यह लेख M.S.Sri Sai Kamalini द्वारा लिखा गया है, जो वर्तमान में स्कूल ऑफ लॉ, सस्त्र में बीए एल.एल.बी. (ऑनर्स) की चौथे वर्ष की छात्रा हैं। यह एक विस्तृत (एक्जोस्टिव) लेख है जो मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही शुरू करने से संबंधित विभिन्न प्रावधानों (प्रोविजंस) से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय (इंट्रोडक्शन)
कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर, 1973 सबसे पुराने कानूनों में से एक है जो भारत में पर्याप्त आपराधिक कानून को नियंत्रित (कंट्रोल) करता है। इसमें आपराधिक कार्यवाही करते समय पालन की जाने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं (प्रोसिजर्स) का उल्लेख है। कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर का अध्याय (चैप्टर) XVI मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही शुरू करने से संबंधित है। मजिस्ट्रेट को अध्याय में दिए गए सभी प्रावधानों का पालन करना होगा ताकि कार्यवाही के दौरान उन्हें मुश्किल न हो।
विषय का दायरा (स्कोप ऑफ़ द टॉपिक)
भारत में मजिस्ट्रेट के पास आपराधिक कार्यवाही करने की बहुत शक्ति है। कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर में मामलों को दो प्रकारों में बांटा गया है: समरी मामला और वारंट मामला। उन दोनों के बीच मुख्य अंतर सिर्फ दी गई सजा का है। वारंट मामले में अपराधियो को आमतौर पर मौत, आजीवन कारावास या 2 साल तक की कैद जैसी सजा दी जाती है। जिन अपराधियों को मौत की सजा और आजीवन कारावास जैसी सजा नहीं दी जा सकती है, उन पर समरी ट्रायल आज़माया जा सकता है। यह अध्याय कार्यवाही के प्रारंभ होने से संबंधित है। जब इस अध्याय के तहत किसी आरोपी को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश होने के लिए बुलाया जाता है, तो धारा 203 के तहत शिकायत को खारिज नहीं किया जा सकता है। यह अध्याय प्रक्रिया के मुद्दे, बयानों की एक कॉपी की आपूर्ति (सप्लाई) और जांच से संबंधित दस्तावेजों जैसे विभिन्न सवालों के जवाब प्रदान करता है, और यह शिकायत का मामला होने पर पालन की जाने वाली प्रक्रिया से भी संबंधित है।
प्रक्रिया के मुद्दों से पहले शिकायतकर्ता की जांच (स्क्रूटिनी ऑफ़ द कंप्लेनेंट बिफोर इशू ऑफ़ प्रोसेस)
शिकायतकर्ता की जांच एक प्रारंभिक (इनिशियल) प्रक्रिया है जो पूरी कार्यवाही को मजबूत करती है। यह प्रक्रिया शुरुआती चरणों (स्टेजेस) में शिकायतों में विश्वसनीयता (क्रेडिबिलिटी) जोड़ती है। प्रक्रिया जारी करने से पहले शिकायत की जांच करना आवश्यक है। अध्याय XVI इस जांच के समाप्त होने के बाद ही चलन में आता है। इस जांच का उपयोग करके शिकायतकर्ता की लोकस स्टैंडी को वेरिफाई किया जाता है। मजिस्ट्रेट यह भी वेरिफाई करते हैं कि शिकायतकर्ता धारा 195 से धारा 199 में प्रदान किए गए अपवादों (एक्सेप्शंस) के तहत आएगा या नहीं। जब जांच में प्राइम फेसी मामला बनता है, तो मजिस्ट्रेट प्रक्रिया को स्थगित (पोस्टपोन) किए बिना जारी रख सकते हैं। शिकायतकर्ता की जांच की यह प्रक्रिया स्वयं मजिस्ट्रेट द्वारा Aकी जाती है न कि किसी एडवोकेट द्वारा, हालांकि, संबंधित एडवोकेट इस प्रक्रिया में मदद कर सकते हैं। कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर की धारा 190 मजिस्ट्रेट द्वारा अपराधों का कॉग्निजेंस लेने की शर्त प्रदान करती है।
इस धारा के अनुसार, मजिस्ट्रेट इन सब परिस्थितियों में कॉग्निजेंस ले सकते हैं:
- पुलिस शिकायत प्राप्त करने के बाद;
- उन तथ्यों की शिकायत प्राप्त करने के बाद जो किसी अपराध का गठन (कंस्टिट्यूट) करते हैं;
- पुलिस अधिकारी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से या अपने स्वयं के ज्ञान पर जानकारी प्राप्त करने के बाद कि ऐसा अपराध किया गया है;
- चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, सेकंड क्लास के किसी भी मजिस्ट्रेट को उन अपराधों का कॉग्निजेंस लेने का अधिकार दे सकते हैं जो जांच या ट्रायल करने के लिए उनकी क्षमता (कॉम्पिटेंस) के भीतर हों।
मजिस्ट्रेट शिकायत की जांच कर सकते है और प्रक्रिया जारी करने से पहले इसको पूरी तरह से जांच कर सकते है।
शिकायतकर्ता की जांच (एग्जामिनेशन ऑफ़ द कंप्लेनेंट)
कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर की धारा 200 शिकायतकर्ता की जांच से संबंधित है। मजिस्ट्रेट को अपराध का कॉग्निजेंस लेने के बाद शिकायतकर्ता और उपस्थित गवाहों की जांच करनी होती है। यह जांच शपथ पर कि जाती है। मजिस्ट्रेट का यह भी कर्तव्य है कि वह ऐसी जांच में मिली प्रासंगिक (रिलेवेंट) जानकारी को नोट करे। ऐसी जांच का सार (सब्सटेंस) लिखित रूप में दिया जाना चाहिए और उस पर शिकायतकर्ता और गवाहों के हस्ताक्षर होने चाहिए। मजिस्ट्रेट को यह जांच आयोजित (कंडक्ट) करने की आवश्यकता नहीं है जब:
- यदि शिकायत किसी ऐसे लोक सेवक द्वारा की जाती है जो अपने आधिकारिक (ऑफिशियल) या न्यायालय के कर्तव्यों के निर्वहन (डिस्चार्ज) में कार्य करता है;
- यदि मजिस्ट्रेट धारा 192 के तहत मामले की जांच या ट्रायल के लिए किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंपते है।
यदि मजिस्ट्रेट इन-चार्ज मामले की जांच करते है और मामले को जांच या ट्रायल के लिए किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंपते है, तो बाद वाले मजिस्ट्रेट को मामलों की दोबारा जांच करने की आवश्यकता नहीं है।
शिकायतकर्ता की आगे की जांच के लिए इन्वेस्टिगेशन या इंक्वायरी
कोड की धारा 202 शिकायतकर्ता की आगे की जाने वाली जांच का प्रावधान करती है। यदि मजिस्ट्रेट को लगता है कि आगे की इन्वेस्टिगेशन की आवश्यकता है तो प्रक्रिया जारी करने को स्थगित किया जा सकता है। मजिस्ट्रेट यह तय करेंगे कि कार्यवाही करने के लिए कोई उचित आधार है या नहीं। इस धारा के तहत जांच का दायरा शिकायत में किए गए सच या झूठ की पुष्टि (असर्टेनमेंट) तक सीमित है।
शिकायत का डिसमिसल
धारा 203 मजिस्ट्रेट को शिकायत को डिसमिस करने की शक्ति प्रदान करती है। मजिस्ट्रेट शिकायत को डिसमिस कर सकते है यदि उनकी राय है कि कार्यवाही करने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं हैं। मजिस्ट्रेट धारा 202 के तहत उचित इंक्वायरी या इन्वेस्टिगेशन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचता है। यदि प्रोसेसिंग शुल्क का भुगतान ठीक से नहीं किया जाता है तो मजिस्ट्रेट शिकायत को डिसमिस भी कर सकते हैं और डिसमिसल का यह आधार धारा 204 में उल्लिखित (मेंशनड) है। चिमनलाल बनाम दातार सिंह के मामले में, यह कहा गया था कि यदि मजिस्ट्रेट धारा 202 के तहत भौतिक (मैटेरियल) गवाह की जांच करने में विफल रहते है तो शिकायत को डिसमिस करना उचित नहीं है। मजिस्ट्रेट शिकायत को डिसमिस कर सकतें हैं या प्रक्रिया के मुद्दे को अस्वीकार कर सकते हैं जब:
- धारा 200 के अनुसार शिकायत लिखने के बाद मजिस्ट्रेट को पता चलता है कि कोई अपराध नहीं किया गया है;
- यदि मजिस्ट्रेट शिकायतकर्ता द्वारा दिए गए बयानों पर अविश्वास (डिस्ट्रस्ट) करते हैं;
- यदि मजिस्ट्रेट को लगता है कि आगे की जांच करने की आवश्यकता है, तो वह प्रक्रिया के मुद्दे में देरी कर सकते हैं।
समन या वारंट जारी करना
इस एक्ट की धारा 204 मजिस्ट्रेट को प्रक्रिया जारी करने की शक्ति प्रदान करती है यदि यह पाया जाता है कि कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार हैं। समन मामला होने पर मजिस्ट्रेट समन जारी कर सकते हैं। वारंट मामले में वारंट जारी किया जाता है। मजिस्ट्रेट आरोपी को एक निश्चित तारीख के भीतर उनके समक्ष पेश होने के लिए समन भी भेज सकतें हैं। जब तक उचित समय के भीतर शुल्क का भुगतान नहीं किया जाता है, तब तक “प्रोसेस-शुल्क” के भुगतान में कोई बकाया होने पर मजिस्ट्रेट द्वारा कोई प्रक्रिया जारी नहीं की जा सकती। अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष के गवाहों की सूची (लिस्ट) उपलब्ध कराए जाने तक आरोपी के खिलाफ कोई समन या वारंट जारी नही किया जा सकता है। यह धारा, इस कोड की धारा 87 में प्रदान किए गए प्रावधानों को प्रभावित नहीं करेगी। धारा 87 मजिस्ट्रेट को इस धारा के तहत जब भी आवश्यक हो गिरफ्तारी का वारंट जारी करने में सक्षम बनाती है।
आरोपी की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट देने की शक्ति (पॉवर टू डिस्पेंस विथ द पर्सनल अटेंडेंस ऑफ़ द एक्यूज्ड)
धारा 205 मजिस्ट्रेट को कुछ स्थितियों में आरोपी की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट देने की शक्ति प्रदान करती है। मजिस्ट्रेट आरोपी की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट दे सकते है और उचित कारण होने पर उसे अपने वकील द्वारा पेश होने की अनुमति दे सकते है। यदि आवश्यक हो तो मजिस्ट्रेट जांच के किसी भी चरण में आरोपी को व्यक्तिगत उपस्थिति का निर्देश (डायरेक्ट) भी दे सकते है। व्यक्तिगत पेशी से छूट का दावा, अधिकार के रूप में नहीं किया जा सकता है, लेकिन प्रासंगिक न्यायिक सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) को लागू करने के बाद यह पूरी तरह से न्यायालय के विवेक (डिस्क्रीशन) पर है। मजिस्ट्रेट उपस्थिति को दूर करने के लिए विभिन्न कारकों (फैक्टर्स) पर विचार करते हैं जैसे:
- सामाजिक (सोशल) स्थिति।
- रीति (कस्टम) और अभ्यास।
- दूरी जहां पर आरोपी रहता है।
- अपराध और ट्रायल के चरणों के संबंध में व्यक्तिगत उपस्थिति की आवश्यकता।
मामूली अपराधों के मामलों में विशेष समन (स्पेशल समन इन केस ऑफ़ पेटी ऑफेंसेस)
मजिस्ट्रेट धारा 206(2) के अनुसार मामूली अपराधों के मामलों में कुछ विशेष समन जारी कर सकता है। इस धारा के प्रयोजनों (पर्पज) के लिए, “मामूली अपराध” का अर्थ केवल 1 हजार रुपये से अधिक के जुर्माने से दंडनीय अपराध है, लेकिन इसमें कोई ऐसा अपराध शामिल नहीं है जो मोटर व्हीकल एक्ट, 1939 या किसी अन्य कानून के तहत दंडनीय हो जो दोषी को दोषी की याचिका (प्ली ऑफ गिल्टी) की अनुपस्थिति (एबसेंस) में उसे दोषी ठहराने का प्रावधान करता है। जब एक मजिस्ट्रेट मामूली अपराधों का कॉग्निजेंस लेतें हैं तो धारा 260 के अनुसार मामले को समरी तौर पर डिसमिस किया जा सकता है, लेकिन कभी-कभी मजिस्ट्रेट जरूरत पड़ने पर व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से या वकील द्वारा पेश होने के लिए समन भेज सकते हैं। इस तरह के निर्णय के कारणों को रिकॉर्ड किया जाना चाहिए।
आरोपी को बयानों और अन्य दस्तावेजों की कॉपीज की आपूर्ति (सप्लाई टू द एक्यूज़्ड द कॉपीज ऑफ़ स्टेटमेंट्स एंड अदर डॉक्यूमेंट्स)
आरोपी को प्रासंगिक दस्तावेज उपलब्ध कराना आवश्यक है ताकि वे अपनाई गई प्रक्रिया और मामले की स्थिति को समझ सकें। जब भी आवश्यक हो, आपूर्ति किए गए दस्तावेजों का उपयोग भविष्य के संदर्भ (रेफरेंस) के लिए भी किया जा सकता है। ऐसे दस्तावेज उपलब्ध कराने के पीछे मुख्य आवश्यकता ट्रायल के दौरान पूर्वाग्रह (प्रेज्युडिस) से बचना है। मजिस्ट्रेट द्वारा सामग्री की आपूर्ति न करना जो धारा 207 में प्रदान किया गया है, का सफलतापूर्वक उपयोग कनविक्शन को रद्द करने के लिए किया जा सकता है।
जहां पुलिस रिपोर्ट पर कार्यवाही शुरू की जाती है
धारा 207 में प्रावधान है कि पुलिस रिपोर्ट पर कार्यवाही शुरू होने पर मजिस्ट्रेट को आरोपी को दस्तावेजों की कुछ कॉपीज प्रदान करनी होती हैं। दस्तावेज नि:शुल्क उपलब्ध कराए जाने चाहिए। प्रदान किए जाने वाले आवश्यक दस्तावेज हैं:
- पुलिस रिपोर्ट;
- फर्स्ट इंफॉर्मेशन रिपोर्ट (एफ.आई.आर.) जो धारा 154 के तहत दर्ज की गई है;
- उन सभी व्यक्तियों के बयान जो धारा 161 की उप-धारा (6) के तहत दर्ज किए गए हैं, जिन्हें अभियोजन पक्ष अपने गवाहों के रूप में जांचना चाहता है;
- यदि उपलब्ध हो तो धारा 164 के तहत दर्ज किए गए कन्फेशन और बयान;
- कोई अन्य प्रासंगिक दस्तावेज जो पुलिस रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट को भेजा गया हो।
विनियोग इंटरनेशनल नई दिल्ली बनाम स्टेट के मामले में, यह कहा गया था कि आरोपी उन बयानों की कॉपीज प्राप्त करने का हकदार है जो धारा 161 के तहत दर्ज की गई हैं और अभियोजन द्वारा जिन दस्तावेजों पर भरोसा करने की मांग की गई है। यह भी कहा गया कि आरोपी को चालान की कॉपीज उपलब्ध कराना अनिवार्य (मैंडेटरी) है। यह धारा इस बात से संबंधित नहीं है कि जब कुछ गवाहों से पूछताछ नहीं की जाती है, तो स्थिति को कैसे संभालना है, बल्कि केवल जांच किए गए व्यक्तियों के बयान प्रस्तुत करना है।
जहां कार्यवाही एक ऐसे अपराध के संबंध में है जो विशेष रूप से सेशन कोर्ट द्वारा ट्रायबल है
अदालत को आरोपी को कुछ दस्तावेज उपलब्ध कराने होते हैं जब अपराध विशेष रूप से सेशस कोर्ट द्वारा, धारा 208 के अनुसार ट्रायबल होता है। पुलिस रिपोर्ट के आधार पर मामला स्थापित नहीं होने पर ये दस्तावेज उपलब्ध कराए जाने चाहिए। दस्तावेज हैं:
- मजिस्ट्रेट द्वारा जांच के बाद धारा 200 या धारा 202 के तहत दर्ज बयान;
- कोई भी दस्तावेज जो मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है जिस पर अभियोजन पक्ष भरोसा करने का प्रस्ताव करता है;
- धारा 161 या धारा 164 के तहत दर्ज किए गए बयान और कन्फेशन, यदि उपलब्ध हो।
सेशन कोर्ट के लिए मामले की प्रतिबद्धता (कमिटमेंट ऑफ़ द केस टू सेशन कोर्ट)
धारा 209 सेशन कोर्ट के प्रति मामले की प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) से संबंधित है। इस धारा के अनुसार यदि एक मजिस्ट्रेट को लगता है कि मामला स्थापित करने के बाद अपराध विशेष रूप से सेशन कोर्ट द्वारा ट्रायबल है, तो,
- मजिस्ट्रेट मामले को सेशन कोर्ट में प्रस्तुत कर सकते है;
- आरोपी को तब तक हिरासत में भेजा जा सकता है जब तक कि कार्यवाही जमानत से संबंधित अन्य प्रावधानों के अधीन न हो;
- मजिस्ट्रेट कार्यवाही करने के लिए संबंधित न्यायालय को सबूत और अन्य प्रासंगिक सबूत भेज सकते है;
- मजिस्ट्रेट लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) को सेशन कोर्ट में मामले की प्रतिबद्धता के बारे में भी सूचित कर सकते है।
मामलों का कंसोलिडेशन
धारा 210 उन प्रक्रियाओं से संबंधित है जिनका पालन, पुलिस रिपोर्ट और शिकायत पर स्थापित मामलों का कंसोलिडेशन करने के लिए किया जाता है। मजिस्ट्रेट किसी भी जांच या मुकदमे की कार्यवाही पर रोक लगा सकते है और जांच करने वाले पुलिस अधिकारी से मामले पर रिपोर्ट मांग सकते है यदि यह जांच के एक ही विषय में किया जाता है। यदि पुलिस रिपोर्ट मामले में किसी भी आरोपी से संबंधित नहीं है या यदि मजिस्ट्रेट, पुलिस रिपोर्ट पर किसी अपराध का कॉग्निजेंस नहीं लेते है, तो वह जांच या ट्रायल के साथ आगे बढ़ेंगे, जो कोड के अन्य प्रावधानों के अनुसार उनके द्वारा रोकी गई थी। यदि जांच करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा धारा 173 के अनुसार रिपोर्ट की जाती है और ऐसी रिपोर्ट के आधार पर मजिस्ट्रेट द्वारा किसी आरोपी व्यक्ति के खिलाफ किसी अपराध का कॉग्निजेंस लिया जाता है, तो मजिस्ट्रेट शिकायत मामले की जांच करेंगे या उन दोनो शिकायतों को एक साथ ट्राई करेंगे जैसे की, दोनो मामले पुलिस रिपोर्ट धारा स्थापित किए गए थे।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
यह अध्याय बहुत आवश्यक है क्योंकि यह कार्यवाही शुरू करने से संबंधित है। इस अध्याय के प्रावधानों का ठीक से पालन किया जाना चाहिए ताकि यह कार्यवाही के अन्य चरणों को नियंत्रित कर सके। आपराधिक जांच करने में कार्यवाही का मुद्दा महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं में से एक है। आरोपी को कार्यवाही से संबंधित दस्तावेजों की कॉपीज की आपूर्ति भी आवश्यक है। इस प्रकार, इस अध्याय के प्रावधानों का सावधानी से पालन किया जाना चाहिए ताकि यह कार्यवाही के अन्य भागों को प्रभावित न करे।
संदर्भ (रेफरेंसेस)
- 1998 CriLJ 267, 1997 (1) WLN 396.
- LAWS(DLH)-1984-6-13