यह लेख अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से Harshita Varshney द्वारा लिखा गया है। यह लेख मुस्लिम कानून के तहत बच्चों के मेंटेनेंस के प्रावधानों (प्रोविजन्स) से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
बच्चे ईश्वर की ओर से एक सुंदर उपहार हैं। वे न केवल एक परिवार के लिए एक अतिरिक्त (एडिशन) हैं, बल्कि वे एक परिवार का भविष्य हैं और पीढ़ियों को आगे बढ़ाने के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी रखते हैं। अपने जीवन के शुरुआती चरणों (स्टेजेस) में, वे अपना ख्याल रखने में सक्षम नहीं हैं। इसलिए, माता-पिता को उनकी देखभाल तब तक करनी चाहिए जब तक वे स्वतंत्र नहीं हो जाते। इस लेख में मुस्लिम कानून के तहत बच्चों के मेंटेनेंस से संबंधित प्रावधानों पर चर्चा की गई है।
मुस्लिम कानून
चूंकि मुस्लिम कानून पूरी तरह से अनकोडिफाइड है, इसलिए बच्चों के मेंटेनेंस से संबंधित कोई विशेष प्रावधान नहीं है। मुस्लिम कानून के तहत, मेंटेनेंस शब्द को ‘नफाकाह’ शब्द से दर्शाया जाता है। इस्लाम के तहत, अपनी पत्नी की देखभाल करना एक व्यक्ति का नैतिक (मोरल) कर्तव्य (ड्यूटी) है। वह अपनी पत्नी के साथ-साथ अपने बच्चों के स्वतंत्र होने तक उनकी देखभाल करने के लिए भी कर्तव्यबद्ध (ड्यूटी बाऊंड) है। अपने भाई, बहन, माता-पिता और अन्य रिश्तेदारों की जरूरत पड़ने पर उनकी देखभाल करना भी उनका नैतिक कर्तव्य है। ऐसा मेंटेनेंस प्रदान करने वाले व्यक्ति की शर्तों पर भी विचार किया जाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति फाइनेंशियली साउंड नहीं है, तो मेंटेनेंस सिद्ध (प्रूव) करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
मेंटेनेंस की अवधारणा (द कांसेप्ट ऑफ मेंटेनेंस)
अरबी में, “मेंटेनेंस” शब्द “नफ़ाक़ा” शब्द के बराबर है, जिसका शाब्दिक (लिटरल) अर्थ है ‘एक व्यक्ति द्वारा अपने परिवार पर खर्च की गई राशि’। कई मुस्लिम कानूनी विद्वानों (स्कॉलर्स) के अनुसार, मेंटेनेंस में वे सभी चीजें शामिल हैं जो जीवन जीने के लिए आवश्यक हैं जैसे भोजन, वस्त्र और निवास (रेसिडेंस)। वे नातेदारी (किंशिप) की अवधारणा पर भरोसा करते हुए इसका निष्कर्ष निकालते हैं। एक व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों को जीवन की मूलभूत (बेसिक) आवश्यकताओं को प्रदान करने के लिए कर्तव्यबद्ध है। इस्लाम तीन आधारों (ग्राउंड्स) को निर्धारित (प्रेस्क्राइब) करता है जिसके आधार पर कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति से मेंटेनेंस का दावा कर सकता है, और ये आधार हैं विवाह, बच्चे और दासों (स्लेव्स) का स्वामित्व (ओनरशिप)।
मुस्लिम कानून के तहत, कोई व्यक्ति ‘नफ़ाक़ा’ या ‘मेंटेनेंस’ का दावा करने का हकदार है यदि वह एक व्यक्ति है:
- पत्नी
- संतान
- माता-पिता, दादा-दादी और अन्य रिश्तेदार
- दास
पति अपनी पत्नी को मेंटेनेंस प्रदान करने के लिए बाध्य है, इस तथ्य के बावजूद कि वह अपनी देखभाल करने में सक्षम है या नहीं। लेकिन वह अपने बच्चों और माता-पिता को मेंटेनेंस प्रदान करने के लिए बाध्य नहीं है यदि वे स्वयं की देखभाल करने के लिए फाइनेंशियली साउंड हैं।
मेंटेनेंस की मात्रा (क्वांटम ऑफ मेंटेनेंस)
बच्चों के लिए मेंटेनेंस की मात्रा को किसी भी क़ानून द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है। पिता की फाइनेंशल स्थिति और बच्चों की जरूरतों के अनुसार मेंटेनेंस की मात्रा अदालत द्वारा तय की जाती है। मेंटेनेंस की मात्रा निर्धारित करने के लिए, हनफ़ी कानून कहता है कि पति और पत्नी दोनों की स्थिति पर विचार किया जाना चाहिए। लेकिन शफी कानून के तहत केवल पति की स्थिति पर विचार किया जाना चाहिए।
हालांकि, क्रिमिनल प्रोसिजर कोड, 1973 की धारा 125 बच्चों के मेंटेनेंस के लिए उचित राशि निर्धारित करती है।
बच्चों को मेंटेनेंस
मेरे अनुसार बच्चे भगवान के आशीर्वाद के रूप में धरती पर जन्म लेते हैं। अपने शुरुआती वर्षों में, वे खुद को बनाए रखने की स्थिति में नहीं हैं। वे एक परिवार की भावी (फ्यूचर) पीढ़ी हैं। इसलिए, माता-पिता को फलदायी (फ्रूटफुल) परिणाम के लिए उनमें निवेश (इन्वेस्ट) करना होगा। एक कानूनी कर्तव्य होने के अलावा, माता-पिता का यह नैतिक कर्तव्य भी है कि वे अपने बच्चों को किशोरावस्था (एडोलसेंस) में आने तक सहायता प्रदान करें। मुस्लिम कानून माता-पिता पर अपने बच्चों की देखभाल करने और उन्हें अपने जीवन को बनाए रखने के लिए बुनियादी आवश्यकताएं प्रदान करने का कर्तव्य लगाता है। उनका प्राथमिक (प्राइमरी) कर्तव्य अपने बच्चों को फाइनेंशियल सहायता प्रदान करना है।
अपने बच्चों को पालने के लिए पिता का कर्तव्य
मुस्लिम कानून के तहत अपने बच्चों के मेंटेनेंस की जिम्मेदारी पिता की होती है। एक पिता निम्नलिखित व्यक्तियों को मेंटेनेंस प्रदान करने के लिए बाध्य है:
- किशोरावस्था तक पहुंचने तक उनका बेटा;
- उनकी अविवाहित बेटी;
- उनकी विवाहित पुत्री, यदि उसका पति उसका मेंटेनेंस करने की स्थिति में नहीं है;
- उनका बड़ा बेटा, अगर वह विकलांग (डिसेबल) है, पागल है या खुद को बनाए रखने की स्थिति में नहीं है।
मुस्लिम कानून के अनुसार, अगर बच्चे बिना किसी तार्किक (लॉजिकल) कारण के अपने पिता के साथ रहने से इनकार करता है तो पिता की उसकी देखभाल करने की कोई जिम्मेदारी नहीं है। एक बेटी को अपने पिता से मेंटेनेंस का दावा करने का असीमित (अनलिमिटेड) अधिकार नहीं है, वह केवल विशेष परिस्थितियों में ही इसका दावा कर सकती है।
अपने बच्चों को पालने के लिए माँ का कर्तव्य
मुस्लिम कानून के विभिन्न स्कूलों के तहत एक मां द्वारा बच्चों के मेंटेनेंस की स्थिति अलग-अलग है। हनफी कानून के अनुसार, यदि पिता अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए फाइनेंशियली साउंड नहीं है, तो बच्चों को बनाए रखने की जिम्मेदारी पिता से माता को हस्तांतरित (ट्रांसफर) हो जाती है। लेकिन शेफई कानून के तहत, अगर पिता अपने बच्चों की देखभाल करने की स्थिति में नहीं है, भले ही मां फाइनेंशियली साउंड हो और अपने बच्चों की देखभाल करने में सक्षम होने के बावजूद, बच्चों को बनाए रखने की जिम्मेदारी पिता से दादा को हस्तांतरित हो जाती है।
जब बच्चे अपनी माँ की कस्टडी में होते हैं
यदि कोई बच्चा अपनी मां के साथ रहता है, तो माता पिता से मेंटेनेंस का दावा तब तक कर सकती है जब तक कि उसका बेटा किशोरावस्था में नहीं आ जाता और उसकी बेटी की शादी कानूनी रूप से किसी से हो जाती है। ऐसा ही अख्तरी बेगम बनाम अब्दुल राशिद के मामले में किया गया है, जहां एक 4 साल का बच्चा अपनी मां के साथ रह रहा था। अदालत ने उसके पिता को उसके मेंटेनेंस के लिए भुगतान करने के लिए उत्तरदायी (लायबल) ठहराया।
माता-पिता का तलाक
मुस्लिम वूमेन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स ऑन डायवोर्स) एक्ट, 1986 की धारा 3(1)(b) के अनुसार, एक मुस्लिम महिला अपने पति से उचित मेंटेनेंस राशि का दावा कर सकती है, यदि वह तलाक से पहले या बाद में अपने बच्चों को उनकी जन्म की तारिक से 2 साल के लिए पालती है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि महिला के इस अधिकार का बच्चों के स्वतंत्र अधिकार से कोई संबंध नहीं है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्चे तलाक से पहले या बाद में पैदा हुए थे, पत्नी अपने पूर्व पति को बच्चों को मेंटेनेंस देने के लिए मजबूर कर सकती है। तलाकशुदा पत्नी (मां) का यह अधिकार बच्चों के अपने पिता से मेंटेनेंस का दावा करने के अधिकार से अलग है।
ऐसा ही हाजी फरजंद अली बनाम नूरजहां (1987) के मामले में भी किया गया था। मामले के तथ्य इस प्रकार हैं: नूरजहाँ ने अपने और अपने तीन बच्चों के मेंटेनेंस का दावा करने के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत एक आवेदन (एप्लीकेशन) दायर किया। लर्न्ड मजिस्ट्रेट ने मेंटेनेंस के रूप में प्रति माह 300 रुपये दिए। पति, इस आदेश के खिलाफ अदालत मे गया और दलील दी कि मेंटेनेंस के लिए दावा करने का बच्चों का अधिकार मां के अधिकार के अधीन है और उसे कोड की धारा 125 के तहत दावा करने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने 1986 के एक्ट की धारा 7 का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है कि मजिस्ट्रेट 1986 के एक्ट के प्रावधानों का पालन करके कोड की धारा 125 के तहत दायर मामलों का निपटारा करेगा। अदालत ने इनकार किया और माना कि कोड की धारा 125 के तहत बच्चों और उनकी मां के मेंटेनेंस का दावा करने का अधिकार एक-दूसरे के अधिकार से स्वतंत्र है।
1986 के एक्ट की धारा 3(3) ऐसे अधिकारों के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए मजिस्ट्रेट को शक्ति प्रदान करती है। इस धारा के अनुसार, यदि पति अपनी तलाकशुदा पत्नी को बच्चों के मेंटेनेंस के लिए राशि का भुगतान करने में विफल रहता है, तो मजिस्ट्रेट एक आदेश दे सकता है। मजिस्ट्रेट पति को निर्देश दे सकता है कि वह अपनी तलाकशुदा पत्नी को उसकी ज़रूरतों या वह जीवन जिसका उसने अपने विवाहित जीवन के दौरान आनंद लिया है, के अनुसार उचित राशि का भुगतान करे।
नाजायज बच्चों की स्थिति (स्टैटस ऑफ इल्लेजिटिमेट चिल्ड्रन)
मुस्लिम कानून वैध (लेजिटिमेट) बच्चे के मेंटेनेंस को ही मानता है। यह एक नाजायज (इल्लेजिटिमेट) बच्चे के मेंटेनेंस पर चुप है क्योंकि इस मुद्दे पर ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि, यह नाजायज बच्चे की देखभाल करने के लिए माता-पिता पर कोई कर्तव्य नहीं लगाता है। मुस्लिम कानून के दो स्कूल यानी हनफ़ी और शिया स्कूल इस मुद्दे पर एक अलग राय रखते हैं।
हनफी कानून के तहत, एक नाजायज बच्चा अपनी मां से मेंटेनेंस का दावा कर सकता है, लेकिन अपने पिता से नहीं। हालांकि, शिया कानून के इथना अशरिया स्कूल के तहत, ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके तहत एक नाजायज बच्चा पिता या मां से मेंटेनेंस का दावा कर सकता है। हालांकि व्यक्तिगत कानूनों में एक नाजायज बच्चे के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन क्रिमिनल प्रोसिजर कोड, 1973 की धारा 125 नाजायज बच्चों के अधिकारों की रक्षा करती है। धारा 125(1)(b) पिता पर एक कर्तव्य लागू करती है, अगर उसके पास अपने नाबालिग नाजायज बच्चे को बनाए रखने के लिए पर्याप्त साधन हैं, चाहे वह विवाहित हो या नहीं, क्योंकि वे खुद को बनाए रखने में असमर्थ हैं। धारा 125(1)(c) पिता पर अपने वयस्क (मेजर) नाजायज बच्चे को बनाए रखने के लिए एक कर्तव्य लागू करती है यदि वे किसी भी शारीरिक या मानसिक चोट के कारण खुद को बनाए रखने में असमर्थ हैं। इस धारा के तहत फर्स्ट क्लास का मजिस्ट्रेट पिता के खिलाफ ऐसे बच्चों के मेंटेनेंस के लिए 500 रुपये से अधिक मासिक भत्ता (एलाउंस) देने का आदेश पास करके ऐसे अधिकारों को लागू कर सकता है।
एक नाजायज बच्चे के मेंटेनेंस के मुद्दे पर सुखा बनाम निन्नी (1965) के मामले में चर्चा की गई थी। मामले के तथ्य हैं: जमीला नाम की एक लड़की का जन्म निन्नी से हुआ था। जमीला के लिए सुखा से मेंटेनेंस का दावा करने के लिए निन्नी ने सीआरपीसी की धारा 488 (अब, धारा 125) के तहत अदालत गई। सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट ने सुखा को जमीला के मेंटेनेंस के लिए निन्नी को 10 रुपये प्रतिमाह भुगतान करने का आदेश दिया। सुखा ने इस आदेश के खिलाफ सेशन जज के समक्ष अर्जी दाखिल की थी। लेकिन बाद में उन्होंने अपना आवेदन वापस ले लिया क्योंकि उन्होंने निन्नी के साथ एक समझौता किया था कि वह अपनी नाजायज संतान के लिए 10 रुपये के बजाय प्रति माह 6 रुपये का भुगतान जमीला को करेगा करेंगे, जब तक उसकी शादी नही हो जाती है। बाद में, उन्होंने समझौते के अनुसार राशि का भुगतान नहीं किया। निन्नी ने उसके खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर किया था। उन्होंने तर्क दिया कि मुस्लिम कानून के तहत, एक पिता अपने नाजायज बच्चे को मेंटेनेंस देने के लिए बाध्य नहीं है। इसलिए सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट द्वारा पास आदेश मुस्लिम कानून के प्रावधानों के खिलाफ था। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट, 1872 की धारा 23 के अनुसार, समझौता (एग्रीमेंट) अमान्य है क्योंकि कंसीडरेशन मुस्लिम कानून के प्रावधानों के खिलाफ था।
अदालत ने माना कि बिना किसी संदेह (डाउट) के मुस्लिम कानून एक नाजायज बच्चे के मेंटेनेंस को मान्यता नहीं देता है, लेकिन सीआरपीसी की धारा 125 एक नाजायज बच्चे के अधिकारों की रक्षा करती है। अदालत ने यह भी माना कि एक नाजायज बच्चे के मेंटेनेंस के लिए किया गया समझौता मुस्लिम कानून के किसी भी प्रावधान को विफल नहीं होगा। अत: समझौता अमान्य नहीं था।
मेंटेनेंस का अधिकार कब समाप्त होता है?
मुस्लिम कानून के प्रावधानों के अनुसार, किशोरावस्था में बच्चों के मेंटेनेंस का अधिकार समाप्त हो जाता है। इसके बाद, वे कुछ परिस्थितियों को छोड़कर अपने मेंटेनेंस के लिए किसी भी पैसे का दावा नहीं कर सकते। बच्चे किशोरावस्था के बाद मेंटेनेंस का दावा कर सकते हैं, यदि वे किसी शारीरिक या मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं या वे खुद को बनाए रखने की स्थिति में नहीं हैं। मुस्लिम कानून के तहत, एक व्यक्ति किशोरावस्था में आते ही वयस्क हो जाता है, लेकिन इंडियन मेजॉरिटी एक्ट, 1875 के अनुसार, एक व्यक्ति को 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर वयस्क कहा जाता है।
महत्वपूर्ण निर्णय विधि (इंपोर्टेंट केस लॉ)
नूर सबा खातून बनाम मो. कासिम (1997)
मामले के तथ्य इस प्रकार हैं: पति ने कुछ विवादों के कारण अपनी पत्नी और बच्चों को अपने घर से बाहर निकाल दिया और उन्हें मेंटेनेंस देने से भी इनकार कर दिया। पत्नी अपना और अपने बच्चों की देखभाल नहीं कर पा रही थी। इसलिए, उसने ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 125 के तहत एक आवेदन दायर किया। उसने तर्क दिया कि उसके पति के पास अपने व्यवसाय से आजीविका (लाइवलीहुड) कमाने के लिए उचित साधन हैं। इसलिए, उसने अपने लिए 400 रुपये प्रति माह और अपने तीन बच्चों में से प्रत्येक के लिए 300 रुपये प्रति माह का दावा किया। ट्रायल कोर्ट ने पाया कि पति उचित साधन होने के बावजूद अपनी पत्नी और बच्चों को मेंटेनेंस देने में विफल रहा है। अदालत ने उसे अपनी पत्नी के लिए 200 रुपये प्रति माह और अपने बच्चों को वयस्क होने तक 150 रुपये प्रति माह देने का आदेश दिया। इसके बाद पति ने पत्नी को तलाक दे दिया और 1986 के एक्ट के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए अपने पिछले आदेश को मोडिफाई करने के लिए ट्रायल कोर्ट के समक्ष एक आवेदन दायर किया। अदालत ने माना कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत बच्चों के मेंटेनेंस पाने का अधिकार, 1986 के एक्ट के किसी भी प्रावधान से प्रभावित नहीं है।
हालांकि, इसके अनुसार पत्नी केवल तीन महीने यानी इद्दत अवधि के लिए मेंटेनेंस पाने की हकदार है। उन्होंने फिर से एक रिवीजनल पेटिशन दायर की जिसमें हाई कोर्ट ने माना कि 1986 के एक्ट की धारा 3(1) के तहत तलाकशुदा महिलाओं के मेंटेनेंस पाने का अधिकार इद्दत अवधि तक ही सीमित था, और 1986 के एक्ट का मकसद तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना था, न कि उनके बच्चों के अधिकार की।
सुप्रीम कोर्ट ने इसे नकार (नेगेटेड) दिया और माना कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को अपने पूर्व (फॉर्मर) पति से अपने बच्चों के वयस्क होने तक मेंटेनेंस का दावा करने का अधिकार है। अदालत ने माना कि एक पिता का कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों को मेंटेनेंस प्रदान करे जब वे अपनी मां के साथ रह रहे हों, यह मुस्लिम कानून और सीआरपीसी की धारा 125 दोनों के तहत तय है। 1986 के एक्ट की धारा 3(1) के तहत तलाकशुदा (पत्नी) के मेंटेनेंस का दावा करने का अधिकार प्रभावित नहीं होगा। दोनों एक दूसरे से स्वतंत्र हैं।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
मुस्लिम कानून और अन्य व्यक्तिगत कानूनों के तहत मेंटेनेंस पर कानून अलग हैं। मुस्लिम कानून के तहत, पुरुष का मुख्य कर्तव्य अपनी पत्नी की देखभाल करना है। हालाँकि, उनका कर्तव्य उनके बच्चों और अन्य रक्त (ब्लड) संबंधों तक बढ़ा दिया गया है। वह अपने नाबालिग बेटे की देखभाल करने के लिए कर्तव्यबद्ध है। वह भी विशेष परिस्थितियों में ही अपने वयस्क बेटे की देखभाल करने के लिए बाध्य है। एक बेटी के मामले में, उसे उसकी शादी होने तक मेंटेनेंस देना होता है।