केंद्र-राज्य: वित्तीय संबंध

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Constitution of India
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यह लेख हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी से बीएएलएलबी का अध्ययन कर रहे छात्र Yatin Gaur द्वारा लिखा गया है। इस लेख में, लेखक ने भारत के संविधान में और हाल के 101वें संवैधानिक संशोधन के आलोक में केंद्र और राज्य के बीच वित्तीय (फाइनेंसियल) संबंधों पर व्यापक रूप से चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारत एक संघीय ढांचे (फेडरल स्ट्रक्चर) का पालन करता है जहां केंद्र और राज्यों दोनों के बीच शक्तियां साझा (शेयर) की जाती हैं। हालांकि, इन शक्तियों का वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन) समान नहीं है, और हम अक्सर यह पाते हैं कि राज्य सभी मामलों के लिए केंद्र सरकार पर अपनी अत्यधिक निर्भरता के बारे में लगातार चिंता जताते हैं, इस प्रकार उनकी शक्तियों और स्वायत्तता (ऑटोनोमी) को सीमित करते हैं। इसलिए, यह भी कहा जाता है कि भारत एक अर्ध-संघीय (क्वॉसी फेडरल) संरचना का पालन करता है जहाँ केंद्र सरकार को राज्यों पर अधिक अधिकार प्राप्त हैं।

इसी तरह, वित्तीय क्षेत्र में भी, केंद्र सरकार राज्यों की तुलना में अधिक शक्तिशाली है और हालांकि समय-समय पर राजकोषीय संघवाद (फिस्कल फेडरलिज्म) में कई सुधार हुए हैं, फिर भी कई तरह के मुद्दे मौजूद हैं जिन्हें संबोधित करने की आवश्यकता है। जैसा कि वर्तमान स्थिति में भी राज्यों को वित्तीय संसाधनों (रिसोर्सेस) के लिए केंद्र पर बहुत अधिक निर्भर रहना पड़ता है।

पृष्ठभूमि 

अनुच्छेद 246 – कराधान पर कानून बनाने के लिए संघ और राज्यों की विषय वस्तु (सब्जेक्ट मैटर ऑफ़ यूनियन एंड स्टेट्स टू मेक लॉ ऑन टैक्सेशन)

भारत के संविधान, 1949 का अनुच्छेद 246 उन विषयों की सूची प्रदान करता है जो सरकार के विभिन्न स्तरों को उन पर कानून बनाने की शक्ति प्रदान करते हैं। अनिवार्य रूप से अनुच्छेद 246 के तहत तीन प्रकार की सूचियाँ वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं:

संघ सूची (यूनियन लिस्ट) 

केंद्र सरकार को सूची I के तहत दी गई विषय वस्तु से संबंधित कानून बनाने का अधिकार है, जिसे संघ सूची कहा जाता है। इसमें निगम कर (कॉर्पोरेशन टैक्स), सीमा शुल्क (कस्टम) और उत्पाद शुल्क (एक्साईज ड्यूटी) जैसे कर और कृषि आय (इनकम) के अलावा अन्य आय पर कर आदि शामिल हैं। 

राज्य सूची (स्टेट लिस्ट)

राज्य सरकार को सूची II, जिसे राज्य सूची कहा जाता है, इसके तहत उल्लिखित विषयों पर कानून बनाने की शक्ति निहित है। इसमें वाहन, शराब, भू-राजस्व (लैंड रेवेन्यू), मनोरंजन, विलासिता (लग्जरिज), स्टाम्प शुल्क (ड्यूटी) और वस्तू की बिक्री या खरीद आदि पर कर शामिल हैं। 

समवर्ती सूची (कॉनकरंट लिस्ट)

जबकि एक और सूची है जिसे समवर्ती सूची के रूप में भी जाना जाता है, जो केंद्र और राज्य सरकार दोनों को सूची III द्वारा प्रदान किए गए विषयों के संबंध में कानून बनाने की शक्ति देती है। सूची III में कोई बड़ा कर शामिल नहीं है। यह दोनों अधिकारियों द्वारा एक ही स्रोत (सोर्स) के प्रतिस्पर्धी शोषण (कॉम्पिटेटिव एक्सप्लॉटेशन) और भारतीय संविधान के तहत कर-क्षेत्राधिकार (टैक्स जुरिस्डिक्शन) के अतिव्यापी (ओवरलैप) होने से बचने में मदद करता है। इसके अलावा, संघर्ष के मामले में, केंद्र सरकार का निर्णय राज्य सरकार के निर्णय पर प्रभावी होगा।

शक्तियों का वितरण – कर लगाना और संग्रह करना 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 268 से 281 में विस्तृत (ऐलबोरेट) प्रावधान किए गए हैं जो राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों के वितरण से संबंधित केंद्र को निर्देश (डायरेक्शन) प्रदान करते हैं। यह केंद्र और राज्यों के लिए व्यवस्थित व्यवस्था के माध्यम से कर लगाने और संग्रह करने के लिए समन्वय (कोऑर्डिनेशन) में काम करने के लिए सिद्धांतों को निर्धारित करता है।

फिलहाल के लिए प्रावधानों को संक्षेप में निम्नानुसार बताया जा सकता है, लेकिन आगे विस्तार से बताया जाएगा। इसमें शामिल है:

  1. संघ द्वारा लगाए गए कर लेकिन राज्यों द्वारा एकत्र और रखे गए (अनुच्छेद 268)।
  2. संघ द्वारा लगाए और एकत्र किए गए कर लेकिन राज्यों को सौंपे गए (अनुच्छेद 269)।
  3. संघ और राज्यों के बीच लगाए और वितरित किए गए कर (अनुच्छेद 270)।
  4. केंद्र से राज्यों को सहायता अनुदान (ग्रांट) (अनुच्छेद 273, अनुच्छेद 275 और अनुच्छेद 282)।
  5. अन्य करों से आय का बंटवारा।

केंद्र और राज्य के बीच धन के वितरण के संबंध में सिफारिशें देने में, अनुच्छेद 280 के तहत उल्लिखित वित्त आयोग बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

जीएसटी व्यवस्था – 101वां संशोधन

संविधान में 101वें संशोधन और भारतीय अर्थव्यवस्था में जीएसटी की शुरूआत ने केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों के परिदृश्य (सिनेरियो) को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया है। इसलिए, जीएसटी क्या है, इसके आवेदन और इसके विभिन्न रूपों का बुनियादी ज्ञान होना बेहद जरूरी है।

जीएसटी से पहले की स्थिति

जीएसटी लागू होने से पहले, केंद्र और राज्यों द्वारा अलग-अलग कई कर लगाए गए थे और जिनका वितरण भ्रमित (कन्फ्यूजिंग) और गैर-समान (नॉन यूनिफॉर्म) था। इसमें सेवा कर, केंद्रीय उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क और राज्य वैट आदि शामिल थे। लेकिन जीएसटी के बाद, एक राष्ट्र एक कर के सिद्धांत को अपनाया गया था।

जीएसटी से बाद की स्थिति

जीएसटी को सीजीएसटी, एसजीएसटी या आईजीएसटी में वर्गीकृत किया गया है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि लेनदेन अंतर – राज्यीय (इंटर्स्टेट ऑर इंट्रास्टेट) आपूर्ति (सप्लाई) है या नहीं। आइए समझते हैं इसका क्या मतलब है:

अंतर – राज्यीय आपूर्ति

  1. वस्तुओं या सेवाओं की अंतर-राज्य आपूर्ति: इस प्रकार के लेनदेन में, आपूर्तिकर्ता (सप्लाई) का स्थान और आपूर्ति का स्थान एक ही राज्य में होता है।
  2. वस्तुओं और सेवाओं की अंतर-राज्य आपूर्ति: एकीकृत (इंटीग्रेटेड) वस्तू और सेवा कर अधिनियम 2017 की धारा 7 के अनुसार यह समझा जा सकता है कि “अंतर-राज्य” व्यापार या वाणिज्य (कमर्शियल) का मूल रूप से अर्थ यह है कि: 
  • जब आपूर्तिकर्ता किसी अन्य राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में स्थित हो और आपूर्ति का स्थान किसी अन्य राज्य / केंद्र शासित प्रदेश में हो, या 
  • जब किसी विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) इकाई को या उसके द्वारा वस्तुओं या सेवाओं की आपूर्ति की जाती है।

केंद्रीय वस्तू और सेवा कर (सीजीएसटी)

  1. सीजीएसटी वस्तुओं और सेवाओं की अंतर – राज्यीय आपूर्ति पर लगाया जाने वाला कर है और यह सीजीएसटी अधिनियम द्वारा शासित होता है। इसके साथ ही एसजीएसटी/यूटीजीएसटी भी उसी लेनदेन पर लगाया जाएगा और एसजीएसटी/यूटीजीएसटी अधिनियम द्वारा शासित होगा।
  2. इसका तात्पर्य यह है कि वस्तू और सेवाओं की अंतर – राज्यीय आपूर्ति के मामले में सीजीएसटी और एसजीएसटी दोनों संयुक्त हैं जो एक साथ एकत्र किए जाते हैं; जहां सीजीएसटी केंद्र में जाता है और एसजीएसटी राज्य में जाता है।
  3. एसजीएसटी और सीजीएसटी का अनुपात (प्रोपोर्शन) बराबर है।

हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि केंद्र और राज्य द्वारा वस्तुओं और/या सेवाओं की अंतर-राज्य आपूर्ति पर लगाया गया कोई भी कर प्रत्येक में 14% से अधिक नहीं होगा।

राज्य वस्तु एवं सेवा कर (एसजीएसटी)

  1. एसजीएसटी राज्य सरकार द्वारा वस्तुओं और/या सेवाओं की राज्य के भीतर आपूर्ति पर राज्य द्वारा लगाया जाने वाला कर है।
  2. यह एसजीएसटी अधिनियम द्वारा शासित है।
  3. जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, यह सीजीएसटी के साथ लगाया और एकत्र किया जाता है।
  4. केंद्र शासित प्रदेशों के मामले में, इसे यूजीएसटी कहा जाता है और यूजीएसटी अधिनियम द्वारा शासित होता है। 

एकीकृत वस्तू और सेवा कर (आईजीएसटी)

  1. आईजीएसटी या इंटीग्रेटेड वस्तुओं और/या सेवाओं, की सभी अंतर-राज्य आपूर्ति पर लगाया जाने वाला कर है।
  2. यह आइजीएसटी अधिनियम द्वारा शासित है।
  3. आईजीएसटी भारत में आयात और भारत से निर्यात दोनों के मामले में वस्तुओं और/या सेवाओं की किसी भी आपूर्ति पर लागू होता है। हालांकि निर्यात जीरो-रेटेड होगा।
  4. आईजीएसटी के तहत प्राप्त कर को अनुच्छेद 269A के अनुसार केंद्र और राज्यों के बीच साझा (शेयर) किया जाता है।

जीएसटी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने दोहरी कर सुविधाओं के साथ एक समान कर प्रणाली की शुरुआत की जहां राजस्व (रेवेन्यू) केंद्र और राज्य दोनों के बीच साझा किया जाता है।

अनुच्छेद 279A के तहत उल्लिखित जीएसटी परिषद, जीएसटी दर, अंतर आपूर्ति लेनदेन और जीएसटी से संबंधित अन्य मामलों आदि के संबंध में निर्णय लेगी।

अनुच्छेद 265- कानून के प्राधिकार (अथॉरिटी) के बिना करों का अधिरोपण (इंपोजीशन) न किया जाये

व्याख्या

भारत के संविधान के अनुच्छेद 265 के अनुसार, संघ और राज्य कानून द्वारा अधिकृत (ऑथराइज्ड) के अलावा कोई कर नहीं लगा सकते हैं या एकत्र नहीं कर सकते हैं। 

इसका मूल रूप से मतलब है कि केंद्र या राज्य सरकार की कर लगाने और एकत्र करने की शक्ति पूर्ण शक्ति नहीं है; जैसा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 265 इस पर कुछ सामान्य और विशिष्ट सीमाएँ लगाता है।

इस खंड (सेक्शन) में प्रयुक्त (युज्ड़) अभिव्यक्तियों (एक्सप्रेशन) के दायरे को परिभाषित करने के बाद इन प्रतिबंधों (रिस्ट्रिक्शन) को आसानी से समझा जा सकता है।

दायरा (स्कोप)

  1. कानून: इस खंड में प्रयुक्त अभिव्यक्ति “कानून” मूल रूप से क़ानून यानी विधायिका (लेजीस्लेचर) के कार्य को संदर्भित करता है। इसका अनिवार्य रूप से मतलब है कि कर लगाने के लिए अभिव्यंजक (एक्सप्रेसिव) विधायी प्रावधान का अस्तित्व होना चाहिए। 

इसलिए, यहां ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल कार्यपालिका (एग्जीक्युटिव) के आदेश पर कर नहीं लगाया जा सकता है। चूंकि यह इस अभिव्यक्ति के अर्थ में नहीं आएगा। इसके अलावा, यह भी कहा जा सकता है कि सदन द्वारा केवल एक प्रस्ताव (रिजॉल्यूशन) पारित करना भी वर्तमान मामले में पर्याप्त नहीं होगा। तो कानून के तहत किसी भी कर को प्राप्त करने के लिए, अनुच्छेद में विधायिका को एक कानून बनाने की आवश्यकता होती है।

2. लेवी और संग्रह: इस अनुच्छेद के तहत उल्लिखित अभिव्यक्ति ‘लेवी’ और ‘संग्रह’ का उपयोग न केवल इस बात तक सीमित है कि कर का अधिरोपण कानून द्वारा अधिकृत होना चाहिए, बल्कि यह व्यापक है कि इसमें भी कर का संग्रह कानून द्वारा स्वीकृत किया जाना चाहिए। इसलिए, इसका मूल रूप से मतलब है कि इस पूरी प्रक्रिया में हर चरण में आवश्यकता का पालन किया जाना चाहिए।

इसके अलावा, एक कर क़ानून भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 के उल्लंघन मे नहीं होना चाहिए, अर्थात इससे संविधान में निहित मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। इसे अनुच्छेद 14 का समान संरक्षण खंड (इक्वल प्रोटेक्शन क्लॉज) का अतिक्रमण (ट्रासंग्रेस) नहीं करना चाहिए, अनुच्छेद 19 की उचित प्रतिबंधों (रीजनेबल रिस्ट्रिक्शन) का खंड या व्यापार और वाणिज्य की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के अनुच्छेद 301 के तहत प्रदान कि गई है।

केस लॉ 

प्रतिभा आर.सी.सी. स्पून, पाइप और सीमेंट उत्पाद (प्रोडक्ट्स) बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में, एक निश्चित कर लगाना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 265 के आलोक (इन लाइट) में अस्वीकार कर दिया था। इस मामले में फीस के बहाने कर वसूला गया था। चूंकि इसके पीछे कोई विधायी अधिनियम नहीं था, इसलिए कर लगाना अवैध माना जाता था।

इसलिए, संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि कर लगाने और संग्रह करने के लिए केवल एक कार्यकारी आदेश पर्याप्त नहीं है और यह अनिवार्य है कि इसके पीछे विधायी अधिनियम होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, कर लगाने के अलावा, उसकी वसूली को भी विधायिका द्वारा एक स्टेच्यूट या अधिनियम के माध्यम से अधिकृत किया जाना चाहिए।

अनुच्छेद 266- भारत और राज्यों की संचित निधि और सार्वजनिक खाते (कंसोलिडेटेड फंड्स एंड पब्लिक अकाउंट्स)

भारत के संविधान का अनुच्छेद 266 “भारत और राज्यों की संचित निधि और सार्वजनिक खाते” पर केंद्रित है। यह संचित निधि और सार्वजनिक खातों की परिभाषा देता है।

संचित निधि 

अनुच्छेद 166 के खंड (1) के अनुसार, संचित निधि एक निधि है जिसमें नीचे दिए गए सभी घटक शामिल हैं: 

  1. भारत सरकार द्वारा प्राप्त राजस्व।
  2. ट्रेजरी बिल, अग्रिम (एडवांसेज), ऋण (लोन) की वसूली आदि जारी करने के माध्यम से सरकार द्वारा उठाए गए ऋण।

अपवाद (एक्सेप्शन): इसमें अनुच्छेद 266 में उल्लिखित सार्वजनिक निधि की मदें (आइटम्स) और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 267 के तहत विचारित आकस्मिकता निधि के घटक शामिल नहीं हैं। इसमें भारत के संविधान के अध्याय XII के कुछ अन्य प्रावधान भी शामिल नहीं हैं, जो राज्यों को कुछ विशिष्ट करों और शुल्कों की शुद्ध आय (इनकम) का पूरा या कुछ हिस्सा सौंपने से संबंधित हैं। 

व्याख्या: अनिवार्य रूप से यह अनुच्छेद 266(1) के तहत उल्लिखित संचित निधि है जिसे आम तौर पर बजट कहा जाता है।

  1. इसमें सरकार द्वारा प्राप्त सभी राजस्व, ब्याज की प्राप्तियां (रिसिप्ट) और सरकार द्वारा दिए गए ऋणों को चुकाना, और सरकार द्वारा उठाए गए सभी अग्रिम या नए ऋण शामिल हैं। 
  2. अप्रत्याशित परिस्थितियों (अन्फोरेसीन सर्कमस्टेंसेस) को छोड़कर सरकार के सभी खर्चों को संचित निधि के माध्यम से पूरा किया जाता है।
  3. इसके अलावा, संसद से प्राधिकरण (ऑथराइजेशन) के बिना सरकार द्वारा संचित निधि से कोई राशि नहीं निकाली जा सकती है। 

एक राज्य में संचित धन

भारत में संचित निधि के समान ही एक राज्य में भी संचित निधि होती है। इसमें एक राज्य की सरकार द्वारा प्राप्त सभी राजस्व, सभी ऋण, अग्रिम या ऋण के पुनर्भुगतान (रिपेमेंट) में सरकार द्वारा प्राप्त धन आदि शामिल हैं। इसके अलावा, उपरोक्त सभी अपवाद यहां भी समान रूप से लागू होते हैं।

संचित निधि से धन निकालना 

अनुच्छेद 266 के खंड (3) के अनुसार, भारत की संचित निधि या किसी राज्य की संचित निधि में से पैसा केवल निम्नलिखित शर्तों की संतुष्टि पर ही विनियोजित (एप्रोप्रिएट) किया जा सकता है:

  1. यह कानून के अनुसार होना चाहिए।
  2. इसका उपयोग इच्छित (इंटेंडेड) उद्देश्य के लिए किया गया होगा।
  3. इसे संविधान में प्रदान किए गए तरीके के अनुसार विनियोजित किया जाना चाहिए था।

सार्वजनिक निधि

अनुच्छेद 266 के उपखंड (2) के अनुसार, भारत सरकार या राज्य सरकार या सरकार की ओर से प्राप्त अन्य सभी सार्वजनिक राजस्व से सार्वजनिक निधि का गठन किया जाएगा। ऐसी स्थिति में प्राप्त धन को या तो भारत के सार्वजनिक खाते में या राज्य के सार्वजनिक खाते में शामिल किया जा सकता है।

व्याख्या: 

इसमें मूल रूप से कुछ विशिष्ट लेनदेन शामिल हैं, जैसे कि लघु बचत संग्रह (स्मॉल सेविंग कलेक्शन), भविष्य निधि, आदि। सार्वजनिक निधियों के मामले में, सरकार एक बैंकर के समान कर्तव्य निभा रही है क्योंकि सार्वजनिक खाते में रखी गई धनराशि सरकार से संबंधित नहीं है, और सरकार को यह पैसा भविष्य में उन व्यक्तियों और प्राधिकारियों को वापस करना होगा जिन्होंने इसे जमा किया है। इसलिए, सार्वजनिक खाते से पैसे निकालने से पहले संसद से किसी भी प्राधिकरण को प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

अनुच्छेद 267- आकस्मिकता निधि (कंटिंजेंसी फंड)

आकस्मिकता निधि को भारत के संविधान, 1949 के अनुच्छेद 267 के तहत परिभाषित किया गया है। इन अनुच्छेदों के तहत प्रावधान हैं:

भारत की आकस्मिकता निधि

इस अनुच्छेद के अनुसार, संसद कानून के प्राधिकार द्वारा “भारत की आकस्मिकता निधि” के रूप में शीर्षक वाली तत्काल (अर्जेंट) या अप्रत्याशित परिस्थितियों को पूरा करने के उद्देश्य से एक निधि का गठन कर सकती है।

निधि की प्रकृति: निधि अग्रदाय (इंप्रेस्ट) के रूप में है और संसद उस राशि के बारे में कानून बना सकती है जिसे निधि में समय-समय पर जमा किया जाना है।

अनुमोदन (अप्रूवल): निधि भारत के राष्ट्रपति के निपटान (डिस्पोजल) में है और इसके लिए संसद से किसी पूर्व स्वीकृति या अनुमोदन की आवश्यकता नहीं है। हालांकि बाद में, व्यय (एक्सपेंडिचर) को अनुच्छेद 115 या अनुच्छेद 116 के तहत संसद द्वारा अधिकृत करने की आवश्यकता है। 

इसके अलावा, संसद के अनुमोदन के साथ, सरकार को संचित निधि से राशि का समान अनुपात निकालकर आकस्मिक निधि को फिर से भरना होगा।

राज्य की आकस्मिकता निधि

इसी तरह, एक राज्य की विधायिका भी उसी उद्देश्य के लिए अर्थात तत्काल या अप्रत्याशित परिस्थितियों में “राज्य की आकस्मिकता निधि” स्थापित कर सकती है।

निधि की प्रकृति: निधि अग्रदाय के रूप में है और राज्य विधानमंडल उस राशि के संबंध में कानून बना सकते हैं जिसे निधि में समय-समय पर जमा किया जाना है।

अनुमोदन: निधि राज्य के राज्यपाल (गवर्नर) के अधीन है और इसके लिए राज्य विधानमंडल से किसी पूर्व स्वीकृति या अनुमोदन की आवश्यकता नहीं है। हालांकि बाद में, भारत के संविधान के अनुच्छेद 205 या अनुच्छेद 206 के तहत राज्य के विधानमंडल द्वारा व्यय को अधिकृत करने की आवश्यकता है।

इसके अलावा, राज्य विधानमंडल की मंजूरी के साथ, राज्यपाल को संचित निधि से राशि का समान अनुपात निकालकर आकस्मिक निधि की भरपाई करनी होती है।

अनुच्छेद 268 – संघ द्वारा लगाए गए लेकिन राज्य द्वारा एकत्र और विनियोजित (एप्रोप्रिएट) किए गए शुल्क

व्याख्या

अनुच्छेद 268 संघ द्वारा लगाए गए लेकिन राज्यों द्वारा एकत्र और विनियोजित किए गए स्टांप शुल्क को संदर्भित करता है। इसमें भारत सरकार द्वारा लगाए गए बिल ऑफ एक्सचेंज, चेक और प्रॉमिसरी नोट्स पर स्टांप शुल्क शामिल हैं। 

इन करों को भारत की संचित निधि में शामिल नहीं किया गया है और उसी राज्य द्वारा विनियोजित (लेवी) किया गया है जिसमें यह लगाया गया था, इस प्रकार भारत की संचित निधि में योगदान नहीं करते हैं, जबकि केंद्र शासित प्रदेशों के मामले में निधि भारत सरकार को विनियोजित की जाएगी। 

इसके अलावा, अनुच्छेद के अनुसार, इन शुल्कों को लगाने और विनियोग करने के संबंध में सभी निर्णय देने का अधिकार केंद्र सरकार के पास हैं क्योंकि यह संघ सूची का एक हिस्सा है।

मुद्दे

भारतीय राज्य बार-बार इस बारे में अपनी चिंताओं को बताते रहे हैं कि केंद्र राज्य को अनुच्छेद 268 और अनुच्छेद 269 के तहत उल्लिखित कराधान संसाधनों (टैक्स रिसोर्सेस) का दोहन (एक्सप्लॉइट) करने की अनुमति नहीं दे रहा है। विशेष रूप से साख (क्रेडिट) पत्र, लदान (लेडिंग) के बिल और सामान्य बीमा की नीतियों (पॉलिसीज) के संबंध में, जिसके परिणामस्वरूप राज्यों के कर संसाधनों और उनके आगे के विकास को सीमित किया जाता है। 

सुझाव

विशेषज्ञों का सुझाव है कि अनुच्छेद 268 और 269 के तहत और अधिक संसाधन जुटाने की गुंजाइश की नए सिरे से जांच की जानी चाहिए। जैसा कि पिछली बार 1984 में आठवीं वित्तीय आयोग द्वारा समीक्षा (रिव्यू) की गई थी। इस प्रकार, वर्तमान आवश्यकता को पूरा करने के लिए दायरे को परिभाषित करना महत्वपूर्ण हो गया है। 

संशोधन

संविधान में 88वें संशोधन के साथ, इस अनुच्छेद में एक नया प्रावधान 268A डाला गया जिसने सेवा कर को अपने दायरे में ला दिया। लेकिन संविधान में 101वें संशोधन और जीएसटी की शुरुआत के साथ इसे फिर से बाहर कर दिया गया। इसके अलावा, इसने चिकित्सा और शौचालय की तैयारी पर उत्पाद (प्रोडक्शन) शुल्क को भी छोड़ दिया, जो पहले इस अनुच्छेद में शामिल थे लेकिन अब जीएसटी के तहत समामेलित (अमलगमेट) हो गए है।

सारांश (समरी)

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 268 के कुछ प्रमुख तत्व (एलीमेंट्स) निम्नलिखित हैं :

  1. यह एक निश्चित प्रकार के स्टाम्प शुल्क लगाता है।
  2. यह केंद्र द्वारा लगाया जाता है लेकिन राज्यों द्वारा एकत्र और विनियोजित किया जाता है। 
  3. यह संघ सूची का एक हिस्सा है और भारत की संचित निधि का हिस्सा नहीं है। 
  4. इस अनुच्छेद के तहत प्राप्त राजस्व का दायरा सीमित है जिसे 101वें संशोधन द्वारा और कम कर दिया गया है।

अनुच्छेद 269 संघ द्वारा लगाए और एकत्र किए गए लेकिन राज्यों को सौंपे गए कर

अनुच्छेद 269 का उपखंड (1)

अनुच्छेद 269(1) में “वस्तू की बिक्री या खरीद” और “वस्तू की खेप (कंसाइनमेंट) पर कर” पर सभी कर शामिल हैं, सिवाय इसके कि अनुच्छेद 269A में शामिल हैं। ये कर कानून द्वारा प्रदान किए गए राज्यों को सौंपे जाते हैं लेकिन भारत सरकार द्वारा एकत्र और लगाए जाते हैं।

व्याख्या 

  1. अभिव्यक्ति “वस्तू की बिक्री या खरीद पर कर” का अर्थ सभी प्रकार के व्यापार नहीं है, लेकिन अनिवार्य रूप से उन करों को संदर्भित करता है जो समाचार पत्रों को छोड़कर सभी प्रकार के सामानों की अंतर-राज्य बिक्री या खरीद पर लगाए जाते हैं।
  2. अभिव्यक्ति “वस्तू की खेप पर कर” अंतर-राज्य व्यापार के दौरान होने पर वस्तू की खेप पर लगाए गए कर शुल्क को संदर्भित करता है। इसमें दोनों मामले शामिल हैं, भले ही खेप इसे बनाने वाले व्यक्ति या किसी अन्य व्यक्ति को हो।

इसमें शामिल हो सकते हैं:

  1. उत्तराधिकार शुल्क (सक्सेशन ड्यूटी)
  2. केंद्रीय बिक्री कर 
  3. संपत्ति शुल्क आदि

अनुच्छेद 269 का उपखंड (2) 

अनुच्छेद 269(2) में कहा गया है कि इस तरह के कर से प्राप्त राजस्व राज्यों के बीच वितरित किया जाता है (केंद्र शासित प्रदेशों के मामले के अलावा जहां यह केंद्र सरकार को जाता है), यह भारत की संचित निधि का हिस्सा नहीं है। वितरण का तरीका संसद द्वारा निर्धारित किया जाता है।

अनुच्छेद 269 का उपखंड (3)

अनुच्छेद 269(3) आगे बताता है कि संसद के पास अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य के दौरान वस्तू की बिक्री, खरीद या वस्तू की खेप के दायरे को परिभाषित करने की शक्ति है।

अंतर-राज्यीय कर (आईजीएसट) किस राज्य में जाता है?

इसके अलावा अंतर-राज्यीय वाणिज्य और व्यापार में यानी एकत्र किया गया केंद्रीय कर उपभोक्ता (कंज्यूमर) राज्य को जाता है। इसे निम्न उदाहरण की सहायता से आसानी से समझा जा सकता है।

उदाहरण के लिए, यदि कोई जूट का थैला पश्चिम बंगाल में निर्मित होता है और फिर उसे उड़ीसा को निर्यात किया जाता है। चूंकि यहां शामिल सामान को एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाया जाता है। इस प्रकार, आइजीएसटी लागू किया जाएगा। हम यह भी जानते हैं कि आईजीएसटी में केंद्र और राज्य दोनों का अपना-अपना हिस्सा है। जैसा कि वर्तमान मामले में, पश्चिम बंगाल उत्पादक राज्य है और उड़ीसा उपभोग (कंजप्शन) करने वाला राज्य है, इस प्रकार आईजीएसटी का हिस्सा उड़ीसा को जाएगा।

सारांश 

सभी खंडो को समग्र रूप से पढ़ने के बाद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि:

  1. यह सभी अंतर-राज्यीय बिक्री, खरीद और वस्तू की खेप (अनुच्छेद 269A और समाचार पत्रों के तहत उल्लिखित सामान को छोड़कर) पर लगाया जाने वाला कर है।
  2. कर केंद्र सरकार द्वारा एकत्र किया और लगाया जाता है लेकिन राज्य सरकारों द्वारा विनियोजित किया जाता है।
  3. अंतर – राज्यीय व्यापार से एकत्र की गई राशि को उपभोक्ता राज्य को विनियोजित किया जाता है।
  4. अंतर – राज्यीय और वाणिज्य और शेयर के वितरण के संबंध में कानून बनाने की शक्ति केवल संसद के पास है। 
  5. इस अनुच्छेद के तहत एकत्र किया गया कर भारत की संचित निधि का हिस्सा नहीं है।

अनुच्छेद 269(A) – जीएसटी व्यवस्था में स्थिति 

नवीनतम 101वें संशोधन के साथ एक नया अनुच्छेद 269A जोड़ा गया जिससे कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।

अनुच्छेद 269A का उपखंड (1) 

अनुच्छेद 269A(1) में मूल रूप से निम्नलिखित पहलू शामिल हैं:

  1. वस्तू और सेवा कर (जीएसटी) लगाना और संग्रह करना।
  2. यह अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य के मामले में लागू होता है।
  3. एकत्रित कर राज्यों और संघ के बीच विनियोजित किया जाएगा। 
  4. संसद को वस्तू और सेवा कर (जीएसटी) परिषद की सिफारिशों के अनुसार इस अनुच्छेद के तहत एकत्र किए गए करों के बंटवारे के संबंध में कानून बनाने की शक्ति है।

संसद ने एकीकृत वस्तू और सेवा कर अधिनियम, 2017 की धारा 17 में संविधान के अनुच्छेद 269A(1) में प्रदान की गई अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए यह प्रदान किया है कि आइजीएसटी अधिनियम के तहत संघ द्वारा एकत्रित एकीकृत कर को किस प्रकार से संघ और राज्यों के बीच विभाजित और एकत्र किया जा सकता है। 

वस्तू का आयात आपूर्ति पर कर है

अनुच्छेद 269A(1) के बाद एक स्पष्टीकरण दिया गया है कि भारत के संदर्भ में, अंतर-राज्यीय व्यापार के दौरान वस्तुओं और सेवाओं के सभी आयातों को वस्तू और सेवाओं की आपूर्ति के हिस्से के रूप में माना जाएगा।

जीएसटी के बाद की स्थिति

यह केंद्र सरकार को 101वें संशोधन के बाद आयात लेनदेन पर सीवीडी (काउंटरवेलिंग ड्यूटी) के बजाय आईजीएसटी लगाने के लिए अधिकृत करता है।

जीएसटी से पहले की स्थिति 

जीएसटी लागू होने से पहले, अंतरराज्यीय व्यापार या वाणिज्य के मामले में आईजीएसटी के बजाय सीवीडी लागू किया गया था। इस कर का एक विशिष्ट रूप है कि घरेलू उत्पादकों के संरक्षण के लिए भारत सरकार द्वारा लगाया गया था और आयात सब्सिडी के प्रतिकूल प्रभाव (एडवर्स इंपैक्ट) को कम करने के लिए था।

एकत्रित राशि संचित निधि का हिस्सा नहीं बनेगी

अनुच्छेद 269A(2) आगे प्रावधान करता है कि खंड (1) के तहत अपेक्षित प्रक्रिया द्वारा राज्य को विनियोजित राशि भारत की संचित निधि का हिस्सा नहीं बनेगी और सीधे राज्यों को दी जाएगी।

अनुच्छेद 269(A) का उपखंड (5) – संसद अंतर – राज्यीय व्यापार और वाणिज्य पर कानून बनाएगी

अनुच्छेद 269A(5) संसद को कुछ क्षेत्र को निर्धारित करने या आपूर्ति की जगह तय करने के लिए प्रदान करता है, जब वस्तू या सेवाओं की आपूर्ति अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य का गठन करेगी।

केस लॉ

अंतर-राज्यीय व्यापार पर सर्वोच्च न्यायालय 

आंध्र प्रदेश राज्य बनाम नेशनल थर्मल कॉर्पोरेशन लिमिटेड, 2002 के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने सुनाया कि केन्द्रीय बिक्री कर अधिनियम, 1956 धारा 3 और धारा 6 के दायरे में, कुछ अन्य राज्य के लिए वस्तू की आवाजाही (मुवमेंट), के बाद राज्य के भीतर लेनदेन का पूरा होना अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य के बराबर नहीं होगा। 

इसलिए, अदालत ने इस मामले में एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न का निपटारा किया; जिसने अंतर-राज्यीय व्यापार का गठन करने के दायरे को परिभाषित किया जिसे निम्नानुसार समझाया गया है:

  1. जब अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) की शर्तों में वस्तू की अंतर-राज्यीय आवाजाही के संबंध में स्पष्ट रूप से या निहित (इंप्लाइ) रूप से शर्त निर्धारित की जाती है;
  2. इसके अलावा केवल इस तरह के शब्द का अस्तित्व ही पर्याप्त नहीं होगा बल्कि इस तरह के अनुबंध के अनुसार एक राज्य से दूसरे राज्य में वस्तू की कुछ वास्तविक आवाजाही होनी चाहिए;
  3. वस्तू को एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाना चाहिए और बिक्री का अनुबंध दूसरे राज्य में ही समाप्त होना चाहिए।

अंतर-राज्यीय व्यापार पर कानून बनाने का एकमात्र अधिकार संसद के पास है

गुडइयर इंडिया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य, 1989 के मामले में, अदालत के समक्ष प्रश्न वस्तू की खेप से संबंधित दो बिक्री कर अधिनियमों की वैधता पर निर्णय लेने का था। अदालत ने निर्धारित किया कि बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1959 की धारा 13AA और हरियाणा सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1973 की धारा 9(1)(B) में वस्तू पर कर के संबंध में नियम निर्धारित करना संबंधित राज्य विधानसभाओं की शक्ति के दायरे से बाहर था। चूंकि अंतर-राज्यीय व्यापार पर कर लगाने की शक्ति केवल संसद के पास है, इसलिए उपरोक्त धाराओं को कानून की नजर में अवैध माना गया।

अनुच्छेद 270- संघ और राज्यों के बीच लगाए और वितरित किए गए कर

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 270 मूल रूप से इस विषय से संबंधित है कि केंद्र और राज्यों के बीच कर कैसे लगाए और वितरित किए जाते हैं।

अनुच्छेद 270 का खंड (1)

यह कुछ करों अर्थात अनुच्छेद 268, 269 और 269A के तहत उल्लिखित सभी करों और अनुच्छेद 271 में उल्लिखित करों और यह प्रावधान हर दूसरे कर के लिए सही है और शुल्कों पर किसी भी अधिभार (सर्चार्ज) या किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए लगाए गए किसी भी उपकर (सेस) के अलावा सभी करों के लिए विनियोग (एप्रोप्रिएशन) की प्रक्रिया को निर्धारित करता है। 

  1. ये कर संघ द्वारा लगाए और एकत्र किए जाते हैं।
  2. कर राज्यों और केंद्र सरकार के बीच वितरित किया जाएगा।
  3. इसमें कर शामिल हो सकते हैं जैसे:
  • गैर-जीएसटी उत्पादों पर उत्पाद शुल्क 
  • आय कर 
  • मूल सीमा शुल्क आदि।

4. इस वितरण का तरीका अनुच्छेद 270(2) के तहत प्रदान किया गया है।

लेकिन अनुच्छेद 270(2) के तहत दिए गए वितरण के तरीके को समझने के लिए आगे बढ़ने से पहले, आइए पहले यह अध्ययन करें कि इस अनुच्छेद में लाए गए 101वें संशोधन में क्या बदलाव हुए और इसके क्या निहितार्थ हैं।

जीएसटी के बाद की स्थिति

101वें संशोधन में इस अनुच्छेद के तहत दो नए उपखंड अनुच्छेद 270(1A) और अनुच्छेद 270(1B) शामिल किए गए। यह मूल रूप से बताता है कि जीएसटी की शुरुआत के बाद केंद्र और राज्य के बीच वितरित किए जाने वाले कर के दायरे को कैसे संशोधित किया गया है।

उपखंड 270(1A)

इस उपखंड के अनुसार, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246A के खंड (1) के तहत केंद्र सरकार द्वारा एकत्रित कर को भी केंद्र और राज्य के बीच अनुच्छेद 270 (2) के तहत प्रदान की गई विधि के अनुसार वितरित किया जाएगा।

246A(1): सरल शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246A का खंड (1) संसद और राज्य विधानमंडल दोनों को राज्य के भीतर व्यापार होने पर वस्तू और सेवा कर के संबंध में कानून बनाने का अधिकार देता है यानी अंतर- राज्यीय। 

इसलिए, इस उप-खंड को जब अनुच्छेद 270(1A) के साथ पढ़ा जाता है, तो इसका तात्पर्य है कि अनुच्छेद 246A(1) के तहत एकत्र किए गए करों को भी राज्यों और संघ के बीच वितरित किया जाएगा।

उप-खंड 270(1B) 

उप-खंड 270(1B) के अनुसार, केंद्र सरकार द्वारा एकत्र किए गए निम्नलिखित करों को भी केंद्र और राज्यों के बीच वितरित किया जाएगा।

  1. आइजीएसटी में केंद्र सरकार को दी जाने वाली राशि को भी राज्यों यानी आईजीएसटी में केंद्रीय हिस्से में वितरित किया जाएगा। यह केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 269 के खंड (1) के तहत एकत्र किया गया कर है।
  2. आईजीएसटी के तहत एकत्रित कर जिसका उपयोग सीजीएसटी के भुगतान के लिए किया गया है।

अनुच्छेद 270 का खंड (2)

यह खंड बताता है कि सरकार द्वारा प्राप्त केंद्रीय कर, जैसा कि खंड (1) में वर्णित है, राज्यों के बीच खंड (3) के तहत प्रदान किए गए समय और तरीके के अनुसार वितरित किया जाएगा और ऐसा हिस्सा भारत राज्य की संचित निधि का हिस्सा नहीं होगा। 

अनुच्छेद 270 का खंड (3) 

अनुच्छेद 270(3) के अनुसार, एक केंद्रीय पूल में गठित सभी केंद्रीय करों को वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार भारत के राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित तरीके से वितरित किया जाएगा। 2015-2020 की परिचालन (ऑपरेशनल) अवधि के लिए, केंद्रीय कर राजस्व की शुद्ध आय में राज्यों की हिस्सेदारी 42% थी।

केंद्र प्रशासित केंद्र शासित प्रदेश

टी. एम.  कन्नियान बनाम आयकर अधिकारी, पांडिचेरी, 1967 के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि अनुच्छेद 270 के अनुसार यह अनुच्छेद संचित निधि का एक भाग बनाता है। इसके अलावा, अदालत ने कहा कि केंद्र शासित प्रदेशों को आयकर वितरित करना आवश्यक नहीं है, जो कि राष्ट्रपति द्वारा केंद्रीय रूप से प्रशासित होते हैं। 

अदालत ने यह भी निर्धारित किया कि अनुच्छेद 270 के पीछे का उद्देश्य केंद्र और राज्य के बीच वित्तीय संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करना है। 

अनुच्छेद 271 – संघ के उदेश्यो के लिए कुछ शुल्कों और करों पर अधिभार (सर्चार्ज)

अनुच्छेद 271 में निम्नलिखित प्रमुख तत्व हैं:

  1. अनुच्छेद 246A के तहत उल्लिखित जीएसटी के मामले को छोड़कर संसद के पास अधिभार लगाकर कभी भी कोई शुल्क या कर बढ़ाने की शक्ति है।
  2. अधिभार से प्राप्त सभी आय भारत की संचित निधि का हिस्सा होगी।
  3. कर में इस तरह की वृद्धि से सभी राशि संसद द्वारा बरकरार रखी जाएगी और इसे राज्यों के बीच साझा नहीं किया जाएगा।
  4. अनुच्छेद का आधार भारत सरकार अधिनियम, 1935 की धारा 137 और धारा 136(1) है।
  5. इसके अलावा, किसी भी प्राधिकरण को संसद को अधिभार लगाने से रोकने की शक्ति नहीं है।

वेद व्यास चावला बनाम आयकर अधिकारी 1964 के मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने, एक रिट याचिका पर निर्णय लेते समय जब अनुच्छेद में एक अतिरिक्त अधिभार लगाने के प्रावधान का उल्लंघन किए जाने पर सवाल उठाया, उसे अदालत ने इस प्रकार से देखा:

  1. अदालत ने माना कि अनुच्छेद में प्रयुक्त शब्द “किसी भी समय” बहुत महत्वपूर्ण है। यह सरकार को समय-समय पर अधिभार लगाने का अधिकार देता है। यही है कि अगर संसद ने एक आकार में अधिभार लगाया था तो वह बदलती जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिभार को संशोधित करने या दूसरे रूप में अधिभार लगाने से नहीं रोकता है।
  2. संसद केवल एक विशेष वर्ग पर ही अधिभार लगा सकती है न कि आम जनता पर। लेकिन यह आवश्यक है कि विशेष वर्ग में अन्य लोगों से कुछ वास्तविक और पर्याप्त अंतर होना चाहिए। इसके अलावा, यह भी आवश्यक है कि अतिरिक्त अधिभार लगाने के कार्य का उन उद्देश्यों के साथ उचित संबंध होना चाहिए जिन्हें वह प्राप्त करना चाहता था। 

अनुच्छेद 273 – जूट और जूट उत्पादों पर निर्यात शुल्क के बदले अनुदान

अनुच्छेद 273 के अनुसार, स्वतंत्रता से पहले भारत सरकार ने जूट निर्यात शुल्क की शुद्ध आय को जूट उगाने वाले प्रांतों (प्रोविंस) के साथ साझा करने के संबंध में प्रावधान प्रदान किया था। लेकिन संविधान के तहत, राज्य इस तरह के शुल्क का कोई भी हिस्सा प्राप्त करने का हकदार नहीं हैं।

प्रावधान निर्दिष्ट करता है कि संविधान के प्रारंभ से 10 वर्षों की अवधि के लिए, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम के जूट उत्पादक राज्यों को जूट निर्यात शुल्क के हिस्से से संघ से सहायता अनुदान प्राप्त होगा। लेकिन चूंकि यह प्रावधान संविधान के लागू होने के 10 साल बाद तक ही लागू था, इसलिए अब इस अनुच्छेद की कोई प्रासंगिकता (रिलेवेंट) नहीं है।

अनुच्छेद 274- राज्यों के हित वाले कराधान को प्रभावित करने वाले विधेयकों (बिल) के लिए राष्ट्रपति की पूर्व सिफारिश आवश्यक है

इस अनुच्छेद के अनुसार, निम्नलिखित सूचीबद्ध विषयों पर कोई भी विधेयक या संशोधन राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी से पहले संसद के किसी भी सदन में पेश नहीं किया जा सकता है जिसमें विधेयक/संशोधन शामिल हैं:

  1. किसी भी कर का अधिरोपण (इंपोजिशन) या परिवर्तन जिसमें राज्यों की रुचि है; या
  2. यह भारतीय आयकर अधिनियम में निर्धारित “कृषि आय” अभिव्यक्ति के अर्थ को संशोधित या परिवर्तित करता है; या
  3. यह किसी भी सिद्धांत को निर्धारित, संशोधित करता है जिसके द्वारा राज्यों को धन वितरित किया जाता है; या
  4. यह संघ के उद्देश्य के लिए राज्य करों पर अधिभार लगाता है।

अनुच्छेद 274 के तहत खंड (2) “कर या शुल्क जिसमें राज्य रुचि रखते हैं” शब्द की परिभाषा प्रदान करता है जो दो भागों में विभाजित हो सकता है:

  1. कोई भी कर या शुल्क जिसका संपूर्ण या कुछ हिस्सा किसी राज्य को सौंपा गया है; या
  2. किसी भी कर या शुल्क की शुद्ध आय जो वास्तव में भारत की संचित निधि का हिस्सा है लेकिन कुछ समय के लिए राज्यों को सौंपी गई है।

संघ से कुछ राज्यों को अनुदान

केंद्र और राज्यों के बीच करों के वितरण के अलावा, संविधान में कुछ अनुच्छेद हैं जो सहायता अनुदान (ग्रांट इन ऐड़) की गुंजाइश प्रदान करते हैं।

अनुच्छेद 275 और अनुच्छेद 282 के तहत, संसद भारत की संचित निधि से ऐसे राज्यों को सहायता अनुदान दे सकती है, जिन्हे सहायता की जरूरत है, विशेष रूप से असम को विशेष अनुदान सहित आदिवासी क्षेत्रों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए सहायता की आवश्यकता है। 

अनुदान के प्रकार

अनिवार्य रूप से दो प्रमुख प्रकार के अनुदान हैं जो वैधानिक (स्टेच्यूटरी) अनुदान और विवेकाधीन (डिस्क्रिशनरी) अनुदान हैं।

  1. भारत के संविधान के अनुच्छेद 275 के तहत वैधानिक अनुदान प्रदान किया जाता है। 
  2. जबकि भारत के संविधान के अनुच्छेद 282 के तहत विवेकाधीन अनुदान प्रदान किया जाता है। 

अनुच्छेद 275 – वैधानिक अनुदान

ये अनुदान संसद द्वारा उन विशिष्ट राज्यों को दिया जाता है जिन्हें सहायता की आवश्यकता होती है।

  1. इसके तहत अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग अनुदान राशि तय की जाती है।
  2. यह राशि भारत की संचित निधि से दी जाती है।
  3. खंड (1) के दो प्रावधान हैं जो भारत सरकार द्वारा अनुसूचित (शेड्यूल) क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों (ट्राइब्स) के कल्याण के लिए अनुमोदित किसी भी विकासात्मक योजना के लिए राज्यों को सहायता प्रदान करने से संबंधित हैं, जिसमें असम पर विशेष ध्यान दिया गया है।

अनुच्छेद 275 के खंड (2) के अनुसार, खंड (1) के तहत प्रदान की गई सहायता अनुदान के संबंध में संसद द्वारा किए गए किसी भी आदेश के लिए वित्त आयोग (फाइनेंस कमिशन) की पूर्व सिफारिश की आवश्यकता होगी।

इसके अलावा, यह भी निर्धारित करता है कि वित्त आयोग के पास उन सिफारिशों के अलावा अन्य सिफारिशें देने की शक्ति है जो खंड (1) के परंतुक (प्रोविजो) में उल्लिखित हैं।

अनुच्छेद 282- विवेकाधीन अनुदान 

अनुच्छेद 282 के अनुसार, केंद्र अपने विवेक से कुछ राज्यों को सार्वजनिक उद्देश्य के लिए सहायता प्रदान कर सकता है। ये अनुदान प्रकृति में अनिवार्य (कंपल्सरी) नहीं हैं। केंद्र इन अनुदानों को योजना आयोग (प्लैनिंग कमीशन) की सिफारिशों पर देता था। इसके अलावा, योजना आयोग के युग के दौरान, विवेकाधीन अनुदान के तहत राशि वैधानिक अनुदान से भी बड़ी थी।

अनुच्छेद 276- व्यवसायों, व्यापार, कॉलिंग और रोजगारों पर कर

अनुच्छेद 276 एक राज्य या अन्य स्थानीय प्राधिकरण (अदर लोकल अथॉरिटी) को व्यवसायों पर कर लगाने का अधिकार देता है। लेकिन ऐसे किसी भी कर के तहत देय कुल राशि प्रति वर्ष 2,500 रुपये से अधिक नहीं होगी। पहले यह सीमा केवल 500 रुपये तक थी और 1988 में सरकारिया समिति की सिफारिशों के बाद इसे बढ़ा दिया गया था।

अनुमेय सीमा (परमिसिबल लिमिट) से अधिक होने पर लगाया जाने वाला कर

कमिशनर, क्विलोन बनाम एम/एस हैरिंसन और क्रोसफील्ड लिमिटेड 1964, के मामले में, केरल सरकार ने केरल व्यवसाय कर, 1958 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अल्ट्रा वायरस बताया गया था। चूंकि केरल विधायिका अनुमेय सीमा से अधिक कर लगाने में अक्षम थी। इस प्रकार, अनुच्छेद 276 का उल्लंघन करना तदनुसार असंवैधानिक (अनकंस्टीट्यूशनल) माना गया। 

संघ सूची के साथ अतिव्यापी (ओवरलैपिंग) स्थिति 

बी. एम. लखानी बनाम नगर समिति, 1970 के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दो महत्वपूर्ण प्रकार कि टिप्पणिया की गई थी: 

  1. अनुच्छेद 276 के तहत निर्धारित राशि से अधिक भुगतान किए गए धन की वापसी का मुकदमा कानून में चलने योग्य है।
  2. यद्यपि लगाए जाने वाले कर की राशि पर एक सीमा है लेकिन राज्य या स्थानीय निकायों (लोकल बॉडीज) द्वारा इस शक्ति के प्रयोग पर ऐसी कोई रोक मौजूद नहीं है। इस तथ्य के बावजूद कि आय कर का विषय संघ सूची में उल्लिखित है। लेकिन संविधान का अनुच्छेद 276 इस तरह के अतिव्यापीकरण की अनुमति देता है।

अनुच्छेद 277– पूर्व-संवैधानिक (प्री-कंस्टीट्यूशनल) कानूनों का संरक्षण

अनुच्छेद 277 के अनुसार, यदि कोई कर, शुल्क, उपकर या शुल्क जो किसी भी राज्य, नगरपालिका या स्थानीय निकायों की सरकार द्वारा संविधान के लागू होने से पहले कानूनी रूप से लगाया जाता था, तो वह संविधान लागू होने के बाद भी जारी रहेगा। यह इस तथ्य से प्रभावित नहीं होगा कि वही विषय अब संघ सूची का हिस्सा है। हालांकि, इसे तब तक जारी रखा जाएगा जब तक कि संसद इसके विपरीत कोई कानून नहीं बनाती।

उद्देश्य: प्रसिद्ध भारतीय विधिवेत्ता (ज्यूरिस्ट), दुर्गा दास बसु के शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि इस अनुच्छेद का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रारंभ के कुछ कानून में संघर्ष की संभावना को कम करने के लिए इस तरह के संवैधानिक परिवर्तन नहीं किए जाते है, और इसके कारण स्थानीय सरकार और अधिकारियों के करों या वित्त में कोई अव्यवस्था या गड़बड़ी नहीं होगी। 

दायरा: इस अनुच्छेद का दायरा बहुत सीमित है और उन मामलों में लागू नहीं किया जा सकता है जहां संविधान के तहत राज्य और संघ के बीच कराधान शक्तियों के वितरण में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

यहां ध्यान देने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि अनुच्छेद 277 करों, शुल्कों, उपकरों तक सीमित पूर्व-संवैधानिक कानूनों की वैधता से संबंधित एक विशिष्ट प्रावधान है। जबकि संविधान का अनुच्छेद 372 सामान्य रूप से सभी पूर्व-संवैधानिक वैध कानूनों के लिए है।

पूर्व-संविधान करों, शुल्कों में कोई परिवर्तन या वृद्धि नहीं 

द टाउन म्युनिसिपल कमेटी बनाम रामचंद्र वासुदेव चिमोटे, 1964 के मामले में, अमरावती की नगर पालिका संविधान से पहले पारित एक विशेष कानून के तहत सोने और चांदी के मामले को छोड़कर, वस्तू पर एक टर्मिनल कर लगाती थी।

हालांकि, भारत के संविधान के लागू होने के बाद, यह शक्ति संसद को सूची 1 की प्रविष्टि 89 के तहत दी गई थी। लेकिन ऐसा हुआ कि नगर पालिका ने संविधान के लागू होने के बाद एक संशोधन अधिसूचना जारी की और इसके दायरे में सोना और चांदी भी टर्मिनल कर शामिल है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नगरपालिका की कार्रवाई अनुच्छेद 277 का उल्लंघन है क्योंकि नगरपालिका पूर्व-संवैधानिक करों की घटनाओं को बढ़ाने या बदलने में अक्षम थी। इस प्रकार, नगर पालिका की कार्रवाई को अदालत ने अवैध ठहराया था।

संसद द्वारा विपरीत कानून बनाने के बाद पूर्व-संवैधानिक कर या शुल्क

हैदराबाद रसायन और औषधि वर्क्स लिमिटेड बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 1964 के मामले में, अपीलकर्ता एक दवा कंपनी है, जहां शराब का उपयोग करके दवाएं निर्मित की जाती थी। हैदराबाद अकबरी अधिनियम के तहत निर्धारित नियमों के अनुसार कंपनी को राज्य सरकार को कुछ शुल्क का भुगतान करना था। 

इसके बाद, संसद ने औषधीय और शौचालय तैयारी अधिनियम, 1955 पारित किया जिसने उन्हें इस तरह के शुल्क का भुगतान करने से छूट दी। इस प्रकार अपीलकर्ता ने शुल्क लगाने को चुनौती दी और तर्क दिया कि अनुच्छेद 277 के अनुसार और सूची 1 की प्रविष्टि 84 के आधार पर ऐसा कोई कर नहीं लगाया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद द्वारा कानून पारित होने के बाद हैदराबाद अधिनियम को निरस्त (रिपिल) माना जाना चाहिए। इसके अलावा फैसले में अदालत ने कर और शुल्क की परिभाषा के बीच भी अंतर किया।

कर बिना किसी विशिष्ट संदर्भ या उद्देश्य के सार्वजनिक उद्देश्य के लिए सरकार द्वारा लगाया जाने वाला एक योग है, जिसके तहत प्राप्त धन का उपयोग राज्य द्वारा कुछ प्रकार की सेवाओं के लिए किया जाएगा। जबकि शुल्क व्यक्ति के लाभ के लिए की गई विशिष्ट सेवाओं के संबंध में राज्य द्वारा लगाई गई राशि है, सरल शब्दों में, यह समझा जा सकता है कि शुल्क कुछ विशेष लाभों के लिए किया गया भुगतान है जबकि कर का भुगतान सरकार द्वारा सभी करदाताओं पर एक सामान्य लाभ के लिए किया जाता है। 

अनुच्छेद 279- शुद्ध आय की गणना (कैलकुलेशन ऑफ़ नेट प्रोसीड्स)

अनुच्छेद 279 मूल रूप से एक कर की शुद्ध आय को परिभाषित करता है। इस अनुच्छेद के खंड (1) के अनुसार, संग्रह की लागत को छोड़कर करों से होने वाली सभी कमाई भारत की शुद्ध आय होगी। 

इसके अलावा, यह प्रावधान करता है कि किसी कर या शुल्क की शुद्ध आय, संपूर्ण या आंशिक (पार्शियल) या किसी भी क्षेत्र में, भारत के नियंत्रक (कंप्ट्रोलर) और महालेखा परीक्षक (ऑडिटर जनरल) द्वारा प्रमाणित की जाएगी और सीएजी का निर्णय अनुच्छेद के खंड (2) के तहत उल्लिखित शर्तों के अधीन अंतिम होगा। 

अनुच्छेद 279A- जीएसटी परिषद

अनुच्छेद 279A भारत के राष्ट्रपति को 101वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2016 के लागू होने के 60 दिनों के भीतर वस्तू और सेवा कर परिषद (जीएसटी परिषद) नामक एक परिषद का गठन करने का अधिकार देता है। 

उद्देश्य

यह किसी भी संघर्ष या भ्रम से बचने और वस्तुओं और सेवाओं के लिए एक सामंजस्यपूर्ण (हार्मोनाईज) राष्ट्रीय बाजार के विकास के लिए जीएसटी की एक समान प्रणाली सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।

जीएसटी परिषद की संरचना

परिषद के सदस्य इस प्रकार होंगे:

  1. भारत के केंद्रीय वित्त मंत्री इस परिषद के अध्यक्ष के रूप में कार्य करेंगे।
  2. संबंधित राज्य, राज्य के वित्त मंत्रियों/या किसी अन्य मंत्री को परिषद के सदस्य के रूप में नामित करेंगे।
  3. केंद्रीय राजस्व या वित्त राज्य मंत्री भी इस परिषद के सदस्य होंगे।
  4. राज्यों के प्रतिनिधि आपस में एक “उपराष्ट्रपति” चुनेंगे।

कोरम और शक्तियां

परिषद की बैठक होगी जिसमें उसके आधे सदस्यो मे से कोरम का गठन होगा, जिसे निम्नलिखित सूचीबद्ध मामलों पर निर्णय लेने की शक्ति होगी:

  1. थ्रेसहोल्ड छूट सीमा जैसे की; किस टर्नओवर से कम पर वस्तुओं और सेवाओं को जीएसटी से छूट दी जाएगी।
  2. जीएसटी की दर, और अरुणाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, असम, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड राज्यों के संबंध में विशेष प्रावधान, जो विशेष श्रेणी के राज्यों के रूप में वर्गीकृत है।
  3. जीएसटी के मॉडल पर कानून, अंतरराज्यीय आपूर्ति लेनदेन के निर्धारण के लिए नियम और आपूर्ति की जगह का निर्धारण या कोई अन्य मामला।

इसके अलावा, जीएसटी परिषद को केंद्र और राज्यों के बीच या किसी भी राज्य के बीच किसी भी विवाद को सुलझाने के लिए एक तंत्र स्थापित करने का भी अधिकार है।

निर्णय लेने की प्रक्रिया

निर्णय कम से कम तीन-चौथाई बहुमत (मेजोरिटी) से लिया जाएगा जिसमें से: 

  1. केंद्र सरकार के वोट का एक तिहाई वेटेज होगा।
  2. सभी राज्य सरकारों के वोटों को दो-तिहाई वेटेज दिया जाएगा।

अनुसमर्थन (रेटीफिकेशन) की प्रक्रिया

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन करके अनुच्छेद 279A को इसके दायरे में शामिल किया गया है। इसका मूल रूप से तात्पर्य यह है कि अनुच्छेद 279A में कोई संशोधन लाने के लिए, दोनों सदनों की दो-तिहाई और राज्य विधानसभाओं की आधी बहुमत से अनुसमर्थन की आवश्यकता होगी।

अनुच्छेद 280-वित्त आयोग 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 280 एक बहुत ही महत्वपूर्ण अनुच्छेद है क्योंकि यह भारत के वित्त आयोग से संबंधित है। यह वित्त आयोग की संरचना, शक्ति और कार्यों को निर्धारित करता है। वित्त समिति का विचार ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रमंडल आयोग से लिया गया है। 

अनुच्छेद 280 के अनुसार, राष्ट्रपति को प्रत्येक पांच वर्ष की अवधि के बाद एक वित्त आयोग का गठन करने की शक्ति प्राप्त है। वित्त आयोग केंद्र और राज्यों के बीच विभाजित किए जाने वाले करों की शुद्ध आय के वितरण के संबंध में राष्ट्रपति को सिफारिशें देकर उनकी सहायता करेगा।

उद्देश्य

वित्त आयोग की स्थापना का उद्देश्य केंद्र और राज्य के बीच धन का समान वितरण सुनिश्चित करना है ताकि न तो राज्यों की स्वायत्तता (ऑटोनोमी) में कोई हानि हो और न ही केंद्र के राजस्व संसाधनों को सीमित किया जा सके।

वित्त आयोग का गठन

वित्त आयोग की संरचना का उल्लेख वित्त आयोग अधिनियम, 1951 के तहत किया गया है, जिसे अनुच्छेद 280 के प्रावधानों के साथ पढ़ने पर यह कहा गया है कि आयोग में मूल रूप से पांच सदस्य होते हैं, जिनमें से एक अध्यक्ष होगा, जिसे भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा। अध्यक्ष के चयन का मानदंड (क्राइटेरिया) यह है कि उसे सार्वजनिक मामलों की विशेष समझ होनी चाहिए जबकि सदस्यों के पास निम्नलिखित योग्यताएं होनी चाहिए: 

  1. वह या तो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश हो सकता है या नियुक्त होने के लिए पर्याप्त योग्यता प्राप्त कर सकता है।
  2. उसे सरकार के वित्त और खातों का गहरा ज्ञान होना चाहिए।
  3. उसे वित्तीय मामलों और प्रशासन के क्षेत्र में अनुभव होना चाहिए; या
  4. उसे अर्थशास्त्र की विशेष समझ होनी चाहिए।

वित्त आयोग के कार्य

वित्त आयोग के निम्नलिखित कार्य हैं जिनमें राष्ट्रपति को सिफारिश करना शामिल है:

  1. संघ और राज्यों के बीच शुद्ध आय का वितरण और विभिन्न राज्यों के बीच इस तरह की आय का आवंटन (अलॉटमेंट)।
  2. भारत की संचित निधि से राज्यों के राजस्व के सहायता अनुदान के संबंध में दिशा-निर्देश (गाइडलाइंस) निर्धारित करना।
  3. राज्य में पंचायतों और नगर पालिकाओं के संसाधनों के पूरक (सप्लीमेंट) के लिए राज्य की संचित निधि में वृद्धि पर सुझाव।
  4. सुदृढ़ वित्त (साउंड फाइनेंस) के हित में कोई अन्य मामला।

वित्त आयोग की शक्तियां

वित्त आयोग के पास एक दीवानी (सिविल) अदालत की सभी शक्तियाँ हैं जो उसे गवाहों को बुलाने की शक्ति प्रदान करती हैं, किसी भी व्यक्ति को कोई भी जानकारी प्रस्तुत करने को केहे सकती है, दस्तावेजों का उत्पादन या कोई भी बिंदु जिसे आयोग प्रासंगिक (रिलेवेंट) या उपयोगी मानता है।

वित्त आयोग का महत्व 

  1. वित्त आयोग ने भारत के वित्तीय संघीय ढांचे को मजबूत करने और सुधारने में एक अनिवार्य भूमिका निभाई है। हर पांच साल के बाद एक नए वित्त आयोग की स्थापना के साथ, और हर बार सिफारिशों को व्यापक बनाया गया है।
  2. इसके अलावा, केंद्र सरकार ने भी उदार रवैया (लिबरल एटिट्यूड) अपनाया है और वित्त आयोग की सिफारिशों के प्रति ग्रहणशील है और उन्हें बड़े पैमाने पर स्वीकार किया है।
  3. आयोग ने पहले ही उल्लिखित विषयों पर सिफारिशें देने के साथ-साथ विभिन्न अन्य वित्तीय मुद्दों जैसे कि सार्वजनिक उपक्रमों (अंडरटेकिंग) की रिटर्न, राज्यों के कर्ज के बोझ के बारे में भी सुझाव दिया है और अपने विचार दिए हैं।
  4. इसने केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय मुद्दों से संबंधित कई जटिल वित्तीय मुद्दों को भी समय-समय पर सुलझाया है। इस प्रकार कुल मिलाकर वित्त आयोग बदलते समय के अनुसार केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों में गतिशील और प्रगतिशील परिवर्तन लाने में सफल रहा है।

हालांकि, राज्यों की ओर से अभी भी मांग की गई है कि अंतर-क्षेत्रीय वित्तीय असमानताओं को कम करने के लिए अमीर राज्यों की तुलना में गरीब राज्यों को अधिक संसाधन आवंटित किए जाने चाहिए।  

अनुच्छेद 281-वित्त आयोग की सिफारिशें

अनुच्छेद 281 इस प्रक्रिया को परिभाषित करता है कि संसद में वित्त समिति की सिफारिशों को कैसे पेश किया जाएगा। इस अनुच्छेद के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति इस संविधान के प्रावधानों के तहत वित्त आयोग द्वारा की गई सभी सिफारिशों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष एक व्याख्यात्मक ज्ञापन (एक्सप्लेनेटरी मेमोरेंडम) के साथ प्रस्तुत करेंगे।

केंद्र और राज्य की उधार लेने की शक्तियां

संविधान के अनुच्छेद 292 और अनुच्छेद 298 केंद्र और राज्यों दोनों को उधार लेने की शक्ति प्रदान करते हैं। हालांकि, राज्य और केंद्र की शक्तियों के दायरे के बीच एक बड़ी असमानता है। संविधान में उधार लेने की शक्तियाँ भारत सरकार अधिनियम 1919 और भारत सरकार अधिनियम, 1935 में परिभाषित समान हैं।

केंद्र सरकार की उधार लेने की शक्ति

उधार लेने के मामले में केंद्र सरकार के पास लगभग असीमित शक्तियां हैं। कानून केंद्र पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों तरह के उधार के संबंध में कोई प्रतिबंध नहीं लगाता है। यह केवल कुछ प्रतिबंधों के अधीन है जिन्हें संसद द्वारा कानून द्वारा तय किया जाना है (अनुच्छेद 292)।

राज्य सरकार की उधार लेने की शक्ति

भारत में, राज्य सरकार को उधार लेने की शक्ति केंद्र सरकार की तुलना में बहुत कम है। चूंकि राज्य की उधार लेने की शक्तियों पर विभिन्न प्रकार की क्षेत्रीय (टेरीटोरियल) और अन्य सीमाएं हैं।

भारतीय राज्यों को भारत के बाहर ऋण जुटाने की अनुमति नहीं है और केवल भारत सरकार से या सार्वजनिक ऋण के माध्यम से ऋण जुटाने का विकल्प है। लेकिन अनिवार्य रूप से, राज्य के लिए सार्वजनिक ऋण जुटाना एक बहुत ही कठिन और लंबी प्रक्रिया है, क्योंकि इसके लिए अनिवार्य रूप से भारत सरकार की पूर्व सहमति की आवश्यकता होती है, तब संघ द्वारा राज्य को दिए गए ऋण का एक हिस्सा जारी नहीं किया जा सकता है जब सरकार या इसके संबंध में कोई गारंटी अभी भी बकाया (आउटस्टैंडिंग) है। 

इससे राज्यों के पास कोई स्वतंत्र उधार लेने की शक्ति नहीं है। यह राज्यों को कई शर्तों का पालन करने के लिए मजबूर करता है जिसके परिणामस्वरूप जनता, वित्तीय संस्थानों या केंद्र से ही ऋण प्राप्त करने के लिए केंद्र सरकार की अनुमति पर अत्यधिक निर्भरता होती है।

इसलिए उधार लेने की शक्ति में यह असमान वितरण अभी भी एक मुद्दा और एक प्रमुख चिंता है जिसे राज्यों और केंद्र के बीच वित्तीय संबंधों की बदलती गतिशीलता को ध्यान में रखते हुए संबोधित करने की आवश्यकता है। 

इसके अलावा, केंद्र को भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से उधार लेकर घाटे को चलाने की भी अनुमति है। जबकि राज्यों के मामले में उन्हें आरबीआई द्वारा निर्धारित ओवरड्राफ्ट सीमा का पालन करना होगा। इसके अलावा, राज्य परियोजनाओं (प्रोजेक्ट्स) के लिए स्वीकृत बाहरी ऋणों को समान नियमों और शर्तों पर राज्यों को पूरी तरह से आवंटित नहीं किया जाता है। 

केंद्र-राज्यों के वित्तीय संबंधों पर आपातकाल का प्रभाव

राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान

आपातकाल की स्थिति में राष्ट्रपति यह आदेश दे सकते हैं कि संघ द्वारा, राज्यों द्वारा प्राप्त सभी अनुदान सहायता निलंबित (डिले) रहेंगी। हालांकि, इस तरह का निलंबन केवल अस्थायी (टेंपररी) प्रकृति का है और वित्तीय वर्ष की समाप्ति से आगे नहीं जा सकता है जिसमें आपातकाल की उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) काम करना बंद कर देती है।

वित्तीय आपातकाल के दौरान 

यदि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 280 के अनुसार वित्तीय आपातकाल लगाया जाता है तो केंद्र-राज्यों के वित्तीय संबंध काफी बदल जाते हैं। ऐसे मामलों में, केंद्र इतना शक्तिशाली हो जाता है और राज्यों पर अत्यधिक नियंत्रण रखता है और उन्हें वित्तीय औचित्य (प्रोप्राईटी) और अन्य आवश्यक सुरक्षा उपायों के कुछ मानदंडों (सेफगार्ड) का पालन करने के लिए मजबूर करता है। केंद्र सरकार राज्यों को निम्नलिखित निर्देश दे सकती है-

  1. इसमें राज्य की सेवा में लगे सभी कर्मचारियों के वेतन और भत्तों (अलाउंस) में कटौती के संबंध में राज्य सरकारों को निर्देश शामिल हैं, जिनमें उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भी शामिल हैं।
  2. वित्तीय आपातकाल की स्थितियों में, राष्ट्रपति के पास केंद्र से राज्यों को करों के वितरण और आवंटन में परिवर्तन करने और राज्यों को संसद द्वारा निर्धारित वित्तीय औचित्य के सिद्धांतों का पालन करने का निर्देश देने की शक्ति है।
  3. राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किए जाने के बाद भी सभी वित्तीय और धन विधेयकों पर राष्ट्रपति के विचार को सुरक्षित रखने के लिए राज्यों को बाध्य करने के लिए आगे के निर्देश भी जारी किए जा सकते हैं।

निष्कर्ष

केंद्र और राज्य के बीच राजस्व के वितरण के विभिन्न तरीकों पर विस्तृत चर्चा के माध्यम से केंद्र और राज्य के बीच वित्तीय संबंधों पर एक व्यापक अध्ययन (स्टडी) करने के बाद, तीन सूचियों में उल्लिखित विषय, भारत में विभिन्न प्रकार के सरकारी निधि, जीएसटी और इसके निहितार्थ (इंप्लीकेशन), वित्त आयोग और जीएसटी परिषद की भूमिका और राज्यों की उधार शक्ति। हम निम्नलिखित निष्कर्ष निकालने की स्थिति में हैं।

निस्संदेह हम कह सकते हैं कि कोई भी राज्य केंद्र सरकार की सक्रिय (एक्टिव) वित्तीय सहायता के बिना काम नहीं कर सकता। यह भी एक निर्विवाद (अनडिनाएबल) तथ्य है कि भारतीय राज्य अपेक्षाकृत कम आर्थिक स्वतंत्रता का आनंद लेते हैं क्योंकि केंद्र पर निर्भरता वास्तव में दुनिया के किसी भी अन्य संघों की तुलना में बहुत अधिक है जिसे निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करके भी प्रमाणित किया जा सकता है: 

  1. सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, राज्य के पास संविधान के तहत कोई विदेशी सहायता प्राप्त करने की शक्ति नहीं है और किसी भी विदेशी सहायता को केंद्र सरकार के माध्यम से प्रसारित (ब्रॉडकास्ट) किया जाता है। इसलिए ऐसी सहायता के आवंटन के संबंध में कोई भी निर्णय केंद्र सरकार के हाथों में है।
  2. दूसरे, संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो राज्यों को किसी भी अंतरराष्ट्रीय एजेंसी या संगठन के साथ किसी समझौते पर हस्ताक्षर करने में सक्षम बनाता है। 
  3. तीसरा, केंद्र सरकार के पास राज्य से किसी भी विषय को समवर्ती सूची में लाने की शक्ति है, जिससे राज्य कई वित्तीय संसाधनों से वंचित हो जाता है। 

इसलिए इस बात की संभावना हमेशा बनी रहती है कि केंद्र सरकार अपनी पसंद के राजनीतिक दलों को अतिरिक्त लाभ प्रदान करने के लिए वित्तीय संसाधनों के वितरण में पक्षपात कर सकती है। इसलिए, वे इस शक्ति का उपयोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए कर सकते हैं।

हालांकि, भविष्य उज्ज्वल लगता है क्योंकि वित्त आयोग हमेशा राज्यों की मांगों के लिए बहुत उदार और ग्रहणशील (लिबरल एंड रिसेप्टिव) रहा है और करों के वितरण और अन्य वित्तीय चिंताओं जैसे राज्य उधार और राज्य ऋण आदि पर सिफारिशें दे रहा है। इसके अलावा, केंद्र के प्रयास जीएसटी लाने और जीएसटी परिषद की स्थापना में सरकार प्रशंसनीय है क्योंकि इससे कराधान में अधिक स्पष्टता और एकरूपता (यूनिफॉर्मिटी) आई है। इससे अनिवार्य रूप से लंबे समय में राजस्व में वृद्धि होगी।

हम अंत में यह कहकर निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि संघीय ढांचे में इन सभी खामियों को आसानी से हल किया जा सकता है, यदि केंद्र और राज्य दोनों सरकारें उच्च स्तर का सहयोग दिखाएं, अपने राजनीतिक उद्देश्यों को अलग रखते हुए सद्भाव (गुड फेथ) से काम करने के लिए ईमानदारी से प्रयास करें।

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