यह लेख J. Jerusha Melanie और Kishita Gupta के द्वारा लिखा गया है। इस लेख में लेखकों ने अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सी.आर.पी.सी.) की धारा 41 और धारा 41A के प्रावधानों, जो की पुलिस द्वारा बिना वारंट के लोगों की गिरफ्तारी से संबंधित हैं, की व्याख्या की है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।
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परिचय
यह कोई छिपी बात नहीं है कि हर साल अपराध बढ़ रहे हैं। वर्ष 2020 में, भारत की अपराध दर 314.3% थी, जो पिछले वर्ष की तुलना में 73.1% की वृद्धि थी। लेकिन 2021 में अपराध दर में गिरावट आई है। इस तरह के अपराधों की घटनाओं के बढ़ते रिकॉर्डों पर अंकुश लगाने की जरूरत है, और ऐसे अपराधों की उचित जांच होनी चाहिए। इन कारणों से, पुलिस को गिरफ्तारी वारंट की प्रतीक्षा करते हुए कीमती क्षण बर्बाद किए बिना अपराध करने के संदेह में किसी व्यक्ति को शीघ्रता से गिरफ्तार करने के लिए कुछ असाधारण शक्तियों की आवश्यकता होती है। यहीं पर अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (इसके बाद “संहिता” या “सी.आर.पी.सी.” के रूप में संदर्भित) की धारा 41 और धारा 41A सामने आती है। ये प्रावधान पुलिस को ऐसी ही कुछ शक्तियां प्रदान करते हैं। आइए, इन दो धाराओं के बारे में अधिक जानने और वे भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए कैसे प्रासंगिक (रिलेवेंट) हैं के लिए इस लेख को अंत तक पढ़े।
सी.आर.पी.सी. की धारा 41 और धारा 41A की व्याख्या
सी.आर.पी.सी. की धारा 41
सी.आर.पी.सी. की धारा 41 के अनुसार, कोई भी पुलिस अधिकारी बिना वारंट या अदालत के आदेश के निम्नलिखित में से किसी को भी गिरफ्तार कर सकता है:
- जो पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध करता है।
- या वह एक वैध शिकायत, विश्वसनीय जानकारी, या एक विश्वसनीय संदेह का विषय है, कि उसने एक अपराध किया है जिसे ऐसी कारावास से दंडित किया जाता है जो कि 7 साल से कम हो सकती है या जिसे 7 साल तक बढ़ाया जा सकता है, जो की जुर्माना के साथ या बिना हो सकती है।
निम्नलिखित आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिए:
- शिकायत, सूचना या संदेह के आधार पर, पुलिस अधिकारी के पास यह संदेह करने का आधार है कि विषय ने निर्दिष्ट अपराध किया है।
- पुलिस विभाग आश्वस्त है कि इस तरह की गिरफ्तारी निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए आवश्यक है:
- अपराधी को अन्य अपराध करने से रोकने के लिए; या
- अपराध की गहन जांच के लिए, या
- अपराधी को अपराध के साक्ष्य को नष्ट करने या अन्यथा छेड़छाड़ करने से रोकने के लिए; या
- ऐसे व्यक्ति को अदालत या पुलिस अधिकारी को उन तथ्यों के बारे में बताने से हतोत्साहित (डिसकरेज) करने के प्रयास में मामले के तथ्यों से अवगत किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रलोभन, धमकी या वादा करने से मना करने के लिए; या
- क्योंकि यह गारंटी देना असंभव है कि ऐसे व्यक्ति को जब तक गिरफ्तार नहीं किया जाता है, तब तक वह आवश्यकतानुसार अदालत में पेश होगा;
गिरफ्तारी करते समय, पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी के पीछे का अपना औचित्य (जस्टिफिकेशन) अवश्य लिखना चाहिए। लेकिन इसका भी एक अपवाद है कि एक पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी न करने के कारणों को हमेशा लिखित रूप में दर्ज करना चाहिए, जब ऐसा करना इस उपधारा की शर्तों के तहत आवश्यक नहीं है।
अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41(2)
अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41(2) किसी भी पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी वारंट के बिना किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी करने से रोकती है। यह प्रावधान करती है कि, संहिता की धारा 42 (नाम और निवास देने से इनकार करने पर गिरफ्तारी) के प्रावधानों के अलावा, गैर-संज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल) अपराध करने के संदेह में किसी भी व्यक्ति को वारंट या मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 41A
सी.आर.पी.सी. की धारा 41A को अपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2008 (2009 का 5) द्वारा जोड़ा गया था। हालाँकि, हाल ही में इस संशोधन के अधिनियमित होने के बाद, केंद्र सरकार द्वारा अभ्यावेदन (रिप्रेजेंटेशन) प्राप्त किए गए थे। इस प्रकार, अपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2010 (2010 का 41) द्वारा कुछ विशिष्ट संशोधन लाए गए थे। इस धारा के तहत एक व्यक्ति को एक पुलिस अधिकारी के सामने पेश होने के नोटिस के बारे में बात की गई है। यह धारा निम्नलिखित बताती है:
- पुलिस अधिकारी को, किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसके खिलाफ उचित शिकायत की गई है या विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई है, या एक उचित संदेह मौजूद है कि उन्होंने एक संज्ञेय अपराध किया है, को उनके सामने या ऐसे अन्य स्थान पर जैसा कि उस नोटिस के द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है, और उनको पेश होने के लिए आदेश देने के लिए एक नोटिस जारी करना चाहिए, उन सभी परिस्थितियों में जहां धारा 41(1) की शर्तों के तहत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं है।
- नोटिस के प्रावधानों का पालन करना, यह उस व्यक्ति की जिम्मेदारी है जिसे नोटिस जारी किया गया है।
- यदि व्यक्ति नोटिस प्राप्त करता है और उसका अनुपालन (कॉम्प्लाई) करता है, तो उसे नोटिस में उल्लिखित अपराध के लिए तब तक गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है, जब तक कि पुलिस अधिकारियों को यह विश्वास न हो कि उसे उन कारणों, जिन्हें दर्ज किया जाएगा, से हिरासत में लिया जाना चाहिए।
- किसी सक्षम न्यायालय द्वारा इस संबंध में जारी किए गए किसी भी आदेश के अधीन, पुलिस अधिकारी किसी भी समय नोटिस में निर्दिष्ट अपराध के लिए गिरफ्तारी कर सकता है, यदि प्रश्नगत व्यक्ति नोटिस के प्रावधानों का पालन करने से इनकार करता है, या फिर वह खुद को पहचानने से इंकार कर देता है।
सी.आर.पी.सी. के तहत गिरफ्तारी क्या है
शब्द “गिरफ्तारी” को ना तो अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 और न ही भारतीय दंड संहिता, 1860 (आई.पी.सी.) के तहत परिभाषित किया गया है। हालाँकि, डिक्शनरी की परिभाषा के अनुसार, गिरफ्तारी किसी व्यक्ति को, किसी कानूनी प्राधिकरण (अथॉरिटी) द्वारा हिरासत में लेने या रखने का संदर्भ देती है, और यह विशेष रूप से एक आपराधिक आरोप के आधार पर होता है। दूसरे शब्दों में, कानूनी प्राधिकरण द्वारा एक व्यक्ति को उसकी शारीरिक स्वतंत्रता से वंचित करने को एक गिरफ्तारी के रूप में माना जाता है।
इसके अलावा, कई भारतीय अदालतों ने “गिरफ्तारी” शब्द को परिभाषित करने का प्रयास किया है, जैसे कि आर.आर चारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1951) के मामले में, न्यायालय के द्वारा “गिरफ्तारी” शब्द को आधिकारिक तौर पर किसी अपराध का आरोप लगाने के लिए हिरासत में लिए जाने के कार्य के रूप में माना गया था। अदालत ने यह भी माना कि गिरफ्तारी में एक व्यक्ति की जब्ती भी शामिल है।
जबकि, पंजाब राज्य बनाम अजैब सिंह (1995) के मामले में, अदालत के द्वारा यह माना गया था की एक अपहृत (एब्डक्टेड) व्यक्ति पर शारीरिक संयम का इस्तेमाल करना, जब उन्हें मुक्त किया जा रहा है, और फिर उन्हें हिरासत में ले जाना, और फिर किसी आपराधिक या अर्ध-आपराधिक प्रकृति के किसी भी अपराध या राज्य या राज्य के लोगों के लिए हानिकारक किसी भी कार्य के किसी भी वास्तविक या संदिग्ध (सस्पेक्टेड) या पकड़े गए कार्य के तहत लगाए गए किसी भी आरोप या दोषारोपण (एक्यूसेशन) के बिना, निकटतम शिविर (कैंप) के प्रभारी (इन चार्ज) अधिकारी की हिरासत में वितरित करना, और इस तरह से अपहृत व्यक्ति (वसूली और बहाली) अधिनियम, 1949 की धारा 4 के अनुसार ऐसे व्यक्ति को निकटतम शिविर के कमांड में अधिकारी की हिरासत में पहुंचाना, भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(1) और 22 (2) के तहत गिरफ्तारी या हिरासत का गठन नहीं करता है।
आमतौर पर देखा जाए तो, किसी व्यक्ती को गिरफ्तार करने के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित दिए गए हैं:
- किसी भी अपराध के कारण का पता लगाने के लिए;
- आरोपी पर मुकदमा चलाने और जांच करने के लिए;
- एक आरोपी को अपराध करने से रोकने के लिए;
- यह सुनिश्चित करने के लिए कि आरोपी सही समय पर मुकदमे में भाग लेता है;
- आरोपी को सबूतों आदि के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिए।
अपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत, अध्याय V (धारा 41 से 60) गिरफ्तारी करने की अवधारणा और प्रक्रिया से संबंधित है।
गिरफ्तारी के प्रकार
जैसा कि ऊपर भी बताया गया है, संहिता का अध्याय V (धारा 41 से 60) गिरफ्तारी करने की अवधारणा और प्रक्रिया के बारे में बात करता है। इसके तहत दो प्रकार की गिरफ्तारी प्रदान की गई है:
- उचित मजिस्ट्रेट के द्वारा जारी वारंट के साथ गिरफ्तार करना या;
- बिना वारंट के गिरफ्तार करना।
वारंट के साथ किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करना एक उपयुक्त मजिस्ट्रेट द्वारा जारी वारंट के अनुसरण (पर्सुएंस) में की गई गिरफ्तारी को संदर्भित करता है। इस संहिता की धारा 41 (2) के तहत किसी भी पुलिस अधिकारी को, गिरफ्तार करने के वारंट के बिना, गैर संज्ञेय अपराध करने के संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार करने से रोका गया है। यह धारा गैर संज्ञेय अपराधों के लिए किसी भी गिरफ्तारी के संबंध में सामान्य नियम निर्धारित करती है; इसके तहत दिए गए सामान्य नियम यह है कि बिना वारंट के गैर संज्ञेय अपराध करने पर किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। फिर भी, संहिता की धारा 41 (2) का अपवाद धारा 41 (1) और धारा 42 के तहत प्रदान किया गया है। संहिता की धारा 42 के तहत कहा गया है कि, यदि कोई व्यक्ति, जो या तो गैर संज्ञेय अपराध करता है या उस पर गैर संज्ञेय अपराध करने का आरोप लगाया जाता है, वह अपना नाम और आवासीय पते जैसे आवश्यक पहचान के विवरण को प्रस्तुत करने से इनकार करता है, तो पुलिस अधिकारी उसे वारंट के बिना भी गिरफ्तार कर सकता है।
दूसरी ओर, संहिता की धारा 41(1) उन परिस्थितियों के बारे में बात करती है जब एक पुलिस अधिकारी एक उपयुक्त मजिस्ट्रेट से वारंट के बिना किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी कर सकता है, जो धारा 41(1) और धारा 41(2) के तहत स्पष्ट किए गए सामान्य नियम का एक अपवाद है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 41 के तहत गिरफ्तारी
जैसा कि ऊपर भी उल्लेख किया गया है, संहिता की धारा 41 उन परिदृश्यों (सिनेरियो) के बारे में चर्चा करती है जब कोई पुलिस अधिकारी बिना वारंट के किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी कर सकता है। हालांकि ऊपर दी गई धारा पुलिस अधिकारियों पर कुछ महान शक्तियाँ निहित करती है, ऐसी शक्तियाँ असीमित या अप्रतिबंधित नहीं हैं। अजीत सिंह बनाम शाम लाल और अन्य (1981) के मामले में, न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि एक समय में अवैध हथियार रखने के आरोपी व्यक्ति को न तो वर्तमान में आरोपी कहा जा सकता है और न ही उस अपराध को करने के संदिग्ध के रूप में माना जा सकता है। इसलिए, संहिता की धारा 41 (1) के दायरे को परिभाषित करते हुए यह कहा जा सकता है की, किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार करने की पुलिस की शक्तियां केवल उन व्यक्तियों तक सीमित हैं जो आरोपी हैं या अपराधों से संबंधित हैं या उस अपराध के संदिग्ध हैं।
जब पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है
जैसे कि संहिता की धारा 41 के तहत बताया गया है, निम्नलिखित परिस्थितियाँ हैं जिनके तहत एक पुलिस अधिकारी बिना गिरफ्तारी के वारंट के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, निम्नलिखित लोग हैं जिन्हें उपयुक्त मजिस्ट्रेट से गिरफ्तारी वारंट के बिना गिरफ्तार किया जा सकता है।
पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में संज्ञेय अपराध करने वाला व्यक्ति
सबसे पहले, संहिता की धारा 41 (1) (a) के तहत, कोई भी पुलिस अधिकारी अपनी उपस्थिति में संज्ञेय अपराध करने वाले किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है। उक्त प्रावधान में, शब्द “कर सकता है” पुलिस अधिकारी की विवेकाधीन शक्ति को दर्शाता है। कोई भी पुलिस अधिकारी, जो व्यक्तिगत रूप और अपने सामने किसी व्यक्ति को कोई संज्ञेय अपराध को करते हुए देखता है, तो उसके पास उस व्यक्ति को वहीं पर गिरफ्तार करने की शक्ति है और ऐसा मजिस्ट्रेट की द्वारा वारंट जारी होने की प्रतीक्षा किए या गिरफ्तारी का वारंट जारी होने की प्रतीक्षा किए बिना किया जा सकता है। जैसा कि अदालत के द्वारा अमरावती बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2005) के मामले में कहा गया है, कोई भी पुलिस अधिकारी संहिता की धारा 41 (1) के तहत किसी को गिरफ्तार करने के लिए सख्ती से बाध्य नहीं है। इसके अलावा, अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में “कर सकता है” शब्द को “करना जरूरी है” या “करना ही होगा” के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता है।
इसके अलावा, एम सी अब्राहम और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2002) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह कहा गया था कि एक पुलिस अधिकारी बिना वारंट या मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के तहत किसी व्यक्ति कि गिरफ्तारी कर सकता है। अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के तहत गिरफ्तारी करने के निर्णय में पुलिस अधिकारी का विवेकाधिकार होता है। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह नोट किया गया था कि एक पुलिस अधिकारी अनायास (स्पॉन्टेनियस) कार्रवाई करने और रिपोर्ट दर्ज होते ही हमेशा व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए बाध्य नहीं है। आगे अदालत द्वारा किए गए अवलोकन (ऑब्जर्वेशन) से पता चलता है कि जांच अधिकारी कुछ जांच करने के बाद यह तय कर सकता है कि आरोपी व्यक्ति को उचित परिस्थितियों में गिरफ्तार किया जाना चाहिए या नहीं। एक पुलिस अधिकारी को हमेशा एक आरोपी को गिरफ्तार करने की आवश्यकता नहीं होती है, भले ही यह दावा किया गया हो कि उसने एक संज्ञेय अपराध किया है क्योंकि पुलिस द्वारा उस व्यक्ति की गिरफ्तारी करने की क्षमता विवेकाधीन है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह नोट करते हुए जारी रखा कि पुलिस द्वारा इस शक्ति का उपयोग सावधानी के साथ किया जाना चाहिए क्योंकि गिरफ्तारी स्वाभाविक रूप से उस विषय के निजता के अधिकार का उल्लंघन है और इसका नागरिक की स्थिति और प्रतिष्ठा पर प्रभाव पड़ता है। यह उन लोगों के प्रकार पर निर्भर करता है जिन पर संज्ञेय अपराध करने का आरोप लगाया जाता है और यह दावा किए गए अपराध की कथित प्रकृति पर निर्भर करता है। इसलिए शक्ति का प्रयोग विवेक के साथ और संयम से करना चाहिए।
सात साल या उससे कम के कारावास से दंडनीय संज्ञेय अपराध करने का संदेह वाला व्यक्ति
संहिता की धारा 41 (1) (B) के तहत प्रावधान है किया गया है कि कोई भी पुलिस अधिकारी किसी भी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है-
- जिस पर उचित शिकायत के आधार पर, प्राप्त किसी भी विश्वसनीय जानकारी, या उचित संदेह के अस्तित्व के आधार पर, सात साल या उससे कम के कारावास के साथ दंडनीय संज्ञेय अपराध करने का संदेह है।
उक्त धारा संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार करने से पहले संतुष्ट करने के लिए कुछ आवश्यक शर्तें भी प्रदान करती है। यह शर्तें निम्नलिखित हैं:
- संदेह, शिकायत या सूचना के आधार पर पुलिस अधिकारी के पास यह विश्वास करने का कारण है कि, संदिग्ध ने संभवत: अपराध किया है, और
- पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी को, निम्नलिखित के लिए नितांत (एब्सोल्यूट) रूप से अनिवार्य मानते हैं –
- संदिग्ध को कोई अन्य अपराध करने से रोकने के लिए;
- अपराध की ठीक से जांच करने के लिए;
- उसे अपराध से संबंधित साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ करने या गायब होने से रोकने के लिए;
- मामले से परिचित होने वाले किसी व्यक्ति को न तो अदालत और न ही पुलिस अधिकारी को तथ्यों का खुलासा न करने के लिए प्रेरित करने, धमकी देने या वादा करने से रोकने के लिए;
- आवश्यकता पड़ने पर आरोपी की न्यायालय में उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए।
हालांकि, उक्त धारा के तहत एक संदिग्ध को गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी को ऐसी गिरफ्तारी के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करना चाहिए।
प्रदीप कुमार तिवारी बनाम दिल्ली के एन.सी.टी. राज्य (2022) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के द्वारा दिए गए एक हालिया फैसले में, यह देखा गया था कि, जब एक उचित शिकायत की जाती है, और उस बारे में विश्वसनीय जानकारी प्राप्त की जाती है, या एक उचित संदेह मौजूद होता है कि उस व्यक्ति ने ऐसा संज्ञेय अपराध किया है जो सात साल से कम के कारावास से दंडनीय है या ऐसा अपराध किया है जिसकी सजा को सात साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माने के साथ या बिना भी हो सकता है, तो सी.आर.पी.सी. की धारा 41(1)(b) के अनुसार पुलिस अधिकारी, उस व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है और उसकी गिरफ्तारी को प्रभावी कर सकता है। हालांकि, पुलिस अधिकारी को शिकायत, सूचना या संदेह के आधार पर अन्य आवश्यकताओं की ‘उपस्थिति’ से भी ‘संतुष्ट’ होना चाहिए, अर्थात्, उसके पास यह संदेह करने का कारण होना चाहिए कि व्यक्ति ने निर्दिष्ट अपराध किया है। दूसरा, उसे ‘आश्वस्त’ होना चाहिए कि उस व्यक्ति की गिरफ्तारी ‘आवश्यक’ थी ताकि उस व्यक्ति को कोई अन्य अपराध करने से रोका जा सके, ताकि अपराध की गहन जांच की जा सके, या उन्हें अपराध के साक्ष्य को मिटाने या अन्यथा उसके साथ छेड़छाड़ करने से रोका जा सके। गिरफ्तारी के लिए अतिरिक्त औचित्य (जस्टिफिकेशन) में संदिग्ध व्यक्ति को सच्चाई जानने वाले किसी भी व्यक्ति को जबरदस्ती या धमकी देने से रोकना शामिल है या जब आवश्यक हो तो अदालत में संदिग्ध व्यक्ति की उपस्थिति की गारंटी देना असंभव है। यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी करते समय अपने औचित्य को लिखित में देना चाहिए।
एक व्यक्ति पर संज्ञेय अपराध करने का संदेह, जिसके लिए सात वर्ष से अधिक कारावास या मृत्युदंड की सजा हो सकती है
संहिता की धारा 41(1)(ba), संहिता की धारा 41(1)(b) के तहत पुलिस अधिकारी को प्रदान की गई शक्ति का विस्तार करती है। यह प्रावधान करती है कि कोई भी पुलिस अधिकारी किसी भी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है जिस पर सात साल या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय कोई संज्ञेय अपराध, जो की जुर्माने या मृत्यु दंड के साथ या बिना हो सकती है, करने का संदेह है। ऐसी गिरफ्तारी की शर्तें लगभग वैसी ही हैं जैसी संहिता की धारा 41(1)(b) के तहत उल्लिखित हैं, अर्थात्:
- विश्वसनीय सूचना पुलिस अधिकारी को मिली थी।
- पुलिस अधिकारी के पास प्राप्त सूचना के आधार पर संदेह पर विश्वास करने का कारण होना चाहिए।
सी.बी.आई. बनाम सुरेंद्र कपूर आदि (2016) के मामले में न्यायालय द्वारा यह देखा गया था कि, भारतीय दंड संहिता की धारा 467 के अनुसार, एक मूल्यवान दस्तावेज को नकली बनाने के लिए आजीवन कारावास या अधिकतम दस साल की जेल की सजा दी जाती है। इसलिए, सी.आर.पी.सी. की धारा 41(1)(b) के विपरीत, धारा 41(1)(ba) के तहत “गिरफ्तारी न करने” का विवेक सीमित है।
घोषित अपराधी (प्रोक्लेम्ड ऑफेंडर)
संहिता की धारा 41(1)(c) के तहत प्रावधान दिया गया है कि कोई भी पुलिस अधिकारी किसी भी घोषित अपराधी को गिरफ्तार कर सकता है। अपराधी को संहिता या राज्य सरकार के किसी भी आदेश द्वारा घोषित किया जा सकता है।
‘घोषित अपराधी’ शब्द को संहिता की धारा 82 के तहत ऐसे व्यक्ति के रूप में स्पष्ट किया गया है जो फरार हो गया है या खुद को छुपा रहा है ताकि उसके खिलाफ जारी किए गए गिरफ्तारी वारंट को निष्पादित (एग्जीक्यूट) न किया जा सके। इसलिए, यदि कोई पुलिस अधिकारी ऐसे घोषित अपराधी का पता लगाता है, तो वह एक अलग गिरफ्तारी के वारंट की आवश्यकता के बिना भी उसे गिरफ्तार कर सकता है।
जिस व्यक्ति के पास चोरी की कोई संपत्ति होने का संदेह है
अपराधिक प्रक्रिया संहिता को धारा 41(1)(d) के तहत किसी भी पुलिस अधिकारी को बिना वारंट के किसी भी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति दी गई है, जिसके पास ऐसी कोई भी वस्तु है जिस पर चोरी की संपत्ति होने का संदेह है। इसके अलावा, संदिग्ध के बारे में उचित संदेह मौजूद होना चाहिए कि उसने चोरी की संपत्ति के संबंध में कोई अपराध किया है।
यह अविनाश मधुकर मुखेडकर बनाम महाराष्ट्र राज्य (1983) के मामले में न्यायालय द्वारा यह देखा गया था, की यह सच है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की अनुसूची I अपराध के प्रकार का वर्णन करती है, चाहे वह संज्ञेय हो या नहीं। हालांकि, जहां अपराध किसी अन्य कानून के उल्लंघन में किया गया है, तो धारा 41(1)(d) को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की अनुसूची I में छूट के रूप में माना जाना चाहिए।
एक पुलिस अधिकारी के कर्तव्य के निष्पादन में बाधा डालने वाला व्यक्ति
पुलिस अधिकारी के पास यह शक्ति है की उनके आधिकारिक कर्तव्य के निष्पादन में बाधा डालने वाले किसी भी व्यक्ति को वह बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकते हैं।
वह व्यक्ति जो वैध हिरासत (लॉफुल कस्टडी) से भाग जाता है या से भागने का प्रयास करता है
अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41(1)(e) के तहत किसी भी पुलिस अधिकारी को एक बहुत ही आवश्यक शक्ति प्रदान की गई है, यानी बिना वारंट के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए शक्ति, जो या तो वैध हिरासत से भाग गया है या भागने का प्रयास करता है। हालांकि “हिरासत” शब्द को इस संहिता के तहत स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन संहिता की धारा 167 के तहत हिरासत की अवधारणा को स्पष्ट किया गया है। सामान्य भाषा में बोला जाए तो, यह एक जांच के अनुसरण (परसुएंस) में एक आरोपी की नजरबंदी (डिटेंशन) को संदर्भित करता है। यह हिरासत या तो न्यायिक या पुलिस हिरासत हो सकती है।
संघ के किसी भी सशस्त्र बल (आर्म्ड फोर्सेज) से संदिग्ध भगोड़ा (डेजर्टर)
अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41(1)(f) के तहत यह प्रदान किया गया है की कोई भी पुलिस अधिकारी बिना वारंट के किसी भी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है, जिसके बारे में उचित रूप से संदेह है कि वह संघ के सशस्त्र बलों से भाग गया है। संघ के सशस्त्र बल भारत में तीन सैन्य बलों को संदर्भित करते हैं, जो भारतीय सेना, भारतीय नौसेना और भारतीय वायु सेना हैं। भगोड़ा वह व्यक्ति होता है जो बिना छुट्टी लिए अपनी सेवा या कर्तव्य का परित्याग (अबेंडन) कर देता है।
एक व्यक्ति, जिसके ऊपर संदेह है की उसने भारत के बाहर अपराध किया है
अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41(1)(g) के तहत प्रावधान दिया गया है कि कोई भी पुलिस अधिकारी बिना वारंट के किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है जिस पर भारत के बाहर ऐसा कार्य करने का संदेह हो जो भारत में किए जाने पर अपराध हो सकता है। ऐसा संदेह निम्नलिखित पर आधारित हो सकता है:
- एक उचित शिकायत।
- विश्वसनीय जानकारी।
- एक उचित संदेह।
हाल ही में प्रत्यर्पण (एक्सट्रेडिशन) से जुड़े एक मामले में धारा 41(1)(g) को लागू किया गया था। मद्रास उच्च न्यायालय के द्वारा श्री मोहन कर्णकर चंद्र बनाम पुलिस निरीक्षक (इंस्पेक्टर) (2008) के मामले में यह देखा गया था कि यह बहुत स्पष्ट है कि प्रत्यर्पण की कार्यवाही केवल किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ शुरू की जा सकती है जिस पर भारत के बाहर अपराध करने का आरोप लगाया गया है क्योंकि एक अपराध जो भारत में किया जाता है उसकी सजा भी भारत में ही मिलती है। इसलिए, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41(1)(g) के आलोक में, अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह गिरफ्तारी और पेशी के समय अदालत में साबित करे कि अपराधी व्यक्ति ने भारत के बाहर कोई ऐसा अपराध किया है, जो भारत में अपराध के रूप में दंडनीय है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 356(5) के तहत बनाए गए किसी भी नियम का उल्लंघन करने वाला रिहा किया गया अपराधी
अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 356(5) के तहत कुछ अपराधों के लिए एक से अधिक बार दोषी ठहराए गए किसी भी व्यक्ति के पते में परिवर्तन को अधिसूचित (नोटिफाई) करने से संबंधित प्रावधान किया गया है। इसके तहत कहा गया है कि जब किसी व्यक्ति को कुछ अपराधों के लिए कम से कम 3 साल के कारावास की सजा दी जाती है, तो द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट उसे कारावास की अवधि समाप्त होने के बाद पांच साल तक की अवधि के लिए अपने आवासीय पते के परिवर्तन को सूचित करने का आदेश दे सकते हैं।
किसी अन्य पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तार किए जाने के लिए अनुरोध किया गया व्यक्ति
जब कोई पुलिस अधिकारी किसी विशेष कारण से किसी विशिष्ट व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए, किसी अन्य पुलिस अधिकारी से अनुरोध करता है, तो जिस अधिकारी के समक्ष ऐसी मांग की जाती है, वह बिना वारंट के निर्दिष्ट व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है। अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41(1)(i) के तहत ऐसे अनुरोध को स्वीकार करने के लिए कोई शर्त प्रदान नहीं की गई है। हालांकि, इसके तहत कहा गया है कि जिस पुलिस अधिकारी से अनुरोध किया गया है, वह इस तरह की गिरफ्तारी के लिए सहमति दे सकता है, अगर उसे लगता है कि गिरफ्तारी बिना वारंट के कानूनी रूप से की जा सकती है।
सी.आर.पी.सी. की धारा 41A के तहत पेश होने का नोटिस
अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41A को अपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2008 के द्वारा संहिता में जोड़ा गया था। इसके तहत प्रावधान किया गया है कि जब कोई पुलिस अधिकारी, संज्ञेय अपराध करने के संदिग्ध व्यक्ति की संहिता की धारा 41(1) के तहत गिरफ्तारी नहीं कर सकता है, तो वह संदिग्ध व्यक्ति को किसी विशिष्ट स्थान पर उसके सामने पेश होने के लिए उपस्थिति और निर्दिष्ट समय का नोटिस जारी कर सकता है।
ऐसा वारंट जारी करने की शर्तें निम्नलिखित दी गई हैं:
- उचित संदेह होना चाहिए;
- विश्वसनीय जानकारी होनी चाहिए, या
- उचित शिकायत होनी चाहिए।
उक्त धारा में लिखा गया है की “जब किसी व्यक्ति को ऐसा नोटिस जारी किया जाता है, तो यह व्यक्ति का कर्तव्य होगा कि वह शर्तों का पालन करे।” इसलिए, उपस्थिति का नोटिस कानूनी रूप से संदिग्ध व्यक्ति को नोटिस की शर्तों का पालन करने के लिए बाध्य करता है। इसके अलावा, जब तक संदिग्ध नोटिस की शर्तों का पालन करना जारी रखता है, पुलिस अधिकारी उसे गिरफ्तार नहीं कर सकता, बशर्ते वह इसे आवश्यक समझे। फिर भी, उसे नोटिस की शर्तों के पूरा होने के बावजूद, ऐसी गिरफ्तारी करने के अपने कारण दर्ज करने चाहिए।
डॉ. रिनी जौहर और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2016) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह कहा गया था कि सी.आर.पी.सी. की धारा 41A के अनुसार, पुलिस अधिकारी को एक नोटिस जारी करना चाहिए जिसमें आरोपी को एक विशिष्ट स्थान और समय पर उसके सामने पेश होने का निर्देश दिया जाए, जहां सी.आर.पी.सी. की धारा 41(1) के तहत व्यक्ति को गिरफ्तार करना जरूरी नहीं है। कानून में ऐसे आरोपी व्यक्ति को पुलिस अधिकारी के सामने आने की आवश्यकता होती है, और यह आगे निर्धारित करता है कि यदि आरोपी नोटिस की आवश्यकताओं का अनुपालन करता है, तो उसे तब तक हिरासत में नहीं लिया जाना चाहिए जब तक कि पुलिस अधिकारी यह निर्धारित नहीं करता कि गिरफ्तारी की आवश्यकता उन कारणों से है जिन्हें प्रलेखित (आउटलाइन) किया जाना चाहिए। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के तहत उल्लिखित गिरफ्तारी की पूर्व शर्त को भी इस बिंदु पर पूरा किया जाना चाहिए, और मजिस्ट्रेट उसी स्तर की परीक्षा आयोजित करेगा।
अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के द्वारा सी.आर.पी.सी. के अनुसार, पुलिस अधिकारियों द्वारा गिरफ्तारी पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की गई थी। अदालत ने कहा कि एक व्यक्ति, जो की एक ऐसे अपराध का अपराधी है जिसमे उस व्यक्ति को सात साल की अवधि से कम के कारावास से दंडित किया जा सकता है या जहां कारावास को 7 साल तक बढ़ाया जा सकता है और जो जुर्माने के साथ या बिना हो सकता है, तो एक पुलिस अधिकारी द्वारा तब तक उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता जब तक कि पुलिस अधिकारी संतुष्ट न हो कि उस व्यक्ति ने अपराधिक प्रक्रिया संहिता (सी.आर.पी.सी.) की धारा 41 के अनुसार अपराध किया है, जिसे अदालत के द्वारा प्रावधान के विश्लेषण में उद्धृत (साइट) किया था। इसके अलावा, यह निर्णय दिया गया है कि इन स्थितियों में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने से पहले एक पुलिस अधिकारी को आश्वस्त होना चाहिए कि अपराधी व्यक्ति को कोई अतिरिक्त अपराध करने से रोकने के लिए, मामले की गहन जांच की अनुमति देने के लिए, आरोपी को सबूतों को नष्ट करने से रोकने के लिए या अन्यथा सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिए, या अपराधी को उसकी गवाही के बदले में कुछ भी देने से रोकने के लिए, ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, पुलिस अधिकारी को इस बात पर आश्वस्त होना चाहिए कि सी.आर.पी.सी. की धारा 41 के खंड (1) के उपखंड (a) से (e) में परिभाषित एक या अधिक उद्देश्यों के लिए गिरफ्तारी आवश्यक है।
हाल ही में, मुकेश खुराना बनाम एन.सी.टी. दिल्ली राज्य (2022) के फैसले में, दिल्ली उच्च न्यायालय के द्वारा यह माना गया था कि सर्वोच्च न्यायालय के पदों को संशोधित आपराधिक प्रक्रिया संहिता में शामिल किया गया है, विशेष रूप से सी.आर.पी.सी. की धारा 41A को जोड़ने और सी.आर.पी.सी. की धारा 41A में बदलाव के साथ। इसलिए, यहां तक कि जब किसी को अधिकतम सात साल की जेल की सजा वाले अपराध के लिए हिरासत में लिया जाता है, तो पुलिस को पहले नोटिस जारी करना चाहिए और केवल तभी गिरफ्तारी करनी चाहिए जब नोटिस देने वाला या संदिग्ध सहयोग करने से इंकार कर दे। बेशक, ऐसी अन्य परिस्थितियाँ भी हैं जिनके तहत एक पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी कर सकता है, जैसा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41(1)(a) और (b) के तहत निर्दिष्ट किया गया है।
किसी को अग्रिम (एंटीसिपेटरी) जमानत पर रिहा करने की शक्ति प्रकृति में असाधारण है, और जबकि यह पहले श्री गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) के मामले में कहा गया था और सिद्धराम सतलिंगप्पा म्हेत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2011) के मामले में दोहराया गया था, यह इस निष्कर्ष को सही नहीं ठहराएगा कि शक्ति का प्रयोग केवल असाधारण मामलों में ही किया जाना चाहिए।
उपस्थिति की सूचना जारी करने के संबंध में दिशानिर्देश
अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य और अन्य (2014) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा किसी भी आरोपी व्यक्ति को एक पुलिस अधिकारी द्वारा पेशी का नोटिस जारी करने के संबंध में निम्नलिखित निर्देश दिए गए थे:
- राज्य सरकारों को पुलिस अधिकारी को संहिता की धारा 41 के तहत उल्लिखित आवश्यकताओं का पालन करने का निर्देश देना चाहिए;
- पुलिस अधिकारियों को संहिता की धारा 41 के उप-खंडों की एक चेकलिस्ट प्रदान की जानी चाहिए, जिसे विधिवत भरा जाना चाहिए और यह साबित करने के लिए मजिस्ट्रेट को अग्रेषित (फॉरवर्ड) किया जाना चाहिए कि बिना वारंट के गिरफ्तारी क्यों आवश्यक थी;
- मामले की स्थापना की तारीख से दो सप्ताह के भीतर संदिग्ध व्यक्ति को उपस्थिति की सूचना दी जानी चाहिए।
निष्कर्ष
अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41, वरदान और अभिशाप दोनों है। यह एक वरदान है क्योंकि इसके प्रयोग से पुलिस अधिकारी वारंट का इंतजार किए बिना संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकेगा। संहिता की धारा 41 के अभाव में, एक पुलिस अधिकारी जो अपनी आँखों से किसी को संज्ञेय अपराध करते हुए देखता है, उसे अभियुक्त को छोड़ देना होगा, भले ही वह जानता हो कि वह अपराधी है। वारंट प्राप्त करने में समय बर्बाद होने से संभवत: संदिग्ध व्यक्ति कार्रवाई के स्थान से भाग सकता है। इसलिए, धारा 41 किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार करने के लिए पर्याप्त विवेकाधीन शक्तियां प्रदान करती है यदि वह गिरफ्तारी को काफी प्रासंगिक और जरूरी मानता है। हालाँकि, जब इसे न्यायिक रूप से उपयोग नहीं किया जाता है, तो धारा 41 के तहत निहित एक पुलिस अधिकारी की शक्तियों का प्रयोग अव्यवस्थित हो सकता है। ऐसी शक्तियां व्यावहारिक रूप से असीमित हैं।
इसके अलावा, संहिता की धारा 41A, जो एक पुलिस अधिकारी को किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को पेश होने का नोटिस देने की शक्ति देती है, का गंभीर रूप से दुरुपयोग किया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह प्रावधान करता है कि नोटिस संदिग्ध को किसी भी ‘ऐसी अन्य जगह’ पर पुलिस अधिकारी के सामने पेश होने के लिए अनिवार्य कर सकता है। इस शब्द का प्रयोग करते हुए, पुलिस अधिकारी को केवल पुलिस स्टेशन या मुख्यालय में ही नहीं, बल्कि संदिग्ध व्यक्ति को कहीं भी प्रकट होने की आवश्यकता हो सकती है। जांच के सार्वजनिक उद्देश्य के लिए निष्पक्ष होने के लिए जांच अधिकारी के पास उचित मात्रा में विवेक छोड़ दिया जाना चाहिए, जो कि आपराधिक अपराधों के मामले में सच्चाई का पता लगाने के लिए है, जिन्हें शास्त्रीय रूप से समाज की शांति के खिलाफ अपराध माना जाता है। हालाँकि, यह सामान्य प्रक्रियात्मक निष्पक्षता की कीमत पर नहीं हो सकता। यदि किसी आरोपी को अनावश्यक गिरफ्तारी से बचाने के लिए और प्राथमिकी पूर्व प्रारंभिक जांच के लिए एक प्रक्रिया को संहिताबद्ध किया गया है, तो उसे किसी आरोपी को अनावश्यक उत्पीड़न से बचाने के उद्देश्य से व्याख्यायित किया जाना चाहिए। इसलिए, इस तरह की प्रक्रिया को किसी संभावित आरोपी या आरोपी व्यक्ति के प्रति पूर्वाग्रह पैदा करने के लिए किसी भी मौके से निहित नहीं किया जा सकता है।
इसलिए, हालांकि संहिता की धारा 41 और धारा 41A आपराधिक प्रक्रियाओं के लिए फायदेमंद हैं, लेकिन उनमें कुछ खामियां हैं जिनका पुलिस अधिकारियों द्वारा दुरुपयोग किया जा सकता है। इसलिए, उक्त धाराओं के लागू होने की सीमा तक कड़े नियम लाने की तत्काल आवश्यकता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफ.ए.क्यू.)
क्या कोई पुलिस अधिकारी बिना गिरफ्तारी वारंट के मुझे गिरफ्तार कर सकता है?
हाँ, कोई भी पुलिस अधिकारी बिना गिरफ्तारी के वारंट के आपको गिरफ्तार कर सकता है यदि अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 41(1) के प्रावधानों को पूरा किया जाता है।
अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के तहत ‘विश्वसनीय जानकारी’ का क्या अर्थ है?
शब्द “विश्वसनीय जानकारी” को अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत परिभाषित नहीं किया गया है। हालांकि, इसका तात्पर्य यह है कि गिरफ्तारी करने वाले पुलिस अधिकारी को उसके सामने रखे गए निश्चित तथ्यों और सामग्रियों को देखना चाहिए।
क्या कोई पुलिस अधिकारी किसी अन्य पुलिस अधिकारी की ओर से किसी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है?
हाँ, अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 41(1)(i) के तहत कोई भी पुलिस अधिकारी किसी अन्य पुलिस अधिकारी की ओर से किसी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है।
संदर्भ
- A Review Of Section 41A Of The Code Of Criminal Procedure, 1973 – The Law Brigade Publishers (India)