यह लेख रमैया इंस्टीट्यूट ऑफ लीगल स्टडीज, बैंगलोर की बीबीए एलएलबी की छात्र Kashish Kundlani द्वारा लिखा गया है। इस लेख में, संसद सदस्यों को दिए गए संसदीय विशेषाधिकार (पार्लियामेंट्री प्रिविलेज) और संविधान के अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 के तहत किसी राज्य की विधायिका (लेजिस्लेचर) के सदस्यों पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Archana Chaudhary द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 संसद के सदस्यों को विशेषाधिकार या लाभ प्रदान करते हैं ताकि वे अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें या बिना किसी बाधा के ठीक से कार्य कर सकें। ऐसे विशेषाधिकार इसलिए दिए जाते हैं क्योंकि वे लोकतांत्रिक कामकाज (डेमोक्रेटिक फंक्शन) के लिए आवश्यक होते हैं। इन शक्तियों, विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों (इम्यूनिटी) को समय-समय पर कानून द्वारा परिभाषित किया जाना चाहिए। इन विशेषाधिकारों को विशेष प्रावधानों (प्रोविजन) के रूप में माना जाता है और मतभेद (कॉन्फ्लिक्ट) में इनका एक प्रमुख प्रभाव (ओवरराइडिंग इफेक्ट) होता है।
संविधान में दिए गए विशेषाधिकार
संसदीय अधिकार के तहत भाषण और प्रकाशन की स्वतंत्रता (फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड पब्लिकेशन अंडर पार्लियामेंट्री अथॉरिटी)
इसे अनुच्छेद 105 खंड (क्लॉज) (1) और (2) के तहत परिभाषित किया गया है। यह संसद के सदस्यों को खंड (1) के तहत बोलने की स्वतंत्रता देता है और अनुच्छेद 105 (2) के तहत प्रदान करता है कि संसद का कोई भी सदस्य किसी भी न्यायालय के समक्ष किसी भी कार्यवाही में उसके द्वारा संसद में या किसी समिति में किसी भी वोट के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। साथ ही, किसी भी व्यक्ति को किसी रिपोर्ट, पेपर, वोट या कार्यवाही के प्रकाशन के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा यदि प्रकाशन संसद या उसके अधीन किसी प्राधिकरण (अथॉरिटी) द्वारा किया जाता है।
यही प्रावधान अनुच्छेद 194 के अंदर भी दिया गया है जहां संसद के सदस्य के बजाय राज्य जिसमें किसी संसद के सदस्यों के बजाय राज्य के विधायिका के नाम दिए गए हैं।
संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 105 दोनों ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (फ्रीडम ऑफ स्पीच) की बात करते हैं। अनुच्छेद 105 संसद के उन सदस्यों पर लागू होता है जो किसी भी उचित प्रतिबंध (रीजनेबल रिस्ट्रिक्शन) के अधीन नहीं हैं। अनुच्छेद 19 (1) (a) नागरिकों पर लागू होता है लेकिन उचित प्रतिबंधों के अधीन है।
अनुच्छेद 105 संसद के सदस्यों को दिया गया एक पूर्ण विशेषाधिकार है लेकिन इस विशेषाधिकार का उपयोग संसद के बाहर नहीं बल्कि केवल संसद के परिसर में ही किया जा सकता है।
यदि किसी सदस्य द्वारा कोई बयान या कुछ भी संसद के बाहर प्रकाशित (पब्लिश) किया जाता है और यदि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत उचित रूप से प्रतिबंधित है तो उस प्रकाशित लेख या बयान को मानहानिकारक (डिफामेटरी) माना जाएगा।
निर्णय विधि (केस लॉ)
डॉ जतीश चंद्र घोष बनाम हरि साधन मुखर्जी और अन्य, एआईआर 1961 एससी 613
इस मामले में अपीलकर्ता (अपीलेंट) पश्चिम बंगाल विधान सभा (लेजिस्लेटिव असेंबली) का निर्वाचित (इलेक्टेड) सदस्य है। अपीलकर्ता का इरादा विधानसभा में कुछ सवाल पूछने का था और इसलिए उसने उसी के लिए नोटिस दिया। सभा में पूछे जाने वाले प्रश्नों को सभा में कार्य संचालन (कंडक्ट) के लिए प्रक्रिया के नियमों के अनुपालन (कंप्लायंस) में अस्वीकार कर दिया गया था। लेकिन अपीलकर्ता ने उन सवालों को जनमत नामक एक स्थानीय समाचार पत्र में विधानसभा में पूछने की अनुमति नहीं दी थी।
पहला प्रतिवादी (रिस्पोंडेंट), जो उस समय सब डिविजनल मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य कर रहे थे और क्योंकि जिनके आचरण के कारण सवाल उठे, उन्होंने अपीलकर्ता और दो अन्य, संपादक (एडिटर) और उन सवालों के मुद्रक (प्रिंटर) और प्रकाशक (पब्लिशर) के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी।
याचिका (पिटिशन) में यह तथ्य निहित था कि अपीलकर्ता ने जनता के सदस्यों द्वारा पढ़ने के इरादे से उसके खिलाफ निंदनीय आरोप लगाए थे। ये आरोप झूठे थे और अपीलकर्ता ने शिकायतकर्ता (कंप्लेनेंट) की प्रतिष्ठा (रेप्यूटेशन) को नुकसान पहुंचाने के इरादे से इन्हें प्रकाशित किया था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि इस तरह के झूठे सवालों को पत्रिका (जर्नल) में प्रकाशित करने के लिए पहले सरकारी कर्मचारी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू करने के लिए सरकार की पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है।
इस मामले में, यह माना गया कि अनुच्छेद 194 के प्रावधान भले ही स्पीकर द्वारा अस्वीकृत किए गए हों लेकिन सदन की कार्यवाही का एक हिस्सा थे और उसी के लिए प्रकाशन भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) की किसी भी धारा को आकर्षित नहीं करेगा।
उस पर मुकदमा नहीं चलाया जाएगा, क्योंकि अनुच्छेद 194 (1) न केवल उन्हें बोलने की स्वतंत्रता देता है बल्कि सवाल पूछने और उन्हें प्रेस में प्रकाशित करने का भी अधिकार देता है।
पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य (1998)
इस मामले के तथ्य हैं- कुछ सांसदों ने प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव (नो कॉन्फिडेंस मोशन) के खिलाफ वोट देने के लिए रिश्वत ली थी। उन पर आईपीसी और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट) के तहत आरोप लगाया गया था कि उन्होंने कुछ सांसदों को अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोट देने के लिए रिश्वत दी थी जब वह प्रधान मंत्री के रूप में सेवा कर रहे थे। इस मामले में यह सवाल उठा कि अनुच्छेद 105 (2) के तहत क्या संसद के किसी सदस्य को उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही में खुद को बचाने के लिए कोई छूट है?
न्यायालय के बहुमत (मेजॉरिटी) से यह माना गया कि अनुच्छेद 105 (2) के तहत संसद के सदस्यों को छूट मिलेगी और इस प्रकार, सांसदों द्वारा रिश्वत लेने की गतिविधि को उनके द्वारा कही गई बात या संसद में उनके द्वारा दिए गए किसी भी वोट के बावजूद छूट मिलेगी। कोर्ट ने आगे बताया कि यहां “कुछ भी” शब्द की व्याख्या (इंटरप्रेट) एक व्यापक (वाइडर) शब्द के रूप में की जाएगी। न्यायालय ने “कुछ भी” शब्द की व्यापक अर्थ में व्याख्या की और पी.वी. नरसिम्हा राव पर मुकदमा नहीं चलाया गया।
नियम बनाने की शक्ति
संसद के पास शक्ति है, जो भारत के संविधान द्वारा अपने नियम बनाने के लिए दी गई है, लेकिन यह शक्ति संविधान के प्रावधानों के अधीन है। यद्यपि यह अपने नियम स्वयं बना सकता है, नियम अपने लाभ के लिए नहीं बनाए जाने चाहिए। अगर वे कोई भी नियम बनाते हैं जो संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है तो उसे शून्य माना जाएगा।
आंतरिक स्वतंत्रता (इंटर्नल इंडिपेंडेंस)/स्वायत्तता (ऑटोनोमी)
संसद के दोनों सदनों के प्रभावी कामकाज के लिए और उनके सदस्य, आंतरिक स्वतंत्रता किसी बाहरी पार्टी या व्यक्ति के हस्तक्षेप के बिना मौजूद होनी चाहिए। सदन वैधानिक प्राधिकरण (स्टेच्यूटरी अथॉरिटी) के किसी भी हस्तक्षेप के बिना आंतरिक रूप से अपने संबंधित मुद्दों से निपट सकते हैं।
भारतीय न्यायपालिका संसद में या सदस्यों द्वारा उनके व्यवसाय के दौरान कार्यवाही या मुद्दों पर हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। फिर भी, यदि यह अवैध या असंवैधानिक (अनकांस्टीट्यूशनल) पाया जाता है तो यह कार्यवाही में हस्तक्षेप कर सकता है। जज
गिरफ्तारी से आजादी
संसद सदस्य को सदन के सत्र (सेशन) के 40 दिन पहले और 40 दिन बाद गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। यदि इस अवधि के अंदर किसी भी मामले में संसद सदस्य को गिरफ्तार किया जाता है, तो संबंधित व्यक्ति को मुक्त रूप से सत्र में भाग लेने के लिए रिहा किया जाना चाहिए।
अजनबियों को इसकी कार्यवाही से बाहर करने और गुप्त सत्र आयोजित करने का अधिकार
इस अधिकार को शामिल करने का उद्देश्य किसी भी सदस्य को डराने या धमकाने की किसी भी संभावना को बाहर करना था। अजनबी, सत्र को बाधित करने का प्रयास कर सकते हैं।
अपने पत्रकारों और कार्यवाही के प्रकाशन पर रोक लगाने का अधिकार
सदन में हुई कार्यवाही के किसी भी भाग को हटाने या डिलीट करने का अधिकार दिया गया है।
आंतरिक कार्यवाही को विनियमित करने का अधिकार (राइट टू रेगुलेट इंटर्नल प्रोसिडिंग)
सदन को अपनी आंतरिक कार्यवाही को विनियमित करने का अधिकार है और विधानसभा का सत्र बुलाने का भी अधिकार है। लेकिन उसे विधानसभा अध्यक्ष (स्पीकर) को निर्देश देकर कार्यवाही में बाधा डालने का कोई अधिकार नहीं है।
सदस्यों या बाहरी लोगों को अवमानना (कंटेंप्ट) के लिए दंडित करने का अधिकार
यह अधिकार संसद के हर सदन को दिया गया है। यदि इसका कोई सदस्य या शायद गैर-सदस्य अवमानना करता है या उसे दिए गए किसी भी विशेषाधिकार का उल्लंघन करता है, तो सदन उस व्यक्ति को दंडित कर सकता है।
सदनों को किसी भी व्यक्ति को वर्तमान में या अतीत में सदनों के खिलाफ की गई किसी भी अवमानना के लिए दंडित करने का अधिकार है।
विशेषाधिकार और मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट्स)
संविधान के भाग III में मौलिक अधिकार शामिल हैं जिसमें अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिकों को बोलने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह उचित प्रतिबंधों के अधीन है। ये प्रतिबंध हैं:-
- भारत की संप्रभुता (सॉवरेंनिटी) और अखंडता (इंटीग्रिटी) को बनाए रखना चाहिए
- राज्यों की सुरक्षा बनी रहनी चाहिए
- लोक व्यवस्था भंग न हो
- शालीनता (डिसेंसी) और नैतिकता (मॉरलिटी) को बनाए रखना चाहिए,
- बदनामी से बचना चाहिए,
- अपराध के लिए उकसाने (इनसाइटमेंट) से बचना चाहिए,
- कोर्ट की अवमानना से बचना चाहिए,
- विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना चाहिए।
जहाँ दूसरी ओर संसद के सदस्यों को शक्तियाँ, विशेषाधिकार आदि प्रदान किए गए हैं। उनकी शक्तियाँ या विशेषाधिकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों के विपरीत पूर्ण हैं।
संसद को कानून बनाते समय ज्यादातर सर्वोच्च शक्तियां प्राप्त हैं और अपनी शक्तियों और विशेषाधिकारों की पूर्ण प्रकृति के कारण अपनी शक्ति का सर्वोत्तम संभव सीमा तक प्रयोग करता है।
विधायकों (लेजिस्लेटर्स) की शक्तियाँ बहुत व्यापक हैं जैसे वे अपने विशेषाधिकार तय करते हैं, इसमें ऐसे बिंदु: शामिल हैं जो निर्धारित विशेषाधिकारों का उल्लंघन कर सकते हैं, और उस उल्लंघन के लिए सजा भी तय करते हैं।
अनुच्छेद 105(3) और अनुच्छेद 194(3) में कहा गया है कि संसद को समय-समय पर कानूनों को परिभाषित करना चाहिए या संसद के सदस्यों और विधान सभा के सदस्यों की शक्तियों, विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों पर कानून पारित करना चाहिए।
निर्णय विधि
गुनुपति केशवरम रेड्डी बनाम नफीसुल हसन एंड द स्टेट ऑफ यूपी एआईआर 1952
इस मामले के तथ्य:- यू.पी. विधानसभा ने गृह मंत्री के खिलाफ वारंट जारी किया, जिसे सदन की अवमानना के आधार पर बॉम्बे में उनके आवास से गिरफ्तार किया गया था। गृह मंत्री ने अनुच्छेद 32 के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) का एक रिट इस आधार पर लागू किया कि अनुच्छेद 22 (2) के तहत उनकी नजरबंदी (डिटेंशन) उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है।
सुप्रीम कोर्ट ने तर्कों को स्वीकार कर लिया और अनुच्छेद 22 (2) के अनुसार उनकी रिहाई का आदेश दिया। गिरफ्तारी या नजरबंदी के 24 घंटे के अंदर उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया। उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं करने के परिणामस्वरूप अनुच्छेद 22 (2) के तहत उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ। इस मामले में, यह राय दी गई थी कि अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 मौलिक अधिकारों का अधिक्रमण (सुपरसीड) नहीं कर सकते हैं।
एमएसएम शर्मा बनाम श्री कृष्ण सिन्हा एआईआर 1959 एससी 395
इस मामले के तथ्य:-याचिकाकर्ता पटना के अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र के संपादक हैं। उन्होंने बिहार विधानसभा की कार्यवाही पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की और कहा गया कि स्पीकर द्वारा रिपोर्ट को हटा दिया गया।
संपादक को उनके द्वारा किए गए विशेषाधिकार हनन के कारणों को बताने के लिए विधान सभा के समक्ष पेश किया गया था। सबसे पहले, उन्हें अपने आचरण के लिए दोषी ठहराया गया था। फिर, एक अपील में, संपादक ने अनुच्छेद 19 (1) (a) के तहत तर्क दिया कि उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। लेकिन कोर्ट ने अनुच्छेद 19(1)(a) पर आधारित सभी दलीलों को खारिज कर दिया क्योंकि यह एक सामान्य प्रावधान है और अनुच्छेद 194 एक विशेष प्रावधान है। यदि किसी भी समय ये दोनों आर्टिकल किसी भी विवाद में आते हैं तो बाद वाला पहले वाले पर हावी हो जाएगा। चूंकि सामान्य प्रावधान विशेष प्रावधान के प्रभाव को खत्म नहीं कर सकता है।
यह भी सुझाव दिया गया है कि यदि दोनों अनुच्छेद, अनुच्छेद 19 (1) (a) और 194, परस्पर विरोधी हैं, तो सामंजस्यपूर्ण निर्माण (हार्मोनीयस कंस्ट्रक्शन) का नियम को लागू किया जाना चाहिए (प्रत्येक क़ानून को समग्र रूप से पढ़ा जाना चाहिए और किसी क़ानून या क़ानून के किसी भाग के विरोध में होने पर क़ानून के सभी प्रावधानों के अनुरूप व्याख्याओं को अपनाया जाना चाहिए)।
विशेषाधिकार और कानून अदालतें
अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श करने की शक्ति प्रदान करता है यदि किसी भी समय राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि तथ्य या कानून का प्रश्न उठता है या भविष्य में उत्पन्न हो सकता है। साथ ही, ऐसे प्रश्न सार्वजनिक महत्व के होने चाहिए या सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने के लिए फायदेमंद होना चाहिए। और इस तरह की सुनवाई के बाद, अगर अदालत इसे प्रासंगिक (रेलीवेंट) समझती है, तो वह राष्ट्रपति को अपनी राय दे सकती है।
संसद के सदन में हालांकि बहुत सारी शक्तियाँ, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ हैं, लेकिन इन सभी लाभों के बावजूद यह एक न्यायालय के समान कार्य या प्रदर्शन नहीं कर सकता है। न्यायालय वे हैं जो संसद द्वारा पारित कानूनों या कार्यों की व्याख्या करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि संसद के सदन में भी कोई अपराध किया जाता है तो अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) सामान्य न्यायालयों के पास होता है।
निर्णय विधि
केशव सिंह बनाम विधान सभा के अध्यक्ष
इस मामले के तथ्य – केशव सिंह, जो विधानसभा के गैर-विधायी सदस्य (नॉन लेजिस्लेटिव मेंबर) थे, ने एक पैम्पलेट छापा और प्रकाशित किया। पैम्पलेट के मुद्रण और प्रकाशन के कारण यू.पी. विधान सभा ने अवमानना और सदस्यों में से एक के विशेषाधिकार के उल्लंघन के लिए उनकी आलोचना की थी। उसी दिन, श्री केशव ने घर में उपस्थित होकर अपने आचरण से एक और उल्लंघन किया।
सदन में उनके आचरण के परिणामस्वरूप, स्पीकर ने उन्हें कैद करने का निर्देश दिया, उसी के लिए वारंट जारी किया और उन्हें 7 दिनों के लिए जेल में बंद करने का आदेश दिया।
उनकी याचिका में अनुच्छेद 226 के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट लागू की गई थी। याचिका में दावा किया गया है कि जेल में नजरबंदी अवैध है और दुर्भावनापूर्ण इरादे से की गई है। याचिका में यह भी कहा गया है कि उन्हें खुद को समझाने या बचाव करने का कोई मौका नहीं दिया गया। याचिका पर उन 2 जजों ने सुनवाई की, जिन्होंने उन्हें अंतरिम जमानत (इंटरिम बेल) दी थी।
केशव के मामले में निर्णय के परिणामस्वरूप, विधानसभा ने एक नया प्रस्ताव पारित किया।
इस प्रस्ताव में यह निर्धारित किया गया था कि दोनों न्यायाधीशों ने याचिकाकर्ता और उसके वकील द्वारा दायर रिट पर विचार किया। विधानसभा ने अपने प्रस्ताव में दो जजों और वकील को सदन के सामने पेश करने और उनके आचरण के कारणों की व्याख्या करने के लिए अवमानना नोटिस जारी किया। यह भी आदेश दिया कि केशव को हिरासत में लिया जाए। इसके तहत उन्होंने 226 के तहत याचिका दायर की और विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव को रद्द करने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष परमादेश की रिट दायर की।
सुप्रीम कोर्ट के बहुमत से यह माना गया कि 2 न्यायाधीशों का आचरण अवमानना नहीं है।
कोर्ट ने आगे बताया कि अगर अनुच्छेद 194 (3) के तहत बताए गए विशेषाधिकारों के मामलों में सदन को एकमात्र और अनन्य न्यायाधीश माना जाएगा, बशर्ते कि उसमें कहा जाना चाहिए। लेकिन अगर इस तरह के किसी विशेषाधिकार का उल्लेख लेख में नहीं किया गया है तो यह न्यायालय को तय करना है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
अनुच्छेद 105 और 194 का विश्लेषण करने के बाद उनकी निरपेक्षता का स्पष्ट रूप से अनुमान लगाया जा सकता है। ये विशेष प्रावधान संसद को उसके प्रभावी कामकाज के लिए दिए गए हैं। ये लेख उन पर प्रभावी कानून बनाने के लिए कर्तव्य भी लगाते हैं जो दूसरों के अधिकारों को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। संसद या विधान सभा हालांकि अपनी शक्तियों, विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों का प्रयोग कर सकती है, लेकिन सामान्य न्यायालय के रूप में कार्य नहीं कर सकती है।
संदर्भ (रेफरेंसेस)