भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम नगरपालिका समिति धामनगांव (1966)

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यह लेख Charu Kohli द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम नगरपालिका समिति, धामनगांव (1966) के मामले से संबंधित है, जिसमें तथ्यों, उठाए गए मुद्दों, दिए गए तर्कों, निर्णय के साथ-साथ मध्य प्रांत और बरार नगर पालिका अधिनियम, 1922 के संबंधित कानूनी प्रावधानों का संदर्भ दिया गया है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम नगरपालिका समिति, धामनगांव (1966) स्थानीय सरकारी निकायों को समाधान प्रदान करने और संपत्ति के संबंध में अधिकारों की स्थिरता को मद्देनजर रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय है। यह मामला नगरपालिका में कर व्यवस्था और नीति, संपत्ति के अधिकार और नगरपालिका के नियमों से संबंधित कुछ कानूनी प्रश्नों से संबंधित है। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि जब निजी संस्थाएं और क्षेत्र के नगरपालिका अधिकारी संपत्ति कानून के साथ-साथ कराधान व्यवस्था के संबंध में विवाद में आ जाते हैं तो मुद्दा कितना जटिल हो सकता है। इसके अलावा, इसने यह धारणा भी स्पष्ट कर दी कि जनहित कल्याणकारी राज्य की सर्वोच्च प्राथमिकता है, यहां तक कि जब बात भूमि अधिग्रहण और उन पर कर लगाने की हो। निर्णय में कर लगाने और उनका आकलन करने के समय सभी उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करने की आवश्यकता और महत्व पर भी बल दिया गया है। यह इन मामलों की पेचीदगियों पर वास्तव में आंखें खोलने वाला अनुभव है। 

मामले का महत्व

धामनगांव (1966) का मामला भारत में नगरपालिका कानून और कराधान नीति के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मामला है। इसने धामनगांव की नगरपालिका समिति द्वारा किए गए कर निर्धारण पर अपने विचार व्यक्त किए हैं, जिसे अवैध तथा समिति के प्रावधानों के विरुद्ध माना गया है। इस मामले का कराधान कानून की व्याख्या और विधायिका के निचले स्तर यानी शहरों में नगर पालिकाओं तक नगरपालिका प्राधिकरण की कार्य करने की शक्तियों पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसने उन सीमाओं को सामने रखा जिनके अंतर्गत नगरपालिका समिति निजी उद्यमों (एंटरप्राइसेज) से कर वसूल सकती है तथा कर लगाते समय नगरपालिका प्राधिकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियागत तत्परता और ऐसे कर लगाने के तरीके पर बल दिया। इस मामले में लिए गए निर्णय को भविष्य में कराधान के मुद्दे पर निजी कंपनी और स्थानीय सरकारी प्राधिकरण के बीच उठने वाले मामलों के लिए एक मिसाल के रूप में अपनाया गया। इसमें उद्यमशील संस्थाओं से कर वसूलने के लिए आवश्यक व्यापक सिद्धांत निर्धारित किए गए हैं तथा न्यास (ट्रस्ट) और संपत्ति अधिकारों को समझने के लिए संपत्ति कानून के विषय-वस्तु पर गहनता से विचार किया गया है। 

मामले की पृष्ठभूमि

वर्ष 1961 में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय दिया, जिसने नगरपालिका अधिकारियों की अपने वैध अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में कर लगाने की शक्ति और कर्तव्य को उजागर करने में एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में कार्य किया है। मामले में अपीलकर्ता भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड नामक कंपनी और उनके द्वारा गठित न्यास था, जबकि मामले में प्रतिवादी धामनगांव की नगरपालिका समिति थी, जिसे धामनगांव अधिसूचित क्षेत्र समिति के रूप में भी जाना जाता है। नगरपालिका समिति एक स्थानीय निकाय थी जिसे किसी विशेष क्षेत्र के कराधान निर्धारण सहित नगरपालिका मामलों के प्रबंधन का दायित्व सौंपा गया था। अपीलकर्ता के पास उस नगर पालिका समिति की सीमा के भीतर संपत्तियां थीं। नगर पालिका समिति ने अपीलकर्ता की संपत्तियों पर कर का आकलन करने का प्रयास किया। दोनों पक्षों के बीच विवाद की जड़ यही थी। भारतीय संपत्ति कानून में यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें निर्णय ‘निर्देशात्मक अधिकार’ या ‘प्रतिकूल कब्जे’ के सिद्धांत पर पारित किया गया था। इसलिए, इस मामले में अपीलकर्ता की व्यावसायिक गतिविधियों के साथ-साथ संपत्ति के अधिकार भी प्रभावित हुए। 

भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम नगरपालिका समिति, धामनगांव (1966) के तथ्य

भारत कला भंडार (प्राइवेट लिमिटेड) एक सीमित देयता वाली कंपनी थी, जिसके पास महाराष्ट्र के धामनगांव में कपास ओटाने (गिनिंग) और संकोचन (प्रेसिंग) की सुविधा थी। धामनगांव अधिसूचित क्षेत्र समिति (एनएसी) ने अपने कर्तव्य के अनुसार, क्षेत्र में कपास की ओटाई और संकोचन पर कर लगाया, क्योंकि इन्हें वाणिज्यिक गतिविधियां माना जाता था। इन गतिविधियों में बाजार में बेचे जाने वाले उत्पाद के रूप में कपास के उत्पादन की यांत्रिक प्रक्रियाएं शामिल थीं। वर्ष 1936 से, मध्य प्रांत नगर पालिका अधिनियम 1922 की धारा 66(1)(b) के अंतर्गत कर की दर 1 आना प्रति बोझा और 1 आना प्रति गठरी अधिसूचित की गई। आना जिसे आधिकारिक तौर पर ‘आना’ लिखा जाता है, एक प्रकार की मुद्रा इकाई थी जिसका प्रयोग पहले ब्रिटिश भारत के उपमहाद्वीप में किया जाता था और यह वर्तमान रुपये के मूल्य का सोलहवां हिस्सा होता है। जबकि बोझा शब्द का अर्थ माप की एक इकाई है जिसका उपयोग कपास उद्योग में कपास के वजन की गणना करने के लिए किया जाता है। कपास उद्योग में वाणिज्यिक श्रमिकों सहित आम जनता को कराधान मूल्य में परिवर्तन के संबंध में अधिकारियों द्वारा अधिसूचना से अवगत कराया गया। यह कार्य 10 अप्रैल, 1941 को सरकारी राजपत्र में प्रकाशित करके किया गया।

इसके अलावा, 30 जुलाई 1941 को इससे संबंधित नियम आधिकारिक रूप से जारी कर दिए गए और अब इन नियमों का सभी को आधिकारिक रूप से पालन करना होगा। 1941 के कर सुधार के बाद से, भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड सहित धामनगांव के नगरपालिका क्षेत्र में कपास उद्योग के वाणिज्यिक उद्योग अद्यतन कर स्लैब के अनुसार अपने करों का भुगतान कर रहे थे और एनएसी द्वारा नई कर व्यवस्था का पालन कर रहे थे। लेकिन 1951 में एनएसी ने एक रुपया प्रति बोझा और एक रुपया प्रति गठ्ठर की दर में पुनः वृद्धि का प्रस्ताव रखा, जिसके बाद कम्पनियों ने नियमानुसार भुगतान करना शुरू कर दिया। संशोधित कर की दर अब 4 आना प्रति बोझा और 4 आना प्रति गठरी कर दी गई। हालांकि बाद में उक्त संशोधन प्रस्ताव को अधिसूचित क्षेत्र समिति ने ही छोड़ दिया और यह कभी नियम नहीं बन सका। 

परिणामस्वरूप, भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड ने तीन वर्षों की अवधि में भुगतान किए गए अतिरिक्त करों की वसूली के लिए कानूनी कार्रवाई करने का निर्णय लिया। कंपनी ने नए प्रस्तावित संशोधन के अनुसार करों का भुगतान किया था क्योंकि इसका मुख्यालय कलकत्ता राज्य में था और इसके अलावा, एक शाखा कार्यालय और ओटाई कारखाना धामनगांव में स्थापित किया गया था, जो प्राधिकरण और अधिकार क्षेत्र के एनएसी क्षेत्र में आता था। इसलिए, कंपनी पर करों का भुगतान करने का दायित्व था। ऐसा इसलिए था क्योंकि यह एक वाणिज्यिक गतिविधि कर रहा था और इसका ओटाई संयंत्र (प्लांट) एनएसी के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र यानी धामनगांव में स्थित था, जो पहले मध्य प्रांत और बरार (अब महाराष्ट्र राज्य के रूप में जाना जाता है) का हिस्सा था। 

भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड द्वारा प्रस्तुत मामले में मुख्य कानूनी मुद्दा एनएसी द्वारा किया गया अनुचित मूल्यांकन और समिति द्वारा तीन वर्षों की अवधि के लिए किया गया अनुचित संपत्ति कर वृद्धि था, जिसे कानून के मानक के अनुरूप नहीं माना गया। एनएसी ने वर्षों पहले 1951 में करों को चार आने से बढ़ाकर एक रुपया प्रति बोझा और प्रति गठ्ठ करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन यह कभी भी आधिकारिक राजपत्र में नियम नहीं बन सका। इसलिए भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड और अन्य कारखाना मालिकों द्वारा तीन वर्ष की समयावधि के भीतर उनके द्वारा किए गए अतिरिक्त कर भुगतान की वसूली के लिए यह वाद दायर किया गया था, इस आधार पर कि करों की मांग अवैध रूप से की गई थी और गलती से भुगतान कर दिया गया था। 

मामले के अंतर्गत, कंपनी ने 12,511.66 रुपए की वापसी का दावा किया था, जिसमें ओटे हुए कपास के लिए 6,905.146 रुपए और संकोचित किए गए कपास के लिए 8,048.80 रुपए शामिल थे, जिसमें से कानूनी रूप से देय 3,738.96 रुपए घटाए गए थे, तथा 9% की दर से ब्याज के रूप में 1,295.96 रुपए दिए गए थे। उन्होंने तर्क दिया कि उन पर लगाया गया बढ़ा हुआ कर, कर व्यवस्था में उचित विधायी परिवर्तन के बाद भी कानूनी सीमाओं से अधिक है। इसके अलावा, कंपनी के संपत्ति कर मूल्यांकन पर भी विवाद हुआ क्योंकि उनका मानना था कि एनएसी ने संपत्ति का मूल्यांकन करने में मनमाना तरीका अपनाया है और इसलिए उन्होंने उचित कानूनी मानदंडों के आधार पर पुनर्मूल्यांकन की मांग की है। 

मामले का दूसरा प्रमुख हिस्सा भूमि के एक टुकड़े के स्वामित्व को लेकर विवाद था। कंपनी ने तर्क दिया कि यह भूमि बारह वर्षों से अधिक समय से निरंतर और निर्बाध कब्जे में है तथा उसने इस भूमि पर मंदिर और अन्य सहायक इमारतें बनाकर इसका विकास किया है, इसलिए यह भूमि पूर्णतः उनकी है। कंपनी ने संपत्ति पर अपने निर्बाध दीर्घकालिक कब्जे और उक्त संपत्ति पर किसी भी प्रकार की नगरपालिका आपत्ति के बिना विकास का दावा किया, जो उस पर उसके वैध कब्जे की गारंटी देता है। 

हालांकि, एनएसी ने तर्क दिया कि न्यास के स्वामित्व का पंजीकरण सत्य नहीं था, क्योंकि भूमि आधिकारिक तौर पर नगरपालिका के स्वामित्व में थी और शीर्षक विलेख (डीड) भी नगरपालिका का था, क्योंकि यह सरकारी संपत्ति थी। समिति का मानना था कि यह भूमि सार्वजनिक सड़क का हिस्सा थी, इसलिए इसका स्वामित्व कंपनी के पास नहीं था तथा कंपनी ने जानबूझकर संपत्ति पर अतिक्रमण किया था तथा जगह पर कब्जा कर लिया था। इसके अलावा, उन्होंने दावा किया कि कंपनी ने न्यास बनाकर अवैध रूप से इस भूमि पर कब्जा कर लिया है और कंपनी का इस पर कोई कानूनी स्वामित्व नहीं है तथा वह इसे नगर पालिका को वापस करने के लिए बाध्य है। 

इसलिए, कंपनी ने विचारण न्यायालय में मामला दायर किया, जिसने अपीलकर्ताओं के पक्ष में फैसला देते हुए कहा कि अधिशेष (सरप्लस) कर को मुकदमे की तारीख से तीन साल के भीतर नगर पालिका समिति से वापस लिया जाना चाहिए। हालाँकि, धामनगांव नगरपालिका समिति द्वारा उच्च न्यायालय में एक अपील दायर की गई थी, जिसमें न्यायालय ने इस मुकदमे को गलत करार दिया था, क्योंकि इसमें सी.पी. बरार अधिनियम, 1922 की धारा 48 की पूर्व शर्तों का पालन नहीं किया गया था। यहां न्यायालय ने माना कि एनएसी को सूचना नहीं भेजी गई, जो मुकदमा दायर करने से दो महीने पहले भेजा जाना था। इसके अलावा, सूचना भेजने की सीमा अवधि कथित कार्रवाई की तारीख से छह महीने थी, जिसका कंपनी द्वारा पालन भी किया गया। बम्बई उच्च न्यायालय के इस निर्णय के कारण अपीलकर्ताओं को उनके द्वारा चुकाए गए अतिरिक्त कर की वसूली के लिए सर्वोच्च न्यायालय में वाद दायर करना पड़ा। 

उठाए गए मुद्दे 

इस मामले में, लागू कानून की व्याख्या विवाद का मूल मामला बन गई थी और माननीय न्यायालय के लिए कानून का विश्लेषण करने और मामले पर स्पष्टता लाने के लिए इसकी व्याख्या देने की आवश्यकता थी। यहां प्रश्न यह था कि क्या बिक्री कर के तहत एकत्र की गई अत्यधिक राशि संविधान के अनुच्छेद 276 और मध्य प्रांत और बरार नगर पालिका अधिनियम, 1922 (1922 का अधिनियम संख्या 11) की धारा 48(1) के तहत “कानून द्वारा किया गया या किए जाने के लिए प्रस्तावित कार्य” है या नहीं। इसके अलावा, देश के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चर्चा के लिए प्रस्तुत मुद्दे थे: 

  • क्या भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड कंपनी की संपत्ति पर एनएसी द्वारा किया गया कर निर्धारण कानून के अनुसार है और कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन करता है या नहीं?
  • क्या नगरपालिका समिति द्वारा कंपनी के संपत्ति अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा था? 
  • क्या नगरपालिका के अधिनियम द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 300 A के अंतर्गत संपत्ति के अधिकार का हनन होता है?
  • कराधान, संपत्ति के मूल्यांकन और प्रशासनिक प्रक्रिया के संदर्भ में नगरपालिका विनियमों का दायरा क्या है और उनकी सीमाएं क्या हैं?
  • क्या नगर पालिका समिति के पास कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना ध्वस्तीकरण सूचना जारी करने की शक्ति और प्राधिकार है?
  • क्या कंपनी द्वारा नगरपालिका की भूमि पर बनाई गई संरचना सार्वजनिक उपद्रव (पब्लिक न्यूसेंस) का कारण बनती है या यह सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरा है? 

इस मामले में विभिन्न विवाद थे और इनमें से एक मुद्दा यह था कि क्या नगर पालिका को भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड की संपत्ति पर, उनके चरित्र और स्वामित्व को ध्यान में रखते हुए, दरें या कर लगाने का कानूनी अधिकार था। इसके अलावा, मामले में कर निर्धारण और संपत्ति अधिकार से संबंधित दायरे और शक्तियों पर भी चर्चा की गई। 

स्थानीय सरकार किसी व्यक्ति की संपत्ति पर कितना नियंत्रण रख सकती है तथा उससे संबंधित नियम क्या हैं, यह मुद्दा भी इस मामले में अत्यंत रुचि का विषय था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कंपनी के अनुसार, नगर पालिका समिति द्वारा किया गया मूल्यांकन स्थापित कानून का पालन नहीं करता था। 

इन अपीलों में इस प्रश्न पर विचार किया गया कि क्या कर संग्रहण सहित नगर पालिका समिति द्वारा किए गए कार्य, कानून के अनुसार उनकी वैधानिक शक्तियों के अंतर्गत आते हैं। विचाराधीन अधिनियम की धारा 84(3) की दी गई व्याख्या, जिसमें समिति की शक्तियों पर सीमाएं निर्धारित करने वाला यह कानून  साथ ही उनके खिलाफ लाए गए किसी भी मुकदमे की वैधता पर इसका प्रभाव भी यहां मुख्य विवाद का हिस्सा था

इस मामले में अधिकार क्षेत्र संबंधी मुद्दों से संबंधित विभिन्न प्राधिकरण, नागरिकों के संवैधानिक अधिकार और राज्य अंगों की शक्तियां; ऐसे अधिकारों का उल्लंघन होने या दुर्भावना से या त्रुटिवश की गई कार्यकारी कार्रवाई के माध्यम से उल्लंघन की धमकी दिए जाने की स्थिति में उपलब्ध उपायों को नियंत्रित करने वाले प्रशासनिक कानून के सिद्धांत, संपत्ति अधिकार मामलों के संदर्भ में सावधानी से विचार किए गए थे, जिनका निर्णय आमतौर पर भविष्य के मार्गदर्शन के लिए मिसाल के तौर पर या अन्यथा किया जाता है, इसे उपयुक्त परिस्थितियों में खारिज किया जाना चाहिए जो अब उत्पन्न होनी चाहिए। 

पक्षों के तर्क

अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि अवैध कर की वसूली का वाद मध्य प्रांत और बरार नगर पालिका अधिनियम की धारा 48 के प्रावधानों के बाहर है, क्योंकि यह भुगतान किए गए अतिरिक्त कर की वापसी का दावा था। 

प्रतिवादी ने तर्क दिया कि संवैधानिक सीमा से ऊपर कर का संग्रह अधिकार क्षेत्र के बाहर नहीं था, बल्कि केवल अवैध या अनियमित था, जिससे यह मुकदमा “अधिनियम के तहत किए जाने वाले कथित” मामलों के अंतर्गत आता है और सी.पी. बरार अधिनियम, 1922 की धारा 48 के अधीन है। 

अपीलकर्त्ता

वर्तमान मामले में कानूनी विवाद भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड से संबंधित नगरपालिका समिति द्वारा लगाए गए कर के मामले के इर्द-गिर्द घूमता है। कंपनी ने एनएसी द्वारा लगाए गए अत्यधिक कर का सामना करने की स्थिति का समर्थन करने के लिए कई तर्क प्रस्तुत किए। इसमें कंपनी का यह दावा भी शामिल था कि समिति की कार्रवाई उनके मूल अधिकारों का उल्लंघन है, और इसलिए, इस तरह के कार्य से भारतीय संविधान के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। उन्होंने कहा कि एनएसी की गतिविधियां न केवल मनमानीपूर्ण और गैरकानूनी हैं, बल्कि इससे उनकी शांतिपूर्ण ढंग से वाणिज्यिक गतिविधियां करने की स्वतंत्रता में भी बाधा उत्पन्न हुई है। एनएसी द्वारा वैध तरीके से कर लगाने के कार्य को भंडार द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप माना गया। इसके अलावा, कंपनी ने कहा था कि प्रतिवादी नगरपालिका को इस तरह से कार्य करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं था, जो उसके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करता हो और अंततः अपीलकर्ता के वाणिज्यिक उद्यम के लिए प्रतिकूल प्रभाव डालता हो। 

इसके अलावा, अपीलकर्ताओं ने कर विनियमन लागू करते समय और यहां तक कि संपत्ति का मूल्यांकन करते समय समिति के आचरण में विभिन्न प्रक्रियात्मक अनियमितताओं पर भी आपत्ति जताई। उन्होंने आरोप लगाया कि इसमें न तो उचित प्रक्रिया का पालन किया गया और न ही सुनवाई के अधिकार का ध्यान रखा गया, जिसके परिणामस्वरूप उनके खिलाफ अन्यायपूर्ण निर्णय लिया गया। इसके अलावा, उन्होंने यह भी तर्क दिया कि नगर पालिका समिति द्वारा की गई कार्रवाई से भारी वित्तीय नुकसान हुआ है। इसलिए, दावा किया गया कि ये नुकसान अनुचित हैं तथा अपीलकर्ता के व्यवसाय संचालन पर उनके कार्य के कारण पहले से ही हुई क्षति को और बढ़ा रहे हैं। यह आरोप लगाया गया कि कर की यह अवैधता भारत सरकार अधिनियम, 1935 (संक्षेप में 1935 अधिनियम) की धारा 142A और संविधान के अनुच्छेद 276 के तहत किसी व्यक्ति के वाणिज्यिक और व्यावसायिक कर दायित्व की अधिकतम सीमा के कारण है। संविधान द्वारा निर्धारित अधिकतम सीमा 250 रुपये थी। 1935 के अधिनियम के तहत यह 50 रुपये है। अपीलकर्ता से जो वसूला गया वह उस पर लगाया गया कर है जिसकी राशि निर्धारित सीमा से अधिक थी और इसलिए, यह राशि वैधानिक सीमा से अधिक लगाई गई थी और यह एक अवैध कर है। 

अपीलकर्ता ने अधिवक्ता एस.जी. पटवर्धन, अधिवक्ता एस. मूर्ति और अधिवक्ता बी.पी. माहेश्वरी के माध्यम से दलील दी कि जो कुछ किया गया है उसे चुनौती दी गई है और तर्क दिया कि यह उसकी शक्तियों से परे है, इसलिए अधिकारहीन है और इसके अलावा करों जैसी दरों के संग्रह पर रोक लगाने वाले कानूनों के तहत कोई वसूली नहीं की जा सकती। 

इन दलीलों को ध्यान में रखते हुए अपीलकर्ता ने माननीय न्यायालय का रुख किया। उन्होंने न्यायालय से प्रार्थना की कि उन्हें उनकी खोई हुई धनराशि का मुआवजा दिलाया जाए तथा नगर पालिका समिति द्वारा उठाए गए सभी कदमों को अवैध घोषित करने का अनुरोध किया। ये वे कारण थे जो अपीलकर्ताओं ने धामनगांव की नगरपालिका समिति के खिलाफ प्रस्तुत किए थे, जिसमें विभिन्न कानूनी और प्रक्रियात्मक मामलों पर प्रकाश डाला गया था, जिसके लिए उन्होंने अदालतों के हस्तक्षेप की मांग की थी। 

प्रतिवादी

इसके विपरीत, प्रतिवादी की ओर से अधिवक्ता विश्वनाथ शास्त्री ने नगर पालिका समिति की कार्रवाई का समर्थन किया। उन्होंने तर्क दिया कि व्यवसायों, व्यापारों और आजीविकाओं पर कर प्रांतीय विधानमंडल के दायरे में आता है और इसे राज्य विधानमंडल को हस्तांतरित कर दिया गया है, इसलिए राज्य ने नई कर व्यवस्था लागू की है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार यह भारत के संविधान द्वारा निर्धारित सीमा को पार कर गया, लेकिन यह बिना अधिकार के नहीं था, बल्कि यह अनियमित या अवैध था और संवैधानिक अधिदेश से अधिक भुगतान की गई राशि के लिए करदाता द्वारा लाया गया कोई भी वसूली मुकदमा अधिनियम के तहत ‘किया जाना प्रकल्पित’ मामला माना जाएगा। 

अधिवक्ता शास्त्री ने अधिनियम और उसके तहत प्राधिकृत नियमों के अनुसार सक्षम अधिकारियों द्वारा किए जा रहे कर निर्धारण के आधार पर विभिन्न प्राधिकरणों का भी हवाला दिया। उन्होंने आगे तर्क दिया कि भले ही कुछ नियम अधिकार-विरुद्ध और फलस्वरूप अवैध रहे हों, लेकिन कथित तौर पर उन्हें ऐसे कथित प्राधिकार के तहत कार्य करते समय अधिनियम के तहत बनाया गया था या पुष्टि की गई थी; इसलिए, इस कथित अधिकतम से अधिक भुगतान की गई राशि के लिए करदाता द्वारा लाया गया कोई भी वसूली मुकदमा, उस अधिनियम के तहत ‘कथित रूप से किए जाने वाले’ मामलों के अंतर्गत आना चाहिए, जो कि उनके द्वारा संदर्भित प्रासंगिक धाराओं में निर्धारित शर्तों के अधीन है। 

इसके अलावा, उन्होंने अपना बचाव भारत सरकार अधिनियम, 1935 की धारा 142A और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 276 पर आधारित किया, जिसके तहत उन्होंने व्यवसायों, व्यापार और रोजगार पर कर लगाने के संबंध में इन कानूनों के पीछे विधायी मंशा पर जोर दिया। उन्होंने आगे तर्क दिया कि कानूनों के अधिनियमन से उन शक्तियों पर प्रकाश पड़ा है जो केन्द्रीय और प्रांतीय विधानमंडलों को किसी प्रकार की छूट प्रदान करने या यहां तक कि आवश्यक प्रतिबंध लगाने के लिए दी गई हैं। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि व्यापार, वाणिज्य, उद्योग और व्यवसाय की स्वतंत्रता सुरक्षित रहे, तथा समाज में शांति, सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के समय नागरिकों के अधिकारों की गारंटी हो। 

उन्होंने इस मुद्दे को निपटाने के लिए माननीय न्यायालय की शक्ति और उसके अधिकार क्षेत्र पर जोर दिया। इस प्रश्न पर एनएसी द्वारा तर्क दिया गया कि इस मामले को किसी अन्य कानूनी निकाय के नियंत्रण में निपटाया जाना चाहिए और उन्होंने आगे कानूनी तौर पर कहा कि न्यायालय का अधिकार क्षेत्र प्रक्रिया के विरुद्ध है और इसलिए अवैध है। उनका मानना था कि वर्तमान में कार्यरत न्यायालय का अधिकार क्षेत्र अपर्याप्त है, जिसके कारण नगर पालिका प्राधिकारियों ने उसे अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कंपनी द्वारा भेजे गए सूचना की वैधता पर भी सवाल उठाया और कहा कि इसमें प्रक्रियागत गलतियां और मूलभूत खामियां हैं, जिसके कारण यह सूचना अवैध है। 

एनएसी ने दावा किया कि भंडार ने कानूनी मानकों को पूरा नहीं किया है और कानूनी कार्यवाही शुरू करने से पहले उनके कर्तव्यों का उल्लंघन किया गया है, क्योंकि उन्होंने आधिकारिक परीक्षण कार्यवाही शुरू करने से पहले कर वापसी के संबंध में नगरपालिका को किसी भी प्रकार की सूचना नहीं दी थी। उन्होंने यह भी कहा कि कंपनी को किसी विशेष राहत की मांग करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि मामले में उनका इतना मजबूत कानूनी हित या भागीदारी नहीं है कि वे कानूनी कार्रवाई जारी रख सकें, क्योंकि संपत्ति वास्तव में नगरपालिका की ही है। 

इसके अलावा, यहां प्रतिवादी ने अपीलकर्ता द्वारा किए गए दावों का समर्थन करने के लिए बचाव के रूप में विबंधन (एस्टोपल) का इस्तेमाल किया था, जिसमें कहा गया था कि पिछले कार्य, शब्द या व्यवहार को उन्हें अपने अधिकारों का दावा करने से रोकना चाहिए। अंत में, प्रतिवादी ने इस बात पर जोर दिया कि यहां सार्वजनिक हित और मामले से संबंधित व्यापक सामाजिक परिणाम महत्वपूर्ण हैं। 

भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम नगरपालिका समिति, धामनगांव, (1966) में शामिल विधायी प्रावधान

भारत सरकार अधिनियम, 1935

स्वामित्व विवाद के दायरे को संबोधित करने के लिए भारत सरकार अधिनियम, 1935 पर विचार किया गया। यहां, धामनगांव नगरपालिका समिति ने दावा किया कि यह भूमि सही मायने में उनकी है, क्योंकि यह संपत्ति सरकारी है और उनके पास इसका मालिकाना हक भी है। 

हालाँकि, यहाँ कंपनी ने कहा कि प्रतिकूल अधिकार के तहत भूमि पूरी तरह से उनकी है। ऐसा इसलिए दावा किया गया क्योंकि कंपनी ने 12 वर्षों से अधिक समय तक भूमि का निर्बाध उपयोग किया था और यहां तक कि उस पर एक न्यास भी बना लिया था। इसके अलावा, उन्होंने दावा किया कि इस न्यास भवन को भारत सरकार अधिनियम, 1935 की धारा 43(1)(b) के अनुसार कर से छूट दी गई है, क्योंकि इसका विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम, 1956 की धारा 3 के अनुसार एक ‘मानित (डीम्ड) विश्वविद्यालय’ होने का दावा किया गया था। 

मध्य प्रांत और बरार नगर पालिका अधिनियम, 1922

इस मामले का मुख्य मुद्दा सी.पी. बरार नगर पालिका अधिनियम, 1922 की समझ और उसके अनुप्रयोग के इर्द-गिर्द घूमता है, क्योंकि यह जिलों में नगर पालिकाओं की स्थापना करने तथा जिले के विनियमन और रखरखाव के लिए समिति की शक्तियों और जिम्मेदारियों को परिभाषित करने के लिए लागू हुआ था। कराधान और विनियमन की शक्ति अधिनियम द्वारा अच्छी तरह से परिभाषित की गई है और इसलिए, इस मामले में एनएसी की कार्यप्रणाली को समझने के लिए इसका एकीकरण आवश्यक है। 

1922 के अधिनियम की धारा 48 और धारा 84(3) के दायरे में भुगतान किए गए अतिरिक्त कर की वापसी के लिए दायर किए गए मुकदमे के दायरे के बारे में विस्तार से बात की गई और आगे ऐसे मुकदमे पर रोक लगाने पर चर्चा की गई। नगर पालिकाओं को बढ़ाए गए करों को लगाने का कानूनी अधिकार है तथा संपत्ति पर कर भी इस धारा के दायरे में आते हैं। इस अधिनियम ने माननीय न्यायालय को प्रक्रियात्मक कानून निर्धारित करने और कर लगाने के लिए जरूरी कानूनी आवश्यकताओं पर चर्चा करने में मदद की हैं। इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि अत्यधिक कर वापसी के लिए मुकदमा दायर करने से पहले आवश्यक प्राधिकारियों को सूचना भेजने की आवश्यकता है। 

विचारण न्यायालय का निर्णय 

विचारण न्यायालय ने भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड के पक्ष में फैसला सुनाया। नगरपालिका कराधान विवाद के संबंध में निर्णय सुनाया गया और माननीय विचारण न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपीलकर्ता कंपनी पर लगाए गए कर अत्यधिक प्रकृति के थे और इसलिए, नगरपालिका समिति को कानूनी रूप से इसे एकत्र करने की अनुमति नहीं थी। नगरपालिका प्राधिकारियों का यह कार्य समिति की कानूनी क्षमता से परे माना गया। 

नगरपालिका समिति के अनुसार, उन्होंने ये कर सी.पी. और बरार नगर पालिका अधिनियम, (1922) की सीमाओं के भीतर लगाए थे, और उनका कार्य सही था तथा कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार था। उन्होंने कहा कि करों का निर्धारण अधिनियम में लागू नियमों और पूर्ववर्ती मामलो के संदर्भ में सही ढंग से किया गया था, इसलिए उन्हें कर चुकाने की कोई जिम्मेदारी नहीं है। 

हालांकि, विचारण न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि एनएसी द्वारा लगाए गए कर कानून के तहत निर्धारित सीमा से काफी अधिक थे और हालांकि नगर पालिका कर लगाती है, लेकिन उसे कानून और उसकी प्रक्रियाओं से बंधे रहना चाहिए। माननीय न्यायालय ने इस तथ्य पर भी गौर किया कि: “ इसलिए यदि ऐसा है, तो इसका अर्थ यह है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो कुछ किया गया है वह स्पष्ट रूप से अवैध और अधिकारातीत (अल्ट्रा वायर्स) है, और तब भी जब यहां ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं दिया गया होता।” परिणामस्वरूप, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अधिक वसूली गई राशि तीन वर्ष के भीतर कंपनी को वापस कर दी जानी चाहिए, क्योंकि पैसा वापस पाना उनका अधिकार है। इस निर्णय से भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड कम्पनी को राहत मिली, क्योंकि इससे उनसे वसूले गए अतिरिक्त कर को वापस करने का निर्देश मिला, साथ ही यह निर्णय कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन करने के लिए प्राधिकारियों की जिम्मेदारी तय करने में भी सहायक रहा है। विचारण न्यायालय द्वारा लिया गया यह निर्णय न केवल इस बात पर जोर देता है कि वैधानिक सीमाओं का सख्ती से पालन किया जाना कितना आवश्यक है, बल्कि यह प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं के क्षेत्र से भी संबंधित है, जिनका नगरपालिका कराधान के मामले में शब्दशः पालन किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, इस निर्णय से संपत्ति पर प्रतिकूल अधिकार जैसे कानूनी सिद्धांतों की भूमिका को रेखांकित करने में मदद मिली तथा उन नियमों को भी स्थापित करने में मदद मिली जिनका स्थानीय सरकार को राजस्व मामलों से निपटते समय पालन करना चाहिए। 

इसके अलावा, भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड के पक्ष में विचारण न्यायालय के फैसले से यह निहित हुआ कि करदाताओं को गैरकानूनी करों के मनमाने ढंग से लगाए जाने से बचाना कानून का कर्तव्य है। इसने प्राधिकारियों के कर्तव्यों को निर्धारित करने में भी मदद की, साथ ही यह सुनिश्चित किया कि ऐसी प्रक्रियाओं में कानून की उचित प्रक्रिया द्वारा निष्पक्षता और न्याय का पालन किया जाए। 

उच्च न्यायालय का निर्णय

जब यह मामला बम्बई उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया गया तो संपत्ति के स्वामित्व के अधिकार और नगरपालिका कानूनों से संबंधित कई कानूनी समस्याएं सामने आईं। 

भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड नामक एक निजी कंपनी ने नगर पालिका समिति द्वारा उन पर लगाए गए कर को बहुत अधिक तथा कानून के विरुद्ध बताते हुए इस पर आपत्ति जताई थी। उन्होंने तर्क दिया कि ये कर सी.पी. एवं बरार नगर पालिका अधिनियम, 1922 की धारा 48 के अंतर्गत नहीं आते है। यह विवादित था कि ये कर गैरकानूनी थे, इसलिए उन्हें वापसी के पैसे पर अधिकार था और इसे वापस करना नगरपालिका का कर्तव्य है। साथ ही, इस बात पर भी विवाद था कि भूमि के टुकड़ों के लंबे समय तक उपयोग के कारण उनके मालिकाना हक किसके पास हैं, जबकि इस संगठन ने इसका विरोध करते हुए कहा कि ये जमीनें उनकी हैं। 

नगर पालिका समिति ने प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से स्वामित्व का दावा किया, जो एक कानूनी अवधारणा है, जिसके तहत यदि किसी अन्य व्यक्ति के पास भूमि है, लेकिन वह लम्बे समय तक, अर्थात 12 वर्षों तक, उसका उपयोग नहीं करता है, तो वह भूमि आपकी हो जाती है। तथापि, इस मामले में किसी औपचारिक हस्तांतरण पर निर्भर हुए बिना, विशिष्ट वैधानिक नियमों का पालन किया जाना चाहिए। 

अपने विचार-विमर्श के दौरान, उच्च न्यायालय ने धारा 48 की अपनी व्याख्या, कानूनी औपचारिकताओं के अनुपालन, तथा निर्धारण (प्रिस्क्रिप्शन) के आधार पर ऐसे मालिकाना दावों की वैधता के संबंध में प्रत्येक पक्ष द्वारा प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों तथा तर्कों का विस्तार से विश्लेषण किया। 

अंत में, इस ऐतिहासिक निर्णय से जो बात सामने आई वह दोतरफा थी; पहली, यह मान्यता कि न्यास ने प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से इन जमीनों पर स्वामित्व अर्जित किया था और निर्बाध कब्जे के कारण भूमि पर उसका मालिकाना हक है। ऐसा इसलिए कहा गया क्योंकि कंपनी का संपत्ति पर 12 वर्षों तक नियंत्रण था और इस अवधि में नगरपालिका ने कभी भी इस पर कब्जा नहीं किया। 

दूसरा निर्णय यह था कि स्थानीय प्राधिकरण द्वारा लगाए गए शुल्क से वसूली की मांग करने वाली कंपनी का मुकदमा विफल हो गया क्योंकि उन्होंने धारा 48 में निहित प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का अनुपालन नहीं किया था। इस निर्णय के व्यापक प्रभाव हुए, क्योंकि इसमें ऐसे नियम निर्धारित किए गए जिनका पालन नगरपालिकाओं द्वारा करों के लिए लगाए गए मूल्यांकन को चुनौती देते समय किया जाना चाहिए। इसमें आगे बताया गया कि जब अधिकारों को निर्धारण के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है, तो स्थानीय स्वशासन के संबंध में न्यायालयों द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों को भी स्पष्ट किया गया। 

भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम नगरपालिका समिति, धामनगांव (1966) मे निर्णय 

धामनगांव के इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्थानीय नगरपालिका अधिकारियों को उनके अधिकार क्षेत्र के भीतर संपत्तियों पर कर लगाने के लिए दी गई शक्ति पर ध्यानपूर्वक विचार करने के बाद यह फैसला दिया। संपत्ति के अधिकारों और नगरपालिका के स्थानीय कानूनों के बीच की बारीक रेखा को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया गया। कानूनी सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए, जो सबूतों और कानूनी तर्कों से समर्थित थे। माननीय न्यायालय ने नगर पालिकाओं से संबंधित प्रासंगिक कानूनों, कानूनी क्षेत्र के पिछले मामलों और कानूनी सिद्धांतों की गहन जांच की ताकि मामले में सामने आई कानूनी जटिलताओं से प्रभावी ढंग से व्यवस्था करने  के लिए निर्णय लिया जा सके। 

दोनों संस्थाओं के बीच कानूनी संघर्ष के मूल में एक महत्वपूर्ण प्रश्न था कि क्या नगर पालिका समिति के पास ऐसे कर लगाने का कानूनी अधिकार और मंजूरी है या नहीं। माननीय न्यायालय के इस मामले ने कर लगाने की शक्ति के संबंध में देश में नगरपालिका कानून के एक महत्वपूर्ण विकास को चिह्नित किया है। इसके अलावा, यह नगर परिषदों के लिए निर्धारित अधिकारों और भूमिका के बारे में अधिक व्यापक जानकारी प्रदान करता है। 

यहां न्यायालय ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि प्राथमिक विवाद तब उत्पन्न हुआ था जब धामनगांव नगरपालिका समिति ने लगाए गए कर को विधायी सीमा से भी अधिक बढ़ा दिया था और भारत कला भंडार ने इसे वसूलने के लिए मुकदमा दायर किया था। जवाब में, नगरपालिका समिति ने कंपनी द्वारा न्यास के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली संपत्ति पर अधिकार को चुनौती दी और इससे कानूनी लड़ाइयों की एक श्रृंखला शुरू हो गई। 

यहां न्यायालय के लिए मुख्य चुनौती यह निर्धारित करना था कि विवादित संपत्ति नगर पालिका समिति के कानूनी दायरे में आती है या नहीं। न्यायालय ने न्यास की संपत्ति पर वास्तविक स्वामित्व स्थापित करने के लिए, आसपास के क्षेत्र में नगर परिषदों की भूमिका और कार्यप्रणाली को निर्धारित करने के लिए कानूनों और विनियमों की विवेकपूर्ण समीक्षा की है। अंततः, आधिकारिक रिकॉर्ड और मानचित्रों की सहायता से यह पुष्टि हुई कि विवादित भूमि नगर पालिका की सीमा में आती है। इस प्रकार, माननीय न्यायालय के पास अधिकार क्षेत्र था और एनएसी का दावा झूठा माना गया क्योंकि संपत्ति कानूनी नियमों और उनकी व्याख्याओं के अनुसार सीधे नगर पालिका समिति के अधिकार में थी। 

इसके साथ ही, इसकी भी जांच की गई कि क्या नगरपालिका समिति की कार्रवाई उनके कानूनी अधिकार के अनुरूप थी या इसमें कोई उल्लंघन था। कानूनी कार्यवाही सी.पी. बरार नगर पालिका अधिनियम, 1922 के ढांचे के तहत संचालित की गई, जो नगरपालिका क्षेत्राधिकार की सीमाओं और क्षेत्रों तथा अतिरिक्त कर वापसी के लिए मुकदमा दायर करने के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया को रेखांकित करता है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नगर पालिका अधिनियम, 1922 की धारा 48 केवल तभी लागू होती है जब कोई कार्य उसके दायरे में आता है। इस मामले में नगरपालिका की कार्रवाइयां अधिनियम के तहत ‘किया जाना अभिप्रेत नहीं’ माना गया और यह माना गया कि लोक सेवक के बारे में केवल तभी कहा जा सकता है कि उसने अपने आधिकारिक कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए कार्य किया है या कार्य करने का अभिप्रेत है, यदि ऐसा आधिकारिक कर्तव्य उक्त अधिनियम के दायरे में आता है। 

न्यायालय ने माना कि स्थानीय प्राधिकरण द्वारा नगरपालिका अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन धारा 67 या धारा 84(3) के प्रावधानों से प्रभावित नहीं था। संविधान राज्य विधानमंडल को व्यवसायों, व्यापारों और आजीविकाओं पर प्रति वर्ष 250 करोड़ रुपये से अधिक कर लगाने से रोकता है। यदि स्थानीय प्राधिकारी निर्धारित तिथि के बाद या संविधान के लागू होने के बाद अनुमेय राशि से अधिक कर लगाता है, तो यह उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर होगा, जैसा कि इस मामले में था। इसलिए, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि मूल्यांकन को अधिनियम की धारा 84(3) के कानूनी दायरे के तहत संरक्षण नहीं मिल सकता। 

न्यायालय ने फर्म एंड इलुरी सुब्बय्या चेट्टी एंड संस बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1963) के पूर्ववर्ती मामले को भी संज्ञान में लिया। यहां अपीलकर्ता ने एक निश्चित राशि के लिए आंध्र प्रदेश राज्य पर मुकदमा दायर किया था, जो उनके द्वारा मद्रास सामान्य बिक्री कर अधिनियम, 1939 के तहत अवैध रूप से वसूल की गई थी। माननीय न्यायालय ने यहां निर्णय दिया कि ‘इस अधिनियम के तहत किया गया कोई भी मूल्यांकन’ अभिव्यक्ति पर्याप्त व्यापक है, तथा इसमें अधिनियम के तहत उपयुक्त प्राधिकारियों द्वारा किए गए सभी मूल्यांकन शामिल हैं, चाहे उनकी सटीकता कुछ भी हो। हालांकि, माननीय न्यायालय ने आधिकारिक कर्तव्य के भीतर कार्यों और कानून द्वारा निषिद्ध कार्यों के बीच अंतर बताते हुए कहा कि, “अब मैं यह समझ सकता हूं कि यह कहा जा रहा है कि एक कार्य जो आधिकारिक कर्तव्य के दायरे में है उसे उस श्रेणी से बाहर नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह लापरवाही से किया गया है, लेकिन मैं यह नहीं देख सकता कि कानून द्वारा स्पष्ट रूप से निषिद्ध कार्य को उस श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है। यदि एक मजिस्ट्रेट को सक्षम न्यायालय द्वारा विधिवत् रूप से लगाए गए कोड़े मारने के दंड की निगरानी करने का निर्देश दिया गया है, तथा वह गलती से गलत व्यक्ति को कोड़े मार देता है या निर्धारित से अधिक कोड़े लगाता है, तो मैं समझ सकता हूँ कि उसे संरक्षण दिया जा रहा है। वह अपने कर्तव्य के दायरे में कार्य कर रहे हैं। लेकिन अगर आदमी को कोड़े मारने की बजाय उसे गर्म लोहे से दागा जाए तो, मेरी राय में, वह सुरक्षा का दावा करने में सक्षम नहीं होगा।” 

अधिनियम की धारा 48 बोर्ड या उसके अधीन कार्य करने वाले किसी व्यक्ति के विरुद्ध अधिनियम के अंतर्गत की गई किसी भी कार्रवाई के लिए कार्रवाई करने की अनुमति देती है। अगला चरण व्यक्ति की कर देयता के आधार पर कर का आकलन करना है। अधिनियम की धारा 71 राज्य सरकार को अपने अधिकार क्षेत्र में कर निर्धारण को विनियमित करने तथा दूर-दूर तक कर चोरी के अपराध को रोकने के लिए आवश्यक नियम बनाने का अधिकार देती है। साथ ही, राज्य सरकार को राज्य में करों के संग्रहण को विनियमित करने के लिए नियम बनाने का अधिकार दिया गया है। तथापि, इस मामले में एनएसी द्वारा किए गए करों के मूल्यांकन तथा करों के संग्रहण को 1949 अधिनियम के अनुसार नहीं माना गया, क्योंकि अधिनियम की धारा 73 के अनुसार कार्यवाही शुरू करने से पहले सूचना दिया जाना आवश्यक है, जो प्रतिवादी को कभी नहीं दिया गया। 

मामले में उद्धृत सिद्धांत

यह मामला संपत्ति कानून के विभिन्न सिद्धांतों पर आधारित था, जिससे संपत्ति पर विहित अधिकारों और प्रतिकूल कब्जे के सिद्धांत के संबंध में भारतीय संपत्ति कानून का एक ठोस दृष्टिकोण सामने आया। इसलिए यह मामला विवादों का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन जाता है, क्योंकि विचाराधीन भूमि पर भारत में स्वामित्व के दो दावेदार हैं। इसके अलावा, यहां की कानूनी कार्यवाही में कर, भूमि मूल्यांकन और प्रशासन के विषय पर एनएसी द्वारा पालन किए जाने वाले कानून के नियमों पर गौर किया गया है। ये नियम उनके कार्यों की वैधता और प्रक्रियात्मक निष्पक्षता को मापने के लिए मानदंड प्रदान करते थे। 

इस मुकदमे में पारित निर्णय का प्रभाव इसमें शामिल लोगों के अलावा अन्य लोगों पर भी पड़ा, क्योंकि इसका उपयोग भविष्य में इसी प्रकार के विवादों में संदर्भ बिंदु के रूप में किया जा सकता है। इसलिए, न्यायालय ने नगरपालिका कानूनों के अनुप्रयोग और ऐसी परिस्थितियों में संपत्ति अधिकारों की सुरक्षा के संबंध में इन कानूनी प्रश्नों के उत्तर देकर स्पष्ट मानक या दिशानिर्देश निर्धारित करने का प्रयास किया। 

भारत में विनिर्णयात्मक (प्रेस्क्रिप्टिव) अधिकारों और प्रतिकूल कब्जे को नियंत्रित करने वाले संपत्ति कानून के मूल सिद्धांत निम्नलिखित हैं: 

अखंड और निरंतर कब्जा

संपत्ति का कब्जा इस प्रकार का होना चाहिए कि उसमें कोई बाधा न आए तथा वह एक निश्चित अवधि तक जारी रहे। भारत में संपत्ति पर प्रतिकूल अधिकार या प्रतिकूल कब्जा प्राप्त करने के लिए सामान्यतः बारह वर्ष की अवधि मानी जाती है। इसका मूलतः अर्थ यह है कि व्यक्ति का संपत्ति पर नियंत्रण लम्बे समय तक होना चाहिए, अर्थात भारत के संपत्ति कानून के अनुसार 12 वर्ष तक, तथा इस नियंत्रण को किसी के द्वारा बाधित नहीं किया जाना चाहिए। 

दृश्यमान और सार्वजनिक स्वामित्व

संपत्ति पर स्पष्ट स्वामित्व का दावा होना चाहिए। इसके अलावा, इसमें यह भी दर्शाया जाना चाहिए कि सभी पक्षों को इस बात की जानकारी है कि कोई व्यक्ति विवादित संपत्ति पर अपने स्वामित्व, आनंद या कब्जे के अधिकार का दावा कर रहा है। इसका अर्थ यह है कि पक्ष, जो वास्तविक मालिक हैं, के साथ-साथ आम जनता को भी यह जानकारी या जागरूकता होनी चाहिए कि प्रतिकूल मालिक संपत्ति पर कब्जा कर रहा है तथा उसका किसी चीज में उपयोग कर रहा है। 

शुरुआत में कोई कानूनी अधिकार या दावा नहीं

अधिभोगी (ऑक्यूपेंट), अर्थात वह व्यक्ति जो संपत्ति का आनंद ले रहा है, का संपत्ति पर कब्जे के आरंभ से ही कोई वैध दावा या हक नहीं होना चाहिए। यहां संपत्ति कानूनी रूप से किसी अन्य पक्ष की होनी चाहिए तथा संपत्ति पर कब्जा करने वाले व्यक्ति के पास कोई वास्तविक या स्पष्ट अधिकार नहीं होना चाहिए। 

संपत्ति का स्वामित्व पाने की इच्छा

जो व्यक्ति संपत्ति का अपनी के जैसे उपयोग कर रहा है, उसे संपत्ति के वास्तविक मालिक के रूप में उस पर अपना स्वामित्व रखने की इच्छा दर्शानी चाहिए। इसके अलावा, यह इच्छा संपत्ति पर उनके कब्जे की पूरी अवधि के दौरान बनी रहनी चाहिए। संपत्ति का उपयोग करने वाले व्यक्ति में संपत्ति का स्वामित्व रखने तथा उसे अपना मानने की इच्छा होनी चाहिए। 

कर या वित्तीय दायित्वों की पूर्ति

किसी व्यक्ति द्वारा किसी संपत्ति पर स्वामित्व के अपने अधिकार को प्रदर्शित करने के लिए, प्रमाण के रूप में उस समय के दौरान संपत्ति से संबंधित करों या किसी वित्तीय दायित्व का भुगतान किया जाना चाहिए, जब वह किसी अन्य व्यक्ति के पास थी। इसलिए, यदि व्यक्ति द्वारा इस तरह का दायित्व पूरा किया जाता है तो वह संपत्ति पर अधिकार होने का दावा कर सकता है क्योंकि ये कानूनी दस्तावेज शीर्षक दस्तावेजों के अलावा संपत्ति के वैध स्वामित्व को प्रदर्शित करते हैं। 

संवर्द्धन (एन्हांसमेंट) या निर्माण

सिद्धांत में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा अपने कार्यकाल के दौरान संपत्ति में किसी प्रकार का संवर्द्धन या निर्माण किया जाता है तो यह संपत्ति पर दावे के रूप में कार्य करेगा। इसके अलावा, अदालत इसे उस जमीन पर अपना दावा करने की उनकी इच्छा की पुष्टि के रूप में भी देखेगी। इसलिए, यदि ऐसा कोई निर्माण वास्तविक मालिक द्वारा किया गया है तो यह माना जाएगा कि संपत्ति और उसका स्वामित्व अभी भी उसके पास है। तथापि, यदि यह आनंद लेने वाले व्यक्ति द्वारा किया जाता है और मालिक इसमें हस्तक्षेप नहीं करता है, तो यह माना जाएगा कि अधिकार का दावा निर्विवाद है। 

वास्तविक मालिक की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं

जब संपत्ति किसी और के कब्जे में हो, तो वास्तविक मालिक की ओर से कोई प्रतिक्रिया न आना इस बात का प्रमाण माना जा सकता है कि वे नए मालिक के दावे से सहमत हैं, जिसे स्वीकृति या माफ़ी के रूप में जाना जाता है। 

संपत्ति सौदों और स्वामित्व में निश्चितता

ज़मीन जायदाद के बाजार में टकराव से बचने तथा स्थिरता और पूर्वानुमेयता (प्रेडिक्टबिलिटी) सुनिश्चित करने के लिए संपत्ति सौदों और स्वामित्व में निश्चितता बनाए रखना आवश्यक है। 

भौतिक नियंत्रण की वैधता

यह सिद्धांत इस धारणा को प्रतिपादित करता है कि संपत्ति पर किसी भी प्रकार के भौतिक नियंत्रण को स्वीकार करना आमतौर पर अधिक महत्वपूर्ण है। जब स्वामित्व का भौतिक प्रमाण और शीर्षक विलेख जैसे लिखित प्रमाण दोनों प्रस्तुत किए जाते हैं, तो यह भौतिक साक्ष्य ही है जिसे वास्तविक स्वामित्व को समझने के लिए जवाबदेह रखा जाएगा, जो संपत्ति के मामलों में विश्वसनीयता और सटीकता के महत्व पर प्रकाश डालता है। भारत के माननीय न्यायालय इस बात पर निर्णय करते समय कि मामले में वास्तविक स्वामित्व मौजूद है या नहीं, केवल शीर्षक विलेख को ही नहीं देखते हैं, बल्कि इस तथ्य को भी ध्यान में रखते हैं कि संपत्ति पर भौतिक नियंत्रण किसके पास कितने समय तक रहा है और क्या यह विवादित था या नहीं। 

मामले में, माननीय न्यायालय ने इस बात पर गौर किया कि संपत्ति पर भौतिक नियंत्रण भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड के पास था, जिसने न्यास की संपत्ति पर स्पष्ट अधिकार प्राप्त करने में एक निर्धारक कारक के रूप में कार्य किया। 

अतिरिक्त अधिकार का सिद्धांत

अतिरिक्त अधिकार का सिद्धांत किसी संगठन के उस कार्य को संदर्भित करता है जो राज्य में संभव और कानूनी रूप से अनुमत सीमा से परे जाता है। यहाँ, धामनगांव राज्य की नगरपालिका समिति ने कपास उद्योग में काम करने वाली कंपनियों पर अत्यधिक कर लगाकर अपने कानूनी अधिकार का अतिक्रमण किया था। 

यह अवधारणा यह सुनिश्चित करती है कि भारत के संविधान में दिए गए अधिकारों का हनन केवल इसलिए नहीं किया जाएगा क्योंकि किसी प्राधिकारी ने देश के कानून द्वारा उसे दिए गए प्राधिकार के दायरे से बाहर जाकर कार्य करने का बीड़ा उठा लिया है। यह सरकार और प्राधिकारियों की शक्तियों को मौलिक रूप से सीमित करने में मदद करता है, ताकि वे निर्धारित शक्तियों के आधार पर ही कार्य करें, न कि दायरे का परित्याग करके मनमाने ढंग से कार्य करें। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अतिरिक्त अधिकार के सिद्धांत पर विचार करते हुए कहा था कि एनएसी को केवल इस तरह कार्य करने का अधिकार है कि वह उन कर्तव्यों का पालन करे जो नागरिकों के कल्याण और कामकाज के लिए आवश्यक हैं और आम जनता के हितों के साथ विवाद नहीं करते हैं। संक्षेप में, यदि किसी स्थानीय सरकार को उसके प्राधिकृत कानून के दायरे में कोई शक्ति दी जाती है, तो ऐसी शक्ति का उपयोग उसकी सीमाओं के भीतर या प्राधिकृत कानून में स्पष्ट रूप से निहित रूप में सख्ती से किया जाना चाहिए। यदि इसका पालन नहीं किया जाता है, तो यह माना जाएगा कि शक्ति उसके कानूनी अधिकार से परे है और इसलिए, यह अवैध हो जाएगी। 

कानूनी अनुपालन

भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यहां जांच की कि क्या नगर पालिका समिति ने कराधान के संबंध में निर्णय लेने की प्रक्रिया के दौरान सभी आवश्यक कानूनी प्रक्रियाओं और शिष्टाचार (प्रोटोकॉल) का पालन किया था। कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करने का नियम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और इसमें वह कारक शामिल होता है जो यह सुनिश्चित करता है कि किसी विशेष मामले या विवाद में सभी आवश्यक कानूनी कदम और नियमों का पालन किया जाए। इसमें निष्पक्षता सुनिश्चित करने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय द्वारा स्थापित प्रासंगिक कानूनों, विनियमों और प्रक्रियाओं का पालन करना शामिल है। 

इस विशिष्ट मामले में यह देखा गया कि कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना और वैधता का अनुपालन महत्वपूर्ण है, क्योंकि जब कार्यवाही के पूर्व-परीक्षण चरणों में अपीलकर्ता द्वारा प्रतिवादी को सूचना नहीं भेजी गईं थी, तो न्यायालय ने इसे उनके कानूनी अधिकार का उल्लंघन माना था। इसके अलावा, न्यायिक निर्णय में कहा गया कि कर निर्धारण के संबंध में कानूनी अनुपालन होना चाहिए तथा यह कार्य विधान में स्थापित कानून के प्रावधानों के अनुसार किया जाना चाहिए। 

प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत

प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का अर्थ है कि न्यायपूर्ण और निष्पक्ष व्यवहार होना चाहिए तथा माननीय न्यायालयों का निर्णय कानून के दो प्रमुख सिद्धांतों को ध्यान में रखकर प्राप्त किया जाना चाहिए। ये दो सिद्धांत निम्नलिखित हैं- 

  • किसी भी व्यक्ति की बिना सुनवाई के निंदा नहीं की जाएगी, जिसकी लैटिन में कानूनी कहावत ऑडी अल्टरम पार्टम है; 
  • बिना किसी पूर्वाग्रह के न्याय करना, जिसे लैटिन में, नेमो आईयूडेक्स इन कॉजा सुआ कहा गया है।

निष्पक्ष सुनवाई के नियम का मूलतः अर्थ यह है कि किसी की भी बात अनसुनी नहीं की जानी चाहिए। सिद्धांत में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार दिया गया है कि उसके महत्वपूर्ण अधिकारों को छीने जाने या उस पर आरोप लगाए जाने से पहले उसकी बात सुनी जाए। उन्हें अपना मामला स्वयं प्रस्तुत करने की अनुमति दी जानी चाहिए तथा सुनवाई के इस सिद्धांत को प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत में अनिवार्य माना जाना चाहिए। 

इस मामले के संदर्भ में, भारत कला केंद्र का कर्तव्य था कि वह एनएसी के खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर करने से पहले उन्हें कानूनी सूचना भेजे। हालाँकि उन्होंने कभी भी नगरपालिका समिति से संपर्क नहीं किया तथा सीधे तौर पर अपना मामला प्रस्तुत किया, इसलिए उन्होंने नगरपालिका को सुनवाई का अधिकार नहीं दिया। यदि उन्होंने समिति को सूचना दी होती तो समिति का यह कर्तव्य होता कि वह दो सप्ताह के भीतर जवाब देती और इससे यह सुनिश्चित हो जाता कि उनकी बात सुनी गई है।

इसके अलावा, पक्षपात को दूर करने के लिए कानून के दायरे में दूसरा प्रमुख सिद्धांत यह है कि पक्षपात को दूर करने के लिए कानून के दायरे में कोई भी अपने मामले में स्वयं न्यायाधीश नहीं हो सकता है। यह व्यावहारिक रूप से उस व्यक्ति को, जो अभियुक्त है या अपराध के घटित होने से संबद्ध है, या फिर यदि मामले के निर्णय में उसकी कोई रुचि है, न्यायाधीश के रूप में मुकदमे की सुनवाई करने से रोकता है। दूसरे शब्दों में, यह निष्पक्षता की धारणा को स्थापित करता है जो किसी भी प्रकार के स्वार्थ रखने वाले व्यक्ति को मामले में निर्णय लेने वाला प्राधिकारी बनने से रोकता है। 

भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम नगरपालिका समिति, धामनगांव, (1966) का विश्लेषण  

धामनगांव के कानूनी विवाद में, अपीलकर्ता केंद्रीय प्रांतीय और नगरपालिका सरकार अधिनियम, 1922 के तहत करों के भुगतान को लेकर विवाद में शामिल थे। प्रारंभ में, अपीलकर्ताओं ने कानून द्वारा निर्धारित कुछ दरों पर कर का भुगतान किया, जो कानून के दायरे में था। हालांकि, एनएसी के एक प्रस्ताव पर वाणिज्यिक गतिविधियों में शामिल कंपनियों द्वारा करों की उच्च दर ली गई, लेकिन यह नगर पालिका समिति की शक्ति से परे था। 

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यहां अपीलकर्ताओं के पक्ष में फैसला सुनाया और घोषित किया कि वे मुकदमा दायर करने के तीन साल के भीतर उनके द्वारा अधिक भुगतान किए गए करों की वापसी के हकदार हैं क्योंकि यह कानून के दायरे में उनका अधिकार है। मुख्य मुद्दा यह था कि क्या कम्पनियों से वसूले जाने वाले कर की दर, स्वीकार्य सीमा से अधिक होने के कारण, तीन वर्षों की अवधि के लिए कर संग्रहण पूरी तरह से शून्य हो गया या अनियमित हो गया। 

तीन वर्ष की अवधि के लिए जो कर लगाया गया था, वह अपने आप में अवैध था। कर पहले से ही राज्य और केन्द्रीय प्राधिकारियों द्वारा निर्धारित सीमाओं से काफी हद तक अधिक था। इसके अलावा, कपास उद्योग में वाणिज्यिक व्यक्तियों पर लगाया गया कर गैरकानूनी माना गया क्योंकि इसे असंवैधानिक रूप से वसूला गया था। इस मामले ने कानून की उचित प्रक्रिया स्थापित करने में मदद की तथा यह स्थापित किया कि करों के संग्रह में नगरपालिकाओं की शक्ति मनमानी प्रकृति की नहीं हो सकती है। 

इसके अलावा, संपत्ति कानून और प्रतिकूल कब्जे के मुद्दे पर, फैसले में प्रतिकूल कब्जे के सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से भूमि के निर्बाध और निरंतर कब्जे के रूप में निर्धारित किया गया है, जिसके तहत कब्जाधारी संपत्ति का आनंद लेता है और संपत्ति पर कब्जा करने का उसका उद्देश्य होता है। यहां मालिक को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि संपत्ति का उपयोग कोई अन्य व्यक्ति कर रहा है, लेकिन यदि वह 12 वर्षों तक हस्तक्षेप नहीं करता है और न ही कोई दावा करता है, तो न्यायालय मामले के तथ्यों को देखने के बाद यह पता लगा सकता है कि यह प्रतिकूल कब्जे का मामला है या नहीं। 

निष्कर्ष

मामले के मुद्दे प्रकृति में जटिल हैं और कर लगाने के दायरे और संपत्ति मालिकों और नगरपालिका अधिकारियों के बीच अधिकार क्षेत्र के मामलों से निपटते हैं, जैसा कि भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम नगरपालिका समिति, धामनगांव मामले में अच्छी तरह से परिभाषित किया गया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इस महत्वपूर्ण न्यायिक फैसले में, माननीय न्यायालय ने भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड का पक्ष लिया है। इसके द्वारा, न्यायालय ने अधिकारियों द्वारा एकत्र किए गए किसी भी अत्यधिक कर भुगतान को पुनः प्राप्त करने के लिए कानूनी उपाय करने की उनकी क्षमता को मान्य किया है, जो वैध सीमाओं से अधिक अनधिकृत बिजली उपयोग के कारण हुआ है। 

इस फैसले का महत्व मुख्य रूप से नगर पालिकाओंों की शक्तियों की सीमाओं को स्पष्ट करने तथा नागरिकों के उचित कराधान अधिकारों की सुरक्षा के दायरे में निहित है। अत्यधिक कराधान के मामले में कानूनी मिसाल कायम करते हुए न्यायालय ने मूल रूप से घोषित किया था कि यदि प्राधिकारियों की स्पष्ट अनुमति के बिना अत्यधिक कर लगाया जाता है तो इसे अवैध तथा अधिकार क्षेत्र से बाहर का कार्य माना जाएगा। 

इस निर्णय ने इस मौलिक सिद्धांत को रेखांकित किया है कि नगरपालिका संस्थाओं को सदैव उन सीमाओं के भीतर काम करना चाहिए जो पहले से ही वैधानिक प्रावधानों और भारत के संविधान द्वारा स्थापित हैं। इससे यह सुनिश्चित होगा कि प्राधिकारियों की कार्रवाई न तो मनमानीपूर्ण होगी और न ही अवैध होगी तथा नागरिकों के अधिकारों को किसी भी तरह से नुकसान नहीं पहुंचेगा। निष्कर्ष रूप में, यह मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसने संपत्ति मालिकों के अधिकारों और कराधान के मामलों को बरकरार रखा है तथा कानूनी दायित्व के सिद्धांत को मजबूत किया है और नागरिकों के कल्याण को बरकरार रखा है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

वर्तमान मामले का निर्णय एक महत्वपूर्ण मिसाल क्यों माना जाता है?

इस निर्णय से यह बात कायम रखने में मदद मिली है कि नगर पालिकाओं जैसे स्थानीय प्राधिकारियों को कर लगाते समय कानून में निर्धारित कानूनी सीमाओं का पालन करना चाहिए। इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया है कि यदि किसी प्रकार का कर कानून की स्वीकार्य सीमा से परे लगाया जाता है तो ऐसा कर अमान्य और अनुचित है। यह मूलतः संपत्ति मालिकों के अधिकारों की रक्षा करने में मदद करता है और इस मामले में, वाणिज्यिक उद्यमियों को उन पर लगाए गए अत्यधिक करों से बचाने में सहायता करता है। 

वर्तमान निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने किस बात पर जोर दिया?

माननीय न्यायालय ने वैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करने तथा कानून द्वारा निर्धारित कर निर्धारण एवं लगाने की प्रक्रिया का पालन करने की आवश्यकता एवं महत्व पर जोर दिया। न्यायालय ने कहा कि व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिए कि वह संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप रहे तथा नागरिकों का कल्याण प्रभावित न हो। ऐसा इसलिए किया जाना चाहिए ताकि किसी व्यक्ति या समुदाय के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न हो। इसके अलावा, कानून की उचित प्रक्रिया का पालन करने और सभी मामलों में कानून के शासन को बनाए रखने पर जोर दिया गया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कर लगाते समय शक्ति का मनमाना उपयोग न हो। 

अदालत के फैसले का अन्य मालिकों और उनकी संपत्तियों के अधिकारों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

न्यायालय का निर्णय एक ऐतिहासिक फैसला था क्योंकि इसने संपत्ति मालिकों के अधिकारों को सुरक्षित रखा। इससे न केवल उन्हें संपत्ति पर अपने कानूनी स्वामित्व की पुष्टि करने का अधिकार मिला, बल्कि उन्हें एनएसी के खिलाफ मनमानी को चुनौती देने का अवसर भी मिला। इससे उन्हें उन मामलों में निवारण मांगने का अधिकार मिल गया जहां उन पर लगाए जा रहे करों की राशि अत्यधिक थी। 

वर्तमान मामले में पीठ का गठन किसने किया?

न्यायमूर्ति मुधोलकर, न्यायमूर्ति रघुबर दयाल, न्यायमूर्ति सुब्बा राव, न्यायमूर्ति बछावत और न्यायमूर्ति रामास्वामी की पीठ ने भारत कला भंडार (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम नगरपालिका समिति, धामनगांव, (1966) मामले में जूरी का गठन किया था। 

संदर्भ

 

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