अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008): अत्यधिक प्रत्यायोजन

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यह लेख Tarun Dogne द्वारा लिखा गया है तथा Priyanka Jain द्वारा संपादित किया गया है। यह लेख अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) के मामले का विस्तृत विश्लेषण है। इस लेख में मामले के तथ्य, इसकी पृष्ठभूमि, दोनों पक्षों द्वारा दी गई दलीलें, साथ ही निर्णय और उसके पीछे के औचित्य पर चर्चा की गई है, साथ ही प्रासंगिक कानूनी प्रावधानों और पूर्ववर्ती प्रावधानों का भी उल्लेख किया गया है। यह मामला संविधान (तिरानवे) संशोधन अधिनियम, 2005 और केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 के संबंध में शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के मुद्दे से संबंधित था। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारत में अनेक वंचित लोग हैं, विशेषकर ऐसे वर्ग या समूह जिन्हें अतीत में निम्न जाति या निम्न दर्जा दिया गया था। इन समूहों को समाज में समान दर्जा प्राप्त नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से, हर सरकार ने हमारे समाज से इस सामाजिक असमानता को मिटाने का संकल्प लिया है। भारत में जाति-आधारित समाज का इतिहास काफी पुराना है और समय के साथ इसकी प्रकृति और भी कठोर होती चली गई है। हमारे संविधान के संस्थापक डॉ. बी.आर. अंबेडकर भारत में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की कामना करते थे। संविधान का अनुच्छेद 15 (धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का प्रतिषेध) और अनुच्छेद 46 (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देना) इस विशेष विचार के मुख्य प्रतिबिंब (रिफ्लेक्शन) हैं।

भारत में, अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के लिए कल्याणकारी नीतियों की देखरेख के लिए राज्य सरकार में अलग-अलग विभाग हैं। कई गैर सरकारी संगठन और संघ भी मौजूद हैं जो स्वेच्छा से हमारे समाज के कमजोर वर्गों के कल्याण को बढ़ावा देते हैं। सरकार इसके लिए कल्याणकारी कार्यक्रमों पर अपना व्यय भी लगातार बढ़ा रही है। हमारा संविधान विधायिका के साथ-साथ सेवाओं और शिक्षा में समाज के कमजोर वर्गों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व का प्रावधान करता है। 

आरक्षण समाज के कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए एक साधन है। प्रारंभ में भारत में आरक्षण का लाभ केवल अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) तक ही सीमित था, लेकिन मंडल आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशों के बाद, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को भी आरक्षण के दायरे में शामिल कर लिया गया। शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण पर अलग-अलग राय हैं। सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ उच्च न्यायालयों में भी इसके विरोध और पक्ष में कई विरोध प्रदर्शन और विभिन्न याचिकाएं दायर की गई हैं। दोनों पक्षों की ओर से विभिन्न तर्क दिए जा रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि आरक्षण विपरीत भेदभाव पैदा कर सकता है, जबकि कुछ का तर्क है कि समाज के कुछ वर्गों को शिक्षा या अन्य बुनियादी सुविधाओं और अवसरों से अलग करना अनुचित है। 

अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) मामले में मुख्य रूप से इस मुद्दे पर विचार किया गया कि क्या समाज के कमजोर वर्गों के लिए शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण संवैधानिक रूप से वैध है। इस बैठक में संविधान (तिरानबेवां) संशोधन अधिनियम, 2005 और केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 के संबंध में चर्चा की गई है। 

93वें संशोधन अधिनियम के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें।

मामले की पृष्ठभूमि

93वें संविधान संशोधन अधिनियम के बाद, संसद द्वारा केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 पारित किया गया। इस अधिनियम की धारा 3, केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थाओं में अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% तथा अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए 27% आरक्षण प्रदान करती है। यह अधिनियम अल्पसंख्यक (माइनॉरिटी)  संस्थानों सहित सभी सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों पर लागू होता है। इस अधिनियम का उद्देश्य उच्च शिक्षा तक पहुंच के समान अवसर उपलब्ध कराकर सामाजिक न्याय प्राप्त करना है। 

भारत में, राज्य द्वारा संचालित या सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में, गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों की तुलना में सीटें बहुत सीमित होती हैं। संसद ने निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों को राज्य की आरक्षण नीति के दायरे में लाने और समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षिक हितों को बढ़ावा देने के लिए संविधान (तिरानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2005 पारित किया। इस संशोधन ने राज्य की विशेष प्रावधान करने की क्षमता का दायरा बढ़ा दिया। संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया अनुच्छेद 15(4) शैक्षिक उन्नति का उल्लेख करता है, लेकिन “शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश” शब्द को इसमें शामिल नहीं किया गया। 93वें संशोधन अधिनियम ने अनुच्छेद 15(5) जोड़ा, जो सरकार को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (एसईबीसी), एससी/एसटी और ओबीसी की बेहतरी के लिए कानून बनाने की अनुमति देता है। ऐसे कानून सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त दोनों शैक्षणिक संस्थानों पर लागू होंगे। हालाँकि, ये कानून अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित संस्थाओं पर लागू नहीं होंगे। इस अनुच्छेद के अंतर्गत, “शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश” शब्द का उल्लेख किया गया था। इसलिए अनुच्छेद 15 में खंड 5 जोड़कर संसद के साथ-साथ राज्य विधानसभाओं को भी आरक्षण के संबंध में उचित कानून बनाने का अधिकार दिया गया। 

1955 में, कालेलकर आयोग, जिसे राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के रूप में भी जाना जाता है, की स्थापना संविधान के अनुच्छेद 340 (पिछड़े वर्गों की स्थिति की जांच के लिए एक आयोग की नियुक्ति) के तहत की गई थी। इस आयोग का एक उद्देश्य उन मानदंडों की पहचान करना था जिनके आधार पर ओबीसी की पहचान संभव हो सके, लेकिन यह समस्या का कोई संतोषजनक समाधान निकालने में विफल रहा था। 

1980 में मंडल आयोग की स्थापना की गई और इसने सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन जैसे कारकों पर विचार करने के बाद 3743 पिछड़ी जातियों को शामिल करते हुए एक सूची तैयार की। मंडल आयोग ने भी आरक्षण की सिफारिश की थी। आयोग ने शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की। इस सिफारिश को 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने लागू किया था। इसके कार्यान्वयन के बाद, भारत में पूरे देश में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। लोगों का मानना था कि यह दो मुख्य कारणों से उचित नहीं है – पहला, इसका क्रियान्वयन जाति-आधारित समाज की ओर एक कदम होगा, और दूसरा, ओबीसी अब पूरी तरह से समाज का वंचित वर्ग नहीं रह गया है। 

मामले का विवरण

  • मामले का नाम: अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ
  • याचिकाकर्ता: अशोक कुमार ठाकुर
  • प्रतिवादी: भारत संघ
  • मामले का प्रकार: सिविल रिट याचिका
  • अदालत: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • पीठ: भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालकृष्णन, न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत, न्यायमूर्ति सी. के. ठक्कर, न्यायमूर्ति आर. वी. रवींद्रन, न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी
  • निर्णय की तिथि: 10 अप्रैल, 2008
  • उद्धरण: (2008) 6 एससीसी 1138 

अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) के तथ्य

केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 के पारित होने के बाद इसके प्रावधानों को चुनौती देते हुए कई याचिकाएं दायर की गईं। 93वें संशोधन अधिनियम, 2005 की संवैधानिकता को भी विभिन्न आधारों पर चुनौती दी गई। प्रारंभ में इन रिट याचिकाओं की सुनवाई के लिए दो न्यायाधीशों की एक पीठ गठित की गई थी, लेकिन इस मामले के महत्व पर विचार करने के बाद, सभी संबंधित याचिकाओं को एक संविधान पीठ को भेज दिया गया, और इसी से वर्तमान मामला आया था। 

उठाए गए मुद्दे 

अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) का मामला केंद्रीय शिक्षा संस्थान अधिनियम की वैधता और 93वें संशोधन अधिनियम के अनुच्छेद 15 में खंड (5) को शामिल करने के इर्द-गिर्द घूमता था। इस संबंध में निम्नलिखित मुद्दों पर चर्चा की गई: 

  • क्या नवोन्नत वर्ग (क्रीमी लेयर) को आरक्षण अधिनियम से बाहर रखा जाना चाहिए?
  • नवोन्नत वर्ग बहिष्करण के लिए विभिन्न मापदंड क्या हैं?
  • क्या नवोन्नत वर्ग का बहिष्कार एससी/एसटी पर लागू है?
  • क्या प्राथमिक शिक्षा पर अधिक जोर दिए बिना अनुच्छेद 21A के तहत मौलिक अधिकार को पूरा किया जा सकता है? 
  • क्या 93वां संशोधन संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है?
  • क्या सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए जाति का उपयोग करना धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन है?
  • क्या अनुच्छेद 15(4) और 15(5) परस्पर विरोधाभासी हैं, जिससे 15(5) असंवैधानिक है? 
  • क्या अनुच्छेद 15(5) के तहत अल्पसंख्यक संस्थानों को आरक्षण के दायरे से छूट देना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है? 
  • क्या अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित समीक्षा के मानक अनुच्छेद 15(5) और इसी तरह के प्रावधानों के तहत सकारात्मक कार्रवाई की हमारी समीक्षा पर लागू होते हैं?
  • ओबीसी पहचान के संबंध में, क्या आरक्षण अधिनियम द्वारा केंद्र सरकार को शक्तियां सौंपना अत्यधिक था?
  • क्या केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 अवैध है, क्योंकि इसमें संचालन के लिए समय-सीमा निर्धारित करने के साथ-साथ आवधिक समीक्षा का प्रावधान भी नहीं किया गया है?
  • किसी वर्ग को शैक्षिक रूप से पिछड़ा घोषित करने के लिए कौन से शैक्षिक मानक निर्धारित किए जाने चाहिए?
  • क्या ओबीसी आरक्षण को सामान्य वर्ग की तुलना में थोड़ा कम कट-ऑफ अंक निर्धारित करके सामाजिक हितों के साथ संतुलित करना उचित होगा? 

पक्षों के तर्क

विवाद में पक्षकारों द्वारा दिए गए मुख्य तर्क यहां दिए गए हैं। 

याचिकाकर्ताओं की दलीलें

  • याचिकाकर्ताओं ने मुख्य रूप से 93वें संशोधन अधिनियम, 2005 की संवैधानिकता को चुनौती दी। उन्होंने तर्क दिया कि इस संशोधन ने समानता के सिद्धांत को खत्म कर दिया है, जो हमारे संविधान निर्माताओं का उद्देश्य था। इस संशोधन अधिनियम द्वारा स्वर्णिम त्रिभुज के संतुलन और संरचना को बदल दिया गया था, जिसमें अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), 19 (कुछ अधिकारों का संरक्षण) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) शामिल हैं।
  • यह कहा गया कि अनुच्छेद 15(4) और 15(5) परस्पर अनन्य हैं और अनुच्छेद 15(5) अल्पसंख्यक संस्थाओं को बाहर करता है, जो समानता के सिद्धांत से स्पष्ट विचलन है। संशोधन ने अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने की राज्यों की शक्ति को छीनकर अनुच्छेद 15(4) और 15(5) के बीच असंगति पैदा कर दी। इसके अलावा, यह संविधान की प्रस्तावना (प्रिएंबल) में निहित धर्मनिरपेक्षता के लक्ष्य के भी विरुद्ध है। अल्पसंख्यक संस्थाओं को अनुच्छेद 15(5) के दायरे से अलग नहीं किया जा सकता है। इसलिए, संपूर्ण संशोधन को अवैध घोषित किया जाना चाहिए। 
  • याचिकाकर्ताओं में से एक के वकील हरीश साल्वे ने तर्क दिया कि शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश केवल योग्यता के आधार पर होना चाहिए। अगर कोई कानून राज्य को कम योग्यता वाले छात्रों को प्रवेश पाने के लिए अधिक योग्य छात्रों की तुलना में वरीयता देने की अनुमति देता है, तो यह स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण है। आगे यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 15(5) केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 को मान्य नहीं करता है। केवल जाति के आधार पर वरीयता प्राप्त प्रवेश, संविधान के अनुच्छेद 29(2) का उल्लंघन करता है, जैसा कि मद्रास राज्य बनाम श्रीमति चम्पकम दोराईराजन (1951) में निर्धारित किया गया है। यद्यपि अनुच्छेद 15(5) अनुच्छेद 15(1) का अपवाद है, फिर भी अत्यधिक आरक्षण विपरीत भेदभाव में बदल सकता है। विद्वान वकील ने यह भी कहा कि इस अधिनियम को सामाजिक उन्नति के उद्देश्य से नहीं बल्कि राजनीतिक लाभ के लिए लाया गया था। अधिनियम के प्रावधान प्रथम दृष्टया अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हैं तथा ऐसे प्रावधान की आवश्यकता साबित करने का दायित्व राज्य पर है। 
  • याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि नामित पिछड़े वर्गों के कुछ सदस्य हर पहलू में अत्यधिक उन्नत हैं। वे पिछड़े वर्ग में सबसे ऊपर हैं। वे सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से उतने ही उन्नत हैं जितने कि अगड़े वर्ग के अन्य सदस्य। वे पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का पूरा लाभ उठाते हैं और उन लोगों की प्रगति में बाधा डालते हैं जिन्हें वास्तव में ऐसे लाभों की आवश्यकता है। 
  • यह तर्क दिया गया कि यदि अनुच्छेद 15(5) को लागू रहने दिया गया तो जातिविहीन और वर्गविहीन समाज का लक्ष्य हासिल करने के बजाय भारत जाति-ग्रस्त समाज में परिवर्तित हो जाएगा। देश हमेशा जाति के आधार पर विभाजित रहेगा। प्रमुख बिन्दुओं में से एक यह था कि शैक्षिक पिछड़ेपन का निर्धारण करने के लिए, प्राप्त शिक्षा के स्तर पर विचार किया जाता है। यदि किसी निर्दिष्ट पिछड़े वर्ग के आधे सदस्य प्रवेशिका-परीक्षा (मैट्रिकुलेशन) के मानक स्तर तक पहुँच चुके हैं, तो उन्हें अब शैक्षिक रूप से पिछड़ा नहीं माना जा सकता। चूंकि यह मापदंड है, इसलिए तकनीकी शिक्षा, उच्च शिक्षा या उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए सीटों का आरक्षण योग्य नहीं है। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि संविधान अनुच्छेद 21A के तहत प्राथमिक या बुनियादी शिक्षा की गारंटी देता है। इसलिए बुनियादी शिक्षा से उच्च शिक्षा की ओर बदलाव शिक्षा के अधिकार के रूप में प्रदत्त संवैधानिक आदेश का उल्लंघन है। 

  • याचिकाकर्ताओं का मानना था कि 93वां संशोधन अधिनियम, “संदिग्ध कानून” होने के कारण, संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित “कड़ी जांच” के अधीन होना चाहिए और केवल “कड़ी जांच” की इस परीक्षा को पास करने के बाद ही ऐसे कानून को व्यवहार में लाया जा सकता है। तथ्यों की विधायी घोषणाएं न्यायिक जांच से परे नहीं हैं। न्यायालय कानून के वास्तविक आशय पर निर्णय कर सकता है तथा अधिनियम की संवैधानिक वैधता निर्धारित कर सकता है। यह तर्क दिया गया कि यह अधिनियम इस आधार पर न्यायिक समीक्षा के अधीन है कि इसमें ओबीसी की पहचान के लिए कोई मानदंड निर्धारित नहीं किया गया है तथा वोट बैंक की राजनीति के अलावा कोई अन्य अनिवार्य आवश्यकता नहीं है। 
  • अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रतिशत तय करने का कोई तर्कसंगत आधार नहीं है। यह प्रतिशत दशकों पहले किये गये एक सर्वेक्षण के आधार पर तय किया गया था। याचिकाकर्ताओं द्वारा बताया गया कि इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) में, माननीय न्यायालय ने सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए मानदंडों की पहचान और निर्धारण करने हेतु एक आयोग की नियुक्ति पर जोर दिया था। 
  • उन्होंने यह भी तर्क दिया कि “नवोन्नत वर्ग” को बाहर न रखना अवैध है और इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) में इस न्यायालय द्वारा निर्धारित व्यवस्था के विपरीत है। 
  • अंततः याचिकाकर्ताओं ने प्रार्थना की कि 93वें संशोधन अधिनियम और केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 को संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करने वाला घोषित किया जाए। अनुच्छेद 368 (संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसकी प्रक्रिया) के अधिदेश का अनुपालन नहीं किया गया। इसके अलावा, केन्द्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 अत्यधिक प्रत्यायोजन से ग्रस्त था तथा दिशाहीन था। 

प्रतिवादियों के तर्क

  • प्रतिवादियों ने कहा कि संविधान के 93वें संशोधन और उक्त अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिकाकर्ताओं की दलीलें निराधार और बिना किसी योग्यता के हैं। समाज के कमजोर वर्गों के हितों को सुरक्षित करने के लिए राज्य द्वारा सकारात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या इस प्रकार करना महत्वपूर्ण है कि उनके सभी पहलू एक साथ काम करें तथा संविधान के किसी अन्य भाग का उल्लंघन न करें।
  • यह तर्क दिया गया कि नवोन्नत वर्ग को बाहर रखना एक खराब नीति थी। इससे आरक्षित सीटों का उपयोग करने वाले लोगों की संख्या कम हो जाएगी। एक बार जब भारत के राष्ट्रपति अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की सूची निर्धारित कर देते हैं, तो उन्हें केवल संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून द्वारा ही सूची से बाहर रखा जा सकता है। जहां तक ओबीसी का सवाल है, नवोन्नत वर्ग के बहिष्कार का सिद्धांत केवल अनुच्छेद 16(4) पर लागू होता है। यह अनुच्छेद 15(4) या 15(5) पर लागू नहीं होता, क्योंकि शिक्षा अलग स्तर पर है। 
  • आगे यह भी कहा गया कि प्रत्येक राज्य में पिछड़े वर्गों की पहचान सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक मापदंडों पर राज्य आयोगों द्वारा विकसित मानदंडों के आधार पर की गई थी। प्रत्येक राज्य ने अपने-अपने विशेष मानदंड अपनाये है।
  • प्रतिवादियों ने जोर देकर कहा कि जातिविहीन समाज का निर्माण संविधान का लक्ष्य नहीं था। यहां तक कि जाति का नाम रखना भी नागरिकों का एक गारंटीकृत अधिकार है। संविधान ने कभी भी जाति और जातिवाद की प्रथा को समाप्त करने का प्रयास नहीं किया। भारतीय समाज में जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक कार्यकलाप जाति के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए, प्रत्येक धर्म या जाति में अंतिम संस्कार आदि के लिए अलग-अलग श्मशान या कब्रिस्तान होते हैं। जातियों की अनदेखी करने से जातिवाद कम नहीं होगा। यह विचार काल्पनिक है। 
  • विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता ने आगे कहा कि इसमें कोई अत्यधिक प्रतिनिधित्व नहीं था, क्योंकि सामग्री और साक्ष्य के आधार पर नागरिकों के पिछड़े वर्गों की पहचान की जानी थी। इसलिए, संसद के पास इसे कार्यपालिका पर छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। 

अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) में निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने रिट याचिकाएं खारिज कर दीं। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में 27% सीटों का आरक्षण बरकरार रखा गया। संविधान (तिरानवे) संशोधन अधिनियम, 2005 और केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 को संवैधानिक रूप से वैध माना गया। आगे:

  • आरक्षण प्रावधानों के संबंध में, नवोन्नत वर्ग को इससे बाहर रखा जाएगा।
  • प्रत्येक 5 वर्ष में एक बार संबंधित प्रावधानों को जारी रखने की आवश्यकता की जांच की जाएगी। 
  • केन्द्र सरकार ओबीसी के लिए कट-ऑफ निर्धारित करेगी। 
  • भारत संघ पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए अधिसूचना जारी करेगा। इस अधिसूचना को समाज के किसी भी वर्ग को शामिल करने या बहिष्कृत करने के लिए चुनौती दी जा सकती है। 

निर्णय के पीछे तर्क

क्या नवोन्नत वर्ग को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) से बाहर रखा जाना चाहिए?

सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों का निर्धारण केवल जाति के आधार पर नहीं होता है, बल्कि इसमें सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन जैसे कई मानदंड भी शामिल होते हैं। ऐसी सभी जातियों को सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग के दायरे में शामिल किया गया है जो पिछड़ेपन का सामना कर रही हैं। इसलिए, यह अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन नहीं है। 

आरक्षण का लाभ किसे मिलना चाहिए, यह तय करने में आर्थिक कारक महत्वपूर्ण होते हैं। नवोन्नत वर्ग की अवधारणा इसलिए शुरू की गई क्योंकि किसी भी पिछड़े वर्ग में ऐसे लोग भी होते हैं जो आर्थिक रूप से उन्नत होते हैं और सामान्य समुदाय के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम होते हैं, इसलिए उन्हें आरक्षण की आवश्यकता नहीं होती। नवोन्नत वर्ग को बाहर न रखने से इन उन्नत लोगों को अनुचित लाभ उठाने का मौका मिल जाएगा। नवोन्नत वर्ग को बाहर रखने के खिलाफ तर्क यह दिया जाता है कि इससे सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के उम्मीदवारों की कमी हो जाएगी, जो शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षित पदों पर नियुक्ति के लिए पात्र होंगे। कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों ने आरक्षण के लाभों के न्यायसंगत वितरण के लिए पिछड़े वर्गों को अन्य उपसमूहों में वर्गीकृत करने की योजना लागू की है। 

न्यायालय का मानना था कि समानता के संवैधानिक सिद्धांत को कायम रखने के लिए नवोन्नत वर्ग को बाहर करना आवश्यक है। अनुच्छेद 15(4) और 15(5) का उद्देश्य वंचित समूहों के सामाजिक और शैक्षिक स्तर को ऊपर उठाना है, और जो लोग उस स्तर तक पहुंच गए हैं, उन्हें अब ऐसे लाभों की आवश्यकता नहीं होगी। इसलिए, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की सही पहचान करने तथा उन्हें आवश्यक सहायता प्रदान करने के लिए नवोन्नत वर्ग को बाहर करना आवश्यक है। 

नवोन्नत वर्ग के आवेदन के लिए मापदंड

इंद्रा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय तथा विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों के आधार पर भारत सरकार ने 8 सितम्बर, 1993 को एक कार्यालय ज्ञापन जारी किया, जिसमें 27% आरक्षण के अनुप्रयोग को विभाजित किया गया। इसके द्वारा निर्धारित प्राथमिक प्रावधान निम्नलिखित हैं: 

  • सिविल पदों और सरकारी सेवाओं में सीधी भर्ती के माध्यम से भरी जाने वाली 27% रिक्तियां ओबीसी के लिए आरक्षित हैं।
  • सामाजिक रूप से उन्नत लोगों के कुछ वर्गों को ऐसे आरक्षणों से बाहर रखा गया है।
  • शिल्पकार या वंशानुगत व्यवसाय करने वाले लोग इन बहिष्करण नियमों के दायरे में नहीं आते हैं। 

न्यायालय ने अनुच्छेद 15(5) के तहत पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण से नवोन्नत वर्ग को बाहर रखने के मानदंडों पर गौर किया। केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 के अनुसार, नवोन्नत वर्ग की पहचान करने के लिए उपयोग किए जाने वाले कठोर आय-आधारित मानकों को केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण के मामले में उतनी सख्ती से लागू करने की आवश्यकता नहीं है। यदि आय-आधारित आरक्षण को सख्ती से लागू किया गया तो पिछड़े वर्गों के उम्मीदवारों की कमी हो सकती है, जो केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षित सीटों पर कब्जा करने के लिए पात्र होंगे। यह सुनिश्चित करने के लिए, केंद्र और राज्य सरकारों को ऐसी स्थितियों में नवोन्नत वर्ग की पहचान करने के लिए आवश्यक दिशानिर्देश स्थापित करने होंगे। केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 की धारा 2(g) के अंतर्गत “पिछड़ा वर्ग” में नवोन्नत वर्ग के बहिष्कार का सिद्धांत शामिल है। इसलिए पिछड़े वर्गों की पहचान ऐसे बहिष्कार के साथ की जानी चाहिए। 

क्या क्रीमी लेयर सिद्धांत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति पर लागू है?

यह तर्क दिया गया कि नवोन्नत वर्ग का सिद्धांत अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर भी लागू होना चाहिए। के.सी. वसंत कुमार बनाम कर्नाटक राज्य (1985) मामले में यह पाया गया कि आमतौर पर आरक्षित और अनारक्षित दोनों सीटों पर एक समूह के अधिक उन्नत और भाग्यशाली सदस्यों का कब्जा होता है। नवोन्नत वर्ग की अवधारणा पिछड़े वर्ग के उन लोगों की पहचान करने के लिए स्थापित की गई थी जिन्हें वास्तव में सहायता की आवश्यकता है और यह सुनिश्चित करने के लिए कि आरक्षण का लाभ उन तक पहुंचे। जैसा कि इंद्रा साहनी मामले में स्थापित किया गया है, यह अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं होता है। इसका प्रयोग केवल सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए किया जाता है। अन्य निर्णयों, जैसे ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य (2004) में भी यही बात दोहराई गई। इसलिए, इस न्यायालय ने माना कि नवोन्नत वर्ग का सिद्धांत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं होगा। 

क्या अनुच्छेद 21A के तहत मौलिक अधिकार को प्राथमिक शिक्षा पर अधिक जोर दिए बिना प्राप्त किया जा सकता है?

माननीय न्यायालय ने माना कि समाज को पहले दिन से ही अनुच्छेद 21A के कार्यान्वयन पर गंभीरता से ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जो निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करता है। तभी जातिविहीन समाज का सपना पूरा होगा। न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी ने लिखा कि कक्षा-कक्ष ही वह पहला स्थान है जहां जाति का उन्मूलन किया जा सकता है। यदि कोई छात्र निम्न जाति का है, लेकिन अच्छी योग्यता रखता है, तो उसकी जाति की परवाह नहीं की जाएगी। 

उन्होंने यह भी कहा कि सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का एक मुख्य कारण गरीबी है। इसलिए, आरक्षण प्रदान करने के बजाय गरीबी उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। नवोन्नत वर्ग के बच्चों की विद्यालय मे पढ़ाई, कोच का खर्च आदि जैसे लाभ प्राप्त हैं, जो गैर-नवोन्नत वर्ग के ओबीसी के लिए विलासिता है। इसलिए नवोन्नत वर्ग से संबंधित छात्रों के गैर-क्रीमी लेयर से संबंधित छात्रों से बेहतर प्रदर्शन करने की संभावना अधिक होती है। इससे गैर-नवोन्नत वर्ग के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा पैदा होगी और इसलिए अनुच्छेद 14, 15 और 16 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा। 

इसलिए, प्राथमिक शिक्षा पर जोर दिए बिना अनुच्छेद 21A का उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। 

क्या 93वां संशोधन अधिनियम संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है?

इस मुद्दे पर निर्णय करते समय न्यायालय ने सबसे पहले यह स्पष्ट किया कि चूंकि याचिका में निजी, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों का उल्लेख नहीं किया गया था, इसलिए वह इस बात पर निर्णय नहीं लेगा कि संशोधन का उन पर कोई प्रभाव पड़ेगा या नहीं। इस संशोधन के विरुद्ध मुख्य तर्क यह है कि यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है। मूल ढांचे का सिद्धांत केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले में अस्तित्व में आया, जिसमें यह देखा गया कि मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन किया जा सकता है, लेकिन कुछ बुनियादी विशेषताओं, जैसे- संविधान की सर्वोच्चता, सरकार का लोकतांत्रिक स्वरूप, धर्मनिरपेक्ष चरित्र, शक्तियों का पृथक्करण और संघीय प्रकृति को नहीं बदला जा सकता है। वर्तमान मामले के संबंध में, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यद्यपि समानता को समग्र रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता है, यह बहुआयामी है और इसके कुछ पहलुओं को निश्चित रूप से बदला जा सकता है। 

इन टिप्पणियों के आधार पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि जहां तक सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों का संबंध है, 93वां संशोधन अधिनियम संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है। 

क्या सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए जाति का उपयोग करना धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन है?

इंद्रा साहनी मामले के संदर्भ में न्यायालय का मानना था कि आरक्षण के लिए आधार के रूप में जाति का उपयोग करना वर्तमान में वैध है। हालाँकि, इसे धीरे-धीरे वर्गीकरण के आर्थिक मानक की ओर हस्तांतरित होना होगा। अगले 10 वर्षों के बाद आरक्षण का आधार पूरी तरह वित्तीय स्थिति पर आधारित होना चाहिए। 

क्या अनुच्छेद 15(4) और 15(5) परस्पर विरोधाभासी हैं, जिससे 15(5) असंवैधानिक हो जाता है?

न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 15(4) और 15(5) राज्य को विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार देते हैं, लेकिन ऐसा करना अनिवार्य नहीं बनाते। मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दोराईराजन (1951) के मामले में सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों में एससी/एसटी और एसईबीसी के लिए आरक्षण की अनुमति देने के लिए अनुच्छेद 15(4) की शुरुआत की गई। टी.एम.ए. पई फाउंडेशन एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2002) और पी.ए. इनामदार एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2005) के मामलों के बाद, जिसमें कहा गया था कि गैर-सहायता प्राप्त संस्थान राज्य के नियंत्रण में नहीं आते हैं, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों की स्वायत्तता से निपटने के लिए अनुच्छेद 15(5) पेश किया गया था। 

अनुच्छेद 15(4) सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों से संबंधित है, जबकि अनुच्छेद 15(5) गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों से संबंधित है। इससे पता चलता है कि उनके उद्देश्य अलग-अलग हैं और एक-दूसरे का खंडन नहीं करते हैं। “इस अनुच्छेद में कुछ भी नहीं” वाक्यांश के साथ अनुच्छेद 15(5), अनुच्छेद 15(1) के तहत निर्धारित निषेधों को स्वीकार करता है और अनुच्छेद 15(4) के विरुद्ध नहीं जाता है। इन दोनों अनुच्छेदों की व्याख्या उनके अंतर्गत किए गए विशेष प्रावधानों के संदर्भ में की जानी चाहिए। न्यायालय ने यह भी कहा कि इस संशोधन को किसी भी शैक्षणिक संस्थान द्वारा इन आधारों पर चुनौती नहीं दी गई है। यदि संसद अनुच्छेद 15(4) को अनन्य बनाना चाहती तो उसे इसे पूरी तरह हटा देना चाहिए था। 

इसलिए, यह तर्क कि अनुच्छेद 15(4) और 15(5) परस्पर अनन्य और विरोधाभासी हैं, अस्वीकार कर दिया गया। 

क्या अनुच्छेद 15(5) के तहत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को आरक्षण के दायरे से छूट देना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है?

न्यायालय का मानना था कि अल्पसंख्यक संस्थाओं को अनुच्छेद 30 के तहत विशेष सुविधा प्राप्त है, जो शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन के उनके अधिकार की रक्षा करता है। यह संविधान के अनुरूप है। अनुच्छेद 15(5) से अल्पसंख्यक संस्थाओं को बाहर रखने से अनुच्छेद 30 का पालन सुनिश्चित होता है। इसका तात्पर्य यह है कि यह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं है। 

अनुच्छेद 15(4) और 15(5) एक साथ कार्य कर सकते हैं। यह तर्क कि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों का बहिष्कार अनुच्छेद 15(5) के शेष भाग से स्वतंत्र नहीं हो सकता, टिक नहीं पाता। 

क्या अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित सकारात्मक कार्रवाई या आरक्षण के सिद्धांत भारत के संविधान के अनुच्छेद 15(5) के तहत लागू होते हैं?

याचिकाकर्ता का मत था कि केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 एक “संदिग्ध कानून” है और इसे पारित करने से पहले संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह “कड़ी जांच” परीक्षा से गुजरना चाहिए। 

न्यायालय ने सबसे पहले यह कहा कि अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भारत में लागू नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों देशों के संवैधानिक प्रावधानों और सामाजिक स्थितियों में अंतर है। उदाहरण के लिए, भीकाजी नारायण धाकरस एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य (1955) तथा ए.एस. कृष्णा बनाम मद्रास राज्य (1957) में इस न्यायालय ने स्पष्ट रूप से माना था कि संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में उल्लिखित उचित प्रक्रिया संबंधी खंड भारत के लिए प्रासंगिक नहीं होगा। इसी तरह, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के दायरे से निपटते हुए, कामेश्वर प्रसाद और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1962) में न्यायालय ने माना कि भले ही अमेरिकी संविधान का पहला संशोधन कांग्रेस को ऐसा कोई भी कानून बनाने से रोकता है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ जाता हो, लेकिन यह निहित है कि सरकार की पुलिस शक्ति द्वारा इस स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए हैं। इन उदाहरणों के संदर्भ में, इस न्यायालय का यह मत था कि यद्यपि मौलिक अधिकारों के संरक्षण के विचार के संबंध में समानताएं मौजूद हैं, तथापि भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका की कानूनी और सामाजिक पृष्ठभूमियां बहुत भिन्न हैं, जिसके कारण अलग-अलग कानूनी व्याख्याएं आवश्यक हैं। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 18 की संरचना अमेरिकी संविधान के समान प्रावधानों से भिन्न है। इन अनुच्छेदों में सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों की बेहतरी के लिए प्रावधान शामिल हैं। अनुच्छेद 38 असमानताओं को कम करने के लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय का भी आह्वान करता है। इससे पहले, अनुच्छेद 16(4) और 15(5) को गैर-भेदभाव की अवधारणा के अपवाद के रूप में देखा गया था। इस पर कई अलग-अलग निर्णयों के बाद, अंततः के.सी. वसंत कुमार बनाम कर्नाटक राज्य (1985) में यह माना गया कि समानता का वास्तविक सार समानों के साथ समान व्यवहार और असमानों के साथ असमान व्यवहार की आवश्यकता है, जिसका तात्पर्य यह है कि अनुच्छेद 16(4) और 15(5) अतिरिक्त स्पष्टीकरण हैं न कि अपवाद। 

अनुच्छेद 15(5), जिसे केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 द्वारा पेश किया गया था, की व्याख्या भारत के संवैधानिक ढांचे के संबंध में की जानी चाहिए। प्रस्तावना के साथ-साथ राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में अनिवार्य रूप से यह अपेक्षा की गई है कि राज्य द्वारा समाज से असमानताओं और पिछड़ेपन को समाप्त किया जाएगा। मूल अधिकार और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत, प्रस्तावना के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक साथ चलते हैं। जबकि मौलिक अधिकारों को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता था, रे. केरल शिक्षा विधेयक, 1957 और मिनर्वा मिल्स लिमिटेड एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1980) जैसे मामलों ने स्थापित किया कि राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत एक न्यायपूर्ण समाज के लिए समान रूप से आवश्यक हैं। मिनर्वा मिल्स मामले ने इस बात पर प्रकाश डाला कि राजनीतिक अधिकारों के अलावा, लोकतंत्र को सामाजिक और आर्थिक न्याय की भी आवश्यकता है। नीति निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से राज्य सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है, जिससे सभी के लिए न्याय और समानता प्राप्त हो, न कि केवल समाज के कुछ चुनिंदा वर्गों के लिए। 

अमेरिका को लगातार नस्लीय भेदभाव के मुद्दे का सामना करना पड़ रहा है। उनके सकारात्मक कार्रवाई कार्यक्रमों में “कड़ी जांच” परीक्षण का उपयोग शामिल था। इस परीक्षण में आगे “संकीर्ण तैयारी” की आवश्यकता होती है, जो किसी अन्य वर्ग को व्यापक रूप से प्रभावित किए बिना विशिष्ट समूहों की सेवा करना शामिल करती हैं। कार्यक्रम की इसी आधार पर संकीर्ण रूप से रचना की जाती हैं। ग्रुटर बनाम बोलिंगर (2003) मामले में अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि चौदहवां संशोधन व्यक्तिगत लोगों को संरक्षण प्रदान करता है, समूहों को नहीं। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अमेरिका में लागू इन सिद्धांतों का प्रयोग भारत में नहीं किया जा सकता, क्योंकि यहां सकारात्मक कार्रवाई पूरी तरह से संविधान द्वारा समर्थित है। अमेरिका में नस्ल के आधार पर लोगों के साथ अलग-अलग व्यवहार करने वाले कानूनों की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए कड़ाई से जांच की जाती है। हालाँकि, भारत में हर कानून को तब तक वैध माना जाता है जब तक कि अन्यथा साबित न हो जाए। सौरभ चौधरी बनाम भारत संघ (2003) में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि “कड़ी जांच” परीक्षण भारत में लागू नहीं होगा। 

इसलिए, वर्तमान मामले में, इस न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि ओबीसी के वर्गीकरण पर कानून स्पष्ट नहीं था और यह कानून संदिग्ध था। केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 को चुनौती देने के लिए न तो “कड़ी जांच” की जरूरत थी और न ही कोई तात्कालिकता (अर्जेंसी) थी।

क्या पिछड़े वर्ग के रूप में पहचान के मानदंड के संबंध में केंद्र सरकार को शक्ति सौंपना संवैधानिक रूप से वैध था?

याचिकाकर्ताओं ने बिना किसी उचित दिशा-निर्देश के पिछड़े वर्ग की सीमा निर्धारित करने के लिए केंद्र सरकार को अत्यधिक शक्ति सौंपे जाने पर चिंता जताई। 

न्यायालय ने कहा कि संविधान के तहत ‘पिछड़ा वर्ग’ कोई नई अवधारणा नहीं है। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 340 राष्ट्रपति को शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति की जांच के लिए एक आयोग गठित करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 15(4) और 16(4) पिछड़े वर्गों से भी संबंधित हैं। न्यायालय ने कहा कि केन्द्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 के तहत पिछड़े वर्गों की पहचान करने का दायित्व संघ को सौंपा गया है, क्योंकि संसद अकेले इस मामले को नहीं देख पाएगी। पिछड़े वर्गों के मामलों से निपटने के लिए राष्ट्रीय और राज्य आयोग मौजूद हैं। इसके लिए दिशा-निर्देश पहले से ही निर्धारित हैं और यदि किसी अयोग्य वर्ग को पिछड़े वर्गों के दायरे में शामिल किया गया है, तो उसे न्यायिक समीक्षा के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है। 

इसलिए, केन्द्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 को इस आधार पर दी गई चुनौती कि यह संघ को प्रत्यायोजन की अत्यधिक शक्तियां प्रदान करता है, को न्यायालय ने खारिज कर दिया। 

क्या केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 अवैध था, क्योंकि इसमें संचालन के लिए समय-सीमा निर्धारित करने के साथ-साथ आवधिक समीक्षा का प्रावधान नहीं किया गया था?

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि पिछड़े वर्गों के लिए आवंटित 27% आरक्षण की कोई समय सीमा नहीं है। इससे विपरीत भेदभाव की स्थिति पैदा हो सकती है, जिसमें समय बीतने के साथ उन समूहों को अनुचित लाभ मिल सकता है। 

न्यायालय ने कहा कि यद्यपि यह एक वैध मुद्दा है, परन्तु इसके प्रारम्भ से ही कोई समय-सीमा निर्धारित करना व्यवहार्य नहीं है। समय के साथ, उठाए गए कदमों के परिणाम तथा पिछड़े वर्गों की स्थिति और शैक्षिक उन्नति में सुधार के आधार पर, मामले की हमेशा समीक्षा की जा सकती है। इस अधिनियम को इसके प्रारम्भ से ही इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि इसके क्रियान्वयन के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। 

इसलिए, यह निर्णय लिया गया कि अधिनियम अवैध नहीं है, बल्कि इसकी नियमित अंतराल पर समीक्षा की जानी चाहिए। 

क्या किसी वर्ग को शैक्षिक रूप से पिछड़ा घोषित करने के लिए शैक्षिक मानक निर्धारित किए जाने चाहिए?

यह तर्क दिया गया कि केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006, जो उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण प्रदान करता है, अनुच्छेद 15(5) के तहत लागू नहीं होना चाहिए। यह कहा गया कि शैक्षिक पिछड़ेपन का माप प्रवेशिका-परीक्षा या 10+2 तक सीमित होना चाहिए। 

न्यायालय ने कहा कि पहले इसका उद्देश्य प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में सुधार करना था। हालाँकि, वर्तमान समय में, जहाँ कई कला, विज्ञान और अन्य व्यावसायिक महाविद्यालय भी मौजूद हैं, यह पर्याप्त नहीं है। अत: इस आधार पर याचिकाकर्ता का यह तर्क कि शैक्षिक पिछड़ेपन का माप प्रवेशिका-परीक्षा या 10+2 तक सीमित होना चाहिए, अस्वीकार कर दिया गया। 

क्या केन्द्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 द्वारा प्रदत्त आरक्षण की मात्रा वैध है?

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि इस अधिनियम को इस आधार पर अवैध घोषित किया जाना चाहिए कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण की आवश्यकता नहीं है। 

राजस्थान राज्य एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1977) के मामले के संदर्भ में न्यायालय ने कहा कि संसद द्वारा पारित कानून को केवल संवैधानिक आधार पर ही चुनौती दी जानी चाहिए, जैसे कि क्या संसद को ऐसा कानून पारित करने का अधिकार है या क्या वह कानून किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है। न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि यह कानून राजनीतिक मकसद से पारित किया गया था और यह कानून को अमान्य करने का पर्याप्त कारण भी नहीं है। अधिनियम द्वारा निर्धारित 27% आरक्षण विस्तृत जानकारी के विश्लेषण पर आधारित था। कई समितियों ने भी इस मामले पर विचार किया और निर्णय लिया कि किस वर्ग को और किस सीमा तक आरक्षण दिया जाना चाहिए। इसके अलावा, याचिकाकर्ता अपने इस तर्क के समर्थन में कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहे कि 27% आरक्षण आवश्यक नहीं है। इसलिए, न्यायालय ने आरक्षण की इस मात्रा को बरकरार रखा और इन आधारों पर अधिनियम को चुनौती देने को खारिज कर दिया। 

क्या ओबीसी आरक्षण को सामाजिक हितों के साथ संतुलित करना उचित होगा, और क्या इसके लिए ओबीसी के लिए कट-ऑफ अंक सामान्य वर्ग से थोड़ा कम निर्धारित किया जाएगा?

एम.आर. बालाजी एवं अन्य बनाम मैसूर राज्य (1962) मामले में इस बात पर जोर दिया गया कि आरक्षण उचित होना चाहिए। आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों को अपना उच्च मानक बनाए रखने के लिए स्वयं ही कट-ऑफ निर्धारित करना चाहिए। अन्य संस्थानों में ओबीसी के लिए कटऑफ एससी/एसटी और अनारक्षित श्रेणी के बीच आधी होनी चाहिए। ओबीसी और सामान्य वर्ग के कट-ऑफ के बीच बड़े अंतर से बचने के लिए, अंतर 10 अंकों से अधिक नहीं होना चाहिए। इसके अलावा, यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि यदि नवोन्नत वर्ग ओबीसी को 27% आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिलता है, तो शेष सीटें सामान्य श्रेणी को मिल जाएंगी। 

क्या 93वें संविधान संशोधन में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया गया?

अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन की प्रक्रिया निर्धारित करता है तथा यह भी बताता है कि कुछ संशोधनों के लिए विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है। याचिकाकर्ताओं का मानना था कि 93वां संविधान संशोधन अनुच्छेद 368 द्वारा स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन है और इसलिए अवैध है। यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 15(5) अनुच्छेद 162 के तहत राज्य की कार्यकारी शक्तियों में हस्तक्षेप करता है। 

न्यायालय ने कहा कि संसद और राज्य विधानसभाओं को कानून बनाने की शक्तियां संविधान के अनुच्छेद 245 से 255 के अंतर्गत दी गई हैं। 93वां संशोधन स्पष्ट रूप से या निहित रूप से राज्य की कार्यकारी शक्तियों को छीनता या उनमें हस्तक्षेप नहीं करता है। ये शक्तियां अनुच्छेद 162 के प्रावधान के तहत संसद द्वारा बनाए गए कानूनों द्वारा प्रतिबंधित हैं, जो संविधान का एक सामान्य सिद्धांत है। इसके अलावा, शिक्षा, जो पहले राज्य सूची में थी, को 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा समवर्ती सूची में हस्तांतरित कर दिया गया। 

इन टिप्पणियों के आधार पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि 93वां संशोधन अनुच्छेद 368 के किसी प्रावधान का उल्लंघन नहीं करता है।

अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) का आलोचनात्मक विश्लेषण

भारतीय न्यायशास्त्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण तथ्य राज्य की सकारात्मक कार्रवाई और शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में समानता के अधिकार से संबंधित है, जो दुनिया में किसी भी राज्य या देश की प्रगति का आधार है। किसी भी राष्ट्र की सफलता और विकास उसकी जनसंख्या के शैक्षिक स्तर और इससे उत्पन्न अवसरों का प्रत्यक्ष परिणाम है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जिसमें केंद्र द्वारा वित्त पोषित शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27% आरक्षण प्रदान किया गया था (ओबीसी की “नवोन्नत वर्ग” को इससे बाहर रखा गया था)। नवोन्नत वर्ग में ओबीसी के वे सदस्य शामिल हैं जिनकी आर्थिक और शैक्षिक स्थिति अच्छी है। 

आरक्षण और कुछ नहीं, बल्कि हमारे समाज के कमजोर वर्गों को एक हल्का धक्का है। यदि आरक्षण लम्बे समय तक जारी रहा तो इससे स्थायी रूप से जाति-आधारित समाज का निर्माण हो जाएगा। हमारे संविधान में समाज से जाति व्यवस्था को समाप्त करने के उद्देश्य का कोई उल्लेख नहीं है। हालाँकि, हमारा संविधान जाति के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध करता है (अनुच्छेद 15)। संविधान हमारे देश के सभी नागरिकों के लिए समान दर्जा चाहता है। 

माननीय न्यायालय ने इस सिद्धांत पर ध्यान केंद्रित किया कि किसी भी पिछड़े वर्ग के प्रति सामाजिक-आर्थिक अन्याय को दूर करने के लिए राज्य द्वारा सकारात्मक कार्रवाई आवश्यक है। आरक्षण सरकारी कार्यों में सामाजिक भागीदारी को बेहतर बनाने और पिछड़े परिवारों को आगे बढ़ने के लिए माहौल और अवसर प्रदान करने का एक साधन है। पिछड़े वर्गों के प्रति किसी भी प्रकार के पक्षपात या पूर्वाग्रह को समाप्त करने के लिए नवोन्नत वर्ग के सिद्धांत पर चर्चा की गई। न्यायालय ने ओबीसी के लिए आरक्षण का लाभ लेने से नवोन्नत वर्ग को बाहर रखा। पिछड़ेपन की चुनौतियों से निपटने के लिए नवोन्नत वर्ग ने पर्याप्त उपलब्धियां हासिल कर ली हैं। ये सदस्य हमारे समाज के अन्य वर्गों के साथ समान रूप से प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। आरक्षण केवल उन लोगों को दिया जाना चाहिए जो वंचित हैं। 

न्यायालय ने आगे कहा कि साधन की तुलना में योग्यता का महत्व अधिक है। आरक्षण को मेधावी छात्रों के लिए बाधा नहीं बनना चाहिए। आरक्षण नीतियों के कारण किसी को नुकसान नहीं होना चाहिए। योग्यता और पिछड़ेपन के बीच संतुलन होना चाहिए। यदि योग्यता से समझौता किया जाएगा तो समानता का उल्लंघन होगा। न्यायालय ने आरक्षण नीतियों का लाभ प्राप्त करने से नवोन्नत वर्ग को बाहर रखकर संतुलन कायम किया है। 

इस निर्णय का परिणाम यह हुआ कि समाज के विभिन्न वर्गों को शिक्षा के संदर्भ में जानकारी प्रदान की गई, जिससे उन्हें अच्छे व्यक्तित्व और जीवन के विकास में मदद मिल सकती है। इसके अलावा, इस निर्णय ने जनता में अपनेपन की भावना को बढ़ावा दिया है और एक ऐसे समाज की प्राप्ति की संभावना को बेहतर बनाया है जहां हर आवाज सुनी जाती है और शिक्षा के अधिकार को किसी बाधा का सामना नहीं करना पड़ता है। 

 

निष्कर्ष

अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) निर्णय सकारात्मक कार्रवाई और योग्यता के बीच संतुलन की आवश्यकता पर जोर देता है। इसका उद्देश्य सामाजिक और शैक्षिक उत्थान प्रदान करना है। हालाँकि, जाति इसके लिए प्राथमिक मानदंड नहीं होनी चाहिए। बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। आरक्षण नीतियों को संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन किए बिना अपने उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहिए। यह एक उल्लेखनीय मामला है जो आरक्षण की अवधारणा से उत्पन्न महत्वपूर्ण मुद्दों को स्पष्ट करता है। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

नवोन्नत वर्ग क्या है?

नवोन्नत वर्ग किसी भी वर्ग के अधिक संपन्न वर्ग के लिए एक सादृश्य (एनालॉजी) है। ऐसे व्यक्ति आर्थिक रूप से सक्षम एवं शिक्षित होते हैं। उनके पास समाज के सामान्य वर्ग के साथ समान रूप से प्रतिस्पर्धा करने के साधन हैं। 

इस निर्णय का मुख्य मुद्दा क्या है?

मुख्य मुद्दा शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27% आरक्षण से संबंधित था। 

इस मामले में क्या चुनौती दी गई?

इस मामले में केंद्रीय शिक्षा संस्थान अधिनियम और संविधान (93 संशोधन) अधिनियम के अनुच्छेद 15 में खंड (5) को शामिल करने को चुनौती दी गई थी। 

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला क्या था?

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने शैक्षणिक संस्थानों में नवोन्नत वर्ग को छोड़कर अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27% सीटें आरक्षित करने का फैसला किया है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने शैक्षणिक संस्थानों में नवोन्नत वर्ग को आरक्षण से बाहर क्यों रखा?

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि समाज का नवोन्नत वर्ग या आर्थिक रूप से सुविधा संपन्न वर्ग आसानी से ट्यूशन शुल्क और कोचिंग जैसी अन्य सुविधाएं वहन कर सकता है, जो आर्थिक रूप से वंचित लोगों तक नहीं पहुंच पाती हैं। 

संदर्भ

 

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