धर्मेंद्र कुमार बनाम उषा कुमार (1977) 

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यह लेख Shilpi द्वारा लिखा गया है। इस लेख में धर्मेंद्र कुमार बनाम उषा कुमार (1977) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निष्कर्षों और निर्णय का विस्तृत विश्लेषण है। लेख आज के परिदृश्य में वैवाहिक संस्थाओं के महत्व पर और विस्तार से प्रकाश डालता है और विवाह विच्छेद (डिसोल्यूशन) की मांग करने में कानून की स्थिति को आकार देने में न्यायालय के निर्णय का एक महत्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जहां पक्ष वैवाहिक अधिकारों की बहाली के आदेश का पालन करने में विफल रहते हैं। इसके अलावा, यह लेख इस विवादास्पद मुद्दे पर चर्चा करता है कि क्या विवाह का कोई पक्ष अपने स्वयं के गलत होने का लाभ उठाकर तलाक के लिए अर्जी दे सकता है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

विवाह दो आत्माओं का मिलन है। एक पुरुष और एक महिला विवाह सूत्र में बंधते हैं और अपना शेष जीवन एक साथ बिताते हैं। यह वैवाहिक संबंध जोड़ों के लिए व्यक्तिगत और संयुक्त रूप से कुछ अधिकारों और दायित्वों को जन्म देता है। इन अधिकारों और दायित्वों को ‘वैवाहिक अधिकार’ कहा जाता है।

रिश्तों की गतिशीलता समय के साथ विकसित होती रहती है। जबकि एक विवाहित जोड़ा अपनी यात्रा को सुखद तरीके से शुरू कर सकता है, समय के साथ चीजें कड़वी हो सकती हैं। कुछ जोड़े समय की कसौटी पर खरे उतरते हैं और पहले से कहीं अधिक मजबूत होकर उभरते हैं। ये जोड़े खुद को एक इकाई के रूप में देखते हैं और अपने अहंकार को अलग रखते हैं। हालाँकि, हर कोई इस दृष्टिकोण को साझा नहीं करता है। कुछ जोड़े परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी होने देते हैं और उतार-चढ़ाव के समुद्र में एक-दूसरे के लिए अपना प्यार और सम्मान खो देते हैं। एक इकाई के बजाय, वे एक-दूसरे के लिए प्रतिस्पर्धा बन जाते हैं। समय के साथ, वे विवाह विच्छेद के बाद अलग होने और नए सिरे से शुरुआत करने का विकल्प चुनते हैं।

जब पति-पत्नी में से किसी को भी लगता है कि वे अपने वैवाहिक अधिकारों से वंचित हैं, तो वे क्षतिपूर्ति के लिए न्यायालय जा सकते हैं। न्यायालय के आदेश का पालन करने के बाद भी, पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ खुश नहीं रह पाते। तलाक की संभावना हमेशा बनी रहती है। 

जब एक पति या पत्नी विवाह को समाप्त करने का विकल्प चुनता है, तो दूसरा व्यक्ति गलत या परित्यक्त महसूस कर सकता है। दूसरा व्यक्ति यह कह सकता है कि दूसरा विवाह को तलाक के कगार से बचाने के लिए आवश्यक प्रयासों को पूरा करने में विफल रहा। इस लेख का उद्देश्य वैवाहिक अधिकारों की बहाली और तलाक से संबंधित एक ऐसे ऐतिहासिक मामले पर चर्चा करना है, जिसमें न्यायालय ने विवाह को समाप्त करने के पक्ष के अधिकार के दायरे पर तभी चर्चा की है, जब उन्होंने उसके गलत होने का फायदा नहीं उठाया हो और दूसरे पक्ष को उसके वैवाहिक अधिकारों से वंचित न किया हो।

मामले का विवरण

मामले के मूल विवरण निम्नलिखित हैं:

न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय

याचिकाकर्ता: धर्मेंद्र कुमार

उत्तरदाता: उषा कुमार

केस संख्या: सिविल अपील संख्या 949/1977

उद्धरण (साईटेशन): (1977) 4 एससीसी 12

पीठ: न्यायमूर्ति ए.सी. गुप्ता और न्यायमूर्ति एस. मुर्तजा फजल अली

निर्णय की तिथि: 19.08.1977

प्रासंगिक अधिनियम: हिंदू विवाह अधिनियम, 1955

अधिनियम की प्रासंगिक धारा(एँ): हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धाराएँ 9 , 13(1A)(ii) , और  23(1)(a)

याचिका की प्रकृति: एफएओ 170/1976 के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के दिनांक 19.10.1976 के निर्णय और आदेश से उत्पन्न विशेष अनुमति याचिका।

मामले की पृष्ठभूमि 

धर्मेंद्र कुमार बनाम उषा कुमार (1977) का मामला मुख्य रूप से हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (जिसे आगे “अधिनियम” कहा जाएगा) की धारा 23(1)(a) में प्रयुक्त वाक्यांश ‘ अपनी गलती का फायदा उठाना ‘ पर प्रकाश डालता है। इस मामले में, प्रतिवादी के पक्ष में वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक डिक्री दी गई थी। हालांकि, वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री दिए जाने की तारीख से 2 साल की समाप्ति के बाद, प्रतिवादी ने तलाक के माध्यम से पक्षों के बीच विवाह को भंग करने के लिए अधिनियम की धारा 13(1A)(ii) के तहत एक याचिका दायर की। याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी द्वारा दायर तलाक की याचिका के खिलाफ आपत्ति जताई। 

धर्मेंद्र कुमार बनाम उषा कुमार एआईआर (1977) के तथ्य 

प्रतिवादी ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए दिल्ली के अतिरिक्त वरिष्ठ उप-न्यायाधीश के समक्ष अधिनियम की धारा 9 के तहत एक याचिका दायर की। न्यायालय ने 27.08.1973 को प्रतिवादी के पक्ष में वैवाहिक अधिकारों की बहाली का आदेश दिया। 28.10.1975 को प्रतिवादी ने तलाक के आदेश के माध्यम से पक्षों के बीच विवाह को विच्छेद करने के लिए अधिनियम की धारा 13(1A)(ii) के तहत एक याचिका शुरू की। तलाक की याचिका के जवाब में, याचिकाकर्ता ने अपने लिखित बयान में इस तथ्य को स्वीकार किया कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के आदेश को पारित करने के बाद भी, पक्षों के बीच कोई वैवाहिक अधिकार बहाल नहीं हुआ है। हालांकि, याचिकाकर्ता ने कहा कि उसने प्रतिवादी को कई पंजीकृत पत्र लिखकर और प्रतिवादी को उसके साथ रहने के लिए आमंत्रित करके वैवाहिक अधिकारों की बहाली के आदेश का पालन करने के लिए कदम उठाए हैं। 

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री का पालन करने के लिए उनके द्वारा उठाए गए कदमों के बावजूद, प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता द्वारा उसे लिखे गए कुछ पत्रों को प्राप्त करने से इनकार कर दिया, और जब उसे कुछ पत्र मिले भी, तो उसने उनका जवाब नहीं दिया। इसलिए, याचिकाकर्ता के अनुसार, वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री का पालन करने में विफलता के लिए प्रतिवादी ही जिम्मेदार है। याचिकाकर्ता ने कहा कि प्रतिवादी अब ‘अपनी गलती से लाभ उठाने l’ की कोशिश कर रहा है। 

धर्मेंद्र कुमार बनाम उषा कुमार एआईआर (1977) के प्रासंगिक प्रावधान

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9

एक पुरुष और एक महिला के बीच विवाह में, यदि कोई भी पति या पत्नी दूसरे पति या पत्नी के जीवन से अलग हो जाता है, उनके दुख और खुशी में भाग लेने से इनकार कर देता है, या अपने कार्यों के लिए कोई वैध कारण बताए बिना दूसरे पति या पत्नी के साथ अपना जीवन साझा करना बंद कर देता है, तो दूसरे पति या पत्नी को वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए जिला न्यायालय के समक्ष उपाय करने का अधिकार है। यह अधिनियम की धारा 9 के तहत प्रदान किया गया है। 

जब न्यायालय यह निर्धारित कर लेता है कि याचिकाकर्ता को अनुरोधित उपचार प्रदान करने में कोई वैध कारण या कानूनी बाधा नहीं है, तो वह वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक आदेश पारित करता है, जिसका विवाह के दोनों पक्षों को पालन करना होता है।  

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1A)(ii)

जब न्यायिक पृथक्करण के आदेश जारी होने के दिन से एक वर्ष तक पति-पत्नी के बीच सहवास पुनः शुरू नहीं होता है, तो पति-पत्नी में से किसी एक को तलाक के लिए आवेदन करने तथा विवाह विच्छेद की मांग करने का विकल्प प्राप्त होता है।

इस धारा के संदर्भ में, ‘सहवास की बहाली’ का तात्पर्य पति-पत्नी के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों के अस्तित्व से है, जिसमें वे एक ही छत के नीचे एक साथ रह रहे हैं। यदि न्यायालय को लगता है कि अधिनियम की धारा 23 के अनुसार वादी को तलाक लेने से कोई नहीं रोकता है, तो न्यायालय अधिनियम की धारा 13(1A) के तहत तलाक को मंजूरी दे देगा।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 23(1)(a)

हिंदू कानून के तहत एक विवाहित व्यक्ति को विभिन्न आधारों पर तलाक के लिए आवेदन करने का अधिकार है। हालांकि, यह सुनिश्चित करने के लिए कि यह कदम जल्दबाजी में या दूसरे पति या पत्नी को परेशानी और चोट पहुंचाने की कीमत पर व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं उठाया जाता है, अधिनियम की धारा 23 दूसरे पक्ष के अधिकारों की रक्षा करती है और अदालतों को कई आधारों पर याचिकाकर्ता को वैवाहिक राहत देने से रोकती है। 

अधिनियम की धारा 23 की उपधारा (1) के खंड (a) में कहा गया है कि जब याचिकाकर्ता खुद ऐसी परिस्थितियाँ बनाने का दोषी होता है जहाँ प्रतिवादी याचिकाकर्ता के व्यवहार या गतिविधियों के प्रति उकसावे या प्रतिक्रिया में काम करता है, तो याचिकाकर्ता प्रतिवादी को नकारात्मक रूप में चित्रित नहीं कर सकता है और खुद को निर्दोष नहीं बता सकता है। इस स्थिति में, याचिकाकर्ता प्रतिवादी को दोषी ठहराकर और अपने फायदे के लिए तथ्यों को चुन-चुनकर पेश करके तलाक के लिए अर्जी नहीं दे सकता है, जो वैवाहिक राहत की मांग कर रहा है। उदाहरण के लिए, यदि कोई पति नशे की हालत में अपनी पत्नी को नियमित रूप से पीटता है और एक दिन पत्नी उसके साथ एक ही छत के नीचे रहना जारी रखने से इनकार कर देती है और अपना सामान लेकर चली जाती है, तो पति इस स्थिति में तलाक के लिए अर्जी नहीं दे सकता क्योंकि उसका व्यवहार और गतिविधियाँ पत्नी के कार्यों के लिए जिम्मेदार थीं। वह अपनी पत्नी की प्रतिक्रिया का फायदा नहीं उठा सकता है और वैवाहिक राहत के लिए अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा सकता है जबकि उसके खुद के हाथ साफ नहीं हैं।  

उठाया गया मुद्दा 

पक्षों के बीच विवाद के निपटारे के लिए न्यायालय ने निम्नलिखित मुद्दा तैयार किया:

  • क्या प्रतिवादी द्वारा अपने पति के बहाली के प्रयासों का अनुपालन करने से इंकार करना तथा तलाक के लिए आवेदन करना अधिनियम की धारा 23 के अंतर्गत उसकी अपनी गलती का लाभ उठाने के समान है?

पक्षों के तर्क

अपीलकर्ता  

अपीलकर्ता ने कहा है कि उसने अपने विवाह को बचाने और न्यायालय के निर्णय के अनुसार वैवाहिक अधिकारों की बहाली का अनुपालन करने के लिए निर्णय की तिथि से दो वर्षों तक बहुत प्रयास किए। उसने प्रतिवादी को कई पंजीकृत पत्र लिखे, जिसमें उसने अनुरोध किया कि वह उसके साथ आकर रहे और विवाह को बचाए। हालाँकि, प्रतिवादी ने कभी भी उसके साथ एक ही छत के नीचे रहने और न्यायालय के निर्णय का अनुपालन करने के उसके निमंत्रण को स्वीकार करके उसके प्रयासों का प्रतिदान नहीं किया। इसके अलावा, उसने न केवल उसके अनुरोध को अनदेखा किया, बल्कि उसने उसके द्वारा भेजे गए कुछ पंजीकृत पत्रों को प्राप्त करने से भी इनकार कर दिया। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी ने स्वयं वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए प्रयास नहीं किया और अब तलाक के लिए अर्जी देकर विवाह विच्छेद की मांग करके अपने स्वयं के गलत काम का लाभ उठाना चाहता है। 

प्रतिवादी  

हालांकि निर्णय में इस मामले में प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत किसी तर्क का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, प्रतिवादी यह कह सकता था कि पति-पत्नी को वैवाहिक अधिकारों की बहाली के आदेश की तारीख से दो वर्ष की अवधि तक वैवाहिक अधिकारों की बहाली का अधिकार नहीं है। 

धर्मेंद्र कुमार बनाम उषा कुमार एआईआर (1977) में निर्णय

मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार कानून के आवेदन के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री का अनुपालन न करना अधिनियम की धारा 23(1)(a) के अनुसार गलत नहीं माना जाता है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 23(1)(a) के तहत किसी कार्य को ‘गलत’ मानने के लिए, उस कार्य में केवल सुलह या पुनर्मिलन के प्रयास की कमी से परे जाना चाहिए। यह कार्य गंभीर प्रकृति का होना चाहिए जो पक्षों को उनके वैवाहिक दायित्वों को निभाने से महत्वपूर्ण रूप से वंचित करता हो। ऐसी चूक ऐसी प्रकृति की होनी चाहिए कि यह पक्षों को अधिनियम के तहत दी गई राहत का दावा करने का अधिकार दे। अधिनियम की धारा 13 (1A)(ii) के तहत, पक्ष अपनी गलती का लाभ नहीं उठा रहा है बल्कि कानूनी अधिकार का लाभ उठा रहा है।

न्यायालय ने माना कि भले ही अपीलकर्ता द्वारा लगाया गया आरोप सत्य हो, अर्थात प्रतिवादी ने अपीलकर्ता द्वारा लिखे गए पत्रों को प्राप्त करने या उनका उत्तर देने से इनकार किया हो, यह अधिनियम की धारा 23(1)(a) के अनुसार कदाचार नहीं है। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि चूंकि प्रतिवादी का कार्य कदाचार नहीं है, इसलिए वह अपने द्वारा दावा की गई राहत, अर्थात तलाक के माध्यम से पक्षों के बीच विवाह विच्छेद की हकदार है। 

धर्मेंद्र कुमार बनाम उषा कुमार एआईआर (1977) का विश्लेषण 

यदि कोई पक्ष अपने स्वयं के ‘गलत’ का लाभ उठाता है तो वह धारा 23(1) के तहत वैवाहिक राहत नहीं मांग सकता है। यह कानून का एक स्थापित सिद्धांत है कि कोई एक ही समय में गर्म और ठंडा नहीं हो सकता है। काफी हद तक महत्व रखने के बावजूद, ‘गलत’ शब्द को अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है। किसी चीज़ को परिभाषित करने का कार्य उसके अनुप्रयोग के दायरे को सीमित करने की क्षमता रखता है, जो कुछ परिस्थितियों में अन्याय का कारण भी बन सकता है। ‘गलत’ का अर्थ देने का कार्य न्यायपालिका को सौंपा गया है। इसके बाद से, विभिन्न न्यायालयों ने किसी विशिष्ट मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार किसी कार्य को ‘गलत’ के रूप में परिभाषित किया है। 

एम. सोमेश्वर बनाम लीलावती (1968) के मामले में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 23(1)(a) न्यायालय को अधिनियम के तहत प्रदान की गई राहत तभी देने का अधिकार देती है जब न्यायालय को यह विश्वास हो कि याचिकाकर्ता ने किसी भी तरह से अपने गलत काम का फायदा नहीं उठाया है। वर्तमान मामले में, पत्नी अपने वैवाहिक दायित्वों को निभाने के लिए तैयार थी; हालाँकि, पति ने सहवास को फिर से शुरू करने से इनकार कर दिया और अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार भी किया। इसलिए, न्यायालय ने पति के पक्ष में तलाक की राहत देने से इनकार कर दिया। 

इसी तरह, गीता लक्ष्मी बनाम जीवीआरके सर्वेश्वर राव (1982) के मामले में, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि पति के पक्ष में भरण-पोषण का आदेश पारित होने के बाद भी पति ने अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार किया। पति ने अपनी पत्नी को घर से भी निकाल दिया। वर्तमान तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने पति की अपनी गलती को देखते हुए उसे तलाक का आदेश देने से इनकार कर दिया।

अधिनियम की धारा 23(1)(a) के अनुसार पुनर्मिलन की पेशकश करने में अनिच्छा को ‘गलत’ नहीं माना जाना चाहिए। टी. सरिता बनाम टी. वेंकट सुब्बैया (1983) के मामले में, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली देने वाला न्यायालय का आदेश निजता और किसी व्यक्ति के अंतरंग निर्णय लेने के अधिकार पर आक्रमण है। 

इसलिए, दो अनिच्छुक पक्षों को उनके वैवाहिक अधिकारों को जारी रखने के लिए मजबूर करना एक ऐसे विवाह को बहाल करने का एक निरर्थक प्रयास होगा जो पूरी तरह से टूट चुका है। इसलिए, अधिनियम की धारा 23(1)(a) के अनुसार एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को भेजे गए पत्रों का जवाब न देने या प्राप्त न करने के कार्य को ‘गलत’ न मानने का न्यायालय का निर्णय एक तार्किक निष्कर्ष है। 

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1A)(ii) सहपठित 23(1)(a) का विश्लेषण

अधिनियम की धारा 13(1A) को 1964 के संशोधन अधिनियम 44 द्वारा जोड़ा गया था। संशोधन के शामिल होने के बाद, अधिनियम की धारा 13(1A)(ii) में प्रावधान है कि विवाह के किसी भी पक्ष के पास तलाक की डिक्री द्वारा विवाह विच्छेद के लिए याचिका दायर करने का विकल्प है, यदि किसी कार्यवाही में न्यायालय द्वारा वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री पारित की गई है और पक्ष उस डिक्री के पारित होने के दो साल के भीतर डिक्री का पालन करने में विफल रहे हैं। हालाँकि, 1976 के संशोधन अधिनियम 68 के तहत 2 साल की समय अवधि को घटाकर 1 साल कर दिया गया था। इस धारा के तहत तलाक के लिए याचिका दायर करने का अधिकार पति और पत्नी दोनों को उपलब्ध है। 

चमन लाल चुनी लाल बनाम श्रीमती मोहिंदर देवी (1967) के मामले में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने माना कि पत्नी ने पति के खिलाफ वैवाहिक अधिकारों की बहाली का फैसला प्राप्त किया था; हालांकि, पति तलाक के लिए याचिका दायर करने के लिए उच्च न्यायालय चला गया। न्यायालय ने माना कि यह साबित करना पति का दायित्व था कि उसने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के फैसले का पालन करने के लिए कदम उठाए।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने राम कली बनाम गोपाल दास (1971) के मामले में अधिनियम की धारा 13 में संशोधन के पीछे के उद्देश्य पर चर्चा की। न्यायालय ने निर्धारित किया कि धारा 13(1A) को शामिल करने के पीछे मूल कारण यह है कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री पारित होने की तिथि से 2 वर्ष की समाप्ति के बाद भी, यदि पक्ष सहवास को फिर से शुरू करने या वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री का पालन करने में विफल रहे हैं, तो न्यायालय को यह मान लेना चाहिए कि पक्षों के बीच विवाह पूरी तरह से टूट चुका है, और इसलिए, सुलह की कोई गुंजाइश नहीं है। सुलह की किसी भी संभावना के अभाव में, न्यायालय तलाक द्वारा विवाह के विघटन के लिए डिक्री पारित कर सकता है। अधिनियमित प्रावधान पक्षों को ऐसे रिश्ते को जारी रखने के लिए मजबूर न करने की आधुनिक प्रथा के अनुरूप है जो पूरी तरह से टूट चुका है।

अधिनियम की धारा 13(1A)(ii) के तहत तलाक देने की अदालत की शक्ति अधिनियम की धारा 23(1)(a) के तहत निर्धारित प्रावधानों के अधीन है। अधिनियम की धारा 23(1)(a) में प्रावधान है कि धारा 13(1A)(ii) के तहत याचिका दायर करते समय याचिकाकर्ता अपनी गलती का फायदा नहीं उठा सकता। अधिनियम की धारा 23(1)(a) के तहत निर्धारित नियम की व्याख्या करते हुए, दिल्ली उच्च न्यायालय ने श्रीमती गजना देवी बनाम पुरुषोत्तम गिरि (1976) के मामले में माना कि अधिनियम की धारा 23(1)(a) के तहत निर्धारित नियम, अधिनियम की धारा 13(1A) के तहत दिए गए तलाक प्राप्त करने के लिए पक्ष को उपलब्ध वैधानिक अधिकार पर लागू नहीं होता है। 

सुशील कुमारी डांग बनाम प्रेम कुमार डांग (1976) के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह माना कि पति ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए याचिका दायर की, जबकि साथ ही उसने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी व्यभिचारी संबंध में थी। यह माना गया कि इस तरह के विरोधाभास का तथ्य ही साबित करता है कि याचिकाकर्ता द्वारा दायर याचिका सद्भावपूर्ण नहीं है, और इसलिए, न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता अधिनियम की धारा 23(1) के अनुसार दावा किए गए उपाय का हकदार नहीं है।

गुजरात उच्च न्यायालय ने अनिल जयंतीलाल व्यास बनाम वाई. सुधाबेन (1977) के मामले में माना कि पत्नी द्वारा प्राप्त दाम्पत्य अधिकारों की बहाली के आदेश का पालन करने में पति की चूक मात्र से यह स्वतः नहीं माना जाता कि उसने अपनी गलती का फायदा उठाया है, जिससे वह तलाक की राहत मांगने के अधिकार से वंचित हो गया है। 

मीरा बाई बनाम रवींद्र कुमार सोबती (1985) के मामले में, पति ने अपनी पत्नी को तलाक दिए बिना उसके जीवनकाल में ही दूसरी शादी कर ली। पत्नी ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए याचिका दायर की; हालाँकि, पति ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की। न्यायालय ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री प्रदान की। पति वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री का पालन करने में विफल रहा क्योंकि उसका याचिकाकर्ता के साथ रहने का कोई इरादा नहीं था। इसके बाद, पति ने तलाक के लिए डिक्री के माध्यम से विवाह विच्छेद के लिए अधिनियम की धारा 13 (1A) के तहत याचिका दायर की। दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि पति द्वारा अधिनियम की धारा 13 (1A) के तहत तलाक दायर करने की योजना बनाते समय पत्नी को वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री प्राप्त करने देने का इरादा स्पष्ट रूप से पति की ओर से गलत साबित होता है।

टी. श्रीनिवासन बनाम टी. वरलक्ष्मी (श्रीमती) (1998) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री प्राप्त करने का पति का इरादा अपनी पत्नी को उसके वैवाहिक अधिकारों का पालन करने के अधिकारों से दूर रखना था, न कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री के अनुरूप कार्य करना। पत्नी ने अपने पति से मांग की कि वह उसे फिर से अपने साथ रहने दे; हालाँकि, उसने उसे घर में प्रवेश करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। उसने उसके रिश्तेदारों और अन्य लोगों को भी भगा दिया, जिन्होंने पत्नी का पुनर्वास करने की कोशिश की। न्यायालय ने माना कि पति के ये कार्य “दुराचार” के बराबर हैं, जिसे अधिनियम की धारा 23(1)(a) के प्रावधान के अनुसार माफ नहीं किया जा सकता है।

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने श्रीमती आशा एन. बनाम श्री एस. विनय (2023) के मामले में पाया कि याचिकाकर्ता (पति) ने ऐसे कदम उठाए जिससे पत्नी के लिए वैवाहिक जीवन की बहाली असंभव हो गई और इसलिए वह एक कर्तव्यनिष्ठ पति के रूप में कार्य करने में विफल रहा। इसलिए पति का यह कृत्य अधिनियम की धारा 23(1)(a) के तहत दिए गए ‘गलत’ शब्द के अंतर्गत आता है। चूंकि वह अधिनियम की धारा 23(1)(a) के तहत दोषी है, इसलिए वह अधिनियम की धारा 13(1A)(ii) के तहत तलाक द्वारा विवाह विच्छेद के आदेश के लिए अयोग्य है। 

नित्यानंद कर्मी बनाम कुम कुम कर्मी (2002) के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह प्रावधान किया था कि अधिनियम की धारा 13(1A) और 23(1) के प्रावधानों की व्याख्या और अनुप्रयोग करते समय न्यायालय को सामंजस्यपूर्ण निर्माण के सिद्धांत को ध्यान में रखना चाहिए।

निष्कर्ष 

हिंदू कानून और भारतीय न्यायिक प्रणाली विवाह को एक सामाजिक संस्था मानती है। उनकी नज़र में, विवाह के ताने-बाने को अंतिम उपाय तक नहीं रोका जाना चाहिए। न्यायालय अलग-थलग या झगड़ रहे जोड़ों के बीच सुलह कराने की पूरी कोशिश करता है और उन्हें अपने मतभेदों को दूर करके अपने विवाद को सुलझाने और अपने विवाहित जीवन को फिर से शुरू करने के लिए एक विस्तारित अवधि देता है। हालाँकि, जब विवाह पूरी तरह से टूट चुका हो और सुलह की कोई गुंजाइश न हो, तो दो व्यक्तियों को एक साझा घर में साथ रहने के लिए मजबूर करना अन्याय है, जबकि उनके बीच बहुत सारे मतभेद हैं। 

ऐसी ही स्थितियों में न्यायालय तलाक देने और विवाह विच्छेद की अनुमति देने का विकल्प चुनता है। लेकिन यह राहत ऐसे ही नहीं दी जाती। न्यायालय ने अधिनियम की धारा 23 पर ध्यान दिया, जो हिंदू दम्पतियों को वैवाहिक राहत देने के लिए प्रतिबंधों की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। इसके अंतर्गत, ‘याचिकाकर्ता द्वारा किए गए गलत कार्य का लाभ उठाने’ का दायरा यह सुनिश्चित करने में सहायक सिद्ध होता है कि याचिकाकर्ता प्रतिवादी पर उन कार्यों या परिस्थितियों का आरोप लगाकर स्वार्थी कारणों से राहत नहीं मांग रहा है, जिनके लिए याचिकाकर्ता मुख्य रूप से जिम्मेदार है। इस धारा के अंतर्गत ‘गलत’ का दायरा प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार निर्धारित किया जाना है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

वैवाहिक अधिकारों का क्या अर्थ है?

जब दो लोग एक दूसरे से शादी करते हैं, तो उन्हें एक साथ रहना चाहिए और जीवनसाथी के रूप में कुछ अधिकारों और दायित्वों का आनंद लेना चाहिए। ये अधिकार इस प्रकार हैं:

  1. एक दूसरे के जीवन का हिस्सा बनने का अधिकार और एक साझा स्थान जहाँ एक पति या पत्नी शादी के बाद एकाकी जीवन न जिए जैसा कि उसने अपने कुंवारेपन में किया था। पति-पत्नी एक दूसरे के समाज का हिस्सा हैं, और कोई भी अपनी मर्जी और पसंद के अनुसार दूसरे को नहीं छोड़ सकता। शादी से शुरू होने वाला जीवन साझा यात्राओं और जिम्मेदारियों का होता है।
  2. पति-पत्नी के रूप में सहवास करने का अधिकार तथा किसी भी अनुचित कारण से दूसरे को इस अधिकार से वंचित न करना।

इन अधिकारों को वैवाहिक अधिकार के रूप में जाना जाता है। 

वैवाहिक अधिकारों की बहाली का क्या अर्थ है?

वैवाहिक अधिकारों की बहाली से तात्पर्य विवाहित जोड़े के लिए एक उपाय से है, जहाँ वे एक निर्धारित अवधि के लिए अलग रह रहे हैं और एक पति या पत्नी दूसरे के जीवन से दूर हो गया है। एक विवाहित जोड़े के रूप में उनके द्वारा दूसरे के समाज से खुद को अलग करने से पहले प्राप्त अधिकारों की बहाली को वैवाहिक अधिकारों की बहाली कहा जाता है। 

हिंदू कानून के तहत कौन सा कानून वैवाहिक अधिकारों की बहाली का प्रावधान करता है?

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 हिंदू कानून के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली का प्रावधान करती है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के अंतर्गत राहत पाने के लिए आवश्यक तत्व क्या हैं?

वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए आवेदन करने वाले जोड़े को कानूनी रूप से एक दूसरे से विवाहित होना चाहिए। उनमें से एक को खुद को अलग कर लेना चाहिए या दूसरे के समाज से खुद को अलग कर लेना चाहिए। इस तरह की वापसी का कोई उचित कारण नहीं होना चाहिए। याचिकाकर्ता को अदालत की संतुष्टि के लिए यह साबित करना होगा कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली प्रदान करने वाले ऐसे आदेश को अस्वीकार करने के लिए कानून के अनुसार कोई वैध कारण नहीं है।

जब वैवाहिक अधिकारों की बहाली का आदेश पारित किया जाता है तो क्या होता है?

एक बार जब न्यायालय किसी जोड़े के लिए वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए आदेश पारित कर देता है, तो प्रतिवादी याचिकाकर्ता के समाज से अलग होना बंद कर देता है और जोड़े के रूप में उन अधिकारों का आनंद लेना शुरू कर देता है जो विवाह के तुरंत बाद पक्षों को प्राप्त थे। उन्हें एक साथ रहना चाहिए और सहवास करना चाहिए।

यदि पक्ष वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए न्यायालय के आदेश का आदेश की तिथि से एक वर्ष तक अनुपालन करने में विफल रहते हैं, तो कोई भी पक्ष विवाह विच्छेद हेतु तलाक की अर्जी दाखिल कर सकता है।

भारत में हिंदू दम्पतियों के लिए तलाक के क्या आधार हैं जिन्हें विवाह के किसी भी पक्ष द्वारा दायर किया जा सकता है?

हिंदू दम्पतियों के लिए तलाक के आधार, जो पति और पत्नी दोनों द्वारा दायर किए जा सकते हैं, निम्नलिखित हैं:

  1. व्यभिचार
  2. क्रूरता
  3. परित्याग
  4. दूसरे धर्म में धर्मांतरण
  5. मानसिक विकार
  6. संक्रामक रोग 
  7. संसार का त्याग
  8. मृत्यु की धारणा
  9. मानसिक अस्वस्थता

अधिनियम की धारा 23(1)(a) के अनुसार कौन सा कार्य ‘गलत’ नहीं माना जाएगा?

न्यायिक उदाहरणों के अनुसार, किसी पक्ष की निम्नलिखित कार्रवाइयाँ अधिनियम की धारा 23(1)(ए) के अनुसार ‘गलत’ नहीं मानी जाएँगी:

संदर्भ

 

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