हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के तहत मेंटेनेंस की अवधारणा 

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Hindu Marriage Act
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यह लेख नोएडा के एमिटी लॉ स्कूल की 5वें वर्ष की छात्रा Pooja Kapoor ने लिखा है। उन्होंने प्रावधानों (प्रोविजन्स) और केस कानूनों के साथ मेंटेनेंस की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है। 

परिचय (इंट्रोडक्शन)

कानून के दृष्टिकोण (व्यू) से देखा जाये तो मेंटेनेंस की अवधारणा का मतलब यह है की, किसी भी पक्ष द्वारा, दूसरे पक्ष के आवेदन (एप्लीकेशन) पर दी गई वित्तीय (फाइनेंशियल) सहायता, जो केवल उस अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) में होने वाले कोर्ट द्वारा पास किये आदेश के माध्यम से दी जाती है और डिक्री के द्वारा इसे दोनों पक्षों पर लागू किया जाता है। 

इसे अक्सर “एलिमनी” या पति या पत्नी से एक प्रकार की वित्तीय सहायता के रूप में जाना जाता है। दूसरी ओर मेंटेनेंस, वित्तीय खर्चों को वहन करने या जीवनसाथी के बोझ को कम करने का एक कार्य है, जिसका बोझ बढ़ता है और आर्थिक (इकोनॉमिक) स्थिति तलाक की डिक्री पर भौतिक (मटीरिअली) रूप से बदल जाती है।

इसके अलावा, मेंटेनेंस देने का मुख्य उद्देश्य एक पक्ष के जीवन स्तर (स्टैंडर्ड) को दूसरे पक्ष के बराबर और सेप्रेशन से पहले की स्थिति के अनुसार बनाए रखना है। यह, डिक्री की कार्यवाही (प्रोसीडिंग) के दौरान या तलाक की डिक्री के बाद दिया जाता है और एलिमनी धारक (होल्डर) की मृत्यु या पुनर्विवाह पर इसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। पति-पत्नी को मेंटेनेंस, कोर्ट द्वारा विभिन्न कारणों के अस्तित्व पर दिया जाता है, जो निम्नानुसार है :

  1. आय (इनकम) का कोई अलग स्रोत (सोर्स) नहीं है। मेंटेनेंस या एलिमनी देने से पहले विचार किया जाने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक यह जांचना है कि मेंटेनेंस चाहने वाले पति या पत्नी के पास आय का कोई अलग स्रोत है या नहीं या वह पूरी तरह से अपने पति या पत्नी की आय पर निर्भर है।
  2. अलग होने से पहले दोनों पक्षकारों का जीवन स्तर।
  3. बच्चों को मेंटेन करने के लिए आवश्यक खर्च।
  4. जीवनसाथी के जीवन स्तर को उसी तरह मेंटेन करने की आवश्यकता जो सेप्रेशन से पहले थी।
  5. जीविका (लाइवलीहुड) कमाने और खुद को मेंटेन करने आदि के लिए जीवनसाथी की कौशल (स्किल्स), क्षमताएं (कैपेबिलिटी) और शैक्षिक पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड)।

मेंटेनेंस के प्रकार

सक्षम (कंपीटेंट) कोर्ट द्वारा कारकों (फैक्टर्स) पर विचार करने पर निम्नलिखित आधार पर मेंटेनेंस प्रदान की जा सकती है-

  • अस्थायी (टेम्परेरी) मेंटेनेंस- इसे मेंटेनेंस पेंडेंट लाइट के नाम से भी जाना जाता है, जो कोर्ट्स द्वारा तलाक की कार्यवाही की निरंतरता (कॉन्टिन्युएशन) के दौरान प्रदान की जाती है। इसका उद्देश्य पति या पत्नी (जो कार्यवाही का एक पक्ष है) के आवश्यक और तत्काल (इमीडिएट) खर्चों को पूरा करना है । संतुष्ट होने पर कोर्ट इसे मंजूर कर सकता है। हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 24 इस प्रकार के मेंटेनेंस से संबंधित है। इसके अलावा सी.आर.पी.सी. की धारा 125(1) के तहत दावा किया जा सकता है।
  • स्थायी (परमानेंट) मेंटेनेंस- जैसा कि शब्द से पता चलता है, यह आवधिक (पीरियोडिकल) आधार पर या एक बार कार्यवाही के निपटारे के बाद निरंतर आधार पर, एक राशि प्रदान करने को संदर्भित करता है। यह हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 25 के तहत आता है। पति या पत्नी में से कोई भी इसे प्राप्त करने का हकदार होता है।

मेंटेनेंस के अधिकार की पूर्व स्थिति (प्रायर स्टेटस ऑफ़ राइट ऑफ़ मेंटेनेंस)

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 और हिंदू एडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट, 1956, शुरू में मेंटेनेंस देने के प्रावधानों (प्रोविजन्स) से संबंधित थे। हिंदू मैरिज एक्ट वर्ष 1955 में बनाया गया था और यह विशेष रूप से उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो सिख, जैन और बौद्ध हैं और वे व्यक्ति जो हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 2 के दायरे में आते हैं। साथ ही वे बच्चे जिनके माता-पिता में से कोई एक हिंदू, सिख, जैन या बौद्ध है और वह एक ही धर्म के तहत पले-बढ़े है, तो वह भी हिंदू माने जाएंगे और मेंटेनेंस के हकदार होंगे। पुराने हिंदू कानून के तहत, एक हिंदू पुरुष निम्नलिखित व्यक्तियों को मेंटेनेंस देने के लिए बाध्य था:

  • उसकी पत्नी,
  • अविवाहित पुत्री,
  • वैध पुत्र,
  • नाजायज पुत्र, और
  • वृद्ध माता-पिता।

इस प्रकार, केवल हिंदू (जिसकी प्रयोज्यता (ऍप्लिकेबिलिटी) को हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 2 से देखा जा सकता है) इस एक्ट के अंदर आते हैं।

प्राचीन काल से महिलाओं को एक वंचित (डिसएडवांटेज्ड) स्थिति में रखा गया है, जो न केवल समाज में उनकी हिस्सेदारी को कमजोर करता है, बल्कि उनके साथ असमान व्यवहार भी करती है। कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर वर्ष 1973 में लागू हुई और इस कोड की धारा 125 के अनुसार, किसी भी धर्म या व्यक्तिगत (पर्सनल) कानूनों के बावजूद पत्नी, बच्चों और माता-पिता को मेंटेनेंस दिया जाता है। इसलिए, इसने सम्मानजनक (डिग्नीफाइड) तरीके से अधिकार देकर महिलाओं को बेहतर स्थिति प्रदान की है।

भारत में पत्नी, बच्चों और माता-पिता को मेंटेन करने का दायित्व

विभिन्न एक्ट्स और सी.आर.पी.सी के तहत निर्धारित वैधानिक (स्टेट्यूटरी) प्रावधान, भारत में आश्रित (डिपेंडेंट) जीवनसाथी और बच्चों को मेंटेनेंस देने को अनिवार्य बनाते है।

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955

पत्नी को मेंटेन करने का दायित्व

उक्त एक्ट की धारा 24 और धारा 25, पेंडेंट लाइट और स्थायी मेंटेनेंस की अनुमति देने के प्रावधानों से संबंधित है। डॉ. कुलभूषण बनाम राज कुमारी एवं अन्य के मामले में कोर्ट ने मेंटेनेंस की राशि का निर्णय करते हुए पाया कि, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर निर्धारित किया जाता है और घोषित किया जाता है कि यदि कोर्ट मेंटेनेंस की राशि को बढ़ाता या मोल्ड करता है, तो ऐसा निर्णय उचित होगा। इस मामले में यह भी कहा गया कि पत्नी को पति की सैलरी का 25%, मेंटेनेंस के रूप में देना उचित होगा।

  • एक्ट की धारा 24 के तहत यदि कोर्ट उचित समझता है और संतुष्ट है कि पत्नी या पति की स्वतंत्र आय नहीं है, तो वह प्रतिवादी (रेस्पोंडेंट) को इस धारा के प्रावधानों के अनुसार याचिकाकर्ता (पेटीशनर) को मेंटेनेंस का भुगतान करने का आदेश दे सकता है। इस प्रकार, पति भी दावेदार (क्लेमेंट) हो सकता है।
  • इसके अलावा, एक्ट की धारा 25, जो स्थायी आधार पर एलिमनी देने से संबंधित है, के प्रावधानों के अनुसार, कोर्ट प्रतिवादी द्वारा किए गए आवेदन पर, समय-समय पर  मेंटेनेंस प्रदान करने का आदेश दे सकता है, या तो भुगतान के रूप में या सकल (ग्रॉस) राशि के रूप में। इस प्रकार, इस मामले में भी प्रतिवादी या तो पत्नी या पति हो सकता है।
  • इस तरह से प्रावधान की व्याख्या (इंटरप्रिटेशन) करने का उद्देश्य भेदभाव से बचना है क्योंकि कानून की नजर में पति और पत्नी दोनों समान हैं।

दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में रानी सेठी बनाम सुनील सेठी के मामले में पत्नी (प्रतिवादी) को अपने पति (याचिकाकर्ता) को 20,000 रुपये और 10,000 रुपये मुकदमेबाजी (लिटिगेशन) खर्च के रूप में एलिमनी देने का आदेश दिया। इसके अलावा याचिकाकर्ता के उपयोग के लिए एक जेन कार देने का आदेश भी दिया गया था।

  • उसी आदेश से व्यथित (अग्रीव्ड) होने पर पत्नी ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां एच.एम.ए. की धारा 24 के दायरे को समझा गया और यह माना गया कि इस धारा का उद्देश्य उस व्यक्ति को सहायता प्रदान करना है जो अपनी स्वतंत्र आय कमाने में असमर्थ (इनकेपेबल) है।
  • इसके अलावा यह माना गया कि “समर्थन (सपोर्ट)” शब्द का अर्थ नैरो सेन्स में नहीं लिया जाएगा और इस प्रकार, इसमें केवल निर्वाह (बेयर सब्सिटेंन्स) ही शामिल नहीं है। इसका उद्देश्य प्रतिवादी पति या पत्नी को समान स्थिति प्रदान करना है। इस प्रकार सभी तथ्यों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पत्नी की अपील को खारिज कर दिया।
  • हालाँकि उक्त एक्ट की, धारा पति और पत्नी दोनों को एलिमनी मांगने के लिए कोर्ट में आवेदन करने का पर्याप्त अधिकार प्रदान करती है, यदि उनके पास आय का एक स्वतंत्र स्रोत नहीं है और वे पूरी तरह से अपने पति या पत्नी पर निर्भर हैं। लेकिन इस धारा को इस तरह से लागू नहीं किया जा सकता है कि जहां पति कमाने में सक्षम होते हुए भी अपनी पत्नी पर निर्भर रहने के एकमात्र उद्देश्य के लिए जानबूझकर ऐसा कर रहा हो। ऐसे में पति मेंटेनेंस के लिए आवेदन नहीं दे सकता। यह मध्य प्रदेश हाई कोर्ट द्वारा यशपाल सिंह ठाकुर बनाम श्रीमती अंजना राजपूत के मामले में बोला गया था, जहां पति ने ऑटो रिक्शा चलाना छोड़कर खुद को अक्षम कर लिया। इसलिए, जहां कोई व्यक्ति जानबूझकर खुद को अक्षम करता है, वह मेंटेनेंस की मांग के लिए आवेदन दर्ज़ करने का अवसर खो देता है।

बच्चों और माता-पिता को मेंटेनेंस देने का दायित्व

इसी एक्ट की धारा 26, नाबालिग बच्चों की कस्टडी, मेंटेनेंस और शिक्षा से संबंधित है। कोर्ट, जैसा कि वह आवश्यक और उचित समझे, समय-समय पर इस संबंध में अंतरिम (इंटरिम) आदेश पास कर सकता है और साथ ही इस तरह के आदेश को रद्द करने, निलंबित (सस्पेंड) करने या बदलने की शक्ति रखता है। कोर्ट के आदेश के अनुसार बच्चे के माता-पिता या उनमें से किसी एक पर उसे मेंटेन करने की बाध्यता है। हिंदू एडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट, 1956 की धारा 20, एक हिंदू पुरुष या महिला पर अपने वैध/नाजायज नाबालिग बच्चों और वृद्ध/अशक्त (इन्फर्म) माता-पिता को मेंटेन करने के लिए एक दायित्व निर्धारित (डिटरमिन) करती है, जिसकी राशि निम्नलिखित कारकों पर सक्षम कोर्ट द्वारा निर्धारित की जाती है। -:

  1. मुकदमेबाजी करने वाले पक्षों की आर्थिक स्थिति।
  2. पक्षों की उचित चाहत और जरूरतें।
  3. पक्षों की निर्भरता, आदि।

सुखजिंदर सिंह सैनी बनाम हरविंदर कौर के मामले में, दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा एक बच्चे के लिए दिए जाने वाली मेंटेनेंस के सम्बन्ध में कुछ टिप्पणियां की गई:

  • माता-पिता दोनों का कानूनी, सामाजिक और नैतिक (मोरल) दायित्व है कि वे अपने बच्चों को मेंटेन करें और उन्हें पक्षों के वित्तीय स्तर के आधार पर सर्वोत्तम (बेस्ट) जीवन स्तर प्रदान करें।
  • वे सर्वोत्तम शिक्षा के लिए साधन उपलब्ध कराने के लिए समान रूप से बाध्य हैं।
  • आगे यह कहा गया कि भले ही बच्चा अपने पति या पत्नी के साथ रह रहा है, जिसकी आय बच्चे को मेंटेन करने के लिए पर्याप्त है, अन्य पति या पत्नी द्वारा बच्चे को मेंटेन करने या बच्चे के कल्याण की देखभाल करने के लिए एक अच्छा आधार नहीं माना जा सकता है।

धारा 125 सी.आर.पी.सी. के तहत मेंटेनेंस

इस धारा के अनुसार फर्स्ट क्लास के मजिस्ट्रेट के पास निम्नलिखित व्यक्ति को मासिक भत्ता (अल्लॉवेंस) प्रदान करने का आदेश देने की शक्ति है:

  • उसके माता – पिता,
  • पत्नी, या
  • अपने वैध या नाजायज नाबालिग बच्चों के लिए जो अपना मेंटेनेंस करने में असमर्थ हैं
  • वैध या नाजायज वयस्क (मेजर) संतान जो विवाहित बेटी नहीं है, जो किसी भी शारीरिक चोट या असामान्यता के कारण अपना मेंटेनेंस करने में असमर्थ हैं
  • विवाहित बेटी जब तक वह वयस्क न हो जाए यदि उसका पति उसका मेंटेनेंस करने में असमर्थ है
  • उसके पिता या माता यदि वे अपना मेंटेनेंस करने में असमर्थ हैं, तो जो कोई भी ऐसा करने से इंकार या उपेक्षा (नेग्लेक्ट) करता है।

आदेश का पालन न करने की स्थिति में मजिस्ट्रेट देय (ड्यू) राशि वसूल करने के लिए वारंट जारी कर सकते है। जिस तारीख को राशि देय थी, उस तारीख से एक वर्ष की अवधि के भीतर ऐसी राशि के लिए कोर्ट में एक आवेदन करना अनिवार्य है, अन्यथा वारंट जारी नहीं किया जा सकता है।

यदि पत्नी बिना किसी पर्याप्त कारण के अलग रह रही है या अडल्ट्री में रह रही है या वे आपसी सहमति से अलग हो गए हैं, तो ऐसे मामलों में वह भत्ता पाने की हकदार नहीं है।

धारा 125 सी.आर.पी.सी. के ऐतिहासिक निर्णय

मोहम्मद अहमद खान वी. शाहबानो बेगम– यह एक ऐतिहासिक मामला रहा है जिसमें स्पष्ट रूप से धारा 125 के दायरे को स्पष्ट किया गया था और जो विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के संघर्ष (स्ट्रगल) में एक अत्यंत महत्वपूर्ण मामला साबित हुआ था। मामले के तथ्य इस प्रकार हैं:

  • वर्ष 1975 में, 62 वर्ष की आयु में, 5 बच्चों के साथ, शाहबानो को उनके पति ने अस्वीकार कर दिया था।
  • उसके पति मोहम्मद अहमद ने इस आधार पर उसे मेंटेनेंस देने से इनकार कर दिया कि मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं को मेंटेनेंस प्रदान करने के लिए मुस्लिम कानून में कोई विशेष प्रावधान नहीं है।
  • उसके पास आय का कोई अलग स्रोत नहीं था और इस उम्र में उसके लिए खुद को बनाए रखना और एक ही समय में अपने बच्चों के कल्याण की देखभाल करना असंभव था। इस प्रकार उसने मेंटेनेंस का दावा करते हुए एक वाद (सूट) दायर किया।

कोर्ट के सामने मुख्य मुद्दा यह था कि क्या धारा 125, मुस्लिम महिलाओं पर लागू होती है या नहीं और क्या यूनिफार्म सिविल कोड सभी धर्मों के व्यक्तियों पर लागू होती है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित कारणों से मोहम्मद अहमद को एलिमनी न देने की याचिका खारिज कर दी:

  • कोर्ट ने कहा कि बिना किसी भेदभाव के धारा 125(3) मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होती है।
  • केवल इद्दत अवधि तक अपनी पत्नी के प्रति मुस्लिम पति की जिम्मेदारी की अवधारणा सी.आर.पी.सी. की धारा 125 में निर्धारित नियम पर विचार करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती है।
  • केवल तीन बार तलाक बोलना, मुस्लिम महिलाओं के मेंटेनेंस के अधिकार को नहीं छीन सकता है, अगर वह आय का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं होने के कारण अपने और अपने बच्चों का मेंटेनेंस करने की स्थिति में नहीं है।

क्रिटिकल एनालिसिस

इस मामले की विभिन्न मुस्लिम समुदायों (कम्युनिटी) ने इस आधार पर आलोचना (क्रिटिसाइज़) की कि यह मुस्लिम कानून और कुरान के प्रावधानों के खिलाफ है। इस प्रकार, वर्ष 1986 में कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम वूमेन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स ऑफ़ डाइवोर्स) एक्ट, 1986 को अधिनियमित (इनेक्टिड) करने का निर्णय लिया, जिसका उद्देश्य तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करना था। इस एक्ट को लागू करने का अन्य उद्देश्य देश में अन्य महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं की पिछड़ी स्थिति के कारण था। इस प्रकार, उन्हें अन्य धर्म की महिलाओं के समान दर्जा देने की मांग की थी। इस एक्ट का उद्देश्य पत्नी और उसके बच्चों को पर्याप्त सुरक्षा और अधिकारों की सुरक्षा और उचित मात्रा में मेंटेनेंस प्रदान करना है। यह एक्ट राजीव गांधी द्वारा अधिनियमित किया गया था।

निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)

निर्णयों की अधिकता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सी.आर.पी.सी. की धारा 125 में मेंटेनेंस के प्रावधानों का पालन करने के लिए कड़े साधन उपलब्ध हैं। यह न केवल धर्म की बाधा को तोड़ता है जो लोगों को न्याय प्रदान करने में बाधा के रूप में कार्य करता है बल्कि किसी व्यक्ति द्वारा धर्म के बावजूद सभी के लिए कानून और न्याय की समान सुरक्षा प्रदान करता है। धर्म, “न्याय” और “समानता” के सिद्धांतों को दूर नहीं कर सकता। मेंटेनेंस की अवधारणा की व्याख्या विभिन्न वैधानिक प्रावधानों के तहत अलग-अलग तरीकों से की जाती है, फिर भी इसका उद्देश्य समर्थन देना है। इस प्रकार, धारा 125 के माध्यम से कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर का उद्देश्य विभिन्न धर्मों का पालन करने वाले व्यक्तियों को एक समान तरीके से एलिमनी प्रदान करना है।

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