यह लेख Soumya Lenka द्वारा लिखा गया है। लेख मामले की पृष्ठभूमि, प्रासंगिक तथ्यों, दोनों पक्षों की दलीलों और निर्णय सुनाते समय न्यायालय के तर्क से संबंधित है। यह मामला बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 की संवैधानिक वैधता पर गहराई से चर्चा करता है, जिसे बॉम्बे राज्य विधानसभा द्वारा पारित किया गया था और यह अधिनियम की वैधता और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 286 के संबंध में नियमों से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Shubham Choube द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय
यह मामला भारतीय स्वतंत्रता के बाद की घटनाओं पर आधारित है और यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 286(1) के संबंध में बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 की संवैधानिक वैधता से संबंधित है, जो वस्तुओं की बिक्री या खरीद पर कर लगाने के प्रतिबंधों और 286(2) से संबंधित है। यह मामला घरेलू दोहरे कराधान की अवधारणा के इर्द-गिर्द घूमता है और पृथक्करण (सेवरेबिलिटी) के सिद्धांत, कब्जे वाले क्षेत्रों के सिद्धांत और प्रतिकार (रिपग्नेंसी) के सिद्धांत के संबंध में एक ऐतिहासिक मिसाल के रूप में कार्य करता है। यह मिसाल अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) के इर्द-गिर्द घूमती है और इस बात पर भी विचार करती है कि क्या बॉम्बे राज्य द्वारा पारित कानून के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन हुआ है।
मामले का विवरण
- मामले का नाम: बॉम्बे राज्य बनाम यूनाइटेड मोटर्स (इंडिया) लिमिटेड
- याचिकाकर्ता: बॉम्बे राज्य
- प्रतिवादी: यूनाइटेड मोटर्स इंडिया (लिमिटेड)
- मामले का प्रकार: सिविल अपील
- न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
- न्यायपीठ: माननीय न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री, न्यायमूर्ति बी. के. मुखर्जी, न्यायमूर्ति विवियन बोस, न्यायमूर्ति गुलाम हसन और न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती
- निर्णय के लेखक- न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री
- निर्णय की तिथि: 30.03.1953
- उद्धरण (साइटेशन): (1953) 4 एससीसी 133
- याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व – बॉम्बे राज्य के महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल) एम. पी. अमीन, वरिष्ठ अधिवक्ता एम. देसाई और जी. एन. जोशी
- प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व – विद्वान अधिवक्ता एन. एम. सीरवई और जे. बी. दादाचंजी
मामले की पृष्ठभूमि
वर्ष 1952 में बॉम्बे राज्य विधानसभा ने बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 पारित किया। अधिनियम के साथ ही कानून के साथ जुड़े नियमों का एक संग्रह भी लागू हुआ। इन नियमों को बॉम्बे बिक्री कर नियम, 1952 के नाम से जाना जाता है। इस अधिनियम का उद्देश्य राज्य की बिक्री कर व्यवस्था को विनियमित करना था। अधिनियम की धारा 5 में प्रावधान है कि प्रत्येक वितरक (डीलर) पर सामान्य कर लगाया जाएगा, जिसका बॉम्बे राज्य के भीतर बिक्री के संबंध में वार्षिक कारोबार 30,000 रुपये से अधिक है।
धारा 5 के अतिरिक्त धारा 10 में विशेष कर का प्रावधान किया गया है। इसमें कहा गया है कि प्रत्येक व्यापारी जिसका ‘विशेष वस्तुओं’ की बिक्री के संबंध में आवर्त (टर्नओवर) सालाना 5,000 रुपये से अधिक है, उसे राज्य सरकार को विशेष कर का भुगतान करना होगा। विशेष वस्तुएँ शब्द का तात्पर्य उपभोक्ता वस्तुओं के एक विशिष्ट वर्ग से है। ये वर्ग की वस्तुएँ आम तौर पर एक विशिष्ट कंपनी से आती हैं और इनका एक बढ़िया ब्रांड मूल्य होता है।
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम की धारा 2 कानून के उद्देश्यों के लिए ‘बिक्री’ शब्द की परिभाषा प्रदान करती है। धारा 2(14) के तहत परिभाषित ‘बिक्री’ शब्द के अनुसार बिक्री नकदी, आस्थगित भुगतान (डेफ्रेड पेमेंट) या अन्य मूल्यवान प्रतिफल (वैल्युएबल कन्सिडरेशन) के लिए माल में संपत्ति का कोई भी हस्तांतरण (ट्रांसफर) है।
प्रावधान के स्पष्टीकरण में कहा गया है कि यहां ‘बिक्री’ से तात्पर्य किसी भी माल की बिक्री से है, जो वास्तव में उपभोग के लिए बॉम्बे राज्य में वितरित किया गया है, भले ही लेन-देन के दौरान माल की संपत्ति किसी अन्य राज्य से होकर गुजरी हो।
इसके अलावा, बॉम्बे बिक्री कर नियम, 1952 के नियम 5 और 6 में कर योग्य आवर्त पर विचार करते हुए बिक्री के एक समूह के लिए कटौती का प्रावधान किया गया। छूट तब प्राप्त होती है जब बिक्री
- भारत के क्षेत्र में माल के आयात या भारत के क्षेत्र से बाहर माल के निर्यात के दौरान होती है और
- अनुच्छेद 286 के प्रावधान के अनुरूप अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य के दौरान होती है।
अधिनियम की धारा 5 और 10 के अनुप्रयोग से छूट प्राप्त करने के लिए बिक्री के लिए एक अतिरिक्त शर्त है। नियम 5(2) के तहत, यह आवश्यक है कि माल रेलवे, विमान, जहाज या माल ढुलाई के लिए पंजीकृत नावों या डाक के माध्यम से मोटर परिवहन द्वारा भेजा या ले जाया जाए।
मामले के तथ्य
आक्षेपित कानून के लागू होने के बाद, कई कंपनियों (तत्कालीन भारतीय कंपनी अधिनियम, 1913 के तहत पंजीकृत) और साझेदारी फर्मों द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत बॉम्बे उच्च न्यायालय में कई याचिकाएँ दायर की गईं। ये सभी याचिकाकर्ता (अब प्रतिवादी) बॉम्बे राज्य में मोटर कारों की खरीद-बिक्री का व्यवसाय कर रहे थे।
यह चुनौती दी गई कि अधिनियम की धाराएं 5 और 10 तथा इसके साथ जुड़े नियम, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 286 के आधार पर राज्य विधानसभाओं पर लगाए गए प्रतिबंधों के संबंध में राज्य विधानसभा की शक्ति के विरुद्ध हैं।
यह भी आरोप लगाया गया कि अधिनियम और इसके प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत गारंटीकृत समानता के अधिकार के संवैधानिक सिद्धांत के विपरीत हैं। यह आरोप लगाया गया कि अधिनियम और इसके प्रावधान स्पष्ट रूप से मनमाने हैं, और कानून में किया गया वर्गीकरण अपने आप में भेदभावपूर्ण और मनमाना है क्योंकि वर्गीकरण किसी भी वैध उद्देश्य को पूरा नहीं करता है। इसलिए, कानून को रद्द किया जाना चाहिए।
उन्होंने प्रार्थना की कि माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा बॉम्बे राज्य को विवादास्पद अधिनियम के किसी भी प्रावधान को लागू करने से रोकने के लिए एक परमादेश (मैंडेमस) रिट जारी की जाए। यह चुनौती दी गई कि अनुच्छेद 19(1)(g) जो सभी नागरिकों को किसी भी पेशे का अभ्यास करने या किसी भी व्यवसाय, व्यापार या व्यवसाय को चलाने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, अधिनियम और सहायक नियमों द्वारा उल्लंघन किया जाता है।
अधिनियम के अनुसार वितरकों को कुछ व्यवसायों का पंजीकरण कराना था और संबंधित बाजार में व्यवसाय या डीलरशिप चलाने के लिए लाइसेंस प्राप्त करना था। इस प्रकार यह चुनौती दी गई कि यह शर्त व्यापारियों को अपनी व्यावसायिक गतिविधियों को स्वतंत्र रूप से चलाने से रोकती है, और इसलिए, प्रतिवादियों ने यह चुनौती दी कि अधिनियम को पूरी तरह से शून्य घोषित किया जाना चाहिए और यह किसी भी कानूनी मंजूरी के बिना है।
प्रतिवादियों के आरोपों के जवाब में, बॉम्बे राज्य ने तर्क दिया कि बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952, राज्य विधानसभा द्वारा बिक्री बाजार को विनियमित करने वाले एक पूर्ण और व्यापक कानून के रूप में कार्य करने के लिए लाया गया था और अधिनियम के भीतर चिंता के प्रश्नों से निपटने के लिए एक तंत्र प्रदान किया गया था और इसकी संवैधानिकता के बारे में उठने वाले प्रश्नों का उत्तर भी दिया गया था।
यह प्रस्तुत किया गया कि अधिनियम के प्रावधानों को एक दूसरे के अनुरूप पढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अधिनियम संवैधानिक रूप से वैध है तथा इसमें किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं किया गया है। यह अधिनियम राज्य की कर व्यवस्था के लिए एक व्यापक नियमावली (मैनुअल) के रूप में कार्य करता है, और इसलिए, यह आरोप कि यह संवैधानिक रूप से अवैध है, एक निराधार आरोप है, और अनुच्छेद 226 के तहत इस तरह की याचिका की स्थिरता के लिए कोई आधार नहीं है और परमादेश रिट जारी करने की मांग को खारिज किया जाना चाहिए।
यह प्रस्तुत किया गया कि अधिनियम और संबंधित नियमों के प्रावधान किसी भी तरह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 286(1) और (2) के विपरीत नहीं हैं। इसके अलावा, अधिनियम के संबंधित प्रावधानों द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 19(1)(g) के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है।
बॉम्बे उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद माना कि कानून बनाने के संबंध में बॉम्बे राज्य विधानमंडल की योग्यता पर विचार करना महत्वपूर्ण है। अनुच्छेद 14 और 19(1)(g) के तहत भारतीय संविधान द्वारा परिकल्पित मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के सवाल पर आते हुए, न्यायालय का मानना था कि यह मुद्दा उस मामले के लिए महत्वपूर्ण नहीं है जिसके इर्द-गिर्द यह घूमता है, इसलिए न्यायालय ने चुप्पी साध ली।
उच्च न्यायालय ने मामले की गुणवत्ता (मेरिट्स) के आधार पर माना कि अधिनियम के उद्देश्यो के लिए प्रयुक्त शब्द “बिक्री” की परिभाषा और दायरा अत्यंत व्यापक है तथा अनुच्छेद 286 के तहत बिक्री की तीन श्रेणियों को राज्यों द्वारा बिक्री कर लगाने से छूट दी गई है।
इसलिए, न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि व्यापक परिभाषा स्पष्ट रूप से मनमानी और निरर्थक है, क्योंकि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 का उल्लंघन है। न्यायालय ने आगे कहा कि बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम की धारा 5 और धारा 10 में ‘बिक्री’ शब्द का उपयोग जब अधिनियम की धारा 2(14) में ‘बिक्री’ शब्द की परिभाषा के अनुरूप पढ़ा जाता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि धारा 5 और धारा 10 को रद्द किया जाना चाहिए क्योंकि वे अनुच्छेद 286 (1) और (2) के विपरीत हैं।
इसलिए, न्यायालय का मत था कि अधिनियम का कोई भी आपत्तिजनक प्रावधान शेष संपूर्ण कानून से अलग नहीं किया जा सकता है और प्रावधानों के सभी भाग धारा 2(14) के तहत प्रदान की गई बिक्री की परिभाषा में उत्पन्न होते हैं और उनकी शुरुआत होती है और इसलिए, न्यायालय ने पूरे अधिनियम को मनमाना और शून्य घोषित कर दिया।
बॉम्बे बिक्री कर नियमों की वैधता का निर्धारण करते हुए, न्यायालय ने माना कि ये नियम बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम से उत्पन्न हुए हैं तथा एक सहायक कानून हैं। इसलिए, न्यायालय का मानना था कि इसकी कोई कानूनी वैधता नहीं होगी क्योंकि इसके मूल अधिनियम में कानून की मंजूरी का अभाव है, जैसा कि पहले ही न्यायालय द्वारा घोषित किया जा चुका है। इसलिए न्यायालय ने नियमों के पूरे संग्रह को शून्य घोषित कर दिया।
बॉम्बे राज्य माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय खंडपीठ के फैसले से संतुष्ट नहीं था, और इसलिए, मामले पर निर्णय लेने के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 132(1) के तहत भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय में एक सिविल अपील दायर की गई थी।
उठाए गए मुद्दे
- क्या माननीय बंबई उच्च न्यायालय ने संपूर्ण बंबई बिक्री कर अधिनियम, 1952 को शून्य घोषित करने में विधिक त्रुटि की है?
- क्या माननीय बंबई उच्च न्यायालय न्यायिक रूप से सही था जब उसने बंबई बिक्री कर नियम, 1952 को भी स्पष्ट रूप से मनमाना और भारतीय संविधान का उल्लंघन करने से रहित घोषित किया था?
बॉम्बे राज्य बनाम यूनाइटेड मोटर्स (इंडिया) लिमिटेड (1953) में शामिल कानून
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम की धारा 2
यह प्रावधान ‘बिक्री’ शब्द की परिभाषा प्रदान करता है। धारा 2(14) के तहत परिभाषित ‘बिक्री’ शब्द में यह प्रावधान है कि बिक्री नकदी या आस्थगित भुगतान या अन्य मूल्यवान प्रतिफल के लिए माल में संपत्ति का कोई भी हस्तांतरण है।
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम की धारा 5
इसमें प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक व्यापारी पर सामान्य कर लगाया जाएगा, जिसका बॉम्बे राज्य के भीतर बिक्री के संबंध में वार्षिक कारोबार 30,000 रुपये से अधिक है।
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम की धारा 10
अधिनियम के इस प्रावधान में एक विशेष कर का प्रावधान किया गया है। इसमें कहा गया है कि प्रत्येक व्यापारी जिसका ‘विशेष वस्तुओं’ की बिक्री के संबंध में आवर्त सालाना 5,000 रुपये से अधिक है, उसे राज्य सरकार को विशेष कर का भुगतान करना होगा।
बॉम्बे बिक्री कर नियम, 1952
ये नियम मूल कानून के साथ बनाए गए थे और नियमों का प्रावधान किया गया था।
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम का नियम 5 (2)
इसके अनुसार बिक्री कर से छूट पाने के लिए माल को रेलवे, विमान, जहाज या माल ढोने के लिए पंजीकृत नाव या डाक द्वारा मोटर परिवहन द्वारा भेजा या परिवहन किया जाना चाहिए।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता
याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व बॉम्बे राज्य के महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल) एम.पी. अमीन तथा वरिष्ठ अधिवक्ता एम.देसाई और जी.एन. जोशी ने किया। विद्वान अधिवक्ताओं ने बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 को संपूर्ण रूप से निरस्त करने के माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण और तर्क का विरोध किया। इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि न्यायालय ने संबंधित अधिनियम की वैधता को चुनौती देने वाली अपनी याचिका में प्रतिवादियों द्वारा लगाए गए आरोपों पर राज्य की आपत्ति पर विचार न करके न्यायिक प्रक्रिया और योजना का प्रयोग नहीं किया।
बॉम्बे के विद्वान महाधिवक्ता ने आगे कहा कि प्रतिवादियों द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की गई थी। इसलिए, यह बहुत जरूरी था कि संविधान द्वारा गारंटीकृत किसी भी मौलिक अधिकार के उल्लंघन या अतिक्रमण के बारे में आरोप लगाया जाए, जो इस मामले में भी मौजूद है। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि बॉम्बे उच्च न्यायालय ने प्रतिवादियों के आरोपों पर विचार किए बिना पाया कि अधिनियम और इसके प्रावधान अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 के संबंध में उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, और इसलिए यह अधिनियम को असंवैधानिक बनाता है। इसलिए, यह तर्क दिया गया कि न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उल्लिखित प्रक्रिया का उल्लंघन किया है।
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि यह भारतीय संवैधानिक न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) का एक स्थापित सिद्धांत है कि अनुच्छेद 226 या 32 के तहत किसी भी याचिका के मामले में, जब तक किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं होता है, तब तक अदालतें रिट जारी नहीं कर सकती हैं। लेकिन इस मामले का तथ्य यह है कि बॉम्बे उच्च न्यायालय की माननीय दो न्यायाधीशों की पीठ ने इस तरह के उल्लंघन के आरोपों का जवाब देने या गहराई से जांच करने से इंकार किया। इसलिए, पूरा निर्देश अपने आप में कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन है।
याचिकाकर्ताओं की ओर से उपस्थित विद्वान वकीलों ने अनुच्छेद 286 के दायरे और उससे जुड़ी व्याख्या को स्पष्ट किया। यह प्रस्तुत किया गया कि अनुच्छेद 286(1)(b) के दायरे और अर्थ के साथ-साथ उसके साथ जुड़े खंड 2 की माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा सही ढंग से व्याख्या नहीं की गई है। यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 286 का खंड 1(b) फिर भी उन बिक्री पर कर लगाने पर रोक लगाता है जहां माल या सेवाओं की बिक्री या खरीद दूसरे राज्य में होती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वितरण (डिलीवरी) का राज्य ही एकमात्र राज्य है जिसमें बिक्री या खरीद हुई है। प्रावधान का ऐसा निर्माण उस वास्तविक दायरे और इरादे से अलग है जिसके साथ इसे भारतीय संविधान में शामिल किया गया था।
इस तर्क को पुष्ट करने के लिए कहा गया कि यदि यही इरादा था, तो निश्चित रूप से, बिना किसी बाधा के, विद्वान उच्च न्यायालय की पीठ का निर्णय सही होता, लेकिन इसके विपरीत, इस तरह की धारणा की स्थिति अलग प्रतीत होती है। यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद उस राज्य को उन पर कर लगाने से नहीं रोकता है जिसके माध्यम से माल या सेवाएं गुजरती हैं। उन्होंने कहा कि वितरण का राज्य ही एकमात्र ऐसा राज्य नहीं है, जिसमें बिक्री या खरीद होती है। इस प्रकार, हर राज्य, जिससे माल गुजरता है, उसे बिक्री का स्थान माना जाना चाहिए। इसलिए, यह समझना बहुत जरूरी है कि माल की बिक्री भी उन राज्यों में होती है, जिनसे होकर वह गुजरता है। उन्होंने कहा कि गैर-बाधा खंड एक व्यापक दायरे का है और इसकी कोई अंतर्निहित या स्पष्ट व्याख्या संभव नहीं है, जो यह दावा करती है कि वितरण करने वाला राज्य ही माल पर कर लगा सकता है, न कि वह राज्य, जिससे होकर माल ले जाया जाता है। इस प्रकार, वितरण करने वाले राज्य के साथ-साथ जिन राज्यों से माल गुजरता है, उन्हें कर लगाने का अधिकार है।
विद्वान वकीलों ने दलील दी कि संपूर्ण वितरण, खरीद/बिक्री की घटना एक सीधी-सादी घटना नहीं है। कुछ मामलों में, जब माल एक राज्य से दूसरे राज्य में वितरित किया जाता है, तो खरीद की स्थिति और वितरण या खरीद की स्थिति के बीच माल का सीधा निपटान होता है। बड़ी मात्रा में माल की खेप (कन्साइनमेंट) के अधिकांश मामलों में, उत्पादों को वितरण के अपने निर्धारित राज्य में पहुंचने से पहले कई राज्यों से होकर ले जाया जाता है। इसलिए, अनुच्छेद 286 राज्यों को किसी भी राज्य में व्यापारियों के बीच माल की ऐसी सीधी खेप या निपटान के मामलों में बिक्री खरीद पर कर लगाने से रोकता है, साथ ही अंतर-राज्यीय लेनदेन, वितरण के राज्य को छोड़कर जहां माल का उपभोग किया जाता है। हालांकि, उन्हें इस निर्माण पर कड़ी आपत्ति थी कि राज्यों को कर लगाने के लिए पूर्ण प्रतिबंध है। उन्होंने कहा कि यह प्रतिबंध केवल कुछ मामलों पर लागू होता है। उन्होंने कहा कि अंतरराज्यीय व्यापार या बड़े पैमाने पर लेनदेन के मामलों में, यह खंड लागू नहीं होगा।
इस तर्क पर भरोसा करते हुए, उन्होंने प्रस्तुत किया कि यह मानना कि खंड 1(b) राज्य को उनके माध्यम से उनके वितरण राज्य में जाने वाले माल पर कर लगाने से पूरी तरह से रोकता है, अनुच्छेद 286 के वास्तविक उद्देश्य को खराब कर देगा। इसलिए, यह तर्क दिया गया कि बॉम्बे राज्य को पूर्णांक राज्य बिक्री या खरीद पर कर लगाने का अधिकार है, और बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 के प्रावधान अनुच्छेद 286 का उल्लंघन नहीं करते हैं और उन्हें वैध घोषित किया जाना चाहिए।
अनुच्छेद 286(2) में प्रयुक्त “अंतर-राज्यीय व्यापार और वाणिज्य” की अभिव्यक्ति पर आते हुए, याचिकाकर्ताओं की ओर से विद्वान वकील द्वारा “अंतर-राज्यीय व्यापार” शब्द का एक अनूठा निर्माण प्रस्तुत किया गया। विद्वान महाधिवक्ता द्वारा प्रस्तुत किया गया कि इसका अर्थ एक राज्य के व्यापारी और दूसरे राज्य के व्यापारी के बीच लेनदेन माना जा सकता है। इसलिए, निषेधात्मक खंड फिर भी वितरण करने वाले राज्य के अलावा अन्य राज्यों द्वारा ऐसे लेनदेन पर कराधान को रोकता है, लेकिन यह किसी भी तरह से राज्यों की किसी व्यापारी और उपभोक्ता के बीच लेन-देन के दौरान बिक्री या खरीद पर कर लगाने की शक्ति को बाधित नहीं करता है।
विद्वान अधिवक्ताओं ने अपने रुख को और पुष्ट करने तथा बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 के अधिनियमन को वैध ठहराने के लिए एक अनूठी दलील पेश की। यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 286 के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए, इसे संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची 2 की प्रविष्टि 54 के साथ अनुच्छेद 246(3) के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए। इस योजना में प्रावधान है कि किसी भी राज्य के विधानमंडल के पास पूरे राज्य या उसके किसी भाग के लिए माल की बिक्री या खरीद पर कर को विनियमित करने वाला कोई भी कानून पारित करने की अंतर्निहित शक्ति और अधिकार है, तथा एकमात्र छूट या निषेध प्रिंट मीडिया पर कराधान के संबंध में है।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश विद्वान वकीलों ने दलील दी कि प्रविष्टि 54 और अनुच्छेद 286 के संयुक्त पठन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुच्छेद 286 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति “ऐसे राज्य या उसके किसी भाग के लिए” का अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि जिस बिक्री या खरीद का उल्लेख किया गया है, वह उस राज्य के क्षेत्र के भीतर होनी चाहिए। इसका मतलब केवल इतना है कि माल की बिक्री या खरीद पर कर लगाने के संबंध में कानून बनाने वाले राज्य के उद्देश्य के लिए होने चाहिए। इसलिए, राज्य को राज्य के उद्देश्यों के लिए बिक्री या खरीद पर कराधान को विनियमित करने वाला कानून पारित करने का अधिकार है, और इसका कहीं भी यह मतलब नहीं है कि राज्य को केवल वितरण राज्य होना चाहिए, जैसा कि प्रतिवादियों द्वारा आरोप लगाया गया है।
इसलिए, यह माना जाना चाहिए कि बिक्री कर के मामले में, यह आवश्यक नहीं है कि बिक्री या खरीद राज्य के क्षेत्र के भीतर हो, इस अर्थ में कि बिक्री या खरीद के सभी तत्व राज्य की क्षेत्रीय सीमाओं के भीतर होते हैं। इन तत्वों में बिक्री या खरीद के लिए प्रारंभिक समझौता, इस तरह के समझौते के अनुसरण में माल का लेन-देन और माल का बाद का वितरण शामिल है। इसलिए, यह तर्क दिया गया कि यदि बिक्री के तत्वों के रूप में उल्लिखित कोई भी गतिविधि राज्य के अधिकार क्षेत्र के साथ-साथ क्षेत्रीय सीमाओं के भीतर होती है, तो राज्य को ऐसी बिक्री पर कर लगाने का अधिकार है, बशर्ते कि निश्चित रूप से, ऐसे लेनदेन अंततः एक संपन्न बिक्री की ओर ले जाएं।
इसके अलावा, यह प्रस्तुत किया गया कि जब अनुच्छेद 286 की पूरी योजना को अनुच्छेद 301 और 304 के साथ पढ़ा जाता है, तो यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि राज्यों को अंतर-राज्यीय लेनदेन पर कर लगाने की विधायी स्वतंत्रता और अधिकार है, बशर्ते कि ऐसा कराधान राज्य के सार्वजनिक हित में हो।
विद्वान वकीलों ने तर्क दिया कि संविधान और उसके प्रावधानों को एक दूसरे के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए। जटिल मामलों में एकतरफा निर्माण पर्याप्त नहीं होगा। इसलिए, केंद्र-राज्य संबंध, जो अपने आप में एक जटिल मुद्दा है, और इसके पहलुओं को एक ही प्रावधान पर निर्भर करके नहीं समझा जा सकता है। अंतर-राज्यीय बिक्री के मामलों में राज्य की कर लगाने की शक्तियों का निर्धारण करने के लिए, अनुच्छेद 286 को अनुच्छेद 246 (3), 301, 304 और सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 54 के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए। इस प्रकार, बॉम्बे उच्च न्यायालय की पीठ ने कराधान के संबंध में राज्य की शक्ति की व्याख्या करने के लिए केवल अनुच्छेद 286 को ध्यान में रखकर गलती की, और उसे व्यापक समझ के लिए संबद्ध प्रावधानों पर भरोसा करना चाहिए था। इसलिए, उन्होंने तर्क दिया कि बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 को वैध घोषित किया जाना चाहिए और भारतीय संविधान के दायरे से बाहर नहीं होना चाहिए।
प्रतिवादी
प्रतिवादियों को प्रस्तुत करने वाले विद्वान वकील एन.एम. सीरवाई और जे.बी. दादाचंजी ने तर्क दिया कि बंबई उच्च न्यायालय का यह कहना सही था कि बंबई बिक्री कर अधिनियम, 1952 असंवैधानिक है और अनुच्छेद 286 के विरुद्ध है।
विद्वान वकीलों ने बॉम्बे उच्च न्यायालय की राय पर जोर देते हुए कहा कि अनुच्छेद 286 और विवादित धारा 1 और 2 खरीद या वितरण के राज्य के अलावा किसी अन्य राज्य को कर लगाने से पूरी तरह रोकते हैं। वकीलों ने तर्क दिया कि बॉम्बे राज्य सरकार ने विवादित बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम के माध्यम से बॉम्बे राज्य को राज्य में उपभोग नहीं की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री पर कर लगाने का अधिकार देकर अनुच्छेद 286 के तहत परिकल्पित योजना का उल्लंघन किया है और यह संविधान का पूर्ण उल्लंघन है और यह पहली नज़र में शून्य है।
यह भी तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ताओं द्वारा दिए गए तर्क और व्याख्याओं में कोई कानूनी बल नहीं है। यह तर्क कि अनुच्छेद 286 सभी मामलों में लागू नहीं होता है और अनुच्छेद के खंड 2 में ‘अंतर-राज्य व्यापार और वाणिज्य’ की अभिव्यक्ति केवल कुछ मामलों पर लागू होती है, अमान्य है। अनुच्छेद 286 अपनी भाषा में स्पष्ट है, और भाषा में किसी भी तरह की अस्पष्टता नहीं है, जो यह संकेत देता है कि राज्य के पास ज़्यादातर मामलों में दूसरे राज्यों में बिक्री पर या उन मामलों में कर लगाने का विवेकाधीन अधिकार है जहाँ माल राज्य से होकर गुज़रता है। प्रावधान स्पष्ट हैं, और एकमात्र संभव निर्माण यह है कि केवल वितरण करने वाले राज्य के पास बिक्री पर कर लगाने का अधिकार है, न कि निर्यात करने वाले राज्य के पास और न ही उन राज्यों के पास जिनके माध्यम से संबंधित माल गुज़रता है।
यह तर्क दिया गया कि बॉम्बे बिक्री कर नियम, 1952 के नियम 5 और 6, फिर भी अनुच्छेद 286 के तहत उल्लिखित योजना का अनुपालन करते हैं। दूसरी ओर, एक शर्त यह है कि माल रेलवे, नौवहन (शिपिंग), विमान कंपनी या कार्गो या सार्वजनिक मोटर परिवहन सेवा के लिए पंजीकृत देशी नाव या पंजीकृत डाक द्वारा भेजा जाना चाहिए। यह अनुच्छेद 286 का पूर्ण उल्लंघन है। यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 286 राज्यों को कोई अतिरिक्त शर्तें लगाने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता है, और इसलिए बॉम्बे बिक्री कर नियम, 1952, शून्य हैं।
विद्वान वकील सीरवाई ने तर्क दिया कि उक्त अधिनियम की धारा 5 और 10 में सामान्य कर और विशेष कर के लिए न्यूनतम कर योग्य आवर्त क्रमश: 30,000 रुपये और 5,000 रुपये निर्धारित किया गया है, जो अनुच्छेद 14 के तहत समानता के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन है। यह तर्क दिया गया कि इस तरह का वर्गीकरण भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के संबंध में भेदभावपूर्ण और स्पष्ट रूप से मनमाना है। यह तर्क दिया गया कि कर योग्य आवर्त (टर्नओवर) के इस तरह के अधिरोपण (इम्पोजिशन) के पीछे कोई तर्क नहीं है और इस तरह का वर्गीकरण उन विक्रेताओं के बीच भेदभाव करता है जिनका आवर्त क्रमशः 30,000 और 5,000 से कम है, और वे जिनका आवर्त अधिक है।
प्रतिवादियों द्वारा (प्रारंभिक याचिका में) यह तर्क दिया गया कि बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952, संविधान के पूर्णतया विपरीत होने के कारण, किसी भी कानूनी वैधता का अभाव रखता है। इसलिए, कोई भी शर्त जो वितरक और व्यवसायों की विवश तरीके से कार्य करने की स्वतंत्रता पर अतिक्रमण करती है, वह पूरी तरह से अमान्य शर्त है और अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन होगा। अधिनियम में प्रावधान किया गया था कि राज्य में या राज्य के माध्यम से व्यवसाय करने के लिए कुछ व्यवसायों के लिए लाइसेंसिंग एक आवश्यकता है। प्रतिवादियों द्वारा यह तर्क दिया गया कि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत व्यापार और व्यवसाय की स्वतंत्रता पर हमला है।
बॉम्बे राज्य बनाम यूनाइटेड मोटर्स (इंडिया) लिमिटेड (1953) में निर्णय
पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 4:1 बहुमत से माना कि बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 पूरी तरह से अवैध नहीं है और यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 286 का पूरी तरह से उल्लंघन नहीं करता है। हालांकि, न्यायालय का मानना था कि बॉम्बे बिक्री कर नियम, 1952 के नियम 5 के उप-नियम 2 का खंड 1 अधिकारातीत (अल्ट्रा वायर्स) है क्योंकि इसमें स्पष्ट रूप से प्रावधान किया गया है कि राज्य में बिक्री के लिए अनुच्छेद 286 के तहत उल्लिखित छूट लागू करने के लिए, माल केवल रेलवे, नौवहन या विमान कंपनी या कार्गो ले जाने के लिए पंजीकृत देशी नाव या सार्वजनिक मोटर परिवहन सेवा या पंजीकृत डाक के माध्यम से भेजा जाएगा। किसी अधिनियम या प्रावधान का वह हिस्सा जो संवैधानिक रूप से अमान्य है, उसे शेष प्रावधानों से अलग किया जा सकता है, यदि कानून का शेष भाग पृथक्करण (सेपरेशन) के सिद्धांत के अनुसार संवैधानिक योजना का अनुपालन करता है। इसलिए, विवादित मामले में, न्यायालय ने माना कि उप-नियम 2 बॉम्बे बिक्री कर नियम, 1952 के अन्य नियमों से अलग किया जा सकता है, क्योंकि यह नियमों की पूरी संरचना के साथ-साथ मूल अधिनियम, यानी बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 को प्रभावित नहीं करता है।
इस निर्णय के पीछे तर्क
अनुच्छेद 286 का अर्थ और दायरा
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 की संवैधानिक वैधता पर विचार करने से पहले, न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 286, इसके खंडों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की प्रकृति और वास्तविक दायरे, अर्थ तथा राज्य विधानसभाओं पर निषेधात्मक प्रावधान के रूप में इसके क्या निहितार्थ हैं, इस पर गहराई से विचार करना बहुत महत्वपूर्ण है। यह तर्क गलत माना गया कि अनुच्छेद 246(3) राज्य विधानमंडल को कानून बनाने और बिक्री या खरीद पर कर लगाने की शक्ति प्रदान करता है, यहां तक कि उन मामलों में भी जहां कर लगाने वाला राज्य वितरण करने वाला राज्य नहीं है।
न्यायालय की बहुमत की राय में कहा गया कि अनुच्छेद 286 (1) और (2) राज्य की शक्ति पर प्रतिबंध लगाता है और याचिकाकर्ताओं द्वारा बताए गए दोनों प्रावधानों के संयुक्त पढ़ने के आधार पर निर्माण की आवश्यकता है। न्यायालय का मत था कि अनुच्छेद 286 राज्य पर कुछ प्रतिबंध लगाता है और राज्य के पास किसी भी अन्य राज्य में होने वाली वस्तुओं की बिक्री या खरीद पर कर लगाने या अधिकृत करने के लिए कानून बनाने की कोई स्पष्ट या निहित शक्ति नहीं है।
न्यायालय की बहुमत की राय यह थी कि केवल ‘वितरण करने वाले राज्य को ही बिक्री पर कर लगाने का अधिकार है, किसी अन्य राज्य को नहीं’। इसने माना कि यदि संविधान निर्माताओं की यही मंशा होती, तो वे संविधान की योजना में अनुच्छेद 286(1) और (2) को कभी शामिल नहीं करते। अनुच्छेद 286(1) और (2) को शामिल करने का एकमात्र उद्देश्य राज्यों द्वारा माल की बिक्री पर कई तरह के कराधान को रोकना है। इसलिए, न्यायालय का मानना था कि राज्य को बिक्री पर ऐसा कर लगाने से पूर्ण रूप से रोका गया है, जहां बिक्री राज्य के बाहर होती है।
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 का अर्थ और दायरा
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 301 और 304 की बात करें तो न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं की दलीलों का खंडन करते हुए कहा कि बिक्री सहित अंतरराज्यीय वाणिज्यिक लेन-देन राज्यों की कर लगाने की शक्तियों के दायरे से बाहर हैं, जो वितरण का राज्य नहीं है। अनुच्छेद 304 एक अनुकरणीय (एक्सेम्पलरी) प्रावधान है जिसे केवल राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से ही लागू किया जा सकता है और इसलिए, संसद द्वारा अनुसमर्थन के अधीन है।
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 की वैधता पर सख्ती से विचार करते हुए न्यायालय ने कहा कि अधिनियम को नियमों (बॉम्बे बिक्री कर नियम, 1952) के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए, ताकि कराधान की पूरी योजना की व्यापक समझ हो सके। न्यायालय ने कहा कि बॉम्बे बिक्रीकर नियम, 1952 के नियम 5 और 6 में कर पर छूट का प्रावधान है, जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 286 के तहत पहले ही प्रदान किया जा चुका है। न्यायालय ने कहा कि नियम 5 के उपनियम 2 के खंड 1, जो यह प्रावधान करता है कि बिक्री पर कर की छूट केवल तभी लागू होगी जब माल का परिवहन रेलवे, जहाजरानी, विमान कंपनी या माल ढोने के लिए पंजीकृत देशी नौकाओं, सार्वजनिक मोटर परिवहन सेवाओं या पंजीकृत डाक के माध्यम से किया जाता है, अवैध है, क्योंकि यह अनुच्छेद 286 के विरुद्ध है और राज्य को किसी अन्य माध्यम से भेजे गए माल की बिक्री पर कर लगाने की शक्ति प्रदान करता है। बहुमत की राय के अनुसार, नियम 5 के उपनियम 2 के खंड 1 को संवैधानिक रूप से अमान्य और राज्य की विधायी शक्तियों के अधिकार क्षेत्र से बाहर माना गया और इसलिए संविधान का उल्लंघन किया गया। न्यायालय ने माना कि यह हिस्सा पृथक्करण के सिद्धांत द्वारा अलग किया जा सकता है और इसलिए, पूरे अधिनियम और साथ के नियमों की संवैधानिकता पर इसका कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता है।
अधिनियम की धारा 5 और 10
न्यायालय ने कहा कि धारा 5 और धारा 10, जो कि आक्षेपित अधिनियम की दो प्रासंगिक धाराएं हैं, बंबई राज्य की प्रादेशिक सीमाओं के भीतर की गई सभी बिक्री पर स्पष्ट रूप से कर व्यवस्था प्रदान करती हैं, तथा संबंधित धारा 18, जो खरीद पर कर निर्धारित करती है, अपने दायरे में सीमित है तथा इसका अर्थ उन सभी बिक्री को ध्यान में रखने के लिए नहीं लगाया जा सकता है जो बंबई राज्य के अधिकार क्षेत्र सीमाओं के बाहर होती हैं। इसलिए, न्यायालय ने माना कि अधिनियम का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है और इसकी कोई अस्पष्ट व्याख्या नहीं हो सकती। पीठ की बहुमत की राय में कहा गया कि अधिनियम के संबंधित प्रावधान केवल राज्य की सीमा के भीतर होने वाली बिक्री पर कर लगाते हैं, जिसमें भारत के संविधान के तहत प्रत्येक राज्य को अधिकार प्राप्त है।
क्या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ था
इस संबंध में कि क्या कर लगाने से अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19(1)(g) का कोई उल्लंघन हुआ है, यह माना गया कि कर लगाना राज्य द्वारा विधायी मशीनरी का एक वैध उपयोग है क्योंकि बॉम्बे राज्य में इसके लिए एक विनियामक तंत्र की आवश्यकता थी। बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 की धारा 5 और 10 में प्रावधान है कि कर योग्य आवर्त वे हैं जहाँ बिक्री क्रमशः “सामान्य कर” और “विशेष कर” लगाने के लिए 30,000 और 5,000 से अधिक है। प्रतिवादियों ने आरोप लगाया कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 के विपरीत है, क्योंकि इस तरह के भेदभाव का कोई उद्देश्य नहीं है। न्यायालय ने प्रतिवादियों द्वारा लगाए गए आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि इस तरह के भेदभाव के पीछे एक उद्देश्य है।
इसने माना कि इस तरह के खंड के पीछे का उद्देश्य छोटे वितरक और व्यापारियों द्वारा व्यापार को सुविधाजनक बनाना होगा। कर के दायरे में आने वाली वस्तुओं की बिक्री या खरीद के लिए न्यूनतम सीमा तय करके, बॉम्बे राज्य ने यह सुनिश्चित किया है कि छोटे व्यापारी और व्यवसायी जिनकी बिक्री बहुत कम है और जो सालाना बहुत कम आवर्त के साथ छोटे पैमाने पर व्यवसाय करते हैं, उन्हें करों का भुगतान करने की बाध्यता से छूट दी गई है। न्यायालय की बहुमत पीठ की राय में, यह न केवल छोटे पैमाने के व्यवसायों और उद्योगों को बाजार में आने में मदद करने के लिए किया गया था, बल्कि उन्हें बाजार में टिके रहने में सक्षम बनाने के लिए भी किया गया था। यदि उन पर उनके व्यवसाय के शुरुआती चरण में करों का बोझ डाला जाता है, तो ये व्यवसाय बाजार में विकसित नहीं हो पाएंगे और अंततः नष्ट हो जाएंगे।
विद्वान न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि बॉम्बे राज्य ने सोचा होगा कि छोटे और नवजात वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों से कर लगाना और वसूलना प्रशासनिक रूप से संभव नहीं है, जिनके पास कोई संगठनात्मक ढांचा या सुविधाएं नहीं हैं। इसलिए, न्यायालय ने माना कि बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 की धाराएँ 5 और 6 वैध हैं और राज्य के हिसाब से वर्गीकरण या प्रावधान उचित और विवेकपूर्ण है। इसलिए, न्यायालय ने माना कि राज्य ने विवादित अधिनियम में ऐसे प्रावधानों को शामिल करने में कानून के दायरे में अच्छी तरह से काम किया है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के संवैधानिक सिद्धांत का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है, जो प्रतिवादियों के तर्क को पूरी तरह से नकारता है।
अनुच्छेद 19(1)(g) और उसमें निहित व्यापार और व्यवसाय की स्वतंत्रता पर आते हुए, न्यायालय ने प्रतिवादियों की इस दलील को भी नकार दिया कि बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 के पारित होने से इस मौलिक सिद्धांत का किसी भी तरह से उल्लंघन हुआ है। बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 ने राज्य में या राज्य के माध्यम से अपनी व्यावसायिक गतिविधि जारी रखने के लिए व्यवसायों के लिए लाइसेंसिंग को एक पूर्व शर्त के रूप में प्रदान किया। प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि, चूंकि अधिनियम अधिकारातीत है, इसलिए अधिनियमन से उत्पन्न होने वाली कोई भी शर्त जो किसी भी तरह से व्यापार और व्यवसाय की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाती है, संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के विपरीत होगी।
न्यायालय ने अपने बहुमत के मत में माना कि बम्बई बिक्री कर, 1952, बम्बई राज्य द्वारा राज्य की असंगठित कर व्यवस्था को विनियमित करने के लिए लागू किया गया था। एक मजबूत कर व्यवस्था के लिए, यह बहुत प्रासंगिक है कि सबसे पहले, राज्य का वाणिज्यिक या व्यवसाय क्षेत्र संगठित हो और इसके लिए, बॉम्बे राज्य व्यवसायों के लिए लाइसेंस लागू करने के लिए बाध्य था क्योंकि यह क्षेत्र को संगठित करने का एकमात्र तरीका है। इसलिए, न्यायालय ने प्रतिवादियों के आरोपों में कोई बल और वैधता नहीं देखी और माना कि बॉम्बे राज्य का व्यवसाय करने की शर्त के रूप में लाइसेंसिंग की आवश्यकता को पूरा करने का एक उद्देश्य था, और वह है इस क्षेत्र को विनियमित करना और राज्य के लिए एक सख्त और मजबूत कर व्यवस्था की सुविधा प्रदान करना। अनुच्छेद 19(1)(g) फिर भी व्यापार और व्यवसाय की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है, लेकिन यह स्वतंत्रता राष्ट्र की व्यापक भलाई के लिए राज्य द्वारा उचित प्रतिबंधों के अधीन है। इसलिए न्यायालय ने माना कि लाइसेंसिंग की पूर्व शर्त अधिनियम के विवादित प्रावधानों के तहत राज्य द्वारा लगाई गई एक विवेकपूर्ण शर्त है और इसलिए, यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत प्रदत्त व्यापार, व्यवसाय और कारोबार की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं है।
मामले का विश्लेषण
यह ऐतिहासिक मामला कराधान के संबंध में राज्य की शक्तियों की सीमाओं के लिए एक मिसाल के रूप में कार्य करता है। मोटे तौर पर, यह फैसला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 286 द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के वास्तविक दायरे पर प्रकाश डालता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह मामला अनुच्छेद 286 के तहत निहित ‘कोई बहु-कराधान नहीं’ के संवैधानिक सिद्धांत को स्थापित करने में एक मील का पत्थर साबित होता है। यह पृथक्करण के सिद्धांत और इसकी वास्तविक प्रकृति पर भी प्रकाश डालता है। इसके अलावा, यह मामला अनुच्छेद 14 और 19 के तहत निहित समानता और व्यापार की स्वतंत्रता के मौलिक सिद्धांतों से भी संबंधित है। न्यायालय ने यह तथ्य स्थापित किया है कि मौलिक अधिकार संविधान में महत्वपूर्ण और अत्यंत सम्मानीय हैं, लेकिन वे निरपेक्ष (एब्सोल्यूट) नहीं हैं और राष्ट्र की बेहतरी के लिए राज्य द्वारा उन पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। फिर भी, ऐसे प्रतिबंध उचित होने चाहिए या नहीं, यह प्रत्येक मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। न्यायालय ने क़ानूनों के निर्माण का यह महत्वपूर्ण सिद्धांत भी स्थापित किया कि किसी क़ानून या विधान के किसी भी प्रावधान को प्रावधान के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट करने और समझाने के लिए उसके साथ जुड़े प्रावधानों के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए। अधिकांश मामलों में एकतरफा पढ़ना पर्याप्त नहीं होता। आक्षेपित मामले में न्यायालय ने प्रतिवादियों के इस आरोप का खंडन करते हुए निर्माण के इस सिद्धांत को दोहराया कि बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 में ‘बिक्री’ की परिभाषा संविधान के दायरे से बाहर है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम को बॉम्बे बिक्री कर नियम, 1952 के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए, ताकि इसके वास्तविक दायरे और अर्थ को समझा जा सके।
निष्कर्ष
भारतीय संवैधानिक कानून एक बहुत ही अनोखा विषय है और हमारे संविधान के निर्माताओं ने इसे भविष्य के लिए एक दृष्टिकोण के साथ तैयार किया है। उन्होंने अनुच्छेद 286 को शामिल किया क्योंकि उन्हें यकीन था कि भविष्य में देश की अर्थव्यवस्था के लिए कई कराधान एक समस्या हो सकती है। हमारे संविधान निर्माताओं की यह दूरदर्शिता ही हमारे संविधान को मानव जाति के इतिहास में सबसे बेहतरीन कानूनी दस्तावेजों में से एक बनाती है। इसके अलावा, यह कहना भी उल्लेखनीय है कि भारतीय न्यायपालिका ने सही मायने में संवैधानिक मूल्यों के संरक्षक और रक्षक के रूप में काम किया है। यह मामला इस तथ्य को दर्शाता है और स्थापित करता है कि समय-समय पर, भारतीय न्यायपालिका ने सराहनीय न्यायिक कौशल दिखाया है और संवैधानिक लोकाचार को नष्ट करने की कोशिश करने वाले गैर-जिम्मेदार विधायी अत्याचार के लिए एक अवरोधक के रूप में काम किया है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
राज्यों की कर लगाने की शक्तियों पर प्रतिबंध की अवधारणा का उल्लेख भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में किया गया है?
राज्यों द्वारा वस्तुओं की बिक्री या खरीद पर कर लगाने के संबंध में संवैधानिक प्रतिबंध भारतीय संविधान के अनुच्छेद 286 के अंतर्गत लागू किए गए हैं।
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 के किस प्रावधान में विशेष कर का प्रावधान किया गया था?
बॉम्बे बिक्री कर अधिनियम, 1952 की धारा 10 में इस मामले में एक विशेष कर का प्रावधान किया गया है। इसमें कहा गया है कि प्रत्येक वितरक जिसका आवर्त ‘विशेष वस्तुओं’ की बिक्री के संबंध में सालाना 5,000 रुपये से अधिक हो जाता है, राज्य सरकार को विशेष कर का भुगतान करने के लिए बाध्य है।
यह मामला किस प्रकार के कराधान पर संवैधानिक प्रतिबंध को पुनः स्थापित करता है?
यह मामला राज्यों द्वारा बहुविध कराधान पर संवैधानिक प्रतिबंध को पुनः स्थापित करता है। बहुविध कराधान एक प्रकार का शोषणकारी कराधान है, जिसमें राज्य, जो न तो वितरण करने वाला राज्य है और न ही उपभोग करने वाला राज्य है, अपने माध्यम से गुजरने वाली वस्तुओं या सेवाओं की बिक्री पर कर लगाता है। यह बाजार पर अनावश्यक बोझ डालता है और आर्थिक विकास के लिए प्रतिकूल है।
संदर्भ