भारतीय संविधान का अनुच्छेद 311

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Constitution of India

यह लेख केआईआईटी स्कूल ऑफ लॉ की छात्रा Sushree Surekha Choudhary द्वारा लिखा गया है। यह लेख प्रासंगिक न्यायिक घोषणाओं की सहायता से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 311 और उसके प्रावधानों का एक वर्णनात्मक अवलोकन (डिस्क्रिप्टिव ओवरव्यू) देता है। इस लेख का अनुवाद Namra Nishtha Upadhyay द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 311 के तहत, भारत में लोक सेवकों को बर्खास्त (डिस्मिसल) करने या हटाने का प्रावधान दिया गया था। हालांकि यह एक नकारात्मक प्रावधान की तरह दिखता है जो सरकार द्वारा लोगों को उनकी सत्ता से हटाने या बर्खास्त करने में सक्षम बनाता है, साथ ही यह गैरकानूनी और अनुचित बर्खास्तगी के खिलाफ सुरक्षा उपायों का एक रूप भी है। चूंकि इस अनुच्छेद में यह आदेश दिया गया है कि लोक सेवक को नियुक्त करने वाले के पद से नीचे का कोई भी व्यक्ति, उसे हटाने का पात्र नहीं है, यह इस तरह की बर्खास्तगी पर उचित प्रतिबंध लगाता है। इस अनुच्छेद की उत्पत्ति भारत में ब्रिटिश शासन के समय हुई थी, या यह भी कह सकते है की अनुच्छेद 311 को लाने के पीछे का विचार, अंग्रेजी अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) से लिया गया है, जहां एक लोक सेवक केवल राष्ट्रपति की संतुष्टि पर पद धारण करने के योग्य है। यह एक सामान्य कानून है जिसे अनुच्छेद 310 के तहत प्रसादपर्यंत के सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑफ प्लेजर) के रूप में अपनाया गया है। सामान्य कानून प्रणाली ने ताज को अपार शक्तियाँ प्रदान कीं और ताज किसी भी लोक सेवक के पद को अपनी इच्छा से समाप्त कर सकता था। हालांकि भारत में इस नियम को ही अपनाया गया है, लेकिन इसे उचित प्रतिबंधों के अधीन किया गया है।

अनुच्छेद 311 की प्रयोज्यता (एप्लीकेशन)

अनुच्छेद 311, संघ के तहत और विभिन्न राज्यों में लोक सेवकों के रूप में कार्यरत व्यक्तियों को बर्खास्त करने या हटाने का प्रावधान करता है। अनुच्छेद की कानूनी व्याख्या का अर्थ है कि अनुच्छेद 311(1) के तहत निम्नलिखित लोगों को, उन्हें नियुक्त करने वाले की तुलना में अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) पद के व्यक्ति द्वारा बर्खास्त या पद से नहीं हटाया जा सकता है, जो हैं:

  • संघ की लोक सेवाओं का एक सदस्य,
  • अखिल भारतीय लोक सेवा का एक सदस्य,
  • किसी विशेष राज्य की लोक सेवाओं का सदस्य,
  • संघ के तहत एक लोक पद धारण करने वाला व्यक्ति,
  • एक विशेष राज्य के तहत एक लोक पद धारण करने वाला व्यक्ति।

अनुच्छेद 311 का खंड 2, पहले खंड पर यह कहते हुए उचित सीमा रखता है कि जिस व्यक्ति की बर्खास्तगी प्रस्तावित की गई है, उसे सुनवाई का उचित अवसर दिया जाना चाहिए और एक उचित जांच की जानी चाहिए जहां उस व्यक्ति को उसके खिलाफ़ लगाए गए आरोप के बारे में विस्तार में सूचित किया जाना चाहिए।

अनुच्छेद 311 के अपवाद

नीचे उल्लिखित अनुच्छेद 311 के दोनों खंडों के अपवाद हैं:

  • अनुच्छेद 311(1) का एक अपवाद आता है जिसमें कहा गया है कि अनुच्छेद के प्रावधान केवल लोक सेवकों, यानी लोक अधिकारियों पर लागू होंगे। यह रक्षा कर्मियों या संघ या राज्य सरकारों के अधीन किसी अन्य प्रकार की सेवा पर लागू नहीं होता है।
  • अनुच्छेद 311(2) जो कहता है कि एक उचित जांच होनी चाहिए और सुनवाई का एक उचित अवसर प्रदान किया जाना चाहिए, कुछ अपवादों के साथ आता है:
  1. जब किसी व्यक्ति को उसके खिलाफ आपराधिक आरोपों के कारण बर्खास्त किया जाता है, हटा दिया जाता है, या पद में कम कर दिया जाता है और उसे दोषी ठहराया जाता है, तो अनुच्छेद 311(2) के तहत जांच की आवश्यकता नहीं होती है।
  2. जब प्राधिकरण (अथॉरिटी) में व्यक्ति जो ऐसे लोक सेवक को बर्खास्त करने, हटाने या उसके पद को कम करने का हकदार है, वह आगे की जांच करना अनावश्यक समझता है, तो उसके पास यह शक्ति है की वो आगे जांच न करे और किसी भी लोक सेवक को बर्खास्त करने या हटाने या पद को कम करने से पहले इसका कारण लिखित में बताए।
  3. जब भारत के राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल संतुष्ट हो जाते हैं कि राज्य की सुरक्षा और संप्रभुता (सोवरेंट) को बनाए रखने के लिए ऐसे लोक सेवक को उसके पद से बर्खास्त करना या हटाना आवश्यक है, तो बिना किसी जांच के ऐसी बर्खास्तगी या हटाने का निर्देश दिया जा सकता है।

प्रसादपर्यंत का सिद्धांत

अनुच्छेद 311 को अनुच्छेद 310 के लागू होने के बाद सुगम (फैसिटिलेट) बनाया गया है और दोनों अनुच्छेद को आपस में संबंधित कहा जा सकता है। अनुच्छेद 310, जिसे लोकप्रिय रूप से प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के रूप में जाना जाता है, भारतीय संविधान का एक प्रावधान है जिसमें कहा गया है कि लोक सेवक, राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों की संतुष्टि पर पद धारण करते हैं। जबकि, अनुच्छेद 311 केवल लोक सेवको को बर्खास्त करने या हटाने के लिए पात्र है, अनुच्छेद 310 के तहत, रक्षा कर्मी भी पद धारण कर सकते हैं। हालांकि, अनुच्छेद 311 के प्रावधान उन पर लागू नहीं होते हैं। इस प्रकार, अनुच्छेद 310 के तहत नियुक्त अधिकारी कार्यपालिका (एग्जिक्यूटिव) की संतुष्टि पर पद धारण करते हैं और अनुच्छेद 311 की प्रयोज्यता द्वारा उनको बर्खास्त, हटाया या पद को कम किया जा सकता है। अंत में, जांच करने की आवश्यकता के संबंध में निर्णय लेने के लिए अधिकृत (ऑथराइज्ड) प्राधिकारी का फैसला अंतिम होगा (अनुच्छेद 311(3))।

प्रसादपर्यंत के सिद्धांत का अपवाद

हालांकि भारत के राष्ट्रपति और संबंधित राज्यों के राज्यपाल प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के तहत शक्तियों का आनंद लेते हैं, लेकिन यह कुछ अपवादों के साथ आता है। प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के उल्लंघन के आधार पर निम्नलिखित को बर्खास्त किया या हटाया नहीं जा सकता है:

  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले बर्खास्त किया या हटाया नहीं जा सकता (अनुच्छेद 124),
  • उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके कार्यकाल की समाप्ति से पहले बर्खास्त या हटाया नहीं जा सकता (अनुच्छेद 218),
  • मुख्य चुनाव आयुक्त (चीफ इलेक्शन कमिश्नर) को प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के दायरे में नहीं लाया जा सकता (अनुच्छेद 324),
  • लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्य अनुच्छेद 310 और 311  के अपवाद हैं (अनुच्छेद 317)।

अनुच्छेद 311 का उद्देश्य

अनुच्छेद 311 के प्रावधानों को स्पष्ट करने के पीछे का उद्देश्य लोक सेवकों को कुछ सुरक्षा प्रदान करना है। अनुच्छेद 311 इस उद्देश्य को निम्नलिखित तरीके से पूरा करता है:

  • यह सरकारी कर्मचारियों को उनकी सेवा के कार्यकाल में सुरक्षा प्रदान करता है।
  • यह भ्रष्टाचार के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है, जिससे ईमानदार लोक सेवकों की मनमानी बर्खास्तगी, हटाना या पदावनति (डिमोशन) होती है।
  • अनुच्छेद 311 के प्रावधानों का उल्लंघन, जो लोक सेवकों को हटाने या बर्खास्त करने के तरीके को निर्धारित करता है, कानून की अदालत में लागू करने योग्य है। इसका अर्थ यह है कि यदि किसी लोक सेवक को इस अनुच्छेद द्वारा निर्धारित निर्देशों का पालन किए बिना हटा दिया जाता है, बर्खास्त कर दिया जाता है या पदावनत कर दिया जाता है, तो लोक सेवक उपाय के लिए कानून की अदालत में पहुंच सकता है। यदि उल्लंघन साबित हो जाता है, तो लोक सेवक को कभी भी बर्खास्त, हटाया या पदावनत नहीं किया गया माना जाता है।
  • एक पीड़ित लोक सेवक निवारण के लिए राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण (एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल) या केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण तक भी पहुंच सकता है।
  • एक लोक सेवक की सेवा की समाप्ति को इस अनुच्छेद के तहत दंड माना जाता है यदि पद धारण करने वाले लोक सेवक के पास ऐसा अधिकार था। यदि उनकी नियुक्ति के दौरान उन्हें पद धारण करने का अधिकार था और इस तरह उनके पद को समाप्त कर दिया गया था, तो इस तरह की समाप्ति का अर्थ स्वतः ही अनुच्छेद 311 के तहत दंड होगा। अन्यथा, ऐसे पद को धारण करने के अधिकार के बिना पद धारण करने वाले एक लोक सेवक के पद की समाप्ति, हटाना या पदावनति को अनुच्छेद 311 के तहत दंड नहीं माना जाएगा।
  • अस्थायी रूप से पद धारण करने वाले एक लोक सेवक के लिए, इसे अनुच्छेद 311 के तहत दंड माना जाएगा यदि उसे किसी उल्लंघन के कारण या गलत काम के लिए सजा के रूप में पद से हटा दिया गया था।

पुरुषोत्तम लाल ढींगरा बनाम भारत संघ (1957) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित करने के लिए दो परीक्षणों पर चर्चा की कि क्या एक लोक सेवक को उसके कार्यालय से हटाना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 311 के तहत एक सजा है। उन परीक्षणों को यह निर्धारित करना था कि:

  1. लोक सेवक को उस कार्यालय या पद को धारण करने का अधिकार था जिस पर उसे नियुक्त किया गया था,
  2. इस तरह के एक लोक सेवक को बुरे परिणामों के साथ देखा गया है।
  • अनुच्छेद 311 के तहत संरक्षण सभी प्रकार के लोक सेवकों के रूप में नियुक्त लोगों, जैसे कि स्थायी लोक सेवक, अस्थायी लोक सेवक, स्थानापन्न (ऑफिशिएटिंग) लोक सेवक, या परिवीक्षा (प्रोबेशन) पर लोक सेवक पर लागू होता है।

सुनवाई का अवसर और 42वां संविधान संशोधन

अनुच्छेद 311(2) एक लोक सेवक को बर्खास्त करने, हटाने या उसके पद को कम करने के दौरान उचित जांच करने का प्रावधान करता है। इसमें कहा गया है कि हर ऐसे लोक सेवक को जिसे बर्खास्त किया, हटाया या पद में कम किया जाना है, उसे सुनवाई का उचित अवसर दिया जाना चाहिए। उसे सबूत हासिल करने और स्वीकार करने और अपना मामला साबित करने का मौका दिया जाना चाहिए। हालाँकि, इस तरह की जाँच को छोड़ा जा सकता है यदि अधिकार वाले व्यक्ति को ऐसा करना उचित लगता है। अनुच्छेद 311(2) के लिए ऐसा अपवाद तब लागू होता है जब लोक सेवक पर आपराधिक आरोप लगाए जाते हैं, और यदि प्राधिकरण उचित समझे या राष्ट्र की सुरक्षा और संप्रभुता सवाल में हो।

सुनवाई का यह उचित अवसर मूल रूप से लोक सेवक को पूछताछ के चरण के साथ-साथ दंडात्मक चरण दोनों में दिया गया था। हालांकि, भारतीय संविधान के 42वें संशोधन से बदलाव लाए गए। 1976 के संशोधन अधिनियम ने दंडात्मक चरण को हटा दिया। सजा का चरण तब होता है जब जांच पूरी हो जाती है और लोक सेवक के खिलाफ आरोप एक उचित संदेह से परे साबित होते हैं। जैसे, जब सजा को प्रभावी होने के लिए उपयुक्त निर्धारित किया जा रहा है, तो लोक सेवक को अब उसके लिए तय की गई सजा के खिलाफ बोलने और प्रतिनिधित्व करने का अवसर नहीं मिलता है। इस प्रकार, वर्तमान रुख ऐसा है कि, जिस लोक सेवक के खिलाफ अनुच्छेद 311 को लागू करने का आरोप लगाया गया है, उसे जांच के चरण में प्रतिनिधित्व करने का एक उचित अवसर मिलता है और आगे के चरण में कोई अवसर नहीं मिलता है। एक बार जब उसके खिलाफ लगाए गए आरोप साबित हो जाते हैं, तो उसके पास ज्यूरी के सामने अपने मामले को पेश करने का अधिकार नहीं रह जाता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में विस्तार से बताया कि ‘सुने जाने/प्रतिनिधित्व करने के उचित अवसर’ के दायरे में क्या आता है:

  • ऐसे लोक सेवक को अपराध से इनकार करने के अवसर के साथ पेश किया जाना चाहिए,
  • ऐसे लोक सेवक को अपनी बेगुनाही साबित करने का अवसर मिलना चाहिए, उसे अपने ऊपर लगे आरोपों और उन आरोपों को लगाने के आधार के बारे में स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए,
  • आरोपों के तहत ऐसे लोक सेवक को अपने खिलाफ गवाहों से जिरह (क्रॉस एग्जामिनेशन) करके अपना बचाव करने का अधिकार है,
  • ऐसे लोक सेवक को अपने समर्थन में गवाह पेश करने का अधिकार है,
  • ऐसे लोक सेवक को स्वयं की जांच कराने का अधिकार है,
  • लोक सेवक की टिप्पणियों को जोड़ने के लिए अनुशासन समिति (डिसिप्लिनरी कमिटी) द्वारा रिपोर्ट को अंतिम मानने से पहले इस तरह के एक लोक सेवक को अंतिम जांच रिपोर्ट तक पहुंचने का अधिकार है।

विभागीय (डिपार्टमेंटल) जांच की प्रक्रिया

जब एक लोक सेवक के खिलाफ आरोप लगाए जाते हैं, तो पहला कदम इन आरोपों की जांच शुरू करना होता है। यह पूछताछ निम्नलिखित चरणों के माध्यम से होती है:

  1. जांच अधिकारी नियुक्त किया जाता है।
  2. लोक सेवक पर लगाए गए आरोपों का निर्धारण किया जाता है।
  3. इन आरोपों की जानकारी वाली एक चार्जशीट, लोक सेवक को प्रस्तुत की जाती है।
  4. लोक सेवक को विकल्प दिया जाता है की वह अपने लिए एक वकील चुने या वह खुद का प्रतिनिधित्व करने का विकल्प भी चुन सकता है।
  5. यदि आवश्यक हो तो गवाहों को पूछताछ प्रक्रिया को जारी रखने के दौरान बुलाया जाता है।
  6. नियुक्त जांच अधिकारी अंतिम रिपोर्ट तैयार करता है।
  7. यह अंतिम रिपोर्ट लोक सेवक को उसकी टिप्पणियों, यदि कोई हो, के लिए प्रस्तुत की जाती है।
  8. तब रिपोर्ट को अंतिम माना जाता है और लोक सेवक के खिलाफ आरोप साबित होते हैं या वह एक निर्दोष व्यक्ति के रूप में सामने आ सकता है।
  9. अंतिम रिपोर्ट आगे के निर्णय लेने के लिए उपयुक्त सरकार को प्रस्तुत की जाती है।
  1. विचाराधीन (अंडर क्वेश्चन) लोक सेवक आगे की अपील के लिए अदालतों, राज्य प्रशासनिक  न्यायाधिकरणों या केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (सीएटी) तक पहुंच सकता है।

भारतीय संविधान के अन्य प्रासंगिक (रिलेवेंट) अनुच्छेद 

भारत में लोक सेवाओं के लिए  संविधान के कुछ अन्य प्रासंगिक प्रावधान इस प्रकार हैं:

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 53 संघ की कार्यकारी शक्ति अर्थात, भारत के संघ के लिए निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति की शक्ति के बारे में बात करता है। इस प्रकार राष्ट्र के लोक सेवक राष्ट्रपति की मर्जी से पद धारण करते हैं।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 154 राज्यों की कार्यकारी शक्ति यानी विभिन्न राज्यों के राज्यपालों की अपनी कार्यकारी शक्ति के तहत निर्णय लेने की शक्ति के बारे में बताता है। इस प्रकार राज्यों के लोक सेवक उस राज्य, जहां वे पद धारण कर रहे हैं के राज्यपाल की मर्जी से पद धारण करते हैं।
  • राष्ट्रपति और विभिन्न राज्यों के राज्यपालों के अधीनस्थ अधिकारियों को स्थायी लोक सेवाओं के अधिकारी के रूप में जाना जाता है। वे अनुच्छेद 308 से अनुच्छेद 323 के तहत भारतीय संविधान के भाग XIV द्वारा शासित हैं।
  • अनुच्छेद 309 संसद और राज्य विधानसभाओं को निम्नलिखित शक्तियां प्रदान करता है:
    • लोक सेवकों की भर्ती पर नियम बनाना,
    • इन भर्ती किए गए लोक सेवकों की सेवा के नियम और शर्तें बनाना,
    • ये कार्य संघ या किसी राज्य के संदर्भ में लोक सेवाओं, लोक पदों और पदों में लोक सेवकों के लिए विस्तारित हैं।
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 310 प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के बारे में बात करता है। प्रसादपर्यंत के सिद्धांत का अर्थ है कि संघ या किसी भी राज्य में भारत में लोक सेवक या लोक पद के रूप में पद धारण करने वाला व्यक्ति, भारत के राष्ट्रपति या संबंधित राज्यों के राज्यपालों की संतुष्टि पर इस तरह का पद धारण करेगा।
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 311 एक नियत प्रक्रिया का पालन करने के बाद निर्दिष्ट किए जाने वाले कारणों के लिए लोक सेवकों की बर्खास्तगी, हटाने या पद को कम करने के बारे में बात करता है और केवल उस अधिकारी द्वारा जो उस लोक सेवक के पद से नीचे नहीं होना चाहिए, जिसने ऐसे लोक सेवक को नियुक्त किया था।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 312 अखिल भारतीय सेवाओं के बारे में बताता है।
  • भारत सरकार (बिलों का लेन-देन) नियम (1961) नियमों का एक समूह है जो स्थायी सिविल सेवाओं के अधिकारियों को क्रमशः राष्ट्रपति और राज्यपालों की सहायता करने के तरीके और कामकाज को नियंत्रित करता है।

प्रासंगिक मामले

नीचे कुछ मामलों के संदर्भ दिए गए हैं जो लोक सेवकों, उनके अधिकारों और उसी के संबंध में संवैधानिक प्रावधानों के लिए प्रासंगिक हैं:

सुखबंस सिंह बनाम पंजाब राज्य (1962)

‘क्या एक सरकारी कर्मचारी की सेवा समाप्त करना अनुच्छेद 311 के तहत सजा है?’ इस सवाल के साथ, उच्च न्यायालय ने सुखबंस सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले की परिस्थितियों में कहा कि सरकारी कर्मचारी को सेवा से हटाना अनुच्छेद 311 के तहत बर्खास्तगी, हटाने या पद को कम करने की श्रेणी के तहत नही आता है। इस प्रकार, ऐसे निलंबित सरकारी कर्मचारी अनुच्छेद 311(2) के तहत प्रदान की गई संवैधानिक गारंटी के रूप में अदालतों या न्यायाधिकरणों से निवारण (रिड्रेसल) की मांग नहीं कर सकते।

श्याम लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1953)

श्याम लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, के मामले में कानून के एक समान प्रश्न को शामिल करते हुए, एक सरकारी कर्मचारी द्वारा अनिवार्य सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट), अनुच्छेद 311 के तहत बर्खास्तगी, हटाने या पद को कम करने की श्रेणी के तहत नहीं आती है और इस प्रकार, अनुच्छेद 311(2) के तहत सरकारी कर्मचारी के पास कोई मुक़दमा दायर करने का कारण नही है।

बिहार राज्य बनाम अब्दुल मजीद (1954)

बिहार राज्य बनाम अब्दुल मजीद, के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में लोक सेवकों के अधिकारों पर चर्चा करते हुए कहा कि एक लोक सेवक को सरकार से अपने वेतन के बकाया के लिए मुकदमा करने का अधिकार है। यह एक प्रगतिशील निर्णय था जिसने लोक सेवकों को उनके लंबित वेतन और बकाया की मांग के लिए अदालतों तक पहुंचने की अनुमति दी।

भारत संघ बनाम बलबीर सिंह (2017)

प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के संदर्भ में, भारत संघ बनाम बलबीर सिंह के इस ऐतिहासिक निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भले ही संघ के प्रमुख (भारत के राष्ट्रपति) और प्रत्येक राज्य के प्रमुख राज्यपाल (राज्यपाल) में अधिकार निहित है जो एक लोक सेवक के खिलाफ लगाए गए आरोपों पर विभागीय जांच को समाप्त कर सकते हैं, जो उसे सुनवाई का अवसर प्रदान करता है, तो ऐसे में अदालत के निर्णय अंतिम होंगे। अदालतों को यह सुनिश्चित करने की अंतिम शक्ति प्राप्त है कि लोक सेवकों को अवैध तरीकों से कार्यालय से नहीं हटाया जाए। अदालत इसकी विस्तृत जांच कर सकती है और संतुष्ट होने पर अदालत के पास राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा बर्खास्तगी के फैसले को रद्द करने की शक्ति है।

भारत संघ और अन्य बनाम तुलसीराम पटेल (1985)

भारत संघ और अन्य बनाम तुलसीराम पटेल, के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 311(2) के अपवादों पर चर्चा की, अर्थात, ऐसे मामले जहां अनुशासनात्मक जांच को अधिकार रखने वाले व्यक्ति द्वारा छोड़ा जा सकता है। उच्च न्यायालय ने माना कि विवेक परीक्षण लागू किया जाना था। यह परीक्षण करना होगा कि सामान्य विवेक का एक उचित व्यक्ति हर मामले के आधार पर तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार स्थिति में क्या करेगा। अदालत ने आगे कहा कि यदि लोक सेवक को आपराधिक आरोपों में दोषी ठहराया जाता है, तो उसे बिना किसी विभागीय जांच के उनके पद से बर्खास्त या हटाया जा सकता है।

पंजाब राज्य बनाम किशन दास (1971)

पंजाब राज्य बनाम किशन दास के मामले में, उच्च न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 311 के तहत, एक सरकारी कर्मचारी के वेतन को कम करने को सरकारी कर्मचारी के पद को कम करने के रूप में नहीं माना जा सकता है। इस निर्णय ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अनुच्छेद 311 के महत्व को स्थापित करने में और यह कि जब तक यह लागू किए जाने वाले अनुच्छेद 311 के तत्वों को सख्ती से पूरा नहीं करता है, तब तक इसे हर छोटे लेन-देन के विवरण पर लागू नहीं किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि कई विभागीय कारणों से वेतन कम किया जा सकता है और इसलिए, इसे सरकारी कर्मचारी के पद में कमी नहीं माना जाएगा। इस तरह के निर्णय अदालतों को छोटे-मोटे मामलों से बचने में मदद करते हैं।

उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम औध नारायण सिंह और अन्य (1964)

तथ्य

उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम औध नारायण सिंह और अन्य, के मामले में प्रतिवादी को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में सरकारी कोष (ट्रेजरी) के नकद विभाग में एक तहसीलदार के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्हें कोषाध्यक्ष द्वारा आजमगढ़ के कलेक्टर के अनुमोदन (अप्रूवल) से नियुक्त किया गया था। बाद में ऐसा करने के लिए कलेक्टर से निर्देश प्राप्त करने के बाद उन्हें उनके पद से हटा दिया गया था। उन्होंने अपने मामले का प्रतिनिधित्व करने का उचित अवसर प्राप्त किए बिना हटाए जाने के लिए अनुच्छेद 311 (2) के तहत मामला दर्ज किया। यहां कानून का सवाल यह था कि क्या अनुच्छेद 311(1) के तहत प्रतिवादी का पद लोक सेवक/लोक पद की श्रेणी में आ सकता है?

न्यायालय का फैसला 

उच्च न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी ने कलेक्टर की सहमति से कोषाध्यक्ष द्वारा पद पर नियुक्त होने के बाद राज्य के नकद विभाग में पद धारण किया। उन्होंने इस विभाग में एक लोक पद पर कार्य किया और इस प्रकार, अनुच्छेद 311(1) के तहत एक सरकारी कर्मचारी के रूप में योग्य हो गए। उन्हें उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना उनके पद से हटा दिया गया था और इसलिए, इस निष्कासन को अवैध माना जाता है। तहसीलदार सीधे राज्य से पारिश्रमिक (रिम्युनरेशन) प्राप्त करते हैं और बर्खास्तगी, हटाने, पद को कम करने, या लगाए गए आरोपों के खिलाफ अनुशासनात्मक जांच के मामले में जिला अधिकारियों की जांच और शक्ति के अधीन हैं। इस प्रकार, प्रतिवादी अनुच्छेद 311 द्वारा सुरक्षित है और अनुच्छेद 311 का सख्ती से पालन किए बिना उन्हे हटाया नहीं जा सकता।

सचिन वाज़े मामला

कई आरोपों के तहत पहले दो बार निलंबित, सिपाही सचिन वाज़े को 2020 में उनके कार्यालय से बर्खास्त किया गया था। अगले वर्ष, बिजनेस टाइकून मुकेश अंबानी को उनके आवास एंटीलिया में बम विस्फोट के बाद धमकी भरे पत्र मिले। इसके बाद बम विस्फोट मामले में शामिल मनसुख हिरेन की हत्या कर दी गई। पुलिस अधिकारी को सचिन वाज़े का इन मामलों में शामिल होने का संदेह था और उन्हें महाराष्ट्र सरकार के गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए), 1967 के तहत दोषी होने के संदेह में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) द्वारा गिरफ्तार किया गया था। बाद में उन्हें मुंबई पुलिस आयुक्त द्वारा मुंबई पुलिस की सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। बिना किसी विभागीय कार्यवाही के उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। पुलिस आयुक्त (कमिश्नर) ने उन्हें अनुच्छेद 311(2)(b) के तहत अपवाद के प्रावधानों के तहत बर्खास्त कर दिया। पुलिस आयुक्त ने लिखित में अपने कारण बताए क्योंकि सचिन वाजे को बर्खास्त करने से पहले विभागीय जांच करना उचित रूप से व्यावहारिक नहीं था। इसे तत्काल मामले में वैध ठहराया गया था क्योंकि अपराधों की गंभीरता और अपवाद को लागू करने की तर्कसंगतता को ध्यान में रखते हुए वाज़े को बर्खास्त कर दिया गया था।

इसी तरह की स्थिति में, बर्खास्त व्यक्ति कानून की अदालत, संबंधित राज्य के प्रशासनिक न्यायाधिकरण, या केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (सीएटी) से निवारण की मांग कर सकता है।

निष्कर्ष

हमारे देश में लोक सेवकों का एक सम्मानजनक और महत्वपूर्ण स्थान है। वे बड़ी जिम्मेदारी के साथ निहित हैं और विभिन्न संप्रभु गतिविधियों के लिए उन पर भरोसा किया जाता है। अंतत: भारत संघ या किसी राज्य में किसी पद पर नियुक्त होने से पहले वे कड़ी जांच की प्रक्रिया से गुजरते हैं। इस तरह के कार्यालय को धारण करने से इन सरकारी कर्मचारियों पर दायित्व, कर्तव्य और जिम्मेदारियां निहित होती हैं, और उनसे पूरी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा (डिटरमिनेशन) के साथ कार्य करने की अपेक्षा की जाती है। जिम्मेदारियों और शक्तियों के विशाल होने के साथ, उन्हें अवैध और अनुचित प्रथाओं से भी सुरक्षा दी जाती है, जिससे उनकी बर्खास्तगी या निष्कासन होता है, साथ ही साथ इसके लिए प्रावधान भी करते हैं। सबसे पहले, वे संघ में भारत के राष्ट्रपति की संतुष्टि पर और उस राज्य के राज्यपाल की संतुष्टि पर पद धारण करते हैं। इसे लोकप्रिय रूप से प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के रूप में जाना जाता है और इसके प्रावधानों का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 310 में किया गया है। यह एक अन्य परस्पर संबंधित और महत्वपूर्ण प्रावधान अर्थात, अनुच्छेद 311 के साथ आता है। अनुच्छेद 311 में कहा गया है कि किसी भी लोक सेवक को उसके कार्यालय से बर्खास्त, हटाया या उसके पद को कम नहीं किया जा सकता है, सिवाय उसी पद के एक व्यक्ति के अधिकार के जिस अधिकारी ने उसे नियुक्त किया था। यह प्रावधान लोक सेवकों के अधिकारों को संरक्षण और सुरक्षा प्रदान करता है, जिस तरीके से उन्हें बर्खास्त, हटाया या पद में कम किया जा सकता है। अनुच्छेद 311 में बर्खास्तगी, हटाने या पद को कम करने के लिए एक विस्तृत प्रावधान भी किया गया है। इसमें कहा गया है कि लोक सेवक को सुनवाई का उचित अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। उसे अपने मामले का प्रतिनिधित्व करने और अपने पक्ष में सबूत और गवाह पेश करने का अवसर मिलना चाहिए। इस प्रकार, अनुच्छेद 311 लोक सेवक के खिलाफ लगाए गए आरोपों पर विभागीय जांच करने के लिए एक सूची बनाता है। उसे ऐसी जांच में निष्पक्ष प्रतिनिधित्व का अवसर मिलता है और उसे अपने ऊपर लगे आरोपों के बारे में भी विस्तार से बताया जाता है। उसे एक चार्जशीट प्रदान की जाती है और अंतिम रिपोर्ट भी उसे दिखाई जाती है जहां उसे टिप्पणी और अवलोकन करने का अवसर दिया जाता है। एक पीड़ित लोक सेवक को आगे कानून की अदालत या राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण या केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (सीएटी) में अपील के माध्यम से निवारण की मांग करने का अधिकार है। ये सभी प्रावधान एक निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने और भ्रष्ट शासन और राजनीतिक घुसपैठ के खिलाफ लोक सेवकों की रक्षा करने के लिए किए गए हैं। कई न्यायिक घोषणाओं और घटनाओं ने वर्षों में कानून को आकार दिया है और सुरक्षा और निवारण तंत्र को बेहतर बनाया है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

भारतीय संविधान का कौन सा अनुच्छेद प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के बारे में बात करता है?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 310 प्रसादपर्यंत के सिद्धांत की बात करता है। इसका अर्थ है कि भारत के लोक सेवक संघ में राष्ट्रपति की इच्छा और उस राज्य में पद धारण करने के लिए किसी विशेष राज्य के राज्यपाल की संतुष्टि पर पद धारण करेंगे।

अखिल भारतीय सेवाओं को भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद के तहत परिभाषित किया गया है?

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 312 अखिल भारतीय सेवाओं के बारे में बताता है।

किस तरह के अधिकारियों को अनुच्छेद 311 के दायरे से छूट दी गई है?

रक्षा कर्मियों को अनुच्छेद 311 के प्रावधानों के दायरे से छूट दी गई है।

विभागीय जांच में क्या होता है?

एक विभागीय जांच में, नियुक्त जांच अधिकारी लोक सेवक के खिलाफ लगाए गए आरोपों की आरोप पत्र बनाता है और उसे आरोपों के बारे में विस्तार से सूचित करने के लिए आरोप पत्र सौंपता है। विभागीय जांच की कार्यवाही निष्पक्षता के साथ की जाती है और लोक सेवक को सुनवाई का उचित अवसर दिया जाता है। साक्ष्य, गवाहों और उचित जांच के बाद, जांच अधिकारी द्वारा एक अंतिम रिपोर्ट तैयार की जाती है, जो लोक सेवक को इस रिपोर्ट पर टिप्पणी या अवलोकन करने का अवसर देने के बाद, आगे की कार्रवाई के लिए उपयुक्त सरकार को प्रस्तुत की जाती है।

विभागीय जांच कार्यवाही के परिणाम के खिलाफ एक पीड़ित लोक सेवक कहाँ मुकदमा दायर कर सकता है?

एक पीड़ित लोक सेवक कानून की अदालत से निवारण की मांग कर सकता है या वे अपने मामले की अपील करने के लिए राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण या केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण तक पहुंच सकता है।

प्रसादपर्यंत का सिद्धांत देश में किस प्राधिकरण को शक्ति प्रदान करता है?

प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के तहत शक्ति और विशेषाधिकार (प्रिविलेज) का आनंद भारत के राष्ट्रपति द्वारा केंद्रीय स्तर पर और संबंधित राज्यों के राज्यपालों द्वारा अपने राज्य के लिए लिया जाता है।

क्या सरकारी कर्मचारी की सेवा से निलंबन या सरकारी कर्मचारी द्वारा ली गई अनिवार्य सेवानिवृत्ति अनुच्छेद 311 के दायरे में आ सकती है?

नहीं, सरकारी कर्मचारी की सेवा से निलंबन अनुच्छेद 311 (सुखबंस सिंह बनाम पंजाब राज्य) के प्रावधानों को लागू नहीं कर सकता है। न ही अनिवार्य सेवानिवृत्ति को अनुच्छेद 311 (श्याम लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य) के तहत गारंटीकृत संवैधानिक अधिकार के दायरे में लाया जा सकता है।

संदर्भ

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