यह लेख सिंबायोसिस लॉ स्कूल, पुणे की छात्रा Namrata kandankovi ने लिखा है। इस लेख में लेखक ने धारा 377 के कॉन्सेप्ट पर चर्चा की है, भारत में इसके इंप्लिकेशंस, धारा 377 पर कोर्ट के फैसले और उसी के संबंध में विभिन्न पब्लिक फिगर्स के रुख (स्टेंस) पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Archana Chaudhary द्वारा किया गया है।
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धारा 377 क्या है?
इंडियन पीनल कोड की धारा 377, 157 साल पुराना कोलोनियल कानून है, जिसने भारत में होमो-सेक्शुएलिटी को क्रिमिनलाइज कर दिया था। 1864 में जब भारत ब्रिटिश कोलोनियल प्रणाली द्वारा शासित था, तब यह धारा पेश की गई थी। धारा 377 के संबंध में किए गए अपराध ‘अननेचुरल ऑफेंस’ के तहत आते हैं। धारा 377 में कहा गया है- जो कोई भी पुरुष, महिला या जानवर के साथ अपनी इच्छा से कार्नल इंटरकोर्स करता है और जो प्रकृति के खिलाफ जाता है, तो वह आईपीसी की धारा 377 के तहत क्रिमिनल अपराध के लिए उत्तरदायी (लायबल) होगा।
अपराध के कमीशन के लिए आईपीसी की धारा 377 के तहत 10 साल कारावास की सजा या आजीवन कारावास या अपराधी को जुर्माना देने के लिए उत्तरदायी बनाया जा सकता है। इस विशेष क़ानून ने सारे कार्नल और ओरल सेक्स को क्रिमिनलाइज कर दिया और जो समुदाय (कम्युनिटी) इस नियम के इंप्लिकेशंस से काफी हद तक एफेक्ट हुए, वह सेम-सेक्स संबंध बनाने वाले समुदाय में से एक थे। इसके अलावा, विभिन्न मानवाधिकार (ह्यूमन राइट्स) समूहों ने दावा किया कि पुलिस ने इस धारा का इस्तेमाल एलजीबीटी समुदाय के सदस्यों को परेशान और अब्यूज करने के लिए किया है।
यह कैसे घटित हुआ (हाउ डिड इट कम एबाउट)?
यह कहा जा सकता है कि जो कोई भी एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों की वापसी के लिए कैंपेनिंग कर रहे थे उन सब के लिए यह सच में एक पीड़ा भरा रास्ता रहा है। वर्ष 2001 से एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों को मान्यता देने के लिए लड़ाई की जा रही थी, यह सरकार और कोर्ट के बीच की लड़ाई थी और यह गाथा वर्ष 2009 तक चलती रही। आखिरकार वर्ष 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने होमो-सेक्शुएलिटी को डिक्रिमिनालाइज करने के पक्ष में फैसला सुनाया और इसने नाज़ फाउंडेशन बनाम गवर्नमेंट ऑफ दिल्ली एनसीटी ऑफ इंडिया के मामले में वर्षों से चलते आ रहे कानून को खत्म कर दिया। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि आईपीसी की धारा 377, संविधान के आर्टिकल 14,15 और 21 के तहत नागरिकों को प्रदान किए गए अधिकारों के खिलाफ है।
दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले का, विभिन्न मानवाधिकार समूहों द्वारा स्वागत किया गया और उनके द्वारा सही ठहराया गया और इसे प्रोग्रेसिव माना गया क्योंकि यह समाज के बदलते विचारों के अनुरूप था और इसके अलावा, इसने 8 साल पुराने गे-अधिकारों एक्टिविस्ट की लड़ाई का अंत किया। लेकिन, दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के बाद घटनाओं के रूप में और मामले सामने आए, राजनीतिक शक्ति की मदद से कई सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक समूहों ने अपना विरोध जताया जो दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ था और इस आधार पर उनके दावे का समर्थन करते हुए कि होमो-सेक्शुएलिटी भारतीय एथिक्स के नॉर्म्स और संस्कृति के खिलाफ है और इसलिए इसे रद्द कर देना चहिए। इन सभी घटनाक्रमों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के पिछले फैसले को रद्द कर दिया कर दिया और आगे होमो-सेक्शुएलिटी को एक क्रिमिनल अपराध बना दिया।
यह जून 2018 में था कि कोर्ट ने मामले में विभिन्न पिटीशन के बाद फिर से उस मामले पर विचार करने की सोचा, जिसमें जैसे प्रमुख व्यक्ति शामिल थे, जिन्हें कोर्ट से सुनवाई की जरूरत थी। इसके बाद जुलाई 2018 में, नवतेज सिंह जौहर और 4 अन्य ने मामले में पिटिशन दायर की जिसकी सुनवाई 5-जज की संवैधानिक बेंच द्वारा की गई थी। मामले की वैधता (वैलिडिटी) तय करने का पूरा भार कोर्ट पर डाला गया था और कोर्ट के फैसले को अंतिम माना जाएगा और कोर्ट के पास उस मामले के अंतिम फैसले को पलटने (रिवर्स) का पूरा अधिकार था।
अंत में 6 सितंबर, 2018 को कोर्ट ने सर्वसम्मति से धारा 377 को खत्म (स्क्रैपिंग) करने का फैसला सुनाया और इसके विवाद में यह निर्धारित किया गया कि यह धारा इरेशनल, अपने प्रकृति में आर्बिट्रेरी और यह असमर्थनीय (इंडीफेंसिबल) थी। सुप्रीम कोर्ट के इस कार्य ने लंबे समय से मौजूद कोलोनियल कानून के अंत को चिह्नित (मार्कड) किया और न्याय के लिए लंबे संघर्ष के लिए एक प्रसिद्ध निष्कर्ष को चिन्हित किया।
लंबा संघर्ष (लॉग स्ट्रगल)
नवतेज सिंह जौहर मामले में फैसला सुनाने वाली बेंच में भारत के पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, इंदु मल्होत्रा, आर एम खानविलकर और रोहिंटन फाली शामिल थे। इस मामले में फैसला सुनाते हुए भारत के पूर्व चीफ जस्टिस ने यह माना कि धारा 377 होमो-सेक्शुअल और हेट्रो-सेक्शुअल कार्यों के कंसेंटिंग एडल्ट्स के बीच अननेचुरल सेक्स को क्रिमिनलाइज करती है और इसलिए यह अपने अस्तित्व में असंवैधानिक (अनकांस्टीट्यूशनल) है। इसके अलावा यह संविधान द्वारा दिए गए समानता के अधिकार का भी उल्लंघन (वॉयलेट) करती है।
विभिन्न क्षेत्रों के लोगों और कार्यकर्ताओं के संघर्ष द्वारा यह फ़ैसला चिह्नित किया गया और 20 वर्षों का समय निम्नलिखित तरीके से घटनाओं का खुलासा करता है:
- नवंबर 1991- इस वर्ष एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन एबीवीए द्वारा एक 70 पेज की रिपोर्ट का दस्तावेज जारी किया गया था, जिसमें वह सब दिखाया गया जो गलत था और इसके दायरे में जबरन वसूली (एक्सटोर्शन), ब्लैकमेलिंग और कई अन्य हिंसा जिनका गे लोगो ने वर्षों तक सामना किया है और लोगों का ध्यान उन मुद्दों (इश्यूज) की ओर खींचने की कोशिश की जिनपर आमतौर पर किसी का ध्यान नहीं जाता। इसने लेजिस्लेटिव इंटेंट को खत्म करने का आह्वान (कॉल) किया जो गे के साथ भेदभाव करती थी और आईपीसी की धारा 377 को खत्म करने का आह्वान किया।
- मई 1994- इस साल उस विवाद की शुरुआत हुई जब दिल्ली, तिहाड़ जेल की तत्कालीन इंस्पेक्टर जनरल किरण बेदी ने जेल में बंदियों के लिए कंडोम उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया और अपने एक्शंस के समर्थन में कहा कि इससे होमो सेक्शुएलिटी को बढ़ावा मिलेगा और यह भी स्वीकार किया कि कैदी इसमें इंडल्ज हैं। इसके बाद, एबीवीए ने कैदियों के लिए कंडोम उपलब्ध कराने के लिए एक रिट पिटीशन दायर की और धारा 377 को असंवैधानिक मानते हुए रद्द कर दिया, लेकिन एबीवीए द्वारा दायर पिटीशन को वर्ष 2001 में खारिज (डिस्मिस) कर दिया गया।
- दिसंबर 2001- गे पुरुषों के साथ काम करने वाले एनजीओ- द नाज़ फाउंडेशन द्वारा एक पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन दायर की गई। पीआईएल ने धारा 377 की संवैधानिक वैलिडिटी को चुनौती दी और इसके कानून को खत्म करने की आह्वान की।
- सितंबर 2004- इस वर्ष दिल्ली हाई कोर्ट ने नाज़ फाउंडेशन द्वारा दायर पीआईएल को मामले में कोई कॉज ऑफ एक्शन न होने के आधार पर खारिज कर दिया और यह भी निर्धारित किया कि जब यह पूरी तरह से एकेडमिक मामला है तो इसकी जांच कोर्ट द्वारा नहीं की जा सकती है। इसके बाद, नाज़ फाउंडेशन द्वारा एक रिव्यू पिटीशन दायर की गई जिसे अंत में कोर्ट ने पिछले पैटर्न का पालन करते हुए खारिज कर दिया था।
- फरवरी 2006- इस वर्ष इस मामले में कुछ महत्वपूर्ण लैंडमार्क बदलाव देखे गए, क्योंकि नाज़ फाउंडेशन द्वारा एक स्पेशल लीव पिटीशन दायर की गई और इसने इस फैक्ट को रेंसटेट करने की कोशिश की कि धारा 377 को जनता के हित के लिए रिवाइव करने की जरूरत है। इसके बाद, देश भर के विभिन्न एनजीओ धारा 377 को खत्म करने के समर्थन में आए और कलेक्टिवली इसके लिए काम करना शुरू कर दिया। धारा 377 को समाप्त करने के पक्ष में विभिन्न आवाजें उठीं और इस मुद्दे ने गति पकड़ी। इसके जवाब में मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स ने होमो-सेक्शुएलिटी को अपराध से मुक्त करने के खिलाफ एफिडेविट दायर किया।
- जुलाई 2009- इस साल दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा दिया गया लैंडमार्क फैसला देखा गया। चीफ जस्टिस अजीत प्रकाश शाह और जस्टिस एस मुरलीधरन की बेंच का गठन करने वाले कोर्ट ने आखिरकार आईपीसी की धारा 377 को असंवैधानिक करार करके रद्द कर दिया। आगे यह निर्धारित किया कि यह धारा संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को दिए गए इक्वालिटी, लिबर्टी और जीवन के अधिकार का उल्लंघन करती है। दिल्ली हाई कोर्ट का यह प्रसिद्ध निर्णय शॉर्ट-लिव्ड था जैसा कि आगे इसे सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली के एक ज्योतिषी सुरेश कुमार कौशल द्वारा चैलेंज किया गया था।
- दिसंबर 2013- चूंकि मामला अब सुप्रीम कोर्ट में था, सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को टर्न डाउन किया और इंडियन पीनल कोड के तहत होमो-सेक्शुएलिटी को एक अपराध बनाते हुए इसे रिवर्स कर दिया और आगे यह निर्धारित (ले डाउन) किया कि दिल्ली हाई कोर्ट की संवैधानिक बेंच द्वारा किया गया फ़ैसला कानूनी रूप से अनसस्टेनेबल था और यह माना कि धारा 377 असंवैधानिकता के दोष से ग्रस्त (सफर) नहीं है।
- जून 2016- इस वर्ष, प्रसिद्ध पुरस्कार विजेता, भरतनाट्यम डांसर नवतेज सिंह जौहर ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक रिट पिटीशन दायर करके इंडियन पीनल कोड की धारा 377 को चुनौती दी। इस एस्पेक्ट ने गति पकड़ी जैसा की आगे इसमें 4 अन्य प्रसिद्ध हस्तियां शामिल हुईं जिनमें रितु डालमिया और होटलियर अमन नाथ भी शामिल हुए।
- अगस्त 2017- होमो सेक्शुएलिटी के खिलाफ लड़ाई के साथ ही, इस वर्ष भारत के बॉयोमीट्रिक प्रोग्राम आधार मामले जैसे अन्य महत्वपूर्ण विकास हुए। इस मामले में, भारत के प्रत्येक नागरिक को एक यूनिक आइडेंटीफिकेशन नंबर जारी करना मैंडेटरी कर दिया जिसमें आईरिस स्कैनिंग और प्रत्येक नागरिक के अंगूठे का निशान शामिल है, जिसको नागरिकों की प्राइवेसी के ब्रीच के रूप में चुनौती दी गई और इसे पुट्टस्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में चुनौती दी गई। कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि ‘सेक्शुअल ओरियंटेशन, प्राइवेसी का एक एसेंशियल पहलू है, इसको किसी व्यक्ति के खिलाफ डिसक्रिमिनेट नहीं किया जा सकता और यह आगे किसी व्यक्ति के सेल्फ-वर्थ और गरिमा (डिग्निटी) के खिलाफ खड़ा होगा’।
- अप्रैल 2018- भारत के शीर्ष होटलियर में से एक केशव सूरी, जो खुद को गे बताते हैं, होमो सेक्शुएलिटी के क्रिमिनलाइजेशन के खिलाफ सामूहिक लड़ाई में शामिल हुए।
- जुलाई 2018- इस वर्ष होमो सेक्शुएलिटी के डीक्रिमिनालिइजेशन के मामले पर चर्चा हुई, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट की 5- जज की बेंच ने चर्चा की कि क्यों धारा 377 के मुद्दे को एक क्रिमिनल अपराध के रूप में देखा जाना चाहिए और कानून के समर्थकों ने यह तर्क दिया कि सेक्शुएली ट्रांसमिटेड डिसीज का प्रसार (स्प्रेड) और भारतीय संस्कृति की बर्बरता (वैंडलिज्म) कानून के एक्सिस्टेंस के कारण थे। दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट के जजेस ने एनकरेजिंग कॉमेंट्स दिए जैसे इंदु मल्होत्रा ने कहा कि- ‘यह एक एबेरेशन नहीं बल्कि एक वेरिएशन है।’
- सितंबर 2018- यह 6 सितंबर 2018 का दिन था जब सुप्रीम कोर्ट ने होमो सेक्शुएलिटी को डीक्रिमिनलाइज करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया। भारत के उस समय के चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा ने न्याय देते हुए कहा कि कानून अपने नेचर में आर्बिट्ररी था, यह इरेशनल और इंडीफेंसिबल था।
लेख में इसके दायरे में उन घटनाओं की गाथा शामिल है जो समय बीतने के साथ सामने आई और अंत में इंडियन पीनल कोड से धारा 377 को हटा दिया गया और होमो- सेक्शुएलिटी को लीगल बनाया।
धारा 377 का ऐतिहासिक निर्णय (लैंडमार्क जजमेंट ऑफ़ सेक्शन 377)
फैसले को बेहतर समझने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में इंडियन पीनल कोड की धारा 377 के ऊपर चर्चा की। कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए निम्नलिखित पहलू को निर्धारित किया, मामले के फैसले के हाइलाइट्स-
- आईपीसी की धारा 377 आर्बिट्रेरी और इरैशनल है और इसलिए दो एडल्ट्स के बीच सहमति से किए गए सेक्स को क्रिमिनालाइज करने की हद तक इसे पार्शियली रद्द कर दिया।
- कोर्ट ने हालांकि यह निर्धारित किया कि इंडियन पीनल कोड की धारा 377 के तहत यदि व्यक्ति जानवरों के साथ किसी भी तरह की सेक्शुएल एक्टिविटी में इंडल्ज होगा तो वह भी एक क्रिमिनल अपराध होगा।
- सेक्शुएल ओरियंटेशन एक बायोलॉजिकल घटना होने के कारण, इस आधार पर किए गए किसी भी भेदभाव (डिस्क्रिमिनेशन) को नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन माना जाएगा।
- एलजीबीटी समुदाय के पास अन्य लोगों के समान ही मौलिक और मानव अधिकार हैं और उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा।
- यह कोर्ट का फर्ज है कि वह समाज में प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा (डिग्निटी) की रक्षा करे और उसे बनाए रखें, गरिमा के साथ जीने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है जो भारतीय संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को दिया गया है।
- आईपीसी की धारा 377 का इस्तेमाल वास्तव में, एक हथियार के रूप में एलजीबीटी समुदाय के सदस्यों को परेशान करने के लिए किया गया था और अन्य नागरिकों के विरुद्ध उनके साथ भेदभाव किया गया था जो अब मौजूद नहीं रहेगा।
होमो सेक्शुएलिटी के मामले पर विभिन्न लोगों का रुख (स्टेंस)
नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले के फैसले के नतीजे के साथ, समाज के एक समुदाय ने फैसले का जश्न मनाया और एलजीबीटी समुदाय के सारे संघर्षों और वर्षों से जो भेदभाव का सामना उन्हें करना पड़ा उसको अंतिम रूप देने का स्वागत किया गया, जबकि दूसरी तरफ ऐसे लोग थे जिन्होंने एक विचार व्यक्त किया जो एलजीबीटी समुदाय से अलग था, अब आगे, कुछ रिनाउंड पर्सनेलिटीस द्वारा रखे गए विचारों को देखा जाएगा।
सेना में गे सेक्स और एडल्ट्री नहीं होने देंगे- बिपिन रावत
सुप्रीम कोर्ट द्वारा होमो-सेक्शुएलिटी पर फैसले के कई महीनों बाद, सेना के जनरल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि वह सेना में गे सेक्स और एडल्ट्री की अनुमति नहीं देंगे। इस तर्क के समर्थन में उन्होंने आगे कहा कि सेना कंजरवेटिव है, सेना एक परिवार है और वह गे सेक्स और एडल्ट्री को इसके माध्यम से प्रवेश नहीं करने देंगे। इसके अलावा, एडल्ट्री को ‘एक आर्मी अधिकारी की पत्नी के स्नेह की चोरी’ के रूप में परिभाषित किया गया है। इसलिए, इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि सेना में गे सेक्स और एडल्ट्री की अनुमति नही दी जाएगी।
सुरेश कुमार कौशल
वर्ष 2013 में, जब गे सेक्स को फिर से क्रिमिनलाइज करने पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू किया गया, तब सुरेश कुमार कौशल को इस तरह के विकास का चेहरा माना जाने लगा। दिसंबर 2013 में आए कोर्ट के रिवाइज्ड फैसले को एलजीबीटीक्यू समुदाय पर एक गंभीर झटके के रूप में देखा गया।
2009 में दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा होमो सेक्शुएलिटी को डीक्रिमिनलाइज करने का फैसला आने के बाद, सुरेश कुमार कौशल ने क्रांतिकारी मनुवादी मोर्चा, ट्रस्ट गॉड मिशनरीज और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के साथ संगठन (मोबिलाइज) किया और गे सेक्स को फिर से क्रिमिनलाइज करने के उद्देश्य से एक पिटीशन दायर की।
द हिंदू से बात करते हुए, सुरेश कौशल ने अपने विचार व्यक्त किए कि ऐसा कदम उठाने के पीछे मुख्य मकसद यह था कि यह एक धार्मिक मुद्दा’ था और उनके अनुसार होमो-सेक्शुएलिटी एक ऐसी चीज है जो केवल अननेचुरल है और एक बार गे सेक्स को डीक्रिमिनलाइज कर दिया तो, बहुत सारे गे पुरुष और लेस्बियंस विवाह के लिए मंदिरों और गुरुद्वारों पहुंचने लगेंगे। आगे उन्हें इस पर प्रतिबंध (बैन) लगाना पड़ेगा क्योंकि हर धर्म में विवाह को कुछ रिवाजों का पालन करना पड़ता है।
सुब्रमण्यम स्वामी
भाजपा के वरिष्ठ (सीनियर) नेता को होमो-सेक्शुएलिटी के बारे में लंबे समय से चली आ रही धारणा (नोशन) के लिए जाना जाता है, कि यह हिंदुत्व की प्रथा के खिलाफ है। उन्होंने आगे दावा किया कि यह एक अमेरिकी प्रथा है और आगे दावा किया कि सहमति से किए गए गे सेक्स को लीगलाइज करने कमर्शियल बिज़नेस में गे बार्स को बढ़ावा मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसला सुनाए जाने के बाद अपने बयान में मंत्री ने कोट करके कहा कि यह जश्न मनाने जैसा कुछ नहीं है, यह कोई साधारण बात नहीं है और आगे कहा कि सरकार को इसका इलाज खोजने के लिए मेडिकल रिसर्च में इन्वेस्ट करना चाहिए।
बाबा रामदेव
योग गुरु, बाबा रामदेव ने कहा था कि होमो-सेक्शुएलिटी एक बीमारी है और वह योगाभ्यास के माध्यम से इसका इलाज प्रदान कर सकते हैं। एक कदम और आगे बढ़ते हुए, योग गुरु ने एलजीबीटीक्यू समुदाय को यह दावा करते हुए एक निमंत्रण भी दिया था कि वह रेगुलर बेसिस पर योग का अभ्यास करके उनकी बुरी लत को ठीक कर सकते हैं।
आगे, बाबा रामदेव ने उसी का एक साइंटिफिक एक्सप्लेनेशन देते हुए कहा कि, होमो-सेक्शुएलिटी कोई ऐसी चीज नहीं है जो जेनेटिक हो। इसके अलावा, उन्होंने यह भी दावा किया कि यदि होमो-सेक्शुएलिटी जेनेटिक न होकर अननेचुरल होती और यदि हमारे पूर्वज होमो सेक्शुअल होते तो कोई पैदा नहीं होता और इसलिए, इसे अननेचुरल घोषित करने की जरूरत है और इसके बजाय इसका इलाज खोजने पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
चर्चेज का अपोस्टोलिक एलायंस, उत्कल क्रिश्चियन काउंसिल और ट्रस्ट गॉड मिनिस्टर्स
जब सुप्रीम कोर्ट में होमो-सेक्शुएलिटी के मामले पर अंतिम चुनौती दी गई थी, यह बड़े पैमाने पर अनअपोज्ड चला गया सिवाय तीन क्रिश्चियन समूहों (ऑर्गेनाइजेशन) को छोड़कर जो चर्चेज के अपोस्टोलिक एलायंस, उत्कल क्रिश्चियन काउंसिल और ट्रस्ट गॉड मिनिस्टर थे। इन तीन संगठनों ने इस आइडियोलॉजी को आगे बढ़ाया कि होमो-सेक्शुएलिटी का कॉन्सेप्ट धार्मिक एथिक्स के खिलाफ है और इसलिए इसे और प्रोत्साहित (इनकरेज) नहीं किया जाना चाहिए।
धारा 377 से सम्बन्धित अंतिम मामले को रद्द करने में यह तीन संगठन रिस्पोंडेंट थे। होमो-सेक्शुएलिटी को डीक्रिमिनलाइज करने के खिलाफ उनकी लड़ाई के दौरान, उन्हें सुरेश कुमार कौशल जैसे विभिन्न धार्मिक समूहों और कार्यकर्ताओं का समर्थन मिला था। अंतिम दिन, वे एक वकील से जुड़ गए, और उसने कहा था कि उसे सुरेश कौशल से एक ब्रीफ जानकारी मिली थी।
इसे डीक्रिमिनलाइज करना क्यों मायने रखता है?
डाटा पर एक नज़र डालने पर यह कहा जा सकता है कि ऐसे कई उदाहरण हैं जो दिखाते हैं कि धारा 377 का इस्तेमाल वास्तव में एलजीबीटीक्यू समुदाय को परेशान करने के लिए किया गया था, यह ध्यान रखना आश्चर्यजनक (एस्टोनिशिंग) होगा कि उस धारा का उपयोग करने वाली मेजोरिटी पॉपुलेशन विवाहित महिलाएं ही हैं जिन्हें उनके पति और रिश्तेदारों द्वारा एब्यूज और शारीरिक रूप से टॉरमेंट किया गया है। उनके द्वारा धारा 377 का आवाह्न धारा 498A के साथ अननेचुरल अपराधों के कमीशन के लिए शिकायत दर्ज करते समय होता है। फिर से उसी पैटर्न का फोलो करते हुए बिहार, हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्यों के रिसर्च डाटा से पता चलता है कि इन पीड़ितों को टॉर्चर और उनके साथ भेदभाव किया जाता है और जब वे अपनी शिकायतों को खत्म करने के लिए पुलिस स्टेशन जाते हैं तो उनपर प्रॉपर ध्यान नहीं दिया जाता।
आगे यह कहा जा सकता है कि धारा 377 ने, सेक्शुअल माइनोरिटी होने के कारण लोगों के एक समूह को क्रिमिनलाइज कर दिया। अब, जब इस वर्ग के लोग कोर्ट जाकर न्याय की गुहार लगाते हैं तो यह केवल सेक्शुअल माइनोरिटीज के रूप में सुरक्षा की मांग नहीं कर रहे है, बल्कि उनकी इन्हेरेंट विशेषताओं को पहचानने की जरूरत है कि वे वास्तव में क्या हैं। इसके अलावा वे तर्क देते हैं कि सेक्शुअलिटी का अधिकार, साथी चुनने का अधिकार और सेक्शुअल ऑटोनोमी कुछ ऐसी चीज है जो मानव गरीमा की आधारशिला (कॉर्नरस्टोन) का निर्माण करती है,और धारा 377 को सेक्शुअलिटी के आधार पर समानता, स्वतंत्रता, गरीमा, जीवन और नॉन डिस्क्रिमिनेशन के अधिकार पर चिलिंग इफेक्ट डालने वाला बताया गया है।
आगे क्या?
सबसे महत्वपूर्ण (सिग्निफिकेंट) प्रश्न जो भारत के कोर्ट्स को चुनौती देता है, वह है ‘ऑर्डर ऑफ नेचर’ का कॉन्सेप्ट, कोर्ट्स आज तक यह समझने में विफल रही हैं कि वास्तव में ऑर्डर ऑफ नेचर का होमो-सेक्शुएलिटी के कॉन्टेक्स्ट में क्या मतलब है, और, एक बार भारत का संविधान ऑर्डर ऑफ नेचर के प्रश्न पर चर्चा करले और कहे कि होमो-सेक्शुएलिटी ऑर्डर ऑफ नेचर के दायरे में आता है, तो धारा 377 या होमो-सेक्शुएलिटी से संबंधित बड़े मुद्दों पर फैसला करना कोर्ट के लिए बहुत आसान हो जायेगा।
समय बीतने के साथ, यह स्पष्ट है कि भारत के कोर्ट्स को होमो-सेक्शुएलिटी पर और भी बड़े सवालों का सामना करना पड़ेगा जैसे कि इन्हेरिटेंसी, रिजर्वेशन, एडॉप्शन, एंप्लॉयमेंट और सेम-सेक्स के विवाह से संबंधित अन्य पहलू। ऑर्डर ऑफ नेचर के विशेष मामले में अंतिम निष्कर्ष (कंक्लूज़न) पर पहुंचने से, कोर्ट के लिए ऊपर दिए मामलों को न्याय के हित में तय करना बहुत आसान होगा।
क्या मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने का समय आ गया है?
होमो-सेक्शुएलिटी का डीक्रिमिनालाइजेशन करने के साथ, संयोग से, कोर्ट ने आईपीसी की धारा 498A के पहलू को कमजोर कर दिया जिसने महिलाओं के लिए उस कानून का उपयोग करना मुस्किल कर दिया जिसमें पतियों पर उनकी पत्नियों को नुकसान पहुंचाने पर हानिकारक (डेटरेंट) प्रभाव पड़ा। इसके अलावा, कोर्ट ने ‘फेमिली वेलफेयर कमिटीज‘ के लिए पहले मामले को देखना अनिवार्य (मैंडेटरी) कर दिया और जब तक फेमिली वेलफेयर कमिटी मामले की जांच नहीं करतीं और उस पर अपना तर्क नहीं रखतीं, तब तक व्यक्ति की गिरफ्तारी या कोर्सिव कार्रवाई नहीं की जाएगी।
काम के बारे में इन फेमिली वेलफेयर कमिटीज के प्रोजेक्ट में आंकड़े बताते हैं कि जमीनी स्तर (ग्रासरूट लेवल) जैसे गांव या एक समुदाय में, ये कमिटीज़ पावर और पैसे से प्रभावित हो सकती हैं और इसलिए, उनका निर्णय पति के परिवार के पक्ष में होबह सकता है जिन्होंने वास्तविक गलत (एक्चुअल रोंग) किया होगा।
इस तरह के विकास और इस बात को ध्यान में रखते हुए की महिलाओं ने 498A का उपयोग करने के लिए पुलिस थाने से संपर्क किया और न्याय पाने के लिए धारा 377 का इस्तेमाल किया, यह स्पष्ट करता है कि वह धारा 377 का उपयोग नहीं कर सकती हैं और इसलिए मैरिटल रेप के संबंध में कानून को खत्म करने और देश की महिलाओं के लिए बेहतर स्थिति और एक सुरक्षित वातावरण प्रदान करने की आवश्यकता है।
पॉक्सो का भविष्य
धारा 377 को अक्सर वैवाहिक महिलाओं द्वारा ‘अननेचुरल’ एब्यूज को उजागर करने के लिए एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। वहीं, केरल सरकार को एक और जरूरी पहलू पता चला कि आईपीसी की धारा 377 का इस्तेमाल प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुएल ऑफेंसेज एक्ट (पॉक्सो) द्वारा किया गया और धारा 377 को समाप्त करने के साथ इसने बच्चों से संबंधित अननेचुरल ऑफेंसेज के मामलों पर कानून की कठोरता को कम किया।
जबकि धारा 377 अब पशुता (बेस्टियालिटी) के मामलों में माइनर्स पर लागू होती है, यह स्पष्ट नहीं है कि यह धारा वैवाहिक महिलाओं पर भी लागू होती है या नहीं। वैवाहिक महिलाओं के अधिकारों और मैरिटल रेप को क्रिमिनलाइज करने के कदम पिछले खंड में चर्चा हो चुके है। बाल अधिकारों की सुरक्षा पर ध्यान देते हुए यह कहा जा सकता है कि फिर से बच्चों के प्रति किए गए अननेचुरल ऑफेंसेज के संबंध में विकास लाने की आवश्यकता है, और अब जब धारा 377 को रद्द कर दिया गया है, तो पोक्सो एक्ट में अमेंडमेंट्स और विकासों के साथ आने की जरूरत है जो करेंट सिनेरियो के अनुरूप हो।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
होमो-सेक्शुएलिटी के मुद्दे पर उभरते विकास को ध्यान में रखते हुए कोर्ट के हालिया फैसले में, यह कहा गया है की इसने विभिन्न लोगों और एलजीबीटी जैसी विभिन्न समुदाय के लिए दरवाजे खोल दिए हैं जो अब बिना किसी डर या पीड़ा के अपनी वास्तविक पहचान के साथ सामने आए और इसने उस भेदभाव को भी खत्म कर दिया जिसका उन्होंने वर्षों से सामना किया था। कई अन्य लोगों द्वारा विरोध किया गया, जिसमें विशेष रूप से धार्मिक गतिविधियों से जुड़े लोग और कुछ प्रभावशाली (इनफ्लुएंशियल) राजनैतिक हस्तियां जो खुद को हिंदुत्व की विचारधारा को कायम रखने का दावा करती थीं।
होमो-सेक्शुएलिटी के फैसले के दौरान सभी असहमति और असहमति के बीच, इसे एक बड़े पर्सपेक्टिव में देखते हुए, इसे आमतौर पर एलजीबीटी समुदाय की जीत के रूप में देखा गया और यह इस विचारधारा को आगे बढ़ाता है कि समय के विकास के साथ देश गतिशील चरण (डायनेमिक फेज) पर आगे बढ़ रहा है, सदियों पुरानी कोलोनियल प्रथा को बनाना जो अब मौजूदा स्थिति के अनुरूप नहीं हैं।