भारतीय संविधान के अनुच्छेद 31A से 31C

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Constitution of India

यह लेख इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज की छात्रा Shubhangi Upmanya द्वारा लिखा गया है। इस लेख में वह संविधान के अनुच्छेद 31A से 31C पर चर्चा करती हैं। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

अनुच्छेद 19(1)(g) के साथ अनुच्छेद 31 यह कहता है की किसी भी व्यक्ति से उसकी संपत्ति तब तक नहीं छीनी जा सकती जब तक कि ऐसा करने के लिए कानून का अधिकार न हो और यदि इसे कब्जे में ले लिया गया है, तो मुआवजा प्रदान किया जाएगा। यह अनुच्छेद रद्द होने से पहले कई संशोधनों (अमेंडमेंट) से गुजरा था। अनुच्छेद 19(1)(g) में संपत्ति का अधिकार दिया गया है, हालांकि जनहित के मामले में इस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

वर्ष 1978 में 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा इसे रद्द कर दिया गया था, जिसके बाद संपत्ति का अधिकार समाप्त हो गया और असुरक्षित हो गया।

संविधान का 44वां संशोधन अधिनियम, 1978

सबसे जटिल (वेक्स्ड) अधिकारों में से एक है संपत्ति का अधिकार। यह अधिकार लोगों को अपनी संपत्ति का सुचारु रूप से (स्मूथ मैनर) उपभोग करने देने के लिए संविधान द्वारा दिया गया था। लेकिन अनुच्छेद 31 सरकार को कानूनी अधिकार होने पर संपत्ति छीनने में सक्षम बनाता है। साथ ही, अनुच्छेद 31(2) में दिया गया मुआवजा शब्द बहुत ही मनमाना था क्योंकि इसमें कोई विशेषण (एडजेक्टिव) नहीं दिया गया था और यह सरकार को राशि तय करने का अधिकार देता था।

इस अधिकार को लेकर हर तरह की बहस को ख़त्म करने के लिए 44वें संशोधन को लाया गया। इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 19(1)(g) और अनुच्छेद 31 को निरस्त (रिपील) कर दिया गया और अनुच्छेद 31(1) को अनुसूची IX के अनुच्छेद 300A में स्थानांतरित (मूव) कर दिया गया।

प्रख्यात (एमिनेंट) डोमेन का सिद्धांत और संपत्ति का अधिकार

प्रख्यात डोमेन का सिद्धांत, अमेरिका से ली गई एक अवधारणा है, जो संप्रभु (सोवरीन) को किसी भी निजी भूमि पर कब्जा करने और उसे सार्वजनिक भूमि बनाने की अनुमति देती है, जिससे बड़े पैमाने पर जनता को लाभ हो सकता है। यहां जरूरत सिर्फ इसके लिए मुआवजा देने की है और यह मालिक की राय को ध्यान में रखे बिना किया गया था।

आइए इसे इस तरह से देखते है, मनीष के पास मद्रास में निजी जमीन है और मद्रास सरकार उसकी सहमति के बिना उसकी जमीन छीन लेती है और बदले में उसे मौद्रिक मुआवजा देती है, जो उस बाजार मूल्य से कम है जो उसे मिलता, अगर वह इसे बेचता।  

महाराव साहिब श्री भीम सिंघजी बनाम भारत सरकार

इसमें शहरी समूहों में जो भूमि खाली थी, उसे सरकार द्वारा सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करने के लिए ले लिया गया था।

अदालत ने फैसला सुनाया कि शहरी समूह में भूमि का उपयोग जनता को किसी भी प्रकार का लाभ देने के लिए नहीं किया जा सकता है और उस अधिनियम में इसका कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है।

अब यह लेख निम्नलिखित तीन प्रावधानों पर गहराई से चर्चा करेगा।

  • अनुच्छेद 31A  
  • अनुच्छेद 31B  
  • अनुच्छेद 31C                                                     

संपदा (एस्टेट) आदि के अधिग्रहण (एक्विजिशन) के लिए प्रावधान करने वाले कानून : अनुच्छेद 31A

आइए अनुच्छेद 31(1) के अस्तित्व में आने के बारे में बात करें, जिसमें 5 उप-खंड (सब क्लॉज) हैं। स्वतंत्रता-पूर्व के समय में जमींदारी प्रथा प्रचलित थी। इस प्रणाली ने जमींदारों को बड़ी संख्या में भूमि जोत (लैंड होल्डिंग्स) के साथ बहुत अमीर बना दिया, जबकि किसानों की आर्थिक स्थिति खराब हो गई। सत्ता में कांग्रेस ने जमींदारों से संपत्ति लेकर इसे गरीब लोगों को देकर इसे खत्म करने का फैसला किया, लेकिन अनुच्छेद 31(2) में दिए गए “मुआवजा” शब्द की मनमानी के कारण उनके सामने दुविधा मुआवजा देने की थी (जैसा कि इस लेख में पहले उल्लेख किया गया है)।

इसके बाद, इस प्रस्ताव को सरकार ने वापस ले लिया और वर्ष 1951 में प्रथम संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31A को भारतीय संविधान में शामिल किया गया।

यह अनुच्छेद अपने 5 उप – खंडों के बारे में बताता है कि कोई भी कानून,

  • वह सरकार द्वारा किसी संपत्ति या अधिकार के अधिग्रहण या किसी संपत्ति के प्रबंधन के संबंध में किया गया है
  • वह किन्हीं दो या दो से अधिक कंपनियों का विलय (मर्जर) बनाता है 
  • किसी समझौते या पट्टे (लीज) या लाइसेंस का लाभ प्राप्त करता है;

जब तक इसे राष्ट्रपति की सहमति नहीं मिल जाती तब तक यह शून्य नहीं होगा।

अंबिका मिश्रा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने भूमि जोत अधिनियम (लैंड होल्डिंग एक्ट), 1960 के तहत बड़ी संख्या में अनुमेय (परमिसिबल) भूमि जोत पर एक सीमा लगा दी । 

इसके अलावा भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 3(17) के तहत, केवल ‘पुरुष’ को भूमिधारक और मालिक माना जाता था, जबकि ‘अविवाहित महिला’ या ‘जिस महिला का पति भूमि मालिक है’, उसे भूमि का मालिक नहीं माना जाता था। अधिग्रहण वाले हिस्से के अलावा, कई लोगों ने अधिनियम के इस भेदभावपूर्ण पक्ष को भी देखा है।

अदालत ने अनुच्छेद 31(1)(a) की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा।

कुछ अधिनियमों और विनियमों (रेगुलेशन) की मान्यता (वैलिडेशन): अनुच्छेद 31B

संविधान में अनुच्छेद 31A लागू होने के बाद संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) के उल्लंघन से उत्पन्न होने वाली कई समस्याएं समाप्त हो गईं।

अनुच्छेद 31B में कहा गया है कि जो कानून IX अनुसूची में मौजूद हैं और संविधान द्वारा निर्धारित प्रावधानों के साथ असंगत (इनकंसीस्टेंट) हैं या किसी डिक्री या आदेश का विरोध करते हैं, उन्हें संशोधित करने, रद्द करने या लागू करने का काम सक्षम विधायिका (लेजिस्लेचर) पर छोड़ दिया जाएगा। इस अनुच्छेद में निहित कोई भी बात अनुच्छेद 31A में निहित किसी भी प्रावधान को कमजोर नहीं करती है।

अनुच्छेद 31B सरकार को संविधान के प्रावधानों के खिलाफ स्पष्ट रूप से प्रावधान बनाने की अनुमति नहीं देता है, लेकिन केवल जो संविधान के प्रावधानों के साथ उचित थे और जो असंगत हैं उन्हें शून्य बनाया जाना चाहिए, यह बताता है। यह अनुच्छेद IX अनुसूची में शामिल कानूनों के लिए एक ढाल के रूप में खड़ा था क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि उस अनुसूची में शामिल किसी भी कानून पर कोई सवाल नहीं उठे।

मान लीजिए कि कोई अधिनियम है, इसे XYZ कहें, जो IX अनुसूची में शामिल नहीं है और परिणामस्वरूप, इसे शून्य बनाया जा सकता है लेकिन धीरे-धीरे यह IX अनुसूची में शामिल हो जाता है, तो, यह अनुच्छेद 31B के व्यापक संरक्षण के अंतर्गत आएगा। यह पूर्वव्यापी प्रभाव (रेट्रोस्पेक्टिव इफेक्ट) के बारे में है, जिसे यह अनुच्छेद अपने साथ रखता है। 

वामन राव बनाम भारत संघ, एआईआर 1981 एससी 71

इस मामले में, 24 अप्रैल 1973 को, एक प्रसिद्ध मामले के फैसले में मूल संरचना के सिद्धांत (प्रिंसिपल ऑफ़ बेसिक स्ट्रक्चर) को निर्धारित किया गया, और वह है केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य का मामला। उस फैसले के संदर्भ में, इस मामले ने खारिज कर दिया कि केशवानंद भारती मामले से पहले IX अनुसूची में किए गए किसी भी संशोधन को अदालत में चुनौती नहीं दी जाएगी, लेकिन उसके बाद किए गए किसी भी संशोधन को अदालत में चुनौती दी जा सकेगी।

कुछ निर्देशक सिद्धांतों (डायरेक्टिव प्रिंसिपल) को प्रभावी करने वाले कानून: अनुच्छेद 31C

वर्ष 1971 में 25वा संशोधन किया गया। इस संशोधन से, अनुच्छेद 31C ने अपना अस्तित्व बनाया। पिछले अनुच्छेद मौलिक अधिकारों से संबंधित थे लेकिन यह अनुच्छेद निर्देशक सिद्धांत, संविधान के भाग नौ में निहित अधिकारों के बारे में बात करता है। इसमें कहा गया है कि राज्य द्वारा बनाया गया कोई भी कानून जो संविधान के भाग नौ में निहित अधिकारों को सुरक्षित करता है, उसे अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 या अनुच्छेद 31 के आधार पर शून्य घोषित नही किया जा सकता या उसे चुनौती नहीं दी जा सकती है। 

दूसरे तरीके से कहें तो इसे मूल रूप से न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) से बाहर रखा गया था।

इसमें यह भी कहा गया कि यदि ऐसा कानून विधायिका या राज्य द्वारा बनाया जाता है, तो उस कानून को राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजा जाना चाहिए। अब, किसी भी मामले में, राष्ट्रपति अपनी सहमति देकर कानून को प्रमाणित करता है और कानून पारित किया जाता है जो अभी भी अनुच्छेद 14, 19 और 31 का उल्लंघन कर रहा है, उस स्थिति में, हमारे पास विकल्प के रूप में कुछ भी नहीं बचता है क्योंकि यह एक प्रकार के न्यायिक अवलोकन (ज्यूडिशियल पेरूसल) से सुरक्षित है। 

इस अनुच्छेद के तहत, कोई भी कानून जो अनुच्छेद 39B और अनुच्छेद 39C में निहित प्रावधानों को प्रभावी बनाता है, उसे अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19, या अनुच्छेद 31 के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती है।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य

इस मामले के निर्णय को नौ जजों की बेंच द्वारा सुनाया गया था। यह मशहूर मामला सबसे प्रशंसित ऐतिहासिक फैसलों में से एक है। इसने मूल संरचना के सिद्धांत को प्रतिपादित (लेड डाउन) किया, जिसमें कहा गया कि बनाए गए किसी भी कानून को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए और यदि संशोधन करना हो तो उसे इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वे मूल संरचना को नष्ट न करें। 

मौलिक अधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और उन्हें राज्य द्वारा पूरे सम्मान के साथ संरक्षित किया जाना चाहिए और उनकी सुरक्षा और उन्हें निरस्त (एब्रोगेट) करने के प्रावधान किए जाने चाहिए। इस विचार के साथ, इस मामले ने 25वें संशोधन की संवैधानिकता पर सवाल उठाए और इसलिए, घोषणा की कि अनुच्छेद 368 के प्रावधानों के तहत राज्य या विधायिका द्वारा मौलिक अधिकारों की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए और इस अनुच्छेद के दूसरे भाग ने न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को तेजी दी है। इसलिए, अनुच्छेद 31C की वैधता पर सवाल उसके ख़त्म होने के साथ ही ख़त्म हो गया।

मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मौलिक अधिकार संविधान की मूल विशेषता हैं और अनुच्छेद 368 के तहत इन्हें संरक्षित करने की आवश्यकता है। खैर इस मामले में, अनुच्छेद 31C के विस्तारित हिस्से को इस तर्क के साथ पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया कि यह अनुच्छेद 368 के तहत मौलिक अधिकारों पर हमला करता है। यह आश्चर्यजनक रूप से प्रतिष्ठित न्यायाधीश द्वारा बताया गया था कि इस अनुच्छेद द्वारा निर्देशक सिद्धांतो को सुरक्षित किया गया था जिससे इसका महत्व बढ़ गया था। मौलिक अधिकार सर्वोपरि (पैरामाउंट) होने के कारण निर्देशक सिद्धांत मौलिक अधिकारों के महत्व के खिलाफ नहीं जा सकते, और किसी भी कानून द्वारा इसमें कटौती नहीं की जा सकती। यह निर्णय न्यायिक समीक्षा की अवधारणा के लिए भी हुआ था जो लोगों को उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में उपलब्ध नहीं कराया गया था।

संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड, (1983) 1 एससीसी 147

अदालत ने इस मामले में बताया कि मौलिक अधिकार और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत एक-दूसरे के साथी होने चाहिए और एक-दूसरे को बढ़ाने चाहिए।

इसके अलावा, अनुच्छेद 31(C) को असंवैधानिक और मौलिक अधिकारों के खिलाफ बताया गया। यह भी बताया गया की निर्देशक सिद्धांत और मौलिक अधिकारों से जुड़े मुद्दे पर कोई टकराव नहीं होना चाहिए।

IX अनुसूची के कानून न्यायिक समीक्षा से परे नहीं है

IX अनुसूची का संबंध 1973 के प्रसिद्ध केशवानंद भारती मामले से है।

यह कहा जा सकता है कि जब सरकार किसी कानून को चुनौती रहित रखना चाहती है तो वह उसे IX अनुसूची में डाल सकती है क्योंकि उसे न्यायिक समीक्षा से बाहर रखा जाता है। बात करते हैं संपत्ति के अधिकार की, संपत्ति के अधिकार के लिए और संपत्ति के अधिग्रहण और उसके साथ मिलने वाले अधिकारों को संविधान में अपने नींव पक्की करते हुए देखा गया है, जबकि ये सभी IX अनुसूची में शामिल थे। इस अनुसूची के पीछे छिपकर मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा था और उन्हें अभी भी न्यायिक समीक्षा के बिना छोड़ दिया गया था लेकिन अब वे निरस्त हो गए हैं। कानून के सामने सवाल यह था कि अगर इस अधिनियम या इसके किसी हिस्से को असंवैधानिक घोषित कर दिया जाए तो क्या इसे IX अनुसूची में जगह मिलेगी? यह केवल संपत्ति अधिनियम तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यथासंभव मनमाने (आर्बिट्ररी) प्रकृति के सभी प्रकार के कार्यों तक फैला हुआ है। उदाहरण के लिए, मंडल मामला यानी इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ, जहां आरक्षण 69% था जो 50% की स्वीकृत सीमा से अधिक था। 

इस प्रतिशत को कई गुना बढ़ाकर 90% या 95% तक किया जा सकता है, लेकिन यह जरूरत सिर्फ इस अनुच्छेद को IX अनुसूची में रखे जाने की है। 

यह नीचे उल्लिखित मामले के फैसले से पहले की स्थिति थी जहां इसे खारिज कर दिया गया था कि IX अनुसूची में शामिल कानूनों को मूल संरचना के सिद्धांत का पालन करना होगा।

आईआर कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य, 2007 (1) एससी 137

यह मामला मौलिक अधिकारों में संशोधन किए जानें, लेकिन इससे बुनियादी ढांचे में कटौती करने के बारे में बात करता है। यह मामला, मौलिक अधिकारों और निर्देशक सिद्धांत के बीच संतुलन बनाया जाना चाहिए यह भी बताता है। यह मामला पांच न्यायाधीशों की उच्च संविधान पीठ को सौंप दिया गया था।

इस मामले में, दो प्रश्न उठाए गए जो थे:

  1. यदि कोई अधिनियम संपूर्ण रूप से या उस अधिनियम का कोई भाग अनुच्छेद 14, 19 और 21 में मौलिक अधिकार के विरुद्ध है, तो क्या इसे नौवें संशोधन में शामिल किया जाएगा? 
  2. क्या IX अनुसूची में जो संशोधन किया गया है वह मूल संरचना को नष्ट कर देता है?

अदालत ने कहा कि यदि किसी हिस्से की संवैधानिकता को अदालत ने पहले ही बरकरार रखा है तो इसे चुनौती नहीं दी जाएगी, लेकिन अगर इसे 24 अप्रैल 1973 के बाद शामिल किया गया है तो इसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है। IX अनुसूची में शामिल सभी अनुच्छेदों को बुनियादी संरचना की परीक्षा से गुजरना पड़ता है जो यह निर्धारित करता है कि क्या विशेष प्रावधान मूल संरचना का उल्लंघन करता है।

निष्कर्ष 

“भविष्य में सुधार के लिए अपनी प्रक्रियाओं और अपने कार्यों में संशोधन करें”।

यही तो हमारा संविधान भी मानता है। 1951 में पहले संशोधन से लेकर 2019 में 124वें संशोधन तक, संविधान बेहतरी के द्वार तक संशोधन करता रहा है। यह सब धूप और बारिश नहीं थी, वास्तव में, इसकी अपनी आंधी थी। 

संपत्ति का अधिकार बहुत सारे सुधारों और आलोचनाओं (क्रिटिसिजम) के साथ सबसे विवादास्पद अधिकार साबित हुआ। अनुच्छेद 31, 19(1)(g) और अनुच्छेद 31C को असंवैधानिक बताए जाने और इसके दूसरे भाग को मौलिक अधिकार को केवल संवैधानिक अधिकार बनाने के लिए अनुच्छेद 300A में स्थानांतरित कर दिए जाने से संपत्ति कानून कमजोर होता गया। 

इस मुद्दे को इस तरह रखते हैं कि संविधान के भाग IV को सुरक्षा देनी होगी लेकिन संविधान के भाग III का उल्लंघन करके उन्हें संतुलित किया जा सकता है। फिर भी, अभी बहुत कुछ बदलाव किया जाना बाकी है और बहुत लंबा रास्ता तय करना है क्योंकि संविधान स्थिर है।

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