यह लेख Soumya Lenka द्वारा लिखा गया है । यह लेख पृष्ठभूमि, प्रासंगिक तथ्यों, दोनों पक्षों की दलीलों और फैसला सुनाते समय अदालत के तर्क से संबंधित है। यह लेख हिंदू दत्तक ग्रहण (एडॉप्शन) और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 8 के संबंध में बृजेन्द्र सिंह के दत्तक ग्रहण की वैधता से संबंधित है। इसके अलावा, यह मामला मध्य प्रदेश कृषि खातों (होल्डिंग्स) की अधिकतम सीमा (सीलिंग लिमिट) अधिनियम, 1960 की धारा 10 के अनुरूप कृषि भूमि का एक टुकड़ा रखने के लिए कानूनी रूप से दत्तक पुत्र के रूप में उनके अधिकार से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Ayushi Shukla के द्वारा किया गया है।
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परिचय
यह मामला विशेष रूप से हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 से संबंधित है। हिंदू कानून के प्रावधानों के सख्त विश्लेषण के बाद, यह स्पष्ट हो जाता है कि तलाकशुदा हिंदू महिला और तलाकशुदा महिला की तरह जीवन जीने वाली महिला के बीच बहुत अंतर है। तलाकशुदा महिला की तरह जीवन जीने वाली महिला, हालांकि दयनीय और परित्यक्त (डिजर्टेड) अवस्था में रह रही है, लेकिन कानून की नज़र में उसे तलाकशुदा महिला नहीं माना जा सकता है, और तलाकशुदा महिला, जिसका विवाह पूरी तरह से टूट चुका है, उसे हिंदू विवाह अधिनियम , 1955 के तहत निर्धारित हिंदू वैवाहिक न्यायशास्त्र के उक्त ढांचे के तहत ही तलाकशुदा माना जाता है। यह मामला 2001 में (सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 100 के तहत दायर) एक सिविल अपील था और इसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2008 में समाप्त किया था। यह मामला (हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 8(c) के संबंध में) एक विवाहित महिला द्वारा दत्तक ग्रहण की वैधता के लिए एक मिसाल के रूप में कार्य करता है, जो वैवाहिक संघ से बाहर रहती है, ठीक उसी तरह जैसे एक तलाकशुदा महिला अपने पति द्वारा त्याग दिए जाने के बाद होती है। यह फैसला मध्य प्रदेश कृषि खातों की अधिकतम सीमा अधिनियम, 1960 से संबंधित भूमि विवाद के संबंध में दत्तक ग्रहण किए गए बच्चे के अधिकारों की गहराई में जाता है। यह मिसाल एक कानूनी दत्तक ग्रहण और कानूनी रूप से निष्पादित वसीयत के बीच संभावित सहसंबंध का उत्तर देने का प्रयास करती है और क्या दत्तक ग्रहण की वैधता या वैधानिकता का किसी महिला द्वारा दत्तक ग्रहण किए गए बच्चे के पक्ष में निष्पादित वसीयत की वैधता पर कोई असर पड़ता है।
मामले का विवरण
- मामले का नाम : बृजेन्द्र सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य
- याचिकाकर्ता : बृजेन्द्र सिंह
- प्रतिवादी : मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य
- मामले का प्रकार : सिविल अपील (सीपीसी, 1908 की धारा 100 के अंतर्गत दूसरी अपील)
- न्यायालय : भारत का सर्वोच्च न्यायालय
- पीठ : माननीय न्यायाधीश डॉ. अरिजीत पसायत और पी. सदाशिवम
- निर्णय की तिथि : 11.01.2008
- उद्धरण : ए आई आर 2008 एस सी 1056
मामले के तथ्य
इस मामले की पृष्ठभूमि 1948 में स्थापित की गई थी। 1948 में किसी समय, मिश्री बाई की शादी मध्य प्रदेश राज्य में स्थित कोलिंजा नामक गाँव में पदम सिंह नामक व्यक्ति से हुई थी। महिला अपंग हो गई थी, क्योंकि उसके पैर नहीं थे। उसकी शादी जबरन की गई थी, क्योंकि उसके गाँव में, एक कुंवारी लड़की एक निश्चित उम्र प्राप्त करने के बाद अविवाहित नहीं रह सकती थी। दुर्भाग्य से, उनकी शादी के बाद, उनके पति पदम सिंह ने उन्हें छोड़ दिया, और उसके बाद, वह अपने माता-पिता के घर लौट आईं और उनके साथ रहीं।
उसकी दुर्दशा को देखते हुए, उसके माता-पिता ने अपने निधन के बाद उसके खर्च और भरण-पोषण के लिए लगभग 32 एकड़ कृषि भूमि का एक बड़ा टुकड़ा उसके नाम पर कर दिया। रिकॉर्डों के अनुसार 1970 में मिश्री बाई ने बृजेन्द्र सिंह नामक एक पुत्र को दत्तक ग्रहण किया। 1974 में पदम सिंह की मृत्यु हो गई। दुर्भाग्य से, घटनाओं के एक बड़े मोड़ में, उसकी भूमि खातों और श्री ब्रजेद्र सिंह जो कि आरोपित मामले में याचिकाकर्ता हैं, को दत्तक ग्रहण के संबंध में एक मुद्दा उठ खड़ा हुआ। अनुविभागीय अधिकारी, विदिशा ने मध्य प्रदेश कृषि खातों की अधिकतम सीमा अधिनियम, 1960 की धारा 10 के तहत मिश्री बाई को सूचना पत्र दिया। यह आरोप लगाया गया था कि मिश्री बाई के पास उसके माता-पिता द्वारा उसे दी गई भूमि पर आरोपित अधिनियम के अनुसार निर्धारित सीमा से अधिक खाते है।
सूचना पत्र में लगाए गए आरोपों का जवाब देते हुए मिश्री बाई ने जवाब दाखिल कर कहा कि बृजेन्द्र सिंह उनके कानूनी रूप से दत्तक पुत्र हैं और चूंकि वे दोनों संयुक्त परिवार हैं, इसलिए वे 54 एकड़ जमीन रखने के हकदार हैं और इसलिए वे मध्य प्रदेश कृषि खातों की अधिकतम सीमा अधिनियम, 1960 की धारा 10 के तहत 32 एकड़ कृषि खातें रखने की कानूनी रूप से हकदार हैं। 28 दिसंबर, 1981 को अनुविभागीय अधिकारी ने उनके जवाब पर सूचना पत्र जारी किया, जिसमें उनके इस तर्क पर विश्वास नहीं किया गया कि बृजेन्द्र सिंह उनके कानूनी रूप से दत्तक पुत्र हैं, इस आधार पर कि शैक्षणिक संस्थाओं के रजिस्टर में दत्तक पिता के नाम का कोई उल्लेख नहीं है। इसलिए कानून के अनुसार कोई संयुक्त परिवार नहीं था और परिणामस्वरूप उनका यह तर्क कि संयुक्त परिवार के रूप में उन्हें 54 एकड़ कृषि खाता रखने का अधिकार है, इसमें कानून की कोई मंजूरी नहीं थी। सूचना पत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि उन्होंने मध्य प्रदेश कृषि खातों की अधिकतम सीमा अधिनियम, 1960 के प्रावधानों का उल्लंघन किया है, और उन्हें अतिरिक्त भूमि खाली करनी होगी।
इस सूचना पत्र से दुखी होकर 10 जनवरी 1982 को मिश्री बाई ने सिविल मुकदमा दायर करके विचारण न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। सिविल मुकदमे में उन्होंने घोषणा की कि बृजेन्द्र सिंह उनका दत्तक पुत्र है। 19 जुलाई 1989 को उन्होंने अपने दत्तक पुत्र बृजेन्द्र सिंह के नाम पर एक पंजीकृत वसीयत बनाई, जिसमें उन्होंने अपनी सारी संपत्ति उसके नाम कर दी। उन्होंने 1989 में अंतिम सांस ली। 3 सितंबर 1993 को विचारण न्यायालय, जिसमें घोषणा मुकदमा दायर किया गया था, ने मिश्री बाई के पक्ष में फैसला सुनाया और बृजेन्द्र सिंह को उनका कानूनी रूप से दत्तक पुत्र माना।
राज्य ने विचारण न्यायालय के फैसले को चुनौती दी थी। प्रथम अपीलीय अदालत ने विद्वान विचारण न्यायालय के फैसले की पुष्टि की और बृजेन्द्र सिंह को दत्तक पुत्र माना। अपीलीय अदालत का दृढ़ मत था कि मिश्री बाई ने बृजेन्द्र को अपने बेटे के रूप में दत्तक ग्रहण किया था और वसीयत में उसने अपनी सारी संपत्ति उसके नाम कर दी थी। इस फैसले से व्यथित राज्य ने इसे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दी और तर्क दिया कि दत्तक ग्रहण में कानूनी पवित्रता का अभाव है क्योंकि यह मिश्री बाई के पति की सहमति के बिना किया गया था, जबकि दत्तक ग्रहण के समय उनका विवाह मौजूद था। उच्च न्यायालय ने राज्य की अपील को स्वीकार करते हुए कहा कि एक हिंदू महिला ने फिर भी एक बच्चे को दत्तक ग्रहण किया है, लेकिन साथ ही, उसे हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 8 (c) में उल्लिखित शर्तों का पालन करना चाहिए, ताकि कानून की दृष्टि से इस तरह के दत्तक ग्रहण को वैध बनाया जा सके। न्यायालय ने माना कि तलाकशुदा महिला और एक ऐसी महिला जो अपनी शादी के बावजूद तलाकशुदा महिला के रूप में रह रही है के बीच बहुत बड़ा अंतर है।
उच्च न्यायालय ने माना कि विचारण न्यायालय और प्रथम अपीलीय न्यायालय ने यह मानने में गलती की कि मिश्री बाई एक तलाकशुदा महिला थी और जब उसने श्री बृजेन्द्र सिंह को दत्तक ग्रहण किया था, तब उसका विवाह चल रहा था। इसलिए, उच्च न्यायालय ने माना कि मिश्री बाई द्वारा दत्तक ग्रहणअवैध था। यह माना गया कि, चूंकि मिश्री बाई और पदम सिंह विवाह के बाद अलग-अलग रह रहे थे, इसलिए जब उसने बृजेन्द्र को दत्तक ग्रहण किया, तब भी विवाह चल रहा था। यह स्पष्ट रूप से माना जाता है कि हिंदू विवाहित महिला हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 8 (c) के अनुसार दत्तक ग्रहण नहीं कर सकती है, और इसलिए कानून की नज़र में ऐसे दत्तक ग्रहण की कोई कानूनी पवित्रता नहीं है। इसलिए न्यायालय ने मिश्री बाई के घोषणा के मुकदमे को खारिज कर दिया और माना कि बृजेन्द्र सिंह मिश्री बाई का कानूनी रूप से दत्तक पुत्र नहीं था और बृजेन्द्र को संपत्ति का वसीयतनामा कोई कानूनी आधार नहीं रखता है और पूरी तरह से अमान्य है। इससे व्यथित होकर, मिश्री बाई के दत्तक पुत्र बृजेन्द्र सिंह ने उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक सिविल अपील दायर की।
उठाए गए मुद्दे
- क्या श्री बृजेन्द्र सिंह (याचिकाकर्ता) श्रीमती मिश्री बाई के कानूनी रूप से दत्तक पुत्र हैं?
- क्या मिश्री बाई द्वारा याचिकाकर्ता को दी गई उक्त संपत्ति की वसीयत वैध है?
पक्षों के तर्क
याचिकाकर्ता
अपीलकर्ताओ की ओर से उपस्थित विद्वान वकील ने प्रस्तुत किया कि मध्य प्रदेश के माननीय उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित करने में गलती की कि मिश्री बाई की शादी याचिकाकर्ता श्री बृजेन्द्र सिंह को दत्तक ग्रहण के दौरान बनी रही। यह तर्क दिया गया था कि जहां तक रिकॉर्डों का संबंध है, मिश्री बाई और पदम सिंह के बीच विवाह के बाद विवाह की कोई समाप्ति नहीं हुई थी, क्योंकि दोनों पक्ष लंबे समय से अलग रह रहे थे। इसलिए, विचारण न्यायालय और पहली अपीलीय अदालत द्वारा अच्छी तरह से कल्पना की गई थी और यह एक निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया कि इन परिस्थितियों के आधार पर मिश्री बाई और पदम सिंह के बीच विवाह कानूनी रूप से समाप्त हो गया था, वकीलों ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने इस तरह के विवाह को कानूनी रूप से वैध मानते हुए गलती की क्योंकि विवाह में कोई कानूनी पवित्रता नहीं थी। जॉली दास (श्रीमती) उर्फ मौलिक बनाम तपन रंजन दास (1994) के ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भारी निर्भरता डाली गई और यह प्रस्तुत किया गया था कि दोनों पक्षों के बीच विवाह एक बनावटी विवाह था। चूँकि कुछ भी जो एक मनमानी कार्रवाई से उत्पन्न होता है, अपने आप में मनमाना होता है, वही आक्षेपित मामले के लिए लागू होता है। इसलिए, यह प्रस्तुत किया गया कि उच्च न्यायालय का यह निर्णय कि श्री बृजेन्द्र सिंह मिश्री बाई का कानूनी रूप से दत्तक पुत्र नहीं है, अदालत के पूर्व विचार पर आधारित है कि दत्तक ग्रहण के समय पदम सिंह के साथ उनकी शादी बनी रही थी। इसलिए, इस तरह का अवलोकन एक गुमराह विचार पर खड़ा है और इसलिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे दरकिनार कर दिया जाना चाहिए।
इसके अलावा, यह प्रस्तुत किया गया कि विद्वान विचारण न्यायालय और प्रथम अपीलीय अदालत ने मामले की सामग्री, तथ्यों और परिस्थितियों का सख्ती से मूल्यांकन किया और उचित रूप से कहा कि मिश्री बाई एक तलाकशुदा महिला की तरह रह रही थीं। इसलिए, उसे कानून और बड़े पैमाने पर समाज की नजर में तलाकशुदा महिला माना जाना चाहिए। यह अभिनिर्धारित किया गया था कि वह हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम, 1956 की धारा 8 के प्रावधानों द्वारा सख्ती से निर्देशित नहीं होगी, जिसमें यह प्रावधान है कि एक विवाहित महिला बच्चे को दत्तक ग्रहण नहीं कर सकती है। संक्षेप में कहें तो कानून की नजर में मिश्री बाई को तलाकशुदा महिला माना जाना था और उन्हें श्री बृजेन्द्र सिंह को दत्तक ग्रहण का अधिकार था। याचिकाकर्ता ने आगे प्रस्तुत किया कि विचारण न्यायालय और पहली अपीलीय अदालत ने श्री बृजेन्द्र सिंह को मिश्री बाई की कानूनी रूप से दत्तक ग्रहण की हुई संतान के रूप में अभिनिर्धारित करने में सही थे और वे एक संयुक्त परिवार बनाते हैं और कानूनी रूप से विवादित भूमि के कब्जे के हकदार हैं।
प्रतिवादी
प्रतिवादियों की ओर से उपस्थित विद्वान अधिवक्ताओं ने मध्य प्रदेश के विद्वान उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण से सहमति व्यक्त की और यह प्रस्तुत किया गया कि विद्वान द्वितीय अपीलीय न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निर्णय को पलटने में कोई गलती नहीं की है, और इसलिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय को बरकरार रखा जाना चाहिए। यह तर्क दिया गया कि विद्वान विचारण न्यायालय और प्रथम अपीलीय न्यायालय ने मिश्री बाई को तलाकशुदा महिला मानकर न्यायिक सुदृढ़ता (साउंडनेस) का प्रयोग नहीं किया है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि जब उसने श्री बृजेन्द्र सिंह को अपने बेटे के रूप में दत्तक ग्रहण किया था, तब उसका विवाह चल रहा था, और हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 8 के तहत निर्धारित कानून के अनुसार, वह एक बच्चे को दत्तक ग्रहण की हकदार नहीं है। इसलिए, उक्त दत्तक ग्रहण में कोई कानूनी पवित्रता नहीं है।
विवादित भूमि पर आते हुए, प्रतिवादियों (राज्य की ओर से पेश) ने माना कि अपीलकर्ताओं का यह तर्क कि श्री बृजेन्द्र सिंह और मिश्री बाई एक संयुक्त परिवार हैं, कानूनी रूप से सही तर्क नहीं है। यह भी कहा गया कि ऐसा कोई आधार नहीं है जिसके आधार पर वे किसी भी तरह से विवादित भूमि पर अधिकार रखने के हकदार हैं। ऐसा दावा त्रुटिपूर्ण है। यह प्रस्तुत किया गया कि, चूंकि दत्तक ग्रहणही प्रथम दृष्टया अमान्य है, इसलिए श्री बृजेन्द्र किसी भी तरह से मिश्री बाई के कानूनी पुत्र नहीं हैं। कोई संयुक्त परिवार नहीं है, और इसलिए, मिश्री बाई और बृजेन्द्र सिंह को विवादित भूमि पर अधिकार नहीं है। इसलिए, मध्य प्रदेश राज्य के पास मध्य प्रदेश कृषि खातों की अधिकतम सीमा अधिनियम, 1960 के अनुसार अतिरिक्त भूमि को हटाने के लिए उचित निर्देश जारी करने का अधिकार है।
बृजेन्द्र सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य (2008) में शामिल कानून
हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 6
हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 6 में दत्तक ग्रहण को कानूनी रूप से वैध बनाने के लिए आवश्यक शर्तें निर्धारित की गई हैं। इसमें प्रावधान है कि दत्तक ग्रहण को कानूनी मंजूरी मिलने के लिए निम्नलिखित शर्तें पूरी होनी चाहिए:
- खंड (i) में प्रावधान है कि दत्तक ग्रहण करने वाले व्यक्ति में दत्तक ग्रहण की क्षमता और अधिकार होना चाहिए।
- खंड (ii) में यह प्रावधान है कि जो व्यक्ति दत्तक ग्रहण कर रहा है, उसके पास ऐसे बच्चे या व्यक्ति को दत्तक ग्रहण करने का अधिकार और क्षमता भी होनी चाहिए जिसे दत्तक ग्रहण किया जा रहा है।
- खंड (iii) में प्रावधान है कि जिस बच्चे या व्यक्ति को दत्तक ग्रहण किया जा रहा है, वह कानूनी रूप से दत्तक ग्रहण के लिए योग्य होना चाहिए।
हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 8
हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 8, हिंदू महिला के बच्चे को दत्तक ग्रहण के अधिकार से संबंधित है। विवादित प्रावधान में यह माना गया है कि हिंदू महिला तीन शर्तों के तहत बच्चे को दत्तक ग्रहण की हकदार है।
- खण्ड (a) में प्रावधान है कि यदि वह स्वस्थ मानसिक स्थिति में है तो वह दत्तक ग्रहण कर सकती है।
- खंड (b) में प्रावधान है कि यदि वह भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 के अंतर्गत नाबालिग नहीं है, तो वह किसी बच्चे को दत्तक ग्रहण कर सकती है।
- खण्ड (c) में यह प्रावधान है कि यदि वह विवाहित नहीं है तो वह बच्चे को दत्तक ग्रहण कर सकती है, या यदि विवाहित है तो उसका विवाह विघटित हो चुका होगा (2010 के संशोधन से पहले की स्थिति में) तो वह बच्चा दत्तक ग्रहण कर सकती हैं।
- खण्ड (d) में आगे कहा गया है कि यदि उसके पति की मृत्यु हो गई है, या उसने भौतिक संसार को पूरी तरह त्याग दिया है और वह तपस्वी बन गया है, या वह हिंदू धार्मिक समुदाय का सदस्य नहीं रह गया है या जिसके पति को सक्षम न्यायालय द्वारा विकृत मस्तिष्क वाला घोषित किया गया है, तो वह बच्चे को दत्तक ग्रहण कर सकती है।
मध्य प्रदेश कृषि खातों की अधिकतम सीमा अधिनियम, 1960 की धारा 10
इस प्रावधान में सूचना संग्रह की बात की गई है। प्रावधान के खंड 1 में दिया गया है कि यदि अधिकतम सीमा से अधिक भूमि रखने वाला कोई व्यक्ति अधिनियम की धारा 9 के तहत रिटर्न जमा करने में विफल रहता है, तो सक्षम प्राधिकारी कार्रवाई कर सकता है। इसमें यह प्रावधान है कि सक्षम प्राधिकारी, सूचना द्वारा, ऐसे व्यक्ति से उस सूचना में निर्दिष्ट समय के भीतर रिटर्न प्रस्तुत करने की अपेक्षा कर सकता है। इसके अलावा, ऐसा करने में विफल रहने पर, सक्षम प्राधिकारी को निर्धारित तरीके से आवश्यक जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है।
मामले में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय
जॉली दास (श्रीमती) उर्फ मौलिक बनाम तपन रंजन दास (1994)
आरोपित मामले में याचिकाकर्ताओं ने इस ऐतिहासिक मिसाल का सहारा लेकर यह साबित किया है कि मिश्री बाई की शादी एक ‘फर्जी शादी’ थी। फैसले में इस बारे में बात की गई है कि फर्जी शादी क्या होती है। यह मिसाल एक ऐसी शादी से जुड़ी है जिसमें 19 साल की महिला की शादी चालीस साल से ज्यादा उम्र के व्यक्ति से हुई थी। उक्त मामले में अदालत ने माना कि चूंकि प्रतिवादी लड़की की सहमति धोखाधड़ी से हासिल की गई थी, इसलिए विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा 25(iii) के तहत शादी को शून्य घोषित किया जाना चाहिए। इसके आधार पर आरोपित मामले में याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि एक समान मुद्दा मौजूद है, क्योंकि मिश्री बाई का कभी शादी करने का इरादा नहीं था और उन्हें एक ऐसे व्यक्ति से शादी करने के लिए मजबूर किया गया, जिसने शादी के तुरंत बाद उन्हें छोड़ दिया क्योंकि वह एक अपंग महिला थीं और यह एक फर्जी शादी है।
वी.टी.एस चन्द्रशेखर मुदलियार बनाम कुलंदावेलु मुदलियार (1962)
इस मामले का सहारा अदालत ने इस मुद्दे पर अपना फैसला सुनाते समय लिया कि क्या बृजेन्द्र सिंह मिश्री बाई के कानूनी रूप से दत्तक पुत्र हैं या नहीं। विवादित मामला हिंदू समाज में दत्तक ग्रहण के उद्देश्य और प्रयोजन के इर्द-गिर्द घूमता है। फैसले में कहा गया है कि हिंदू समाज में दत्तक ग्रहणमुख्य रूप से आध्यात्मिक कारणों पर आधारित होता है। वंशानुगत लाभ हमेशा एक द्वितीयक उद्देश्य होता है। इसके आधार पर, अदालत ने माना कि दत्तक ग्रहण की कानूनी पवित्रता को मुख्य रूप से आध्यात्मिक कारणों के आधार पर ही आंका जाना चाहिए न कि अन्य द्वितीयक उद्देश्यों के आधार पर।
हेम सिंह बनाम हरनाम सिंह (1954)
दत्तक ग्रहण के सही उद्देश्य का पता लगाने के लिए पीठ ने इस मामले पर भी भरोसा किया था। यहाँ भी, अदालत ने पाया कि मिसाल इस तथ्य पर काफी स्पष्ट और साफ़ है कि हिंदू समाज में दत्तक ग्रहण के मामलों में, इसकी वैधता का न्याय करने के लिए प्राथमिक मुद्दा किसी अन्य कारण के बजाय इसके पीछे के आध्यात्मिक कारणों का आकलन किया जाना है।
अमरेन्द्र मान सिंह भ्रमरबार बनाम सनातन सिंह (1933)
प्रिवी काउंसिल के इस प्रासंगिक मामले पर भी भरोसा किया गया और बृजेन्द्र सिंह के विवादित मामले में फैसला सुनाते समय पीठ ने इस पर जोर दिया। इस मामले में, यह माना गया कि हिंदू धर्म के भीतर, एक बेटे को दत्तक ग्रहण का प्राथमिक उद्देश्य उन आवश्यक संस्कारों को करने की आध्यात्मिक प्रथा से जुड़ा है, जिन्हें एक वारिस अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद करने के लिए बाध्य होता है। इसलिए, अदालत ने हिंदुओं में दत्तक ग्रहण की वैधता पर प्रिवी काउंसिल के इस पहले फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि मिश्री बाई के दत्तक ग्रहण की वैधता निर्धारित करने के लिए, एक प्रमुख कारक यह निर्धारित करना है कि क्या मिश्री बाई ने बृजेन्द्र सिंह को इसलिए दत्तक ग्रहण किया क्योंकि उनके पति ने शादी के तुरंत बाद उन्हें छोड़ दिया था और उनके पास उनका अंतिम संस्कार करने के लिए कोई वारिस नहीं था या फिर उक्त दत्तक ग्रहण के पीछे कोई और कारण था।
किशोरी लाल बनाम चलतीबाई (1958)
इस मामले में, यह माना गया कि कभी-कभी दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया नापाक उद्देश्यों के लिए की जाती है, जिससे मूल उत्तराधिकारियों और करीबी रिश्तेदारों को संपत्ति के अपने हिस्से से वंचित किया जाता है, क्योंकि कुछ पारिवारिक विवाद या सदस्यों के बीच व्यक्तिगत तनाव होता है। इस निर्णय के आधार पर, माननीय न्यायालय की पीठ ने माना कि बृजेन्द्र सिंह के दत्तक ग्रहण की वैधता का पता लगाने के लिए, इस तरह के दत्तक ग्रहण के पीछे के उद्देश्य की गहराई से जांच करना उचित है।
मामले का फैसला
माननीय सर्वोच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से माना कि हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 5 , धारा 6, धारा 7 , धारा 8 के प्रावधानों को धारा 11 के साथ पढ़ने पर एक हिंदू विवाहित महिला बच्चे को दत्तक ग्रहण नहीं कर सकती है, और इसलिए श्री ब्रजेन्द्र सिंह मिश्री बाई के कानूनी रूप से दत्तक पुत्र नहीं हैं। विवादित भूमि की बात करें तो न्यायालय ने माना कि राज्य को मध्य प्रदेश कृषि खातों की अधिकतम सीमा अधिनियम, 1960 के अनुसार अतिरिक्त भूमि को हटा देना चाहिए। इसके अलावा न्यायालय ने माना कि वसीयत का इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि श्री बृजेन्द्र मिश्री बाई के कानूनी रूप से दत्तक पुत्र हैं या नहीं। यह माना गया कि वसीयत वैध है और श्री बृजेन्द्र अतिरिक्त भूमि को छोड़कर मिश्री बाई की संपत्ति के हकदार हैं।
इस निर्णय के पीछे तर्क
यह निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया था और इसमें विवाहित महिला के दत्तक ग्रहण के अधिकार, अवैध दत्तक ग्रहण के मामले में वसीयत की वैधता के संबंध में प्रासंगिक अवधारणाओं को स्पष्ट किया गया था, तथा दिखावटी विवाह की अवधारणा पर भी प्रकाश डाला गया था।
क्या एक विवाहित महिला हिंदू कानून के तहत बच्चा दत्तक ग्रहण कर सकती है
न्यायालय ने सर्वसम्मति से माना कि मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह मान कर कोई गलती नहीं की है कि बृजेन्द्र सिंह मिश्री बाई का कानूनी रूप से दत्तक ग्रहण किया हुआ पुत्र नहीं है। हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 5, 6, 7 और सबसे महत्वपूर्ण, 8 (c) के सख्त विश्लेषण के बाद, न्यायालय का मानना था कि कानून की भाषा बिल्कुल स्पष्ट है और कोई भी अस्पष्ट व्याख्या नहीं की जा सकती है कि एक विवाहित महिला जो तलाकशुदा महिला की तरह रह रही है, उसे बच्चा दत्तक ग्रहण का अधिकार है। न्यायालय का मानना था कि एक विवाहित महिला विवाह के अस्तित्व में रहते हुए दत्तक ग्रहण नहीं कर सकती है और इस तरह के अस्तित्व के दौरान उसके द्वारा किया गया कोई भी दत्तक ग्रहण का कार्य कानूनी रूप से शून्य है और इसकी कोई कानूनी पवित्रता नहीं है।
क्या मिश्री बाई और पदम सिंह की शादी एक दिखावा थी?
पीठ ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील का खंडन किया कि मिश्री बाई और उनके पति पदम सिंह के बीच विवाह एक दिखावा है। इसने माना कि जॉली दास (श्रीमती) उर्फ मौलिक बनाम तपन रंजन दास (1994) का मामला, जिस पर याचिकाकर्ताओं ने भरोसा किया था, एक अलग तथ्य पर आधारित है, और वर्तमान मामले में इसका कोई अनुप्रयोग नहीं है। न्यायालय ने माना कि मिश्री बाई को उसके पति पदम सिंह द्वारा त्याग दिए जाने के बावजूद, जब उसने बृजेन्द्र सिंह को दत्तक ग्रहण किया तो विवाह का कोई विघटन नहीं हुआ। इसलिए, माननीय न्यायालय ने माना कि वह एक विवाहित महिला होने के नाते बृजेन्द्र सिंह को दत्तक ग्रहण की हकदार नहीं थी, और इस प्रकार दत्तक ग्रहण में कानूनी पवित्रता का अभाव है।
क्या मिश्री बाई और ब्रजेन्द्र सिंह एक संयुक्त परिवार बनाते हैं?
न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं की दलील को खारिज करते हुए कहा कि मिश्री बाई और बृजेन्द्र सिंह संयुक्त परिवार नहीं बनाते हैं, क्योंकि बृजेन्द्र सिंह मिश्री बाई के कानूनी रूप से दत्तक पुत्र नहीं हैं। इसलिए, यह दलील कि वे अधिकतम 54 एकड़ कृषि भूमि रखने के हकदार हैं, किसी भी तरह से निराधार है।
क्या दत्तक ग्रहण की वैधता का वसीयत की वैधता से कोई संबंध है
वसीयत की वैधता के सवाल पर फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने कहा कि वसीयतनामा की वैधता का दत्तक ग्रहण की वैधता से कोई लेना-देना नहीं है। न्यायालय ने कहा कि मिश्री बाई ने बृजेन्द्र सिंह के नाम पर जो संपत्ति की वसीयत की है, वह कानून की नजर में वैध है। इसलिए, वह वसीयत की गई संपत्ति का आनंद लेने का हकदार है।
क्या बृजेन्द्र सिंह अतिरिक्त जमीन के हकदार हैं?
अतिरिक्त भूमि पर राज्य के अधिकार के प्रश्न पर निर्णय देते हुए न्यायालय ने कहा कि बृजेन्द्र सिंह, मध्य प्रदेश कृषि खातों की अधिकतम सीमा अधिनियम, 1960 के तहत निर्धारित सीमा से अधिक अतिरिक्त कृषि खातों का उपभोग करने के हकदार नहीं हैं, और इसलिए राज्य को अतिरिक्त कृषि खातों के निपटान के लिए कोई भी निर्देश जिसे वह उचित समझे जारी करने का पूर्ण विवेकाधिकार है।
ओबिटर डिक्टा
इसके अलावा, अदालत ने सहानुभूतिपूर्ण लहजे में कहा कि हालांकि बृजेन्द्र सिंह मिश्री बाई का कानूनी रूप से दत्तक पुत्र नहीं है, लेकिन वह अपंग महिला, यानी मिश्री बाई का एकमात्र सहारा रहा है, और इसलिए अदालत ने अपीलकर्ता को छह महीने की अवधि के लिए भूमि पर कब्जा करने की अनुमति दी, जिसके दौरान सरकार मामले में कोई उचित निर्णय ले सकती है।
मामले का विश्लेषण
यह फैसला विवाहित महिला के दत्तक अधिकारों के लिए एक मिसाल के रूप में कार्य करता है और यह कानून तय करता है कि विवाहित महिला किसी भी परिस्थिति में बच्चे को दत्तक ग्रहण की हकदार नहीं है, और इस तरह दत्तक ग्रहण किए गए बच्चे को उसका वारिस कहलाने का कोई कानूनी आधार नहीं है। यह ऐतिहासिक निर्णय हिंदू कानून की दृष्टि में तलाकशुदा महिला वास्तव में कौन है, इसके बीच की अस्पष्टता को दूर करता है। यह मामला तय करता है कि एक महिला जिसका विवाह चल रहा है, लेकिन अभी भी तलाकशुदा के रूप में रह रही है, वह तलाकशुदा महिला नहीं है। इसके अलावा, यह मामला वसीयतनामा निपटान की वैधता के संबंध में कानून को स्पष्ट करता है। न्यायालय ने सर्वसम्मति से माना कि वसीयत की वैधता का किसी के दत्तक ग्रहण की कानूनी वैधता से कोई लेना-देना नहीं है, और वास्तव में, कोई भी व्यक्ति अपनी संपत्ति को वसीयत में किसी भी व्यक्ति को बेच सकता है, जरूरी नहीं कि वह उसका कोई रिश्तेदार हो।
निष्कर्ष
न्यायालय ने अपने फैसले में यह स्पष्ट कर दिया कि किसी भी परिस्थिति में विवाहित महिला को दत्तक ग्रहण का अधिकार नहीं है। इस फैसले से एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के प्रावधान थोड़े रूढ़िवादी हैं और इन्हें बदला जाना चाहिए, जिससे विवाहित महिला को अपने पति की सहमति से पहले बच्चा दत्तक ग्रहण का रास्ता साफ हो जाएगा। यह निश्चित रूप से संवैधानिक सिद्धांत को आगे बढ़ाएगा और व्यापक अर्थों में लैंगिक समानता और न्याय का वादा करेगा। ऐतिहासिक फैसला इस बात पर जोर देता है कि भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में कानून का शासन सर्वोच्च है और यह भारतीय न्यायपालिका में विश्वास की भावना भी पैदा करता है, जिसने समय-समय पर कानून के शासन के सिद्धांत की रक्षा की है। ऑबिटर डिक्टा यह भी स्पष्ट करता है कि भारतीय न्यायपालिका और भारतीय राजनीति सहानुभूतिपूर्ण नहीं हैं, वैधता और संवैधानिकता की समझ से परे मुद्दों पर विचार करती हैं और ऐसे मुद्दों को न्याय, समानता और अच्छे विवेक के मार्गदर्शक सिद्धांतों के अनुसार मानती हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
ब्रजेन्द्र सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में कौन सा अधिनियम शामिल है?
यह मामला हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के इर्द-गिर्द घूमता है। यह मामला एक महिला के दत्तक ग्रहण अधिकार से संबंधित है और यह कानून तय करता है कि एक विवाहित महिला हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 8(c) के तहत तब तक दत्तक ग्रहण करने की हकदार नहीं है, जब तक उसका विवाह कायम है।
मध्य प्रदेश कृषि खातों की अधिकतम सीमा अधिनियम, 1960 (संक्षेप में अधिकतम सीमा अधीनियम) की किस धारा में कृषि खातों की सीमा निर्धारित की गई है?
मध्य प्रदेश अधिकतम सीमा अधिनियम की धारा 10 में मध्य प्रदेश राज्य में किसी व्यक्ति द्वारा धारण की जा सकने वाली अधिकतम कृषि खतों निर्धारित की गई है।
मिश्री बाई ने बृजेन्द्र सिंह को अपना दत्तक पुत्र घोषित करने के लिए विचारण न्यायालय में किस तरह का वाद दायर किया?
मिश्री बाई ने बृजेन्द्र सिंह को अपना कानूनी रूप से दत्तक पुत्र घोषित करने के लिए विद्वान विचारण न्यायालय में घोषणा वाद दायर किया। घोषणा राहत के लिए वाद विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 34 का हवाला देते हुए एक व्यक्ति द्वारा दायर किया जाता है जो चाहता है कि अदालत ऐसे अधिकार का पता लगाए या घोषित करे।
संदर्भ