इंडियन पीनल कोड, 1860 के तहत फॉल्स एविडेंस और पब्लिक जस्टिस के विरुद्ध अपराध (धारा 191- 211)

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1754
India Penal Code 1860
Image Source- https://rb.gy/f0vty1

यह लेख बी.वी.पी. न्यू लॉ कॉलेज, पुणे की द्वितीय वर्ष की कानून की छात्रा, Tanya Gupta द्वारा लिखा गया है। इस लेख में, उन्होंने “मिथ्या एविडेंस और लोक न्याय के विरुद्ध अपराध” की अवधारणा (कांसेप्ट) पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

एविडेंस हर ऐसे प्रकार का सबूत है, जो कानूनी रूप से ट्रायल में प्रस्तुत किया जाता है (यदि उसको पेश करने के लिए न्यायाधीश द्वारा अनुमति दी गई हो), जिसका उद्देश्य न्यायाधीश और/या जूरी को मामले के कथित भौतिक तथ्यों (मेटेरियल फैक्ट) को समझाने के लिए है। एविडेंस, न्यायालय द्वारा, शपथ (ओथ) पर अनुमति दिया गया, बयान है और ऐसा दस्तावेज़ है जो अदालत के निर्देश द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 की धारा 3 के अनुसार, एविडेंस दो प्रकार के होते हैं;

  1. मौखिक (ओरल)
  2. दस्तावेजी साक्ष्य

एक कथन या दस्तावेजी साक्ष्य जो न्यायालय में प्रस्तुत किया गया हो, यह जानने के बावजूद, कि वह मिथ्या है या यह मानने के बाद भी की वह सच नहीं है, तो वह मिथ्या एविडेंस कहलाता है। आपराधिक एविडेंस कोई भी भौतिक या मौखिक एविडेंस है जिसे अपराध साबित करने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया जाता है।

फॉल्स एविडेंस 

इंडियन पीनल कोड की धारा 191 के अनुसार, मिथ्या सबूत देने का मतलब यह है कि, कोई भी व्यक्ति शपथ  द्वारा या विधि के किसी अभिव्यक्त (एक्सप्रेस) प्रोविजन द्वारा सत्य कथन कहने के लिए वैध रूप से बाध्य (बाउंड) होते हुए, ऐसा कोई कथन कहता है जो मिथ्या है और, या तो उसको उस एविडेंस के मिथ्या होने का ज्ञान है या विश्वास है,या जिस के सच होने का उसे विश्वास नहीं है। किसी व्यक्ति द्वारा दिया गया मिथ्या कथन या एविडेंस, लिखित रूप में या अन्यथा (मौखिक या सांकेतिक (इंडिकेटिव)) हो सकता है। धारा 191 को अंग्रेजी मिथ्या एविडेंस अधिनियम, 1911 (इंग्लिश पर्जरी एक्ट, 1911) के तहत मिथ्या कथन के रूप में भी जाना जाता है। उदाहरण के लिए, एक मामला है, जो कि Z की लिखावट से संबंधित है, जिसके लिए Z के बेटे को लिखावट का परीक्षण (टेस्ट) करने के लिए बुलाया जाता है कि यह उसके पिता का है या नहीं। यह जानने के बाद भी कि यह Z की लिखावट नहीं है, वह अदालत में इसके विपरीत कहता है कि यह Z की लिखावट है। यह एक विशिष्ट (टिपिकल) अपराध है, जिसे  मिथ्या एविडेंस कहा जाता है। उसी स्थिति को दुबारा लेते हुए, जहाँ उसके बेटे को उसकी लिखावट की गवाही देने के लिए बुलाया जाता है, लेकिन इस बार उसका बेटा आश्वस्त (कॉन्फिडेंट) नहीं है और कहता है कि हालाँकि मुझे विश्वास नहीं है कि यह Z की लिखावट नहीं है; इस स्थिति में, उसके बेटे को भारतीय दंड संहिता की धारा 193 के तहत उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उसका इरादा झूठ बोलने का नहीं था। अदालत में दिखाई गई सेल्स डीड की एक प्रति (कॉपी) जिसे संशोधित (एडिटेड) या फैब्रिकेट किया गया है, मिथ्या एविडेंस के रूप में जाना जाता है। मिथ्या कथन देना मिथ्या एविडेंस देने के बारे में ही है। आइए हम एक उत्कृष्ट उदाहरण लेते हैं जिसमें, X शपथ के तहत बाध्य हो जाता है, कि वह केवल उस मामले के संबंध में सत्य ही बोलेगा, जिसमें Y, दिल्ली में हुई हत्या के आरोप के लिए संदिग्ध है। अब X कहता है कि Y, 20 मई 2019 (जिस तारीख को हत्या की गई थी) को शिमला में मेरे साथ था। लेकिन X झूठ बोलता है और मिथ्या एविडेंस देता है। यह मिथ्या कथन का एक स्पष्ट उदाहरण है।

मिथ्या एविडेंस के अनिवार्य तत्व (एसेंशियल इनग्रेडिएंट्स ऑफ फॉल्स एविडेंस)

मिथ्या एविडेंस, किसी व्यक्ति द्वारा दिया जाता है जो :

  1. शपथ से बाध्य होते हैं या
  2. कानून के स्पष्ट प्रावधान द्वारा, या
  3. एक घोषण जो व्यक्ति, लॉ द्वारा किसी भी विषय पर करने के लिए बाध्य है, और
  4. जब, वह कथन या घोषण असत्य है और जिसके असत्य होने का उसे ज्ञान है या असत्य होने का विश्वास है या जिसके सत्य होने का उसे विश्वास नहीं है।

धारा 191 को प्रयोग में लाने के लिए 3 अनिवार्य शर्तें:

  1. सच्चाई बताने के लिए एक कानूनी दायित्व (ड्यूटी),
  2. मिथ्या कथन या घोषण करना, और
  3. मिथ्या पर विश्वास करना।

 इंग्लिश लॉ में पर्जरी की तुलना में भिन्नता 

मिथ्या कथन को अंग्रेजी कानून के तहत आपराधिक रूप की स्थिति में रखा गया है क्योंकि एक व्यक्ति अपराध के स्टटूटोरी दायित्व से दोषी है, यदि उसने कानूनी रूप से एक गवाह के रूप में या न्यायिक कार्यवाही में एक इंटरप्रेटर के रूप में शपथ ली हो जहां वह कानूनी रूप से कार्यवाही में एक महत्वपूर्ण बयान देता है, जो मिथ्या माना जाता है या उसके सत्य होने पर विश्वास नहीं किया जाता है।

शपथ का उल्लंघन ना करना एक शर्त  होती है। भारतीय कानून के तहत, शपथ/घोषण के विपरीत कथन में सच्चाई बताने के लिए, एक स्पष्ट प्रावधान की आवश्यकता होती है।

अंग्रेजी कानून के तहत, मिथ्या कथन एक बयान या घोषण है जो न्यायिक कार्यवाही में झूठ बोल कर दिया गया है, जबकि भारतीय कानून के तहत मिथ्या एविडेंस एक बयान है जब किसी पब्लिक सर्वेंट को  दिया जाएगा तो, वह भी मिथ्या कथन के रूप में ही वर्गीकृत (क्लासिफाइड) किया जाएगा।

सच बोलने के लिए कानूनी रूप से शपथ या विधि से बाध्य होना (लीगली बाउंड बाय ओथ और लॉ टू से द ट्रुथ )

  1. एक व्यक्ति कानूनी रूप से शपथ से तब बाध्य है;
  1. व्यक्ति को शपथ से बाध्य होना चाहिए- द ओथ एक्ट, 1969 की धारा 8 में यह परिभाषित किया गया है कि सत्य बताना, व्यक्ति का कर्तव्य होता है।
  2. सच्चाई बताने के लिए बाध्य होता है,  लॉ के एक स्पष्ट प्रावधान द्वारा।
  3. या घोषण करने के लिए कानून द्वारा बाध्य होता है।
  1. दिलाई गई शपथ को मद्देनजर रखते हुए सच बोलने का कानूनी दायित्व होता है।
  2. कानून का अभिव्यक्त प्रावधान व्यक्ति को सच बोलने के लिए बाध्य करता है।
  3. शपथ दिलाने में इर्रेगुलरिटी- अधिकारियों द्वारा शपथ दिलाने में कुछ इर्रेगुलरिटी होती है अर्थात शपथ पर ठीक से हस्ताक्षर नहीं किया जाता या कुछ प्रोसीजरल इर्रेगुलरिटी होती है। अब अगर कोई अनियमितता हुई तो क्या धारा 191 लागू होगी या नहीं? यह महत्वहीन (इममेटेरियल) है, क्योंकि शपथ लेने वाला व्यक्ति जानता है कि वह झूठ बोल रहा है, और उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 191 के तहत दंडित किया जाएगा।
  4. अधिवक्ताओं (एडवोकेट) के लिए शपथ का कोई संबंध नहीं है।

मिथ्या एविडेंस फैब्रिकेट करना 

मजिस्ट्रेट को अपने विवेक का प्रयोग करते हुए उस मकसद पर विचार करके खुद को हेरफेर करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए जिसके द्वारा शिकायतकर्ता ने मामले में कार्रवाई की हो, न कि उन तथ्यों के बाहर किसी अन्य विचार से जो शिकायतकर्ता द्वारा अपनी शिकायत के समर्थन में प्रस्तुत किए गए हैं। 

इंडियन पीनल कोड की धारा 192,  मिथ्या एविडेंस को फैब्रिकेट करने को परिभाषित करती है। जो कोई भी व्यक्ति इस इंटेंशन से, किसी परिस्थिति (सरकमस्टेंस) को अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) में लाता है, या किसी पुस्तक या रिकॉर्ड या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड में कोई मिथ्या प्रविष्टि (एंट्री) करता है या मिथ्या कथन रखने वाला कोई दस्तावेज़  या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड रखता है, यह सोच कर की, यह मिथ्या प्रविष्टि या मिथ्या कथन, न्यायिक कार्यवाही में, या ऐसी किसी कार्यवाही में जो पब्लिक अथॉरिटी या आर्बिट्रेटर के समक्ष विधि द्वारा की जाती है, और जब इस प्रकार एविडेंस में दर्शित (अपीयर) होने पर ऐसी परिस्थिति के कारण कोई व्यक्ति, जिसे ऐसी कार्यवाही में एविडेंस के आधार पर अपनी राय कायम करनी है, तो वह ऐसी कार्यवाही के परिणाम में गलत राय बनाए, तब यह माना जाता है कि, वह व्यक्ति मिथ्या एविडेंस गढ़ रहा है।

मिथ्या एविडेंस फैब्रिकेट करने की अनिवार्यता 

किसी भी परिस्थिति के अस्तित्व का कारण; या

  1. किसी भी पुस्तक या रिकॉर्ड आदि में कोई गलत प्रविष्टि करता है जिसमें झूठा बयान होता है;
  2. इस आशय से कि ऐसी परिस्थितियाँ, मिथ्या प्रविष्टि या मिथ्या कथन एविडेंस के रूप में प्रकट  हो सकती है:
    1. न्यायिक कार्यवाही, या
    2. एक पब्लिक अथॉरिटी के समक्ष विधि द्वारा की गई कार्यवाही में,
    3.  आर्बिट्रेटर के समक्ष; तथा
  3. एक गलत राय कायम हो जाती है 
  4. ऐसी कार्यवाही के परिणाम,  किसी तत्व (मेटेरियल) के संबंध में गलत राय बनाना।

इन आवश्यक बातों को एक दिए गए उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। एक दुकानदार ‘X’ है, जिसकी दुकान लखनऊ में है और वह दर्शाता है कि उसकी दुकान 20 मई 2019 को खुली थी हालाँकि उसकी दुकान बंद थी। वह अपनी पुस्तक प्रविष्टि में दिखाता है कि उसकी दुकान खुली थी। हालांकि, उस दिन ‘X’ ने दिल्ली जाकर एक्सटॉर्शन का अपराध किया। जब पुलिस इसकी जांच कर रही थी, तो उसने सबूत के तौर पर अपनी किताब की प्रविष्टि दिखाई। यह परिस्थिति मिथ्या एविडेंस को गढ़ने के रूप में योग्य  होगी।

एक उद्देश्य की, फैब्रिकेटेड एविडेंस ज्यूडिशियल प्रोसिडिंग में एविडेंस के रूप में दर्शित हो सकते हैं 

धारा 192 में आशय बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस प्रकार बनाया गया मिथ्या दस्तावेज़ , ज्यूडिशल प्रोसीडिंग्स में या किसी पब्लिक अथॉरिटी या आर्बिट्रेटर के समक्ष एविडेंस के रूप में पेश होना चाहिए।

मिथ्या एविडेंस के लिए सजा (पनिशमेंट फॉर फॉल्स एविडेंस)

अदालत में मिथ्या एविडेंस देने वाले व्यक्ति को 7 साल तक की कैद और जुर्माना भी हो सकता है, जबकि कोर्ट के बाहर, जहां व्यक्ति ने किसी पब्लिक अथॉरिटी, आर्बिट्रेटर या किसी भी अन्य अधिकारी को झूठी गवाही दी हो, तो उसे 3 साल तक की कैद और जुर्माना का दंड मिल सकता है।  मिथ्या एविडेंस देना एक नॉन कॉग्निजबल अपराध है, अर्थात पुलिस, वारंट के बिना मिथ्या एविडेंस देने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं कर सकती। यह एक प्रकार का बेलेबल अपराध है अर्थात व्यक्ति को न्यायालय से जमानत मिल सकती है। वह अधिकार के रूप में जमानत मांग सकता है। यह नॉन कंपाउंडेबल है, जिसका अर्थ है कि जिस व्यक्ति ने, किसी व्यक्ति के खिलाफ मिथ्या एविडेंस दिए हैं, वह उसके साथ समझौता नहीं कर सकता और मामले को बंद नहीं किया जा सकता है और इंडियन पीनल कोड की धारा 194 से 195A अपराधों के संगीन (सीरियस) रूप से संबंधित है। संगीन रूप का अर्थ है गम्भीर रूप। उदाहरण के लिए, इंडियन पीनल कोड की धारा 302 के तहत किसी व्यक्ति पर हत्या का आरोप लगाया जाता है और वह व्यक्ति मिथ्या एविडेंस देता है, जिसके कारण आरोपी को मौत की सजा सुनाई जाती है, इसलिए यह अपराध का एक संगीन अपराध है। धारा 194 के तहत सजा के विभिन्न रूप हैं:

  •  जब किसी को दोषी ठहराया जाता है।
  •  जब किसी को दोषी ठहराया जाता है और उसे मार दिया जाता है।

धारा 195: कोई व्यक्ति यदि आशय/ज्ञान के साथ गढ़े हुए मिथ्या एविडेंस देता है, तो वह अपराध करता है, जिसके लिए उसे 7 साल या उससे अधिक इंप्रिजनमेंट या लाइफ इंप्रिजनमेंट से दंडित किया जाएगा। उदाहरण के लिए, व्यक्ति X, जो की डकैती के अपराध के लिए आरोपित है और एक व्यक्ति A, मिथ्या एविडेंस देता है जिसके कारण, X को डकैती का दोषी ठहराया जाता है। डकैती की सजा, आजीवन कारावास या दस साल का कठोर कारावास है और अब अगर यह साबित हो गया है कि A ने मिथ्या एविडेंस दिए हैं या मिथ्या एविडेंस गढ़े हैं तो उसे (धारा 195 के आरोपी) को भी वही सजा मिलेगी जो डकैती करने वाले व्यक्ति को मिली थी।

इंडियन पीनल कोड की धारा 195A को अमेंडमेंट एक्ट, 2006 द्वारा जोड़ा गया है। इस  प्रोविजन के तहत यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति को मिथ्या एविडेंस देने के लिए,  उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा या संपत्ति या उस व्यक्ति जिसमें वह रुचि (जैसे परिवार, दोस्त) रखता है या किसी की प्रतिष्ठा को चोट पहुँचाने की धमकी देता है, तो वह इस धारा के तहत अपराधी माना  जाएगा। आरोपी व्यक्ति का आशय मिथ्या गवाही देने का होना चाहिए। इस अपराध के लिए सजा कारावास की हो सकती है जिसकी अवधि को सात साल तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना, या दोनों के साथ दंडित किया जा सकता है ।

संतोख सिंह बनाम इज़हर हुसैन के मामले में, यह माना गया था कि टेस्ट आईडेंटिफिकेशन परेड, मुख्य रूप से रेप के मामलों में, पीड़ित द्वारा आरोपी की पहचान करने के लिए उपयोग की जाती है और यदि पीड़ित ने झूठ बोला या झूठा बयान दिया कि वह  व्यक्ति ही आरोपी था, तो यह धारा 192 और धारा 195 के तहत अपराध होगा।

गलत सबूत देने या फैब्रिकेट करने के समान ही दंडनीय अपराध (ऑफेंसेस पनिशएब्ल इन द सेम वे एज गिविंग और फैब्रिकेटिंग फाल्स एविडेंस)

मिथ्या एविडेंस का उपयोग करना 

कोई व्यक्ति जब किसी सबूत का उपयोग करता है, यह जानते हुए भी कि वह मिथ्या है, तो वह धारा 196 के तहत आता है। जो कोई भी, यह जानते हुए भी कि सबूत गलत या मिथ्या एविडेंस है, सबूत को वह सही या वास्तविक सबूत के रूप में, भ्रष्ट रूप से उपयोग करता है या उपयोग करने का प्रयास करता है।

‘भ्रष्टाचारी’ का अर्थ (मीनिंग ऑफ करप्ट्ली)

ऐसा इरादा जो बेईमानी या कपट नहीं बल्कि आपराधिक कानून की भावना को ठेस पहुंचाने के लिए आता है, तो वह भ्रष्टता की श्रेणी में आता है।

डॉ. एस दत्त बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (डॉक्टर एस दत्ता वर्सेज स्टेट ऑफ यूपी)

इस मामले में, डॉ. एस दत्ता थे जो दवाइयों के क्षेत्र में स्पेशलाइजेशन रखते थे और उन्हें एक एक्सपर्ट गवाह के लिए बुलाया गया था, जहां उन्हें एक विशेषज्ञ होने के कारण प्रमाण-पत्र (सर्टिफिकेट) प्रस्तुत करने के लिए कहा गया। अब उन्होंने प्रमाण-पत्र प्रस्तुत किया, लेकिन कुछ देर पूछताछ के बाद यह पता चला कि वह झूठा था। अब कोर्ट तहकीकात करता है कि, आरोपी को किस धारा के तहत आरोपित किया जाना चाहिए। धारा 465 बेईमानी का उल्लेख (मेंशन) करती है और धारा 471, धोखे की बात करती है, लेकिन डॉ. दत्ता का आचरण (कंडक्ट) बेईमानी या धोखे के तहत नहीं आएगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, डॉ दत्ता के आचरण को धारा 196 के तहत “भ्रष्टाचारी” के तहत अपराधी माना जाना चाहिए। भ्रष्टाचारी एक शब्द (बड़ा) है जो फ्रॉडुलेंटली और इरादे से अलग है।

मिथ्या प्रमाणपत्र (फाल्स प्रमाण-पत्र)

धारा 197, मिथ्या प्रमाण-पत्रजारी करने या हस्ताक्षर करने से संबंधित है, और उसे इशू किए गए प्रमाण-पत्र पर हस्ताक्षर करना, कानून द्वारा प्रदान की गई आवश्यकताओं के अनुसार होना चाहिए। कानून द्वारा आवश्यक का अर्थ है, किसी भी वैध दायित्व के माध्यम से वह होना चाहिए। इस आवश्यकता का सार यह है कि, प्रमाण-पत्र, क़ानून के तहत जारी किया गया होना चाहिए। चिकित्सक प्रमाण-पत्र, धारा 197 के दायरे में नहीं आता। यह ऐसा होना चाहिए जो एविडेंस के रूप में स्वीकार्य (ऐडमिसिबल) हो। प्रमाण-पत्र किसी भी भौतिक तर्क में झूठा होना चाहिए और अभियुक्त द्वारा असत्यता (फोलसिटी) का ज्ञान होना चाहिए।

मिथ्या प्रमाण-पत्र का उपयोग  करना (यूजिंग ऑफ  फॉल्स सर्टिफिकेट)

परिचय: धारा 198, एक सत्य प्रमाण-पत्रका उपयोग, जिसके असत्यता का ज्ञान अभियुक्त को होता है, के बारे में बताती है। धारा 197 के आधार, अवश्य ही पूर्ण होने जरूरी है। एक व्यक्ति, जो किसी ऐसे प्रमाण-पत्रको एक वास्तविक प्रमाण-पत्र के रूप में, भ्रष्ट रूप से उसका उपयोग करता है या उपयोग करने का प्रयास करता है, यह जानते हुए भी कि वह मिथ्या है। धारा 197, मिथ्या प्रमाण-पत्र जारी करने या हस्ताक्षर करने के बारे में है जबकि धारा 198, मिथ्या प्रमाण-पत्रको, सच्चे प्रमाण-पत्र के रूप में उपयोग करने के बारे में बताती है।

मिथ्या घोषणा (फॉल्स घोषण)

धारा 199, घोषण में किए गए मिथ्या बयान के बारे में बताती है, जो कानून द्वारा एविडेंस के रूप में स्वीकार्य (रिसिवेबल) है। व्यक्ति जो बयान या घोषण देता है, वह मिथ्या होनी चाहिए। घोषण करने वाला एक दस्तावेज़, न्यायालय या पब्लिक अथॉरिटी या कानून द्वारा अधिकृत (ऑथॉरिटी) अन्य व्यक्ति द्वारा, एविडेंस के रूप में प्राप्त किया जाना चाहिए।  मिथ्या घोषण देने के पीछे की मंशा यह है कि, आरोपी को मिथ्यात्व की जानकारी थी या उसे कथन के असत्य होने का ज्ञान था। घोषण, शपथ / प्रतिज्ञान (ऐफर्मैशन) तक सीमित नहीं है। 

उप महाप्रबंधक, आई.एस.बी.टी. बनाम सुदर्शन कुमारी

इस मामले में, एक शपथ ली गई थी जो एक नोटरी के नाम पर ली गई थी, जो मौजूद नहीं था इसलिए, यह कहा गया कि यह भारतीय दंड संहिता की धारा 199 का स्पष्ट उल्लंघन था।

मिथ्या घोषण का उपयोग (यूज़ ऑफ फॉल्स घोषण)

एक घोषण या बयान, जो व्यक्ति, अदालत के सामने देता है, यह जानते हुए भी कि वह झूठ है या सत्य नहीं है, तो वह व्यक्ति, धारा 200 के तहत दंडित किया जाता है। कोई व्यक्ति, जो किसी भी सबूत को गलत होने के बारे में जानते हुए भी, उसका ऐसी किसी भी घोषण के लिए, भ्रष्ट रूप से उपयोग करता है या सच के रूप में उपयोग करने का प्रयास करता है, तो उसको, उसी तरह से दंडित किया जाएगा जैसे कि उसने मिथ्या एविडेंस दिया हो।

पब्लिक जस्टिस के विरुद्ध अपराध 

धारा 201 से 229A , पब्लिक जस्टिस के विरुद्ध अपराधों की व्याख्या करती है, जिसका वर्णन आगे किया गया है।

अपराध के एविडेंस को गायब कर देना (कॉज़िंग द डिसअपीयरिंग ऑफ एविडेंस)

 इसकी दो श्रेणियां हैं:

  1. गायब कर देना
  2. मिथ्या सूचना

यह दोनों का इरादा अपराधी की छानबीन करना है। मान लीजिए, कि दो दोस्त A और B हैं। A ने X की हत्या की, तो X के शरीर को छिपाने के लिए और A को आरोपों से बचाने के लिए B उसकी मदद करता है, इसलिए यह धारा 201 के तहत आता है क्योंकि यहां सबूतों को गायब किया गया है। 

धारा 201 दो भावों से संबंधित है:

  1. सबूतों को गायब करना।
  2. अपराध के बारे में गलत जानकारी देना।

धारा 201 के आधार:

  • अपराध अवश्य किया होना चाहिए।
  • आरोपी द्वारा, अपराध से संबंधित सबूत गायब होने चाहिए।
  • अपराध के बारे में झूठी जानकारी दी जानी चाहिए (आरोपी जानता है कि यह झूठा है)।
  • इरादा- अपराधी को कानूनी सजा से बचाने के लिए।

अपराध का होना ( कमीशन ऑफ ऑफेंस)

अपराध करना अनिवार्य शर्त है कि यह एक आवश्यक स्तिथि  है या एक ऐसी चीज है जो आवश्यक है।

पलविंदर कौर बनाम पंजाब राज्य– इस मामले में, पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ, विवाहेतर (एक्सट्रा मैरिटल) संबंध के चलते, पति की हत्या कर दी। इसलिए, पत्नी और उसके प्रेमी ने पति के शव को ट्रॉली में डालकर कुएं में फेंक दिया। एक महीने बाद जब उसका शव शवपरीक्षा (पोस्टमार्टम) में मिला तो केवल पोटैशियम सायनाइड मिला और उसके अलावा कुछ नहीं मिला। उन दोनों, पर धारा 302 और 201 के तहत आरोप लगाए गए। लेकिन ऐसा कोई सबूत नहीं था जो यह साबित कर सकता, कि हत्या पत्नी ने अपने प्रेमी की मदद से की है। तो परिणाम यह हुआ कि, धारा 302 के तहत मुख्य अपराध स्थापित नहीं हो पाया जिसके परिणामस्वरूप धारा 201 को स्थापित नहीं किया गया, क्योंकि अपराध होना एक अनिवार्य शर्त है।

झूठी जानकारी देना (गिविंग फॉल्स इनफॉरमेशन)

कोडाली पूरन चंद्र राव वर्सेज पब्लिक प्रॉसिक्यूटर, आंध्र प्रदेश,एक गांव में एक नदी थी, जिसमें एक महिला का तैरता हुआ शव मिला और उस नदी से 2 कि.मी. दूर एक झील थी, जिसमें एक और शव मिला। जिस जांच अधिकारी का कर्तव्य था, उसने कहानी बना दी कि गांव में दो प्रोस्टीटूट आईं और उन दोनों दोनों का बलात्कार हुआ, जिससे उन्होंने आत्महत्या कर ली और बिना पोस्टमार्टम के ही उसने मामले की रिपोर्ट बना दी और दोनों को अपराधी बना दिया। जब उन्हें उच्च अधिकारियों को रिपोर्ट करना था तो उन्होंने झूठी सूचना दी और जब मामला सर्वोच्च न्यायालय को भेजा गया था, तो यह माना गया कि हालांकि जांच अधिकारियों पर कोई निश्चित सबूत नहीं है, तो यह कहा जा सकता है कि उन्होंने झूठी जानकारी दी है और यह तथ्यों के आधार पर स्थापित किया जाता है और इसलिए झूठी सूचना देने के लिए पुलिस अधिकारी को धारा 201 के तहत दोषी ठहराया जाता है।

सूचना देने में चूक (ओमिशन टू गिव इंफॉर्मेशन) 

धारा 202, सूचित करने के लिए बाध्य व्यक्ति द्वारा, अपराध की जानकारी देने में जानबूझकर चूक, के बारे में बताती है। उदाहरण के लिए, एक पुलिस अधिकारी अपने घर से थाने तक अपने कर्तव्य के लिए जा रहा था। रास्ते में उसने देखा कि वहाँ भीड़ है और वे सभी एक व्यक्ति को पीट रहे हैं। जब उसने पूछताछ की तो उसे पता चला कि उस व्यक्ति ने एक दुकान से कुछ चुराया था इसलिए वे सभी उसे पीट रहे थे लेकिन उसने कोई कार्रवाई नहीं की और चला गया इसलिए उस पर धारा 202 के तहत आरोप लगाया जाएगा क्योंकि यह उसकी जिम्मेदारी, कानूनी कर्तव्य और क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के तहत वैध दायित्व था कि, जब भी कोई संज्ञेय अपराध उसके ज्ञान में आए, तो उसे, उसकी रिपोर्ट करनी है और कार्यवाही करनी शुरू कर  देनी है ।

जानकारी देने के लिए चूक के आधार: (इंग्रेडिएंट्स ऑफ ओमिशन टू गिव इंफॉर्मेशन)
  • यह मानने का ज्ञान या कारण होना चाहिए कि कोई अपराध किया गया है।
  • व्यक्ति को उस अपराध के बारे में कोई भी जानकारी देने से जानबूझकर चूक होनी चाहिए।
  • व्यक्ति कानूनी रूप से जानकारी देने के लिए बाध्य है फिर भी वह जानकारी देने से चूक जाता है।
  • उसे या तो भांति के कारावास से, जिसकी अवधि छह महीने तक की हो सकती है, या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जाएगा।

सूचना देने के लिए जानबूझकर चूक (इंटेंशनल ओमिशन टू गिव इनफार्मेशन)

कई बार बोनाफाइड गलतियाँ हो जाती हैं, जो अत्यंत गुड फेथ के साथ की जाती हैं। तो उस समय, जानबूझकर  की गई चूक से बचा जा सकता है यदि वे वास्तविक गलती के कारण हुई थी। 

हरिश्चंद्र सिंह सज्जन सिंह राठौड़ बनाम गुजरात राज्य

यह मामला, न्यायिक उत्पीड़न (टॉर्चर) से जुड़ा था, जिसमें एक पुलिस अधिकारी ने एक व्यक्ति को ज्यूडिशियल कस्टडी में रखा और उत्पीड़न किया। जिसके कारण उसे कई चोटें आई, इसलिए पुलिस कार्यालय ने उसे पास के अस्पताल में भेज दिया, लेकिन जब तक वह व्यक्ति अस्पताल तक पहुंचा, तब तक उनकी मृत्यु हो गई और मामला 304 (2) के तहत आरोपित किया गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने माना कि दो कारणों से कल्पेबल होमीसाइड लागू नहीं होती, पहला यह है कि अपराध स्थापित नहीं किया गया और दूसरा, कानूनी कर्तव्य जिसके तहत अपराध की रिपोर्ट करानी चाहिए और जानबूझकर की गई चूक, दोनों ही शामिल नहीं थे।

जानकारी देने के लिए कानूनी दायित्व (लीगल ऑब्लिगेशन टू गिव इंफॉर्मेशन)

जानकारी देने की कानूनी बाध्यता होनी चाहिए तभी धारा 202 अस्तित्व में आएगी। जब तक सूचना देने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है, तब तक कोई व्यक्ति, धारा 202 के अंतर्गत नहीं आ सकता।

किसी अपराध के बारे में गलत जानकारी देना (गिविंग फॉल्स इनफॉरमेशन अबाउट एन ऑफेन्स)

धारा 203 में किए गए अपराध के संबंध में झूठी सूचना देना:

  1. जो कोई, यह जानता हो या विश्वास रखता हो कि कोई अपराध किया गया है।
  2. उस अपराध के संबंध में कोई भी जानकारी देता है।
  3. जिसे वह जानता है या झूठा मानता है।
  4. दोनों में से किसी भी प्रकार के इंप्रिजनमेंट से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकती है या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जाएगा।

उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति ‘X’ ने पुलिस स्टेशन में शिकायत की, कि उसके घर में 10 लाख के गहने, टीवी और अन्य चल संपत्ति चोरी हो गई है, हालांकि टीवी और अन्य संपत्ति चोरी हो गई थी, उसने 10 लाख के आभूषणों से संबंधित झूठी जानकारी दी।तो, उसके खिलाफ धारा 203 के तहत मामला दर्ज किया गया ।

धारा 203 के आधार 
  1. अपराध किया गया है।
  2. अभियुक्त जानता है या उसके पास यह मानने का कारण है कि ऐसा अपराध किया गया है।
  3. उसने उस अपराध की जानकारी दी। 
  4. इस प्रकार दी गई जानकारी झूठी थी और
  5. जब उसने ऐसी जानकारी दी तो वह जानता था या उसे यह विश्वास था कि वह झूठ है।

धारा 203 के तहत अपराध असंज्ञेय है, लेकिन पहली बार में अधिपत्र (वारंट) जारी किया जा सकता है। यह जमानती है लेकिन किसी भी मजिस्ट्रेट द्वारा कंपाउंडेबल और ट्राईएबल नहीं है। धारा 201, 202 और 203 संबंधित हैं लेकिन अलग हैं। ये तीनों धाराएं अपराध किए जाने के बाद किसी व्यक्ति के आचरण से संबंधित अपराधों के विभिन्न पहलुओं से संबंधित हैं।

न्यायालय की प्रक्रिया का प्रतिरूपण दुरुपयोग ( इमपरसोनेशन ऑफ एब्यूज़ ऑफ प्रोसेस ऑफ़ कोर्ट ऑफ़ जस्टिस)

यह एक आपराधिक कार्यवाही के प्रक्रियात्मक पहलू (एस्पेक्ट) से संबंधित है। धारा 206 से 210 केवल सीमित चीजों तक ही है। उदाहरण के लिए, दिल्ली में आपका घर है और अदालत ने संपत्ति को जब्त (सीज़) करने का आदेश दिया, तो आपने, अपने घर को बचाने के लिए तीसरे पक्ष के साथ समझौता किया ; और X को इस इरादे से बेच दिया, कि अदालत आपके घर को जब्त नहीं कर सकती और आप कह सकते हैं यह आपकी संपत्ति नहीं है और यह X की है, तो व्यक्ति धारा 203 के तहत अपराधी होगा।

अब यदि इसी उदाहरण में, X ने ध्रुव की संपत्ति ले ली ताकि वह अपनी संपत्ति को आरक्षित (फोर्टीफाइड) जब्ती से बचा सके और वह कुछ समय बाद उसकी संपत्ति वापस कर सके तो, X पर धारा 207 के तहत आरोप लगाया गया और ध्रुव पर धारा 206 के तहत आरोप लगाया गया।

धारा 208: बकाया राशि के लिए कपटपूर्वक (फ़्रॉडुलेंटली) डीक्री सहन करना। मान लीजिए 10 लाख की चल संपत्ति है जो कि एक गाड़ी है और अनुभव ने कार खरीदने के लिए बैंक से कर्ज लिया था और वह  गाड़ी की ई.एम.आई. नहीं भर पा रहा था और इसलिए कंपनी ने उसे सूचना पत्र (नोटिस) भेजा, कि या तो वह उन्हें ई.एम.आई चुकाए या उसकी गाड़ी को जब्त कर लिया जाएगा। लेकिन अनुभव ने भुगतान करने से इनकार कर दिया, इसलिए कंपनी ने अदालत से सूचना पत्र जारी करवाया। अनुभव ने अपनी मित्र सिमरन से कहा कि वह, उसके खिलाफ 11 लाख रुपए लेने के लिए केस दर्ज करें, ताकि अनुभव धोखाधड़ी से केस हार जाए और यह कह पाए कि सिमरन उसकी गाड़ी ले सकती है। सिमरन ने उसकी गाड़ी ले ली ताकि इसे कंपनी से बचाया जा सके और कुछ समय बाद जब मामला बंद हो  गया तो वह अपनी  गाड़ी वापस ले जा सके और उसे कुछ पैसे दे। इसलिए, धारा 208 के तहत अनुभव  को आरोपित किया जाएगा।

धारा 210: कपटपूर्वक, बकाया राशि के लिए अदालत हुक्म प्राप्त करना। उपरोक्त उदाहरण में, सिमरन को धारा 210 के तहत अपराधी माना जाएगा।

धारा 209: अदालत में बेईमानी करना या मिथ्या दावा करना। जो कोई धोखे से या बेईमानी से किसी व्यक्ति को चोट पहुँचाने या नाराज़ करने के लिए अदालत में झूठा दावा करता है, तो उसे सजा में, दो साल की कैद और जुर्माने से दंडित किया जाएगा।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

मिथ्या एविडेंस, किसी व्यक्ति द्वारा न्यायिक मामलों में निर्णय को कपटपूर्वक बदलने के लिए दी गई जानकारी होती है। मिथ्या एविडेंस को फॉर्ज्ड, फैब्रिकेटेड, भ्रष्ट एविडेंस के रूप में भी जाना जाता है। मिथ्या एविडेंस देने का इरादा दोषसिद्धि हासिल करना और निर्दोष को दोषी बनाना होता है। धारा 191, मिथ्या एविडेंस देने के बारे में बताती है और धारा 192, मिथ्या एविडेंस बनाने के बारे में बताती है। इंडियन पीनल कोड के अध्याय 11 में मिथ्या एविडेंस देने और फैब्रिकेट करने और पब्लिक जस्टिस के खिलाफ अपराधों से संबंधित  प्रोविजन निर्धारित किए गए है।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

भारतीय दंड संहिता,1860 

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