यह लेख पुणे विश्वविद्यालय के डी ई एस लॉ कॉलेज की छात्रा Arushi Gupta द्वारा लिखा गया है। यह एक विस्तृत लेख है जिसमें (सीआरपीसी) इसके तहत चार्ज से संबंधित सभी पहलुओं को शामिल किया गया है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar ने किया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 2(B) में आरोपी को किसी भी आरोप के शीर्ष (टाइटल) के रूप में परिभाषित किया गया है जब आरोप में एक से अधिक शीर्ष होते हैं। कोड में दी गई कानूनी परिभाषा एक आम आदमी के लिए समझने के लिए पर्याप्त नहीं है। हालांकि, इसके अर्थ को केवल “आरोप” के रूप में व्याख्यायित (डिफाईन) किया जा सकता है। यह न्यायाधीश या न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त ठोस आरोप है, जो आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया साक्ष्य (प्रिमा फॅसी इविडेन्स) के आधार पर दिया गया है।
चार्ज/प्रभार का उद्देश्य (पर्पज ऑफ़ चार्ज)
सी आर पी सी के तहत, एक आरोपी को उस अपराध के बारे में सूचित किया जाना चाहिए जिसके लिए उस पर आरोप लगाया गया है। चार्ज का मुख्य उद्देश्य आरोपी को उस अपराध के बारे में बताना है, जिसके लिए उस पर आरोप लगाया गया है, ताकि वह अपने बचाव के लिए कुछ तैयार कर सके। आरोपी को अपने खिलाफ लगे आरोप के बारे में शुरुआत में ही बता देना चाहिए। प्रत्येक आरोपी को यह जानने का अधिकार है कि अभियोजन पक्ष (प्रॉसिक्यूशन) के पास उसके खिलाफ क्या है।
आरोपी के खिलाफ जो आरोप है इसके बारे में उस को सूचित करने पर आपराधिक कानून (क्रिमिनल लॉ) में दिए गए सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपना बचाव तैयार करने और न्याय प्राप्त करने के लिए समान अवसर देता है। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि गंभीर अपराधों के मामले में, कानून में आरोप को सटीक (एक्जेक्ट) और स्पष्ट रूप से लिखने के लिए कम करने की आवश्यकता होती है और अभियुक्त (जिसके खिलाफ चार्ज है) को पढ़कर दिखाया जाना चाहिए और सटीक और स्पष्टता के साथ समझाया जाना चाहिए।
वी.सी. शुक्ला बनाम राज्य के मामले में, न्यायमूर्ति देसाई ने निर्णय देते हुए कहा, “आरोप लगाने का उद्देश्य अभियुक्त को आरोप की प्रकृति को स्पष्ट और सटीक सूचना देना है जिसके लिए आरोपी को एक परीक्षण (ट्रायल) के लिए मिलने के लिए कहा जाता है।”
ऐसे मामले जहां आरोप तय किए गए हैं (टाइप्स ऑफ़ केसेस व्हेर चार्जेस आर फ्रेमड)
आरोपी के खिलाफ आरोप तय करने का सवाल तभी उठता है जब आरोपी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 277 और 239 के अनुसार आरोपमुक्त करने का हकदार नहीं है।
धारा 277 सत्र मामलों (सेशन केसेस) में अभियुक्तों को बरी करने से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि न्यायाधीश, अभियुक्त और अभियोजन पक्ष को सुनने के बाद और यहां प्रस्तुत साक्ष्य (एविडेन्स) और दस्तावेजों (डॉक्युमेंट्स) के अभिलेख (रिकॉर्ड) पर विचार करने के बाद, यह मानता है कि आरोपी के खिलाफ कारवाई करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, तो न्यायाधीश उसे लिखित में ऐसा करने के कारण देकर उसे आरोपमुक्त कर देगा और उस बारे मे रिकॉर्ड दर्ज करेगा।
संहिता की धारा 239 परवाना (वारंट) मामलों में अभियुक्तों को बरी करने से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि पुलिस विवरण (रिपोर्ट) और संहिता की धारा 173 के तहत प्रस्तुत दस्तावेजों पर विचार करने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि आरोपी के खिलाफ आरोप निराधार है, तो मजिस्ट्रेट आरोपी को बरी कर देगा। मजिस्ट्रेट अभियुक्त और अभियोजन पक्ष को सुनवाई (यांनी के अपनी बाते कोर्ट के सामने रखने) का अवसर देगा और कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा।
उपर दिए प्रकार के मामलों में आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत नीचे दी गई धाराओ के राहत आरोप तय किए जाते हैं:
- संहिता की धारा 228 के तहत सत्र मामले;
- पुलिस रिपोर्ट पर संहिता की धारा 240 के तहत वारंट मामले दर्ज;
- संहिता की धारा 246(1) के तहत पुलिस रिपोर्ट पर अन्यथा वारंट मामले स्थापित किए जाते है।
सत्र के मामले (सेशन केस)
संहिता की धारा 228 सत्र न्यायालय के सामने मुकदमे के मामले में आरोप तय करने से संबंधित है। ऐसे मामले में आरोपी के खिलाफ आरोप तभी तय होता है जब आरोपी संहिता की धारा 227 के तहत आरोप मुक्त करने का हकदार नहीं होता है।
संहिता की धारा 228 में कहा गया है कि:
यदि न्यायाधीश की यह राय है कि अभियुक्त ने ऐसा अपराध किया है जो:
- सत्र न्यायालय (सेशन कोर्ट) द्वारा विचारणीय (ट्राइबल) नहीं है, तो न्यायाधीश आरोपी के खिलाफ आरोप तय कर सकता है और मामले को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के किसी अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को विचारण के लिए देने का आदेश दे सकता है और वह मजिस्ट्रेट आरोपी को उस तारीख पर जो उन्हे अपेक्षित (एक्सपेक्टेड) हो तब सामने बुला सकता है, और उसके बाद वह मजिस्ट्रेट पुलिस विवरण पर स्थापित परवाना (वारंट) मामलों के विचारण की प्रक्रिया के अनुसार अपराध का विचारण करेगा;
- यदि अपराध न्यायालय द्वारा विशेष रूप से विचारणीय यांनी की महत्वपूर्ण है तो, न्यायाधीश आरोपी के खिलाफ लिखित रूप में आरोप तय करेगा, जिसे उस आरोप के मामले में पढ़ा जाएगा और आरोपी को समझाया जाएगा और आरोपी से पूछेगा कि क्या वह उस अपराध के लिए दोषी है, जो आरोप उस पर लगाया गया है या आरोप लगाने की कोशिश करने का दावा किया है।
पुलिस विवरण पर स्थापित वारंट मामले (वॉरेंट केसेस इंस्टीट्यूटेड ऑन पोलिस रिपोर्ट)
संहिता की धारा 240 पुलिस रिपोर्ट पर न्यायाधीश द्वारा स्थापित हुई वारंट मामलों की सुनवाई के मामले में आरोप तय करने से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि यदि विचार, परीक्षण और सुनवाई के बाद न्यायाधीश की यह राय है कि यह मानने के लिए पर्याप्त आधार हैं कि आरोपी ने इस अध्याय के तहत विचारणीय अपराध (ट्राइबल ऑफेंस) किया है, जिसके लिए न्यायाधीश प्रयास करने के लिए सक्षम है और उनकी राय है कि इस तरह के अपराध के आरोपी को उनके द्वारा पर्याप्त रूप से दंडित किया जा सकता है, तो वह आरोपी के खिलाफ लिखित रूप से आरोप तय कर सकते है।
पुलिस रिपोर्ट पर अन्यथा वारंट मामले दर्ज (वॉरेंट केसेस इंस्टीट्यूटेड अदरवाइज ऑन पोलिस रिपोर्ट)
संहिता की धारा 246 में कहा गया है कि जब किसी वारंट मामले में पुलिस रिपोर्ट के अलावा आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाता है और मजिस्ट्रेट की जांच और सुनवाई के बाद उनकी राय यह है, कि यह अपराध मान्य करने के लिए पर्याप्त आधार हैं कि आरोपी ने अपराध किया है। तो मजिस्ट्रेट आरोपी के खिलाफ लिखित रूप में आरोप तय करेंगे।
उपर दिए गए सभी मामलों में, जब आरोपी के खिलाफ आरोप तय किया जाता है, तो यह महत्वपूर्ण है कि उस आरोप को पढ़ा जाए और आरोपी को स्पष्ट और सटीक रूप से समझाया जाए। अभियुक्त से यह पूछना भी महत्वपूर्ण होगा कि क्या वह अपना दोष स्वीकार करता है या फिर उसे कोई बचाव करना है।
चार्ज में क्या शामिल होता है (कंटेंट ऑफ चार्ज)
स्वतंत्र और निष्पक्ष सुनवाई के लिए संहिता के अनुसार प्हली आवश्यकता यह है कि आरोपी को उस अपराध के बारे में सटीक रूप से सूचित किया जाए ताकि उसे अपना बचाव तैयार करने का उचित अवसर मिल सके।
संहिता की धारा 211 और 212 आरोप के रूपों और सामग्री को निर्धारित करती है। या फिर, जब मामले की प्रकृति ऐसी हो कि विचाराधीन (ऑफेंस इन क्वेश्चंस) अपराध को ऊपर दी गई धाराओं में बताए गए विवरणों द्वारा ठीक से वर्णित या अर्थ नहीं किया जा सकता है, ताकि अभियुक्त को उस अपराध की पर्याप्त सूचना दी जा सके जिसके लिए उस पर आरोप लगाया गया है, तो जिस तरह से जो अपराध अभियुक्त द्वारा किया गया था वह भी आरोप के विवरण में दिया होना चाहिए।
यह उस अपराध के आरोपी को पर्याप्त चेतावनी (नोटिस) देने के उद्देश्य से पर्याप्त माना जाएगा जिसके लिए उस पर आरोप लगाया गया है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 211 के अनुसार, संहिता के तहत प्रत्येक आरोप में निम्नलिखित शामिल होंगे:
- वह अपराध जिसके लिए अभियुक्त आरोपित है;
- यदि कोई कानून अपराध को कोई विशिष्ट नाम देता है, तो उस आरोप का उल्लेख केवल उसी नाम से होगा;
- अपराध की परिभाषा के कानून तहत किसी अपराध को कोई विशिष्ट नाम नहीं देता है, ताकि आरोपी को मामले की सूचना दी जा सके, जिसकी वजह से उस पर आरोप लगाया गया है;
- कानून की वह धारा जिसके खिलाफ अपराध किया गया है।
उपर दि गई धाराओं का उदाहरण (a) को इस प्रकार बताता है:
यदि A पर B की हत्या का आरोप लगाया जाता है, तो इसका मतलब है कि अपराध इस बयान के बराबर है कि A का कार्य हत्या की परिभाषा के अर्थ के अंतर्गत आता है जिसका उल्लेख भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 299 और धारा 300 में किया गया है। इसका यह भी अर्थ है कि A का कार्य भारतीय दंड संहिता में वर्णित किसी भी सामान्य अपवाद के अंतर्गत नहीं आता है। इसका अर्थ यह भी है कि यह धारा 300 के 5 अपवादों में से किसी में भी नहीं आती है या अगर यह अपवाद 1 के अंतर्गत आती है या उस पर लागू होने वाले अपवादों के तीन प्रावधानों में से एक या एक से अधिक है। तो मतलब यह है कि जब किसी आरोपी के खिलाफ आरोप तय किया जाता है, तो यह इस बयान के बराबर होता है कि आरोपी ने वह अपराध करते हुए उस विशेष मामले में उस अपराध को वास्तव में लाने के लिये या करने के लिए आवश्यक हर कानूनी शर्त को पूरा किया है। साथ ही वाह आरोप न्यायालय की भाषा में लिखा जाना चाहिए।
समय, स्थान और व्यक्ति के बारे में विवरण (पर्टिकुलार्स एज टू टाइम, प्लेस एंड पर्सन)
संहिता की धारा 212 के अनुसार, जिस आरोपी पर आरोप लगाया गया है, उसे मामले की पर्याप्त सूचना देने के लिए, आरोप में निचे दिये गये घटक शामिल होंगे:
- कथित अपराध का समय और स्थान;
- वह व्यक्ति (यदि कोई हो) जिसके विरुद्ध अपराध किया गया हो;
- वह बात (यदि कोई हो) जिसके संबंध में अभियुक्त द्वारा अपराध किया गया था।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यदि कोई अपराध किया जाता है जो आपराधिक विश्वासघात (क्रिमिनल ब्रिच ऑफ ट्रस्ट) या बेईमान दुर्विनियोजन (डीसओनेस्ट मिसॲप्रोप्रिएशन्) की प्रकृति का है, जब प्रश्न में सटीक राशि निर्धारित नहीं की जा सकती है, तो उस आरोप में सकल कीमत (एक्जेक्ट अमोंट) तय करने के लिए पर्याप्त होनेवाला धन या चल संपत्ति (मुवेबल प्रॉपर्टी), जैसा भी मामला हो, जिसके संबंध में अपराध किया गया था।
इसके अलावा, जिन तारीखों के बीच वह अपराध किया गया था, उनका भी आरोप पत्र में उल्लेख किया जाएगा। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि प्रश्न में सटीक वस्तुओं या सटीक तिथियों को तय करना आवश्यक नहीं होगा, बस यह बात ध्यान में रखणी चाहिए कि ऐसी तारीखों की पहली और अंतिम तिथि के बीच शामिल समय एक वर्ष से अधिक न हो।
चार्ज में कुछ कमियां (एरर इन चार्ज)
प्रभारी त्रुटि के मामले (एरर इन चार्ज केस) में प्रावधानों (प्रोविजन) को समझने के लिए धारा 215 और 216 को संहिता की धारा 464 के साथ पढ़ा जाना चाहिए।
त्रुटि का प्रभाव (इफेक्ट ऑफ़ एरर)
संहिता की धारा 215 के अनुसार, अपराध का वर्णन करने में कोई त्रुटि, या आरोप में उल्लेख किए जाने के लिए आवश्यक विवरणों को बताने में कोई त्रुटि, मामले के किसी भी चरण में महत्वपूर्ण नहीं होगी। इसके अलावा, इस तरह के अपराध या आरोप के विवरण को बताने में कोई चूक महत्वहीन (अन इंपॉर्टेंट) होगी। हालांकि, यदि ऐसी त्रुटि या इस तरह की चूक ने अभियुक्त को गुमराह किया है या यदि यह न्याय की असफलता का कारण बना है, तो ऐसी त्रुटि या चूक को महत्वपूर्ण माना जाएगा।
न्यायालय किसी आरोप में परिवर्तन या संशोधन कब कर सकता है (व्हेन कोर्ट कैन अल्टर ऑर अमैंड अ चार्ज)
धारा 216 उन शर्तों को बताती है जिनके तहत न्यायालय किसी भी आरोप में बदलाव/संशोधन/जोड़ सकता है:
- निर्णय सुनाए जाने से पहले, न्यायालय किसी भी आरोप को बदल (चेंज) या संशोधित (रिवाइज) कर सकता है;
- इस तरह के परिवर्तन या परिवर्धन (एडिशन) को आरोपी के सामने पढ़ना और समझाया जाना चाहिए;
- यदि न्यायालय की राय में, आरोप में किसी प्रकार की कमी (वृद्धि) या परिवर्तन से अभियुक्त को उसके बचाव में या उसके मामले के संचालन में अभियोजक पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है, तो न्यायालय आरोप को बदल सकता है या संशोधित कर सकता है और उसके अनुसार मुकदमे को विवेक के साथ आगे बढ़ा सकता है;
- लेकिन यदि न्यायालय की यह राय है कि आरोप में परिवर्तन या परिवर्धन से अभियुक्त या अभियोजक पर उपर दिए गए प्रतिकूल (एडवर्स) प्रभाव पड़ने की संभावना है, तो परिवर्तन या संशोधन के बाद, न्यायालय अपने विवेक से या तो एक नए परीक्षण का निर्देश दे सकता है या ऐसी अवधि के लिए परीक्षण स्थगित कर सकता है जो वह आवश्यक समझे;
- यदि परिवर्तित या अतिरिक्त आरोप में बताए गए अपराध के लिए अभियोजन की पूर्व स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक है, तो न्यायालय मामले पर तब तक कार्यवाही नहीं करेगा जब तक कि ऐसी स्वीकृति प्राप्त नहीं हो जाती।
ढांचे (फ्रेम) में चूक का प्रभाव, या अनुपस्थिति, या चार्ज में त्रुटि (इफेक्ट ऑफ़ ओमिशन टू फ्रेम, ऑर अब्सेंस ऑफ़, ऑर एरर इन चार्ज)
संहिता की धारा 464 यह कहती है:
(1) सक्षम अधिकारी (वेलिड जुरिजड़ीक्शन ) वाले न्यायालय द्वारा कोई निष्कर्ष, सजा या आदेश केवल इस आधार पर अमान्य नहीं माना जाएगा कि:
- कोई आरोप तय नहीं किया गया था;
- आरोप के गलत संयोजन सहित उसमे कोई त्रुटि, चूक या अनियमितता थी।
न्यायालय के ऐसे निष्कर्ष, सजा या आदेश को तभी अमान्य माना जाएगा जब अपील, पुष्टि (कन्फर्मेशन) या पुनरीक्षण (रिवीजन) की अदालत की राय में न्याय की सफलता न हुई हो।
(2) जब अपील, पुष्टिकरण या पुनरीक्षण की वजह से न्यायालय की राय है कि वास्तव में न्याय की सफलता नहीं हुई है, तो-
1. यदि आरोप विरचित (फ्रेम) करने में कोई चूक होती है, तो वह न्यायालय आदेश दे सकता है कि आरोप विरचित किया जा सकता है और आरोप विरचित होने के तुरंत बाद उस बिंदु से विचार फिर से शुरू किया जा सकता है;
2. आरोप में त्रुटि, चूक या अनियमितता के मामले में, निर्देश दें कि एक नया परीक्षण शुरू किया जाए, जो कि न्यायालय द्वारा ठीक समझे जाने वाले तरीके से लगाए गए आरोप पर शुरू किया जाए।
अगर न्यायालय की यह राय है कि मामले के तथ्य (फैक्ट्स) इस प्रकार के हैं कि सिद्ध किए गए मामले के तथ्यों के संबंध में अभियुक्त के विरुद्ध कोई वैध आरोप नहीं लगाया जा सकता है, तो वह न्यायालय अभियुक्त की दोषसिद्धि को रद्द कर देगा।
इस संबंध में तुलसी राम और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले का उल्लेख किया जा सकता है। इस मामले में, न्यायालय ने इन पहलुओं पर विचार किया और यह निर्धारित किया कि अपीलकर्ता अपने खिलाफ आरोपों को पूरी तरह से समझते हैं और उन्होने मुकदमे के उचित चरण में कभी भी शिकायत नहीं की, कि वे अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों से भ्रमित (कन्फ्यूज) थे। इसलिए, कोर्ट ने आरोपियों द्वारा उनके खिलाफ आरोप तय करने के संबंध में उठाई गई किसी भी शिकायत को स्वीकार करने से इनकार कर दिया
चार्ज बदलने पर गवाह को वापस बुलाना (रिकॉलिंग ऑफ़ विटनेस व्हेन चार्ज इज अल्टरड़)
संहिता की धारा 217 के अनुसार, जब भी विचार शुरू होने के बाद आरोप में परिवर्तन किया गया है, अभियुक्त और अभियोजन को अनुमति दी जाएगी:
- किसी ऐसे गवाह को वापस बुलाना या फिर से बताना जिसका पहले ही परीक्षन हो चुका है और ऐसे परिवर्तन या परिवर्धन के संदर्भ में उसकी परीक्षा करना;
- हालांकि, अगर अदालत की राय है कि अभियोजक या आरोपी गवाह को वापस बुला रहा है या न्याय के अंत को परेशान करने या देरी करने या पराजित (डिफीटेड) करने की दृष्टि से फिर से जांच कर रहा है, तो न्यायालय लिखित में कारण देकर ऐसे गवाह की फिर से जांच करने के लिए अनुमति देने से इनकार कर सकता है;
- अदालत जो उस मामले के लिए किसी और गवाह को बुलाने के लिए कि उपयुक्त मानती है तो वह ऐसा कर सकती है।
आरोप और उसके परीक्षण के बारे में दिए गए नियम (बेसिक रूल एज टू चार्ज एंड ट्रायल ऑफ़ चार्ज)
संहिता की धारा 218 से धारा 224 आरोपों के संयोजन (कॉम्बिनेशन) से संबंधित है (जिसका अर्थ है कि कुछ मामलों में एक ही अपराध के आरोप में एक से अधिक अभियुक्तों पर मुकदमा चलाया जा सकता है)।
संहिता की धारा 218 अभियुक्त के विचार के मूल नियम से संबंधित है। संहिता की धारा 219, 220, 221 और 223 मूल नियम के अपवादों से संबंधित है। धारा 222 में उन परिस्थितियों का प्रावधान है जिसके तहत अभियुक्त को उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जा सकता है जिस पर मुकदमे की शुरुआत में उस पर आरोप नहीं लगाया गया था। धारा 224 शेष आरोपों को वापस लेने से संबंधित है, जब कई आरोपों में से एक के लिए ही दोषी ठहराया गया हो।
संहिता की धारा 218 में कहा गया है कि प्रत्येक अपराध के लिए जिस व्यक्ति पर आरोप लगाया जाता है, उसके लिए एक अलग आरोप होगा और प्रत्येक आरोप पर न्यायाधीश द्वारा अलग से विचार किया जाएगा। फिर भी, अगर अभियुक्त व्यक्ति चाहता है और न्यायाधीश से लिखित रूप में अनुरोध करता है और न्यायाधीश की राय है कि ऐसे व्यक्ति को मामले में पहले से ही ग्रस्त नहीं किया जाएगा, तो न्यायाधीश सभी आरोपों या आरोपों की एक साथ अनुरोध करने की कोशिश कर सकता है जैसा कि वह उचित समझे।
मूल नियम के अपवाद (एक्सेप्शन टू द बेसिक रूल)
एक साल के भीतर एक ही तरह के तीन अपराधों का ट्रायल (ट्रायल ऑफ़ ऑफेंसस ऑफ़ सेम काइंड विथिन अ ईयर)
संहिता की धारा 219 में कहा गया है कि जब किसी व्यक्ति ने पहले से अंतिम अपराध तक बारह महीने की अवधि के भीतर एक ही तरह के एक से अधिक अपराध किए हैं, चाहे वह एक ही व्यक्ति के संबंध में हो या नहीं, उस पर आरोप लगाया जा सकता है या किसी भी संख्या में अपराधों के लिए एक मुकदमे में मुकदमा चलाया जा सकता है, जो तीन से अधिक नहीं होंगे।
एक से अधिक अपराधों के लिए विचारण (ट्रायल फोर मोर देन वन ऑफेंस)
- संहिता की धारा 220 के अनुसार, जब कृत्यों की श्रृंखला (सीरीज ऑफ़ एक्ट्स) ऐसी है कि वे इतने जुड़े हुए हैं कि वे एक ही लेन-देन का हिस्सा बनते हैं और ऐसे कृत्यों की श्रृंखला द्वारा एक से अधिक अपराध किए जाते हैं, तो आरोपी पर एक मुकदमे में ऐसे हर अपराध के लिए आरोप लगाया जा सकता है और मुकदमा चलाया जा सकता है ;
- यदि उस व्यक्ति पर धारा 212 की उपधारा (2) या संहिता की धारा 219 की उपधारा (1) में प्रदान किए गए आपराधिक विश्वासघात या संपत्ति के बेईमान दुर्विनियोजन के एक या अधिक अपराधों का आरोप लगाया गया है, और जब उस व्यक्ति पर उस अपराध के किए जाने को सुविधाजनक बनाने या छिपाने के उद्देश्य से खातों मे गलत तरीके से अदला बदल (फलसिफिकेशन) के एक या अधिक अपराध करने का आरोप है, तो उस पर ऐसे प्रत्येक अपराध का आरोप लगाया जा सकता है और एक ही मुकदमे में ऐसे सभी आरोपों के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है;
- यदि ऊपर बताए गए कार्य किसी कानून की दो या दो से अधिक अलग-अलग परिभाषाओं के अंतर्गत आने वाले अपराध को संबोधित करते हैं, तो आरोपी व्यक्ति पर ऐसे अपराधों का आरोप लगाया जा सकता है और उनके लिए एक ही मुकदमे में मुकदमा चलाया जा सकता है;
- कई कार्यों के मामले में जब या तो एक कार्य खुद या उनमें से एक से अधिक कार्य खुद एक अपराध की तैयारी करते हैं, या फिर एक साथ मिलकर एक अलग अपराध का गठन करते हैं, तो उस आरोपित व्यक्ति पर ऐसे कृत्यों द्वारा गठित अपराध का आरोप लगाया जा सकता है या उन कार्यों में से एक या एक से अधिक द्वारा गठित किसी भी अपराध के लिए आरोपित ठहराया जा सकता है।
जब यह संदेहास्पद है कि क्या अपराध किया गया है (व्हेन इट इज डाउटफुल वॉट ऑफेंस हेज बिन कमिटेड)
संहिता की धारा 221 में कहा गया है कि यदि कोई एक कार्य या कार्यों की श्रृंखला इस प्रकार की प्रकृति की है कि यह संदेहास्पद है कि ऐसे कृत्यों में से कौन से कई अपराधों का गठन होगा, तो अभियुक्त पर ऐसे सभी या किसी भी अपराध और उनमें से किसी भी संख्या का आरोप लगाया जा सकता है आरोपों का एक बार में प्रयास किया जा सकता है।
यदि ऐसा मामला तब उत्पन्न होता है जब आरोपी पर एक अपराध का आरोप लगाया जाता है, लेकिन सबूत बताते हैं कि उसने एक अलग अपराध किया है जिसके लिए उपधारा (1) के प्रावधानों के तहत उस पर आरोप लगाया जा सकता है, तो उसे आरोप के लिए दोषी ठहराया जा सकता है जिस अपराध का सबूत यह दर्शाता है कि वह अपराध उससे किया गया है, भले ही उस पर मुकदमे की शुरुआत में आरोप नहीं लगाया गया था।
जिन व्यक्तियों पर संयुक्त रूप से आरोप लगाया जा सकता है (पर्सन हू मे बी चार्ज्ड जॉइंटली)
संहिता की धारा 223 उन व्यक्तियों की सूची प्रदान करती है जिन पर संयुक्त रूप से आरोप लगाया जा सकता है। इसमें आरोपी व्यक्ति शामिल हैं:
- एक ही लेन-देन के दौरान किए गए एक ही अपराध;
- किसी अपराध को उकसाने (प्रोवोकिंग) या करने का प्रयास करने का अपराध;
- धारा 219 के अर्थ में एक से अधिक अपराध;
- एक ही लेनदेन के दौरान किए गए विभिन्न अपराध;
- एक अपराध जिसमें चोरी, जबरन वसूली (एक्सटोशन), धोखाधड़ी, या आपराधिक दुर्विनियोग (क्रिमिनल मिसएप्रोप्रेशन) शामिल है, और जिन पर संपत्ति के कब्जे को प्राप्त करने या बनाए रखने, या निपटाने या छिपाने में सहायता करने का आरोप लगाया गया है, जिसके बारे में पहले द्वारा किए गए ऐसे किसी भी अपराध द्वारा स्थानांतरित (ट्रान्सफर्ड) किया गया है जहा नामित व्यक्तियों, या इस तरह के किसी भी अंकित नाम के अपराध को उकसाने या करने का प्रयास किया गया है;
- चोरी की संपत्ति के संबंध में भारतीय दंड संहिता की धारा 411 और 414 या उन धाराओं में से किसी एक के तहत अपराध, जिसका कब्जा ऐसे अपराध द्वारा स्थानांतरित किया गया है;
- नकली सिक्के से संबंधित भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) के अध्याय XII के तहत कोई अपराध और एक ही सिक्के से संबंधित उक्त अध्याय के तहत किसी अन्य अपराध के आरोपी व्यक्तियों, या ऐसे किसी भी अपराध को करने के लिए उकसाने या करने का प्रयास; और इस अध्याय के पूर्व भाग में निहित प्रावधान, जहां तक हो सके, ऐसे सभी आरोपों पर लागू होंगे।
हालांकि, जब कई व्यक्तियों पर अलग-अलग आरोप लगाए जाते हैं और वे धारा 223 में उल्लेखित किसी भी व्यक्ति की श्रेणी में नहीं आते हैं, तो वे न्यायाधीश या सत्र न्यायालय, जैसा भी मामला हो, को लिखित रूप में आवेदन कर सकते हैं, और न्यायाधीश या सत्र न्यायालय संतुष्ट होने पर कि मामले पर प्रतिकूल प्रभाव (एडवर्स इफेक्ट) नहीं पड़ेगा, ऐसे सभी व्यक्तियों पर एक साथ मुकदमा चलाया जा सकता है।
धारा 219, 220, 221 और 223 में उल्लिखित मूल नियम के अपवादों के संबंध में प्रावधान केवल प्रकृति के रूप में सक्षम हैं। इन अपवादों को लागू करना और संयुक्त रूप से आरोपों का परीक्षण करना न्यायालय का विवेकाधिकार (दिस्क्रिष्न) है। रणछोड़ लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में, यह माना गया था कि यह न्यायालय का विवेक है कि आरोपों को जोड़ने की अनुमति दी जाए या नहीं। इस अधिकार का सहारा लेना अभियुक्त पर नहीं है।
किसी अपराध के दोषसिद्धि पर आरोप नहीं लगाया गया (कनविक्शन ऑफ़ एन ऑफेंस नॉट चार्ज्ड)
संहिता की धारा 222 में उन शर्तों का उल्लेख है जिसके तहत आरोपी को उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जा सकता है जिसके लिए उस पर आरोप नहीं लगाया गया था। ऐसे अपराधों में शामिल हैं:
- आरोप के केवल कुछ विवरणों के संयोजन द्वारा गठित एक पूर्ण नाबालिग अपराध जब संयोजन साबित हो जाता है लेकिन शेष विवरण साबित नहीं होता है;
- तथ्यों से साबित होने पर आरोपित अपराध में कमी के परिणामस्वरूप होने वाला मामूली अपराध;
- आरोपित अपराध को अंजाम देने का प्रयास।
कई आरोपों में से एक के दोषसिद्धि पर शेष शुल्क की वापसी (विथड्रावल ऑफ़ रेमेनिंग चार्जेस ऑन कनविक्शन ऑफ़ वन ऑफ द सेवरल चार्जेस)
संहिता की धारा 224 में कहा गया है कि किसी मामले में, यदि एक ही व्यक्ति के खिलाफ एक से अधिक प्रमुखों वाला आरोप तय किया जाता है, और जब उनमें से एक या अधिक पर दोष सिद्ध हो जाता है, तो शिकायतकर्ता, या अभियोजन का संचालन (ऑपरेशन) करने वाला अधिकारी, न्यायालय की सहमति से शेष प्रभार या आरोपों को वापस ले सकता है। हालांकि, न्यायालय, अपनी मर्जी से, आरोप की जांच या ऐसे आरोप या आरोपों के परीक्षण पर रोक लगाने का आदेश दे सकता है।
आरोप या आरोपों की इस तरह की वापसी का ऐसे आरोप या आरोपों पर अभियुक्त के बरी होने का प्रभाव होगा, जब तक कि सिद्ध किए गए दोष को रद्द नहीं किया जाता है, जिसके मामले में उक्त न्यायालय आरोपों की जांच या परीक्षण के साथ आगे बढ़ सकता है या शुल्क वापस ले लिया। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि उक्त जांच दोषसिद्धि को रद्द करने वाले न्यायालय के आदेश के अधीन होगी।
यह अच्छी तरह से स्थापित है कि यह धारा केवल उन मामलों पर लागू होती है जहां आरोपी को अन्य आरोपों की कोशिश से पहले कई अलग-अलग आरोपों में से एक के लिए दोषी ठहराया गया है।
निष्कर्ष (कनक्लूजन)
आपराधिक प्रक्रिया संहिता आरोप तय करने के लिए अभ्यास और प्रक्रिया के मूल नियम निर्धारित करती है। आरोप तय करना मामले का सबसे बुनियादी (बेसिक) यांनी की पहला कदम है। आरोप तय करते समय पूरी सावधानी बरती जानी चाहिए क्योंकि ऐसा न करने पर न्याय दूर हो सकता है या उसे निकला जा सकता है। अपराध के प्रत्येक आरोपी व्यक्ति को विशेष रूप से आरोप के बारे में सूचित किया जाएगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष सुनवाई के लिए जरूरी है कि आरोपी को उसके खिलाफ लगे आरोप से उसकी पहेचान करायी जाए ताकि वह अपना केस तैयार कर सके।
यह आरोप, प्रारूप (फॉर्मेट) में होगा और इसमें संहिता (कोड) में उल्लिखित सामग्री होगी ताकि आरोपी अपने खिलाफ लगाए गए आरोप को स्पष्ट रूप से समझ सके। न्यायालय का निर्णय सुनाए जाने से पहले मामले की निरंतरता के दौरान किसी भी समय आरोप को बदलने या जोड़ने की शक्ति है। लेकिन जब न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट की राय हो कि आरोपी के खिलाफ मामला स्थापित करने के लिए कोई प्रथम नहीं है, तो आरोपी के खिलाफ आरोप हटा दिया जाना चाहिए और आरोपी को कानून के अनुसार मुक्त किया जाना चाहिए।