रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्जयूगल राइट्स और ज्यूडीशियाल सेपरेशन की अवधारणा

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Hindu Marriage Act, 1955
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यह लेख, गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की छात्रा, Shivani Verma द्वारा लिखा गया है। इस लेख में, उन्होंने कन्जयूगल राइट्स के सिद्धांत, इसके अधरों, इतिहास, पति और पत्नी के कन्जयूगल राइट्स और इसकी कॉन्स्टीट्यूशनल वैलिडिटी पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

विवाह की आवश्यक चीजों में से एक यह है कि पति-पत्नी साथ रहें और एक-दूसरे के आपसी अधिकारों का सम्मान करें। पति-पत्नी दोनों के एक-दूसरे के प्रति कुछ पारस्परिक दायित्व (म्यूच्यूअल ओब्लिगेशंस) होते हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, चाहे कुछ भी हो जाये और यह ही वैवाहिक संबंधों की एक विशिष्ट विशेषता होती है। किसी अन्य संबंध में, समाज में साथ रहने का अधिकार मौजूद नहीं है। “कन्जयूगल राइट्स” की उक्ति (एक्सप्रेशन) दो विचारों को दर्शाती है: 

  • पति-पत्नी का एक-दूसरे के साथ समाज में रहने का अधिकार।
  • वैवाहिक संबंध बनाने का अधिकार।

मनु के अनुसार, “परस्पर (म्यूच्यूअल) वफ़ादारी मृत्यु तक बनी रहनी चाहिए। विवाह के द्वारा जुड़े एक पुरुष और महिला को लगातार सावधान रहना चाहिए, क्योंकि यदि वे अपनी पारस्परिक वफ़ादारी का उल्लंघन करते हैं, तो कहीं ऐसा न हो कि वे किसी भी समय अलग हो जाएं। ”हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955” के तहत यह ही एकमात्र सकारात्मक (पॉजिटिव) उपाय है, जबकि अन्य उपाय विवाह को कमजोर करते हैं।

कन्जयूगल का अर्थ

“कन्जयूगल” शब्द का अर्थ “वैवाहिक” होता है। यह एक विवाहित जोड़े के बीच संबंधों को संदर्भित करता है।  कन्जयूगल राइट्स, दोनों पति-पत्नी के वैवाहिक अधिकार होते हैं। एक पति या पत्नी एक दूसरे के समाज, आराम और साथ के हकदार होते हैं। “रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स” उक्ति का अर्थ वैवाहिक अधिकारों का पुन-स्थापन (रेस्टोरेशन) है। रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स से सबंधित प्रावधान (प्रोविज़न) विभिन्न पर्सनल लॉज़ में दिए गए हैं जैसे:

  1. सेक्शन 9, हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955
  2. सेक्शन 22,स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954
  3. सेक्शन 32, इंडियन डाइवोर्स एक्ट, 1869
  4. सेक्शन 36, द पारसी मैरिज एंड डाइवोर्स एक्ट, 1936

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स को ग्रांट करने के आधार 

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री प्राप्त करने के लिए, याचिकाकर्ता (पिटीशनर) को यह साबित करना होगा कि:

  1. याचिकाकर्ता के समाज से, प्रतिवादी (रेस्पोंडेंट) ने अपने आप को अलग कर लिया है।
  2. प्रतिवादी ने अपने आप को अलग,बिना किसी उचित बहाने से किया है।
  3. अदालत इस बात से संतुष्ट है कि याचिका (पिटीशन) में दिए गए बयान सही हैं।
  4. आवेदन देने से इंकार करने का कोई कानूनी आधार नहीं है।
  5. तब अदालत प्रतिवादी पक्ष को याचिकाकर्ता के साथ रहने का निर्देश दे सकती है।

समाज से अपने आप को अलग कर लेना

इसका अर्थ है सभी प्रकार के वैवाहिक संबंधों से अलग होना। इसमें शामिल है:

  1. साथ रहने से इंकार,
  2. एक दूसरे को दिलासा देने से इंकार,
  3. वैवाहिक संभोग (इंटरकोर्स) करने से इंकार करना, या
  4. वैवाहिक दायित्वों के निर्वहन (डिस्चार्ज) से इनकार।

ज़ावरी बनाम ज़ावरी, के मामले में, अदालत ने कहा कि रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की याचिका में यदि पीड़ित, प्रतिवादी द्वारा समाज से अलग होने को साबित करता है, तो बचाव पक्ष को अदालत में यह साबित करना होगा कि उसके पास अलग होने का उचित कारण था, और तभी कोर्ट द्वारा रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री दी जा सकती है। जब पति, पत्नी को उसके माता-पिता के घर से वापस आने, उसके साथ रहने और पत्र लिखकर वैवाहिक जीवन फिर से शुरू करने के लिए राजी करता है और उस पत्र में लिखी अनुचित बातों के कारण, वह अपने पति के साथ रहने के लिए तैयार नहीं होती, तो अदालत ऐसे पत्रों हानिरहित (हार्मलेस) दस्तावेज (डॉक्यूमेंट) समझेगी।

बिना किसी उचित कारण के

बिना किसी उचित कारण में निम्नलिखित शामिल हैं:

  1. पति द्वारा उच्च जीवन स्तर (हाई स्टैंडर्ड ऑफ़ लिविंग) नहीं बनाया रखा जाता है,
  2. पति ने उसके साथ उसके पैतृक (पैरेंटल) स्थान पर रहने से इंकार कर दिया, या
  3. पार्टियों के बीच एक समझौता है (पूर्व-विवाह/विवाह के बाद) और यह सार्वजनिक (पब्लिक) नीति आदि का विरोध करता है।

शांति निगम बनाम रमेश चंद्र, के मामले में, अदालत ने कहा कि पति का समाज से अलग होना शारीरिक हो सकती है, लेकिन उसकी कंपनी छोड़ने का कोई इरादा नहीं था। इसलिए, जब तक पत्नी पूरी तरह से अपने पति के पास न जाने का फैसला नहीं कर लेती और वह उसके साथ सभी वैवाहिक संबंधों को तोड़ नहीं देती, तब तक यह रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स का एक आधार होगा। पति के कहने पर नौकरी छोड़ने से इंकार करना रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री का आधार नहीं है। कोर्ट ने यह भी कहा कि वह पुरानी अवधारणा (कांसेप्ट) और नियमों का पालन नहीं करेगी, उसका फैसला आज-कल के हालात को देखते हुए ही होगा।

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री का प्रभाव

यदि रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स का आदेश अदालत द्वारा पारित (पास) किया जाता है, तो प्रतिवादी के लिए वादी (प्लैनटिफ) के साथ सहवास (कोहेबिटेशन) फिर से शुरू करना अनिवार्य होगा और यदि प्रतिवादी एक वर्ष के भीतर ऐसा करने में विफल रहता है, तो यह वादी के लिए तलाक के आधार के रूप में कार्य कर सकता है।

सुशील कुमारी डांग बनाम प्रेम कुमार के मामले में, अदालत ने, रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री के खिलाफ एक पत्नी की अपील को अनुमति दी थी। पति ने रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए याचिका दायर की क्योंकि पत्नी ने उसकी इच्छा और सहमति के खिलाफ अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया था और अलग रह रही थी और वह वापस आने के लिए तैयार नहीं थी। लेकिन अदालत ने मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के माध्यम से पाया कि इस याचिका के पीछे पति की मंशा (इंटेंशन) सही नहीं थी। इसलिए कोर्ट ने पत्नी की अपील को मंजूर कर लिया।

शांति देवी बनाम बलबीर सिंह, के मामले में, अदालत ने रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए याचिका दायर करने की आवश्यकताओं के बारे मे बताया। कोर्ट ने कहा कि यह देखना होगा कि क्या एक पति या पत्नी बिना किसी उचित कारण के दूसरे के समाज से अलग हो गए हैं या नहीं। दूसरी आवश्यकता यह है, कि अदालत को याचिका में दिए गए तथ्यों से संतुष्ट होना चाहिए, और अंत में यह की, याचिका को खारिज करने का कोई कानूनी आधार नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर पति का किसी लड़की से प्रेम संबंध हो, या पत्नी के प्रति उसका व्यवहार अत्याचारी हो, तो यह अलग होने के उचित कारन माने जाएंगे।

सहवास का पुनरारंभ (रिसम्प्शन ऑफ़ कहेबिटेशन)

यदि दोनों पक्षों ने सहवास फिर से शुरू किया तो रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए याचिका नही मानी जाएगी। यदि उनकी परिस्थितियाँ यह साबित करती हैं कि, एक नया वैवाहिक घर स्थापित करना संभव नहीं है, तो संभोग (सेक्सुअल इंटरकोर्स) को फिर से शुरू करके सहवास का पुनरारंभ हो सकता है। लेकिन यह पार्टियों की मंशा पर निर्भर करता है। केवल संभोग के कार्य इस बात का प्रमाण नहीं होंगे कि पक्षकारों ने सहवास फिर से शुरू कर दिया है।

यदि एक पक्ष, दूसरे के समाज से अलग हो जाता है और बाद में नेक इरादे से सहवास को फिर से शुरू करने के लिए कई प्रयास करता है और दूसरा पक्ष अब सहवास करने से इंकार कर देता है, तो, इस मामले में, यह माना जाएगा कि जो पक्ष शुरू में समाज से अलग हुआ था, वह रेस्टीट्यूशन की डिक्री का हकदार होगा, क्योंकि उसकी मूल गलती के रूप में उसके द्वारा सहवास को फिर से शुरू करने के लिए कई वास्तविक प्रयास किए गए थे, जिससे की सब ठीक किया जा सके। प्रयास एक सच्चे इरादे से होना चाहिए यदि ऐसा इरादा नहीं है तो सहवास का फिर से शुरू करने का कोई सवाल ही नहीं हो सकता है।

वैवाहिक अधिकार (मैट्रिमोनियल राइट्स)

एक पति और पत्नी के विवाह होने के दिन से ही उनके कई अधिकार और कर्तव्य शुरू हो जाते हैं। उन अधिकारों और कर्तव्यों को “वैवाहिक अधिकार” के रूप में जाना जाता है। विवाह के बाद दुल्हन को अपना घर छोड़कर नए परिवेश (सुर्रोाउंडिंग्स) के साथ तालमेल बैठने पढ़ते है। उसे विभिन्न प्रकार के अत्याचारों से बचाने के लिए, जिनका उसे सामना करना पड़ सकता है, उसे विभिन्न वैवाहिक अधिकार प्रदान किए गए हैं, जैसे:

  1. स्त्रीधन का अधिकार: विवाह से पहले और बाद में मिलने वाले सभी स्त्रीधन पर पत्नी का अधिकार होता है। स्त्रीधन एक ऐसी संपत्ति या उपहार होते है, जो किसी महिला को उसकी विवाह से पहले, उसके दौरान या बाद में दिए जाते हैं, जिस पर उसका पूरा हक़ होता है।
  2. निवास (रेजिडेंस) का अधिकार: पत्नी को वैवाहिक घर में रहने का अधिकार होता है जहां वह अपने पति के समाज को साझा (शेयर) करती है।
  3. एक प्रतिबद्ध रिश्ते (कमिटेड रिलेशनशिप) का अधिकार: पत्नी को पति की ओर से, एक प्रतिबद्ध संबंध रखने का अधिकार होता है, पति द्वारा किसी भी आधार पर बेवफाई करने पर अदालत उसे दंडित कर सकती है।
  4. गरिमा (डिग्निटी) और सम्मान के साथ जीने का अधिकार: उसके साथ सम्मान से व्यवहार किया जाना चाहिए और घर के अन्य सभी लोगों के समान, उसे भी गरिमा के साथ रहने का अधिकार होना चाहिए।
  5. पति द्वारा भरण-पोषण भत्ते (मेंटेनेंस) का अधिकार: पति द्वारा उसे भरण-पोषण और वित्तीय (फाइनेंशियल) सहायता प्रदान की जानी चाहिए।
  6. बच्चे के भरण-पोषण का अधिकार: नाबालिग बच्चे के मामले में, पति बच्चों के भरण पोषण और वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए जिम्मेदार है।

स्वराज गर्ग बनाम के.एम. गर्ग के मामले  में, अदालत ने यह कहा कि, यदि पति और पत्नी लाभकारी रूप से नौकरी कर रहें हैं और पत्नी पति से अधिक कमा रही है, तो पत्नी के पास पति से अलग रहने के पर्याप्त कारण हैं। इसलिए, इस मामले में, अदालत ने पति के पक्ष में रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए याचिका को मंजूरी नहीं दी। कोर्ट ने यह भी कहा कि हिंदू कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है कि पत्नी को वैवाहिक घर के लिए जगह चुनने का कोई अधिकार नहीं है।

जुडिशियल सेपरेशन

यदि दोनों पक्ष तलाक के बजाय, एक-दूसरे को कुछ समय देने के लिए तैयार हैं और तुरंत ही विवाह के विघटन (डिसॉलूशन) की मांग नहीं करना चाहते हैं, तो उनके द्वारा जुडिशियल सेपरेशन के उपाय की मांग की जाता है। यह उपाय विवाह की वैधता (लीगेलिटी) को प्रभावित नहीं करता। यह पति-पत्नी के बीच वैवाहिक अधिकारों का अस्थायी (टेम्पररी) निलंबन (सस्पेंशन) होता है। 

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के सेक्शन 10 के तहत, जुडिशियल सेपरेशन का प्रावधान (प्रोविज़न) प्रदान किया गया है। यदि पति-पत्नी के बीच सहवास एक वर्ष या उससे अधिक के लिए फिर से शुरू नहीं होता है तो जुडिशियल सेपरेशन  की डिक्री, तलाक के आधार के रूप में कार्य करती है।

सेक्शन 10(1) में यह कहा गया है कि, हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के शुरू होने से पहले या बाद में हुए विवाह के दोनों पक्षों को, सेक्शन 13(1) में प्रदान किये गए किसी भी आधार पर जुडिशियल सेपरेशन की डिक्री प्राप्त करने के लिए अदालत में एक याचिका प्रस्तुत करनी होगी और पत्नी भी सेक्शन 13(2) में प्रदान किये गए  आधारों पर तलाक की मांग कर सकती है।

सेक्शन 10(2) में यह प्रदान किया गया है कि, जुडिशियल सेपरेशन की डिक्री प्राप्त करने के बाद, दोनों पक्षों के लिए एक साथ रहना अनिवार्य नहीं है, लेकिन अदालत डिक्री को रद्द कर सकती है यदि उसे ऐसा करना उचित लगता हो तो।

जुडिशियल सेपरेशन के लिए आधार

जुडिशियल सेपरेशन के लिए निम्नलिखित आधार हैं –

  1. पति या पत्नी के प्रति एडल्टरी: यदि कोई पक्ष अपने पति या पत्नी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ अपनी इच्छा से संभोग करता है, तो यह दूसरे पक्ष के लिए जुडिशियल सेपरेशन के आधार के रूप में कार्य कर सकता है।
  2. पति या पत्नी के प्रति क्रूरता: जब याचिकाकर्ता के साथ क्रूरता का व्यवहार किया जाता है, तो याचिकाकर्ता जुडिशियल सेपरेशन की डिक्री याचिका दर्ज कर सकता है।
  3. पति या पत्नी द्वारा परित्याग (डेसेर्शन): यदि एक पति या पत्नी दो साल की निरंतर अवधि के लिए उचित बहाने के बिना, एक दूसरे सहमति के बिना एक दूसरे को छोड़ देता है, तो उपेक्षित (नेग्लेक्टिड) पति या पत्नी इस आधार पर जुडिशियल सेपरेशन की मांग कर सकते है।
  4. पति या पत्नी के दिमाग की अस्वस्थता (अनसाउंडनेस): जुडिशियल सेपरेशन की डिक्री प्राप्त करने के लिए एक याचिकाकर्ता को यह साबित करना होगा कि प्रतिवादी के अस्वस्थ दिमाग के लिए कोई इलाज नहीं है और याचिकाकर्ता से प्रतिवादी के साथ रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
  5. एक पक्ष, दूसरे पक्ष को किसी दूसरे धर्म में बदलने का प्रयास करता है: यदि एक पक्ष दूसरे पक्ष को किसी दूसरे धर्म में परिवर्तित करने का प्रयास करता हैं तो यह गैर-परिवर्तित (नॉन कनवर्टिबल) पति या पत्नी के लिए जुडिशियल सेपरेशन के आधार के रूप में कार्य कर सकता है।
  6. कोई भी पक्ष संक्रामक (वाईरलेंट) और लाइलाज कुष्ठ रोग (लेप्रोसी) से पीड़ित है: यदि पति या पत्नी किसी संक्रामक या लाइलाज कुष्ठ रोग से पीड़ित है तो दूसरा पक्ष, इस आधार पर जुडिशियल सेपरेशन के लिए याचिका दर्ज़ कर सकता है।
  7. कोई भी पक्ष यौन (वेनेरिअल) रोग से पीड़ित है: यदि प्रतिवादी किसी ऐसे यौन रोग से पीड़ित हैं, जो और लोगों में भी फ़ैल सकता हैं तो, याचिकाकर्ता इस आधार पर जुडिशियल सेपरेशन की डिक्री की मांग कर सकता है।
  8. यदि कोई पति या पत्नी दुनिया का त्याग (रिनाउंस) करता है: यदि एक पक्ष ने दुनिया को त्याग दिया है, और उससे पहले वह विवाहित था, तो दूसरे पक्ष को जुडिशियल सेपरेशन की मांग करने का अधिकार है।
  9. अगर पति या पत्नी लगातार 7 साल की अवधि से गायब है: अगर पति या पत्नी लगातार 7 साल की अवधि के लिए लापता है और लापता पति या पत्नी के बारे में उसके करीबी प्रियजनों के पास भी कोई जानकारी नहीं है तो याचिकाकर्ता तलाक की मांग कर सकता है।

पत्नी के लिए जुडिशियल सेपरेशन की मांग करने के लिए अन्य दूसरे आधार

एक पत्नी न केवल सेक्शन 13(1) में उल्लिखित आधारों पर बल्कि सेक्शन 13(2) में दिए गए आधारों पर भी तलाक की मांग कर सकती है।

सेक्शन 13(2) में निम्नलिखित आधार प्रदान किये गए हैं:

  1. द्विविवाह (बाइगेमी): पत्नी द्विविवाह के मामले में जुडिशियल सेपरेशन के डिक्री की मांग कर सकती है, यदि वह यह साबित कर पाती है कि उस प्रतिवादी-पति ने इस एक्ट के शुरू होने से पहले फिर से विवाह की थी और याचिका की प्रस्तुति के समय उसकी दूसरी पत्नी जीवित थी।
  2. रेप, सोडोमी, पाश्चात्यता (बेस्टियलिटी): यदि पति रेप, सोडोमी, पाश्चात्यता का दोषी होता है तो पत्नी इस आधार पर जुडिशियल सेपरेशन की मांग कर सकती है।
  3. मेंटेनेंस के आदेश के बाद सहवास का पुनरारंभ नहीं: यदि, हिंदू अडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट, 1956 के सेक्शन 18 के तहत मेंटेनेंस की डिक्री पारित होने के बाद से पार्टियों के बीच सहवास एक वर्ष या अधिक की अवधि के लिए फिर से शुरू न किया गया हो या पति के खिलाफ सी.आर.पी.सी. के सेक्शन 125 के तहत पत्नी इस आधार पर जुडिशियल सेपरेशन की मांग कर सकती है।
  4. विवाह को नामंज़ूर (रेप्युडिएशन) करना [यौवन (प्यूबर्टी) के विकल्प पर]: यदि किसी लड़की की विवाह 15 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले हो जाती है, तो वह 15 वर्ष की आयु प्राप्त करने और 20 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद अपनी विवाह को अस्वीकार कर सकती है।

जुडिशियल सेपरेशन के आदेश के प्रभाव (इफेक्ट्स ऑफ़ आर्डर ऑफ़ जुडिशियल सेपरेशन)

जुडिशियल सेपरेशन के आदेश के निम्नलिखित प्रभाव होते हैं –

  1. इन मामलों में विवाह का डिसोल्यूशन नहीं होता है।
  2. पति-पत्नी के लिए एक साथ रहने या एक साथ खाने की कोई बाध्यता नहीं होती है, क्योंकि जुडिशियल सेपरेशन को पूरी तरह से अलग करने के लिए होता है।
  3. डिक्री के बाद, दोनों पक्षों के लिए एक साथ रहना जरूरी नहीं होता है।
  4. दोनों पक्ष, विवाह की रीति को दोबारा ना किये, एक-दूसरे के साथ सहवास फिर से शुरू कर सकते हैं।
  5. यदि पति या पत्नी में से कोई एक, डिक्री की अवधि के दौरान विवाह कर लेता है, तो वह बाइगेमी के लिए अपराधी माना जाएगा।
  6. पत्नी को, डिक्री की तारीख से लेकर अलग होने तक, एक स्वतंत्र महिला माना जाता है।
  7. याचिकाकर्ता:
  1. यदि वह पत्नी है, तो पति से भरण-पोषण के लिए हकदार हो जाती है, और
  2. यदि वह पति है, तो वह हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के सेक्शन 25 के तहत पत्नी से भरण-पोषण की मांग कर सकता है।

कन्ज्यूगल राइट्स का इतिहास (हिस्ट्री ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स)

विभिन्न देशों में कन्ज्यूगल राइट्स का विकास अलग-अलग तरीके से हुआ है। उन सब की तुलना स्थापित करने के लिए, हम सबसे पहले अंग्रेजी कानून, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में कन्ज्यूगल राइट्स के विकास के बारे में देखेंगे। उसके बाद, हम भारत में प्रदान किये गए कन्ज्यूगल राइट्स के इतिहास के बारे में और इसमें वर्षो से आते हुए बदलाव के बारे में पढ़ेंगे और समझने की कोशिश करेंगे।

अंग्रेजी कानून (इंग्लिश लॉ)

सबसे पहले अंग्रेजी कानून में, रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री को, चर्च संबंधी (इक्लीज़ीऐस्टिकल) अदालतों द्वारा प्रदान किया गया था, जिन्हें कोर्ट क्रिश्चियन या कोर्ट स्पिरिचुअल के नाम से भी जाना जाता था। बाद में तलाक और वैवाहिक (मैट्रिमोनियल) कारणों के लिए बनाई गई अदालतों के माध्यम से डिक्री प्राप्त की जाने लगी।

वर्ष 1813  से पहले, वैवाहिक अपराधों में परित्याग (डेज़रशन) शामिल नहीं था, इसलिए एक परित्यक्त (डेसर्टिङ) पति या पत्नी, रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के उपाय के लिए याचिका दर्ज कर सकते हैं। यदि, पति या पत्नी को एक बार डिक्री प्रदान कर दी जाती है,  तो उन्हें घर वापिस जाना पड़ता है और अपने वैवाहिक दायित्वों को फिर से जारी करना पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति डिक्री का पालन नहीं करता था, तो उसे धर्म से बहिष्कार (एक्स्कम्यूनिकेशन) करने की सजा दी जाती थी।

निम्नलिखित एक्ट्स जो उस समय प्रचलित थे, वे इस प्रकार हैं:

  1. इक्लीज़ीऐस्टिकल कोर्ट्स एक्ट, 1813, ने धर्म से बहिष्कार की सजा को 6 महीने तक के कारावास से बदल दिया।
  2. मैट्रिमोनियल कॉसेस एक्ट, 1923, में यह प्रदान किया गया था कि, पत्नी को अब केवल क्रूरता के आधार पर कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री मांगने की आवश्यकता नहीं थी, बल्कि उसे इस एक्ट के द्वारा अपने पति को तलाक देने का अधिकार दिया गया था। इस एक्ट ने, पति और पत्नी दोनों के लिए तलाक के आधार को बराबर कर दिया।
  3. सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ जुडिकेचर (कंसोलिडेशन) एक्ट, 1925, ने मैट्रिमोनियल कॉसेस एक्ट, 1923 को निरस्त (रिपील) कर दिया था। इस एक्ट के तहत, कन्ज्यूगल राइट्स के आदेश का न पालन करने में, विफलता को परित्याग नहीं माना जाएगा और वह जुडिशियल सेपरेशन का आधार ही माना जाएगा। पति और पत्नी के लिए एक्ट द्वारा नए प्रावधान भी बनाये गए थे, निर्वाह-धन (एलीमनी) जो पति द्वारा पत्नी को प्रदान किया जाता है, पति और पत्नी के बीच संपत्ति के हिस्से और बच्चों की हिरासत (कस्टडी) से संबंधित प्रावधान भी बनाये गए थे।
  4. मैट्रिमोनियल प्रोसीडिंग्स एंड प्रॉपर्टी एक्ट,1970 (अबॉलिशन एक्ट) ने कन्ज्यूगल राइट्स की कार्रवाई को समाप्त कर दिया क्योंकि इसे एक पुरानी कार्रवाई के रूप में देखा गया था।

कनाडा

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स, कनाडा में कानून का एक हिस्सा रहा है क्योंकि परंपरागत (ट्रेडीशनली) रूप से कनाडाई परिवार के नियम पहले से ही अंग्रेजी कॉमन लॉ में मौजूद अवधारणाओं पर आधारित थे, लेकिन क्यूबेक में ऐसा नहीं था। फैमिली रिलेशन्स एक्ट, आर.एस.बी.सी. 1979 और कई अन्य प्रावधानों के माध्यम से ब्रिटिश कोलंबिया में रेस्टीट्यूशन की कानूनी कार्रवाई को समाप्त कर दिया गया था।

अल्बर्टा में, फैमिली लॉ एक्ट, 2005 ने रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की कार्रवाई को समाप्त कर दिया। इसके अलावा, अल्बर्टा में कानून कभी सख्त नहीं रहा है। वास्तव में, यदि पति या पत्नी डिक्री का पालन नहीं करते हैं, तो यह जुडिशियल सेपरेशन के आधार के रूप में कार्य करता है।

सस्केचेवान में, रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के ऊपर आधारित सेक्शन को निरस्त (रिपील) करके इसने फॅमिली मेंटेनेंस एक्ट, एस.एस 1990-91 के माध्यम से इस अवधारणा को पूरी तरह से समाप्त कर दिया था।

नोवा स्कोटिया में, मैट्रिमोनियल स्टेट्यूट्स रिपील एक्ट ने 6 लेजिस्लेशन्स को निरस्त कर दिया था, उनमें से कुछ ने वर्ष 2012 में रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स का उल्लेख किया था।

न्यू ब्रंसविक में, जिस कानून में रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के प्रावधान शामिल थी, उसे “एक्ट तो रिपील द डाइवोर्स एक्ट” द्वारा निरस्त कर दिया गया था।

ऑस्ट्रेलिया

इस देश में, न्यायालयों को रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए डिक्री देने की कोई शक्ति नहीं थी क्योंकि इसे, फैमिली लॉ एक्ट,1975 द्वारा निरस्त कर दिया गया था। फैमिली लॉ एक्ट,1975 के सेक्शन 114 (2) में यह प्रदान किया गया था कि अदालत पक्षों को कन्ज्यूगल राइट्स या वैवाहिक सेवाएं को पूर्ण करने के लिए आदेश दे सकती है। लेकिन यह आखिरी बार 1978 में इस्तेमाल किया गया था और अब अप्रचलित (ओब्सोलेट) हो चुका है। इसे 2010 में लॉ कम्सिशन ऑफ़ ऑस्ट्रेलिया द्वारा भी समर्थन दिया गया था, और वे इस दृष्टिकोण (व्यू) के पक्ष में थे और उन्होंने यह कहा कि सेक्शन 114(2) फॅमिली लॉ के सिद्धांतों के साथ असंगत (इन्कन्सीस्टेन्ट) है इसलिए इसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

भारत

भारतीय कानूनों के द्वारा, अंग्रेजी कानूनों से रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के सिद्धांत को लिया गया है। ये अधिकार इंग्लैंड के विभिन्न उपनिवेशों (कॉलोनीज) से लिए गए थे। सभी धार्मिक समुदायों (कम्युनिटी) के लिए, किसी भी स्टेट्यूटरी कानून की उपस्थिति न होने के कारण, भारतीय कानून ने रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स को शामिल करने का आदेश पास किया है

इस सिद्धांत को पहली बार भारत में, 1886 में मुंशी बजलूर बनाम शमसूनाइसा बेगम के मामले में, प्रिवी काउंसिल द्वारा लागू किया गया था। इस सिद्धांत का महत्व 71वें लॉ कमीशन की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया था। यह रिपोर्ट प्रदान करती है कि तलाक और अलग होना ही एकमात्र समाधान है, विवाह एक संस्कारी बंधन है इसलिए बंधन को पूरी तरह से तोड़ने के बजाय सुलह के प्रयास किए जाने चाहिए।

पति के विवाह के कन्ज्यूगल राइट्स  

विवाह के बाद पति-पत्नी को साथ में रहना चाहिए। यदि किसी भी परिस्थिति में पत्नी, पति के साथ रहने से इनकार कर देती है और किसी उचित कारण के बिना उसके समाज सेअलग हो जाती है, तो पति रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए याचिका दर्ज़ कर सकता है। यदि अदालत संतुष्ट है और उस पर कोई कानूनी रोक नहीं होती है, तो याचिका को मंजूरी दी जाती है।

पत्नी द्वारा दर्ज़ रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की याचिका

यदि पति, पत्नी के समाज से अलग हो जाता है, और किसी भी वैवाहिक कर्तव्य का पालन करने से इनकार कर देता है और किसी भी वैवाहिक अधिकारों का पालन करने से भी इनकार कर देता है और वह भी कोई उचित कारण दिए बिना, तो उस स्थिति में पत्नी न्यायालय में, एक याचिका दर्ज़ करके रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के अधिकार की मांग कर सकती है।

क्या इस अवधि के दौरान पत्नी भरण-पोषण का दावा कर सकती है (ड्यूरिंग दिस पीरियड कैन द वाइफ क्लेम मेंटेनेंस)?

पति या पत्नी में से किसी को भी भरण-पोषण का अधिकार प्रदान किया जा सकता है, यदि वह खुद का पालन पोषण करने में सक्षम नहीं है या यदि वे अपने लिए जीविका कमाने के लिए आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हैं।

हां, एक पत्नी, हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के सेक्शन 25 के तहत भरण-पोषण की मांग कर सकती है। यदि पति डिक्री का पालन नहीं करता तो व स्थिति में अदालत उस की संपत्तियों को कब्ज़े में ले सकती है। यह जुडिशियल सेपरेशन के प्रावधान पर भी लागू होता है। इसके अलावा, यदि डिक्री का पालन एक वर्ष से अधिक की अवधि के लिए नहीं किया जाता है, तो इसे तलाक के आधार के रूप में माना जाता है।

साथ ही, हिंदू एडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट, 1956 का सेक्शन 18 उन आधारों को प्रदान करती है, जिनके तहत पत्नी भरण-पोषण की मांग कर सकती है और वे आधार जहां वह भरण-पोषण की मांग नहीं कर सकती है।

यदि पत्नी, पति को कन्ज्यूगल राइट्स से वंचित करती है (वाइफ डीनाइंग हस्बैंड कन्ज्यूगल राइट्स)

यदि पत्नी कन्ज्यूगल राइट्स का पालन करने से इनकार कर देती है या बिना किसी उचित कारण के पति के समाज से अलग हो जाती है, तो पति उस स्थिति में न्यायालय में रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए याचिका दायर कर सकता है।

उचित कारण (रिज़नेबल कॉज)

एक उचित कारण कोई भी ऐसी स्थिति हो सकती है, जिसके कारण पत्नी के लिए पति के साथ रहना असंभव हो जाता है। यदि पति की याचिका पर, अदालत संतुष्ट हो जाती है, कि पत्नी द्वारा प्रदान किये गए कारण उचित है, तो अदालत याचिका को खारिज कर देती है, अन्यथा वह पति के पक्ष में एक डिक्री पारित करती है।

सबूत का भार (बर्डन ऑफ़ प्रूफ) दोनों पक्षों, यानी पति और पत्नी पर होता है।

  1. याचिकाकर्ता: पति को यह साबित करना आवश्यक होगा कि पत्नी उसके समाज से अलग हो गई है।
  2. प्रतिवादी: पत्नी को पति के समाज से अलग होने के लिए उचित कारण दिखाने होंगे।

किन परिस्थितियों में पत्नी का पति के समाज से अलग होना उचित है (सरकमस्टेन्सिस अंडर व्हिच विदड्रॉल फ्रॉम द सोसाइटी ऑफ़ हस्बैंड इज़ जस्टीफ़ाइड)

  1. जब पति फिर से विवाह कर लेता है: यदि पहली पत्नी के जीवित रहने पर भी पति फिर से विवाह कर लेता है, तो वह दूसरी पत्नी द्वारा प्रदान किये गए रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स का अधिकार खो देता है और अस पत्नी के लिए पति के समाज से अलग होने का यह एक वैध आधार जाएगा।
  2. जब पति का आचरण (कंडक्ट) पत्नी के लिए पति के साथ रहना असंभव बना देता है: मुंशी बुज़लूर रुहीम बनाम शमसोनिसा बेगम, के मामले में, यह माना गया था कि यदि पति पत्नी के साथ क्रूरता का व्यवहार करता है या उसके द्वारा अपनी पत्नी के लिए वैवाहिक दायित्वों का प्रदर्शन करने इ घोर लापरवाही बरती जा रही है, तो इस स्थिति में पति को राहत देने से इनकार करना एक वैध आधार माना जाएगा। 
  3. एक ऐसी स्थिति में जहाँ पत्नी अलग नौकरी करने की जगह होने के कारण पति से अलग रह रही हो: जब घर के आर्थिक कारणों से पत्नी को कही और नौकरी लेने की आवश्यकता होती है क्योंकि यह परिवार के भरण-पोषण के लिए आवश्यक होता है।
  4. यदि पत्नी को नौकरी करने और अलग रहने के लिए कोई आर्थिक आवश्यकता नहीं है, तो उस स्थिति में अदालत ने श्रीमती कैलाश वटी बनाम अयोध्या प्रकाश के मामले में निर्णय लिया था, जो की तीन भागों में है –
  1. अगर पत्नी विवाह से पहले और विवाह के समय, पहले से ही कोई नौकरी कर रही हो, तो इसका मतलब यह नहीं है कि, पति को, अपने वैवाहिक घर को उसके साथ साझा न करने का अधिकार मिल चुका है।
  2. अगर पति खुद पत्नी को विवाह के बाद नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित (एंकरेज) करता है तो उस स्थिति में, पति अपनी पत्नी के साथ रहने का अधिकार नहीं छोड़ सकता।
  3. लेकिन अगर पत्नी, अपने पति की इच्छा के कोई नौकरी करती है, तो यह समाज से अलग होने का एक अनुचित आधार/कारण होता है।

संवैधानिक वैधता (कॉन्स्टिट्यूशनल वैलिडिटी)

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के सेक्शन 9 की संवैधानिक वैधता हमेशा एक विवाद का विषय रही है। इसकी चर्चा तीन ऐतिहासिक और सबसे महत्वपूर्ण मामलों में की गई है।

  1. 1983-1984 में, टी. सरिता बनाम टी. वेंकट्ता सुब्बैया, के मामले में आंध्र प्रदेश के हाई कोर्ट ने यह कहा कि रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री असभ्य (अनसविलाइज़्ड), बर्बर, उत्पीड़न का एक माध्यम है और एक दूसरे पर इलज़ाम लगाने के लिए अक्सर इसका इस्तेमाल किया गया है। यह कॉन्स्टीट्यूशन के आर्टिकल 14, 19 और 21 के उल्लंघन का सबसे बड़ा रूप है क्योंकि यह महिलाओं को इस बात से वंचित करता है कि वह कब, कहाँ और कैसे किसी अन्य इंसान के प्रजनन का माध्यम बनती है। अदालत ने यह भी कहा कि, चूंकि इन अधिकारों ने किसी सामाजिक भलाई के लिए कोई कार्य नहीं किया है, इसलिए इसे इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन  के आर्टिकल 14 का उल्लंघन करने वाला मनमाना (अरबिट्ररी) और अमान्य माना जाना चाहिए। 
  2. हरविंदर कौर बनाम हरमंदर सिंह, के मामले में, दिल्ली हाई कोर्ट ने, न केवल इसकी वैधता को बरकरार रखा बल्कि इसके फायदों पर भी चर्चा की। उन्होंने देखा कि रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री के पीछे का उद्देश्य सहवास और संघ रहना है और न केवल यौन सम्बन्ध बनाना, इसलिए इसमें कुछ भी बर्बर या जबरदस्ती (केरसिव) नहीं है। इसका उद्देश्य विवाह को स्थिर करना और सुलह को प्रोत्साहित करना है।  
  3. सेक्शन 9 की संवैधानिक वैधता पर हो रहे विवाद को सुप्रीम कोर्ट ने सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार के मामले में सुलझाया था। अदालत ने आंध्र प्रदेश के हाई कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 का सेक्शन 9 कॉन्स्टिट्यूशन के आर्टिकल 14, 19 और 21 का उल्लंघन नहीं कर रहा है। वास्तव में, यह विवाह को टूटने से रोककर, एक सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति करता है। यदि इस आदेश की अवहेलना की जाती है तो अदालत को पति-पत्नी के बीच योन सम्बन्ध को लागू करने का कोई अधिकार नहीं है और यदि पक्ष इस तरह की डिक्री के पास होने के एक वर्ष बाद फिर से सहवास नहीं करते हैं तो वे अकेले इस आधार पर तलाक प्राप्त कर सकते हैं।

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स प्रदान करने के पीछे का विचार (द आईडिया बिहाइंड प्रोवाइडिंग फॉर  रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स प्रदान)

विवाह को एक पवित्र बंधन माना जाता है, हिंदू शास्त्र में यह माना जाता है कि एक पुरुष अपनी पत्नी के बिना अधूरा है और दोनों को एक-दूसरे को सहायता प्रदान करने के लिए एक दूसरे की आवश्यकता होती है। इसके पीछे विचार यह है कि, जहां तक ​​संभव हो अदालती हस्तक्षेप के माध्यम से विवाह बंधन को सुरक्षित रखना चाहिए और अलग होने वाले पक्ष को दूसरे पक्ष के साथ रहने के लिए कहना चाहिए।

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के निर्णय 

रुक्मणी अम्मल बनाम टी.आर.एस.चारी, के मामले में, जस्टिस पंद्रांग राव ने कहा कि पति के लिए रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वास्तविक क्रूरता स्थापित की जानी चाहिए। हिंदू कानून इस बात पर चुप है कि, क्या पति को अपनी पत्नी की कंपनी को सुरक्षित करने में अदालत की मदद लेने का अधिकार है। हिंदू कानून, रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए सूट को उचित नहीं मानता। यह भी कहा गया कि क्या पति, रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री का हकदार है और डिक्री को सभी तथ्यों पर विचार करने के बाद ही प्रदान किया जाना चाहिए, इसके अलावा डिक्री प्रदान से पहले समान (इक्वीटेब्ल) राहत और समान विचार के बारे म भी सोचना चाहिए।

सीता यममा बनाम वेंकटरम्मा, के मामले में, जस्टिस बम द्वारा यह माना गया था कि, रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए एक मुकदमे में अदालत, पक्षों के पूरे आचरण पर विचार करेगी और यदि यह साबित हो जाता है कि पति ने अपनी पत्नी की उपेक्षा (नेग्लिजेंट) की है और पति द्वारा किया गया मुकदमा नेक इरादे से नहीं है, तो मुकदमा खारिज कर दिया जाएगा। पत्नी के लिए यह साबित करना अनिवार्य नहीं है कि अलग भरण-पोषण के लिए डिक्री की मांग करने के लिए, उसे पति द्वारा उसे हिंसा का शिकार बनाया गया था।

योग्यता मानदंड (क्वालीफाइंग क्राइटेरिया)

जब पति या पत्नी में से कोई भी रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए याचिका दर्ज़ करता है, तो उसे बुनियादी मानदंडों (क्राइटेरिया) को पूरा करना होता है। जिन आधारों पर याचिका दर्ज़ की जा सकती है वे निन्मलिखित हैं:

  1. एक वैध (वैलिड) विवाह होना चाहिए।
  2. पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ नहीं रह रहे हो।
  3. एक पक्ष का दूसरे के समाज से अलग होना बिना किसी उचित कारण के होना चाहिए।
  4. याचिकाकर्ता में जीवनसाथी के साथ रहने की सच्ची इच्छा होनी चाहिए।

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की याचिका पर सिविल कोर्ट्स द्वारा विचार किया जाता है, जिनके अधिकार क्षेत्र में निम्नलिखित का प्रदर्शन किया गया हो:

  1. पार्टियों की विवाह संपन्न हुआ हो।
  2. पति-पत्नी साथ रहते हो।
  3. पति-पत्नी आखिरी बार साथ रहे हों।

पीड़ित पक्ष क्या कर सकता है (व्हाट द अग्ग्रीवड पार्टी कैन डू) ?

पीड़ित पक्ष, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में याचिका दर्ज़ कर सकता है। जब अदालत को पता चलता है कि पीड़ित पक्ष की याचिका सही तथ्यों पर आधारित है और उनके पास इसे खारिज करने का कोई वैध कारण नहीं है तो अदालत पीड़ित पक्ष के पक्ष में रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स का आदेश पास करती है।

अस्वीकृति के लिए आधार (ग्राउंड्स फॉर रिजेक्शन)

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की याचिका को निम्नलिखित आधारों पर खारिज किया जा सकता है:

  1. प्रतिवादी को कोई वैवाहिक राहत प्रदान की जा सकती है।
  2. यदि नौकरी करने के उद्देश्य से पति-पत्नी को अलग रहने की जरूरत हो। 
  3. यदि याचिकाकर्ता की कार्रवाई वैवाहिक संबंध के लिए अनुकूल नहीं है।
  4. याचिकाकर्ता द्वारा अपनी ओर से वैवाहिक दुराचार (मिसकंडक्ट) के संबंध में दिया गया कन्फेशन।

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स और तलाक 

तलाक और रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए एक याचिका कोजोधनर जोड़ने (मर्ज़) पर अभी भी चर्चा चल रही है। कुछ प्रख्यात (एमिनेंट) न्यायिक शक्तियों का विचार है कि कन्ज्यूगल राइट्स की याचिका को तलाक के लिए वैकल्पिक (सुब्स्टीट्यूटेड) प्रार्थना के साथ अदालत में पेश किया जा सकता है।

जबकि उनमें से कुछ का मानना है कि तलाक और कन्ज्यूगल राइट्स के लिए प्रार्थना अलग प्रकृति की है और एक साथ पेश नहीं की जा सकती।

उनमें से अधिकांश इस बात पर सहमत हैं कि याचिकाएं परस्पर विनाशकारी (डेसट्रक्टिव) हैं क्योंकि वे दोनों पक्षों को फिर से जोड़ने के बजाय उन्हें अलग करने पर ज़ोर डालती हैं और यह बस एक कन्ज्यूगल राइट्स का उपाय ही है जो हिंदू मर्रिज एक्ट, 1955 में एकमात्र सकारात्मक उपाय है, क्योंकि अन्य उपाय तो बस विवाह को बाधित करने का प्रयास करते हैं।

इस्लाम में कन्ज्यूगल राइट्स

इस्लामी कानून में, यह देखा गया है कि जब भी पत्नी, डीसोल्यूशन ऑफ़ मुस्लिम मर्रिज एक्ट, 1939 के सेक्शन 2(ii) के तहत भरण-पोषण के लिए याचिका दर्ज़ करने की कोशिश करती है, तो पति रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए याचिका दर्ज़ करके इसका मुकाबला करता है। यह इस्लामी कानून में, रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के अध्ययन को महत्वपूर्ण बनाता है।

कानूनी रूप से “कन्ज्यूगल राइट्स” का क्या अर्थ है?

तैयबजी के अनुसार, “जब पति या पत्नी में से कोई भी बिना किसी उचित कारण के समाज से अलग हो जाता है, तो पीड़ित पक्ष रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए एक याचिका दायर करके आवेदन (अप्लाई) कर सकता है और यदि अदालत के पास याचिका को खारिज करने का कोई वैध कारण नहीं है, तब अदालत याचिकाकर्ता के पक्ष में डिक्री का आदेश दे सकती है।”

इसका वही अर्थ है, जो हिंदू कानून में भी प्रदान किया गया है, पति और पत्नी के बीच वैवाहिक सबंधों की बहाली। लेकिन यह अधिकार पति को केवल इसलिए उपलब्ध है क्योंकि पति तलाक के लिए डिक्री का उच्चारण (फ़्रस्टेट) करके रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की पत्नी की याचिका को विफल कर सकता है, और इसके पीछे एक और मुख्य कारण यह भी है कि ज्यादातर मामलों में पति द्वारा रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए याचिका दर्ज़ की जाती है।

कन्ज्यूगल राइट्स के अधिकार की उत्पत्ति (ओरिजिन ऑफ़ राइट्स टू कन्ज्यूगल राइट्स)

इस्लामी कानून के तहत पवित्र कुरान, पति को अपनी पत्नियों को दया के साथ रखने का अधिकार प्रदान करता है और वे उनको अलग कर सकता है लेकिन समान कंसीड्रेशन के साथ। पति का अपनी पत्नी पर उचित अधिकार है लेकिन पूरी तरह से नहीं है। डोवर का भुगतान न करने पर पति के पास कन्ज्यूगल राइट्स का  अधिकार नहीं होता।

  1. प्रॉम्प्ट डोवर: यदि पति प्रॉम्प्ट डोवर का भुगतान करने में विफल रहता है, तो पत्नी उसके साथ रहने से इंकार कर सकती है जब तक कि उसका भुगतान नहीं हो जाता। यह अधिकार विवाह संपन्न होने पर भी जारी रहता है।
  2. डेफ्रेब्ल डोवर: पति को कन्ज्यूगल राइट्स तब मिलते हैं जब वह पूरे डोवर का भुगतान कर देता है क्योंकि डेफ्रेब्ल डोवर के मामले में पूरे डोवर को प्रॉम्प्ट माना जाता है।

औपनिवेशिक (कोलोनियल) भारत में मुसलमानों, हिंदुओं, ईसाइयों, पारसियों और अन्य लोगों के लिए रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स का सिद्धांत उपलब्ध कराया गया था। डिसॉलूशन ऑफ़ मुस्लिम मैरिज एक्ट, 1939 के कारण महिला सशक्तिकरण (एम्पॉवरमेंट) में वृद्धि के साथ, इसका मुकाबला करने के लिए, पति ने इस सिद्धांत का इस्तेमाल किया।

प्रिवी काउंसिल ने मुंशी बुजलूर रहीम बनाम शमसूनिसा बेगम के मामले में यह निर्धारित किया कि मुस्लिम कानून के तहत विवाह एक सिविल कॉन्ट्रैक्ट है और अदालत के पास उन सभी अधिकारों और कर्तव्यों को लागू करने की शक्ति है जो इससे निकलते हैं।

अब्दुल कादिर बनाम सलीमा के मामले में, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की अवधारणा न्याय, समानता और अच्छे विवेक के सिद्धांत के बजाय मुस्लिम कानून के सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। इस मामले में यह भी कहा गया कि इंग्लिश इक्लीज़ीऐस्टिकल लॉ का उपाय, रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स का अधिकार, विवाह के उल्लंघन का एक उपाय बन गया है क्योंकि वैवाहिक संबंध एक सिविल कॉन्ट्रैक्ट था।

मुसलमानों के लिए उपलब्ध रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स का अधिकार

  1. भारत में, सामान्य कानूनों के तहत।
  2. पाकिस्तान में, फॅमिली कोर्ट्स के पास वेस्ट पाकिस्तान फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1964 के सेक्शन 5 के तहत अपने मुकदमे पर विचार करने का विशेष अधिकार क्षेत्र (जूरिस्डिक्शन) है।

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के अधिकार की इस्लामीता (इस्लामीसिटी ऑफ़ द राइट ऑफ़ रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स )

मुस्लिम पर्सनल लॉ, पति को निर्देश देता है कि विवाह को बनाए रखने के उद्देश्य से पत्नी को दयालुता से रखा जाए। जब पति अपनी पत्नी के प्रति घोर क्रूरता का दोषी पाया जाता है और इस कारण उसे छोड़ देता है, तो उसे रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की राहत प्राप्त करने की अनुमति नहीं दी जाती। यह वह प्रतिबंध (रेस्ट्रिक्शन) है जो पति के रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री प्राप्त करने के अधिकार पर लगाया गया था।

मुस्लिम कानून पत्नी को बचाव प्रदान करता है ताकि वह पति के मुकदमे को विफल कर सके:

  1. डोवर का भुगतान न करना।
  2. क्रूरता: इसमें कानूनी और शारीरिक क्रूरता दोनों शामिल हैं
  1. शारीरिक क्रूरता: इसमें वास्तविक हिंसा शामिल है जो जीवन, शरीर के किसी अंग या स्वास्थ्य को चोट पहुंचाती है या इसकी उचित आशंका (एप्प्रिहेंशन) का कारण बनती है।
  2. कानूनी क्रूरता: इसमें डिसोल्युशन ऑफ़ मुस्लिम मर्रिज एक्ट, 1939 के सेक्शन 2(viii) में वर्णित क्रूरता के सभी उदाहरण शामिल हैं।

अन्य बचाव

  1. अगर इद्दत के दौरान विवाह किया जाता है।
  2. यदि कानून, पत्नी के, पति के साथ न रहने के कारणों से संतुष्ट है।
  3. विवाह की अनियमितता (इर्रेगुलरिटी)।
  4. अगर पति-पत्नी के बीच सद्भाव (हारमनी) और खुशी नहीं है तो इस्लाम अलग होने की अनुमति देता है।

वेस्ट पाकिस्तान फैमिली कोर्ट्स एक्ट,1964 का  सेक्शन 5 

  1. यदि पति को रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री मिल जाती है तो, कोड ऑफ़ सिविल प्रोसीजर के आर्डर XXI, रूल 32 और 33 के अनुसार अदालत पत्नी की संपत्ति को जब्त कर सकती है या पति को समय-समय पर भुगतान करने का आदेश दे सकती है। 
  2. इस सेक्शन को नदीम सिद्दीकी बनाम इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान के मामले में चुनौती दी गई थी क्योंकि यह इस्लाम के इन्जंक्शन के खिलाफ थी।
  1. अदालत ने माना कि ऐसे मामले हैं, जिनमें पति और पत्नी के लिए एक साथ रहना असंभव है, तो उस मामले में अदालत तलाक की डिक्री पास करती है।
  2. इसके अलावा, ऐसी कोई हदीथ नहीं है जो फॅमिली कोर्ट्स पर रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की डिक्री पास करने पर रोक लगाती है।
  3. इसलिए, यह इस्लाम के इन्जंक्शन के खिलाफ नहीं है।
  4. अदालत की डिक्री की इस्लाम में काफी शुचिता (सैंक्टिटी) है और कोड ऑफ़ सिविल प्रोसीजर के रूल 32 और 33 अदालत की डिक्री को देते हैं।

पति के पक्ष में पास्ड डिक्री का पालन करने के लिए पाकिस्तान के कानूनों में पत्नी को पति के घर जाने के लिए मजबूर करने की कोई शक्ति नहीं है। डिसॉलूशन ऑफ़ मुस्लिम मैरिज एक्ट,1939 के तहत मौजूद कुछ निश्चित आधारों के कारण कन्ज्यूगल राइट्स की तलाश के अधिकार को एक प्रतिवाद के रूप में लाया गया था, जो महिलाओं को विवाह के डिसॉलूशन की मांग करने की अनुमति देता है। ब्रिटिश राज से पहले, इस्लामिक पर्सनल लॉ में डोवर के भुगतान के बाद, रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स की कोई अवधारणा नहीं थी।

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स एक अत्यधिक विवाद का विषय है क्योंकि इसमें दो-तरफा दृष्टिकोण है, पहला यह है कि यह एक सकारात्मक उपाय है जो विवाह को दूसरा मौका प्रदान करता है, दूसरा यह है कि यह दो अवांछित (अनवांटेड) लोगों को एक साथ रहने के लिए मजबूर करता है। इस उपाय का उपयोग करने से पहले मामले के हर पहलू पर विचार किया जाना चाहिए ताकि इसका दुरुपयोग न हो।

रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए मसौदा याचिका (ड्राफ्ट पेटिशन फॉर रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स)

मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष

कड़कड़डूमा जिला न्यायालय, नई दिल्ली

याचिका संख्या _______/ 2019

के मामले में:

ABC….याचिकाकर्ता

बनाम

XYZ ..प्रतिवादी

एच.एम.ए. की धारा 9 के तहत 

पक्षों का ज्ञापन (मेमो ऑफ़ पार्टीज)

ABC 

पुत्र JKL,

पता – ए 100,

कड़कड़डूमा,

नई दिल्ली – 110096 ….याचिकाकर्ता

बनाम

मानसी मेहता

पुत्री MNO,

पता – बी 26,

प्रेम नगर,

दिल्ली – 110094 ….प्रतिवादी

याचिकाकर्ता

के जरिये

PQR अधिवक्ताओं के लिए,

डी- 44, कपूर बिल्डिंग, साकेत

नई दिल्ली – 110019

जगह: नई दिल्ली

दिनांक: _____.2019

मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष

कड़कड़डूमा जिला न्यायालय, नई दिल्ली

याचिका संख्या _______/ 2019

के मामले में:

ABC …….याचिकाकर्ता

बनाम

XYZ…..प्रतिवादी

एच.एम.ए. की धारा 9 के तहत 

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 9 के तहत रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए आवेदन।

सबसे सम्मानपूर्वक प्रस्तुत:

  1. याचिकाकर्ता द्वारा रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 9 के तहत तत्काल आवेदन दर्ज़ किया जा रहा है।
  2. याचिकाकर्ता ABC, पुत्र JKL, पता  A – 100, कड़कड़डूमा, नई दिल्ली – 110096 है।
  3. प्रतिवादी याचिकाकर्ता की पत्नी, XYZ, पुत्री MNO, पता  B – 26, प्रेम नगर, दिल्ली – 110094 है।
  4. याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के बीच विवाह _(तारीख) _______ को, नई दिल्ली में, हिंदू रीति-रिवाजों, और समारोहों के अनुसार, बिना किसी दहेज की मांग के संपन्न हुआ।
  5. कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी, याचिकाकर्ता के निवास स्थान पर एक साथ खुशी-खुशी रहते थे।
  6. कि जब याचिकाकर्ता _________ कार्यालय से घर वापस आया, तो उसे पता चला कि प्रतिवादी ने अपना सारा सामान पैक कर लिया है और घर से निकल गयी है।
  7. कि एक घंटे तक प्रतिवादी से संपर्क करने का प्रयास करने के बाद, प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता का फोन उठाया और उससे कहा कि वह अब उसके साथ नहीं रहेगी। जब याचिकाकर्ता ने कारण पूछा तो प्रतिवादी ने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया।
  8. कि याचिकाकर्ता को पता चला कि प्रतिवादी अपने माता-पिता के घर वापस चली गई और वह समस्या को समझने और उसे वापस लाने के लिए वहां गया था।
  9. कि याचिकाकर्ता ________ अपने ससुर के घर गया और फिर ________ पर प्रतिवादी को उसके घर वापस लाने के लिए गया; हालांकि, एक या दूसरे बहाने से प्रतिवादी या याचिकाकर्ता के साथ उसके घर आने से इनकार करना जारी रखा।
  10. कि प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता को छोड़ दिया है या/और बिना किसी उचित कारण के उनके समाज से अलग हो गयी है।
  11. यह कि याचिकाकर्ता यह प्रस्तुत करते है कि वह शुरू से ही प्रतिवादी के साथ ईमानदार और सहवास करने के लिए तैयार है।
  12. कि इस याचिका के लिए कार्रवाई का कारण सबसे पहले _________ को उठा, जब प्रतिवादी ने अपनी इच्छा से याचिकाकर्ता को छोड़ दिया और उनके समाज से अलग हो गयी।
  13. कि यह याचिका सीमा अवधि के भीतर अच्छी तरह से दर्ज़ की गई है।
  14. यह कि यह याचिका न्यायालय शुल्क की एक निश्चित दर से वसूलनीय है, इसका भुगतान उसके साथ किया जाता है।
  15. याचिकाकर्ता इस माननीय न्यायालय से बाद में आवश्यकता पड़ने पर अतिरिक्त (एडिशनल) दस्तावेज और तर्क दर्ज़ करने की स्वतंत्रता चाहता है।
  16. यह आगे प्रस्तुत किया गया है कि याचिकाकर्ता के पक्ष में प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी)मामला मौजूद है।
  17. यह आगे कहा गया है कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी विवाह के बाद से कड़कड़डूमा, नई दिल्ली में एक साथ रह रहे थे, जो इस माननीय न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) की क्षेत्रीय सीमा के भीतर आता है, और इसलिए इस माननीय न्यायालय के पास तत्काल आवेदन पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र है।
  18. यह आवेदन वास्तविक रूप से दायर किया गया है और इसलिए इस माननीय न्यायालय द्वारा अनुमति दी जानी चाहिए।

प्रार्थना

उपर्युक्त तथ्यों और परिस्थितियों के आलोक में, यह अत्यंत सम्मान पूर्वक प्रार्थना की जाती है कि यह माननीय न्यायालय इस पर कृपा करे:

  1. प्रतिवादी को फिर से रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कन्ज्यूगल राइट्स के लिए एक डिक्री पारित करें।
  2. प्रतिवादी को याचिकाकर्ता के साथ सहवास फिर से शुरू करने का निर्देश दें।
  3. कोई अन्य आदेश/निर्देश पारित करें जैसा कि यह माननीय न्यायालय न्याय के हित में उचित और उचित समझे।

याचिकाकर्ता

के जरिये

PQR अधिवक्ताओं के लिए,

डी- 44, कपूर बिल्डिंग, साकेत

नई दिल्ली – 110019

जगह: नई दिल्ली

दिनांक: _____.2019

वैवाहिक विवादों को निपटाने में फैमिली कोर्ट के दृष्टिकोण के बारे में अधिक जानने के लिए, कृपया यहां क्लिक करें

संदर्भ (रेफ़रन्सेस)

    • Abdul Kadir vs. Salima, (1886) ILR 8 All 149
    • Nadeem Siddiqui vs. the Islamic Republic of Pakistan, PLD 2016 FSC 4

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