवाला और क्षोधन अक्षमता (इंसोल्वेंसी एंड बंकरप्टसी कोड) संहिता से बच गए, लेकिन याचिकाकर्ताओं को नुकसान उठाना पड़ा और उन्हें अधिनियम से छूट नहीं मिली। इसका परिणाम यह हुआ कि याचिकाकर्ता एक निजी कंपनी होने के कारण वित्तीय कर्ज में डूब गया। इसके परिणामस्वरूप याचिकाकर्ता को नुकसान उठाना पड़ा और वह ऋण वसूल नहीं कर सका और जिन लेनदारों से याचिकाकर्ता ने वित्तीय सहायता मांगी थी, वे आई.बी.सी. की मदद से पुनर्भुगतान मांग सकते हैं।

उठाए गए मुद्दे

  • क्या हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के तहत अनुबंध की समाप्ति के लिए मुआवजे की हकदार है?
  • मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 87 संवैधानिक है या नहीं।

निर्णय

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अनुबंध को समाप्त करने का भारत संघ का निर्णय गैरकानूनी और मनमाना था। न्यायालय ने पाया कि अनुबंध को समाप्त करना गलत आधार पर किया गया था और इसके लिए उचित औचित्य की आवश्यकता थी। समाप्ति प्रक्रिया में प्रक्रियागत विसंगतियां भी गायब थीं। इसके मद्देनजर, न्यायालय ने भारत संघ को एचसीसी के साथ समझौते को फिर से स्थापित करने और हर्जाना देने का निर्देश दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने उन मामलों में निष्पक्षता और न्याय पर अधिक जोर देने का आदेश दिया जहां सरकारी वित्तपोषित संगठनों की प्रथाओं पर सवाल उठाए जा रहे हैं।

वार्ता 

जैसा कि पहले ही चर्चा की जा चुकी है, वार्ता किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के बिना पक्षों के बीच उत्पन्न विवाद को हल करने की एक प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य केवल वार्ता के माध्यम से समाधान तक पहुंचना है। वार्ता की प्रक्रिया में, पक्षों को समझौता करना पड़ता है क्योंकि यह प्रक्रिया देने और लेने के बारे में है। वार्ता का उपयोग व्यापारिक लेन-देन से लेकर अनुबंध संबंधी विवादों और पारस्परिक संबंधों तक विभिन्न स्थितियों में किया जा सकता है। इस प्रक्रिया का अंतिम लक्ष्य सहकारी निर्णय लेने से जुड़े दोनों पक्षों के लिए संतोषजनक परिणाम प्राप्त करना है। यह ए.डी.आर. का सबसे सरल रूप है और प्रकृति में गैर-बाध्यकारी है। वार्ता के कई फायदे और नुकसान हैं, साथ ही ए.डी.आर. के किसी भी अन्य तंत्र के भी, लेकिन विवाद को हल करने का सबसे प्रभावी तरीका संवाद करना है और यही बात वार्ता को अपने तरीके से अनूठा बनाती है और रिश्तों को बनाए रखती है, हालांकि यह आपसी सहमति पर निर्भर करती है और हमेशा संतोषजनक परिणाम नहीं दे सकती है।

वार्ता के लाभ

  1. लचीलापन : वार्ता एक ऐसी प्रक्रिया है जो पक्षों को अपने हित के अनुसार समझौते की शर्तों को स्वतंत्र रूप से बनाने की अनुमति देती है। यह पक्षों को विवाद को बिना किसी बाधा के हल करने के लिए अधिक खोज करने और विकल्प खोजने की स्वतंत्रता भी प्रदान करती है।
  2. पक्षों के बीच संबंध : जैसा कि हम जानते हैं कि इस प्रक्रिया में किसी तीसरे पक्ष की भागीदारी की आवश्यकता नहीं होती है, जिससे पक्षों के लिए आसानी से निष्कर्ष पर पहुंचना और अपने संबंधों को भी सुरक्षित रखना आसान हो जाता है।
  3. मामले पर नियंत्रण : तीसरे पक्ष की भागीदारी के बिना, विवाद या समझौते के परिणाम का समाधान खोजने से लेकर हर चीज पर पक्षों का नियंत्रण होता है।
  4. लागत प्रभावी : पारंपरिक मुकदमेबाजी की तुलना में वार्ता कम खर्चीली है और इसके लिए कम संसाधनों और कम समय की आवश्यकता होती है, क्योंकि पक्षकार स्वयं निर्णयकर्ता होते हैं, इसलिए, अतिरिक्त मुकदमेबाजी लागत से आसानी से बचा जा सकता है।
  5. रचनात्मकता और नवीनता : वार्ता एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें पक्षों की सक्रिय भागीदारी शामिल होती है और उन्हें विवाद के बारे में अधिक खुले तौर पर सोचने और अनुकूल विकल्प खोजने का अवसर मिलता है। यह पक्षों को अपरंपरागत विचार और समझौते बनाने की अनुमति देता है, जिसका वे कानूनी कार्यवाही के दौरान लाभ नहीं उठा सकते।
  6. गोपनीयता की चिंता : वार्ता से पक्षों को विवाद के बारे में अपने विचार साझा करने के लिए एक खुला मंच मिलता है, जिसमें तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप नहीं होता। अदालती कार्यवाही के विपरीत, वार्ता से पक्षों को अपनी गोपनीयता बनाए रखने की अनुमति मिलती है और इस तरह गोपनीयता भी बनी रहती है।

वार्ता के नुकसान

जबकि वार्ता से पक्षों को अपनी कई बातें और विचार साझा करने की आज़ादी मिलती है, लेकिन इसके कुछ नुकसान भी हैं। वार्ता के कुछ मुख्य नुकसान नीचे दिए गए हैं:

  1. असंतुलन : वार्ता चुनौतीपूर्ण हो सकती है क्योंकि इसमें स्वतंत्र इच्छा से काम करने वाले पक्ष शामिल होते हैं और इसलिए परिणाम में असंतुलन पैदा हो सकता है जिससे प्रभावशाली पक्षों को निर्णय लेने में दूसरे पक्ष पर हावी होने का मौका मिल सकता है। अधिक प्रभाव और जानकारी वाला पक्ष आसानी से परिणाम को प्रभावित कर सकता है जिससे अनुचित लाभ हो सकता है।
  2. वार्ता के दौरान असमानता : अधिक अनुभव और ज्ञान वाले पक्षों को अधिक लाभ होता है, जिसके परिणामस्वरूप एक पक्ष को कम अनुभव वाले पक्ष की तुलना में अनुचित लाभ प्राप्त होता है।
  3. प्रकृति में गैर-बाध्यकारी : यह प्रक्रिया प्रकृति में गैर-बाध्यकारी है, जिससे पक्षों के लिए व्यवस्थित तरीके से आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है। अंत में, यदि एक पक्ष अनुबंध का उल्लंघन करता है, तो दूसरे पक्ष के पास दूसरे को लागू करने के लिए सीमित संसाधन हो सकते हैं।
  4. अवांछित विवाद : वार्ता में पक्षकारों को आपसी समझौते के साथ विकल्प खोजने होते हैं, जिससे पक्षों के बीच अवांछित विवाद हो सकते हैं। एक तरफ, यह पक्षों के लिए रिश्ते को बनाए रखने के लिए अनुकूल है, दूसरी तरफ यह विवाद का कारण भी बन सकता है। 
  5. समय लेने वाली प्रकृति : यदि पक्षों को आपसी निष्कर्ष पर पहुंचने में कठिनाई हो रही हो तो वार्ता समय लेने वाली प्रकृति की हो सकती है।
  6. गतिरोध: यदि पक्षकार समय पर अपने मतभेदों को दूर करने में सक्षम नहीं होते हैं तो वार्ता गतिरोध पर पहुंच सकती है और जिसके परिणामस्वरूप मतभेद हो सकते हैं। इसके परिणामस्वरूप संचार अंतराल हो सकता है और पक्षकार समाधान तक पहुंचने से रोक सकते हैं
  7. हर मुद्दा वार्ता योग्य नहीं होता : कुछ मामलों में, पक्षों के लिए किसी निष्कर्ष पर पहुंचना बहुत मुश्किल होता है और ऐसे मामलों में न्यायालय की भागीदारी बहुत ज़रूरी होती है। पक्ष लाभ प्राप्त करने के लिए दूसरे पक्ष पर दबाव या प्रभाव का उपयोग कर सकते हैं, जिससे वार्ता प्रक्रिया की निष्पक्षता और अखंडता कमज़ोर हो जाती है।
  8. कानूनी अधिकारों का अभाव : वार्ता की प्रक्रिया अनौपचारिक होती है, जिससे पक्ष अनजाने में अपने कानूनी अधिकारों या हकों से समझौता कर सकते हैं। किसी भी कानूनी भागीदारी के बिना, एक पक्ष को दूसरे पर लाभ मिल सकता है और वह बिना किसी नतीजे के चक्कर लगाता रहेगा।

कुल मिलाकर, हम कह सकते हैं कि वार्ता विवादों को सुलझाने और बिना किसी वांछित हस्तक्षेप के असहमति तक पहुँचने के लिए एक मूल्यवान उपकरण है जिसका विवाद से कोई संबंध नहीं है। लेकिन यह पहचानना भी बहुत महत्वपूर्ण है कि इसमें कुछ सीमाएँ भी होनी चाहिए। पक्षों को सावधानी के साथ वार्ता करनी चाहिए और किसी भी विवाद के दौरान सावधान रहना चाहिए। 

संबंधित मामले

हर्ष गोपाल खंडेलवाल बनाम आरती खंडेलवाल 15 नवंबर, 2021

इस मामले में, अदालत ने दोनों पक्षों को इस शर्त पर वार्ता करने का सुझाव दिया कि उनके बीच कोई मतभेद नहीं होना चाहिए और शांतिपूर्वक आगे बढ़ना चाहिए। यह भी उल्लेख किया गया कि यदि वार्ता का कोई नतीजा नहीं निकलता है, तो पक्षों को लागू कानूनों के अनुसार आगे बढ़ना होगा।

मध्यस्थता और वार्ता के बीच अंतर

अंतर का आधार  मध्यस्थता  वार्ता
परिभाषा यह एक प्रकार की औपचारिक विवाद समाधान प्रक्रिया है, जिसमें मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थ नामक तीसरे पक्ष को शामिल किया जाता है। यह ए.डी.आर. का सबसे सरल रूप है, जिसमें किसी मामले के संबंध में पक्षों के बीच वार्ता किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के बिना की जाती है, जिसका एकमात्र उद्देश्य पारस्परिक रूप से स्वीकार्य वार्ता पर पहुंचना होता है।
विवाद की प्रकृति आमतौर पर, इस तरीके से सुलझाए गए विवाद औपचारिक प्रकृति के होते हैं और कार्यवाही का एक व्यवस्थित तरीका बनाते हैं, जिसमें पालन करने के लिए सभी दिशानिर्देश लिखे होते हैं। आम तौर पर, ये अनौपचारिक प्रकृति के होते हैं, जिससे पक्ष निर्णयकर्ता बन जाते हैं और अपनी इच्छानुसार काम करते हैं।
इस मामले में  निर्णयकर्ता इस मामले में निर्णय लेने वाला एक तीसरा पक्ष होता है जिसे मध्यस्थ के रूप में जाना जाता है। पक्ष खुद मध्यस्थ चुन सकते हैं, यह संगठन पर निर्भर करता है। विवाद में पक्षकार स्वयं ही बिना किसी तीसरे पक्ष की भागीदारी के वार्ता करते हैं। इसलिए, पक्षकार ही निर्णयकर्ता होते हैं।
बाध्यकारी या गैर-बाध्यकारी मध्यस्थ का निर्णय बाध्यकारी प्रकृति का होता है और पक्षकारों को इस प्रकार कार्य करना होता है मानो वह स्वयं न्यायालय द्वारा पारित किया गया हो।  इन विवादों में निर्णय सामान्यतः बाध्यकारी नहीं होता तथा यह पूरी तरह से पक्षों पर निर्भर करता है कि वे उस पर कार्रवाई करें या नहीं।  
मामले की गति  मध्यस्थता कार्यवाही में वार्ता की तुलना में अधिक समय लग सकता है, क्योंकि इसमें औपचारिक कार्यवाही शामिल होती है और समाधान में कई दिन लग जाते हैं। मध्यस्थता की तुलना में वार्ता अधिक तेज हो सकती है, क्योंकि पक्षकार अपनी सुविधानुसार सब कुछ निर्धारित कर सकते हैं।
व्यय मध्यस्थता प्रक्रिया, वार्ता प्रक्रिया की तुलना में अधिक महंगी हो सकती है और पक्षों को मध्यस्थ, कानूनी प्रतिनिधि आदि का खर्च वहन करना पड़ता है।  मध्यस्थता की तुलना में वार्ता कम खर्चीली होती है क्योंकि इसमें पक्षकार स्वयं ही मामले को सुलझा लेते हैं।

निष्कर्ष

निष्कर्ष के रूप में, वैकल्पिक विवाद समाधान विधियाँ मूल्यवान विकल्प प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के विकल्प प्रदान करती हैं और किसी भी विवाद को हल करने के लिए पारंपरिक मुकदमेबाजी से परे जाती हैं। ए.डी.आर. में मध्यस्थता, बिचवाई, वार्ता और सुलह जैसे विभिन्न तरीके शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक के अपने अलग-अलग फायदे हैं।

कुल मिलाकर, ए.डी.आर. विधियां विवादों को सुलझाने में दक्षता, लचीलापन, गोपनीयता और लागत-प्रभावशीलता को बढ़ावा देती हैं। यह एकमात्र ऐसी विधि है जिसमें पक्ष विवाद समाधान में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं और मामले पर पूरा नियंत्रण रखते हैं। इसके कई नुकसान भी हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है ताकि अधिक से अधिक लोग ए.डी.आर. की प्रक्रिया को अपनाएं। इससे न केवल लोगों को अपने विवादों को सुलझाने में मदद मिलेगी बल्कि चीजें आसान भी होंगी। ए.डी.आर. के बारे में जानकारी फैलाने के लिए ऐसे शिविरों को बढ़ावा देना सरकार की भी जिम्मेदारी है। मुख्य ध्यान खर्च पर होना चाहिए ताकि इस देश के सामान्य नागरिक भी ऐसी प्रक्रियाओं का लाभ उठा सकें और उन्हें समय पर न्याय मिल सके।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

मध्यस्थता क्या है?

मध्यस्थता ए.डी.आर. का एक तरीका है, जिसमें पक्षnमध्यस्थ की भागीदारी से अपने विवाद का समाधान करते हैं, जो पक्षों के बीच माध्यम के रूप में कार्य करता है।

क्या ए.डी.आर. मुकदमेबाजी से बेहतर है?

ए.डी.आर. एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें पक्षों को अपने हितों और विचारों को साझा करने की जगह मिलती है क्योंकि इसमें कोई तीसरा पक्ष शामिल नहीं होता है, जबकि मुकदमेबाजी के मामले में, पक्षों को अदालत के दिशा-निर्देशों का पालन करना होता है और कोई व्यक्तिगत राय नहीं ली जाती है जिससे यह अधिक समय लेने वाली हो जाती है। ए.डी.आर. के मामले में, पक्षों के पास मध्यस्थता, वार्ता, सुलह और बिचवाई के रूप में अपने विवाद को हल करने के लिए कई विकल्प होते हैं। मुकदमेबाजी की तुलना में ए.डी.आर. लागत प्रभावी और कम समय लेने वाला है।

मध्यस्थता कैसे काम करती है?

सबसे पहले, पक्षों को अपने विवाद को तीसरे पक्ष जिसे मध्यस्थ के रूप में जाना जाता है के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। तदनुसार, सभी साक्ष्य और तर्क प्रस्तुत करने के बाद, मध्यस्थ एक निर्णय देता है जिसे अक्सर मध्यस्थ पंचाट कहा जाता है।

किस प्रकार के विवाद मध्यस्थता के अंतर्गत आते हैं?

मध्यस्थता वाणिज्यिक प्रकृति के विवादों से लेकर श्रम विवादों और संपत्ति एवं विवाह से संबंधित घरेलू विवादों तक विभिन्न प्रकार के विवादों के लिए उपयुक्त है।

संदर्भ

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