सी.आर.पी.सी. की धारा 160

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Criminal Procedure Code

यह लेख महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक की छात्रा Monika Pilania के द्वारा लिखा गया है। यह लेख सी.आर.पी.सी. की धारा 160 जिसमें एक गवाह को बुलाने के लिए पुलिस अधिकारियों की शक्ति शामिल है, को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

हम आमतौर पर ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हैं जहां अपराध हर दिन होता है। जब कोई अपराध किया जाता है तो पुलिस अधिकारियों के लिए हर जगह मौजूद रहना संभव नहीं होता है। और देश में हर जगह सीसीटीवी कैमरे लगाना संभव नहीं है। अपराधी अच्छी तरह से प्रशिक्षित (ट्रेंड) हैं, और वे अपने अपराधों का कोई सबूत नहीं छोड़ते हैं। ऐसे में पुलिस अधिकारियों के पास अपराधी को पकड़ने का एक ही रास्ता बचता है कि अपराध को देखने वालों से पूछताछ की जाए। इसलिए, पुलिस अधिकारियों को किसी अपराध की ठीक से जांच करने के लिए कुछ शक्तियां दी जाती हैं। आम गलतफहमी जो इस देश के नागरिकों को अक्सर परेशान करती है वह यह है कि पुलिस विभाग की शक्तियां और अधिकार निरंकुश और अटूट हैं। पुलिस अधिकारियों द्वारा जांच के संबंध में व्यक्तियों को परेशान करने के उदाहरण प्रचुर मात्रा में हैं। इससे जुड़े हुए कलंक इस तथ्य से उत्पन्न हुए है कि ज्यादातर लोग ऐसी स्थितियों से जुड़े कानूनी पहलुओं को नही जानते हैं, और ऐसे सभी मामलों में, यह अज्ञानता हमेशा “आनंदमय” नहीं होता है, लेकिन यह पीड़ा से कम नहीं है। 

वर्तमान लेख एक जांच पुलिस अधिकारी द्वारा जारी किए गए नोटिस के संबंध में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के प्रावधानों पर कुछ आवश्यक प्रकाश डालने का प्रयास करता है, जिसमें किसी ऐसे व्यक्ति की उपस्थिति की आवश्यकता होती है जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित हो और ऐसा व्यक्ति जब भी आवश्यक हो, उपस्थित रहेगा।

धारा 160 की अनिवार्यता

धारा 160(1) के अनुसार, एक जांच अधिकारी आदेश द्वारा किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति की मांग कर सकता है यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं:

  1. व्यक्ति की उपस्थिति की आवश्यकता वाला आदेश लिखित रूप में होना चाहिए
  2. व्यक्ति वह है जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होता है; तथा
  3. आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत जारी सम्मन में जांच अधिकारी का नाम, शीर्षक और पता के साथ-साथ प्राथमिकी (एफआईआर) और अपराध की जानकारी शामिल होनी चाहिए।
  4. जांच के लिए बुलाया गया व्यक्ति जांच कर रहे पुलिस अधिकारी के थाने की सीमा के भीतर है या किसी निकटवर्ती पुलिस थाने की सीमा के भीतर है।
  5. जब वे अपने घर के अलावा किसी अन्य स्थान पर जाते हैं, तो नियमों के अनुसार पुलिस अधिकारी को इस व्यक्ति के उचित खर्च का भुगतान करना चाहिए। 

हालांकि, 15 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति या 65 वर्ष से अधिक, एक महिला, या मानसिक या शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति को उस स्थान के अलावा किसी अन्य स्थान पर उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं होगी, जहां वह रहता है। इस प्रावधान का उद्देश्य धारा 160(1) के तहत पुलिस शक्तियों के दुरुपयोग के कारण होने वाले संभावित अपमान और असुविधाओं के खिलाफ बच्चों और महिलाओं को विशेष सुरक्षा प्रदान करना है। इस विधायी निषेध (लेजिस्लेटिव प्रिस्क्रिप्शन) के पीछे एक सार्वजनिक नीति है, जो पुलिस कर्मियों के लिए पूरक (कंप्लीमेंट्री) नहीं है, जो किशोरों (जुवेनाइल) और महिलाओं को उनके सुरक्षित निवास स्थान के सिवाय पुलिस कंपनी से दूर रखती है। हो सकता है, बाद के वर्षों में, सामुदायिक विश्वास और चेतना पुलिस बल को बेहतर भरोसे के हकदार के रूप में मानेंगे और अब संहिता भर में लिखे गए संदिग्ध प्रावधानों को कम या हटा देंगे।

गवाह कौन है

जो लोग व्यक्तिगत रूप से शपथ या प्रतिज्ञान (अफर्मेशन) के तहत गवाही, मौखिक या लिखित बयान या हलफनामे द्वारा देते हैं, उन्हे गवाह माना जाता है यदि वे किसी चीज़ को देखते हैं, उसके बारे में जानते हैं या उसके गवाह हैं। साक्ष्य जो अदालत में स्वीकार्य है वह एक आपराधिक मामले की नींव है। चाहे वह प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) साक्ष्य हो या अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) साक्ष्य, इसके लिए गवाहों की आवश्यकता होती है।

धारा 160

धारा 160 का शब्दांकन सरल और स्पष्ट है, और इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह प्रावधान एक निष्पक्ष और व्यापक जांच के लिए रखा गया है, जो किसी भी देश में किसी भी आपराधिक प्रक्रिया में सबसे बुनियादी जरूरत है। ऐसी स्थितियों में जहां पुलिस संहिता की धारा 160 के तहत नोटिस भेजती है, पुलिस को प्राथमिकी/मामला संख्या की सामग्री को स्पष्ट रूप से स्पष्ट करना चाहिए। धारा 160 के तहत सम्मन जारी करने पर इन शर्तो का पालन ना एक अपराध है जिसे भारतीय दंड संहिता की धारा 174 के दंडित किया जाता है। इस प्रावधान में कहा गया है कि ऐसा करने के लिए कानूनी रूप से अधिकृत सार्वजनिक अधिकारी द्वारा जारी सम्मन, नोटिस, आदेश या उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) के जवाब में, यदि किसी व्यक्ति या किसी एजेंट के माध्यम से किसी को किसी विशिष्ट स्थान और समय पर उपस्थित होने के लिए कानून द्वारा आवश्यक किया गया है, और यदि वह जानबूझकर उस स्थान या समय में भाग लेने से चूक जाता है, तो उसे एक साधारण कारावास से दंडित किया जाएगा जिसे एक महीने तक बढ़ाया जा सकता है या जुर्माना जो 500 रुपये तक बढ़ाया जा सकता है, या दोनों के साथ दंडित किया जाएगा; या यदि सम्मन, आदेश, नोटिस में लिखा है की इसे व्यक्तिगत रूप से या उसके एजेंट के माध्यम से न्याय की अदालत में उपस्थित होना है, तो उसे साधारण कारावास से दंडित किया जाएगा जो छह महीने तक बढ़ सकता है, या जुर्माना जो 1000 रुपये तक बढ़ सकता है, या साथ में दोनों से दंडित किया जाएगा।

धारा 160 में प्रयुक्त भाषा से यह स्पष्ट है कि जांच करने वाले पुलिस अधिकारी को केवल उसी व्यक्ति को बुलाने की शक्ति है जो अपने स्वयं के पुलिस स्टेशन की सीमा के भीतर या किसी भी निकटवर्ती पुलिस स्टेशन की सीमा के भीतर है। एक पुलिस अधिकारी के पास किसी ऐसे गवाह को बुलाने की शक्ति नहीं है जो थाना या किसी नजदीकी पुलिस स्टेशन की उक्त सीमा के भीतर नहीं है।

इसलिए, अगर कोई गवाह दूसरे राज्य में, किसी दूसरे जिले में रह रहा है, या कोई बाहरी गवाह है, तो उसे जांच पुलिस अधिकारी के सामने पेश होने के लिए नहीं बुलाया जा सकता है। हालाँकि, यदि वह क्षेत्र जिसके भीतर ऐसा गवाह स्थित है, किसी पुलिस स्टेशन से सटा हुआ है, भले ही वह किसी अन्य राज्य या जिले में हो, ऐसे गवाह को पुलिस अधिकारी द्वारा बुलाया जा सकता है।

इस संबंध में, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि 1975 के कृष्ण बंस बहादुर बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य  के मामले में एक आदेश जारी किया गया था, जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के अनुसार था, जिसमें याचिकाकर्ताओं को एक मामले की जांच के संबंध में छोटा शिमला पुलिस स्टेशन में पेश होने की आवश्यकता थी। उन्होंने नई दिल्ली में आदेश प्राप्त किया। याचिकाकर्ता थाने में उपस्थित होकर आदेश का पालन नहीं कर पाए।

परिणामस्वरूप, याचिकाकर्ताओं के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 174 के उल्लंघन के आरोप में आरोप पत्र दायर किया गया था। तथ्यों के प्रकाश में, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित निर्णय दिया:

“यह स्पष्ट है कि याचिकाकर्ताओं ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत दिए गए किसी भी निर्देश या प्रावधान का उल्लंघन नहीं किया है। धारा 160 के तहत कोई भी व्यक्ति जो अपनी या आसपास के थाने की सीमा के भीतर है, जो दी गई जानकारी से या अन्यथा मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होता है, उसे जांच करने वाले पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होना आवश्यक है, और धारा 160 जोड़ता है कि ऐसे व्यक्ति को आवश्यकतानुसार उपस्थित होना चाहिए। वर्तमान मामले के रिकॉर्ड से यह स्पष्ट है कि याचिकाकर्ता उस पुलिस स्टेशन की सीमाओं के भीतर स्थित नहीं थे जहां पुलिस अधिकारी आदेश जारी कर रहा था या किसी भी पड़ोसी थाने में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत आदेश दिया गया था। याचिकाकर्ता अपने पते के अनुसार नई दिल्ली में थे, जो आदेश में विनिर्दिष्ट (स्पेसिफाइड) है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि वे कभी शिमला में थे। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 में अधिकार की कमी प्रतीत होती है। आदेश किसी ऐसे सरकारी अधिकारी द्वारा जारी नहीं किया गया था जो उस क्षमता में कार्य करने के लिए विधिवत अधिकृत था। इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि कोई भी अपराध किया गया है जो भारतीय दंड संहिता की धारा 174 के तहत आता है।”

क्या पुलिस अधिकारी सी.आर.पी.सी. की धारा 160 के तहत किसी संदिग्ध को सम्मन जारी कर सकता है

सी.आर.पी.सी. की धारा 160 के अनुसार, सी.आर.पी.सी. के अध्याय XII के तहत जांच करने वाला एक पुलिस अधिकारी यह मांग कर सकता है कि कोई भी व्यक्ति अपने स्वयं के पुलिस स्टेशन या आस-पास के पुलिस स्टेशन की सीमाओं के भीतर, जो उसके फैसले से परिचित प्रतीत होता है और मामले की परिस्थितियाँ उसके सामने उपस्थित हों। जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती और आरोप पत्र पेश नहीं हो जाता, तब तक पुलिस या आईओ किसी भी व्यक्ति को सम्मन कर सकता है, भले ही वह मामले में संदिग्ध हो।

यह नंदिनी सत्पथी बनाम दानी और अन्य, 1978 के मामले में आयोजित किया गया था। न्यायालय ने माना कि धारा 161(2), संविधान के अनुच्छेद 20(3) पर एक प्रकार की संसदीय टिप्पणी के रूप में कार्य करती है। पुलिस के पास किसी ऐसे व्यक्ति से पूछताछ करने का अधिकार है जो भविष्य में सी.आर.पी.सी. की धारा 160 और धारा 161 के तहत आरोपी व्यक्ति था या बन सकता है क्योंकि धारा 161 में वास्तविक आरोपी और संदिग्ध शामिल हैं। जो लोग पहले या अंततः अभियुक्त हैं, उन्हें सी.आर.पी.सी. की धारा 161 के तहत कोई भी व्यक्ति माना जाएगा।

पुलिस अधिकारी की शक्तियाँ

पुलिस की जांच तब शुरू होती है जब:

  1. प्राथमिकी (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दर्ज की जाती है,
  2. जब एक पुलिस अधिकारी को कानून द्वारा दंडनीय अपराध करने का संदेह होता है,
  3. जब एक सक्षम मजिस्ट्रेट पुलिस को निर्देश देता है।

संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और असंज्ञेय (नॉन कॉग्निजेबल) दोनों तरह के अपराध पुलिस जांच के अधीन हैं। मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना पुलिस अधिकारी संज्ञेय अपराधों की जांच कर सकते हैं। एक पुलिस अधिकारी के पास धारा 157 के तहत प्राथमिकी दर्ज किए बिना जांच करने का अधिकार है, अगर उसे संज्ञेय अपराध के होने का संदेह है। इसके अतिरिक्त, जांच करने के लिए पुलिस के पास गवाहों को पेश होने के लिए बाध्य करने की शक्ति है।

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 156 के तहत, पुलिस अधिकारियों को किसी मामले की जांच करने की शक्ति है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के अनुसार, जांच करने वाला पुलिस अधिकारी किसी गवाह को सम्मन कर सकता है। हालांकि, धारा 161 किसी भी जांच अधिकारी को किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत रूप से जांच करने की अनुमति देती है, अगर उन्हें मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित माना जाता है। ऐसे व्यक्ति का एक पुलिस अधिकारी द्वारा मौखिक साक्षात्कार (इंटरव्यू) लिया जा सकता है, और उसे मामले के बारे में किसी भी पूछताछ का वास्तव में जवाब देने की आवश्यकता होती है, जब तक कि उसके बयानों में उसे आपराधिक मुकदमा चलाने, जुर्माना या जब्ती के अधीन करने की क्षमता न हो। पुलिस अधिकारी ऐसी टिप्पणियों को लिखित रूप में रखने के लिए ऑडियो-वीडियो प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) के तरीको का भी उपयोग कर सकता है। पुलिस अधिकारी आरोपी को बयानों की प्रतियां उपलब्ध कराएगा। एक जांच के बाद, एक पुलिस अधिकारी को चार्जशीट पेश करने का अधिकार है।

धारा 160 के तहत एक पुलिस अधिकारी को दी गई शक्ति के लिए आवश्यक शर्तें 

धारा 160 के तहत एक पुलिस अधिकारी को दी गई शक्ति के लिए आवश्यक शर्तें हैं:

  1. पुलिस अधिकारी द्वारा सम्मन या नोटिस जारी करने से पहले प्राथमिकी दर्ज करना आवश्यक है।
  2. व्यक्ति वह है जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होता है; तथा
  3. आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत जारी सम्मन में जांच अधिकारी का नाम, शीर्षक और पता के साथ-साथ प्राथमिकी और अपराध की जानकारी शामिल होनी चाहिए।
  4. वह व्यक्ति जांच कर रहे पुलिस अधिकारी के थाने की सीमा के भीतर है या किसी निकटवर्ती पुलिस थाने की सीमा के भीतर है।

क्या आप भारतीय कानूनों के तहत गवाह बनने से इंकार कर सकते हैं?

इससे पहले कि हम इस प्रश्न का विश्लेषण करें, पहले भारतीय संविधान की विभिन्न धाराओं, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम पर एक नजर डालते हैं। सबसे पहले, सी.आर.पी.सी. की धारा 160 के अनुसार, एक पुलिस अधिकारी को जांच के दौरान मामले के तथ्यों से परिचित किसी भी व्यक्ति को बुलाने का अधिकार है, और उन्हें पेश होने के लिए मजबूर किया जाता है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 132 में कहा गया है कि कैसे एक गवाह को उन सवालों का जवाब देने के लिए बनाया जा सकता है जो उसे दोषी ठहरा सकते हैं, इस शर्त के साथ कि अगर अदालत उसे जवाब देने के लिए मजबूर करती है, तो उसे ऐसा करने की आवश्यकता है, लेकिन इस तरह के जबरन आरोप लगाने वाले के खिलाफ अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) शुरू नहीं किया जा सकता है। और अंत में, संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अनुसार, कोई भी अपने खिलाफ गवाही नहीं दे सकता है।

हमारे देश जैसी विरोधात्मक (एडवरसेरियल) व्यवस्था में, उचित संदेह से परे अपराध स्थापित करने के लिए सबूत का बोझ अभियोजन पक्ष के पास है। इसलिए, अभियोजन पक्ष को अतिरिक्त शक्ति की आवश्यकता है। इस वजह से एक गवाह को दूसरे के खिलाफ गवाही देने के लिए मजबूर किया जा सकता है, लेकिन एक गवाह को खुद के खिलाफ मजबूर नहीं किया जा सकता है; इसके बजाय, उसे चुप रहने का अधिकार है।

महत्वपूर्ण न्यायिक घोषणाएँ 

अमनदीप सिंह जौहर बनाम दिल्ली के एनसीटी राज्य और अन्य 

इस मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने एक रिट याचिका पर सुनवाई की जिसमें याचिकाकर्ता ने संहिता की धारा 41A के तहत एक भी नोटिस प्राप्त किए बिना जांच में भाग लेने के लिए बार-बार पुलिस स्टेशन बुलाए जाने की शिकायत की थी। पुलिस ने नोटिस जारी कर उस व्यक्ति को निर्देश दिया जिसके खिलाफ शिकायत की गई है कि उसने संज्ञेय अपराध किया है कि वह उनके सामने पेश हो। भले ही संहिता की धारा 41A उन स्थितियों से संबंधित है जहां संहिता की धारा 41 की उप-धारा (1) के प्रावधानों के तहत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं है, अंतर्निहित (अंडरलाइंग) भ्रम वही रहता है। लोगों के अधिकारों का उल्लंघन तब होता है जब उन्हें धारा 160 के तहत आवश्यक नोटिसों के अभाव में उनकी उपस्थिति की मांगों द्वारा परेशान किया जाता है या गलत तरीके से दिए गए नोटिसों के जवाब में उन्हे परेशान किया जाता है। उपरोक्त फैसले ने पुलिस द्वारा पेश किए गए दस्तावेजों की प्राप्ति को स्वीकार करने में विफल रहने और पुलिस रिपोर्ट में दर्ज करने में विफल रहने की पुलिस की प्रथा के बारे में भी गंभीर चिंता जताई है। उपरोक्त रिट याचिका में, दिल्ली पुलिस को संहिता की धारा 41A और 160 के तहत अधिसूचना (नोटिफिकेशन) जारी करने और सेवा के लिए उचित और उचित नियम स्थापित करने का आदेश दिया गया था।

उच्च न्यायालय ने माना कि इस रिट याचिका ने बुनियादी खामियों को संबोधित किया और पुलिस पूछताछ के अधीन आने वाले सभी लोगों के अधिकारों को सीधे प्रभावित किया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा 41A, 91 के आवेदन के संबंध में दिल्ली पुलिस के लिए सख्त दिशा-निर्देश स्थापित किए, और संहिता के 160, जो लंबे विचार-विमर्श के बाद प्रकृति में अनिवार्य किए गए थे, जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय के विद्वान रजिस्ट्रार जनरल द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट शामिल थी जो बहुत ही महत्वपूर्ण और अमूल्य थी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने आगे दिल्ली पुलिस को अदालत की कार्यवाही का कड़ाई से पालन करने के लिए एक विभागीय परिपत्र (डिपार्टमेंटल सर्कुलर) प्रकाशित करने और जारी करने का आदेश दिया। उपरोक्त निर्णय का दिलचस्प हिस्सा यह है कि न्यायालय ने संहिता की धारा 41A, 91, और 160 के अनुसार भेजे गए नोटिस के लिए एक मॉडल प्रारूप स्थापित किया, और मॉडल प्रारूप स्पष्ट रूप से प्राप्तकर्ताओं को प्राथमिकी/मामला संख्या, जांच की कार्यवाही का अध्ययन करने का निर्देश देता है। इससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि किसी ऐसे व्यक्ति को, जो उपस्थित नहीं है, प्राथमिकी/मामला संख्या की ऐसी कोई सूचना नहीं दी जा सकती है।

नंदिनी सतपथी बनाम दानी (पी.एल.) और अन्य, 1978 

इस मामले में, पुलिस ने अपीलकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 179 के तहत सवालों का जवाब देने में विफल रहने पर शिकायत दर्ज की थी। मजिस्ट्रेट ने आरोपी को अदालत में पेश होने के लिए बुलाया, जिसे अपीलकर्ता ने मना कर दिया, और वह संविधान के अनुच्छेद 226 और सी.आर.पी.सी. की धारा 401 के तहत उच्च न्यायालय गई, जहां उसकी अपील खारिज कर दी गई। परिणामस्वरूप, उसने अनुच्छेद 132(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की। इस मामले में मुख्य चिंता सी.आर.पी.सी. की धारा 161(2) और संविधान  के अनुच्छेद 20 (3) के दायरे का निर्धारण था। न्यायाधीश ने निर्णय दिया कि किसी महिला को थाने में गवाह बुलाना धारा 160(1) का उल्लंघन है और उसकी गवाही को प्रभावित करता है, और वह धारा 161(2) और अनुच्छेद 20(3) गवाह को जांच के स्तर पर आपत्तिजनक सवालों के जवाब देने के लिए मजबूर होने से बचाते हैं। न्यायालय ने यह भी माना कि, अनुच्छेद 20(3) को लागू करने के लिए दलील देने वाले पक्ष पर अपराध का आरोप लगाया जाना चाहिए और यह कि उसे पूछे गए आपत्तिजनक सवालों का जवाब देने के लिए बाध्य किया गया था। यह सुरक्षा मिरांडा नियमों के अनुसार जांच चरण तक भी विस्तारित हुई। अपीलकर्ता को इसलिए निर्देश दिया गया था कि वह किसी भी प्रासंगिक और गैर-आत्म-अभियोगात्मक (सेल्फ इंक्रिमिनेटिंग) प्रश्नों का उत्तर दे। नतीजतन, अभियोजन पक्ष के मामले को खारिज कर दिया गया था।

ललिता कुमारी बनाम यूपी सरकार और अन्य 

इस मामले में, भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि किसी पुलिस अधिकारी के लिए किसी भी संज्ञेय अपराध के होने की सूचना प्राप्त होने के बाद प्रारंभिक जांच करने की कोई गुंजाइश नहीं है, और परिणामस्वरूप, उसे तुरंत प्राथमिकी दर्ज करके आगे बढ़ना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस अधिकारियों को केवल सीमित विवेक प्रदान किया है जहां उन्हें केवल एक प्रारंभिक जांच करने की अनुमति है जो यह निर्धारित करने तक सीमित है कि उन्हें प्राप्त जानकारी से संज्ञेय अपराध का पता चलता है या नहीं। ऐसे मामलों में जहां पुलिस अधिकारी जांच करते हैं, अपराध के किए जाने को सत्यापित (वेरिफाई) करने के लिए किसी को भी जारी किए गए नोटिस को संहिता की धारा 160 के आधार पर पुलिस को दी गई आवश्यकता और शक्तियों से छूट नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि अभी तक प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है।

नवीनतम सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के फैसले

उच्च न्यायालय के फैसले

दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि सी.आर.पी.सी. की धारा 160 के तहत, एक पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को उसके पुलिस स्टेशन की क्षेत्रीय सीमा के बाहर या उसके आस-पास के पुलिस स्टेशन की अधिक से अधिक क्षेत्रीय सीमा के बाहर स्थित किसी व्यक्ति को जाँच पड़ताल के लिए नहीं बुला सकता है। यह फैसला जमशेद आदिल खान और अन्य बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर और अन्य (2022) के अत्यधिक महत्वपूर्ण मामले में किया गया था। पुलिस अधिकारियों को इस प्रावधान के तहत गवाहों की उपस्थिति का अनुरोध करने की शक्ति दी गई है। एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा कि यह “सी.आर.पी.सी. की धारा 160 की उप-धारा (1) के पढ़ने से स्पष्ट है कि, एक पुलिस अधिकारी एक जांच के उद्देश्यों के लिए अपने स्वयं के पुलिस स्टेशन या पड़ोसी पुलिस स्टेशन की सीमा के भीतर रखे गए व्यक्ति की उपस्थिति का अनुरोध कर सकता है और ऐसा कोई नहीं जो निर्दिष्ट क्षेत्रीय सीमाओं के बाहर तैनात है।

दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में एक अन्य फैसले में, कुलविंदर सिंह कोहली बनाम दिल्ली के एनसीटी राज्य और अन्य डब्ल्यूपी (सीआरएल) 611/2022 में, तर्कसंगत अवलोकन किया कि एक पुलिस अधिकारी एक जांच शुरू करने के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत सम्मन या नोटिस जारी कर सकता है, लेकिन ऐसा करने से पहले प्राथमिकी दर्ज करना आवश्यक है। न्यायालय ने कहा कि प्राथमिकी दर्ज किए बिना जांच शुरू नहीं मानी जा सकती है।

ए. शंकर बनाम वी. कुमार और अन्य (2022) में, मद्रास उच्च न्यायालय ने सी.आर.पी.सी. की धारा 91 और 160 के उल्लंघन में एक पक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील को सम्मन जारी करने के लिए पुलिस अधिकारियों को फटकार लगाई। अदालत के अनुसार, आदेश लापरवाही से जारी किया गया था और सम्मन जारी करने से एक वकील की स्थिति खराब होती है। याचिकाकर्ता के वकील को सम्मन भेजने में पुलिस के रवैये और लापरवाही को न्यायालय ने गंभीरता से लिया। याचिकाकर्ता ने अवमानना (कंटेंप्ट) ​​​​याचिका इस आधार पर दायर की कि प्रतिवादी ने अदालत के फैसले की अवज्ञा की थी, जिसमें प्रतिवादी को याचिकाकर्ता के तर्कों पर विचार करने की आवश्यकता थी। अदालत ने उपर्युक्त आदेश सबरी बनाम सहायक पुलिस आयुक्त, मदुरै शहर और अन्य (2018) में उल्लिखित नियमों के अनुसार जारी किया।

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

चरणसिंह बनाम महाराष्ट्र राज्य (2021) में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्राथमिकी से पहले के चरण में खुली जांच के दौरान दिए गए बयानों को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत बयान नहीं माना जा सकता है और मुकदमे के दौरान अभियुक्तों के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे सी.आर.पी.सी. द्वारा आवश्यक जांच के दौरान दर्ज नहीं किया गया। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एमआर शाह की पीठ ने कहा कि इस तरह की टिप्पणी को स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है और अगर इसे इकबालिया माना जाए, तो ही इसे कानून के तहत आत्म-अपराधी और अवैध के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। पीठ ने आगे कहा कि बयान और जांच के दौरान प्राप्त सामग्री का उपयोग केवल किसी भी आवश्यकता को पूरा करने और यह निर्धारित करने के लिए किया जाना चाहिए कि क्या कोई अपराध किया गया है।

निष्कर्ष 

इस तथ्य के बावजूद कि कानून जांच अधिकारी को पूछताछ के लिए किसी भी व्यक्ति को लिखित सम्मन जारी करने की आवश्यकता है। हालाँकि, व्यवहार में, इसका पालन शायद ही कभी किया जाता है। ज्यादातर मामलों में, जांच अधिकारी या थाने का एक सिपाही गवाह को थाने बुलाकर उससे पूछताछ करता है। उसे अक्सर घंटों और कुछ गंभीर मामलों में, उसे दिनों तक इंतजार करने के लिए मजबूर किया जाता है।

विश्वसनीय जानकारी रखने वाले किसी भी व्यक्ति से पूछताछ करने का कानूनी अधिकार पुलिस अधिकारी के पास होता है। यह भी सच है कि ऐसे लोग अपराधों का त्वरित और सटीक संकेत देने के लिए इच्छुक होते हैं। नतीजतन, कुछ अनुनय (पर्सुएशन) और वादे की आवश्यकता हो सकती है। इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस उनका शारीरिक शोषण करने के लिए स्वतंत्र है। जांच की प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिए, पूछताछ प्रभावी होनी चाहिए। बल प्रयोग अमानवीय और अवैध है। पुलिस अधिकारी कानून के संरक्षक हैं; यदि वे अपराध करते हैं, तो समाज में कोई भी सुरक्षित नहीं है।

कुछ ने सवाल किया है कि क्या किसी गवाह को पूछताछ के लिए पुलिस स्टेशन बुलाना जरूरी है। साक्षी अभियुक्त नहीं है; उसे गवाही देने के लिए पुलिस स्टेशन जाने की जरूरत नहीं है। बहरहाल, एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में, यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह पुलिस को उन तथ्यों और परिस्थितियों के बारे में जानकारी प्रदान करे जो उसकी जानकारी में हैं।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू) 

क्या सी.आर.पी.सी. की धारा 160 के तहत जारी नोटिस को रद्द किया जा सकता है?

पुलिस के पास आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत नोटिस जारी करने का पूरा अधिकार है, और धारा 160 के तहत जारी नोटिस को अदालत द्वारा रद्द नहीं किया जा सकता है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत नोटिस देने के बाद अदालत को जांच में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं है।

क्या पुलिस अधिकारी सी.आर.पी.सी. की धारा 160 के तहत किसी बाहरी गवाह को सम्मन कर सकता है?

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के अनुसार, एक पुलिस अधिकारी किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं बुला सकता है जो पूछताछ के उद्देश्यों के लिए अपने पुलिस स्टेशन के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) से बाहर स्थित है, या अधिक से अधिक, अपने निकटवर्ती पुलिस स्टेशन के अधिकार क्षेत्र मे स्थित है।

क्या किसी महिला को थाने में बुलाया जा सकता है?

धारा 160 महिलाओं को पूछताछ के लिए थाने बुलाने पर रोक लगाती है। इस नियम के अनुसार, महिलाओं को यह अधिकार है कि वे पूछताछ के लिए पुलिस थाने में व्यक्तिगत रूप से पेश होने से इनकार कर सकती हैं। पुलिस किसी महिला से उसके घर पर महिला कांस्टेबल और परिवार के सदस्यों या दोस्तों के सामने पूछताछ कर सकती है।

क्या पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने से पहले आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत नोटिस जारी कर सकती है?

पुलिस प्राथमिकी दर्ज होने के बाद ही धारा 160 सी.आर.पी.सी. के तहत गवाह की उपस्थिति की आवश्यकता के लिए नोटिस जारी कर सकती है और मामला दर्ज होने से पहले नहीं।

सी.आर.पी.सी. की धारा 160 और धारा 41 (A) के बीच अंतर?

सी.आर.पी.सी. की धारा 41 (A) के तहत नोटिस गिरफ्तारी में हाजिरी के लिए जारी किया जाता है, लेकिन सी.आर.पी.सी. की धारा 160 के तहत नोटिस एक गवाह को जारी किया जाता है। धारा 41 की उप-धारा (1) के प्रावधानों के तहत, पुलिस अधिकारी को उस व्यक्ति को निर्देश देने के लिए एक नोटिस जारी करना आवश्यक है, जिसके खिलाफ एक उचित शिकायत की गई है, विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई है, या एक उचित संदेह मौजूद है कि उसने अपराध किया है। एक संज्ञेय अपराध, उसके सामने या ऐसे अन्य स्थान पर पेश होने के लिए जो नोटिस में निर्दिष्ट किया जा सकता है, उन सभी मामलों में जहां किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं है।

संदर्भ 

 

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